१
तृतीय अध्याय प्रथम- पाद १ तदन्तर प्रतिपत्त्यधिकरणः- तदन्तर प्रतिपत्तौ रंहतिसंपरिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम् |३|१|१|| प्रतिक्रान्ताध्यायद्वयेननिखिल जगदेकका रणं निरस्तनिखिलदो- षगंधपरिमितोदार गुणसागरं सकने तर विलक्षणं परंब्रह्म, मुमुक्षु- भिरुपास्यतया वेदांता प्रतिपादयतीत्ययमर्थः स्मृतिन्याय- विरोध परिहार परपक्षप्रतिक्षेपवेदांतवाक्यपरस्परविरोधपरिहार रूपकार्यं स्वरूप संशोधनैः तददुर्धर्ष गत्वहेतुभिः सह स्थापितः, श्रतोऽध्यायद्वयेन ब्रह्मस्वरूपं प्रतिपादितम् । उत्तरेणेदानीं तत्प्राप्त्यु- पायैः सह प्राप्तिप्रकारश्चिन्तयितुमिष्यते । तत्र तृतीयाध्याये उपायभूतोपासन विषया चिन्तावर्त्तते । उपासनारभाभ्यर्हितोपायश्च प्राप्यवस्तु व्यतिरिक्तवैतृष्ण्यम्प्राप्यतृष्णाचेति, तत्सिद्धयर्थं जीवस्य लोकान्तरेषु संचरतो जाग्रतस्वपतः सुषुप्तस्य मूर्च्छतस्य दोषाः, परस्यब्रह्मणस्तद्रहितता, कल्याणगुणाकरत्वं च प्रथमद्वितीययोः पादयोः प्रतिपाद्यन्ते । । पिछले दो अध्यायों में, समस्त जगत के एक मात्र कारण, निर्दोष असीम उदार गुणों के सागर, सबसे विलक्षण, परब्रह्म ही उपास्य रूप से वेदांत वाक्यों के प्रतिपाद्य हैं, इस सिद्धान्त मुमुक्ष ुओं के की स्थापना के लिए, स्मृति और तर्कों का विरोध करते हुए, विरोधी पक्षों का परि- हार- तथा परस्पर विरोधी वेदांत वाक्यों की संगति दिखलाते हुए उक्त सिद्धान्त की विशुद्ध रूप से स्थापना की गई । इससे निश्चित होता है
( eta ) कि उन दो अध्यायों में ब्रह्म का स्वरूप बतलाया गया। इसके बाद अब उन परमात्मा की प्राप्ति के उपायों से, प्राप्ति के प्रकार पर विचार करते हैं । इस तृतीय अध्याय में, उपाय रूप उपासना पर विचार किया गया है । उपासना में सर्वप्रथम, प्राप्तव्य से भिन्न वस्तुओं में वितृष्णा और प्राप्य के प्रति तीव्र आवेग, ये दो हितकर उपाय बतलाए गए हैं, इन दोनों की पुष्टि के लिए, प्रथम और द्वितीय पाद में, लोकान्तर संचरणशील जीव के, जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति और मूर्छा आदि अवस्थाओं से संबंधी दोष तथा परमात्मा में दोषों का अभाव तथा कल्याणमय गुणों की स्थिति का प्रतिपादन किया गया है । तत्र देहात् देहान्त रंगच्छन्नयंजीवो देहान्तरारंभहेतुभिर्भत- सूक्ष्मैः संपरिष्वक्त एव गच्छति उत न? इति चिन्तायां यत्र यत्र जीवो याति, तत्र तत्र भूतसूक्ष्माणां सुलभत्वादसंपरिष्वतो यातीति प्राप्तम् । पश्चादपि पूर्वपक्षबीजान्युपन्यस्य निरसिष्यति । यह जीव, एक देह से दूसरे में जाते समय, देहान्तर के आरंभ के कारणभूत सूक्ष्म भूतों से परिवेष्टित रहता है या नहीं? इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीव जहाँ-जहाँ जाता हैं वहाँ-वहाँ उसे, सारे सूक्ष्म भूत सुलभ हो जाते हैं, इसलिए वह इन्हें साथ नहीं ले जाता । इसके बाद उक्त पक्ष की मूल बातों का विश्लेषण करते हुए खंडन करेंगे । सिद्धान्तः- तत्र सिद्धान्तमाह - तदंतरप्रतिपत्तौ रंहति संप - रिष्वक्त इति । " संज्ञामूत्ति कॢप्ति" इति मूर्ति शब्देन देहः प्रस्तुतः, स तच्छब्देन परामृश्यते । तदन्तर प्रतिपत्तौ - देहान्तर गमने भूतसूक्ष्मैः संपरिष्वक्तो जीवो रंहति - गच्छतीत्यर्थः । कुतः ? प्रश्ननिरूप- णाभ्यां । पंचाग्निविद्यायामेवं प्रश्न प्रतिवचने प्रान्नायेते - श्वेतकेतुं किलारुणेयं पांचाल : प्रवाहण: कर्मिणां गन्तव्यदेशं, पुनरावृत्ति प्रकारं देवयानपितृया पथव्यावत्तं ने, अमुष्य लोकस्याप्राप्तारं च वेत्थेति पृष्ट्वेदमपि पप्रच्छ - " वेत्थ यथा पंचभ्यामाहुतावापः पुरुषवचसो
