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चतुर्थ - अध्याय १. श्रावृत्यधिकरणः– प्रथम पाद आवृत्ति सकृदुपदेशात् |४| १ | १ || तृतीय अध्याये साधनैः सह विद्या चिन्तिता । प्रथेदानीं विद्या स्वरूपविशोधनपूर्वकं विद्याफलं चित्यते । तीसरे अध्याय में साधनों के साथ विद्या पर विचार किया गया । अब विद्या के स्वरूप पर विर्मश करते हुए विद्या के फल पर विचार करते हैं । तत्र “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” - तमेव “ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति " - यदा पश्यः पश्यते विदित्वाऽतिमृत्युमेति रुक्मवणं " इत्यादि वेदांत वाक्येषु ब्रह्मप्राप्ति साधनतया विहितंवेदनं कि सकृत- कृतमेव शास्त्रार्थः उत असकृत् प्रावृत्तमिति ? संशयः, कि युक्तम् ? सकृतकृतमिति “ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति’” इति वेदनमात्रस्यैव विधानात् श्रसकृदावृत्तौ प्रमाणाभावात् । न चावघातादिबद् वेदनस्य ब्रह्मापरोक्ष्मं प्रति दृष्टोपायत्वाद्यावत् कार्यमावृत्तिरिति शक्यं वक्तुम्, वेदनस्य दृष्टोपायत्वाभावात् । ज्योतिष्टोमादि कर्मारिण, वेदांत विहितं च वेदनं परं पुरुषाराधनरूपम्, प्राराधि- ताच्च परमपुरुषात् धर्मार्थकाममोक्षाख्यपुरुषार्थावाप्तिरिति हि “फलमत उपपत्तेः” इत्यत्र प्रतिपादितम् । अतोज्योतिष्टोमादिवद यथाशब्दं सकृतकृतमेव शास्त्रार्थः ।
( १११८ ) जान कर मृत्यु का दृश्य रुक्मवर्ण को साधन रूप से जिस “ब्रह्मवेत्ता परमपद प्राप्त करता है” उसे अतिक्रमण करता है “ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है” जब देखता है” इत्यादि वेदांन वाक्यों में ब्रह्म प्राप्ति के वेदन का विधान बतलाया गया है वह एक बार कर्तव्य है अथवा बार- बार ? ऐसा संशय होने पर विचार होता है कि - " ब्रह्म को जान ब्रह्म ही होता है" इस वाक्य में एक मात्र वेदन का विधान बतलाया गया है, इसलिए एक बार की जानकारी ही विहित है, बार-बार की आवृत्ति का प्रमाण नहीं मिलता । वेदन ऐसा कोई प्रत्यक्ष उपाय तो है नहीं जिससे कि- प्रत्यक्ष ब्रह्म में उसे बार-बार स्पर्श कराया जा सके, ब्रह्म और वेदन दोनों ही परोक्ष हैं जो एक बार ही संभव हैं । ज्योतिष्टोमादि यज्ञ और वेदांत विहित वेदन दोनों ही परंपुरुष के आराधनरूप उपाय हैं, इनसे परम पुरुष की आराधना करने पर धर्म-अर्थ काम मोक्ष आदि पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है, ऐसा “फलमत उपपत्तेः " में प्रतिपादन किया गया है । अतः ज्योतिष्टोम आदि की तरह वेदन भी एक शास्त्रीय साधन ( शब्द) है जो कि एक बार ही कर्तव्य है । सिद्धान्तः - इति प्राप्ते प्रवक्ष्महे - श्रावृत्तिरसकृत् - इति । असकृदा- वृत्तमेव वेदनं शास्त्रार्थः कुतः ? उपदेशात् - ध्यानोपासनपर्यायेण वेदन- शब्देनोपदेशात् । तत्पर्यायत्वं च विद्युपास्तिध्यायतीनामेकस्मिन् विषये वेदनोपदेशपरवाक्येषु प्रयोगादवगम्यते । अथाहि - “मनो ब्रह्मेत्युपासीत्” इत्युपासनोपक्रांतोऽर्थः “भाति च तपति च कीर्त्या यशसा ब्रह्मवर्चसेन स एवं वेद” इति विदिनोपसंहियते । तथा “यस्तद् वेद यत्स वेद स मयैतदुक्तः” इत्युपक्रमे विदनोक्त रैक्वस्य ज्ञानम् “अनुम एतां भगवो देवतां शाधि यां देवतामुपास्ते” इत्यूपा- सिनोपसंहियते तथा “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” इत्यादि वाक्य समाना- थेषु वाक्येषु " आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्या- सितथ्यः " ततस्तु तं पश्यति निष्कलं तत ध्यायमानः" इत्यादिषु ध्यायतिना वेदनमभिधीयते ध्यानं च चिन्तनं, चिन्तनं च स्मृति ( १११९ ) संततिरूपम्, न स्मृतिमात्रम्, उपास्तिरपि तदेकार्थः एकाग्र चित्तवृत्तिनैरन्तर्ये प्रयोगदर्शनात् तदुभयैकार्थ्यात् श्रसकृदावृत्त सन्ततस्मृतिरिह ब्रह्मवेद “ब्रह्मैव भवति” ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्वपाशैः इत्यादिषु वेदनादिशब्दैरभिधीयते इति निश्चीयते । 7 उत मत पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं कि वेदन पुनः पुनः आवृत्ति के अर्थ में ही प्रयुक्त है । शास्त्रों में ध्यान और उपासना आदि शब्दों के पर्याय रूप से वेदन शब्द का प्रयोग किया गया है । वेदनोपदेश परक वाक्यों में, प्रायः, वेदन ध्यान और उपासना आदि शब्द, एक ही अर्थ में प्रयुक्त हैं । जैसे कि - “मनोब्रह्मेत्युपासीत” इत्यादि में जो उपासना शब्द से अभिषेय है वही “भाति च तपति च कीर्त्या यशसा ब्रह्मवर्चसेन एवं वेद” इत्यादि में वेदन शब्द से विधेय है । तथा “यस्तद वेद” इत्यादि वेद शब्द से उल्लेख्य रैक्व के ज्ञान का “अनुमएतां भगवो” में उपासना से उपसंहार किया गया है । “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” वाक्य के समानार्थक “आत्मा वा अरे दुष्टव्यः " ततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः” आदि वाक्यों में वेदन अर्थ में ध्यान शब्द का प्रयोग किया गया है। ध्यान और चिंतन समानार्थक हैं, प्रवाहमयी स्मृति को ही चिन्नन कहते हैं, केवल स्मृति को चिंतन नहीं कह सकते, उपासना शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। एकाग्रचित्तवृत्ति और निरन्तर दोनों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है इसलिए " ब्रह्मवेद ब्रह्मव भवति" “ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्वपाशैः” इत्यादि में प्रयुक्त वेदन प्रादि शब्द निरन्तर स्मृतिरूप पुनः पुनः आवृत्ति अर्थ के ही ज्ञापक हैं ऐसा निश्चित होता है । लिंगाच्च |४|१|२॥ लिंगं, स्मृतिश्चायमर्थोऽवगम्यते । स्मर्यते हि मोक्ष साधनभूतं वेदनं स्मृति संततिरूपम् " तद्रूपप्रत्ययेचैका संततिश्चान्य निस्पृहा, तद्ध्यानं प्रथमैः षड्भिरंगैर्निष्पाद्यते तथा" इति तस्माद सकृदा- वृत्तमेव वेदनं शास्त्रार्थः । लिंग का तात्पर्य है स्मृति । इसी अर्थ में स्मृति भी वेदन शब्द का प्रयोग करती है । मोक्ष की सावन रूप प्रवाहमयी स्मृति को ही स्मृति
( ११२० ) शास्त्र में भी वेदन कहा गया है, जैसे कि - " तद्रूप प्रत्ययेचैका संतति- श्चान्य निस्पृहा तद्ध्यानं प्रथमैः षड्भिरंगे निष्पाद्यते तथा" इत्यादि । इसलिए वेदन शब्द का अर्थ सकृत आवृत्ति ही निश्चित होता है । २ आत्मत्वोपासनाधिकररणः- श्रात्मेति तुपगच्छंति ग्राहयंति च |४| १ | ३ |
इदमिदानीं चित्यते किमुपास्यं ब्रह्मोपासितुरन्यत्वेनोपास्यम्, उतोपासितुरात्मत्वेन इति । कि युक्तम् ? प्रन्यत्वेनेति कुतः उपासितुः प्रत्यगात्मनोऽर्थान्तरत्वाद् ब्रह्मण: प्रर्थान्तरत्वं च " अधिकं तु भेद निर्देशात् " अधिकोपदेशात् " नेतेरोऽनुपपत्तेः" इत्यादिषूपपादितम् । यथावस्थितं च ब्रह्मोपास्यम्, प्रयथोपासने हि ब्रह्मप्राप्तिरप्ययथा- भूतास्यात्- “यथाक्रतुरस्मिन् लोके भवति तथेतः प्रेत्य भवति” इति न्यायात् । श्रतोऽन्यत्वेनोपास्यमिति । अब विचारते हैं कि - उपास्य ब्रह्म की, उपासक से भिन्न मानकर उपासना की जानी चाहिए अथवा उपासक से अभिन्न मानकर ? इस पर विचारने से मत होता है कि-भिन्न मानकर ही करनी चाहिए क्योंकि उपासक जीवात्मा की परमात्मा से स्वाभाविक भिन्नता है, " अधिकं तु भेद निर्देशात् " अधिकोपदेशात्” “नेतरोऽनुपपत्तेः" इत्यादि सूत्रों में इन दोनों की भिन्नता का समर्थन भी किया जा चुका है । ब्रह्म की उपासना एक निश्चित वस्तु है यदि उपासना को निश्चित नहीं मानेंगे तो, ब्रह्म भी अनिश्चित हो जायेगा, ऐसा ही “जैसा इस लोक में आचरण करता है वैसा ही मृत्यु के बाद होता है" इस नियय से ज्ञात होता है । इसलिए भिन्न मानकर ही उपासना करनी चाहिए । सिद्धान्तः एवं प्राप्तेऽभिधीयते श्रात्मेति तु इति । तु शब्दोऽव- धारणे, उपासितुरात्मेत्येवोपास्यम्, उपासिता प्रत्यगात्मा स्वयं स्वशरीरस्य यथा श्रात्मा, तथा स्वात्मनोऽपि परं ब्रह्मात्मेत्येवोपासो- त्यर्थः । कुतः ? एवं हि उतगच्छन्ति पूर्वे उपासितारः " त्वं वा प्रहमस्मि
( ११२१ ) भगवो देवते श्रहं वै त्वमसि " इति । उपासितुरर्थान्तरभूतं ब्रह्मोपासि- तारोऽहमिति कथनमप्युपगच्छंतीत्यत्राह ग्राहयंति च इति । इममर्थ मविरुद्धमुपासितृ न ग्राहयंति शास्त्राणि तान् प्रत्युपादयंतीत्यर्थः । सिद्धान्त - उक्त मत पर सूत्रकार कहते हैं “आत्मेति तु तु शब्द अवधारणार्थक है उपासक की आत्मा में ही उपास्य का चिन्तन करना चाहिए। उपासक जीवात्मा जैसे अपने शरीर का आत्मा है, वैसे ही उसका आत्मा, परमात्मा है जो कि उपास्य है । ऐसा ही “हे भगवोदेवते ! तू ही मै हूँ और मैंही तुम हो” इत्यादि पूर्व उपासकों के भाव से ज्ञात होता । उपासक से भिन्न परब्रह्म को उपासक, मैं हूँ ‘ऐसा कैसे कह सकता है । इस पर सूत्रकार कहते हैं “ग्राहयति च” अर्थात् उपासक का ही ऐसा भाव नहीं है अपितु इसी अर्थ का शास्त्र भी प्रतिपादन करते हैं । “य श्रात्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य श्रात्मानमंतरो यमयति स त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः” इति तथा - " सन्मूला : सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः ऐतदात्म्यमिदं “सर्वम् " सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति” इति च सर्वस्यचिदचिद्वस्तुनस्तात त्वात्तखलत्वादनत्वात्तन्नियाम्यत्वाच्छरी- रत्वाच्च सर्वस्यायमात्मा, अतः स आत्मा, अतो यथा प्रत्यगात्मनः स्वशरीरं प्रत्यात्मत्वात् “देवोऽहं मनुष्योऽहम्” इत्यनुसंधानं, तथा प्रत्यगात्मनोऽप्यात्मात्वात् परमात्मनः तस्याप्यहमित्येवानुसंधानं युक्तमिति । “जो आत्मा में स्थिर है, जिसे आत्मा नहीं जानता आत्मा ही जिसका शरीर है जो कि आत्मा का संयमन करता है वही अमृत अन्तर्यामी आत्मा है” तथा " हे सोम्य ! ये सारी प्रजा सन्मूला सदायतना और सत्प्रतिष्ठा है यह सारा जगत आत्म्य है" यह सब कुछ ब्रह्म है, उसी से उत्पन्न रक्षित और उसी में लोन है " इत्यादि वाक्यों में समस्त चिदचिद् वस्तु को उस परमात्मा से उत्पन्न रक्षित और उसी में लीन बतलाते हुए उसी से नियत और उसका शरीर स्थानीय दिख- लाया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि यह परमात्मा सब की आत्मा है ।
( ११२२ ) जैसे कि - जीवात्मा अपने शरीर का आत्मा होने के कारण “मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ” इत्यादि अनुभव करता है वैसे ही जीवात्मा अपने आत्मा परमात्मा में भी “तुम मैं हो” ऐसी अनुभूति करता है तो क्या असं- गति है । , एवं शास्त्रैरुपपादितं सर्वबुद्धीनां बकनिष्ठत्वेन सर्वशब्दानां ब्रह्मैकनिष्ठत्वमुपगच्छंतः “स्वं वा श्रहमस्मि भगवो देवते श्रहं वै त्वमसि भगवो देवते” इति व्यतिरेकेणोक्तवन्तः एवं च “अथ योऽम्यां देवतामुपास्ते ग्रन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद” - अकुत्स्नो ह्येष आस्मेत्येवोपासीत् " - " सवं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद” इत्यात्मत्वाननुसंधान निषेधः । “पृथगात्मानं प्रेरितारंच मत्वा" इति पृथक्त्वानुसंधानविधानं चाविरुद्धम् अहमिति स्वात्मतयाऽनु- संघानादन्यत्वानुसंधाननिषेधो रक्षितः, स्वशरीरात्मनोऽधिकत्वानु संधानवत् स्वात्मनोऽपि परमात्मनोऽधिकत्वानुसंधानात् पृथक्त्वानु- संधानविधानं च रक्षितम् । अधिकस्य ब्रह्मणः प्रत्यगात्मन प्रात्मत्वात्तस्य च ब्रह्मशरीरत्वात् निषेध वाक्ये “अकृत्स्नो ह्येोषः " इत्युक्तम् । अत उपासितुरात्मत्वेन ब्रह्मोपास्यमिति स्थितम् । “हे भगवो देवते ! तुम में हूँ, और में तुम हो” इत्यादि में जो व्यतिरेक भाव से अभिन्नता दिखलाई गई हैं, वह सभी बुद्धियों की ब्रह्म कनिष्ठता और सभी शब्दों की ब्रह्म कनिष्ठता परिलक्षित करती है तथा " जो देवता की भिन्न भाव से उपासना करते हुए यह विचारता है कि मैं भिन्न हूँ वह नहीं जानता” इत्यादि में आत्मत्व के अनुसंधान न करने का निषेध किया गया है । " आत्मा और प्रेरिता को पृथक मान- कर" इत्यादि में जो पृथकता के अनुसंधान का विधान बतलाया गया है वह अविरुद्ध है । अहं से किये गये अपने आत्मा के अनुसंधान से अन्यत्व के अनुसंधान का निषेध हो जाता है तथा अपने शरीर से श्रेष्ठ प्रपने आत्मा के अनुसंधान की तरह अपने आत्मा से भी श्रेष्ठ परमात्मा के अनुसंधान के विधान से पृथकता के अनुसंधान की बात भी बन जाती है । परमात्मा जीवात्मा से श्रेष्ठ है तथा जीवात्मा उसका
( ११२३ ) शरीर है, यही बात " अकृत्स्नो ह्य ेष" इत्यादि निषेध वाक्य में बतलाई गई है । इससे सिद्ध होता है कि - उपासक के आत्मा के रूप में ही ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए । ३. प्रतीकाधिकररणः- न प्रतीके न हि सः |४|१|४|| “मनो ब्रह्मेत्युपासीत् " स यो नाम ब्रह्मेत्युपास्ते " इत्यादि प्रतीकोपासनेष्वप्यात्मत्वानुसंधानं कार्यम्,, उत न ? इति चिन्तायां " मनो बह्येत्युपासीत” इति ब्रह्मोपासनत्वसाम्याद- ब्रह्मणश्चोपासितुरात्मत्वादात्मेत्येवोपासीतेति । “मन की ब्रह्मरूप से उपासना करनी चाहिए” इत्यादि में जो प्रतीकोपासना बतलाई गई हैं उनमें आत्मत्व का अनुसंधान करना चाहिए या नहीं? इस पर बिचारने पर मत होता है कि - “मनोब्रह्मत्युपासीत्” इत्यादि में ब्रह्मोपासनत्व का साम्य है इसलिए उपासक के आत्मा ब्रह्म की, मन में, आत्मा रूप से ही उपासना करनी चाहिए । सिद्धान्तः – एवं प्राप्तेऽभिधीयते-न प्रतीके - इति । प्रतीके- नात्मत्वानुसंधानं कार्यम्, न हि सः, न हि उपासितुरात्मा प्रतीकः । प्रतीकोपासनेषु प्रतीकएवोपास्यः, न ब्रह्म । ब्रह्म तु तत्र दृष्टिविशेषणमात्रम् प्रतीकोपासनं हि नाम ब्रह्मणि ब्रह्म दृष्ट्या - नुसंधानम्, तत्रोपास्यस्य प्रतीकस्योपासितुरात्मत्वाभावान्न तथाऽनुसंधेयम् । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “न प्रतीके” सूत्र प्रस्तुत करते हैं, कहते हैं कि- प्रतीक में आत्मत्व का अनुसंधान नहीं करना चाहिए, प्रतीक उपासक को आत्मा नहीं है । प्रतीकोपासना में प्रतीक ही उपास्य होता है ब्रह्म नहीं होता । उसमें तो ब्रह्मदृष्टि मात्र होती है अब्रह्म वस्तु में, ब्रह्म दृष्टि के अनुसंधान को ही प्रतीकोपासना कहते हैं । प्रतीक में आत्मत्व का अभाव है इसलिए उसमें उपासक के आत्मत्व का अनुसंधान नहीं करना चाहिए ।
( ११२४ ) नन्वत्रापि ब्रह्मैवोपास्यम्, ब्रह्मणउपास्यत्वसंभवे मन श्रादीनामचेतनानामल्पशक्तीनां चोपास्यत्वाश्रवणस्यान्याय्यत्वात् । अतो मन आदि दृष्ट्या ब्रह्म वोपास्यमिति - प्रत प्राह- (तर्क) प्रतीकों में भी ब्रह्म ही उपास्य है यदि प्रतीकों को ब्रह्म मानकर उपासना नहीं करेंगे तो मन आदि अत्यल्प शक्तिवाले अचेतनों को उपास्य मानना असंगत होगा, इसलिए मन आदि दृष्टि से ब्रह्म को ही उपास्य समझना चाहिए। इस पर कहते हैं- ब्रह्मदृष्टिरुत्कर्षात् ||४|१|५|| मनआदिषु ब्रह्मदृष्टिरेव युक्ता, न ब्रह्मणि मन आदि दृष्टि: ब्रह्मणो मन आदिभ्य उत्कर्षात् तेषां च विपर्ययात् । उत्कृष्टे हि राजनि भृत्यदृष्टिः प्रत्यवायकरी, भृत्ये तु राजदृष्टिरभ्युदयाय । मन आदि प्रतीकों में ब्रह्म दृष्टि करना ही सुसंगत है ब्रह्म में मन आदि दृष्टि करना संगत नहीं है क्योंकि ब्रह्म, मन आदि से उत्कृष्ट तत्त्व है, वह मन आदि से श्रेष्ठ व्यापक है । श्रेष्ठ राजा में भृत्य दृष्टि करना अपराध है, भृत्य में राज दृष्टि की जा सकती है वह भृत्य के उत्कर्ष की द्योतिका हैं । ४. श्रादित्यादिमत्यधिकररणः- श्रादित्यादिमतयश्चांग उपपत्तेः | ४|१|६ ॥ “य एवासौ त पति तमुद्गीथमुपासीत्” इत्यादिषु कर्मागा- श्रयेषु उपासनेषु संशयः किमुद्गीथादौ कर्मागे आदित्य दृष्टि: कर्त्तव्या उत श्रादित्यादिषु उद्गीथादि दृष्टि: ? इति । उत्कृष्ट दृष्टिनिकृष्टे कत्तव्येति न्यायात् उद्गीथादीनां च फलसाधनभूत उत्कृष्टत्वादादित्यादि- कर्मागत्वेना फलेभ्य षूद्गीथादिदृष्टिः । आदित्यादिभ्यः
( ११२५ ) “य एवासौ तपति” इत्यादि कर्मींगाश्रित उपासनाओं के कर्माग उद्गीथ आदि में आदित्य दृष्टि करना चाहिए अथवा आदित्य आदि में उद्गीथ आदि दृष्टि करनी चाहिए ? निकृष्ट में उत्कृष्ट दृष्टि करना चाहिए, इस नियम के अनुसार और कर्माग होने से फलसाधनभूत उद्गीथ आदि आदित्य आदि से उत्कृष्ट ही निश्चित होते हैं इसलिए उद्गीथ आदि दृष्टि ही समीचीन प्रतीत होती है
सिद्धान्तः - - एवं प्राप्तेऽभिधीयते- प्रादित्यादिमतयश्चांगे - इति च शब्दोऽवधारणे, क्रत्वंगे उद्गीथादावादित्यादिदृष्टय एव कार्याः, कुतः उपपत्त ेः, श्रादित्यादोनामेवोत्कृष्टत्वोपपत्त े, प्रादि- त्यादि देवताराधन द्वारेण हि कर्मणामपि फलसाधनत्वम्, अतस्त- दृष्टिरुद्गीथाद्यंगे । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से " आदित्यादिमतय” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ऋत्वंग उदगीथ आदि में आदित्य आदि दृष्टि ही करना चाहिए, प्रादित्य आदि ही उत्कृष्ट, निश्चित होते हैं। आदित्य मादि देवताओं के आराधना के द्वारा ही कर्म की फल साघनता होती है, इसलिए उद्गीथ आदि अंगों में उनको दृष्टि करना ही युक्ति युक्त है । ५. श्रासीनाधिकरणः- प्रासीनः संभवात् ॥४१॥७॥ मोक्षसाधनतया वेदांतशास्त्रविहितं ज्ञानं ध्यानोपासनादि शब्दवाच्यमसकृदावृतं संततस्मृतिरूपमित्युक्तम् । तदनुतिष्ठन्नासीनः शयानः तिष्ठन् गच्छंश्च विशेषाभावादनियमेनानुतिष्ठेत् । मोक्ष साधक होने से, वेदांत शास्त्र विहित- ध्यान उपासना आदि शब्द वाच्य ज्ञान को निरन्तर स्मृति स्वरूप अभ्यास बतलाया गया है, जो कि उठते बैठते चलते फिरते सोते, बिना किसी नियम के ही हो सकता है ।
( ११२६ ) " सिद्धान्तः – इति प्राप्त उच्यते– श्रासीनः इति । प्रासीन उपासनमनुतिष्ठेत् कुतः ? संभवात् श्रासीनस्यैव हि एकाग्रचित्तता संभवः, स्थितिगत्योः प्रयत्नसापेक्षत्वात्, शयनेन निद्रा संभवात् । पश्चार्धधारणप्रयत्ननिवृत्तये सापाश्रये प्रासीनः कुर्यात् । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं " आसीनः संभवात् " अर्थात् बैठकर ही उक्त प्रकार का अभ्यास संभव हो सकता है, बैठने पर ही चित्त की एकाग्रता हो सकती है, खड़े होकर या चलते- फिरते अभ्यास का होना तो प्रयास करने पर ही संभव हो सकता है । सोते हुए करना निद्रा के कारण संभव नहीं है। बिना किसी प्रयास और चेष्टा के अभ्यास की सिद्धि तो बैठकर ही हो सकती है, इसलिए बैठकर ही अभ्यास करना चाहिए । ध्यानाच्च |४|१|८|| J “निदिध्यासितव्यः” इति ध्यानरूपत्वादुपासनस्य, एकाग्र- चित्तताऽवश्यम्भाविनी । ध्यानं हि विजातीयप्रत्ययान्तराव्यवहित- मेकचिन्तनमित्युक्तम् । “निदिध्यासितव्यः " कहकर उपासना को ध्यान रूप बतलाया गया है, इसलिए ध्यान रूप उपासना में एकाग्रचित्तता अवश्य होनी चाहिए । ध्येय के अतिरिक्त किसी अन्य का स्मरण न होकर एकमात्र ध्येय का ही अखंड चिन्तन होना ही ध्यान कहलाता है । अचलत्वं चापेक्ष्य |४|११६ ॥ निश्चलत्वं वापेक्ष्य पृथिव्यन्तरिक्षादिषु ध्यानवाचोयुक्तिदृश्यते, “ध्यायतीव पृथवी, ध्यायतीवांतरिक्षं, ध्यायतीव द्यौः, ध्यायन्ती- वापो, ध्यायन्तीव पर्वताः” इति । अतः पृथिवीपर्वतादिवदेकाग्र- चित्ततया निश्चलत्वमुपासकस्यासीनस्यैव संभवेत् । ध्यान में निश्चलता अपेक्षित है यही बात “ध्यान करती सी पृथ्वी, ध्यान करता सा आकाश, ध्यान करता सा जल, ध्यान करते से
( ११२७ ) पर्वत” इत्यादि में दिखलाया गया है । पृथ्वी पर्वत आदि की तरह निश्चल होने पर ही उपासक में एकाग्रचित्तता संभव है जो कि बैठने पर ही हो सकती है । स्मरति च |४|१|१० ॥ स्मरंति नासीनस्यैव ध्यानं “ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमास नमात्मनः नात्युच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्” - तत्र काग्रं मनः कृत्वा यतचित्त ेन्द्रियक्रियः उपविश्यासने युञ्ज याद्योगमात्म- विशुद्धये ।" इति । स्मृति में भी बैठकर ही ध्यान करने का विधान मिलता है- “पवित्र स्थान में न अति ऊँचे न अति नीचे कुश अजिन वस्त्र वाले स्थिर आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके आत्म शुद्धि के लिए चित्त और इन्द्रियों की चेष्टाओं का संयमन करना चाहिए” इत्यादि । यत्र काग्रता तत्राविशेषात् |४|१|११|| एकाग्रतातिरिक्त देशकालविशेषाश्रवणादेकाग्रतानुकूलो योदेश: कालश्च स एवोपासनस्य देशः कालश्च । “समे शुचौ शर्करावह्नि- बालुकाविवर्जिते” इति वचनमेकाग्रतैकान्तदेशमाह, न तु देशं नियच्छति “मनोऽनुकूले” इति वाक्यशेषात् । मन की एकाग्रता के अनुकुल जो स्थान और समय हो वही उपासना का स्थान और समय है, किसी विशेष स्थान और समय का उल्लेख नहीं मिलता । “सम पवित्र कंकड़ों, बालू अग्नि आदि से रहित स्थान में” इत्यादि वाक्य में जो स्थान का निर्देश किया गया है वह एकाग्रता के अनुकूल स्थान का ही सूचक है किसी स्थानविशेष का निर्धारक नहीं है । उक्त वाक्य के अन्त में “मनोऽनुकूले” कह कर उक्त आशय को स्पष्ट कर दिया गया है।