८६६ } भंवति’ इति । तमिमं पश्चिमं प्रश्नं प्रतिब्र वंश्च द्यलोकमग्नि- त्वेन रूपयित्वा " तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धांजुहवति, तस्या प्राहुतेः सोमोराजा संभवति" इत्यादिना - देवाख्याः जीवस्य प्राणाः अग्नित्वेन रूपिते द्यलोके श्रद्धाख्यं वस्तु प्रक्षिपंति, सा च श्रद्धा सोमराजाख्यामृतमयदेहरूपेण परिणमते तं चामृतमयं देहं त एव प्राणाः पर्जन्येऽग्नित्वेनरूपिते प्रक्षिपति, तच्च तत्र प्रक्षिप्तमन्नं भवति, तच्चान्नं त एव पुरुषेऽग्नित्व रूपिते प्रक्षिपंति, तच्च तत्र रेतो भवति, तच्चान्नं त एव घोषायामग्नित्व रूपितायां प्रक्षिपंति, तच्च तत्र प्रक्षिप्तं गर्भो भवतीत्युक्तवा श्राह - " इति तु पंचम्यामाहुतौ हुतायामापः पुरुषवचसो भवति " इति । एव पंचम्यामाहुतो हुतायामापः पुरुषशब्दाभिलप्यां भवतीत्यर्थः एवमुक्त े पूर्वाष्वप्या हुतिष्वनुवत्तमानानामेवापां सूक्ष्मरूपाणामिदानीं पुरुषाकारत्वं भवतीत्युक्तं भवति । अत एवं प्रश्नप्रतिवचनाभ्यां देह-हेतुभूतैः सूक्ष्मैः सह तत्र तत्र यातीति गम्यते । उस पर सिद्धांत कहते हैं, “संज्ञामूत्ति” इत्यादि सूत्र में मूर्ति शब्द देह का वाचक है, इस प्रस्तुत सूत्र में उसे ही" तत्" शब्द से बतलाया गया है । " तदनंतर प्रतिपत्ती" का अर्थ है कि यह जीव देहान्तर प्राप्त करने पर सूक्ष्म भूतों से संसक्त होकर “रंहति” अर्थात् गमन करता है । ऐसा निर्णय प्रश्नोत्तरों से हो जाता है। पंचाग्नि विद्या के प्रसंग में, इससे संबंधित प्रश्न - उत्तर किये गए, पंचाल राज प्रवाहण ने आरुणिश्वेकेतु से कर्म योगियों का गतिस्थान, पुनः आवृत्ति का प्रकार, देवयान पितृयान मार्ग का वर्णन, इत्यादि स्वर्ग आदि लोकों में जाने की इच्छा से पूछा “क्या तुम जानते हो कि पांच आहुतियों को प्राप्त कर ही जीव का पुरुष नाम होता है ?” इस द्वितीय प्रश्न के पूछने पर द्युलोक को अग्नि रूप बतलाते हुए कहा कि इस अग्नि से देवता लोग श्रद्धा की आहुति देते हैं, उस आहुति से सोमराज उत्पन्न होते हैं" इत्यादि से बतलाया गया है कि रूप अग्नि में सर्वप्रथम श्रद्धा की आहुति होती है वही श्रद्धा
( 200 ) अमृतरूप में परिणत हो जाती है, वे प्राण उस अग्निरूप से कल्पित पर्जन्य में निक्षिप्त होकर वर्षारूप में परिणत होते है । वे ही पृथ्वी रूप अग्नि में निक्षिप्त होकर अन्न रूप में परिणत होते हैं, वह अन्न, जीव के देह रूप अग्नि में प्रक्षिप्त होकर वीर्य रूप से परिणत हो जाता है. उस वीर्य को अग्नि रूप स्त्री योनि मार्ग से धारण कर गर्भाकार में परिणत करती है । “इस प्रकार पांचवीं आहुति को प्राप्त कर ही वह पुरुष नाम धारी होता है” अर्थात् इस पांचवी आहुति को प्राप्त जल ही वह पुरुष नाम वाला होता है । इस प्रकार के प्रश्नोत्तर से ज्ञात होता है कि देह के उपादानरूप भूतसूक्ष्मों के सहयोग से ही जीव उन स्थानों में जा पाता है । ननु “आपः पुरुषवचसः " इत्युक्त अपां पुरुषाकारपरिणाम प्रतीतेर्गच्छता जीवेन तासामेव परिष्वंगः प्रतीयते, अतः कथं सर्वेषां भूतसूक्ष्माणां परिष्वंग इति ? तत्राह - " जल ही पुरुष पद वाच्य होता है” इस कथन से तो, जल की ही पुरुषाकार परिणित बतलाकर उसका ही सहचर्य मात्र बतलाया गया है, फिर अन्य सूक्ष्म भूतो के साहचर्य की बात कैसे संगत होगी ? इसका उत्तर देते हैं- त्र्यात्मकत्वात्त भूयस्त्वात् |३|१|२| तु शब्दश्चोद्य व्यावर्त्तयति, देहारंभकारणामपां केवलानां न देहारंभ संभवः । देहाद्यारंभाय हि - " तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकाम- करोत्" इति त्रिवृत्करणम् । केवलानामपां श्रवणं तासां भूयस्त्वात् । देहे च लोहितादिभूयस्त्वेनारंभकेष्वपां भूयस्त्वं गम्यते । तु सूत्रस्थ तु शब्द उक्त तर्क का समाधान करता है । देहारंभ का कारण केवल जल ही देहरचना में समर्थ नहीं हो सकता देहारंभ में तो " उन तीनों में प्रत्येक को तीन तीन करता है" ऐसा त्रिवृत् करण ही, कारण होता है । केवल जल का ही जो वर्णन मिलता है वह उसकी बहुलता का
( १०१ ) ही द्योतक है, देह में रक्तवीर्यं आदि, जल रूप में हो, बाहूल्य से होते हैं, इसलिए जल के बाहुल्य का वर्णन किया गया है । प्रारणगतेश्च | ३|१|३॥ इतश्च भूतसूक्ष्म परिष्वक्तस्य गमनमिति गम्यते उत्क्रामति जीवे प्राणानां तदनुगतिः श्रूयते “तमुत्क्रान्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्कामंतं सर्वे प्रारणा अनुत्क्रामति” इति । स्मर्यते च - “मनः षष्ठागोन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानिकर्षति, शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्” इति । न च निराश्रयाणां गतिरुपपद्यत इति तदाश्रयभूतानां भूतसूक्ष्माणामपि गतिरभ्युपगंतव्या । इससे भी भूत सूक्ष्मों संसक्त गमन ज्ञात होता है कि उत्कण करते हुए जीव के साथ प्राणों का अनुगमन बतलाया गया है - " उसके उत्क्रमण करने पर प्राण भी अनुत्क्रमण करते हैं ।" स्मृति में भी जैसे -“जीव सुषुप्ति और मृत्यु के समय, मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियों को आकृष्ट करके स्थित रहता है। देहाधिपति जीव जिस समय शरीर ग्रहण करता है और जिस समय शरीर छोड़ता है, उस समय इन इन्द्रियों को अपने साथ उसी प्रकार ले जाता है, जैसे कि-वायु गंध को ले जाता है” इत्यादि । निराश्रित इन्द्रियों का कभी स्वतः गमन संभव नहीं है, इसलिए उनके आश्रयभूत भूतसूक्ष्मों की भी उनके साथ गति माननी होगी । श्रग्न्यादिगतिश्रुतिरितिचेन्न भाक्तत्वात् ३|१|४ ॥ ’ यत्रास्यपुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति, वातं प्राणः चक्ष ुरादित्यम्" इत्यादिना प्रारणानां जीवमरणकाले अग्न्यादिष्वत्यय श्रवणात् न तेषां जीवेन सह गमनमिति गतिश्रुतिरन्यथा नेयेति चेत् न भाक्तत्वात् श्रग्न्यादिष्वप्ययश्रवणस्य । कथं भाक्तत्वं ? ‘प्रोषधीर्लो- मानि वनस्पतीन् केशाः" इत्यनपियद्भिः लोमादिभिः सह श्रवणात् । श्रतश्चक्षुराद्यप्ययश्रुतिरधिष्ठातृदेवतोपक्रमणपरा ।
( ६०२ ) “मृत पुरुष की बाणी अग्नि को, प्राण वायु को, नेत्र सूर्य को प्राप्त होते हैं” इत्यादि में तो, जीव के मरण काल में, श्रग्नि आदि की प्राप्ति बतलाई गई है, जिससे जीव के साथ गमन करने वाली श्रुति अन्यथा सिद्ध होती है ? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए यह श्रुति ओषधि में केश बनस्पति में, इत्यादि गौण श्रुति के का पाठ है इसलिए यह भी गौण है । चक्षु आदि के तो, केवल उनके अधिष्ठाता देवताओं से देह से, वहिर्गमन की ही बोधिका है । तो गोण है, “लोम साथ ही उक्त श्र ुति लीन होने की बात प्रथमेऽश्रवरणादिति चेन्न ता एव हि उपपत्तेः | ३ | १|५|| यदुक्तमद्भिः सूक्ष्माभिभूतान्तरसंसृष्टाभिः परिष्वक्तो जीवो गच्छतीति प्रश्नप्रतिवचनाभ्यामवगम्यत इति, तन्नोपपद्यते, धूलोका ग्निविषये प्रथमे होमे अपां होम्यत्वाश्रवणात् " तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धांजुहवति” इति