६. आप्रारणाधिकरणः- ( ११२८ ) आप्रारणात्तत्रापि हि दृष्टम् |४|१|१२|| तदिदमपवर्गसाधनमुक्तलक्षणमुपासनमेकाह एव संपाद्यम्, उत् श्राप्रयाणात्प्रत्यहमनुवर्त्तनीयम् ? इति विशये, एकस्मिन्नेवाहनि शास्त्रार्थस्य कृतत्वात्तावतैव परिसमापनीयम् । मोक्ष साधक यह उपासना एक दिन ही करना चाहिए या जीवन पर्यन्त करनी चाहिए ? इस संशय पर मत होता है कि एक बार ही शास्त्र के अर्थ के द्वारा समझ कर उपासना कर लेना चाहिए बार बार करने की क्या आवश्यकता है ? सिद्धान्तः – इति प्राप्त उच्यते- श्राप्रयाणात् - इति श्रामरणा- दनुवसं नीयम्, कुतः ? तत्रापि हि दृष्टम्, उपासनोद्योग प्रभृत्या- प्रयाणान्मध्ये यः कालः तत्र सर्वत्रापि दृष्टमुपासनम् " स खल्वेवं- वर्त्तयन् यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसंपद्यते ।" इति । उक्त मत पर सूत्रकार कहते हैं कि मृत्युपर्यन्त उपासना करनी चाहिए, शास्त्रों में, साधना को जब से प्रारंभ करो तब से लेकर मृत्यु- पर्यन्त करो, ऐसा उल्लेख मिलता है " वह साधना का आश्रय लेकर जीवन व्यतीत कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है", इत्यादि । ७. तदधिगमाधिकरणः तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविना शौतद्रव्यपदेशात् |४|१|१३|| एवं विद्या स्वरूपं विशोध्य विद्याफलं चिन्तयतुमारभते । ब्रह्मविद्या प्राप्तौ पुरुषस्योत्तरपूर्वाषयोर श्लेषविनाशौ श्र येते - " तदद्यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यंते एवमेवंविदि पापं कर्म न रिलष्यन्ते" तस्यैवाऽत्मा पदवितं विदित्वा न कर्मणा लिप्यते पापकेन " इत्युत्तराधाश्लेषः " तद्यथेषीकतूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैवं ( ११२६ ) हास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते" क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे" इति पूर्वाधविनाशः । एतावश्लेषविनाशौ बिद्याफल- भूताबुपपद्येते नेति ? संशयः । विद्या के स्वरूप पर विचार कर अब विद्या के फल पर विचार प्रारंभ करते हैं । ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होने पर उपासक के आगत और अतीत पापों का अस्पर्श और विनाश बतलाया गया है- " जिसे जानने वाले से पापों का वैसे ही श्लेष नहीं होता जैसे कि कमलपत्र से जल का संबंध नहीं होता" उस आत्म तत्व को जानने वाले के कर्म पाप से लिप्त नहीं होते" इत्यादि में आगत पापों का अश्लेष बतलाया गया है । " जैसे कि सींक का अगला भाग अग्नि में घुसाते ही भस्म हो जाता है वैसे ही उपासक के सारे पाप भस्म हो जाते हैं" उस परावर तत्त्व को जान लेने पर उपासक के सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं" इत्यादि में अतीत पापों के विनाश की बात आई है । इस पर संशय होता है कि यह पापों का अश्लेष और विनाश विद्या के फल स्वरूप होता है या नहीं ? कि युक्तम् ? नोपपद्येते इति, कुतः ? “नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि” इत्यादि शास्त्रविरोधात् । प्रश्लेषविनाथ व्यपदेशस्तु मोक्षसाधनभूत विद्याविधायिवाक्यशेषगतः कथचद विद्यास्तुति प्रतिपादनेनाप्युपपद्यते । न च विद्या पूर्वोत्तराधयोः प्रायश्चित्ततया विधीयते येन प्रायश्चित्तेनाध विनाशउच्यते । विद्याहि “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति" इति ब्रह्मप्राप्त्युपायतया विधीयते । प्रतो विद्यार्थवादोऽयमघविनाचा- श्लेषव्यपदेश इति । उक्त संशय पर मत होता है कि-विद्या से अश्लेष विनाश नहीं हों सकता “बिना भोगे करोड़ों कल्पों में भी कर्म का क्षय नहीं हो सकता” इस शास्त्र वाक्य से ऐसा ही ज्ञात होता है । मोक्ष को साधन स्वरूप विद्या के विश्लेष वाक्यों के अंत में, पाप के अश्लेष विनाश की बात आई है, जो कि - विद्या की प्रशंसा के लिए कही गई प्रतीत होती है । आगत अतीत पापों का प्रायश्चित्त विद्या से होता है, ऐसा विधान बतलाया
( ११३० ) गया हो, यह समझ में नहीं आता । बिद्या को तो, ब्रह्म प्राप्ति के उपाय रूप से “ब्रह्मविदाप्नोतिपरं” इत्यादि वाक्यों में बतलाया गया है। इसलिए विद्या से होने वाले पापों के अश्लेष विनाश की बात को अर्थवाद मात्र मानना चाहिए । सिद्धान्तः – एवं प्राप्तेऽभिधीयते - तदधिगमे इति । विद्याप्राप्तौ पुरुषस्य विद्या माहात्म्यादुत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशावुपपद्येते, कुतः एवंविधं हि विद्यामाहात्म्यवगम्यते " एवं विदि पापं कर्म न श्लिष्यते" “एवं हास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयंते” इत्यादि व्यपदेशात् । उक्त मत पर सूत्रकार सिद्धान्त रूप से - " तदधिगमे" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं; वे कहते हैं कि-विद्या की प्राप्ति हो जाने पर उपासक के सारे पापों का संश्लेष समाप्त हो जाता है जो कि विद्या का ही माहात्म्य है । शास्त्रों में विद्या का ऐसा ही माहात्म्य वर्णन किया गया है- “ऐसा जानकर पाप कर्म से आश्लिष्ट नहीं होता" उसके सारे पाप भस्म हो जाते हैं" इत्यादि । न च - " नाभुक्त क्षीयते कर्म" इत्यनेन शास्त्रेणास्य विरोधः, भिन्नविषयत्वात् । तद् हि कर्मणां फलजननसामर्थ्यद्रढिमविषयम्, एतत्तत्पन्नाया विद्यायाः प्राक्कुतानां पाप्मनां फलजननशक्तिविनाश सामर्थ्यमुत्पस्यमानानां च फलजननशक्त्युत्पत्तिप्रतिबंध करण सामथ्यं च प्रतिपादयतीति द्वयोर्विषयोर्भिद्यते । यथा श्रग्निजलयो रौष्ण्यतन्निवारणसामर्थ्याविषययोर्द्वयोः प्रमाणयोरपि विषयभेदात् प्रामाण्यम्, एवमत्रापीति न कश्चिद् विरोधः । “बिना भोग के कर्मों का क्षय नहीं होता” इस शास्त्र वाक्य से उक्त वाक्य का विरोध भी नहीं होता, क्योंकि दोनों भिन्न विषयक वाक्य हैं । यह वाक्य, कर्मों की फलजनन शक्ति की महत्ता का द्योतक है तथा " पापभस्म हो जाते हैं" इत्यादि वाक्य, विद्या की उत्पत्ति होने पर, अतीत पापों की फलजनन शक्ति के विनाश तथा भागत पापों को फल- जनन शक्ति के प्रतिरोध की सामर्थ्य का प्रतिपादन करता है । इस प्रकार दोनों वाक्य भिन्न विषयक हैं। जैसे कि सग्नि और जल की उष्णता चौर
( ११३१ ) शीतलता को प्रमाणित करने वाले, प्रमाणों के विषय में भेद होने से उदाहरणों में विभिन्नता होती है वैसे ही उक्त वाक्यों के विषय में भेद है, इसलिए इनमें परस्पर विरुद्धता का प्रश्न ही नहीं उठता । श्रघस्याश्लेषक रणं-वैदिककर्मायोग्यतावासनाप्रत्यवाय हेतु शक्त- युत्पत्ति प्रतिबंधकरणम् । अधानि हि कृतानि पुरुषस्य वैदिक कर्मायोग्यतां सजातीयकर्मान्तरारंभरुचि, प्रत्यवायं च कुर्वन्ति । श्रघस्य विनाशकरणं - उत्पन्नायास्तच्छक्त विनाशकरणम् । शक्तिरपि परंपुरुषाप्रीतिरेव । तदेवं विद्या वेदितुर्वेद्यात् श्रथंप्रियत्वेन स्वयमपि निरतिशय प्रिया सती वेद्यभूतपरमपुरुषा राधन स्वरूपा पूर्वं कृताघसंचयजनित परंपुरुषाप्रीति विनाशयति, सैव विद्या स्वोत्पत्त्युत्तरकालभाव्यधनिमित्तपरं पुरुषाप्रीत्युत्पर्त्ति च प्रतिबध्नाति । तदिमष्लेषवचनं प्रामादिकविषयं मंतव्यम् । “नाविरतो दुश्चरितात्” इत्यादिभिः शास्त्रे राप्रयाणादहरुत्पद्यमानाया उत्तरोत्तरातिशय- भागिन्याः विद्यायाः दुश्चरितविरतिनिष्पाद्यत्वावगमात् । वैदिक कर्मों की ओर से मन को हटाने वाली वासना ही इतनी प्रबलतम शक्ति है जो कि पापों की ओर उन्मुख करती है, उसी के वशीभूत होकार मनुष्य पापों से आश्लिष्ट होते हैं । पापों से मनुष्य, वैदिक कर्मों के प्रति घृणा का भाव तथा पाप कर्मों के प्रति अभिरुचि एवं प्रमाद करने लगता है। ऐसा पाप के विनाश का तात्पर्य है, उस पाप से होने वाली शक्तिशाली प्रवृत्ति का विनाश होना । परमात्मा के प्रति होने वाली अनास्था ही पाप जन्य शक्तिशाली प्रवृत्ति है। ब्रह्म विद्या ऐसी शक्तिशाली बूटी है जो कि आनन्दमयी प्रणाली से परमात्मा के प्रति होने वाली अनास्था का निवारण करके जो कि अतीत पापों के फलस्वरूप होती है, आगत पापों से संभाव्य अनास्था का भी, संहार करें देती है । इस प्रकार विद्यां का फल बतलाने वाला जो अश्लेषवचन है वह, प्रमाद के निवारण की बात बतला रहा है यही मानना चाहिए । “नाविरतो दुश्चरितात्” इत्यादि शास्त्र वचन से, जीवन पर्यन्त अनुष्ठित
( ११३२ ) विद्या के प्रभाव से उत्तरोत्तर दुश्चरितों से छुटकारा मिलता है, यही भाव दिखलाया गया है | ८ इतराधिकररणः- इतरस्याप्येवम संश्लेषः पाते तु |४| १ | १४ ॥ , उत्तरपूर्वाघयोविंद्यया प्रश्लेषविनाशावुक्तौ इतरस्यपुण्यस्यापि एवम् उक्तनन्यायेनाश्लेषविनाशौ विद्ययास्याताम्, विद्याफल विरोधित्व सामान्यादव्यपदेशाच्च । भवति च व्यपदेशः, उभेसुकृत- दुष्कृते निर्दिश्य “सर्वे पाप्मानोऽतो निवर्त्तन्ते” इति, “तत्सुकृतदुष्कृते- धुनुते” इति च । मुमुक्षोरनिष्टफलत्वात् सुकृतस्यापि पाप्मशब्देन व्यपदेशः । सुकृतस्यापि शास्त्रीयत्वात्तत्फलस्य केषांचिदिष्टदर्शनाच्च विद्याया श्रविरोध शंकां निवर्तयितुमतिदेशः । ननु विदुषोऽपि सेतिकर्तव्यता कोपासननिर्वृत्तयेवृष्ट्यन्नादि फलानीष्टान्येव, कथं तेषां विरोधात् विनाश उच्यते ? तत्राह " पाते तु" इति । शरीरपाते तु तेषां विनाशः, शरीरपातादूध्वं तु विद्यानुगुणदृष्टफलानि सुकृतानि नश्यंति, इत्यर्थः । आगत् और प्रतीत पापों के अश्लेष और विनाश की बात कह दी गई। ऐसी ही पुण्य की भी व्यवस्था है, उसी नियम से विद्या के द्वारा आगत अतीत पुण्यों का अश्लेष विनाश होता है शास्त्रों में पुण्य को भी मोक्ष का विरोधी बतलाया गया है । सुकृत और दुष्कृत दोनों का निर्देश करते हुए बतलाया गया कि उसके सारे पाप विद्या से निवृत्त हो जाते हैं “वह सुकृत दुष्कृत दोनों का परित्याग कर देता है” इत्यादि । मुमुक्षु के लिए पुण्य भी अनिष्टकारी होते हैं, इसलिए उन्हें भी पाप शब्द से निर्देश किया गया है । शास्त्रीय पुण्य कर्मों का उत्तम फल होता है इसलिए किसी प्रकार वे विद्या के सहकारी हो सकते हैं, ऐसी शंका के निवारण के लिए “सुकृतदुष्कृतेध नुते” ऐसा विशेष निर्देश करा गया है ।
( ११३३ ) (शंका) उपासक के भी कर्त्तव्य रूप से अनुष्ठित पुण्य कर्म प्रति- फलित होते देखे जाते हैं और इष्ट से प्रतीत होते हैं, उन्हें विरोधी कैसे कह सकते हैं, यदि वह विरोधी हैं तो उनका विनाश कब होता है? इस पर सूत्रकार कहते हैं " पाते तु" अर्थात् शरीरपात हो जाने पर उनका विनाश हो जाता है, शरीरपात के बाद उन पुण्यों का विनाश होता है जो कि विद्या के अनुरूप प्रत्यक्ष फल देते हैं । ६ अनारब्धकार्याधिरण:– श्रनारब्ध कार्ये एव तु पूर्वे तदवधे ः ४|१|१५|| ब्रह्मविद्योत्पत्तेः पूर्वोत्तरभाविनोः सुकृतदुष्कृतयोरश्लेषवि- नाशावुक्तौ ततः पूर्वभाविनोः सुकृतदुष्कृतयोः किमविशेषेण विनाशः, उतानारब्धकार्ययोरेव ? इति विशये “सर्वेपाप्मान: प्रदूयंते " इति विद्याफलम्या विशेषश्रवणात् विद्योत्पत्युत्तर काल भाविन्याश्च शरीरस्थिते: कुलालचक्रभ्रमणादिवत् संस्कारवशादप्युपपत्ते- रविशेषेण । * ब्रह्मविद्या की उत्पत्ति से आगत अतीत सुकृतदुष्कृतों का अश्लेष विनाश बतला दिया गया। अब संदेह होता है कि सभी पापपुण्यों का अश्लेष विनाश होता है अथवा जिनका फल अभी प्रारंभ नहीं हो पाया है उन्हीं का होता है? इस पर मत होता है कि - “सभी पाप भस्म हो जाते हैं” इस वचन से ऐसा ही ज्ञात होता है कि - विद्या से सभी पापपुण्य का विनाश हो जाता है, जैसे कि कुम्हार का चक्का चलता है तब सभी कुछ उसमें भ्रमित होता रहता है वैसे ही विद्योत्पत्ति के बाद होने वाले सभी आरब्ध अनारब्ध पुण्यपाप, विद्या संस्कार के वश विनष्ट हो कर कुम्हार निर्मित नूतन पात्र की तरह हो जाते हैं । सिद्धान्तः – इति प्राप्ते उच्यते–मनारब्ध कार्ये एव तु पूर्वे – इति, विद्योत्पत्त ेः पूर्वे सुकृतदुष्कृते अनारब्धकार्ये श्रप्रवृत्तफले एव विद्ययाविनश्यतः, कुतः ? तदवघे, “तस्यतावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये प्रथसंपत्स्ये” इति शरीरपातविलम्बावविश्रुतेः न च
( ११३४ ) पुण्यकर्मजन्य भगवत्प्रीत्यप्रीतिव्यतिरेकेण संस्कारसद्भावे प्रमाणमस्ति । शरीरस्थितिहेतुभूत उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत किया गया " अनारब्ध कायें एवतु पूर्वे" अर्थात् विद्या से उन्हीं का विनाश होता है जो कि- विद्योत्पत्ति के पूर्व के हैं जिन्य पुण्यपापों का फल अभी प्रारंभ नहीं हुआ है । जो कर्म फल दे रहे हैं उनके विनाश की अवधि बतलाई गयी है । " उनके विनाश में तभी तक की देर है जब तक इस शरीर से मुक्ति नहीं मिलती” इस शरीर पात विलम्बावधि बोधक श्रुति से उक्त बात निश्चित होती है । शरीर में विद्या संस्कार से समुत्पन्न संस्कारों को, पुण्य पाप जन्य भगवत् प्रीति अप्रीति के आधार पर प्रमाण नहीं माना जा सकता, इस विषय में तो शास्त्र ही प्रमाण है । १०. अग्निहोत्राद्यधिकरणः- अग्निहोत्रादि तु तत्कार्यायैव तद्दर्शनात् | ४|१|१६॥ “इतरस्याप्येवमसंश्लेषः” इति विद्याबलात सुकृतस्याप्य - संश्लेष उक्तः अग्निहोत्रादीनां नित्यनैमित्तिकानां स्वाश्रमधर्मारणा- मपि सुकृतत्वसामान्येन तत्फलस्याश्लेषादनिच्छतोऽनुष्ठाने । “इतरस्याप्यसंश्लेषः " सूत्र से बतालाया गया कि - विद्या के प्रभाव से पुण्यों का भी असंश्लेष हो जाता है । यदि ऐसा ही है तो नित्य नैमित्तिक अग्निहोत्रादि आश्रमधर्म जो कि पुण्य कर्म ही हैं उनका भी असंश्लेष होगा, तो उसके अनुष्ठान में प्रवृत्ति ही क्यों होगी ? शब्द: सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - " अग्निहोत्रादि तु” इति । तु सुकृतान्तरेभ्यो विशेषणार्थः, अग्निहोत्रादिश्राश्रमधर्माः फलाश्लेषासंभवादनुष्ठेया एव तदसंभवश्च तत्कार्यार्थत्वात्तेषाम् विद्याख्य कार्यायैव हि विदुषोऽग्निहोत्राद्यनुष्ठानम् । कथमिदमवग- म्यते ? तद्दर्शनात् दृश्यते हि - " तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन” इत्यादिनाऽग्निहोत्रा- दीनां विद्यासाधनत्वम् । विद्यायाश्चाप्रयाणादभ्याससाधेयातिशयाया
( ११३५ ) अहरहरुत्पाद्यत्वात्तदुत्पत्त्यर्थमाश्रमकर्माप्यह रहरनुष्ठेयमेव श्रन्यथा- श्रमकर्मलोपे दूषितान्तः करणस्य विद्योत्पत्तिरेव न स्यात् । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से अग्निहोत्रादि तु इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । अर्थात् श्रग्निहोत्र आदि श्राश्रम धर्मों के फल का असंश्लेष नहीं होता इसलिए उनका अनुष्ठान करना चाहिए, उनका फल विद्या कार्य में सहयोगी ही होता है इसलिए विद्वान उपासक उनका अनुष्ठान करते हैं । “यज्ञ दान तप द्वारा वे परमात्मा को जानने की इच्छा करते हैं इत्यादि वाक्यों में अग्निहोत्रादि को विद्या का साधक बतलाया गया है जीवन पर्यन्त किये जाने वाले विद्या के अभ्यास में, अग्निहोत्रादि कर्मों से उत्कर्ष ही होता है इसलिए आश्रम कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए यदि आश्रम कर्मों का लोप हो जायेगा तो उससे अन्तःकरण दूषित होगा, जिससे विद्योत्पत्ति हो ही नहीं सकेगी । यदि अग्निहोत्रादि साधुकृत्या विद्योत्पत्यर्थाः, विद्योत्पत्तेः प्राचीनं च सुकृतं " यावत्संपातमुषित्वा” प्राप्यातं कर्मणः " इत्यनु- भवेन विनष्टम्, भुक्तशिष्टं च प्रारब्धफलं “सुहृदः साधुकृत्याम्, इत्यस्य को विषयः ? तत्राहः- (शंका) यदि अग्निहोत्रादि पुण्यकर्मों को विद्योत्पत्ति का सहायक मान लेंगे और अतीत पुण्यों को विद्या से विनष्ट मान लेंगे तथा प्रारब्ध फल को शरीरपात तक भोग्य मान लेंगे तो “पुण्य कर्म मित्र को मिलते हैं” इत्यादि वाक्य किन कर्मों के लिए कहा गया है ? इसका उत्तर देते हैं- अतोऽन्यापि हि एषामुभयोः | ४|१|१७|| अतः – अग्निहोत्रादि साधुकृत्यायाः विद्योत्पत्यर्थायाः श्रन्यापि दिद्याधिगमात् पूर्वोरारयोरुभयोरपि पुण्यकर्मणोः प्रबलकमं प्रतिबद्ध साधुकुत्याऽनन्तासंभवत्येव तद्विषयमिदमेकेषां शाखिनां वचनं " तस्य पुत्रा दायमुपयंति सुहृदः साधुकृत्याम्” इति । विद्यया अश्लेषविनाश श्रुतिश्च तद्विषया । फला
( ११३६ ) अग्निहोत्रादि विद्योत्पत्ति के सहायक पुण्यकर्मों से भिन्न विद्या प्राप्ति के पहिले और बाद के पुण्य कर्मों के फल को भी बाध करने वाले कुछ ऐसे प्रबलतम फल दायक कर्म होते हैं जो कि विद्याभ्यास से अवरुद्ध नहीं होते. उन्हीं के लिए वेद की एक शाखा में कहा गया कि- “उस उपासक का दायभाग तो पुत्र प्राप्त करते हैं और पुण्य कार्य मित्र प्राप्त करते हैं । विद्या से अश्लेष विनाश को बतलाने वाली श्रुति तो उक्त विषयक ही है । अनुष्ठितस्यापि कर्मणः फलप्रतिबंधसंभवं पूर्वोक्त स्मारयति- अनुष्ठित कर्मों की फलावरोध की बात का पुन: उल्लेख करते हैं- यदेव विद्यमेति हि |४|१|१८|| “यदेव विद्याया करोति तदेव वीर्यवत्तरम्” इत्युद्गीथ विद्यायाः क्रतुफलाप्रतिबन्ध फलत्ववचनेनानुष्ठितस्यापि कर्मणः फलप्रतिबंधः सूच्यते हि । अतो विदुषोऽनुष्ठितप्रतिबद्ध फलविषयं “सुहृदः साधुकृत्याम्” इति शाट्यायनकम् । " जो विद्या से किया जाता है वह प्रबलतम होता है” इस उद्गीथ विद्या के यज्ञफल की प्रबलता को बतलाने वाले वचन से अनुष्ठित कर्म की प्रबलता ज्ञात होती है । ऐसे प्रबलतम शुभ कर्मों की प्राप्ति की बात ही “सुहृदः साधुकृत्याम्” में कही गई है । अर्थात् उपासक विद्या के अभ्यास से मुक्त हो जाता है, पर जो अनुष्ठान करता है उसका पुण्य उसे जन्म के चक्र में नहीं डालता उसके (आश्रम धर्मों का) पुण्य सुहृदों को मिल जाता है | ११ इतरक्षपरणाधिकरण :– भोगेन त्वितरे क्षपयित्वाऽथ संपद्यते |४|१|१६|| ययोः पुण्यपापयोरश्लेषविनाशावुक्तौ, ताभ्यामितरे श्रारब्धकार्ये पुण्यपापे कि विद्यायोनिशरीरावसाने, उत तच्छरीरावसाने शरीरान्तरावसाने वा इत्यनियम: ? इति संशये “तस्यतावदेव चिरं
यावन्न विमोक्ष्ये” इति दवसाने । ( ११३७ ) तच्छरीरविमोक्षावसानत्व श्रवरणात्त- जिन पुण्य पापों के अश्लेष विनाश की बात कही गई उनसे भिन्न जो प्रारब्ध पुण्य पाप हैं जो कि मुक्त होने पर ही छूटते हैं वे कब छूटते हैं ? क्या वे इस शरीर के समाप्त होने पर छट जाते हैं जिससे विद्या प्राप्त की गई अथवा अन्य शरीर धारण करके भोगने पर छूटते हैं अथवा इसका कोई नियम नहीं है ? इस संशय पर मत होता है कि- “तस्यताव- देव चिरं” से तो ऐसा ज्ञात होता है कि- विद्या प्राप्त होने वाले शरीर से होने वाली उपासना के साथ साथ ही उनसे छटकारा मिल जाता है । व्यावृत्यर्थः, सिद्धान्तः - - इति प्राप्त उच्यते-भोगेन तु इति । तु शब्दः पक्ष इतरेप्रारब्धकार्ये पुण्यपापे स्वारब्धफलभोगेन क्षपयित्वा तत्फलभोगसमाप्त्यनंतरं ब्रह्म संपद्यते, ते च पुण्यपापे एकशरीरोपभोग्य फलेचेत् तच्छरीरावसाने संपद्यते, अनेकशरीर- भोग्यफले चेत् तदवसाने संपद्यते, भोगेनैव क्षपयितव्यत्वादारब्ध- फलयोः कर्मणोः । " तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये" इति च भोगेन तयोः कर्मणोः विमोक्ष उच्यते देहावधि नियमा- श्रवणात् । तदेवं ब्रह्मविद्यायाः प्रागनुष्ठितमभुक्तफलमनारब्धफलं पुण्यपापरूपं कर्मानादिकालसंचितमनंतं विद्यामाहात्म्याद विनश्यति, विद्यारम्भोत्तरकालमनुष्ठितं च न श्लिष्यति, तत्र पुण्य रूपं सर्वविदुषः निरवद्यम् । सुहृदो गृह रान्ति, पापं सुहृदो गृह, रान्ति, पापं च द्विषन्त इति उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से " भोगेन तु" सूत्र प्रस्तुत करते हैं सूत्र में तु शब्द पक्ष का व्यावर्तक है । इतर जो प्रारब्ध पुण्य पाप के फल हैं वह अपने प्रारंभ फल भोग की समाप्ति होने पर ही छटते हैं
( ११३८ ) तभी मोक्ष होता है । वे पुण्य पाप यदि एक शरीर में भोगने योग्य होते हैं तो उस शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं और यदि अनेक शरीरों में भोगने योग्य होते हैं तो मुक्त होने पर अन्य शरीरों के अवसान पर छटते हैं प्रारब्ध पुण्य पाप कर्मों के फल भोग की बात कही गई है, देह की अवधि का नियम तो बतलाया नहीं गया है । इस प्रकार निश्चित होता है कि- ब्रह्मविद्या के प्रथम किये गये जो कर्म हैं जिनका कि फल आरंभ नहीं हुआ है वे, अनादि काल संचित पुण्य पाप कर्म, विद्या के प्रभाव से बिना फलोपभोग के ही नष्ट हो जाते हैं, तथा विद्या प्राप्ति के बाद होने वाले जो भावी पुण्य पाप कर्म हैं उनका फल ही उपासक से आश्लिष्ट नहीं होता अपितु विद्या प्राप्ति के बाद वह जो कुछ भी शुभ कर्म करता है उसका फल उसके भित्रों को तथा अशुभ कर्मों का फल उसके शत्रुओं को प्राप्त होता है । चतुर्थ अध्याय प्रथम पाद समाप्त
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१ वागाधिकरणः- चतुर्थ अध्याय द्वितीय पाद वाङ्मनसि दर्शनाच्छन्दाच्च | ४|२१|| इदानीं विदुषो गतिप्रकारं चिन्तयितुमारभते । प्रथमं तावदु- तक्रांतिश्चिन्त्यते । तत्रेदमाम्नायते “अस्य सौम्य पुरुषस्य प्रयतो वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे प्राणस्तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम् " इति । प्रत्र " वाङ्मनसि संपद्यते " इति वाचों मनसि संपत्तिश्रुतिः । कि वाग्वृत्तिमात्रविषया, उत वाग्विषया? इति विशये वृत्तिमात्र विषयेति युक्तम् कुतः ? मनसोवाक् प्रकृतित्वाभावात्तत्र वाक्स्वरूप- संपत्त्यसंभवात् । वागादिवृत्तीनां मनोऽधीनत्वेन वृत्तिसंपत्तिश्रुतिः कथंचिदुपपद्यत इति । अब उपासक की गति के प्रकार का विचार प्रारंभ करते हैं पहिले उत्क्रांति पर विचारेंगे । श्रुति है कि - " हे सौम्य ! इस उपासक के जाते समय बाणी मन से मन प्राण से, प्राण तेज से और तेज पर देवता से संलग्न होता है ।” इसमें जो कहा गया कि “वाणी मन से संलग्न होती है” सो यह कथन वाणी की वृत्ति मात्र के लिए है या वाणी के लिए है ? इस पर विचारने से तो ऐसा मत होता है कि वृत्तिमात्र के लिए ही है, क्योंकि मन में वाक् प्रकृति का अभाव है इसलिए वाणी का स्वरूप तो उसमें संलग्न हो नहीं सकता, वाणी आदि की वृत्तियाँ मन के अधीन रहती हैं, इसलिए, वृत्ति की संलग्नता की बात ही किसी जा सकती है । प्रकार मानी
( ११४० ) एवं प्राप्तेऽभिधीयते वाङ्मनसि इति । वाक्स्वरूपमेव मनसि संपद्यते । कुतः ? दर्शनात् दृश्यते हि वागिन्द्रिय उपरतेऽपि मनः प्रवृत्तिः । वृत्तिमात्र संपत्त्यापि तदुपपद्यत इति चेत् तत्राह शब्दाचेति “वाङ मनसि संपद्यते " इति वाक्स्वरूप संपत्तावेव हि शब्दः, न वृत्तिमात्र संपत्तौ । नहि तदानीं वृत्त्युपरमे वागिन्द्रयं प्रमाणा- न्तरेणोपलभ्यते, येन वृत्तिमात्रमेव संपद्यत इत्युच्येत । यदुक्तं मनसो वाक् प्रकृतित्वाभावादवाचो मनसिसंपत्तिर्नोपपद्यत इति, तत् " वाङ्मनसि संपद्यते " इति वचनान्मनसा वाक् संयुज्यते न तु तत्र लीयत इति परिहर्तव्यम् । उक्त मत पर “वाङ् मनसि " सूत्र कहते हैं । अर्थात् वाणी का स्वरूप ही मन से संलग्न होता है । ऐसा देखा भी जाता है कि - वागिन्द्रय के उपरत होने पर भी मन की प्रवृत्ति बनी रहती है । यदि कहें कि वह तो वृत्तिमात्र की संलग्नता में भी रहती है? इस पर सूत्रकार कहते हैं “शब्दा- च्च” अर्थात् शास्त्र का भी यही कथन है “वाङ्मवसि” में स्पष्ट रूप से वाणी के स्वरूप का उल्लेख किया गया है, वृत्ति की चर्चा भी नहीं है । यह नहीं कह सकते कि वृत्ति का स्पष्ट उल्लेख नही है पर वृत्ति का भाव निहित है; ऐसा तो तभी माना जा सकता है जबकि कहीं अन्यत्र भी वृत्तिमात्र के संलग्न होने की चर्चा आई हो, सभी जगह वाणी की संलग्नता का ही उल्लेख हैं । जो यह कहा कि मन में वाक् प्रकृतित्व का अभाव है इसलिए मन में वाणी की संलग्नता संभव नहीं है, सो “वाङ मनसि संपद्यते " में वाणी का मन में संयोग मात्र ही बतलाया गया है, लीन होने की बात नहीं कही गई है । अतएव सर्वाण्यनु | ४|२२|| यतो वाचो मनसा संयोगमात्रं संपत्तिः, नतु लयः, अतएव वाचमनु सर्वेषामिन्द्रयाणां मनसि संपत्तिश्रुतिरुपपद्यते " तस्मादुप- शान्ततेजा श्रपुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि संपद्यमानैः " इति ।