श्रद्धवहोम्यत्वेन श्रुता । श्रद्धानाम जीवस्य मनोवृत्तिविशेषत्वेन प्रसिद्धा । श्रतो नापस्तत्र होम्या इति चेत् न यतः ताः श्राप एव श्रद्धाशब्देन तत्राभिधीयते, कुतः ? प्रश्न प्रतिवचनोपपत्तेः । जो यह कहा कि– प्रश्नोत्तरों से ज्ञात होता है कि अन्यान्य भूतों’ से संसक्त सूक्ष्म जल ही जीव के साथ गमन करता है, सो बात समझ में नहीं आती क्योंकि लोक रूपी अग्नि में प्रथम हवन के रूप में जल की हवनीयता नहीं सुनी जाती। जीव को मनोवृत्ति विशेष ही श्रद्धानाम से प्रसिद्ध है, इसलिए जल वहाँ पर होम्य नहीं हो सकता । यह शंका उपयुक्त नहीं है, जल ही यहाँ श्रद्धा शब्द से उल्लेख्य है, प्रश्नोतरों से ऐसा ही निश्चित होता है । “बेत्थ यथा पंचम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवति” इति प्रश्न प्रतिवचनोपक्रमेहि श्रद्धाद्युलोकाग्नौ होम्यत्वेन श्रुता, तत्रयदि श्रद्धा शब्देनापो नोच्येरन्, ततोऽन्यथाप्रश्नोऽन्यथा प्रतिवचनमिति श्रसंगतम् स्यात् । " इति तु पंचम्यामाहुतावापः पुरुषवचसः" इति प्रतिवचनं
( ६०३ ) ) निगमनं च श्रद्धाया श्रप्त्वमेव सूचयति " वेत्थ यथा" इति हि प्रश्नगतः प्रकारः " इति तु पंचम्याम्” इतीति शब्देन परिहारे निगम्यते । श्रद्धासोमराजवर्षान्न रेतो गर्भ रूपेणापां परिणाममुक्तवा हि एवमापः पुरुषवचस इति निगम्यते । श्रद्धाशब्दस्य । चाप्सु वैदिकप्रयोगो दृश्यते - " अपः प्रणयति श्रद्धा वा आपः" इति । श्रद्धां जुहवति तस्या आहुतेः सोमोराजा संभवति" इति सोमाकारेण परिणामश्चापामेवोपपद्यते श्रतो भूतान्तरसंसृष्टाभिरद्भिः संपरिष्वक्तो जीवोरंहतीत्युपपन्नम् । ० “क्या तुम जानते हो कि पांचवीं आहुति को प्राप्त, पुरुषवाची वह कैसे होता है? “इस प्रश्न के उत्तर के प्रारंभ में ही द्य लोकाग्नि के हवनीय पदार्थ के रूप में श्रद्धा का उल्लेख किया गया है । यदि उक्त प्रसंग में श्रद्धा का अर्थ जल नहीं करेंगे तो अन्यथा प्रश्न का अन्यथा उत्तर होगा, जो कि असंगति होगी । “पांचवीं आहुति में पुरुषवाची होता है” इस उत्तर के कथन से श्रद्धा ही जल रूप से प्रतीत होती हैं । " वेत्थ यथा" इत्यादि प्रश्न के प्रकार का स्वरूप, " इति पंचम्याम्" वाक्य के “इति” शब्द से परिहार किये जाने पर हो स्पष्ट होता है। श्रद्धा सोमराज- वर्षा - अन्नवीर्य गर्भ आदि रूपों में जल का क्रमशः परिणाम बतलाकर, उस जल को ही पुरुषवाची बतलाया गया है। श्रद्धा शब्द का जल नाम से वैदिक प्रयोग भी मिलता है “अप का प्रणयन करने वाला श्रद्धा ही जल है” इत्यादि । " श्रद्धा का हवन करते हैं, इस आहुति से सोमराज होते हैं" इसमें जल का सोमाकार परिणाम सिद्ध किया गया है, इसलिए यह मानना चाहिए कि- अन्य भूतों से संसक्त होकर जल विशिष्ट संसक्त जीव, गमन करता है । श्रश्रु तत्वादितिचेन्नेष्ट दिकारिणां प्रतीतेः | ३ |१| ६ || यत् पुनरुक्तं प्रद्भिः संपरिष्वक्तो जीवो याति इत्ययमर्थं एतस्मादवाक्यादवगम्यत इति, तन्नोपपद्यते श्रस्मिन् वाक्ये जीवस्या श्रवणात् श्रत्राहि श्रद्धादय एवाम्बुव्यवस्थाविशेषा होम्यत्वेन 1
( ६०४ ) श्रुताः नतु जीवस्तत्परिष्वक्त इति चेत्, तन्न इष्टादिकारिणां प्रतीतेः अस्मिन्नेववाक्ये हि उत्तर ब्रह्मज्ञानविधुरेष्टापूर्तदत्तकारिणो द्युलोकं प्राप्य सोमराजानोभवंति, पुण्यकर्मावसाने च पुनरागत्य गर्भ प्राप्न ुवंतीत्युच्यते " श्रथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्त्तदत्तमित्युपासते ते धूममभिसंभवति " इत्यारभ्य" पितृलोकादाकाशमाकाशाच्चंद्रमस- मेष सोमोराजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयंति " तस्मिन्यावत्- संपात मुषित्वाऽथैतमेवाध्वानं पुनर्निवत्तन्ते” यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिचति तद्भूय एव भवति " इति । अत्रापिद्युलोकाग्नौ “श्रद्धांजुह वति तस्या आहुतेस्सोमोराजा संभवति " इति तदे- कार्थत्वात् श्रद्धावस्थदेहविशिष्टः सोमरूपदेहविशिष्टो भवतीत्यु- तमिति गम्यते । देहस्य जीवविशेषणतैक स्वरूपस्य वाचकः शब्दो विशेष्ये जोव एव पर्यवस्यति, अतः संपरिष्वक्तोजीवो यातीत्युपद्यते । पुनः जो यह कहा कि-जलों से संसक्त जीव के गमन का अर्थ ही उक्त वाक्य में प्रतीत होता है, सो यह कथन असंगत है, क्योंकि - इस वाक्य में तो जीव का उल्लेख ही नहीं है। इस प्रसंग में तो, केवल जल ही अवस्था विशेष श्रद्धा आदि, हवनीय द्रव्य के रूप में कहा गया है, उससे समन्वित जीव का तो उल्लेख है नहीं । इत्यादि शंका नहीं करनी चाहिए उक्त प्रसंग में इष्टापूर्त करने वालों का वर्णन किया गया है, इस वाक्य के शेषांश में ही कहा गया है कि ब्रह्मज्ञान से रहित, केवल इष्टापूर्त्त करने वाले पुरुष द्य ुलोक में जाकर सोमराजा होते हैं और पुण्यकर्मो की समाप्ति हो जाने पर, पुनः गर्भ में आते हैं । कहते हैं कि- “जो ग्रहस्थ, प्रथम इष्टापूर्त और दत्त, इन तीन कर्मों के उपासक हैं, वे घूषं दक्षिणायन मार्ग को प्राप्त होते हैं " पितृलोक से आकाश, से चन्द्र " लोक को प्राप्त होते हैं, ये ही सोमराजा, देवताओं के अन्न हैं, इन्हें ही देवता भक्षण करते हैं “जब तक पुण्यक्षीण नहीं होते तब तक चन्द्र लोक मैं रुक कर पुनः उसी मार्ग से लोट आते हैं ।” जो जो प्राणी अन्न खाकर वीयं सिंचन करते हैं, उन्हीं में इनका जन्म होता है ।” इत्यादि यहाँ पर भी द्युलोक रूपी अग्नि में " श्रद्धां की आहुति देते हैं” इस आहुति से सोमराजा होते हैं" इस श्रद्धावस्थ देह विशिष्ट ही, ( १०५ ) प्रसंग में उक्त अर्थ की ही प्रतीति होने से, सोमरूप देह विशिष्ट होता है, ऐसा ज्ञात होता है । यह देह. जीव का ही विशेषण है देहवाचक शब्द भी, अपने विशेष्य जीव में ही पर्यवसित होगा यह स्वाभाविक है । इसलिए जीव भूतसूक्ष्म से संसक्त होकर ही गमन करता है, यह बात संगत हो जाती है । ननु च " ते देवा भक्षयंति" इति देवैर्भक्ष्यमाणत्ववचनात् " सोमोराजा" इति न जीव उच्यते, जोवस्यानदनीयत्वात् । तत्राह- (शका ) " उसे देवता खाते हैं" ऐसे देवत्व के भक्षणत्व से ज्ञात होता है कि-" सोमोराजा" जीव के लिए नहीं कहा गया हैं, क्योंकि- जीव कोई भक्ष्य पदार्थ नहीं है । इसका उत्तर देते हैं- भाक्तं वानात्मवित्वात्तथाहि दर्शयति | ३|१॥७॥ "" वाशब्दश्चोद्य व्यावर्त्तयति । इष्टादिकारिणोऽनात्मवित्वात् स देवानां भोगोपकरणत्वेनेहामुत्र च वर्त्तते इष्टादिना तदारा- धनं कुर्वनृपकरोति, आराधनप्रीतैर्देवैदत्तममुंलोकंप्राप्य तत्रतत्समान- भोगः तदुपकरण भवति " यथा पशुरेवं स देवानाम्" इत्यनात्म- विदो देवानामुपकरणत्वं दर्शयति श्रुतिः । स्मृतिरप्यात्मविदां ब्रह्मप्राप्तिमनात्मविदां च देवभोग्यत्वं दर्शयति देवान् देवयजो धान्ति मदभक्ता यांति मामपि" इति । अतो जीवस्य देवानां भोगो- पकरणत्वाभिप्रायमन्नत्वेन भक्ष्यत्ववचनं प्रतस्तद्भाक्तम्, तेनतृप्ति रेव च देवानां भक्षणमिति श्रूयते “न वै देवा प्रश्नन्ति न पिबन्ति एत देवामृतं दृष्टवा तृप्यन्ति” इति । तस्माद्भूतसूक्ष्मै संपरिष्वक्त जीवो रहतीति सिद्धम् । सूत्रस्थ वा शब्द तर्क का समाधान करता है। यज्ञ करने वालों में आत्मज्ञान का अभाव रहता है, इसलिए वे इस लोक और परलोक में