( ११४१ ) जैसे कि वाणी का मन से संलग्न मात्र होना संपत्ति बतलाया गया, लय होना नहीं कहा गया, बैसे ही वाणी के पीछे सभी इन्द्रियों का मन में संलग्न होना श्रुति से ही ज्ञात होता है " इस प्रकार तेज के संलग्न हो जाने पर इन्द्रियों सहित सब के मन में संलग्न हो जाने पर " इत्यादि । २ मनोऽधिकरणः । तन्मनः प्रारण उत्तरात् |४|२|३|| तत्-सर्वेन्द्रियसंयुक्तं मनः प्राणे संपद्यते - प्राणेन संयुज्यते, न मनोवृत्तिमात्रम्, कुतः ? उत्तरात्-” मनः प्राणे " इति वाक्यात् । फिर सभी इन्द्रियों से संसक्त वह मन प्राण में मिल जाता है | " मनः प्राणे” इस उत्तर वाक्य से ज्ञात होता है कि मन ही संसक्त होता है, मनोवृत्तिमात्र का ही संयोग नहीं होता । ’ अधिकाशंका तु - “असमयं हि सोम्य मनः” इति वचनान्मन- सोऽन्न प्रकृतित्त्वमवगम्यते, अन्नस्य च “ता श्रन्नमसृजंत” इत्यन्न- मयत्वं सिद्धम् " आपोमयः प्राणः” इति चाप्प्रकृतित्वं प्राणस्यावगम्यते, अतो मनः प्राणे संपद्यत इत्यत्र प्राणशब्देन प्राणप्रकृतिभूता अपोनिर्दिश्य तासु मनः संपत्ति प्रतिपादने परम्परया स्वकारणे लय इति संम्पत्तिव चनमुपन्नं भवति - इति । इस पर विशेष शंका होती है कि “हे सोम्य! मन अन्नमय है” इस वचन से मन का अन्न प्रकृतित्व ज्ञात होता है “ता अन्नवसृजंत’ से उनकी अन्नमयता सिद्ध होती है । इसी प्रकार” प्राण जलमय हैं इस वचन से प्राण का जल प्रकृतित्व ज्ञात होता है । जो मन की प्राण में संलग्नता बतलाई गई, उसमें प्राण शब्द से प्राण प्रकृति रूप जल का निर्देश करके उसमें मन की संलग्नता दिखालाई गई उससे तो परम्परा से अपने कारण में लय की बात ही संपत्ति द्वारा दिखलाई गई प्रतीत होता है । परिहारस्तु - “अन्नमयं हि सोम्य मनः प्रापोमयः प्राणः” इति मनः प्राणयोरन्तेनाभिश्चाप्यायनमुच्यते, न तत्प्रकृतित्त्वं, आई-
( ११४२ ) कारिकत्वान्मनसः श्राकाशविकारत्वाच्च प्राणस्य । प्राणशब्देन अपां लक्षणा च स्यात् - इति । समाधान - " हे सौम्य ! मन अन्नमय और प्राण जलमय हैं" इत्यादि वाक्य में मन और प्राण का अन्न और जल से संसर्ग बतलाया गया है, अन्न और जल को उनकी प्रकृति नहीं कहा गया है, आहंकारिक होने से मन का अन्नमय होना तथा आकाश के विकार से होने के कारण प्राण का जलमय होना कहा गया है । प्राण शब्द से जल में लक्षरगा है, प्राण का अभिधार्थ जल नहीं है । ३ अध्यक्षाधिकरणः - सोऽध्यक्षे तदुपगमादिभ्यः | ४|२|४|| यथा - " वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे" इतिवचनानुरोधेन मनः प्राणयोरेव वाङ् मनसयो: संपत्ति, तथा " प्राणस्तेजसि " इति वचनात् तेजस्येव प्राण: संपद्यते । जैसे कि " वाङ्मनसि" इत्यादि से ज्ञात होता है कि मन और प्राण में वाणी और मन की संलग्नता है, वैसे ही “प्राणस्तेजसि इत्यादि से ज्ञात होता है कि-प्राण की तेज से संलग्नता होती होगी । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - " सोऽध्यक्षे” इति । स प्राणः, मध्यक्षे- कारणाधिपे - जीवे संपद्यते । कुतः ? तदुपगमादिभ्यः प्राणस्थ जीवोपगमः तावच्छ्रयते " एवमेवेममात्मानमन्तकाले सर्वे प्राणा श्रभिसमायंति” इति । तथा जीवेन सह प्राणस्योत्क्रांति श्रूयते - “तमुत्क्रांत प्राणोऽनुत्क्रामति” इति । प्रतिष्ठा च जीवेन सह श्रूयते - " कस्मिन्नुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन् वा प्रतिष्ठते प्रतिष्ठास्यामि " इति । एवं जीवेन संयुज्य तेन सह तेजः संपत्तिरपि “प्राणस्तेजसि” इत्युच्यते, यथा यमुनाया: गंगया
( ११४३ ) संयुज्य सागरगमनेऽपि " यमुना सागरं गच्छति" इति वचो न विरुध्यते तदवत् । उक्त कथन पर सिद्धान्त रूप से " सोऽव्यक्षे" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि वह प्राण, अध्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी जीव में संलग्न हो जाता है । प्राण का जीवोपगम बतलाया भी गया है- जब जीव को ऊर्ध्वं श्वास चलने लगती है तो सारे प्राण इस आत्मा के अभिमुख होकर इसके साथ जाते हैं । तथा प्राण के साथ जीव की उत्क्रांति का भी वर्णन मिलता है " उसके उत्क्रमण करने पर प्राण भी उत्क्रमण करते हैं ।" जीव के साथ प्राण की प्रतिष्ठा का भी वर्णन मिलता है “किसके निकलने पर मैं निकला हुआ सा हो जाऊँगा, तथा किसके रहने पर मैं स्थित रहूँगा ( उसने ऐसा विचार किया ) " इसी भाव के अनुसार जीव से संयुक्त प्राण की तेज से संपत्ति बतलाई गई है जैसे कि यमुना गंगा से संलग्न होकर सागर में जाती है, पर यह " यमुना सागर में जा रही है” यह कथन भी असंगत नहीं वैसे ही, प्राण जा रहें हैं, बात भी है । ४ भूताधिकरण:- भूतेषु तच्छुतेः | 8 | २|५||
" प्राणस्तेजसि " इति जीवसंयुक्तस्यप्राणस्य तेजसि संपत्ति- रुक्ता सा संपत्तिः कि तेजोमात्रे, उत संहतेषु सर्वेषु भूतेषु ? इति संशये तेजोमात्र श्रवणात्तेजसि । “प्राणतेज में” इत्यादि में जीव संयुक्त प्राण की तेज में संपत्ति बतलाई गई है। अब प्रश्न होता है कि वह संपत्ति केवल तेज में ही होती है अथवा संयुक्त सभी भूतों में होती है ? तेज का ही नाम आता है, इससे तो केवल तेज में होने की बात ही समझ में आती है। सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते-भूतेषु इति, भूतेषु संपद्यर्ते, कुतः ? तच्छ्रुते: “पृथिवीमयः, श्रापोमयः तेजोमयः" इति जीवस्य
( ११४४ ) संचरतः सर्वभूतमयत्वश्रुतेः । उक्त मत पर “भूतेषु” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं- भूतों में संपत्ति होती है, “पृथिवी मयः आपोमयः तेजोमयः” इत्यादि श्रुति में जीव की सर्वभूतमयता बतलाई गई है । 1 ननु तेजः प्रभृतिष्वेकैकस्मिन् क्रमेण संपत्तावपि “पृथिवीमय: " इत्यादिका श्रुतिरुपपद्यते -प्रत आह- लगता है “पृथिवीमयः” इत्यादि श्रुति, तेज आदि एक-एक की क्रमश: संपत्ति का वर्णन कर रही है । इसका उत्तर देते हैं- नैकस्मिन् दर्शयतो हि |४| २|६|| J नैकस्मिन् एकैकस्य कार्याक्षमत्वात् । दर्शयतो हि श्रक्षमत्वं श्रुतिस्मृती- “अनेन जीवेनाऽत्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैककां करवाणि” इति नामरूपव्याकरण- योग्यत्वाय त्रिवृतकरणमुपदिश्यते ।” नानावीर्याः पृथग्भूतः ततस्ते संहति विना नाशक्नुवन प्रजाः सृष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः । समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयः, महदाद्याविशेषान्ता हि चंडमुत्पादयंति ते” इति । श्रतः " प्राणस्तेजसि " इति तेजः शब्देन भूतांतरसंसृष्टमेव तेजोऽभिधीयते । श्रतो भूतेष्वेव संपत्तिः । इन भूतों में अकेले कार्य करने की क्षमता नहीं है । इनकी अक्षमता श्रुति स्मृति में बतलाई गई है - " इस जीव में आत्मरूप से प्रविष्ट होकर नामरूप का विस्तार करूँ ऐसा विचार करके उसने तीन-तीन का एक-एक यूथ बनाया ।" इसमें नामरूप के विस्तार की योग्यता के लिए त्रिवृत- करण का उल्लेख है । “विभिन्न शक्ति वाले वे बिना मिले, अलग-अलग रहकर समस्त सृष्टि की रचना करने में सक्षम नहीं हैं, वे परस्पर मिलकर एक दूसरे के आश्रय से महत आदि से लेकर अंड तक का उत्पादन करते हैं ।" इससे ज्ञात होता है कि- " प्राणस्तेजसि" में तेज
( ११४५ शब्द से, अन्य भूलों से संलग्न तेज ही अभिधेय है । इसलिए भूतों में ही जीब की संपत्ति होती है यही मानना चाहिए। ५ आमृत्युपक्रमाधिकररणः - समानाच्चासृत्युपक्रमादमृतत्वं चानुपोष्य |8| २|७|| इयमुत्क्रान्तिः कि विद्वदविदुषोः समाना, उत प्रविदुष एव ? इति चिन्तायां, प्रविदुष एवेति प्राप्तम्, कुतः ? विदुषोऽत्रैवामृतत्व- वचनादुत्क्रान्त्यभावात् विदुषो हि अत्रैवामृतत्वं श्रावयति - “यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्यहृदिस्थिताः अथ मर्त्योऽमृतोभवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते” इति । 1 ऊपर जिस उत्क्रान्ति की चर्चा आई है क्या ये उपासक अनुपासक दोनों की समान रूप से होती है अथवा अनुपासक की ही होती हैं ? इस पर विचारने से तो ऐसा ही ज्ञात होता है कि अनुपासक की ही होती है, उपासक तो इस लोक में ही मुक्त हो जाता है जैसा कि - " जब उपासना करते हुए इसकी हृदयस्थ समस्त कामनायें नष्ट हो जाती हैं तब यह मर्त्य इस लोक में ही मुक्त होकर ब्रह्म प्राप्ति कर लेता है" इस श्रुति से निश्चित होता है । सिद्धान्तः — एवं प्राप्तेऽभिधीयते - समानाचासृत्युपक्रमात् इति । विदुषोऽप्यसृत्युपक्रमादुत्क्रांतिः समाना । श्रासृत्युपक्रमात् श्रागत्युपक्रमात् - नाडीप्रवेशात् प्रागित्यर्थः । विदुषो हि नाडीविशेषे- णोत्क्रम्य गतिः श्रूयते " शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका, तयोर्धमापन्नमृतत्वमेति विष्वङ्न्या उत्क्रम भवंति " इति । एवं नाडीविशेषेण गतिश्रवणात् विदुषोऽप्युत्क्रांतिर- वर्जनीया । सा च नाडी प्रवेशात् प्रागविशेषा श्रवणात् समाना । तत्प्रवेशदशायां च विशेषः श्रूयते – “तेन प्रद्योतेनैषमात्मा निष्क्रामति वक्षुषो वा मूर्धो वा अन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यः” इति । “थतं
( १९४६ ) चेका च हृदयस्य’ इत्यनया श्रुत्यैकार्थ्यान्मून निष्क्रमणं विद्वद्- विषयम् इतरविद्वद् विषयम् । उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि- असृति उपक्रम अर्थात् नाडी प्रवेश के प्रथम तक उपासक अनुपासक दोनों की समान उत्क्रांति होती है । उपासक की नाडी विशेष से गति बतलाई गयी है - " हृदय से संसक्त एक सौ एक नाडियों में से एक मूर्धा की ओर जाती है उसके आश्रय से उपासक ऊपर की ओर जाकर उत्क्रमण करके अमृतत्व प्राप्त करता है ।” इस नाडी विशेष की गति के वर्णन से, उपासक की उत्का- न्ति तो निश्चित हो ही जाती है । इस नाडी के प्रवेश के प्रथम तो उपासक अनुपासक दोनों की समान रूप से उत्क्रांति प्रक्रिया चलती है । इस नाडी में प्रवेश काल का कुछ विशेष वर्णन मिलता है “उस नाडी में प्रवेश करके यह आत्मा नेत्र मूर्धा या किसी अन्य स्थान विशेष से निष्क्रमण करता है” “शतं चैका च हृदयस्य " इत्यादि से जिसके निष्क्रमण की चर्चा की गई है वह उपासक की ही है, उससे भिन्न जो निष्क्रमण की चर्चा मिलती है वह उपासक के अतिरिक्त सभी की है । ? यदुक्त - विदुषोऽवामृतत्वं श्राव्यते इति, तत्रोच्यते श्रमृतत्वं चानुपोष्य - इति । च शब्दोऽवधारणे । अनुपोष्य शरीरेन्द्रियादि संबंधमदग्ध्यैव यदमृतत्वम् उत्तरपूर्वाधयोरश्लेषविनाशरूपं प्राप्यते, तदुच्यते “यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते” इत्यादिकया श्रुत्येत्यर्थः । " अत्र ब्रह्मसमश्नुते” इति च उपासनवेलायां यो ब्रह्मानुभवः, तद्विषय- मित्यभिप्रायः । जो यह कहा कि - उपासक का इस लोक में ही मोक्ष का वर्णन मिलता है, उस पर सूत्रकार का कथन है “अमृतत्त्वं चानुपोष्य” अर्थात् शरीर इन्द्रिय आदि का संबंध नहीं छटता इस स्थिति में भी तो अमृतत्व की बात है वह आगत और अतीत पापों के अश्लेष विनाश की हो बात है अर्थात् अश्लेष विनाश ही मुक्ति है “यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते” इत्यादि श्रुति से यही दिखलाया गया है “यहीं ब्रह्म प्राप्ति कर लेता है” का तात्पर्य
( ११४७ ) है कि उपासना के समय जो ब्रह्मानुभूति होती है, वही ऐहलौकिक ब्रह्म प्राप्ति है । तदापीते: संसार व्यपदेशात् |४|२| ६ || प्रवश्यं च तत् प्रमृतत्वमदग्धदेहसंबंधस्यैवेति विज्ञेयम् । कुतः ? श्रापीतेः संसारव्यपदेशात् - प्रपीतिः - श्रप्ययः - ब्रह्म प्राप्तिः । साचाचिरादिनामार्गेण देशविशेषं गत्वेति वक्ष्यते । श्रातदवस्था- प्राप्तेः संसारः, देहसंबंधलक्षणो हि व्यपिदश्यते–" तस्यतावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ संपत्स्ये” इति “अश्व इव रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इव राहोर्मुखात् प्रमुच्य, धूत्वाशरीरमकृतं कृतात्मा ब्रह्म- लोकमभिसंभवानि " इति च । ऊपर जिस अमृतत्व प्राप्ति की चर्चा की गई है, निश्चित ही वह देह संबंध के बिना नष्ट हुए ही मिलती है अचिरादिमार्ग से जाने पर जिस देश विशेष की प्राप्ति होती है वही ब्रह्म प्राप्ति है, उस मार्ग में जाने के प्रथम तक देह संबंध रूप संसार का संबंध बना रहता है “उसकी ब्रह्म प्राप्ति में तभी तक का विलंब है जब तक प्रारब्ध भोग कर इस शरीर से नहीं छूट जाता” जैसे कि घोड़ा रोयों को झाड़कर चैतन्य हो जाता है वैसे ही उपासक पापों को झाड़ कर राहु से मुक्त चन्द्रमा के समान स्वच्छ होकर ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है ।” इत्यादि से उक्त बात निश्चित होती है । सूक्ष्मं प्रमाणतश्च तथोपलब्धेः ||२||| इतश्च विदुषोऽपि बंधो नात्र दग्धः यत्तत्सूक्ष्मं शरीरमनु- वर्त्तते । कुत इदमवगम्यते ? प्रमाणतस्तथोपलब्धेः उपलभ्यते हि देवयानेन पथा गच्छतो विदुषः तं प्रतिब्रूयात्" “सत्यंत्र यात्” इति चन्द्रमसा संवाद वचनेन शरीरसद्भावः । श्रतः सूक्ष्मशरीर मनुवत्तते । प्रतश्च बंघो न दग्धः ।
( १९४६ ) उपासक के शरीर बंधन मुक्ति की बात तो इसलिए भी नहीं मानी जा सकती कि -स्थूल के घटने पर सूक्ष्म शरीर तो साथ जाता ही है । देवयान मार्ग से जाते हुए उपासक से चंद्रमा से संवाद होता है ऐसा " तंप्रति ब्रूयात्" “सत्यं ब्रूयात्’ इत्यादि वर्णनों से निश्चित होता है संवाद बिनाशरीर के होना संभव नहीं है, इसलिए शरीर का होना तो निश्चित ही है, वह सूक्ष्म शरीर ही है, इसलिए शरीर संबंध के छटने की बात सही नहीं है । नोपमर्देनात : ४२॥१०॥ अतः " यदासर्वेप्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदिस्थिताः, अथ मर्त्योऽमृतो भवति अत्र ब्रह्म समश्नुते " इति वचनं न बन्धो- पमर्देनामृतत्वं वदति । इसलिए " यदा सर्वे” इत्यादि में जिस अमृतत्व की चर्चा है वह शरीर संबंध रहित अमृत्व की नहीं है, यही मानना चाहिए । प्रस्यैव चोपपत्तेरूष्मा | ४|२| ११ | अस्य सूक्ष्मशरीरस्य क्वचिद विद्यमानत्वोपपत्तविदुषः प्रक्रान्तमरणस्य मरणात् प्रागूष्मा स्थूलशरीरे क्वचिदु उपलभ्यते । न च स्थूलस्यैव शरीरस्यायमूष्मा अन्यत्रानुपलब्धेः । क्वचिदुपलब्धिविदुषः ततश्चोष्मणः सूक्ष्मशरीरस्योत्क्रांति निबंधनेति गम्यते । तस्माद् विदुषोऽप्यासृत्युपक्रमात् समानोत्क्रांति रिति सुष्ठुक्तम् । इस सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को जानना हो तो, कभी भी मरणा- सन्न व्यक्ति के मरण के पूर्व उसके स्थूल शरीर को छकर ऊष्मा से जाना जा सकता है, वह ऊष्मा स्थूल शरीर की नहीं होती मरणोपरान्त स्थूल शरीर में वह नहीं होती। इस प्रकार की ऊष्मोपलब्धि से यह निर्णय होता है कि उपासक की जो उत्क्रान्ति होती है वह सूक्ष्म शरीर के आश्रित होती है । इसलिए जो यह कहा कि नाडी विशेष में प्रवेश करने के पूर्व उत्क्रांति सभी को समान होती, यह ठीक ही है । ( ११४६ ) पुनरपि विदुष उत्क्रांतिनं संभवतीत्याशंक्य परिहियते - उपासक की उत्क्रांति नहीं हो सकती, ऐसी पुनः आशंका कर के उसका परिहार करते हैं- प्रतिषेधादिति चेन्न शारीरात् स्पष्टो हि एकेषाम् |४/२/१२ ॥ यदुक्त - विदुषोऽप्युत्क्रांति समानेनि, तन्नोपपद्यते, विदुष उत्क्रांति प्रतिषेधात् । तथाहि “स एतास्तेजोमात्राः समभ्याद दानो हृदयमेवान्वपक्रमति” इत्युपक्रम्य “तेन प्रद्योतेनैषप्रात्मा निष्क्रामति तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनुत्क्रामति “इत्यविदुष उत्क्रांति प्रकारमभिधाय " मन्यन्नवतरं " मन्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते” इति देहान्तरपरिग्रहं चाभिधाय " प्राप्यान्तं कर्मणास्तस्य यत्किंचेह करोत्ययं तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे इति तु कामयमानः" इत्य विद्वद्विषयं इत्यविद्वद्विषयं परिसमाप्य “अथाकामयमानो योऽकामोनिष्काम प्रात्मकामः न तस्य प्राणा उत्क्रामंति ब्रह्मैवसन् ब्रह्माप्येति” इति विदुष उत्क्रांतिः प्रतिषिध्यते । तथा पूर्वत्र प्रात्त भाग प्रश्नेऽपि विदुष उत्क्रांति प्रतिषेधो दृश्यते - “अप- पुनर्मृत्युं जयति” इति विद्वांसं प्रस्तुत्य " याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते उदस्मात् प्राणाः क्रामत्याहो न” इति पृष्टः “नेति होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवलीयंते स उच्छ्वयत्याध्मातो मृतः शेते” इति तोविद्वानिहैवामृतत्वं प्राप्नोति इति चेत् । जो यह कहा कि उपासक की उत्क्रांति सभी के समान होती है, वह कथन ठीक नहीं है, उपासक की उत्क्रांति का तो प्रतिषेध किया गया है । जैसा कि प्रसंग आता है कि- " वह इन प्राणों की तेजोमात्रा को अच्छी तरह ग्रहण करके हृदय में ही मनुत्क्रांत ( अभिव्यक्त ज्ञानवान ) होता है" यहाँ से प्रारंभ करके " उसके उत्क्रमण करने पर उसको साथ ही प्राण उत्क्रमण करते हैं ।" इत्यादि से अनुपासक की उत्क्रांति का
( ११५० ) प्रकार बतलाकर - “दूसरे नवीन और कल्याणतर (अधिक सुन्दर) रूप की रचना करता है” इत्यादि से उसके देहान्तर परिग्रह को बतलाकर " इस लोक में यह जो कुछ करता है उस कर्म का फल प्राप्त कर उस लोक से कर्म करने के लिए पुनः इस लोक में आ जाता है कामना करने वाले पुरुष की ऐसी ही गति होती है" यहाँ तक अनुपासक के विषय होता है में कहकर “जो आकाम निष्काम और आप्तकाम उसको प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता वह ब्रह्म ही रहकर ब्रह्म को प्राप्त होता है” इत्यादि से उपासक की उत्क्रांति का प्रतिषेध किया गया है । इसी प्रकार आतंभाग के प्रश्न में भी उपासक की उत्क्रांति का प्रतिषेध मिलता है-" याज्ञवल्क्य ने कहा- पुनर्मृत्यु का पराजय होता है" इत्यादि से उपासक का प्रसंग प्रस्तुत करने पर मार्त्तभाग ने पूछा- याज्ञवल्क्य ! जिस समय यह मरता है उस समय उसको प्राणों का उत्क्रमण होता है या नहीं ?" याज्ञवल्क्य ने कहा “नहीं-नहीं वे यहाँ ही लीन हो जाते हैं वह वायु को खींच कर यहीं मृत होकर सोता है ।" इत्यादि से ज्ञात होता है कि उपासक इस लोक में ही अमृतत्व प्राप्त करता है । तन्न, शारोरात् – प्रत्यगात्मनः प्राणानामुत्क्रांतित्र प्रतिषि- ध्यते, न शरीरात् " न तस्य प्राणा उत्क्रामंति" इत्यत्र तच्छब्देन " प्रथाकामयमानः" इति प्रकृतः शारीर एवं परामृश्यते नाश्रुतं शरीरम् । " तस्य " इति षष्ठ्या प्राणानां संबंधित्वेन शारीरो निर्दिष्ट: न तुत्क्रान्त्यपादनस्वेन । उत्क्रान्त्यपादानं तु शरीरमेवेति चेत्, न श्रपादानापेक्षायामश्रुताच्छरीरात्संबंधितया श्रुतस्यात्मन एव सन्निहितत्वेनापादानतयापि ग्राह्यत्वात् । जैसी धारणा की गई बात वैसी नहीं है, उक्त प्रसंग में जीवात्मा के प्राणों के उत्क्रमण का निषेध किया गया है शरीर के अनुत्क्रमण की चर्चा नहीं है “न तस्य प्राणा उत्क्रामंति” इस वाक्य में तत् शब्द से “अथाकामायमान: " में कहे गये जीवात्मा का ही उल्लेख है शरीर का नहीं । " तस्य " इस षष्ठी पद से प्राणों का संबंध दिखलाया है जिससे जीवात्मा का ही निर्देश निश्चित होता है, यदि जीव के शरीर से अलग न होने की बात होती तो प्रपादान पंचमी का प्रयोग तो शरीर में होता,
( ११५१ ) शरीर शब्द तो इस वाक्य में लुप्त है ( अर्थात् “नतस्य शरीरात् प्राणा उत्क्रामति" के स्थान पर केवल न तस्य प्राणानुत्क्रामति" कहा गया है) सो आपका यह कथन भी व्याकरण नियम के विरुद्ध है, यदि लुप्त शरीर शब्द के संबंध की बात होती तो शरीर शब्द से निकटस्थ तत् शब्द में भी अपादान का ही प्रयोग दिखलाई देता (अर्थात् " न तस्मात् शरीरात् प्राणात् उत्क्रामंति" ऐसा प्रयोग किया गया होता) सो तो है नहीं । कि च प्राणानां जीवसंबंधितयैव प्रज्ञातानां तत्संबंधकथने प्रयोजनाभावात् संबंधमात्र वाचिन्या षष्ठ्या प्रपादानमेव विशेष इति निश्चीयते । यथा “नटस्य शृणोति” इति । न चात्र विवदितव्यं स्पष्टो हि एकेषां माध्यन्दिनानामाम्नाये शारीरो जीव एवापादानमिति - " योऽकामो निष्काम आप्तकामो प्रात्मकाम न तस्मात् प्राणा उत्क्रांमंति" इति । ( तर्क प्राणों का संबंध तो जीव से ही है इसलिए कोई प्रयोजन तो है नहीं कि जीव का पृथक् निर्देश किया जाता, संबंध मात्र को बतलाने के लिए ही षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है जो कि अपादान स्थानीय ही है, जैसे कि - “नटस्य श्रृणोति” इत्यादि में किया जाता है [उत्तर] यहाँ विशेष विवाद की आवश्यकता नहीं है, यहाँ तो माध्यन्दिन आम्नाय की एक शाखा में स्पष्ट रूप से जीव का ही अपा- दान प्रयोग किया गया है- “जो अकाम, निष्काम, आप्तकाम और मात्म- काम है, उससे प्राण उत्क्रमण नहीं करते । " शारीरात् प्राणानामुत्क्रां तिप्रसंगाभावात्तन्निषेधो नोपपद्यत इति चेत्, न " तस्य तावदेव चिरं" इति विदुषः शरीरवियोग काले ब्रह्मसंपत्ति वचनेन प्राणानामपि तस्मिन् काले शरीराद विदुषो वियोग: प्रसज्यते, ततश्च देवयानेन पथा ब्रह्मसंपत्तिर्नोपपद्यत इति । " न तस्य प्राणा उत्क्रामंति" देवयानेन पथा ब्रह्मप्राप्तेः प्राग्जीवाद विदुषोऽपि प्रारणा न विश्लिष्यन्तीत्युच्यते । श्रार्तभाग प्रश्नोऽपि यदा
( १९५२ ) विद्वद्विषयः तदा श्रयमेव परिहारः, सत्वविद्वद्विषयः, तत्र प्रश्न प्रतिवचनयोः ब्रह्मविद्या प्रसंगादर्शनात्, तत्रहि ग्रहातिग्रहरूपेणेन्द्रि- येन्द्रियार्थ स्वभावः, श्रपामग्न्यन्नत्वं, म्रियमाणस्य जीवस्य प्राण परित्यागः, मृतस्यनामवाध्य कीर्त्यनुवृत्तिः, तस्य च पुण्यपापानुगुण- गतिप्राप्तिरित्येतेऽर्थाः प्रश्नपूर्वकं प्रत्युक्ताः । तत्र च " प्रपपुनर्मृत्युंज- यति इति प्रपामग्न्यन्नत्व ज्ञानादग्निजय एव मृत्युजय उच्यते । अतो नात्र विदुषः प्रसंग: श्रविदुषस्तु प्राणानुत्क्रातिवचनं स्थूल- देहवत्प्राणा न मुंचति अपि तु भूतसूक्ष्मवज्जीवं परिष्वज्य गच्छन्ति, इति प्रतिपादयतीति निरवद्यम् । (तर्क) यदि कहें कि उक्त प्रसंग में जीव से प्राणों की उत्क्रांति का अभाव मान लेंगे तो, उसके निषेध का प्रश्न ही क्या है ? (उत्तर) " तस्य तावदेव चिरम्" इत्यादि शरीर वियोग काल में उपासक की ब्रह्म संमत्ति बतलाने वाले वचन से ज्ञात होता है कि उपासक का उसी समय प्राणों से भी वियोग होता है, इसीलिए देवयान में ब्रह्मसंपत्ति नहीं होती । “न तस्य प्राणा उत्क्रामति” - से भी यही बतलाते हैं कि देवयान मार्ग से जाते हुए उपासक जीव के प्राण भी, ब्रह्म प्राप्ति के पूर्व तक उससे नहीं छूटते । आर्त भाग के प्रश्न में भी यही बात कही गई है वहाँ उपासक जीव का प्रसंग ही नहीं है, वह तो अनुपासक जीव का विषय है, वहाँ प्रश्नोत्तरों में ब्रह्मविद्या को प्राप्त न करने वालों के विषय में उनकी इन्द्रियों और उनके स्वभाव की जलअग्नि अन्नरूपता, म्रियमाण जीव की प्राण परित्याग का प्रकार, मृत जीव का स्वाभाविक अनुवृत्ति का प्रकार, उसके अनुसार पुण्यपापानुरूपगति प्राप्ति इत्यादि का विवेचन किया गया है वहाँ जो “अपपुनर्मृत्युंजयति” कहा गया है वह तो ज्ञान से अग्निजय को ही मृत्युजय कहा गया है । इसलिए उसे उपासक जीव का प्रसंग समझना ही नहीं चाहिए। अनुपासक जीव के प्राणों की उत्क्रांति का जहाँ प्रसंग है, उसमें भी यही दिखलाया गया है कि-स्थल शरीर की तरह प्राण, उसको एकाएक नहीं छोड़ देते अपितु सूक्ष्मरूप से संसक्त होकर उस जीव के साथ जाते हैं ।