( १०६ ) देवताओं के भोग्य होते हैं । इस लोक में, यज्ञ करके उनकी आराधना करते हुए उनका भोग साधन करते हैं, आराधना से प्रसन्न देवताओं से प्राप्त परलोक में उनके अनुरूप भोगोपकरण होते हैं । जैसे कि - “यह देवताओं का पशु है " इत्यादि श्रुति, अनात्मविद पुरुष को देवताओं का उपकरण बतलाती है । स्मृति भी आत्मविदों की ब्रह्म प्राप्ति तथा अनात्मविदों की देव भोग्यता का वर्णन करती है “देवों की आराधना करने वाले देवताओं को प्राप्त करते हैं, और मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं ।” इस प्रकार जीवों को, देवों का भोगोपकरण बतलाने के लिए ही भक्षणीय अन्न बतलाया गया है, जो कि गौण कथन है । देवताओं की तृप्ति ही देवताओं का भोजन है जैसे कि - “वे देवता न खाते हैं न पीते हैं, वे तो अमृत पदार्थ को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।” इत्यादि से सिद्ध होता है कि - जीवात्मा भूतसूक्ष्मों से संसक्त होकर ही गमन करता है । २. कृतात्ययाधिकररणः- कृतात्ययेऽनुशयवान् दृष्टस्मृतिभ्यां यद्येतमनेवंच | ३|१८|| केवलेष्टापूत्त’ दत्तकारिणां धूमादिना पितृयानेन यथा गमनं कर्मफलावसानेन पुनरावर्त्तनं चान्नातं " यावत् संपातमुषित्वाथैतमे वाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते” इति । तत्र प्रत्यवरोहम् जीवः किमनुशयवान् प्रत्यवरोहति उतनेति संशय्यते । किं युक्तम् ? कर्मणः कृत्स्नस्योपभुक्त त्वात् नानुशयवानिति प्राप्तम् । अनुशयो हि उपभुक्तशिष्टंकर्म । तच्च कृत्स्नफलोपभोगे सति नावशिष्यते । " यावत्संपातमुषित्वा " इति वचनात् कृत्स्नोपभोगश्च ज्ञायते । संपतंत्यनेन स्वर्ग लोक मिति सम्पातः कर्मोच्यते । श्रुत्यंतर च " प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत् किचेह करोत्ययम्, तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मण " इति । .
( १०७ जो केवल इष्टापूत और दत्त कर्मो का अनुष्ठान करते हैं, वे धूम आदि पितृमार्ग से गमन करते हैं, और कर्मफल के समाप्त हो जाने पर पुन: लौट आते हैं ऐसा - “जब तक पुण्यक्षीण नहीं होते तब तक भोगने के बाद उसी मार्ग से लौट आते हैं” कहा गया । इस पर संशय होता कि - लौटने वाला जीव, सानुशय लोटता है अथवा नही ? विवेचना से ज्ञात होता है कि जब वह समस्त कर्मों को भोग चुकता है तब अनुशय रहित होकर लोटता है । उपभोग से बचे हुए कर्म को अनुशय कहते हैं वह संपूर्ण फल भोग के बाद तो बच नहीं सकता । “यावत् संपातमुषित्वा से संपूर्ण भोग ही ज्ञात होता है । जिससे स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है ऐसे कर्म को ही संपात कहते हैं । इसी प्रकार की दूसरी श्रुति भी है- “जीव इस जगह जो कुछ शुभाशुभ कर्म करता है, उस कर्म के शेष हो जाने पर, उन कर्मों से प्राप्त लोकों से पुनः यहीं लौट आता है” इत्यादि । 45 1 सिद्धान्त:- एवंप्राप्तोऽभिधीयते श्रनुशयवान् प्रत्यवरोहति-