स्मर्यते च |8| २|१३ ॥ ( ११५३ ) स्मयंते च विदुषोऽपि मूर्धनाड्योत्क्रांतिः “ऊर्ध्वमेक स्थितस्तेषां यो भित्वा सूर्यमंडलं, ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति परां गतिम् " इति । उपासक की मूर्धा की नाडी से उत्क्रांति की बात स्मृति में भी कही गई है " ऊपर की एक नाडी में स्थित वह जीब, सूर्यमंडल का अतिक्रमण करते हुए ब्रह्मलोक को भी अतिक्रमण कर परं गति गोलोक की प्राप्ति करता है ।" ६ पर संपत्त्यधिकरणः तानि परे तथाह्याह ॥ ४२॥१४॥ सकरग्रामः, स प्राणः, कररणाध्यक्षः प्रत्यगात्मा उत्क्रांति वेलायां तेजः प्रभृति भूतसूक्ष्मेषु संपद्यत इत्युक्तम्, सैषा संपत्ति- विदुषो न विद्यत इति प्राशंक्य परिहृतम्, तानि पुनर्जीवपरिष्वक्तानि भूतसूक्ष्माणि कि यथाकर्म यथाविद्यं च स्वकार्याय गच्छति, उत परमात्मनि संपद्यन्ते ? इति विशये मध्ये परमात्म संपत्तौ सुखदुःखो- पभोगरूपकार्यदर्शनात् तदुपभोगानुगुण्येन यथाकर्म यथाविद्यं च गच्छंति । इन्द्रिय प्राणों सहित इन्द्रियों का स्वामी जीवात्मा उत्क्रांति के समय तेज आदि सूक्ष्म भूतों से संसंक्त रहता है यह बतलाया गया, ऐसी आसक्ति उपासक की नहीं होती ऐसी शंका करते हुए उसका समाधान भी किया गया । अब प्रश्न होता है कि-जीव की मुक्ति हो जाने पर वे सूक्ष्मभूत जीव के कर्मानुसार उसके साथ ही रहते हैं अथवा, परमात्मा में लीन हो जाते हैं? इस संशय पर विचारने से ज्ञात होता है कि वे परमात्मा में मिल नहीं सकते क्योंकि परमात्मा में सुखदुःख के उपभोग नहीं हैं, इसलिए वे जीव में संसक्त रहते हैं ।
( ११५४ ) इति प्राप्त उच्यते तानि परे इति, तानि परस्मिन्नात्मनि संपद्यंते, कुतः ? तथाह्याह श्रुतिः “तेजः परस्यां देवतायाम्” इति । यथाह श्रुतिः तदनुगुणकार्यं कल्प्यमित्यर्थः । सुषुप्तिप्रलयोर्यथा परमात्मसंपत्त्या सुखदुःखोपभोगायासविश्रमः तदवद इहापि । उक्त मत पर सूत्रकार कहते हैं कि वे परमात्मा में संसक्त हो जाते हैं, " तेज परमात्मा में चला जाता है" इत्यादि श्र ुति में इनकी परमात्मा में मिलने की बात स्पष्टतः कही गई है, इन भूतों के जो कर्मानुसार कार्य होते हैं, वे सृष्टि में ही होते हैं, यही श्रुति का तात्पर्य है । सुषुप्ति और मूर्छा में जैसे जीवात्मा, आत्मस्थ परमात्मा से संसक्त हो जाता है उस समय उसके सुखदुःखोपभोग के सारे क्रिया कलाप तटस्थ रहते हैं, वैसे ही मुक्तावस्था में भी जीवात्मा के परमात्मा में संसक्त रहते हैं [ सृष्टिकाल में वे पुनः जीवात्मा के साथ अपने क्रिया कलाप के विस्तार के लिए सचेष्ट होते हैं ] ७ अविभागाधिकरणः- अविभागोवचनात् ॥४। १ । १५ सेयं परमात्मनि संपत्तिः कि प्राकृतलयवत् कारणापत्तिरूपा, उत " वाङ् मनसि" इत्यादिवत् श्रविभागरूपा ? इति चिन्तायाम्- परमात्मनः सर्वेषां योनिभूतत्वात् कारणापत्तिरूपा । यह जो भूतों की परमात्मा में संलग्नता की बात कही गई वह किस प्रकार की है, क्या वह प्राकृतलय की तरह कारणापत्तिरूपा अर्थात् कारण में कार्य के मिलने की बात है अथवा “वाङ्मनसि” की तरह तद्रूप होकर चिपके रहने की बात है ? इस पर विचारने से परमात्मा सभी के कारण हैं इसलिए, कारण में कार्य के मिलने की बात, समझ में आती है ।
सिद्धान्तः इति प्राप्त उच्यतेः " अविभागः" इति । प्रपृथग्भावः पृथग्व्यवहारानहं संसर्ग इत्यर्थः । कुतः ? वचनात् " तेजः परस्यां देवतायाम्" इत्यत्रापि “वाङ् मनसि संपद्यते” इत्यतः संपद्यत इति
( ११५५ ) वचनस्यानुषंगात् तस्य च संसर्गविशेष वाचित्वात्, अनुषक्त स्याभिधानवैरूप्यप्रमाणाभावात् उत्क्रांतिवेलायां कारणापत्ति प्रयोजनाभावात् पुनस्तत्राव्यक्तादिसृष्टयवचनाच्च । उक्त मत पर सूत्रकार कहते हैं कि इन सूक्ष्म भूतों का परमात्मा से जो सम्मेलन होता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि उसे पृथक् कहना कठिन है । “तेजः परस्यां देवतायाम् ’ इस वचन से ही उक्त बात समझ में आ जाती है । " वाङ्मनसि संपद्यते " में जो अनुषक्त होने की बात कही गई है, वह विशेष प्रकार के संसर्ग का ही बोध कराती है । परमात्मा में अनुषक्त, इन सूक्ष्म भूतों के नामभेद का तो उल्लेख मिलता नहीं, और न उत्क्रांति के समय इनका कारण में लीन होने का कोई प्रयोजन ही समझ में आता है, तथा इन अव्यक्त आदि का उस अवस्था में सचेष्ट होकर संचालित होने का प्रमाण ही मिलता है, जिससे इन्हे भिन्न या अभिन्न कुछ कहा जा सके, इनकी तो एक विशेष प्रकार की अनिर्वचनीय अभिन्नता ही रहती है । २ तदोकोऽधिकरणः- तदोकोऽग्रज्वलनं तत् प्रकाशितद्वारा विद्यासामर्थ्यात्तच्छेषगत्यनु- स्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया | ४|२।१६॥ एवं गत्युपक्रमावधि विदवदविदुषोः समानाकार उत्क्रांति प्रकार उक्तः, इदानीं विदुषो विशेष उच्यते, तत्रेदमाम्नायते - “थतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिन्ः सृतैका तयोर्ध्वमा- पन्नमृतत्वमेति विष्वङ्न्या उत्क्रमणे भवन्ति” इति । अनया नाडीनां शताधिकया मूर्धन्यनाड्यैव विदुषो गमनं मन्याभिरेव चाविदुषो गमनमित्ययं नियम उपपद्यते, न ? इति संशयः किं युक्तम् ? नियमो नोपपद्यत इति, कुतः ? नाडीनां भूयस्त्वादतिसूक्ष्मत्वाच्च दुर्विवेचतया पुरुषेणोपादातुमशक्यत्वात् । “तयोर्ध्वमापन्नमृतत्वमेति विष्वङ्न्या
( १९५६ ) उत्क्रमणे युक्तमिति । भवंति” इति यादृच्छिको भुत्क्रांतिमनुवदतीति नाडी विशेष में प्रवेश करने के प्रथम तक उपासक और अनुपासक की समान उत्क्रांति दिखलाई गई, अब नाडी में प्रवेश करने के बाद उपासक की विशेष प्रकार की उत्क्रांति का वर्णन करते हैं । जैसा कि कठोपनिषद् में कहा गया कि - “हृदय की एक सौ एक नाडियाँ हैं, उनमें से एक कपाल की ओर निकली है, उसके सहारे ऊपर के लोकों में जाकर अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है दूसरी एक सौ नाडियाँ मरण काल में अनेक प्रकार की योनियों में जाने की हेतु होती हैं” इत्यादि । सौ नाडियों से विशिष्ट मूर्धन्य सुषुम्ना नाडी से उपासक की उत्क्रांति तथा अन्य सौ नाडियों से अनुपासक की उत्क्रांति का नियम बतलाया गया है या नहीं ? इस संशय पर मत होता है कि-नाडियाँ अनेक और अति सूक्ष्म हैं, उनकी जानकारी बहुत कठिन है जीव के द्वारा उनको ग्रहण करना अति कठिन है " तयोर्ध्वमापन्न मृतत्वमेति’ इत्यादि में सामान्य उत्क्रांति का ही वर्णन है, यही मानना युक्ति युक्त है । , 1 सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्म-शताधिकया इति । विद्वान् शताधिकया मूर्धन्ययैव नाड्योत्क्रामति । न चास्याः विदुषो दुर्विवेचत्वं विद्वान् हि परं पुरुषाराधनभूतात्यर्थ प्रियविद्या सामर्थ्यात् विद्याशेषभूततयाऽत्मनोऽत्यर्थ प्रियगत्यनुस्मरणयोगाच्च प्रसन्नेन हार्देन परमपुरुषेणानुगृहीतो भवति, ततश्च तदोकः तस्य जीवस्य स्थानं हृदयं अग्रज्वलनं भवति, अग्रेज्वलनं प्रकाशनं यस्य, श्रग्रज्व- लनम्। परमपुरुषप्रसादात् प्रकाशितद्वारो विद्वान् तां नाडीं विजानातीति, तया विदुषो गतिरुपपद्यते । उत मत पर सिद्धान्तरूप से “शताधिकया” आदि सूत्र प्रस्तुत करते हैं- कहते हैं कि - उपासक, सौ नाडियों से विशिष्ट मूर्धन्य नाडी से ही उत्क्रमण करता है । उपासक के लिए नाडियों की जानकारी कठिन नहीं होती । उपासक, परंपुरुष की प्राराधना रूप प्रिय ब्रह्मविद्या के
( ११५७ ) सामर्थ्य से विद्या के फलस्वरूप होने वाली प्रिय इष्ट प्राप्ति को स्मरण कर अत्यंत प्रसन्न होता है, उसे परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त हो जाता है, इसलिए उसके हृदय का अग्रभाग (जो कि सुषुम्ना नाडी की ओर जाता है) प्रज्वलित अर्थात् प्रकाशित हो जाता है, प्रभु की कृपा से वह उपासक प्रकाशित मार्ग से नाडी के मार्ग की जानकारी कर लेता है, उसी मार्ग से उपासक की गति होती है । ६. रश्भ्यनुसाराधिकरणः- रश्भ्यनुसारी |४| २|१७॥ विदुषो हृदयाच्छताधिकया मूर्धन्यनाड्या निर्गतस्यादित्य रश्मीननुसृत्यादित्य मंडलगतिः श्रूयते “प्रय यत्रेदस्माच्छरीरादुत्क्राम- त्यथैतैरेव रश्मिभिरूध्वंमाक्रमते " इति । तत्र रश्म्यनुसारेणैवेत्ययं गति नियमः संभवति न वा ? इति चिन्तायां निशिमृतस्य विदुषो रश्म्यनुसारा संभवादनियमः । वचनन्तु पक्षपात विषयम् । हृदय से निसृत एक सौ एक नाडियों में सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य नाडी से निकलकर सूर्य की किरणों का अनुसरण कर सूर्य मंडल में जाने की बात उपासक के विषय में सुनी जाती है - " इस शरीर से उत्क्रमण कर, इन सूर्य की रश्मियों के ही सहारे ऊपर आक्रमित होता है”, इस पर विचार होता है कि क्या सूर्य रश्मियों के सहारे ही इस गति के होने का नियम है, अथवा कोई नियम नहीं है? मनन करने से तो ऐसा कोई नियम समझ में नहीं आता, क्योंकि जब उपासक की मृत्यु रात्रि में होती है तब क्या उसकी ऊर्ध्वगति नहीं होती ? यदि होती है तो कैसे होती है? उक्त वचन पक्ष विशेष के लिए प्रतीत होता है ।
सिद्धान्तः इति प्राप्त उच्यते " रश्म्यनुसारी” इति, रश्म्यनु- सार्येव विद्वानूर्ध्व गच्छति, कुतः ? “श्रथैतैरेव रश्मिभिः” इत्यव - धारणात् पाक्षिकत्वे ह्येवाकारोऽनर्थकः स्यात् । यदुक्तं निशिमृतस्य दश्भ्यसंभवात् रश्मीननुसृत्य गमनं नोपपद्यत इति, तंत्र, निश्यपि
( १९५८ ) सूर्यरश्म्यनुसारः संभवति, लक्ष्यते हि निश्यपि निदाघ समये ऊष्मोपलब्ध्या रश्मिसद्भाव:, हेमन्तादौ तु हिमाभिवाद दुर्दिन इवोष्मानुपलम्भ:, श्रूयते च नाडी रश्मीनां सर्वदाऽन्योन्यान्वय:- " तद्यथामहापथ श्रातत उभौ लोकौ गच्छतीमं चामुं च प्रामुष्मादा- दित्यात्प्रतायंते त श्रासु नाडी सुसृप्ताः आम्यो नाडीभ्यः प्रतायंते ते मुष्मिन्नादित्ये सृप्ताः " इति । तस्मान्निश्यपि रश्मि संभवान्निशि मृतानामपि विदुषां रश्म्यनुसारेणैव ब्रह्मप्राप्तिरस्त्येव । उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि - रश्मियों के सहारे ही उपासक की ऊर्ध्व गति होती है । “उन्हीं रश्मियों के सहारे” इस अवधारक पद से यह बात निश्चित हो जाती है । यदि इस वाक्य को पक्ष विशेष के लिए मानेंगे तो वाक्यगत " एव" पद की व्यर्थता सिद्ध होगी । जो यह कहा कि रात्रि में मृत उपासक का रात्रि में रश्मि न होने से, रश्म्यनुसार उर्ध्व गमन नहीं हो सकता; सो बात नहीं है, रात्रि में भी रश्म्यनुसार गमन संभव है; गर्मी के दिनों में रात्रि में ऊष्मा होती है जिससे सूर्य रश्मियों का सद्भाव निश्चित होता है, हेमन्त आदि में, हिम से आच्छादित होने के कारण, मेघाच्छादित दिन की तरह ऊष्मा की अनुपलब्धि रहती है । नाडी पोर रश्मियों का एक दूसरे से संबंध होने का उल्लेख भी मिलता है । " जिस प्रकार कोई विस्तीर्ण महापथ. इस (समीपवर्ती) और उस ( दूरवर्ती) दो गावों को जाता है, वैसे ही सूर्य की किरणें, इस पुरुष और आदित्य मंडल, दोनों में प्रविष्ट हैं। जो निरन्तर उस आदित्य से निकलती हैं वो इन नाडियों में व्याप्त हैं, तथा जो इन नाडियों से निकलती हैं वो आदित्य में व्याप्त हैं ।" इत्यादि । इसलिए, रात्रि में भी रश्मियों के सद्भाव के कारण, रात्रि में भी मृत उपासक की, रश्मि अनुसार ही ब्रह्म प्राप्ति होती है ऐसा मानना चाहिए । १० निशाधिकरण:— निशिनेति चेन्न संबंधस्ययावह हभांवित्वात् वशयति च |४| २|१६|| इदमिदनानी चिन्त्यते - विदुषों निशि मृतस्य ब्रह्मप्राप्तिरस्ति, ( १९५६ ). नेति ? यद्यपि निशायां सूर्यरश्मिसंभवाद्रश्भ्यनुसारेण गतिर्निशाया- मपि संभवति, तथापि निशामरणस्य शास्त्रेषु गर्हितत्वात् परमपुरुषार्थं लक्षण ब्रह्मप्राप्तिर्निशामृतस्य न संभवति । शास्त्रेषु दिवामरणम् प्रशस्तम्, विपरीतं निशामरणम् - “दिवा च शुक्लपक्षश्च उत्तरायणमेव च मुमूर्षतां प्रशस्तानि विपरीतं तु गर्हितम्” इति । दिवाम रणनिशामरणयोः प्रशस्तत्व विपरीतत्वे चोत्तमाधमगति हेतुत्वेन स्याताम् । अतो निशिमरणमधोगति हेतुत्वान्न ब्रह्म प्राप्तिरिति चेत् । 1
अब यह विचारते हैं कि- रात्रि में मृत उपासक की ब्रह्म प्राप्ति होती है या नहीं ? यद्यपि रात्रि में भी सूर्य रश्मियों के रहने से, रश्मियों के सहारे रात्रि में भी ऊर्ध्व गमन होता है, फिर भी रात्रि मरण की शास्त्र में गर्हणा की गई है, इसलिए रात्रि में मृत व्यक्ति की ब्रह्म प्राप्ति रूप मुक्ति नहीं हो सकती । शास्त्र में स्पष्ट रूप से दिवामरण को प्रशस्त तथा निशामरण को गर्हित कहा गया है- “दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण, मुमुक्षुओं के लिए प्रशस्त हैं, इससे विपरीत रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन, गहित है’ इत्यादि । दिवामरण और निशामरण के प्रशस्त और गहित होने की बात उत्तम और अधोगति के अधार पर ही कही गई है इसलिए रात्रि मरण में अधोगति होती है, इस आधार पर ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती, ऐसा समझ में आता है । तम्न विदुषः कर्मसंबंधस्य यावद्दे हंभावित्वात् । एतदुक्त भवति - अनान्धकार्याणामधोगति हेतुभूतानां कर्मणां विद्यासंबंधेनैव विनाशादुत्तरेषां चाश्लेषाद प्रारब्ध कार्यस्य च चरमदेहावधित्वाद बन्धहेत्वभावादविदुषो निशामृतस्यापि ब्रह्मप्राप्तिः सिद्धैव । दर्शयति च श्रुतिः " तस्यतावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये प्रथ संपत्स्ये” इति “दिवा च शुक्लपक्षश्च” इत्यादिवचनमविद्वद्विषयम् ।
( ११६० ) उक्त बात ठीक नहीं है, उपासक का कर्म संबंध तो शरीर के रहने तक ही रहता है । कथन यह है कि अधोगति को देने वाले अनेकानेक जन्मों के संचित कर्मों का तथा भविष्य में फलित होने वाले कर्मों का तो विद्या के संबंध से ही विनाश और अश्लेष हो जाता है, प्रारब्ध कर्मों के फल का संबंध भी देह की समाप्ति तक ही रहता है, बंधन में डालने वाले कोई कर्म शेष तो रहते नहीं, इसलिए उपासक की होने पर भी, ब्रह्मप्राप्ति तो निश्चित ही है। श्रुति का कथन भी है कि- “उसकी मुक्ति में तभी तक का विलंब है, जब तक शरीर से नहीं छट जाता ।” “दिवा च शुक्लपक्षश्च” इत्यादि वचन तो अनुपासकों के लिए है । ११. दक्षिणायनाधिकरणः- प्रतश्चायनेऽपि दक्षिणे | ४|२|१६|| रात्रि में मृत्यु निशि मृतस्यापि विदुषो ब्रह्मप्राप्तौ यो हेतुरुक्तः, तत एव हेत दक्षिणेऽप्ययने मृतस्य ब्रह्मप्राप्तिः यसिद्धा । श्रधिका शंका तु “अथ यो दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महि- मानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं गच्छति” इति दक्षिणायेन मृतस्य चंद्रप्राप्ति श्रवणात् चन्द्रंप्राप्तानां च “तेषां यदा तत्पर्यवैत्यथैत- मेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते” इति पुनरावृत्ति श्रवणात् भीष्मादीनां च ब्रह्मविद्यानिष्ठानां उत्तरायणप्रतीक्षा दर्शनाद दक्षिणायने मृतस्य ब्रह्मप्राप्तिर्न संभवति इति । रात्रि में उपासक को ब्रह्म प्राप्ति में जो कारण बतलाया गया, उसी कारण के आधार पर दक्षिणायन में भी मृत उपासक की ब्रह्मप्राप्ति स्वभाव सिद्ध है । इस पर विशेष शंका यह होती है कि- “जो लोग दक्षिणायन में मरते हैं वे पितरों की महिमा को प्राप्त होकर चन्द्रमा का सायुज्य प्राप्त करते हैं” इत्यादि में दक्षिणायन में मरने वाले कों चन्द्र प्राप्ति बतलाई
( ११६१ ) गई है तथा चन्द्र प्राप्त जीव की, " वे जिस मार्ग से गए थे उसी मार्ग से पुनः लौट आते हैं” इत्यादि में पुनारावृत्ति बतलाई गई है तथा ब्रह्मविद्या- निष्ठ भीष्म आदि के उत्तरायण की प्रतीक्षा के उल्लेख से ऐसा लगता है कि दक्षिणायन में मृत व्यक्ति की ब्रह्म प्राप्ति संभव नहीं है । परिहारस्तु - प्रविदुषां पितृयाणेन पथा चन्द्र प्राप्तानामेव पुनरावृत्तिः, विदुषस्तु चंद्र प्राप्तस्यापि " तस्माद् ब्रह्मणो महिमान- माप्नोति” इति वाक्यशेषात्तस्य दक्षिणायन मृतस्य चन्द्रप्राप्तिः ब्रह्म प्रपित्सतो विश्रमहेतुमात्रमिति गम्यते, वाक्यशेषाभावेऽपि पूर्वोक्तादेव बंधहेत्वभावात् विदुषश्चन्द्रप्राप्तस्यापि ब्रह्मप्राप्तिर- निवार्या । भीष्मादीनां योगप्रभावात् स्वच्छंदमरणानां धर्म प्रवर्त्तनायोत्तरायण प्राशस्त्य प्रदर्शनार्थस्तथाविधाचारः । उक्त संशय का परिहार यह है कि - पितृयान से जाकर चन्द्रमसी गति प्राप्ति करने वाले अनुपासक की ही पुनरावृत्ति होती है, उपासक की कभी चान्द्रमसी गति होती भी है तो, “वहाँ से वह ब्रह्म की महिमा को प्राप्त करते हैं” इत्यादि वचन से ज्ञात होता है कि, दक्षिणायन में मृत उपासक की वह चंद्र प्राप्ति ब्रह्म मार्ग में जाते हुए विश्राम के लिए होती है । यदि यह वचन न भी हो तो भी उपासना के कारण उसमें बंधन के हेतु का तो अभाव रहता ही है, जिससे चन्द्र प्राप्त उपासक की ब्रह्म प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है । भीष्मादि के उत्तरायण प्रतीक्षा की जो बात है, वह तो उत्तरायण की श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए और धर्म प्रवर्तन के लिए, योग प्रभाव से स्वच्छंद मरण की बात है । ननु च विदुषो मुमूषून् प्रति पुनरावृत्ति हेतुत्वेन कालविशेष विधिदृश्यते “यत्रकाले त्वनावृत्तिमावृत्ति चैव योगिनः प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभः । श्रग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्, तत्र प्रयाता गच्छंति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः । धूमों रात्रिस्तथाकृष्णः षण्मासादक्षिणायनम्, तत्रचान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्त्तते । शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते, एकया पात्यनावृत्तिमन्ययाऽवर्त्ततेपुनः” इति । तत्राहु-
( १९६२ ) मुमुक्षु उपासकों के लिए तो पुनरावृत्ति के हेतु कालविशेष का वर्णन मिलता है? जैसे- " हे भरतर्षम ! जिस समय योगी की आवृत्ति और अनावृत्ति होती है, उसका नियम बतलाता हूँ, सुनो-अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः महीने के दिनों में जाने वाले ब्रह्मविद ब्रह्म को प्राप्त करते हैं तथा धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष दक्षिणायन के छ: महीनों में जाने वाले योगी चान्द्रमसी ज्योति को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं इस प्रकार की शुक्ल और कृष्ण की गतियाँ, जगत में शाश्वत काल से चली आ रही हैं, जिनमें से एक में जाने पर आवृत्ति होती है । " इत्यादि, इसका समाधान करते हैं- योगिनः प्रति स्मर्येते स्मार्से चैते |४| २|२०|| नात्र मुमूषून प्रति मरण काल विशेषोपादानं स्मर्यते श्रपितु योगिनः, योग निष्ठान् प्रति स्मार्त्ते - स्मृति विषयभूते स्मत्तंव्ये देवयान पितृयानाख्ये गती स्मयेते, योगांगतयाऽनुदिनं स्मर्तुम् । तथाहि उपसंहारः - " नैते सृती पार्थं जानन् योगी मुह्यति कश्चन् तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन" इति “अग्निर्ज्योती” “धूमो रात्रिः” इति च देवयान पितृयाणे प्रतिभिज्ञायेते उपक्रमे च “यत्र काले तु” इति काल शब्द: कालाभिमानिदेवतातिवाहिकपरः, श्रग्न्यादेः कालत्वासंभवात् । अतः " तेऽचिषमभिसंभवंति" इति विदितदेव- यानानुस्मृतिरत्र विद्यानिष्ठान्प्रति विधीयते, न मुमूषून प्रति मरणकालविशेषः । उक्त प्रसंग में मुमुक्षु उपासकों, के मरण काल विशेष का उल्लेख नहीं है, अपितु कर्म योग में संलग्न व्यक्तियों की गति का उल्लेख है । स्मृतियों में जो, देवयान पितृयान नामक गतियों का उल्लेख है वह, कर्म- योग के अंग विशेष रूप से सदैव ज्ञातव्य है । जैसा कि उक्त प्रसंग के उपसंहार में स्पष्ट कहा गया कि - " हे अर्जुन ! उक्त दोनों गतियों कों
( ११६३ ) जानकर कर्मयोगी कभी मोह में नहीं पड़ते, इसलिए तुम सदैव कर्मयोग में संलग्न रहो ।" इत्यादि “ अग्नि ज्योति” और “धूमो रात्रिः" इत्यादि से देवयान और पितृयान मार्ग का उल्लेख है । उपक्रम में जो “यत्र काल” कहा गया है, वहाँ काल शब्द कालाभिमानी देवता अतिवाहक का वाचक है, अग्नि इत्यादि में कालत्व नहीं हो सकता है । “तेर्चिषभमिसंभवंति " इत्यादि में, विद्या निष्ठों के लिए, देवयान मार्ग प्राप्ति का उल्लेख किया गया है । मुमुक्षुओं के मरण काल विशेष का प्रसंग नहीं है । चतुर्थ अध्याय द्वितीय पाद समाप्त
३
१ अधिराद्यधिकरण: चतुर्थ - अध्याय तृतीय पाद श्रचिरादिना तत्प्रथितेः ॥४ | ३ | १ || विदुष उत्क्रान्तस्यनाडी विशेषेण हार्दानुग्रहात् गत्युपक्रम उक्तः । तस्य गच्छतो मार्ग इदानीं निर्णीयते । तत्र श्रुतिषु मार्ग प्रकारा- बहुधा ग्राम्नायन्ते छांदोग्ये तावत् - " यथा पुष्कर पलाश आपो नश्लिष्यंते एवमेवंविदि पापकर्म नश्लिष्यते” इत्युपक्रम्य ब्रह्मविद्यामुपदिश्याम्नायते “अथ यदु चैवस्मिञ्च्छव्यं कुवति यदु च न अविषमेवाभिसंभवंति प्रचिषोऽहरहः, श्रापूर्यमाणपक्ष मापूर्यमाण- पक्षाद्यान् षडदंगेति मासांस्तान् मासेभ्यः संवत्सरं संवत्सरादादित्य- मादित्याच्चंद्रमसं चंद्रमसो विद्युतं तत्पुरुषोऽमानवः, स एनान् ब्रह्म गमयत्येष देवपथो ब्रह्मपथः एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावत्तं नावत्तन्ते” इति । तथाऽत्र वाष्टमे - “प्रथैतैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमा- क्रमते " इति । कौषीतकिनश्च देवयानमार्गमन्यथाऽधीयते “स एतं देवयानं पथानमापद्यग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरुण- लोकं स आदित्यलोकं स इन्द्रलोकं स प्रजापति लोकं स ब्रह्मलोकम्” इंति । तथा वृहदारण्यके-य एवमेतद् विदुर्येवेमेऽरण्ये श्रद्धां सत्य- मुपासते तेऽचिषमभिसंभवंति प्रचिषोऽहरहः प्रपूर्यमाणपक्षमा पूर्य- मारणपक्षद्यान् षण्मासानुदङदित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देव लोकादादित्यलोकं श्रदित्याद वैद्युतं वैद्युतात् पुरुषोऽमानवः स एत्य
( ११६५ ) ब्रह्मलोकान् गमयति” इति । तत्रैव पुनरन्यथा “मदा वैपुरुषो- इस्माल्लोकात् प्रैति स वायुमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा रथचक्रस्य स्वतेन स ऊर्ध्वमाक्रमते स आदित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा रथचक्रस्य खंतेन स ऊर्ध्वमाक्रमते स आदित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा प्राडम्बरस्य खंतेन स ऊर्ध्वमाक्रमते स चन्द्रमसमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा दुन्दुभेः खम्” इत्यादि । तत्र संशयः किमर्चरादिरेक एव मार्ग श्रभिः श्र तिभिः प्रतिपद्यत् इति तेनैव ब्रह्म गच्छति विद्वान् उत् तस्मादन्येऽन्यत्रमार्गा इति तैर्वाऽनेन वेत्यनियमः ? इति । कि युक्तम् अनियम् इति, कुतः ? अनेकरूपत्वान्नैरपेक्ष्याच्चैति । 37 इस प्रकार हृदय की विशेष नाडी के सहारे उत्क्रांत उपासक की गति उपक्रम का वर्णन किया गया । अब उसके जाने वाले मार्ग के विषय का निर्णय करते हैं । श्रुतियों के मार्ग का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे कि - छांदोग्य में- “जैसे कि कमल का पत्ता जल से पृथक रहता है, वैसे ही उपासक पापकर्म से अनाश्लिष्ट रहता है उपक्रम करते हुए ब्रह्म विद्या का उपदेश देकर कहते हैं - " वे जो इस प्रकार जानते हैं, अचि अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं, अचि अभिमानी देवताओं से दिवसाभिमानी देवताओं को दिवसाभिमानियों से शुक्ल पक्षाभिमानी देवताओं को शुक्लपक्षाभिमानियों से जिन छः महीनों से सूर्य उत्तर की ओर जाता है, उन छः महीनों को, उन महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से प्राहित्य को आदित्य से चन्द्रमा को, और चन्द्रमा से विद्युत को प्राप्त होते हैं वहाँ एक अमानव पुरुष है जो कि उन्हें ब्रह्म को प्राप्त करा देते हैं, आरूढ़ हुए पुरुष इस मानव देह में इसी के आठवें अध्याय में कहा गया मित होते हैं, ’ इत्यादि । कौषीतकि में वर्णन किया गया है - " जो इस देवयान मार्ग में आरूढ़ होता है वह अग्नि लोक को जाता है, वह वायुलोक को जाता है, वह वरुणलोक को जाता 1 यह देव मार्ग ब्रह्ममार्ग है इस पथ पर लौटकर नहीं आते” इत्यादि तथा कि - " इन्हीं रश्मियों से ऊपर आक- देवयान मार्ग का भिन्न प्रकार से
P ( ११६६ ) ७ है, वह आदित्य लोक को जाता है, वह इन्द्रलोक को जाता है, वह प्रजापति लोक को जाता है, वह ब्रह्मलोक को जाता है । " इत्यादि तथा वृहदारण्यक में वर्णन मिलता है-" जो इस प्रकार इसे जानते हैं अथवा जीवन में श्रद्धा से सत्य ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे ज्योति के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं, ज्योति के अभिमानी देवताओं से दिन के अभि- मानी देवताओं को दिन के अभिमानी देवता से शक्ल पक्षामिमानी देवता को पक्षाभिमानी देवता से जिन छः महीनों में सूर्य उत्तर की ओर रहता है उन छ महीनों के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं, षणमा- साभिमानी देवतानों से देवलोक को, देवलोक से आदित्य को, और आदित्य से विद्युत्संबंधी देवताओं को प्राप्त होते हैं उन वैद्यत देवों के पास एक अमानव पुरुष आकर इन्हें ब्रह्मलोकों में ले जाता है " इत्यादि उसी उपनिषद में पुनः भिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है-" जब पुरुष मर कर इस लोक से जाता है वह वायु को जाता है वहाँ वह वायु छिद्र- युक्त होकर मार्ग दे देता है जैसा कि रथ के पहिए का छिद्र होता है । उसके द्वारा वह ऊर्ध्व होकर चढ़ता है, वह सूर्य लोक में पहुँच जाता है, वहाँ सूर्य उसके लिए वैसा ही छिद्रउक्त मार्ग देता है, जैसा कि डम्बर का छिद्र होता है, उससे वह ऊपर की ओर चढ़ता है, वह चन्द्र लोक में पहुँच जाता है, वहाँ चन्द्रमा भी उसे छिद्र दे देता है जैसा कि दुदु भी का छिद्र होता है, उसके द्वारा वह ऊपर की ओर चढ़ता है, वह अशोक और अहिम लोक में पहुँच जाता है उसमें सदा - " इत्यादि । इस पर संशय होता है कि- अचिरादि के एक ही मार्ग का इन पादन किया गया है, जिससे कि उपासक अथवा भिन्न-भिन्न मार्गों का प्रतिपादन है ? से किसी से भी जाने का अनियम दिखलाया गया है ? विचारने पर श्रनियम ही समझ में आता है क्योंकि अनेक मार्गों कोई विशेष अपेक्षित मार्ग तो बतलाया नहीं गया है । श्रुतियों में प्रति- ब्रह्म को प्राप्त करता है, अथवा इन भिन्न मार्गों में का उल्लेख सिद्धान्तः - एवं प्राप्तेऽभिधीयते - प्रचिरादिना इति । अचिरादि- रेक एवं मार्गः सर्वत्र प्रतिपाद्यते । अतोऽचिरादिनैव गच्छति । कुतः ? तत्प्रथितः तस्यैव सर्वत्र प्रथितेः । प्रथितिः प्रसिद्धिः, तस्यैव सर्वत्र प्रत्यभिज्ञानात् स एव मार्गः सर्वत्र न्यूनाधिकभावेन प्रतिपाद्यत
इति ( १९६७ ) विद्यागुणोप सहांरवदन्यत्रोक्तानामन्यत्रोपसंहारः क्रियते । छांदोग्ये तावदुपकोसलविद्यायां पंचाग्निविद्यायां चैकरूप एवा- म्नायते, वाजसनेयके च पंचाग्निविद्यायां तथैवाचिरादिः, अल्पान्तरमाम्नायते, अतस्तत्रापि स एवेति प्रतीयते । अन्यत्रापि सर्वत्राग्न्यादित्यादयः प्रत्यभिज्ञायन्ते । उक्त संशय पर सिद्धान्त रूप से " अचिरादिना" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं। एक ही अर्चिरादि मार्ग का सब जगह प्रतिपादन किया गया है । उपासक अचिरादि मार्ग से ही जाता है । उसी मार्ग से उसके जाने की सर्वत्र प्रसिद्धि है । उसी एक मार्ग का सर्वत्र न्यूनाधिक रूप से वर्णन किया गया है । विद्याओं के गुणोपसंहार की तरह इसका भी अन्यत्र जो उल्लेख है उसका अन्यत्रं उपसंहार किया गया है । जैसे कि छांदोग्य की उपकोसल और पंचाग्नि विद्या के प्रसंग में उक्त मार्ग का एक सा वर्णन किया गया है, वाजसनेयक की पचाग्नि विद्या में इस अचिरादि का कुछ थोड़े से अन्तर से वर्णन है, इसलिए वहाँ भीउसी का वर्णन प्रतीत होता है । अन्यत्र भी अग्नि आदित्य आदि की प्राप्ति प्रायः समान रूप से ही दिखलायी गई है । २ वाय्वधिकरणः- वायुमब्दादविशेष विशेषाभ्याम् ||३| २ || अर्चिरादिनैव गच्छंति विद्वांस इत्युक्तम, तत्रार्चिरादिके मार्गे छंदोगा: मासादित्योरन्तराले संवत्सरमधीयेते - “मासेभ्यः संवत्सरं संवत्सरादादित्यम्” इति । वाजसनेयिनस्तुतयोरेवान्तराले देवलोकं - “मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यम्” इति । उभयत्रापि मार्ग स्यैकत्वादुभयत्रोपसंहार्यौ । तत मासादूर्ध्वमभिहितयोः संवत्सर प्रथितेः । प्रथितिः प्रसिद्धि:, तस्यैव सर्वत्र प्रत्यभिज्ञानादित्यर्थः देवलोकयोः पंचम्याभिहितस्य श्रौतक्रमस्य तुल्यत्वे हि - " चिंषोऽह- रहू अपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षद्यान् षड़दंगेति मासांस्तान्”
( ११६८ ) इत्यधिककालानां न्यून कालेभ्य उत्तरोत्तरत्वेन निवेशदर्शनात् संवत्सरस्यैव मासादनंतरं बुद्धौ विपरिवृत्त ेः संवत्सर एव मासा - दूध्वं निवेशयितव्य इति तत ऊर्ध्वं देवलोक इति निश्चीयते । उपासक अर्चिरादि पथ से जाते हैं यह बतलाया गया । अर्चिरादि मार्ग के वर्णनों में कुछ भेद है उस पर विचार करते हैं जैसे कि - छांदोग्य में मास और आदित्य के बीच संवत्सर का वर्णन है - " मास से संवत्सर संवत्सर से आदित्य ।” वाजसनेयी में उन दोनों के बीच देवलोक का वर्णन है - " मासों से देवलोक देवलोक से आदित्य ।” मास से ऊपर जिन संवत्सर और देवलोक का पंचमी विभक्ति से उल्लेख किया गया है वह श्रौतक्रम के अनुसार ही है । “अचि अभिमानी से दिवसा- भिमानी को, दिवसाभिमानी से शुक्लपक्षाभिमानी को दिवसाभिमानी से उत्तरायण के महीनों को, उत्तरायण के महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से” इत्यादि में जो समय के न्यूनाधिक क्रम का उत्तरोत्तर वर्णन किया गया है उससे, मास से बाद संवत्सर की स्थिति ही समीचीन प्रतीत होती है मास से संबत्सर में प्रवेश करने की बात ही बुद्धिगम्य होती है, उसके ऊपर देवलोक की स्थिति निश्चित होती है । अन्यत्र वाजसनेयिनः " यदा वै पुरुषोऽस्माल्लोकात् प्रैति स वायुमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहोते यथा रथ चक्रस्य खंतेन स ऊर्ध्वमाक्रमते स श्रादित्यमागच्छति" इत्यादित्यात्पूर्वं वायुम- धीयते । कौषीतकिनस्तु - " स ए देवयानं पंथानमापद्याग्नि लोकमागच्छति स वायुलोकम्" इत्यग्निलोकशब्द निर्दिष्टादचिषः परं वायुमधीयते । तत्र कौषीतकिनां पाठक्रमेणार्चिषः परत्वेन प्राप्तस्य वायोः वाजसनेयिनां “तेन स ऊध्वंमाक्रमते स श्रादित्य- मागच्छति” इत्यूर्ध्वशब्द निर्दिष्ट श्रौतक्रमेण पाठक्रमाद् बलीयसा आदित्यात्पूर्व प्रवेशो निश्चीयते । । दूसरी जगह वाजसनेयी में “यदावै पुरुषो" इत्यादि में आदित्य के पूर्व वायुलोक प्राप्ति की बात कही गई है । तथा कौषीतकि में - " स एतं देवयानं" इत्यादि में अग्निलोक शब्द से निर्दिष्ट अचि के बाद वायु- ( ११६६ ) लोक के वर्णन से वाजसनेयी का “तेन स ऊर्ध्व” इत्यादि वर्णन श्रौतक्रम से निर्दिष्ट ऊर्ध्व पद के पाठ के कारण श्रेष्ठ होता है, जिससे आदित्य से प्रथम वायुलोक में प्रविष्ट होना निश्चित होता है । , अत आदित्यात्पूर्वं संवत्सरादूर्ध्वं देवलोकोवायुश्चप्राप्तौ तवेदं चिन्त्यते, कि देवलोकोवायुश्चार्थान्तरभूतौ यथेष्टक्रमेण विद्वान अभिगच्छेत् उतानर्थान्तरत्वेन संवत्सरादूध्वं देवलोकं संवं वायु- मभिगच्छेत् ? किं युक्तम् ? भिन्नार्थत्वं प्रसिद्ध ेः । भिन्नार्थत्वे चो- ध्वंशब्देन पंचम्या चोभयोः संवत्सरादित्यान्तराले श्रुतिक्रमेण प्राप्तत्वात् विशेषाभावाच्च यथेष्टम् । इस प्रकार भिन्न प्रकरणों में संवत्सर के ऊपर आदित्य से प्रथम देवलोक और वायु का उल्लेख मिलता है । इस पर विचार होता है कि- देवलोक और वायु दोनों एक ही हैं जिनसे होकर उपासक जाता है अथवा संवत्सर से ऊपर देवलोक को पार कर वायु को जाता है ? वैसे दोनों की भिन्न अर्थों में ही प्रसिद्धि है, दोनों के लिए ही पंचमी का प्रयोग किया गया है, तथा दोनों की संवत्सर के ऊपर आदित्य के पहिले स्थिति बताई गई है इसलिए दोनों में किसी को भी माना जा सकता है, दोनों को भी माना जा सकता है । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - वायुमब्दात् । इति वायुं संवत्सरादूर्ध्वमभिगच्छेत् । कुतः ? श्रविशेष, विशेषाभ्यां वायोरेव निर्दिष्टत्वात् । देवलोक शब्दो हि प्रविशेषेण, सामान्येन देवानां लोक इत्यनेन रूपेण वायुमभिधत्ते । “सवायुमागच्छति तस्मै स तत्र" इति वायुशब्दो विशेषेण वायुमभिधत्ते । श्रतो देवलोक वायुशब्दाभ्यां श्रविशेष विशेषाभ्यां वायुरेवाभिधीयत इति संवत्सरादूध्वं वायुमेवाभिगच्छेत् । कौषीतकिना वायुलोक शब्द- श्चाग्निलोकशब्दवत् वायुश्चासौ लोकश्चेति व्युत्पत्या वायुमेवा- भिधत्ते । वायुश्चदेवानामावासभूत इत्यन्यत्र यते - " योऽयं पवत एष देवानां ग्रहाः" इति ।
( ११७० ) करते हैं कि संवत्सर से ऊपर का अविशेष और विशेष रूप उक्त चिन्तन पर सिद्धान्त प्रस्तुत वायु को ही जाते हैं । देवलोक और वायु से वर्णन किया गया है, विशेषता वायु का ही निर्देश है । देवलोक शब्द अविशेष है, देवताओं का लोक इस व्युत्पत्ति के अनुसार वायु का ही देवलोक के रूप में वर्णन किया गया है। “स वायुमागच्छति" इत्यादि में वायु शब्द का विशेषोल्लेख है, इसलिए वायु की बात ही ठीक है । देवलोक और वायु शब्दों के अविशेष और विशेषरूप से उल्लेख होने से संवत्सर से ऊपर वायु की स्थिति ही निश्चित होती है । कौषीतकि में जिस वायु का उल्लेख है, वह अग्नि लोक की तरह वायु लोक का ही है । वायु को देवताओं का आवास स्थान कहा भी गया है- " जो यह वायु है वह देवताओं का आवास स्थान है" इत्यादि । ३ वरुरणाधिकररणः- तटितोऽधिवरुणः संबंधात् |४| ३ | ३ || कौषीतकिनां “स एवं देवयानं पंथानमापद्याग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरुणलोकं स श्रादित्यलोकं स इन्द्रलोकं, स प्रजापतिलोकं स ब्रह्मलोकम्” इत्याग्निलोक शब्दस्याचिः पर्यायत्वेन प्राथम्यबिगीतम् । वायोश्च संवत्सरादूर्ध्वं निवेश उक्तः । आदित्यस्याप्यत्र प्राप्त पाठक्रमबाधेन “देवलोकादादित्यमादित्याद- वैद्युतम्” इति वाजसनेयकोक्त श्रुतिक्रमादेवलोक शब्दाभिहिताद- वायोरुपरि निवेशः सिद्धः । इदानीं वरुणेन्द्रादिषु चिन्ता । किमेते वरुणादयो यथापाठं वायोरूर्ध्वं निवेशयितव्याः, श्राहोस्वित् विद्युतोऽघीति विशये प्रर्चिः प्रभृतिषु सर्वेषु " प्रचिषोऽहः” इत्यादि श्रतिक्रमोपरोधाद विद्युतः परस्ताच्च " तत्पुरुषोऽमानवः स एवान् ब्रह्म गमयति" इति विद्युतपुरुषस्य ब्रह्मगमयितृत्व श्रवणात् सर्वत्रावकाशाभावेना प्राप्तौ च उपदेशा वैयर्थ्यायावश्यं कस्यचिद
( ११७१ ) बाध्यत्वे पाठक्रमानुरोधेन वायोरनन्तरं वरुणों निवेशयितव्यः वाय्वादित्ययोः क्रमस्य बाधितत्वेनेन्द्रप्रजापती अपि हि अत्रैव निवेशयितव्यौ । कौषीतकी में वर्णन आता है - " वह इस देवपथ पर आरूढ़ होकर अग्निलोक पहुँचता है, फिर वह क्रमशः वरुणलोक, आदित्य लोक, इन्द्र लोक, प्रजापति लोक, होकर ब्रह्मलोक पहुँचता है" इत्यादि । इसमें अग्निलोक शब्द अचि का पर्यायवाची है इसलिए उसका सर्वप्रथम वर्णन किया गया है । पहिले वायु का संवत्सर से ऊपर निवेश बतलाया गया है । “देवलोकात् आदित्यम आदित्याद वैद्युतम्" इत्यादि वाजसनेयी श्रति क्रम से भी, देवलोक शब्द वाची वायु के ऊपर सूर्य लोक का निवेश निश्चित होता है जब कि उक्त कौषीतकि वाक्य में आदित्य का पाठ्य क्रम भी बदला है इस वाक्य में वरुण इन्द्र आदि का विशेषोल्लेख है इस पर विचारना यह है कि इन वरुण इन्द्रादि को पाठ्यक्रम के अनुसार वायु के ऊपर निविष्ट किया जाय अथवा विद्य ुत लोक के नीचे ? समझ में तो यही आता है कि- “अचिषोह: " में जो क्रम दिया गया है उसके अनुसार तो विद्युत के बाद ही इनका निवेश होना चाहिए " तत्पुरुषोऽ- मानवः” इत्यादि में जिस अमानवीय विद्य ुत पुरुष की ब्रह्मलोक तक पहुँचाने की चर्चा आई है उससे तो विद्यत से प्रथम किसी के होने का अवसर ही नहीं है, साथ ही ऐसा न मानने पर उपदेश भी व्यर्थ सिद्ध होता है, इसलिए पाठक्रमानुसार वायु के बाद ही वरुण को प्रवेश करना चाहिए’ तथा वायु और आदित्य के क्रम में बाधा न हो इसलिए इन्द्र और प्रजापति को भी यहीं प्रविष्ट करना चाहिए । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - “तरितोऽधिवरुणः” इति । वरुणः तावद् विद्युत् उपरिष्टात् निवेशयितव्यः । कुतः ? संबंधात्- मेधोदरवत्वात् विद्युतो वरुणेन संबंधो लोक वेदयोः प्रसिद्धः । एतदुक्तं भवति - वरुणादीना मुपदेशा वैयर्थ्याय क्वचिन्निवेशयितव्यत्वे सति पाठक्रमादर्थंक्रमस्य बलीयस्त्वाद विद्युतोऽधिवरुणो निवेशयि तव्यः, ततश्चामानवस्य गमयितृत्वं व्यवधानसह मित्यवगम्यते ।
( ११७२ ) तस्य च व्यवधानसहत्वात् इन्द्रादेश्चोपदिष्टस्यावश्यनिवेशयितव्यस्य वरुणादुपर्युपदिष्टत्वादागन्सूनामंते निवेशयितव्यत्वाच्च वरुणा दुपरी- न्द्रादिनिवेशयितव्य इति । उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि- वरुण को विद्युत के नीचे निविष्ट करना चाहिए, क्योंकि लोक और वेद में, मेघ के उदर में व्याप्त होने से, विद्य ुत का वरुण के साथ, प्रसिद्ध संबंध है । कथन यह है कि- वरुण आदि का जो देवयान पथ में उल्लेख किया गया है वह व्यर्थ न होने पावे, उन्हे कहीं तो स्थान देना ही होगा, इसलिए पाठक्रमसे अर्थक्रम बल- वान होता है इस सिद्धान्त के अनुसार वरुण को विद्युत के नीचे निविष्ट करना चाहिए तभी अमानव पुरूष के ले जाने की बात व्यवधान के साथ बन सकेगी । उसका जो ब्यवधान है उसी में इन्द्र आदि का निवेश किया जाना चाहिए । वरूण से ऊपर उन सबका उल्लेख किया गया है इसलिए वरुण से ऊपर ही इन्द्र आदि का निवेश होना चाहिए । ४. प्रतिवाहिकाधिकरणः- आतिवाहिकास्तरिलगात् |४ | ३ | ४ || इदमिदानीं चिन्त्यते, किमचिरादयोः मार्गचिन्हभूतः उत् भोगभूमयः, अथवा विदुषां ब्रह्म प्रेप्सितामतिवोढार: ? इति कि तावद युक्तम् ? मार्ग चिन्हभूता इति कुतः ? उपदेशस्य तथा विधत्वात् दृश्यते हि लोके ग्रामादीनप्रति गंतृणामेवंविधो दैशिकैरुपदेश: - " इतोनिष्क्राभ्यामुकं वृक्षं प्रमुकां नदीं प्रमुकं च पर्वतपाश्वं गत्वाऽमुकं ग्रामंगच्छ" इति । अथवा भोगभूमयएताः स्युः, काल विशेषतया - प्रसिद्धानाम- हरादीनां मार्गत्वानुपपत्तेरन्यस्य च मार्गचिह्नभूतस्यैतेषा- मनिधायकत्वात् । भोगभूमित्वं च “एत एव लोका यदहोरात्राण्यधर्म मासा मासा ऋतवः संवत्सराः” इत्यहुरादीनां लोकत्ववचनादुपपद्यते ।
( ११७३ ) श्रतएव च कौषीतकिनः " अग्निलोकमागच्छति" इत्यादिना लोकशब्दानुविधानेनाचिरादीन् पठन्तीति ।
अब यह विचारते हैं कि यह अर्चिरादि केवल मार्ग के चिह्नमात्र हैं अथवा भोगभूमियाँ हैं अथवा उपासक को ब्रह्म की ओर ले जाने वाले दूत हैं ? मार्ग के चिह्न हो सकते हैं, ऐसा देखा जाता है कि गाँव की ओर जाने वाले पथिक को प्रायः बतलाया जाता है कि - “यहाँ से निकल कर अमुक वृक्ष पड़ेगा तब आपको एक नदी दीखेगी उससे पर्वत के किनारे किनारे जाकर वो गाँव पड़ेगा वैसे ही ब्रह्मलोक की ओर जाने वाले उपासक के लिए ये अर्चिरादि परिचायक चिह्नमात्र ही हैं । अथवा भोगभूमि भी हो सकती हैं। कालविशेष रूप से प्रसिद्ध दिनमास आदि मार्ग के चिह्न नहीं हो सकते, मार्ग- के चिह्नरूप से इनका उल्लेख भी नहीं मिलता भोग्य भूमि के रूप में तो इनका वर्णन आता भी है - “ये रात्रि दिन, मास, ऋतुएं और संवत्सर सब लोक हैं” इत्यादि । इसी प्रकार कौषीतकी में भी " अग्निलोक में पचहुँता है” इत्यादि से अर्चिरादि को लोक रूप से बतलाया गया है । इसलिए ये सब लोक भोग्य भूमि ही हैं । सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते ब्रूमः - " प्रतिवाहिका" इति । विदुषा- मतिवाहे परंपुरुषेण नियुक्ताः प्रतिवाहिकाः देवताविशेषा एते श्रचिरादयः । कुतः ? तल्लिंगात् प्रतिवहन लिंगात् । प्रतिवहनं हि गन्तृणां गमयितृत्वम् । गमयितृत्त्वं च - " तत्पुरुषोऽमानवः स एनान् ब्रह्म गमयति" इत्युपसंहारे श्रूयमाणं पूर्वेषामप्यविशेष श्रुतानां स एव संबंध इति गमयति । वदति चाचिरादयः शब्दाः, श्रचिराद्यात्मभूतानभिमानिदेवताविशेषान् । “तं पृथिव्यत्रवीत् " इतिवत् । • उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “आतिवाहिका” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं, उपासक को ले जाने वाले, परंपुरुष की ओरसे नियुक्त, आति वाहिक देवताविशेषों को ही अर्चिरादि नाम से अतिवहन का चिह्न भी इनमें पाया जाता है। जाने बतलाया गया है । वाले को ले जाने
( ११७४ के सामर्थ्य को अतिवहन कहते हैं । जैसा कि - " वह मानव पुरुष इन्हे ब्रह्म की ओर पहुँचाता है “इत्यादि उपसंहार के वाक्य से ज्ञात होता है । अचिरादि शब्द, अचिरादि के आत्मभूत अभिमानी देवता विशेष के परिचायक हैं । जैसे कि - " उससे पृथ्वी बोली” इत्यादि । यद्येवं " तत्पुरुषोऽमानवः स एनान् ब्रह्म गमयति” इति वैद्युतस्यैव पुरुषस्य ब्रह्मगमयितृत्व श्रुतेविद्युतः परेषां वरुणादीनां कथमातिवाहिकत्वेनान्वय इत्यत्राह - " वह अमानव पुरुष इन्हें ब्रह्म की ओर पहुँचाता है" में तो केवल, वैद्यत पुरुष को ही ब्रह्म की ओर ले जाने की बात आती है, फिर विद्य ुत से भिन्न वरुणादि का आतिवाहिक के रूप से समन्वय कैसे संभव है? वैद्युतेनैव ततस्तच्छू तेः ॥४।३।५। ततः विद्युत उपरि, वैद्युतेन प्रमानवेनैवातिवाहिकेन विदुषा- माब्रह्मप्राप्तेर्गमनम् । कुतः ? तच्छ्रुतेः “स एनान् ब्रह्म गमयति” इति तस्यैव गमयितृत्वश्रुतेः । वरुणादयस्त्वनुग्राहका इति तेषामप्यातिवाहिकत्वेनान्वयो विद्युत इति । विद्यत से ऊपर उस अमानव आतिवाहक वैद्यत पुरुष को, उपा- सक को, ब्रह्म की ओर ले जाने की बात आती है ।, “स एनान् ब्रह्म गमयति” इत्यादि श्रुति उसका ही अतिवाहकत्व वहाँ पर बतलाती है । वरुण इत्यादि तो उसके अनुग्राहक मात्र हैं इसलिए उनका भी अतिवाहक रूप से अन्वय हो सकता है । ५. कार्याधिकरणः- कायं बादरिरस्य गत्युपपतेः |४ | ३ |६|| श्रर्चिरादिरैव गच्छति विद्वान् श्रर्चिरादिरमानवांतश्च गण प्रातिवाहिको विद्वांसं ब्रह्म गमयतीत्युक्तम् । इदं इदानीं चिन्त्यते - किमयमर्चिरादिको गणः कार्यं हिरण्यगर्भमुपासीनान्नयति, उत् परमेव
( १९७५ ) ब्रह्म उपासीनान्, अथ परंब्रह्मोपासीनान् प्रत्यगात्मानं ब्रह्मात्मक तयोपासीनांश्च ? इति विशये - कार्यमुपासीनानेव गमयति इति बादरिराचार्यो मन्यते । कुतः ? अस्य हिरण्यगर्भमुपासीनस्यैव गत्युपपत्तेः, न हि परिपूर्ण सर्वज्ञं सर्वगतं सर्वात्मभूतम् परं ब्रह्मोपासीनस्य तत्प्राप्तये देशान्तरगतिरुपपद्यते, प्राप्तत्वादेव नित्य प्राप्त परब्रह्म विषयाविद्या निवृत्तिमात्रमेव हि परविद्याकार्यम् । कार्यं तु हिरण्यगर्भरूपं ब्रह्मोपासीनस्य परिच्छिन्नदेशवत्तिं प्राप्त्यर्थं गमनमुपपद्यते । श्रतोऽर्चरादिरातिवाहिकगणस्तमेव नयति । उपासक अचिरादि द्वारा जाता है, अमानव अर्चिरादि आतिबाहिक गण, उपासक को ब्रह्म तक पहुँचाते हैं’ यह बतलाया गया । अब विचार यह होता है कि अचिरादिगण, कार्यब्रह्म हिरण्यगर्भ के उपासकों को पहुँचाते हैं प्रथवा परब्रह्म के उपासकों को अथवा उपासकों में उनको ही पहुँचाते हैं जो ब्रह्मात्मक भाव से उपासना करते हैं ? इस संशय पर बादरि आचार्य का मत है कि कार्यब्रह्म के उपासकों को ही पहुँचाते हैं । हिरण्यगर्भ के उपासक के गमन की बात हो सकती है, परिपूर्ण सर्वज्ञ सर्वगत, सर्वात्मभूत परब्रह्म के उपासकों को उसे प्राप्त करने के लिए अन्यत्र जाने की आवश्यकता ही क्या है, वह तो उन्हें प्राप्त ही है, नित्य प्राप्त परब्रह्म के विषय में जो अविद्या है’ उसकी निवृत्ति करना हो तो परविद्या का कार्य है, उसकी निवृत्ति होते ही सर्वत्र ब्रह्मानुभूति होने लगती है । हिरण्यगर्भ रूप कार्यब्रह्म के उपासक को ही, देश- विशेष ब्रह्मलोक में जाने की बात हो सकती है। अतः अचिरादि आतिवाहिक गण उन्हीं को ले जाते हैं । विशेषितत्वाच्च | ४ | ३ |७|| “पुरुषोंऽमानव एत्यं ब्रह्मलोकान्गमयति” इति लोक शब्देन बहुवचनेन च लोकविशेष वर्त्तिनं हिरण्यगर्भमुपासीनमेवा मानवों गमयतीति विशेष्यते । कि च “प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये, इति