- इति । कुतः ? दृष्टस्मृतिभ्यां श्रुतिस्मृतिभ्यामित्यर्थः । श्रुतिस्तावद् तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्त, रमणीयां योनिमाप- द्येरन् ब्राह्मणयोनि क्षत्रिययोनि वैश्ययोनि वा, अथ य इह कपूय- चरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनि श्रापद्येरन् श्वयोनि वा शूकर योनि वा चाण्डाल योनि वा " इति प्रत्यवरूढान प्रतिश्रयते । श्रमुष्माल्लोकात् प्रत्यवरूढेषु रमणीय कर्माणो रमणीयां ब्राह्मणादि योनि प्रतिपद्यन्ते कपूयचरणाः कुत्सित कर्माणः कुत्सितां श्व- शूकरचाण्डालादि योनि प्रतिपद्यन्त इति प्रत्यवरूढानां पुण्यपाप- कर्मयोगं दर्शयति । स्मृतिरपि - “वणश्रिमाश्च स्वकर्मनिष्ठा प्रेस्य कर्मफलमनुभूयतः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलरूपायुः श्रुतवित्त- सुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते विश्वचोविपरीता नश्यंति हि” इति । तथा - " ततः परिवृत्तौ कर्मफलशेषेण जातिरूपंवणंबलमेषां प्रज्ञां द्रव्याणि धर्मानुष्ठानमिति प्रतिपद्यन्ते तच्चक्रवद् उभयोर्लोकयोः सुख एव वर्त्तते” इति ।
उक्त संशय पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि-जीव सानुशय लौटता है ऐसा श्रुतिस्मृति से निश्चित होता है । श्रुति जैसे " इस लोक में जो शुभ कर्म करते हैं, वे शीघ्र ही शुभ, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य योनियों को प्राप्त करते हैं । जो अशुभ कर्म करते हैं वे शीघ्र ही, शूकर- कूकर चांडाल आदि अशुभ योनियों को प्राप्त करते हैं ।” ऐसा सानुशय प्रत्यावर्त्तन का वर्णन करती है । परलोक से रमणीय शुभ कर्मों से युक्त लौटने पर ही शुभ ब्राह्मण आदि शुभ योनियाँ प्राप्त होती हैं तथा अशुभ कर्मों के आचरण से शूकर आदि योनियाँ प्राप्त होती हैं, इत्यादि लौटने वालों को ही पुण्य पाप कर्मो को बतलाया गया है। स्मृति में इसी प्रकार कहते हैं कि- “वर्ण और श्राश्रम कर्मो का भलीभाँति पालन करने वाले, मरणोपरान्त कर्मफलों का अनुभव करके अंत में विशिष्ट - देश - जाति-कुल- रूप- आयु-विद्या-धन- प्रतिष्ठा - सुख-आदि से युक्त होकर जन्म लेते हैं । इससे विपरीत आचरण करने वाले विपरीत नष्ट फल प्राप्त करते हैं ।” तथा- " उसके बाद लौटने पर शेष कर्मफलानुसार जाति-रूप-वर्ण-बल- मेधा - प्रज्ञा - धन-धर्म के अनुष्ठान आदि को प्राप्त करते हैं, ऐसा करते हुए वे दोनों लोकों में सुख प्राप्त करते हैं” इत्यादि । " यावत् संपातम्” इति फलदानप्रवृत्तकमं विशेषविषयम्, “यत् किचेहकरोत्ययम्” इतीदमपि तद्विषयमेव । प्रभुक्तफलानामकृत- प्रायश्चितानां च कर्मणां कर्मान्तरफलानुभवान्नाशोऽप्यनुपपन्नः । श्रतोऽमुं लोकं गताः सानुशय एव यथेतमनेव च पुनर्निवत्तन्ते- श्रारोहणप्रकारेण प्रकारान्तरेण च पुनर्निवर्त्तन्ते इत्यर्थः, श्रारोहणं हि धूमरात्रिपरपक्षदक्षिणायणषण्मासपितृलोकाकाशचन्द्रक्रमेण । अवरोहणं तु चन्द्रमसः स्थानादाकाशवायुधूमाभ्रमेष क्रमेण । तत्रा- काशावरोहणाद्यथेतम्, वाय्वादिप्राप्तः पितृलोकाद्यप्राप्तश्चानेवम् “यावत् संपातम् " श्रुति का तात्पर्य है कि -जो कर्म, फल देने के लिए उन्मुख हैं, उन्हीं का भोग होगा, “यत्किंचित् करोत्ययम् " श्रुति भी यही बात कहती है । जिन कर्मो का फल न भोगा गया हो तथा वे प्रायश्चित से भी विनष्ट न हो पाये हों, उनका, अन्य कर्मों के फलभोग से नाश होता असंभव है। इसलिए चन्द्रगत पुरुष का सानुशय आरोहण
( ६०६ )
और सानुशय अवरोहण होता है, ऐसा ही मानना चाहिए। आरोहण के अनुसार या प्रकारान्तर से भी अवरोहण होता है। श्ररोहण क्रमशः धूम- रात्रि - कृष्णपक्ष दक्षिणायन - पितृलोक आकाश चन्द्रलोक तक होता है । अवरोहण चंद्रलोक से आकाश वायु- धूम - मेघ क्रम से होता है । आकाश आदि में तो अवरोहण समान होता है, किन्तु वायु आदि में अवरोहण का क्रम बदल जाता हैं, उसमें पितृलोक आदि की प्राप्ति नहीं होती । चरणादिति चेन्न तदुपलक्षणार्थेति काष्र्णाजिनिः |३|११|| " रमणीय चरणा:” “कपूयचरणाः” इति न चरणशब्देन पुण्य पापरूपं कर्माभिधीयते, चरणशब्दस्य लोकवेदयोराचारे प्रसिद्ध:, लौकिकाः खलु चरणमाचारः शीलंवृत्तामिति पर्यायानभिमन्यते,