कार्यस्य हिरण्यगर्भस्य संधत्ते । ( १९७६ ) समीपगमनमचिरादिना गतः प्रत्यभि- “अमानव पुरुष लेकर ब्रह्मलोक जाता है” इत्यादि वाक्य में जो लोक शब्द में बहुवचन का प्रयोग किया गया है, वह लोक विशेष वर्त्ती हिरण्यगर्भ के उपासक को ही ले जाला है, इस भाव का द्योतक है । " प्रजापति के सभामंडल में उपस्थित होते हैं" इत्यादि में, स्पष्ट रूप से अचिरादि द्वारा, कार्यब्रह्म हिरण्यगर्भ के निकट ले जाने की बात कही गई है । नन्वेवं “तत्पुरुषोऽमानवः " स एनान् ब्रह्मगमयति” इत्ययं निर्देशो नोपपद्यते, हिरण्यगर्भनयने हि “स एनान् ब्रह्माणं गमयति” इति निर्देष्टव्यं स्यात् । श्रत ग्राह- “वह अमानव पुरुष इन्हें ब्रह्म के पास ले जाता है” ऐसा निर्देश नहीं हो सकता, हिरण्यगर्भ के पास ले जाने के प्रसंग में तो उक्त वाक्य के स्थान पर " वह इन्हें ब्रह्मा के पास ले जाते हैं" ऐसा पाठ होना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं- सामीप्यात तद्व्यपदेशः | ४ | ३ | ८ || “यो ब्रह्माणं विदधाति” इति हिरण्यगर्भस्य प्रथमजत्वेन ब्रह्म सामीप्यात्तस्य ब्रह्मशब्देन व्यपदेश इति गत्यनुपपत्ति विशेषणा- विभिरुक्तैर्हेतुभिनिश्चीयत इत्यर्थः । “यो ब्रह्माणं विद्धाति” इत्यादि में हिरण्यगर्म का सर्वप्रथम अज- रूप से वर्णन किया गया है, तथा ब्रह्म के समीपवर्ती होने से उन्हें भी ब्रह्म ही कहा गया है इसलिए उनके निकट ले जाने की बात कोभी “ब्रह्म के पास ले जाते हैं” ऐसा कहा गया है ।
श्रथ स्यात् श्रर्चिरादिना हिरण्यगर्भ प्राप्ती “एषदेवपथों ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावत’ नावर्त्तन्ते “तयों- मापन्नमृतत्वमेति” इत्यमृतत्व प्राप्त्यपुनरावृत्ति व्यपदेशो नोपपद्यते, हिरण्यगर्भस्य कार्यभूतस्य द्विपराधं कालावसाने विनाश शास्त्रात्
( ११७७ ) " प्राब्रह्म भुवनांल्लोकाः पुनरावत्ति नोऽर्जुनः” इति वचनात् हिरण्यगर्भ प्राप्तस्य पुनरावृत्तेवर्जनीयत्वात - इति । तत्राह- यदि अर्चिरादि द्वारा हिरण्यगर्भ की प्राप्ति मानेंगे तो “इस देवमार्ग ब्रह्मपथ को प्राप्त मानव इस संसार में लौटकर नहीं आता " उससे ऊपर जाकर अमृतत्व प्राप्त करता है " इत्यादि फलश्रुति की संगति नहीं होगी । कार्यभत हिरण्यगर्भ का तो द्विपरार्ध के अवसान में, शास्त्र से ही विनाश निश्चित है-” हे अर्जुन ! ये ब्रह्मसहित सारेलोक पुनरावर्त्त होते हैं" इत्यादि से, हिरण्यगर्भ को प्राप्त व्यक्ति की पुनरावृत्ति निश्चित हो जाती है । इसका उत्तर देते हैं- कार्यात्यये तदध्यक्षेण सहातः परमभिधानात् |४|३|| कार्यस्य-ब्रह्मलोकस्यात्यये तदध्यक्षेण - हिरण्यगर्भेणाघिकारिके णावसिताधिकारेण विदुषासह स्वयमपि तत्राधिगतविद्यः अतः कार्याद ब्रह्मलोकात् परंब्रह्म प्राप्नोतीत्यर्चिरादिना गतस्यामृतत्व- प्राप्त्यपुनरावृत्यभिधानात् “ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यंति सर्वे” इति वचनाच्चावगभ्यते । कार्य ब्रह्मलोक के अवसान होने पर उसके अध्यक्ष के सहित उपासक भी कृतार्थ होकर अर्चिरादि द्वारा पुनरावृत्ति रहित अमृतत्व प्राप्त करता है ऐसा - “वे ब्रह्मलोक से परार्ध काल में मुक्त होकर अमृतत्व प्राप्त करते हैं” इत्यादि से ज्ञात होता है । स्मृतेश्च |४| ३|१०|| स्मतेश्चायमर्थोऽवगम्यते - “ब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रति संचरे परस्यान्ते कृतात्मनः प्रविशति परं पदम्” इति । प्रतः कार्यमुपासीनमेवाचिंरादिकोगणो नयतीति बादरे मंतम् । स्मृति से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है - " प्रत्येक प्रलय में वें सब ब्रह्मा के साथ कृतार्थ होकर परंपद प्राप्त करते हैं" इसलिए कार्य- ब्रह्म के उपासकों को ही अर्चिरादि गण ले जाते हैं, ऐसा बादरि का मत है ।
( ११७९ ) अत्र जैमिनिः पक्षान्तर परिग्रहेण प्रत्यवतिष्ठले- इस पर उत्तर पक्ष को लेकर जैमिन उपस्थित होते हैं- परं जैमिनि मुख्यत्वात् |४| ३ | ११ || ↑ परं ब्रह्मोपासीनानर्चिरादिनंयतीति जैमिनिराचार्यो मन्यते, कुत: ? मुख्यत्वात् " तत्पुरुषोऽमानवः स एनान् ब्रह्म गमयति " इति ब्रह्म शब्दस्य परस्मिन्नेव ब्रह्मणि मुख्यत्वात् । प्रमाणान्तरेण कार्यस्य निश्चये सत्येव हि लाक्षणिकत्व युक्तम् । न च गमनानु- पत्तिः प्रमाणम् परस्यब्रह्मणः सर्वगतत्वेऽपि विदुषो विशिष्टदेश गतस्येवाविद्या निवृत्ति शास्त्रात् । यथा हि विद्योत्पतिवर्णाश्रमधर्मं शौचाचार देशकालाद्यपेक्षा - “तमेतं वेदानुवचनेन” इत्यादि शास्त्रा- दवगम्यते, तथा निःशेषाविद्यनिवर्त्तनरूपविद्या निष्पत्तिरपि विशिष्ट देशगतिसापेक्ष ति गतिशास्त्रादवगम्यते । विदुष उत्क्रांति प्रतिषे- घादि तु पूर्वमेव परिहृतम् । . परब्रह्म के उपासकों को ही अचिरादिगण ले जाते हैं ऐसा जैमिनी आचार्य का मत है “तत्पुरुषोऽमानवः” इत्यादि में ब्रह्म शब्द का पर ब्रह्म में ही मुख्यार्थ है । प्रमाणान्तरों से कार्य ब्रह्म का जो निर्णय होता है वह लाक्षणिक अर्थ है । जो यह कहा कि सर्वगत परब्रह्म को प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता, वह असंगत बात है, शास्त्र तो विशिष्ट देश की प्राप्ति होने पर ही उपासक की अविद्या निवृत्ति बतलाते हैं। जैसे कि - विद्योत्पत्ति में, वर्णाश्रम धर्म शौच आचार देश काल आदि अपेक्षित है “तमेतं वेदानुवचनेन से स्पष्ट है, जैसे ही सम्पूर्ण अविद्या की निवृति के लिए विशिष्ट देश की गति अपेक्षित है जो कि गति वर्णन करने वाले शास्त्र से ज्ञात होता है । उपासक की उत्कांति के प्रतिषेध आदि का तो पहिले ही परिहार हो चुका है । यत्त “ब्रह्मलोकान्” इति लोकशब्द बहुवचनाभ्यां विशेषणात् कार्यभूत हिरण्यगर्भं प्रतीतिरिति, तदयुक्तम् तदयुक्तम् निषादस्थपतिन्यायेन ( १९७६ ) ब्रह्मव लोक इति कर्मधारस्यैव युक्तत्वात्, अर्थस्य चैकत्वे निश्चिते सति बहुवचनस्य “प्रदितिः पाशान्” इतिवदुपपत्तेः परस्यब्रह्मणः परिपूर्णस्य सर्वगतस्य सत्यसंकल्पस्य स्वेच्छापरिकल्पिताः स्वासाधारणा अप्राकृताश्च लोका नात्यन्ताय न संति, श्रुतिस्मृती- तिहासपुराणप्रामाण्यात् । जो यह कहा कि- लोक शब्द और बहुवचन के प्रयोग से कार्यभूत हिरण्यगर्भ की ही प्रतीति होती है, यह कथन को असंगत है, निषादस्पति न्याय की तरह कर्मधारय करना ही सुसंगत है, एकार्थता के निश्चित हो जाने पर “अदितिः पाशान्” को तरह बहुवचन की उपपत्ति हो जायेगी । श्रुतिस्मृति इतिहास पुराण के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि - यह विशिष्ट लोक सर्वगत सत्यसंकल्प, परिपूर्ण परब्रह्म की स्वेच्छित परिकल्पना ही है, इस ब्रह्मलोक से भिन्न कोई भी असाधारण अप्राकृत लोक आत्यंतिक मुक्ति नहीं दे सकते । दर्शनाच्च | ४ | ३ |१२॥ दर्शयति श्रुतिः मूर्धन्यनाड्या निष्क्रम्य देवयानेन गतस्य परब्रह्म प्राप्तिम् - “एष संप्रसादोस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरूप संपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते ’ इति । मुर्धन्य नाडी से निकलकर देवयान मार्ग से जाने वाले उपासक की ब्रह्मप्राप्ति का श्रुति इस प्रकार वर्णन करती है “यह जीव इस शरीर से उठकर परब्रह्म की सी ज्योति प्राप्ति कर अपने स्वरूप में अ जाता है । यदुक्त - " प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये” इत्यर्चिरादिना गतस्य कार्ये प्रत्यभिसंधिद् श्यते इति-तत्रोत्तरम् - जो यह कहा कि- " प्रजापति के सभामंडप को प्राप्त होते हैं। इत्यादि वर्णन से यह निश्चित होता है कि अर्चिरादि कार्यब्रह्म की ओर ही ले जाते हैं। इसका उत्तर देते हैं–
( ११८० ) न च कार्येप्रत्यभिसंधिः । ४ | ३ | १३ || न चायं प्रत्यभिसंधिः कार्ये हिरण्यगर्भे, श्रपितु परस्मिन्नेव ब्रह्मणि वाक्यशेषे - " यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानाम्” इति तस्या- भिसंधातुः सर्वाविद्याविमोकपूर्वक सर्वात्मभावाभिसंधानात् “अश्व शरीरमकृतं इवरोमाणि विधूयपापं चंद्र इव राहोर्मुखात् प्रमुच्य, धूत्वा कृतात्मा ब्रह्मलोकमभिसंभवामि” इत्यभिसंभाव्यस्य ब्रह्मलोकस्याकृतत्व श्रवणात्, साक्षाच्छ्रवणात् । अतः परमेव ब्रह्मोपासीनमर्चिरादिरातिवाहिको गणोनयतीति जैमिनेर्मतम् । सर्वबन्धविनिर्मोकस्य च उक्त अभिसंधि कार्यं हिरण्यगर्भ संबंधी नहीं है अपितु परब्रह्म संबंधी ही है, उक्त वाक्य के अंत में जो यह कहा गया कि - " मैं ब्राह्मणों का यश होता हूँ” इत्यादि का तात्पर्य परमात्मा से अभिसंधान करने वाले की सारी अविद्या नष्ट हो जाती है और वह सर्वात्मभाव की भूमि पर पहुँच जाता है । “घोड़े की तरह पाप रूपीरोयों को झाड़कर राहु के मुख से मुक्त चन्द्र की तरह शरीर के पापों को धोकर कृतार्थ उपासक को ब्रह्मलोक ले जाता हूँ” इत्यादि में ब्रह्मलोक में जाने वाले के निष्पापता के वर्णन से तथा अविद्या के बंधनों की मुक्ति के वर्णन से यह निश्चित होता है कि परब्रह्म के उपासक को ही, अचिरादि आतिवाहिक गण ले जाते हैं, ऐसा जैमिनि का मत है । इदानीं बादरायणस्तु भगवान स्वमतेन सिद्धान्तमाह- अब भगवान बादरायण अपने मतानुसार सिद्धान्त कहते हैं— अप्रतीकालंबनान्नयतीति बादरायण उभयधा च दोषासरकतुश्च १४/३/१४३|| श्रप्रतीकालम्बनान् प्रतीकालम्बनव्यतिरिक्तान् नयत्यचिंरादि रातिवाहिकोगण इति भगवान बादरायणो मन्यते, एतदुक्तं भवति- कार्यमुपासीनान्नयतीति नायं पक्षः संभवति, परमेवोपासीना नित्य-
( ११५१ यमपिनियमो नास्ति, न च प्रतीकालंबनानपि नयति, अपितु ये परंब्रह्मोपासते । ये चात्मानं प्रकृतिवियुक्त ब्रह्मात्मकमुपासते, तानुभयविधान्नयति । ये तु ब्रह्मकार्यान्तर्भूतनामादिकं वस्तु । देवदत्तादिषु सिंहादिदृष्टिवत् ब्रह्मदृष्ट्या, केवलं वा तत्तदवस्तूपासते न तान्नयति । श्रतः परंब्रह्मोपासीनानात्मानं च प्रकृतिवियुक्त ब्रह्मात्मकमुपासीनान्नयति- इति । जो प्रतीकालम्बन नहीं करते, अचिरादि आतिवाहिक गण उन्हें ही ले जाते हैं, ऐसी भगवान बादरायण की मान्यता है । कहने का तात्पर्य यह है कि - कार्य ब्रह्म के उपासकों को ले जाते हैं यह तो कदापि संभव नहीं है, परब्रह्म के उपासकों को ही ले जाते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है और न प्रतीकालम्बन वालों को ही ले जाते हैं, अपितु जो पर ब्रह्म के उपासक हैं या प्रकृति वियुक्त अपने आत्मा की ब्रह्मात्मभाव से उपासना करते हैं, इन दोनों को ले जाते हैं । जो लोग, देवदत्त में सिंह आदि दृष्टि की तरह ब्रह्म दृष्टि रखकर, व्यक्ति पूजा करते हैं, उनको नहीं ले जाते [अर्थात् जैसे कि देवदत्त सिंह है इत्यादि भाव की तरह अमुक व्यक्ति भगवान है ऐसे भाव से जो लोग व्यक्ति पूजा करते हैं ] इसका निष्कर्ष यह है कि परब्रह्म के उपासक को तथा प्रकृति वियुक्त ब्रह्मात्मभाव के उपासक को ही ले जाते हैं ।
कुतः ? उभयधा च दोषात् । कार्यामुपासीनान्नयतीति पक्षे “अस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपद्य” इत्यादिका श्रुतयः प्रकुप्येयुः परमेवोपासीनानिति नियमे - “ तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धातप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसंभवंति” इति पंचाग्निविदो- ऽर्चिरादिगणोनयतीति श्रुतिः प्रकुप्येत् । श्रतः उभयस्मिन्नपि पक्षे दोषः स्यात् । तस्मादुभयविधान्नयतीति । तदेतदाह क्रतुश्च इति । तथोपासीनस्तथैव प्राप्नोतीत्यर्थः " यथाक्रतुरस्मिन् लोके तत्क्रतुः पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति “तं यथायथोपासते " इति न्यायात् । पंचाग्निविदोऽप्यचिंरादिना गति श्रवणात्, अर्चिरादिना
( ११०२ ) गतस्य ब्रह्मप्राप्त्यपुनरावृत्ति श्रवणात् । अतएव तत्क्रतुन्यायात् प्रकृतिविनिर्मुक्त ब्रह्मात्मकात्मानुसंधानं सिद्धम् । नामादि प्राणपर्यंन्त प्रतीकालम्बनानां तूभयविधश्रुतिसिद्धोपासनाभावादचिन्मिश्रोपासने तत्क्रतुन्यायाच्चाचिरादिना गतिः ब्रह्मप्राप्तिश्च न विद्यते । उक्त दोनों मतों में ही दोष है । कार्यब्रह्म के उपासकों को ले जाने वाले पक्ष को मानने से " इस शरीर से उठकर परंज्योति से संपन्न होकर " इत्यादि श्रुतियों से विरुद्धता होती है । तथा परब्रह्म के उपासकों को ही ले जाते हैं इसको मानने पर - " तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये” इत्यादि, पंचाग्नि विद्या के ज्ञाताओं को अचिरादि गणों द्वारा पहुँचाने वाली श्रुति से विरुद्धता होती है । इस प्रकार दोनों ही पक्षों में दोष हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि दोनों ही प्रकार के उपासकों को ले जाते हैं । उसकी जिस प्रकार उपासना की जाती है, उसकी वैसी ही गति होती है जैसा कि - " इस लोक में जैसी उपासना करते हैं, मरने पर वैसी ही गति पाते हैं" इत्यादि । पंचाग्नि विद्या के ज्ञाताओं की भी अर्चिरादि गति का उल्लेख है तथा अर्चिरादिकों द्वारा पहुँचाये जाने पर ब्रह्म प्राप्ति होने पर पुनरावृत्ति नहीं होती इसका भी उल्लेख मिलता है । इसलिए उपासनानुसार गति होती है इस नियम से, प्रकृतिविनुर्मुक्त ब्रह्मात्मभाव वाले उपासक की मुक्ति भी सिद्ध है । नाम से लेकर प्रारण तक प्रतीक का आश्रय लेकर उपासना करने वालों की अर्चिरादि गति नहीं होती, क्योंकि जो दो प्रकार की अर्चिरादि गति बतलाई गई है उससे कहीं भी प्रतीकोपासकों की गति का उल्लेख नहीं है । । तमिमं विशेषं श्रुति रेव दर्शयतीत्याह । उसके विषय में विशेष श्रुति का प्रदर्शन करते हैं- विशेषं च दर्शयति ||३|१५||- " यावन्नाम्नो गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति" इत्यादिका श्रुतिः नामादिप्रारणपर्यंन्त प्रतीकमुपासीनानां गत्यनपेक्षं परिमित फलविशेषं च दर्शयति तस्मादचिन्मिश्रं केवलं वाचिद्वस्तु ब्रह्म
( ११८३ ) दृष्ट्या तद्वियोगेन च य उपासते, न तान् नयति, अपितु परं ब्रह्मोपासीनानात्मानं च प्रकृितवियुक्तं ब्रह्मात्मकमुपासीनानाति- वाहको गणो नयतीति सिद्धम् । " जो नामोपासना करने हैं, वे मरने के बाद यथेच्छ विचरण करते इत्यादि श्रुति नाम से लेकर प्राण तक प्रतीकोपासना करने वालों की गति होने पर परिमित फलविशेष का उल्लेख करती है । इससे यह निश्चित होता है कि जो लोग अचिद् वस्तु या अचिमिश्रित वस्तु में ब्रह्म दृष्टि से उपासना करते हैं उनको अचिरादिगण नहीं ले जाते, अपितु ब्रह्मोपासकों और प्रकृतिवियुक्त में ब्रह्मात्मकभाव के उपासकों को ही ले जाते हैं । तृतीय पाद समाप्त
४
चतुर्थ अध्याय चतुर्थ पाद १ संपद्याविर्भावाधिकरण :- संपद्याविर्भावः स्वेन शब्दात् |४|४|१|| परंब्रह्मोपासीमानामात्मानं च प्रकृतिवियुक्तं ब्रह्मात्मक- मुपासीनामामर्चिरादिना मार्गेणा पुनरावृत्तिलक्षणा गतिरुक्ता, इदानों मुक्तानामैश्वर्यप्रकारं चिन्तयितुमारभते । परब्रह्म के उपासकों और प्रकृति वियुक्त ब्रह्मात्म भाव के उपासकों को अर्चिरादि मार्ग से जाने पर पुनः लौटकर नहीं जाना पड़ता यह बतलाया गया । अब मुक्त जीवों के ऐश्वर्य के प्रकार पर विचार प्रारंभ करते हैं । इदमाम्नायते–" एवमेवैष संप्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते " इति । किम- स्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपन्नस्य देवादि रूपवत्साध्येन रूपेण संबंधोऽनेन वाक्येन प्रतिपद्यते, उत स्वाभाविकस्य स्वरूपस्या- विभवः ? इति संशये, साध्येन रूपेण संबंध इति युक्तम् । अन्यथा हि पुरुषार्थावबोधित्वं मोक्षशास्त्रस्य स्यात् । स्वरूपस्य स्व- तोऽपुरुषार्थत्वदर्शनात् । न हि सुषुप्तौ देहेन्दियव्यापारेषूपरेतषु केवल स्यात्मस्वरूपस्य पुरुषार्थ संबंधो दृश्यते, न च दुःखनिवृत्तिमात्र परंज्योतिरूपसंपन्नस्य पुरुषार्थ:, येन स्वरूपाविर्भाव एव मोक्षः, इत्युच्येत् । " स एको ब्रह्मण प्रानंद:, श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य"
( ११८५ ) रसं ह्य वायवाऽनंदीभवति" इत्यादिभ्यो मुक्तस्यसुखानंत्या श्रवणात् । 1 C ऐसी श्रुति है - “यह जीव इस शरीर से उठकर परंज्योति को प्राप्त कर अपने रूप से आविर्भत होता है ।” संशय यह होता है कि- क्या इस शरीर से उठकर परं ज्योति को प्राप्त जीव को देवादि की तरह साध्य रूप से अपने रूप की प्राप्ति होती है अथवा स्वाभाविक रूप का आविर्भाव होता है ? विचारने पर तो साध्यरूप संबंध ही युक्तियुक्त प्रतीत होता है ? यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो शास्त्र, अपुरुषार्थ का बोधक सिद्ध हो जायेगा । अपने स्वरूप को तो अपुरुषार्थं ही बतलाया गया है । सुषुप्तावस्था में जब देह इन्द्रिय आदि की चेष्टायें लुप्त हो जाती हैं केवल आत्मस्वरूप की ही स्थिति रहती है, उसे तो कहीं भी पुरुषार्थ नहीं कहा गया है और न दुःख निवृत्ति मात्र को परंज्योति प्राप्त रूप पुरुषार्थ माना गया है, जिससे कि स्वरूपाविर्भाव को ही मोक्ष माना जा सके । “निष्काम श्रोत्रिय का वह एक ब्रह्मानंद है” इस रस को प्राप्त कर वह आनंद प्राप्त करता है" इत्यादि से मुक्त जीव के अनंत सुख प्राप्ति की बात ज्ञात होती है उससे भी स्वरूपाविर्भाव की बात समझ में नहीं आती । तिरोहितं न चापरिच्छिन्नानंदरूप चैतन्यमेवास्य स्वरूपम्, तच्चसंसार- दशायामविद्या परंज्योतिरूपसंपन्नस्याविर्भवतीति शक्यम् वक्त म् ज्ञानस्वरूपस्य तिरोघानासंभवात । प्रकाश पर्यायस्य ज्ञानस्य तिरोधानं तद्विनाश एवेति हि पूर्वमेवोक्तम् । यह भी नहीं कह सकते कि अखंड आनंद स्वरूप चैतन्य हो, स्वरूप है जो कि संसार दशा में अविद्या से तिरोहित रहता है, परं- ज्योति को प्राप्त कर आविर्भूत हो जाता है; ज्ञान स्वरूप का तिरोधान नहीं हो सकता । ज्ञान, प्रकाश का ही दूसरा नाम है, प्रकाश के तिरोधान का तात्पर्य है प्रकाश या ज्ञान का नाश, जो वस्तु अविद्या से नष्ट हो चुकी उसके पुनराविर्भाव का प्रश्न ही नहीं उठता, यह हम पहिले भी कह चुके हैं ।
( ११०६ ) न च प्रकाशमात्रस्यानंदता संभवति, सुखस्वरूपता हि श्रानंदस्वरूपता, सुखस्वरूपत्वं चात्मनोऽनुकूलत्वं, प्रकाशमात्रात्म- वादिनः कस्य प्रकाशोऽनुकूल वेदनीयो भवेदिति प्रकाशमात्रात्मवादिनः कथं चिदप्यानंदस्वरूपता दुरुपपादा | स्वरूपापत्तिमात्रे च साध्ये स्वरूपस्य नित्यनिष्पन्नत्वादुपसंपन्नस्य “स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते " इति वचनमनर्थकं स्यात् । अतो अपूर्वेण साध्येन रूपेण संपद्यते । एवं च “अभिनिष्पद्यते " इति वचनं मुख्यार्थमेव भवति । “स्वेन रूपेण " इत्यप्यानन्दैकांतेन स्वासाधा रणेनाभिनिष्पद्यत इति संगच्छत इति । प्रकाश मात्र वस्तु में आनंदता संभव भी नहीं है सुखस्वरूपता ही तो आनंद स्वरूपता है, अपनी अनुकूल अनुभूति को ही सुखरूपता कहा गया है, प्रकाशमात्र को आत्मा मानने वालों के प्रकाश की कैसी अनुकूल अनुभूति होती है ? क्या वे बतला सकते हैं ? वे लोग कभी भी, आनंद- स्वरूपता का विवेचन नहीं कर सकते हैं। स्वरूप तो नित्यनिष्पन्न वस्तु है, उसकी निष्पन्नता को बतलाने वाला वाक्य “स्वेनरूपेणाभिनिष्प- द्यते” तो अनर्थक ही हो जावेगा, यदि केवल स्वरूपापत्ति को ही मुक्ति मानेंगे । इसलिए अपूर्व साध्य स्वरूप की निष्पन्नता होती है यही मानना चाहिए ऐसा मानने से ही " अभिनिष्पद्यते " वचन की मुख्यार्थता होती है । “स्वेन रूपेण " से भी अपने स्वरूप से भिन्न अखंड मानंदमयता का भाव प्रकट होता है । } सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे - " संपद्याविर्भावः” इति । श्रयं प्रत्यगात्माऽर्चिरादिना परंज्योतिरुपसंपद्य यंदशा विशेषमापद्यते स स्वरूपाविर्भावरूपः नापूर्वाकारोत्पत्तिरूपः । कुतः ? स्वेन शब्दात् “स्वेन रूपेण ” इति विशेषणोपादानादित्यर्थः । आगंतुक विशेष परिग्रहे हि “स्वेन रूपेण " इति विशेषणमनर्थकं स्यात् श्रविशेष- णेऽपि तस्य स्वकीयरूपत्वसिद्धः । "
( ११५७ ) उक्त मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि यह जीवात्मा अर्चिरादिकों द्वारा परमात्म ज्योति को प्राप्त कर जिस दशा विशेष को प्राप्त करता है वह स्वरूपाविर्भाव रूप ही है, अपूर्व आकारोत्यत्तिरूप नहीं है । श्रुति में स्पष्ट रूप से स्व शब्द का प्रयोग किया गया है “स्वेन रूपेण” इत्यादि । विशेषोउल्लेख से हमारा मत ही सिद्ध होता है । यदि, विशेष अपूर्व रूप प्राप्ति की बात मानेंगे तो, “स्वेन रूपेण " में कहा गया विशेषण अनर्थक हो जायगा यदि उसे विशेषण न भी मानें तो भी, स्वकीय रूपता तो उसकी सिद्ध ही है । यत्तक्त स्वरूपस्य नित्यप्राप्तत्वात् " संपद्याभिनिष्पद्यते इति वचनमनर्थकम् - तत्रोत्तरम् - जो यह कहा कि स्वरूप तो नित्य प्राप्त वस्तु है इसलिए “संपद्या- भिनिष्पद्यते” वचन अनर्थक हो जायगा -उसका उत्तर देते हैं- मुक्तः प्रतिज्ञानात् |४|४|२|| कर्मसंबंधतत्कृतदेहादिविनिर्मुक्तः स्वाभाविकरूपेणावस्थितोऽत्र " स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” इत्युच्यते । श्रतो नित्यप्राप्तस्यापिस्वरूपस्य कर्मरूपा विद्यातिरोहितस्य तिरोधाननिवृत्तिरनाभिनिष्पत्तिरुच्यते । कुतः ? प्रतिज्ञानात् सा हि प्रतिपाद्यतया प्रतिज्ञाता । कुतः इदमवगम्यते ? “य प्रात्मा” इति प्रकृतं प्रत्यगात्मानं जागरिताद्य- वस्था त्रितयविनिर्मुक्त, प्रियाप्रियहेतुभूत कर्मारब्ध शरीरविनिर्मुक्त च प्रतिपादयितुं - " एवं त्वेव ते भूयोऽनुव्याख्यास्यामि " इति पुनः पुनरुक्तवा " एवमेवैषसंप्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परंज्योतिरुप- संपद्य स्वेनरूपेणाभिनिष्पद्यते” इत्यभिधानात् श्रतः कर्मणा संबद्धस्य परंज्योतिरुपसंपद्य बंन्धनिवृत्तिरूपामुक्तिः स्वेन रूपेणाभि निष्पत्ति- रुच्यते । स्वरूपाविर्भावेऽप्यभिनिष्पत्तिशब्दो दृश्यते - " युक्त्यायमर्थो निष्पद्यते” इत्यादिषु ।
( १९८८ ) कर्म संबंधी देह आदि से विमुक्त स्वाभाविक रूप से अवस्थित जीव को ही उक्त प्रसंग में “स्वेन रूपेणाभिनिष्यद्यते” पद से कहा गया है। स्वरूप के नित्य होते हुए भी, कर्म रूपा अविद्या से वह तिरोहित रहता है, उस तिरोधान की निवृत्ति होने को ही यहाँ निष्पत्ति कहा गया है। ऐसा प्रतिपादन की शैली से ही ज्ञात हो जाता है । “य आत्मा” से, जागरित आदि तीनों अवस्थाओं से रहित प्रकृत जीवात्मा का निर्देश करके पाप पुण्य के हेतु भूत कर्मारब्ध शरीर से रहित स्वरूप का प्रतिपाद न करने के लिए " इसकी मैं तुझे पुनः व्यख्या करता हूं” इत्यादि पुनः पुनः व्याख्या करते हुए " इस प्रकार यह जीव इम शरीर से उठकर परंज्योति को प्राप्त कर स्वरूप संपन्न होता है " इत्यादि विवेचन किया। इससे ज्ञात हुआ कि कर्म से संबद्ध इस जीवात्मा को जब परंज्योति की प्राप्ति होती है तब वह बंधनिवृतिरूपा मुक्ति प्राप्त कर अपने स्वाभाविक निष्पन्न रूप को प्राप्त करता है स्वरूपाविर्भाव के अर्थ में अभिनिष्पन्न शब्द का प्रयोग होता है जैसे कि - “युक्ति से यह अर्थं निष्पन्न हुआ” इत्यादि । यच्चोक्तम्-श्रात्मस्वरूपस्य सुषुप्तावपुरुषार्थत्वदर्शनात् स्वरूपा- विर्भावे मोक्षशास्त्रस्यापुरुषार्थावबोधित्वस्यादिति कृत्वादेवाद्यव- स्थावत् सुखसंबंध्यवस्थांतरप्राप्तिरभिनिष्पत्ति:- इति तत्रोत्तरम् - जो यह कहा कि सुषुप्तावस्था में भी तो देह इन्द्रियाँ आदि के निश्चेष्ट होने पर स्वरूप स्थिति रहती है उसे तो कोई मुक्ति नहीं कहता तथा स्वरूपाविर्भाव में मोक्ष शास्त्र की अपुरुषार्थता होती है, इसलिए देवादि अवस्था की तरह सुख संबंधी दूसरी अवस्था को प्राप्ति को ही निष्पत्ति मानना चाहिए । इसका उत्तर देते हैं आत्माप्ररकरणात् |४| ४ | ३ || स्वरूपेणैवायमात्मा अपहतपाप्मत्वादि सत्यसंकल्पत्वपर्यन्त गुरणकः प्रकरणादवगम्यते - “य श्रात्माऽपहतपाप्माविजरोविमृत्युवि शोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः " इति हि प्रजापति वाक्यप्रक्रमः, इदं च प्रकरणं प्रत्यगात्मविषयमिति- ( | ११८६ “उत्तराच्चेदाविर्भूतस्वरूपस्तु” इत्यत्र प्रतिपादितम् । अतो प्रपत पाप्मत्वादिस्वरूप एवायमात्मा संसारदशायां कर्माख्याविद्यया तिरोहितः स्वरूपः परंज्योतिरुपसंपद्याविर्भूतस्वरूपो भवति । अतः प्रत्यगात्मनो अपहतपाप्मत्वादयः स्वाभाविक गुणाः परंज्योतिरूप- संपन्नस्याविर्भवति, नोत्पद्यन्ते । यथोक्त भगवताशौनकेनापि - " यथा न क्रियते ज्योत्स्ना मलप्रक्षालनान्मणेः, दोषप्रहाणान्न ज्ञान- मात्मनः क्रियते तथा । यथोदपानकरणात् क्रियते न जलांबरम्, सदेव नीयते व्यक्तिमसतः संभवः कुतः । तथा हेमगुणध्वंसात् श्रवबो बादयो- गुणाः प्रकाशते न जन्यन्ते नित्या एव श्रात्मनो हि ते । “अतो ज्ञानानंदादिगुणानां कर्मणा श्रात्मनि संकुचितानां परंज्योतिरुप - संपद्य कर्मरूपबन्ध क्षये विकाशरूपाविर्भावो नानुपपन्न इति सुष्ठुक - “संपद्याविर्भाव.” इति । मुक्तावस्था में यह आत्मा स्वरूप प्राप्ति ही करता है, निष्पापता से लेकर सत्यसंकल्पत्व तक इसके स्वरूप गत स्वाभाविक गुणों का उल्लेख प्रकरण में मिलता है – “जो निष्पाप, अजर, अमर विशोक भूख प्यास रहित सत्यकाम और सत्य संकल्प है” यह प्रजापति वाक्य का प्रसंग है, यह प्रकरण जीवात्मा सबंधी है, इसका प्रतिपादन “उत्तराच्चेदावि- भूतस्वरूपस्तु” में किया गया है । निष्पापता आदि गुणों वाला यह आत्मा, संसार दशा में कर्म नामक अविद्या से तिरोहित हो जाता है परमात्म ज्योति को प्राप्त कर आविर्भूत स्वरूप होता है । जीवात्मा के, अपहृत पाप्मता आदि स्वाभाविक गुण परमात्म ज्योति को प्राप्त कर आविर्भूत होते हैं, उत्पन्न नहीं होते । जैसा कि भगवान शौनक ने भी कहा है– " जैसे कि ज्योत्स्ना, मणि का मल प्रक्षालन नहीं करतीं अपितु अपनें प्रकाश से मणि को प्रकाशित करती है, वैसे ही ज्ञान, आत्मा का प्रक्षालन नहीं करता अपितु उसे प्रकाशित मात्र करता है। जैसे कि–जल स्नान से व्यक्ति, शरीर से स्वच्छ हो जाता है, उसकी आत्म शुद्धि नहीं होतीं, वैसे ही, हेय गुणों के नष्ट होने से ज्ञान आदि गुणों का प्रकाश हो जाती है, उत्पन्न नहीं होते, वे तो आत्मा के स्वाभाविक नित्य गुण हैं।” अंत
( १९६० ) यही मानना होगा कि जीवात्मा के ज्ञान आनंद आदि गुणों का कम को आसक्ति से संकुचन हो जाता है, परमात्मज्योति को प्राप्त कर, कर्मरूप बंधन का क्षय हो जाने पर, विकास रूप आविर्भाव नहीं होता, अपितु वे गुण प्रकाशित हो जाते हैं । " सपंद्याविर्भावः " यह कथन बिलकुल ठीक है । २ विभागेन दृष्टत्वाधिकरणः- प्रविभागेन दृष्टत्वात् |४|४|४| किमयं परंज्योतिरुपसंपन्नः सर्वबंधविनिर्मुक्तः प्रत्यगात्मा, स्वात्मानं परमात्मानं पृथग्भूतमनुभवति, उत्तत्प्रकारतया तदविभक्तम् ? इति विशये - " सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता” " यदा पश्यः पश्यते रुक्मवणं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्, तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति " इदं ज्ञानमपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः, सर्गेऽपि नोपजायंते प्रलये न व्यथंति च” इत्यादि श्रुतिस्मृतिभ्यां मुक्तस्यपरेण साहित्य- साम्यसाधर्म्यावगमात् पृथग्भूतमनुभवति । क्या यह परमात्म ज्योति संपन्न बंधन विमुक्त जीवात्मा, अपने को परमात्मा से पृथक् अनुभव करता है, अथवा अपने को उसी का प्रकार मानकर श्रविभक्त समझता है ? इस संशय पर, इस संबंध की श्र तियाँ सामने माती हैं – " वह ब्रह्म के साथ सभी कामनाओं को प्राप्त करता है" अपने कर्त्ता स्वर्णाभ परम पुरुष परमात्मा को देखकर उपासक, पुण्य पापों को त्याग कर परं निरंजन की समता प्राप्त करता है “मेरे इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे साधर्म्य को प्राप्त कर न सृष्टि में जन्मते हैं नं प्रलय में नष्ट होते हैं " इत्यादि श्रुति स्मृतियों से मुक्त जीवात्मा की परमात्मा के साथ, समता और साधर्म्यता ज्ञात होती है जिससे पता लगता है कि वह अपने से पृथक अनुभव करता है सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - प्रविभागेन- इति । परस्माद ब्रह्मणः स्वात्मानमविभागेनानुभवति मुक्तः । कुतः ? दुष्टत्वात्
( १९६१ परब्रह्मोपसंपत्त्या निवृत्ताविद्यातिरोधानस्य याथातथ्येनस्वात्मनो दृष्टत्वात् । स्वात्मनः स्वरूपं हि - “तत्वमसि " प्रयमात्मा ब्रह्म” ऐतदात्म्यमिदं सर्वम् " सर्वखल्विदं ब्रह्म” इत्यादि सामानाधिकरणण्य निर्देशैः “य श्रात्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरोयमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य श्रात्मानमन्तरो यमयति स त श्रात्माऽन्तर्याम्यमृतः " ग्रन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा” इत्यादिभिश्च परमात्मात्मकं तच्छरीरतया तत्प्रकारभूतमिति प्रतिपादितम् " अवस्थितेरिति काशकृत्स्नः" इत्यत्र तो श्रविभागेन " ग्रहं ब्रह्मास्मि" इत्येवानु भवति । साम्यसाधर्म्य व्यपदेशो ब्रह्मप्रकारभूतस्यैव प्रत्यगात्मनः स्वरूपं तत्सममिति देवादि प्राकृतरूप प्रहाणेन ब्रह्मसमान शुद्धि प्रतिपादयति । सहश्रुति स्त्वेवंभूतस्य प्रत्यगात्मनः प्रकारिणा ब्रह्मणा सह तद्गुणानुभवं प्रतिपादयतीति न कश्चिद् विरोधः । ब्रह्म प्रकारतया तदविभागोक्त हि “संकल्पादेवतच्छ्रुतेः” इत्यादि न विरुध्यते" अधिकन्तु भेदनिर्देशात् " अघिकोपदेशात्" इत्यादि च । उक्त मत पर “अविभागेन” इत्यादि सूत्र सिद्धान्त रूप से प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि- मुक्तात्मा, अपने को ब्रह्म से अभिन्न अनुभव करता है । ब्रह्मोपसंपत्ति से अविद्या के तिरोहित होने पर उसे अपने यथार्य रूप का परिज्ञान होता है तब वह अपने को, उनके समान पाकर अभिन ही मानता है । उसकी अभिन्नता “तत्त्वमसि " अयमात्मा ब्रह्म" ऐतदा- त्म्यमिदं सर्वम् “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि सामानाधिकरण निर्देशों से दिखलाई गई है । “य आत्मनितिष्ठन्” इत्यादि “अन्तः प्रविष्टः शास्ता - जनानाम्” इत्यादि से ब्रह्मास्मक जीवात्मा को, उसका शरीर होने से, उस परमात्मा का प्रकार रूप बतलाया गया है - इसको “अवस्थितेरिति का शकुत्सनः " सूत्र में निश्चित कर चुके । अतः वह जीवात्मा, अभिन्न रूप से “मैं ब्रह्म हूँ” ऐसा अनुभव करता है। जीवात्मा के लिए जो समता मोर साधर्म्य का निर्देश किया गया है, वह, ब्रह्म के प्रकार भू जीवात्मा के स्वरूप का, देवादि रूप को छोड़कर, उसके समान शुद्ध होन सिद्ध करता है । जीवं ब्रह्म के साहचर्य को बतलाने वाली श्रं ति तो 1
( ११६२ ) शुद्ध जीवात्मा का प्रकारी ब्रह्म के साथ उसके गुणानुभवों का प्रतिपादन ‘करती है, इसलिए वह अभिन्नता के विरुद्ध नहीं है । ब्रह्म का प्रकार जीव अभिन्नता प्रतिपादक श्र तियों में प्रतिपाद्य है, ऐसा - “संकल्पादेव तच्छतेः” अधिकंतुभेद निर्देशात् |” अधिकोपदेशात्" इत्यादि सूत्रों में दिखला चके हैं । ३. ब्राह्माधिकररण:– ब्राह्मण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः | ४ | ४|५॥ । प्रत्यगात्मनः परंज्योतिरुपसंपद्य निवृत्ततिरोधानस्य स्वरूपा- विर्भाव एवेत्युक्तम् । तत्र येन स्वरूपेणायमाविर्भवति तत्स्वरूपं श्रुति वैविध्याद विचर्यते । किमपहतपाप्मत्वादिकमेवास्य स्वरूपा - मिति तेन रूपेणायमाविर्भवति, उत विज्ञानमात्रमेवेति तेनरूपेण, प्रथोभयोरविरोध इत्युयभरूपेणेति ? कि तावत् प्राप्तम् ? ब्राह्मेणेति जैमिनिराचार्यो मन्यते । ब्राह्मण ब्राह्मण अपहतपाप्मत्वादिनेत्यर्थः । अपहतपाप्मत्वादयो हि दहरवाक्ये ब्रह्म संबंधितया श्रुताः । ब्राह्मेणेति कुतोऽवगम्यते ? उपन्यासादिभ्यः उपन्यस्यते हि ब्रह्म गुणाः, श्रपहतपाप्मत्वादयः प्रत्यगात्मनो हि प्रजापतिवाक्ये “य श्रात्माऽपहतपाप्मा” इत्यादिना" सत्यसंकल्पः" इत्यंतेन । श्रादिशब्देन सत्यसंकरूपत्वादिगुणायत्ता जक्षणादयः “जक्षत्क्रीडन् रममाणः” इत्यादि वाक्यावगता व्यवहारा गृह्यन्ते । श्रतएभ्य उपन्यासादिभ्यः प्रत्यगात्मनो विज्ञानमात्र स्वरूपत्वं न संभवतीति जैमिनेर्मतम् । जीवात्मा का परंज्योति से संपन्न होकर, तिरोधान के निवृत्त हो जाने पर, स्वरूपाविभवि होता है, यह निश्चित हुआ । वह जिस स्वरूप से आविर्भूत होता है, उसका स्वरूप श्रुतियों में कई प्रकार का वर्णित हैं, भब उस पर विचार करते हैं कि क्या अपहतपाप्मता आदि ही इसका आविर्भूत स्वरूप है, अथवा विज्ञान मात्र ही है, अथवा दोनों रूप
( ११६३ ) एक ही हैं इसलिए दोनों ही उसके आविर्भूत स्वरूप हैं ? इस पर जैमिनि आचार्य का मन है कि ब्रह्म रूप, उसका स्वरूप है । अपहत पाप्मता इत्यादि ब्राह्म रूप है । अपहत पाप्मता इत्यादि को दहर वाक्य में ब्रह्म संबंधी बतलाया गया है और इन्हीं का प्रतापति वाक्य में, जीवात्मा के लिए उपन्यास किया गया है, सत्य संकल्पता आदि गुणों से संबद्ध जक्षण आदि भी हैं ऐसा “जक्षन्कीडन् रममाणः” इत्यादि वाक्य से अवगत व्यवहार से ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार के उपन्यास से निश्चित होता है कि जीवात्मा का स्वरूप विज्ञान मात्र ही नहीं हो सकता, यह जैमिनि का मत है | चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडलोमिः |४| ४ | ३ || चैतन्यमात्रमेवास्य स्वरूपमिति तेन रूपेणाविर्भवतीत्यौडु लोमिराचार्यो मन्यते । कुतः ? तदात्मकत्वात् - तावन्मात्रात्मक- त्वादस्य प्रत्यगात्मनः । " स यथा सैन्धवघनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसधन एव एवं वां अरेऽयमात्माऽनन्तरोऽवाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव" “विज्ञानघन “विज्ञानघन एव” इत्यवधारणात् विज्ञानमात्रमेवास्थ स्वरूपमित्यवगम्यते । श्रतोऽस्यगुणान्तराभावात् ’ अपहतपाप्मा” इत्यादयः शब्दाः विकार सुखदुःखाद्यविद्यात्मकधर्मव्यावृत्तिपरा इति चितितन्मात्ररूपेणाविर्भाव इत्यौडुलोमेमंतम् । जीव का स्वरूप चैतन्य मात्र ही है वह उसी रूप से आविर्भूत होता है, ऐसी आचार्य ओडुलोमि की मान्यता है । इस जीवात्मा का वैसा स्वरूप ही बतलाया गया है - “जैसे कि नमक का डला भीतर बाहर से संपूर्ण रसघन ही है, वैसे ही यह आत्मा अंतर बाह्य भेद से रहित संपूर्ण प्रज्ञान घन है “विज्ञानघन ही है” इत्यादि से, यह जीवात्मा विज्ञान धन स्वरूप वाला ही ज्ञात होता है। इसमें कोई भी दूसरे गुण नहीं हैं । " अपहृत पाप्मा” इत्यादि शब्द तो सुख दुःख आदि अविद्यात्मक विकारों का राहित्य बतलाते हैं । जीवात्मा चैतन्य मात्र स्वरूप से आविर्भूत होता है ऐसा ओडुलोमि आचार्य का मत है ।
( ११६४ ) संप्रति भगवान वादरायणः स्वमतेन सिद्धान्तमाह-
अब भगवान बादरायण अपने मत से सिद्धान्त कहते हैं- एवमप्युपगमात्पूर्वभावादविरोधं बादरायणः १४|४|७|| एवमपि - विज्ञानमात्रस्वरूपत्व प्रतिपादनेन सत्यपि सत्यकाम- त्वादीनां गुणानामविरोधं बादरायण प्राचार्यो मन्यते । कुतः ? उपन्यासात् पूर्वभावात् - प्रौपनिषादात् - " य श्रात्मापहतपाप्मा " इत्याद्युपन्यासात् प्रमाणात् पूर्वेषां प्रपहतकामः मपि भावात् -विद्यमानत्वात् । तुल्यप्रमाणकानां ‘युज्यत इत्यर्थः । सत्यकामत्वादीना- इतरेतरबाधो न आचार्य बादरायण के मत से, मुक्तात्मा के विज्ञान मात्र स्वरूप मानने से, सत्यकामत्व आदि गुणों का कोई विरोध नहीं होता । अपहृत पाप्मता आदि गुण उपनिषद् में प्रथम से ही उपन्यस्त हैं, विज्ञान मात्रत्व का भी मुक्त रूप से ही उल्लेख है, दोनों ही तुल्य हैं, बराबर के दो प्रमाणों में बाध नहीं होता । न च वस्तुविरोधादपहतपापमत्वादी मविद्यापरिकल्पितत्वं न्याय्यम्, विशेषाभावात् - “विपरीतं कस्मान्न भवति” इति न्याय्यात् । तुल्यबलत्वे हि अशक्यस्यावधारणस्यान्यपरत्वमेव न्याय्यम् । एवमप्यविरोध इत्यभ्युपगम्य वदन ज्ञानमात्रमेवास्य स्वरूपं नान्यत्किचिदस्तीत्ययमर्थ: “विज्ञानधन एव” इत्यादिभिर्न प्रतिपाद्यत इति मन्यते । कस्तहि - “विज्ञानघन एव” इत्यवधारणस्यार्थः ? कृत्स्नोऽप्यात्मा जडव्यावृतस्वप्रकाशः नान्यायत्तप्रकाशः स्वल्पोऽपि प्रदेशोऽस्तीत्ययमर्थो वाक्यादेव सुव्यक्तः " स यथा सैन्धवचनोऽनन्तरो- वाह्यः कृत्स्नो रसधन एंव एवं वां अरेऽयमात्मानम्तरोऽवाह्मः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव" इति ।
( १९६५ ) विज्ञानमात्र और अपहतपाप्मता आदि में नितान्त वस्तु विरुद्धता है अत: अपहत पाप्मता आदि को अविद्या परिकल्पित मान लिया जाय, यह न्याय्य न होगा, क्योंकि दोनों ही स्वरूप समान रूप से बतलाये गए हैं किसी का विशेषोल्लेख नहीं है, अतः इन दोनों में से किसी एक को, किसी भी आधार के बिना अविद्या परिकल्पित नहीं कहा जा सकता । जब समान बल वाले प्रमाण हों उनमें किसी की श्रेष्ठता का अवधारण न हो सके तो, दोनों की विभिन्नरूपता न्याय्य होती है । इसी भाव के आधार पर अविरोध मानकर ज्ञानमात्र ही इसका स्वरूप है, दूसरा कुछ नहीं इस अर्थ का प्रतिपादक “प्रज्ञानधन एव" वाक्य कहा गया, ऐसा मानना चाहिए । “विज्ञानधन एव" इस अवधारणार्थक वाक्य का तात्पर्य है कि यह अखंड आत्मा चैतन्य और स्वप्रकाश है, इसका प्रकाश किसी अन्य से आयत्त नहीं है: स्वल्प होते हुए भी इसका स्वतंत्र अस्तित्व है यही बात “स यथा सैन्धव गई है । प्रज्ञानघन एव” इत्यादि में कही न चैवं प्रत्यगात्मनो धर्मिस्वरूपस्यकृत्स्नस्य विज्ञानघनत्वे- ऽप्यपहतपाप्मत्वसत्यसंकल्त्वादिधर्मं संबंधो विरुध्यते, यथा सैन्धवधनस्य कृत्स्नस्य चक्षुराद्यवगताः वाक्यान्तरावगतो रसघनत्वे रसनेन्द्रियावगते रूपकाठिन्यादयो न विरुध्यते । इदमत्रवाक्य तात्पर्यम् - यथा रसवत्स्वानफलादिषु स्वगादिप्रदेशभेदेन रसभेदे सत्यपि सैन्धवधनस्य सर्वत्रैकरसत्वम् तथात्मनोऽपि सर्वत्र विज्ञान स्वरूपत्वम्, स्वप्रकाशस्वरूपत्वमित्यर्थः । धर्मी जीवात्मा के, अखंड विज्ञानघनस्वरूप से अन्यवाक्य में कहें गए अपहत पाप्मता आदि धर्मों से विरुद्धता भी नहीं माननी चाहिए, जैसे कि प्रखंड रस स्वरूप सेंधा नमक की रस रूपता का जिह्व न्द्रिय से ही परिज्ञान होता है परन्तु नेत्र आदि इन्द्रियों से उसका आकार प्रकार भी जाना जाता है, उसमें कोई विरुद्धता नहीं होती । इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि जैसे धाम के फल में छिलका आदि के भेद से भले ही भेद हो जाय पर, सैन्धव में तो सर्वत्र एकरसता है, वैसे ही जीवात्मा सर्वत्र विज्ञान स्वरूप अर्थात् स्व-प्रकाशं स्वरूप ही है ।
४. संकल्पाधिकररणः- ( ११६६ ) संकल्पादेव तच्छ्र ुतेः । ४१४ ८ || मुक्तः परं ब्रह्मोपसंपद्य ज्ञानस्वरूपोऽपहतपाप्मत्वादि सत्यसंकल्पत्व पर्यन्तगुणक आविर्भवतीत्युक्तम्, तमधिकृत्य सत्यसंकल्पत्व प्रयुक्ता व्यवहाराः श्रूयन्ते - " स तत्र पर्येति जक्षन्क्रोडन्ममाणः स्त्रीभिर्वा यानैर्वा ज्ञातिभिर्वा" इति । किमस्य ज्ञात्यादि प्राप्तिः प्रयत्नान्तर सापेक्षा, उत परमपुरुषस्येव संकल्पमात्रादेव भवति ? इति विशये लोके राजादीनां सत्यसंकल्पत्वेनव्यवह्रियमाणानां कार्य निष्पादने प्रयत्नान्तरसापेक्षत्वदर्शनादस्यापि तत्सापेक्षा । ज्ञान स्वरूप मुक्त जीवात्मा में, परब्रह्म के तेज से संपन्न होकर, निष्पापता सत्य संकल्पता आदि गुणों का आविर्भाव होता है. यह बतला दिया गया । उसी से संबद्ध : सतत्र पर्येति जक्षन् क्रीडन्" इत्यादि में सत्य संकल्पता आदि के व्यवहार का भी वर्णन मिलता है इस पर संशय होता है कि – यह व्यवहार प्रयत्नान्तर सापेक्ष है, अथवा परमात्मा के संकल्प से ही होता है ? इस पर विचारने पर मत होता है, कि जैसे लोक में, राजा आदि के सत्य संकल्पता आदि व्यावहारिक कार्य प्रयत्नान्तर सापेक्ष होते हैं, वैसे ही मुक्त जीव के ये व्यवहार भी हैं। सिद्धांत: - इति प्राप्त उच्यते - संकल्पादेव - इति । कुतः ? तच्छु ते: “स यदि पितृलोककामोभवति संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठति" इति हि संकल्पादेव पित्रादीनां समुत्थानं श्रूयते । न च प्रयत्नान्तर सापेक्षत्वाभिधायि श्रुत्यन्तरं दृश्यते येनास्य “संकल्पादेव” इत्यवधारणस्य “विज्ञानघन एव” इतिवदद्व्यवस्थापनं क्रियते । उक्त मत पर सिद्धान्त सूत्र प्रस्तुत करते हैं कि संकल्प से ही वे सब व्यवहार होते हैं, उसका श्रुति प्रमाण भी है " वह यदि पितृलोक की कामना करता है तो उसके संकल्प से ही पितर उपस्थित हो जाते हैं" इत्यादि में संकल्प मात्र से पितर आदि की उपस्थिति दिखलाई गई है ।
( ११६७ } प्रयत्नान्तर सापेक्षता का किसी श्रुति में उदाहरण नहीं मिलता, जिससे कि “संकल्पादेव” इस अवधारण वाक्य की “विज्ञानधन एव” की तरह व्यवस्था करनी पड़े । अतएव चानन्याधिपतिः |४ |४| ६ || यतो मुक्तः सत्यसंकल्पः श्रतएवानन्याधिपतिश्च । अन्याधिप- तित्वं हि विधिनिषेधयोग्यत्वं, विधिनिषेधयोग्यत्वं हि प्रतिहत संकल्पत्वं भवेत् । श्रतः सत्यसंकल्पत्वश्रुत्यैवानन्याधिपतित्वं च सिद्धम् । अतएव " स स्वराड् भवति" इत्युच्यते । । मुक्तात्मा सत्य संकल्प होने से ही अनन्याधिपति भी है । अन्या- धिपतित्व का अर्थ होता है विधि निषेध योग्यता, विधि निषेध की योग्यता में सत्य संपता समाप्त हो जाती है [ अर्थात् विधि निषेध के बंधन को मानना ही पराधीनता है, जिस अवस्था में यह बंधन समाप्त हो जाता है वही अनन्याधिपतित्व अर्थात् स्वतंत्रता या मुक्ति की अबस्था होती है ] इसलिए सत्य संकल्पता को बतलाने वाली श्रुति से ही, मुक्तात्मा का अनन्याधिपतित्व भी निश्चित होता है । इसीलिए उसके लिए कहा भी गया है कि “वह स्वतंत्र होता है” इत्यादि । ५ अभावाधिकरण:– प्रभावं बादरिराह हि एवम् |४|४|१०|| कि मुक्तस्य देहेन्द्रियाणि न संति, उत सन्ति ? श्रथवा यथा संकल्पं संति न संति च ? इति विशये, शरीरेन्द्रियाणामभावं बादरि - राचार्यो मन्यते, कुतः ? श्राह ह्य ेवं - " न ह वै स शरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोर पहतिरस्ति, शरीरं वा सन्नं न प्रियाप्रिये स्पृशत: " इति शरीरसंबंधे दुःखस्यावर्जनीयत्वमभिधाय " अस्माच्छरीरात् समुत्थाय परंज्योतिरुपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते" मुक्तस्याशरीरत्वं ह्याह श्रुतिः । इति
( १११ = ) मुक्त जीव के शरीर इन्द्रियादि होते हैं या नहीं अथवा संकल्प से होते भी हैं नहीं भी होते ? इत्यादि संशय होता है । आचार्य बादरि के अनुसार तो शरीर इन्द्रियादि नहीं होते उस पर वे श्रुति प्रस्तुत करते हैं – " सशरीर व्यक्ति के पाप पुण्यों का नाश नहीं होता, अशरीरी को पाप पुण्य स्पर्श नहीं कर सकते" इत्यादि में शरीर संबंध में दुःख की अनिवार्यता बतलाकर " इस शरीर से उठकर " इत्यादि में मुक्त जीव का अशरीरत्व दिखलाया गया है । भावं जैमिनिविकल्पामननात् |४|४|११ ॥ मुक्तस्य शरीरेन्द्रियभावं जैमिनिराचार्यो मन्यने कुतः ? विकल्पा- मननात् - विविधः कल्पो विकल्पः, वैविध्यमित्यर्थः - " स एकधा भवति, त्रिधा भवति, पंचधा, सप्तधा" इत्यादि श्रुतेः । श्रात्मन एकस्यानेकधाभावासंभवात् त्रिधाभावादयः शरीर निबंधन इत्यवगम्यते । शरीरत्व वचनं तु कर्मनिमित्त शरीराभाव परम्, तदेव हि शरीरंप्रियाप्रिय हेतुः । जैमिनि आचार्य, मुक्त जीव के शरीर इन्द्रिय आदि मानते हैं और अपने मत की पुष्टि में श्रुति प्रस्तुत करते हैं “वह एक होता है, तीन होता है, पांच, सात होता है” इत्यादि । वे कहते हैं कि इस श्रुति से, जीव के अनेक होने की बात कही गई है जिससे शरीर का अस्तित्व ज्ञात होता है। जो अशरीरत्व की बात है वह तो कर्मनिमित्तक शरीर के लिए है, वही शरीर पाप पुण्य का कारण होता है । भगवांस्तु वादरायणः स्वमतेन सिद्धान्त माह- भगवान बादरायण अपने मत से सिद्धान्त कहते हैं— द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः | ४|४|१२ ॥ “संकल्पादेव” इत्येतदतः शब्देन परामृश्यते, अतएव संकल्पात् उभयविधंसशरीरमशरीरं च मुक्त भगवान बादरायणो मन्यते, एवं चोभयी श्रुतिरुपपद्यते - द्वादशाहवद - यथा - " द्वादशाहमु- ( ११६६ } द्धिकामा उपेयुः " द्वादशाहेन प्रजाकामं याजयेत्" इत्युपैति यजति चोदनाभ्यां संकल्पभेदेन सत्रमहोनं च भवति । सूत्रस्थ अतः शब्द “संकल्पादेव” अर्थ का द्योतन करता है भगवान बादरायण का मत है कि मुकात्मा संकल्प से ही सशरीर और अशरीर होता है, दोनों को प्रमाणित करने वाली श्रतियाँ मिलती हैं जैसे कि– " द्वादशाह अनुष्ठान समृद्धि कामना से कर्त्तव्य है " सन्तान कामना से द्वादशाहु यजन करना चाहिए" इत्यादि में एक ही नियम से, द्विविव प्रकारों का विधान संकल्प भेद से बतलाया गया है, वैसे ही सशरीर अशरीर दोनों संकल्प से ही संभव है । यदा शरीराद्युपकरणवत्वं तदातानि शरीराद्युपकरणानि स्वेनैव सृष्टानीति नास्ति नियम, इत्याह- जब मुक्तात्मा शरीरादि उप करणों से वे शरीरादि उपकरण, स्वतः ही सृष्ट होते हैं, बतलाते हैं । तन्वभावे सन्ध्यवदुपपत्तेः | ४|४|१३|| संपन्न होता है, तब उसके ऐसा नियम नहीं है, यही परमपुरुष सृष्टैरुपकरणै- स्वेनैव सृष्टतनुप्रभृत्युपकरणाभावे भगोपपत्त ेः सत्यसंकल्पोऽपि स्वयं न सृजति । यथा स्वप्ने- “अथ रथान् रथयोगान् पथः सृजते " इत्यारभ्य " अथ वेशं तान् पुष्करिण्यः सुवन्त्यः सृजते स हि कर्त्ता” इति “य एषु सुप्त ेषुजागति कामंकामं पुरुषो निर्मिमाणः तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते तस्मिन् लोकाश्रिताः सर्वे तदुनात्येति कश्चन्” इति ईश्वरसृष्टेः रथाद्युपकरणैः जोवो भुंक्त, तथा मुक्तोऽपि लीलाप्रवृत्त नेश्वरेण सृष्टैः पितृलोकादिभिर्लीलारसं भुंक्त । स्वयं अपने ही सष्ट शरीर आदि उपकरणों के अभाव में, पर- मात्मा द्वारा सष्ट उपकरणों के भोगों की सष्टि करना सत्य संकल्प होते हुए भी, इस मुक्तात्मा में संभव नहीं है । जैसे कि स्वप्नावस्था में
( १२०० ) " रथ रथ के योग्य मार्ग, वागबावड़ी झरने आदि का वही कर्त्ता है" इत्यादि से ज्ञात होता है कि ईश्वर सष्ट रथ आदि का जीव भोग करता है, वैसे ही मुक्तात्मा भी लीला प्रवृत्त ईश्वर द्वारा सष्ट पितृलोक आदि लीला रस को भोगता है । भावे जाग्रत्वत् |४| ४ | १४॥ G स्वसंकल्पादेव सृष्टतनु प्रभृतिपितृ लोकाद्युपकरणभावे जाग्रत पुरुष भोगवन्मुक्तोऽपि लीलारसं भुंक्त, परंपुरुषोऽपि लीलार्थं दशरथवसुदेवादि पितृलोकादिकमात्मनः सृष्ट्वा तैर्मनुष्यधर्म- लीलारसं यथाभुंक्त तथा मुक्तानामपि स्वलीलायै पितृलोकादिकं स्वयमेव सृजति कदाचित् कदाचिच्च मुक्ताः सत्यसंकल्पत्वात् परं पुरुष लीलान्तर्गत स्वपितृलोकादि स्वयमेवसृजन्तीति सर्वमुपपन्नम् । मुक्तात्मा, अपने संकल्प से ही सष्ट शरीर से पितृलोक आदि उप- करणों का जाग्रत पुरुषों की तरह लीला रस का भोग करता है, जैसे कि परंपुरुष लीला के लिए दशरथ वसुदेव आदि पितरों की स्वयं स . ष्टि करके मनुष्यों की तरह लीला रस का भोग करते हैं, वैसे ही मुक्तात्मा भी अपनी लीला करने के लिए पितर आदि की सष्टि करता है और कभी सत्य संकल्प होने के कारण वह मुक्तात्मा परमात्मा की लीला में अपने पितर आदि को स्वयं ही सजन करते हैं । नन्वात्माऽणुपरिमाण इत्युक्तम् कथमनेकशरीरेष्वेकस्याणो- रात्माभिमानसंभव इत्यत्राह- आत्मा को श्रणुपरिमाण का बतलाया गया है’ संशय होता है कि– वह एक अणु अनेक शरीरों में कैसे व्यापक हो सकता है ? इस पर कहते हैं– प्रदीपवदावेशस्तथाहि दर्शयति |४|४|१५|| यथा प्रदीपस्यैकस्यैकस्मिन्देशे वर्त्तमानस्य स्वप्रभया देशांतरावेशः तथात्मनोऽप्येकदेह स्थितस्यैव स्वप्रभारूपेण चैतन्येन
( १.२.०१ ) इयान्विशेषः, श्र तस्य कर्मणा सर्वशरीरावेशो नानुपपन्नः, तथा चैकस्मिन्नपि वेहेहृदयाद्येकप्रदेश वर्त्तिनोऽपि चैतन्यव्याप्त्या सर्वस्मिन्देह श्रात्माभिमानः तद्वत् संकुचितज्ञानस्य देहान्तरेषु श्रात्माभिमानानुगुणाव्याप्तिः “इदम् " ग्रहणानुगुणा च नानुपपन्ना | तथाहि दर्शयति - " बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च, भागो जीवः स विज्ञेयः चानन्त्याय कल्पते” इति । श्रमुक्तस्यकर्मनियामकम्, मुक्तस्य स्वेच्छेति विशेषः । जैसे एक स्थान पर रक्खा हुआ दीपक, अपने प्रकाश से अन्य स्थानों का प्रकाशित करता है, वैसे ही एक देह स्थित आत्मा अपने चैतन्य प्रकाश से सभी शरीरों में आविष्ट नहीं हो सकता । एक ही शरीर में हृदय आदि एक स्थान पर स्थित जीवात्मा, अपनी चैतन्य व्याप्ति से सपूर्ण देह में आत्माभिमान कर सकता है, अन्य देहों में वैसा करना संभव नहीं है । कर्म से संकुचित ज्ञान वाले बद्ध जीव की अन्य देशों में जाने पर आत्माभिमान के अनुरूप व्याप्ति होती है इसलिये उसे “इदम् " ऐसा कहना कठिन है – जैसा कि श्रुति कहती भी है– “बाल के सौवें हिस्से के भी सौवें हिस्से की कल्पना की जाये तो उसे जीव कहा जा सकता है, वह जीव अनन्त है ।” बद्ध जीव कर्म से प्राबद्ध है जबकि मुक्त स्वेच्छा- चारी होता है । ननु परंब्रह्म प्राप्तस्यान्तरवाह्य ज्ञानलोपं दर्शयति श्रुतिः " प्राज्ञेनात्मा संपरिष्वक्तो न वाह्यं किचन् वेदनान्तरम्” इति, तत्कथं मुक्तस्य सार्वज्ञमुच्यते ? तत्रोत्तरम् - परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त जीवात्मा को तो वाह्यान्तर का कुछ भी ज्ञान नहीं होता ऐसा श्रुति का मत है - “परमात्मा से संसक्त आत्मा को न कुछ बाह्य ज्ञान रहता है न आन्तरिक” इत्यादि, फिर मुक्त को सर्वज्ञ कैसे कहा ? इसका उत्तर देते हैं- स्वाप्ययसंपत्त्योरन्यतरापेक्षमाविष्कृतं हि | ४|४|१६|| नेदं वचनंमुक्तविषयम् श्रपितु स्वाप्यय संपत्योरन्यतरापेक्षम् ।
" ( १२०२ ) स्वाप्ययः सुषुप्तिः, संपत्तिश्चमरणम्, “वाङ्मनसि संपद्यते" इत्यारभ्य “तेजः परस्यां देवतायाम्” इति वचनात् । तयोश्चावस्थयोः प्राश प्राप्तिर्निस्संबोधत्वं च विद्येते । अतस्तयोरन्यतरापेक्षमिदं वचनं सुषुप्तिमरणयोर्निस्संबोधत्वं मुक्तस्य च सर्वज्ञत्वं आविष्कृतं हि श्रुत्या " नाहं खल्वयमेवं संप्रत्यात्मानं जानात्ययमहमस्मीति नो एवेमानि भूतानि विनाशमेवापोतो भवति नाहमत्र भोग्यं पश्यामि " इति सुषुप्तिवेलायां निस्संबोधत्वमुक्त्वा तस्मिन्नेव वाक्ये मुक्तमधिकृत्य - “स वा एष दिव्येन चक्षुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते य एते ब्रह्मलोप” इति सर्वज्ञत्वमुच्यते । तथामरणे च निस्संबोधत्वम् - “एतेभ्यो भूतेभ्यः समत्थाय तान्येवानु विनश्यति’ इति । श्रतः “प्राज्ञेनात्मता” इति वचनं स्वाप्ययसंपत्स्य, रन्यतरापेक्षम् । “प्राज्ञेनात्मना” इत्यादि वचन मुक्तात्मा विषयक नहीं है अपितु सुषुप्ति या मृत्यु से संबद्ध है । “बाङ्मनसि संपद्यते " से लेकर “तेज: परस्यां देवतायाम्” तक मरण का उल्लेख किया गया है, उन दो अव- स्थाओं को प्राप्त जीव में हो अज्ञान रहता है । उन्हीं से संबद्ध यह वचन है । सुषुप्ति और मरण की अज्ञानता तथा मुक्त की सर्वज्ञता श्रुति में दिखलाई गई है । जैसे " इस अवस्था में तो निश्चय ही इसे यह भी ज्ञान नहीं होता कि” यह मैं हूं " और न यह इन अन्य भूतों को ही जानता है, यह मानों विनाश को प्राप्त हो जाता है, इसमें मुझे इष्ट फल नहीं दीखता" इत्यादि में सुषुप्तावस्था की अज्ञानता दिखलाकर उसी वाक्य में मुक्त के लिए - " वह आत्मा इस दिव्य चक्षु के द्वारा भोगों को देखता हुआ रमण करता है जो कि इस ब्रह्म लोकमें है" इत्यादि से सर्वज्ञता दिखलाई गई है । इसी प्रकार मरणावस्था की अज्ञानता " एतेभ्योभूतेभ्यः” इत्यादि में दिखलाई गई है । इसलिए " प्राज्ञेनात्मना" इत्यादिवचन इन्हीं दो में से किसी एक के विषय में है ।
( १२०३ ) १६ जगद्व्यापारवर्जाधिकरण:- जगद्व्यापारवर्ज प्रकरणादसन्निहितत्वाच | ४|४|१७|| किमुक्तेश्वर्यं जगत्सृष्ट्यादि परं पुरुषासाधारणं सर्वेश्वर - त्वमपि उत तदरहितं केवल परमपुरुषानुभवविषयमिति संशयः किम् युक्तम् ? जगदीश्वरत्वमपीति, कुतः ? “निरंजनः परमंसाम्यु- पैति” इति परंपुरुषेण परमसाम्यापत्तिः श्रुतेः, सत्यसंकल्पत्व- श्र तेश्च । नहि परमसाम्य सत्यसंकल्पत्वे सर्वेश्वरासाधारण जगन्नियमनेन विनोपपद्येते । श्रतः सत्यसंकल्पत्वपरमसाम्योपप- तये समस्तजगन्नियमनरूपमपि मुक्तेश्वर्यमिति । 6 इस संशय पर मत होता है “परम निरंजन की समता मुक्त को क्या जगत की सृष्टि आदि का परमात्मा की तरह सर्वेश्वरत्व का असाधारण सामर्थ्य भी प्राप्त हो जाता है अथवा केवल परमात्मा की तरह आनंदानुभव मात्र ही प्राप्त होता है ? कि- जगदीश्वरत्व भी प्राप्त हो जाता है प्राप्त करता है” इत्यादि से ज्ञात होता है कि उसे परम पुरुष की समता प्राप्त हो जाती है, उसकी सत्य संकल्पता बतलाने वाली श्रुति से भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। सर्वेश्वर के असाधारण जगन्नियमन के विना, परमसाम्य और सत्यसंकल्पत्व धर्म हो नहीं सकते । परम साम्य और सत्य संकल्पत्व के आधार पर समस्त जगन्नियमन रूप ऐश्वर्य भी मुक्तात्मा में विद्यमान है, ऐसा मानना चाहिए। व्यापारः सिद्धान्तः - एवं प्राप्त प्रचक्ष्महे - जगद्व्यापारवमिति । जगद् निखिलचेतनाचेतनस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदनियमनम् तद्वजं निरस्तनिखिनतिरोधानस्य निर्व्याजब्रह्मानुभव रूपं मुर्खों- श्वयंम् कुतः ? प्रकरणात् । निखिल जगन्नियमनं हि परंब्रह्म प्रकृ- त्याम्नायते - " यतो वा इमानि भूतानि जायते, येन जातानि जीवंति, यत्प्रयंत्यभिसंविशंति तदद्विजिज्ञास्व तद्ब्रह्म" इति । यद्येतनिखिलजगन्नियमनं मुक्तानामपि साधारणं स्यात्, ततश्चेदं
( १२०४ ) जगदीश्वरत्वरूपं ब्रह्मलक्षणं न संगच्छते, लक्षरणत्वम् । प्रसाधारणस्य हि तथा - “सदेव सोम्येदमग्र श्रासीत् एकमेवाद्वितीयम् तदैक्षत् बहु प्रजाति तत्तेजोऽसृजत् " - ब्रह्म वा इदमेकमेवाग्र श्रासीत् तदेकं सन्न व्यभजतं तुछु योरूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवक्षत्राणि इन्द्रोवरुणः सोमोरुद्रः पर्जन्योयमो मृत्युरीशान इति” “आत्मा” वा इदमेक एवान प्रासीत् नान्यत्कचन् मिषत् स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति स इमान् लोकानसृजत": “एको ह वै नारायण श्रासीन्न ब्रह्म मेलानो नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि नापो नाग्निनं सोमो न सूर्यः स एकाकी न रमते तस्य ध्यानान्तरस्थस्यैका कन्यादशेन्द्रियाणि ’ इत्यादिषु । " यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तर: " इत्यारभ्य - ’ “य प्रात्मनि तिष्ठन्” इत्यादिषु च निखिलजगन्नियमनं परम पुरुषं प्रकृत्यैव श्रूयते । प्रसन्निहितत्वाच्च-न चैतेषु निखिलजगन्नि यमनप्रसंगेषु मुक्तस्यसंन्निधानमस्ति, येन जगद्व्यापारः तस्यापि स्यात् उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि– जागतिक व्यापार से रहित मुक्त का, ऐश्वर्य होता है । समस्त जड चेतन की सृष्टि स्थिति और नियमन आदि को जगद् व्यापार कहते हैं, उससे रहित केवल ब्रह्मानु स्वरूप हो, मुक्तात्मा का ऐश्वर्य होता है । समस्त जगत के नियमन की प्रकृति, केवल परब्रह्म की ही बतलाई गई है - " जिससे ये सारे पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिससे स्थित और जिसमें विलीन हैं, उसे ही जानो वही ब्रह्म है” इत्यादि । यदि यह जगत् का नियमन कार्य, मुक्तात्माओं से भी साधारण रूप से साध्यं हो जाय तो, यह जगदीश्वरत्व रूप से ब्रह्म के लिए नहीं कहा जा सकता, यह तो परमात्मा का असाधारण लक्षण है । तथा सदेव सोंम्येदमग्र ब्रह्म वा इदमेवाग्र" आत्मा वा इदमेक एवाग्र “एकोहवनारायण आसीत्" इत्यादि एवं “यः पृथिव्यां तिष्ठन् " य मात्मनितिष्ठन्" इत्यादि में, निखिल जगन्नियमन रूप प्रकृति परमपुरुष 1
माना जा सके । ( १२०५ ) | की ही बतलाई गई है ! ये सारा निखिल जगन्नियमन का प्रसंग मुक्तात्मा | के लिए कहा गया है, जिसके आधार पर जागतिक व्यापार उसका भी प्रत्यक्षोपदेशादिति चेन्नाधिकारिकमंडलस्थोक्तः |8| ४ | १८|| “स्वराड् भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति " “इमान् लोकान् कामान्नी कामरूप्यनुसंचरन्” इति प्रत्यक्षेण श्रुत्या मुक्तस्य जगदव्यापार उपदिश्यते, प्रतो न जगदव्यापार १ वजेमिति चेत् तन्न, अाधिकारिकमंडलस्थोक्त े ; प्राधिकारिकाः, । प्रधिकारेषु नियुक्ता हिरण्यगर्भादयः, मंडलानि तेषां लोकाः, तत्स्थाः 1⁄2 भोगाः मुक्तस्याकर्मवश्यस्य भवतीत्ययमर्थः " तस्य सर्वेषु लोकेषु 1 कामचारो भवति” इत्यादिनोच्यते । प्रकमंप्रतिहतज्ञानो मुक्तो विकारलोकान् ब्रह्मविभूति भूताननुभूय यथाकामं तृप्यतीत्यर्थः । तदेवं विकारान्तरवर्तिनः, प्राधिकारिकमंडलस्थान् सर्वान् भोगान् ब्रह्मविभूति भूताननुभवतीत्यनेन वाक्येनोच्यते, न जगद्व्यापारः । यदि कहो कि – " वह स्वतंत्र हो जाता है उसकी सभी लोकों में स्वच्छंद गति हो जाती है" इत्यादि में, स्पष्ट रूप से मुक्तात्मा का जगद्- व्यापार दिखलाया गया है, इसलिए उसके ऐश्वर्य को जगद् व्यापार रहित नहीं कह सकते । यह कथन भी ठीक नहीं है, यह तो आधिकारिक अर्थात् हिरणगमं आदिमंडलों के लोकों के जाने की बात है। जहाँ कर्म- वश्यता नहीं होती “तस्यकामचारो भवति” में यही बतलाया गया है। । अर्थात् निष्काम भाव का त्याग कर, मुक्तात्मा, ब्रह्म के विभूति स्वरूप विकृत लोकों का यथेच्छ उपभोग कर तृप्त हो जाता है । उन्हीं विकारा- तरवर्ती आधिकारिक मंडलों के समस्त भोगों का जो कि ब्रह्म के विभूति स्वरूप है, अनुभव करता है, यही उक्त वाक्य का कथन है, जगद् व्यापार यदि संसारिवमुक्तोऽपि विकारान्तरवर्त्तिनो भोगान् भुंक्त, तहिं बद्धस्येव तत्राह 1 मुक्तस्यापि श्रन्तवदेव भोग्यजातं प्रल्पं च स्यात्
( ( १२०६ ) यदि संसारी लोगों की तरह, मुक्त भी, विकारान्तरवर्त्ती भोगों का योग करता है तो यही मानना चाहिए कि- मुक्तात्मा की सारी भोग्य वस्तुएं, बद्ध की तरह अन्तवान् और अल्प हैं। इसका उत्तर- विकारावति च तथा हि स्थितिमाह | ४|४|१६ ॥ । विकारे - जन्मादिके न वर्तत इति विकारावत्ति, निर्धत- निखिलविकारं निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणकतानं, निरतिशया- नंदपरंब्रह्म, सविभूतिकं, सकलकल्याणगुरणमनु भवति मुक्त: । तद्विभूत्यन्तगंतत्वेन विकारवर्तिनां लोकानामपि भुक्तभोग्यत्वम् । तथाहि परस्मिन्ब्रह्मरिण निर्विकारेऽनवाधिकातिशयानंदे मुक्तस्या- नुर्भावितृत्वेन स्थितिमाह श्र तिः - " यदा हि एवैष एतस्मिन् दृश्ये- नारभ्येश्रनिरुक्तऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सोऽभयं गतो भवति" “रसो वैसः रसं ह्य ेवायं लब्ध्वानंदी भवति” इत्यादिका । सद्विभूतिभूतं च जगत्तत्रैव वत्त’ ते " तस्मिल्लोकाश्रिताः सर्वेतदुना- त्येति कश्चन्" इति श्रुतेः । अतः सविभूतिकं ब्रह्मानुभवन् विकारा- न्तरवत्तिनः, प्राधिकारिमकमंडलस्थानपि भोगान्भुंक्त इति, “सर्वेषु लोकेषु कामचारः" इत्यादिनोच्यते, न मुक्तस्य जगद्व्यापारः । जन्मादि विकार उसमें नहीं होंते । सारे ही विकारों से रहित समस्त हीनताओं से रहित, कल्याणैकतान, अत्यानंदमय परब्रह्म के विभूति सहित सभी कल्याणमय गुणों का, मुक्तात्मा अनुभव करता है उनकी विभूति के अन्तर्गत होने से उन विकारवर्त्ती लोकों के भोगों का भो भोग करता है । निर्विकार अत्यानंदमय परब्रह्म में मुक्तात्मा की अनुभविता के रूप से स्थिति श्रुति में दिखलाई गई है – “ जब यह, इस अदृश्य, अनात्म्य, अनिरुक्त, अनिलयन, अभय में प्रतिष्ठित होता है, तब वह अभय हो जाता है" वह रस स्वरूप है उस रस को प्राप्त कर आनंदी होता है इत्यादि । उसका विभूति स्वरूप जगत वही रहता है " तस्मि । ल्लोकाश्रिताः सर्वे" इत्यादि में दिखलाया गया है। अतः यही मानना चाहिए कि– सार्वभूतिक ब्रह्मानुभव के लिए विकारान्तरवर्ती अधिका-
( १२०७ ) रिक मंडलों के भोगों को भोगता है यही “सर्वेषु लोकेषु कामचारो इत्यादि का तात्पर्य है, मुक्तात्मा के जगद् व्यापार की चर्चा नहीं है । वर्शयतिश्चैवं प्रत्यक्षानुमाने | ४|४|२०|| " ग्रस्य प्रत्यागात्मनोमुक्तस्य नियाम्यभूतस्य नियंतुभूतपरम- पुरुषासाधारणं जगद्व्यापारूपंनियमनं न निखिलजगन्नियमन रूपां व्यापारः संभवतीत्युक्तम्, परमपुरुषासाधारण इति दर्शयतः श्रुतिस्मृती - " भीषाऽस्मादवातः पवते भोषोदेति सूर्यः भीषाऽस्मादग्निश्चन्द्रश्च मृत्युर्धावति पंचमः” इति " एतस्य वा प्रक्षरस्य प्रशासने गागि सूर्याचन्द्रमसौ विषतौ तिष्ठतः" इत्यादि # तथा “एष सर्वेश्वर एव भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुविधरण एष लोकानामसंभेदाय” इति च श्रुतिः । स्मृतिरपि " मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विविपरिवर्तते" 黃: Be इति “विष्टम्याहमिदं कुत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्” इति च । 판 तथा मुक्तस्य सत्यसंकल्पत्वादिपूर्वकस्याप्यानन्दस्य परमपुरुष एव लं हेतुरिति श्रुतिस्मृती वर्णयतः “एष ह्येवानंदयाति” मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते, स गुणान समतीत्यैतान् ब्रह्म भूयाय कल्पते । ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममुतस्याव्ययस्य च, शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकांतिकस्य च" इति । नियम्य इस मुक्त जीवात्मा में, नियंता परमपुरुष को असा- धारण जगद्व्यापार रूप नियमन आदि विशेषतायें नहीं हो सकतीं। निखिलजगन्नियमन रूप असाधारण विशेषतायें परमपुरुष परमात्मा की हो बतलाई गई है - “इनके भय से ही वायु चलता है, सूर्य उदय होता है, अग्नि, इन्द्र और पांचवां यम दौड़ता है” - हे गागि इस अक्षर के प्रशासन मैं सूर्य और चंद्र टिके हुए हैं" यही सर्वेश्वर हैं “यही भूताधिपति भूतपाल हैं और यही, प्राणियों की मर्यादा को रखने वाले सेतु हैं-” इत्यादि श्रुति तथा “मेरी ही अध्यक्षता में यह प्रकृति चर अचर का
( १२०५ ) प्रसव करती है, मैं इसी के हेतु से जगत का विस्तार करता हूँ-” मैं अकेला विस्तृतरूप से जगत में स्थित हूँ" इत्यादि स्मृति इसकी प्रमाण हैं। इस मुक्तात्मा की सत्यसंकल्पता और आनंद के हेतु भी परमात्मा ही हैं, ऐसा श्रुति स्मृति का मत है।" यही आनंदित करता है- “मुझे जो व्यभिचारि भाव से भजते हैं, वे सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्म के समान हो जाते है, अव्यय अमृत मैं ब्रह्म ही शाश्वत धर्म और सुख का एकमात्र आश्रय हूँ” इत्यादि । सत्यसंकल्प पर्यन्तो गुणगणः यद्यप्यपहतपाप्मत्वादि: प्रत्यगात्मनः स्वाभाविक एवाविर्भूतः, तथाऽपि तस्य तथाविधत्वमेव परमपुरुषायत्तम् तस्य नित्यस्थितिश्च तदायत्ता, परमपुरुषस्यैत- नित्यतायाः नित्येष्टत्वान्नित्यतया वर्त्तत इति न कश्चिद् विरोधः । एवमेव परमपुरुष भोगोपकरणस्य लीलोपकरणस्य च नित्यतया शास्त्रावगतस्य परमपुरुषस्य नित्येष्टत्वादेव तथावस्थानमस्तीति शास्त्रादवगम्यते । श्रतो मुक्तस्य सत्यसंकल्पत्वं परमपुरुष साम्यं च जगद्व्यापारवजंम् । यद्यपि निष्पापता से लेकर सत्यसंकल्पता आदि गुण जीवात्मा के स्वाभाविक रूप से आविर्भूत होते हैं, पर वे उन गुणों वाले परमात्मा से ही आयत होते हैं, उन गुणों को नित्य स्थिति भी परमात्मा के ही अधीन होती है । परमपुरुष में इनकी नित्यता, नित्य इष्ट होने से नित्य- रूप से स्थित रहती है । इसीप्रकार परमपुरुष के भोगोपकरण लोलोप- करणों की नित्यता भी शास्त्रों से ज्ञात होती है तथा परमपुरुष के लिए वह नित्य इष्ट होने से सदा उनमें स्थित रहते हैं ऐसा भी शास्त्र से ज्ञात होता है। इससे निश्चित होता है कि - मुक्तात्मा की सत्यसंकल्पता और परमपुरुष की समता, जगद्व्यापार से रहित है । भोगमात्र साम्यलिगाच्च | ४|४|२१|| ब्रह्म याथात्म्यानुभवरूप भोगमात्रे मुक्तस्य ब्रह्मसाम्यप्रतिपाद- नाच्च लिगाज्जगद्व्यापारवर्ज मित्यवगम्यते “सोऽश्नुते सर्वान
( १२०६ ) कामान् सह ब्रह्मणा विपाश्चिता” इति । प्रतो मुक्तस्य परमपुरुष साम्यं सत्यसंकल्पत्वं च परम पुरुषासाधार निखिल जगन्नियमन भुत्यानुगुष्येन वर्णनीयमिति जगदव्यापारवर्जमेव मुक्तेश्वर्यम् । मुक्तात्मा के ब्रह्म के यथार्थ अनुभवरूप भोगमात्र तथा ब्रह्मसाम्य के प्रतिपादन से, जगद् व्यापार वर्जन ज्ञात होता है- “वह समस्त काम- नामों को ब्रह्म के साथ भोगता है” इत्यादि । मुक्तात्मा की परमपुरुष समता, सत्यसंकल्पता और परमपुरुष के असाधारण जगन्नियमन आदि, शास्त्र के अनुसार ही मानना चाहिये। मुक्तात्मा का ऐश्वर्य जगद् व्यापार से रहित है । यदि परमपुरुषायत्त मुक्तैश्वर्यम्, तहिं तस्य स्वतंत्रत्वेन सत्यसंकल्पान्मुक्तस्य पुनरावृत्ति संभवांश केत्याह- यदि मुक्त का ऐश्वयं परमपुरुष के अधीन है तो, सत्य संकल्प होने से मुक्त की पुनरावृत्ति तो संभव है ? उत्तर- अनावृत्तिशब्दावनावु सिशब्दात् |४|४|२२ ॥ यथा निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणकतानो जगज्जन्मादि कारणं समस्तवस्तुविलक्षणः सर्वज्ञः सत्यसंकल्पः श्राश्रितवात्स- ल्यैकजलधिः, परमकारुणिको निरस्तसमाभ्यधिक संभावनः पर- ब्रह्माभिधानः परमपुरुषोऽस्तीति शब्दादवगम्यते । एवमहरहरनुष्ठी- यमानवर्णाश्रमधर्मानुगृहीततदुपासनरूपतत्समाराधनप्रीतः उपासी- नाननादिकालप्रवृत्तानंतदुस्तरकर्म संचयरूपाविद्यां स्वयाथात्म्यानुभवरूपानवधिकातिशयानन्दंप्रापय्य विनिवत्यं पुनरावर्तयती . त्यपिशब्दादेवावगम्यते । शब्दश्च - “स खल्वेवं वर्त्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसंपद्यते न च पुनरावत्तंते न च पुनरावर्तते” इत्यादिकः तथा च भगवता स्वयमेवोक्तम्- “मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशा- महात्मानः संसिद्धिपरमागताः । श्राब्रह्म श्वतम् नाम वंति । sex
( १२१० ) भुवनांल्लोकाः पुनरावत्तिनोऽर्जुन, मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते" । इति जैसा कि - समस्त हीनताओं से रहित, कल्याणैकमूर्ति जगत् जन्मादि के कारण, समस्त वस्तुओं से विलक्षण, सर्वज्ञ, सत्य संकल्प शरणागतवत्सल, परमदयालु, न्यूनाधिकता रहित सदा एकरस, परब्रह्म परमपुरुष का अस्तित्व शास्त्र से ज्ञात होता है वैसे ही अहर्निश वर्णाश्रम धर्मानुसार अनुष्ठीयमान, उपासना रूप समाधान से प्रसन्न बे परमात्मा जीवात्मा के अनादिकाल संचित दुस्तर कर्मरूप अविद्या का निवारण करके उसे अपने यथार्थ आत्म्यानुभव रूप अत्यानंदमयता को प्राप्ति कराते हैं और पुनः संसार में नहीं जाने देते, यह भी शास्त्र से ही ज्ञात होता है। जैसे कि – " आजीवन वह इस प्रकार आचरण करते हुए ब्रह्म- लोक की प्राप्ति करता है पुनः लौटकर नहीं आता लोटकर नहीं भाता " इत्यादि । भगवान ने स्वयं भी कहा है– “मुझे प्राप्त करके उपासक, इस दुःखालय अशाश्वत संसार को नहीं प्राप्त करता, परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । हे अर्जुन ! ब्रह्म सहित ये सारे लोक पुनः नष्ट हो जाते हैं पर मुझे प्राप्त करने वालों का पुनर्जन्म नहीं होता” इत्यादि । न चोच्छिन्न कर्मबंधस्यासंकुचितज्ञानस्य परब्रह्मानुभवैकस्व भावस्य तदेकप्रियस्यानवाधिकातिशयानन्दं ब्रह्माऽनुभवतोऽन्यापेक्षा- तदर्थारम्भाद्यसंभवात् पुनरावृत्ति शंका । न च परमपुरुषः सत्यसंकल्पोऽत्यथं प्रियं ज्ञानिनं लब्ध्वा कदाचिदावर्त्तयिष्यति य एवमाह - “प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यथं महं स च ममप्रिय, उदाराः सर्व एवैते ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम् । श्रास्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् बहूनां जन्मनामते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः” इति । सूत्रा भ्यासः शास्त्र परिसमाप्ति द्योतयति । इति सर्वं समंजसम् । कर्मबन्धनों से मुक्त, विकसित ज्ञान, परंब्रह्मानुभव स्वभाव, एक. मात्र परमात्मा से ही प्रेम करने वाले, अत्यधिक आनंद में मग्न, एक- "
- ॥
- ( १२११ )
- मात्र ब्रह्मानुभव में ही रत, जीव की पुनरावृत्ति की शंका की भी नहीं वा सकती।
- और न अत्यंत प्रिय सत्य संकल्प परमपुरुष को प्राप्त कर कभी लोट ही सकता है, जैसा कि कहा गया है- “मुझे ज्ञानी भक्त अत्यंत प्रिय है, और मैं उसे प्रिय हैं, वैसे सारे ही उपासक उदार हैं, पर ज्ञानी उपासक तो मेरी आत्मा ही है । वह सही मार्ग में स्थित महात्मा मेरी ही गति को प्राप्त करता है, अनेकों जन्मों में ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त करते हैं, जो कि सब कुछ वासुदेव है ऐसा मानते हैं, ऐसे महात्मा बड़े सुदुलंभ हैं ।” इत्यादि । सूत्र में जो दो बार शब्द का अभ्यास किया गया है वह परि समाप्ति का द्योतक है। सारे समाधान हो गए प्रस्तु ।
- 3.
- चतुथं प्रध्याय चतुथं पाद समाप्त
- ग्रन्थ पूर्ण
- समरीति महातेजाः परब्रहच सनातनः । जयता ज्जानकी नाथो वेदवेद्यो महामतिः॥
- Bukur Nagpal
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