वेदे च - " यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि” यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि " इति चरणकर्मणी भेदेन व्यपदि- श्येते प्रतः चरणात्शीलात् योनिविशेषप्राप्तिः, नानुशयादिति चेत्, तत्र, चरणश्र तिः कर्मोपलक्षणार्थेति काष्र्णाजिनिराचार्यो मन्यते, केवलादाचारात् सुखदुःखप्राप्त्यसंभवात् । सुखदु:खेहि पुण्यपापरूप कर्मफले । " रमणीय चरणा : " कपूय चरणाः" इत्यादि में चरण शब्द से पाप पुण्यरूप कर्म अभिधेय नहीं हैं, चरण शब्द की तो लोक और वेद में आचार रूप से ही प्रसिद्धि है | लोग, प्रायः चरण शब्द को, आचार - शील- कुल आदि का पर्यायवाची मानते हैं । वेद में जैसे- " जो निर्दोष कर्म हैं वे ही आचरणीय हैं" " जो मेरे सुचरित हैं, वे ही तेरे लिए आचरणीय हैं इत्यादि में चरण और कर्म दोनों का भिन्न रूप से उल्लेख है । यह नहीं कह सकते कि चरण से ही योनि विशेष की प्राप्ति होती है। चरणविषयक श्रुति, कर्मोपलक्षणार्थक है । ऐसी आचार्य काष्र्णाजिनि की मान्यता है कि केवल आचार से ही सुख - दुःख की प्राप्ति संभव नहीं है । सुख - दु:ख तो, पाप-पुण्य रूप कर्म के ही फल होते हैं ।
4 ) ६१० श्रानर्थक्यमिति चेन्नतदपेक्षत्वात् |३|१|१०| एवं तर्हि अफलत्वादाचारस्य स्मृतिविहितस्यानर्थक्यमेवेति चेत्-तन्न तदपेक्षत्वात् पुण्यस्यकर्मणः । प्राचारवत् एवं पुण्यकर्मस्व- धिकार : “संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु” “प्राचारहीनं न पुनंति वेदा:” इत्यादि वचनेभ्य प्रतश्चरणश्रतिः कर्मोपलक्ष- णार्थेति कार्ष्णाजिने भिप्रायः । यदि कहें कि ऐसा मानने से तो, निष्फलत्व हेतु स्मृति शास्त्रोक्त आचार निरर्थक हो जावेंगे? सो बात नहीं है, क्योंकि सारे पुण्यकर्म सदाचार सापेक्ष ही होते हैं । जैसे कि - " संध्याहीन अपवित्र व्यक्ति सभी कर्मों में अयोग्य माना गया है " आचारहीन को वेद भी पवित्र नहीं करपाते" इत्यादि वचनों से ऐसा ही निश्चत होता है । इसलिए चरण श्रुति कर्मफलक्षणार्थक - ही है, ऐसा कार्ष्णाजिनि का अभिप्राय है । सुकृतदुष्कृते एवेति तु बादरि : | ३ | १|११|| “पुण्यं कर्माचरति” पापं “कर्माचरति” इति कर्मणि चरते: प्रयोगात् प्रथङ निर्देशस्य च प्रत्यक्ष तिसिद्धाचारानुमितन तिसिद्ध- विषयत्वेन गोवलीवदन्यायेनोपपत्त ेः । मुख्ये संभवति न लक्षणा न्याय्येति सुकृतदुष्कृते एव चरणशब्दाभिधेये, इति बादरिराचार्यो मन्यते । अत्र बादरिमतमेव स्वमतम् श्राचारानुमितश्र तिविहित संध्यावंदनादेः कर्मान्तिराधिकारसंपादनं फलमिति तु स्वीकृतम् । श्रतः सानुशया एव प्रत्यवरोहंति । “ पुण्य कर्म का आचरण करता है,, पाप कर्म का आचरण करता है" इत्यादि कर्माचरण के प्रयोग से, कर्म के अर्थ में “चर” धातु का प्रयोग - गोवलीवर्द न्याय ( सांड जैसे गो से भिन्न होते हुए भी गो जाति का होने से गो शब्द से पुकारा जाता है) के अनुसार- उचित ही प्रतीत होता है मुख्यार्थ से ही जब कार्य चल जाय, तो लक्षणार्थं करना न्याय्य नहीं है, इसलिए जब पाप और पुण्य में ही जब चरण शब्द अभिधेय है
( ११ ) तब लक्षणा से अर्थ करना उचित नहीं है, ऐसा बादरि आचार्य का मत है । यह बादरि का मत ही अपना मत है । आचारानुमित श्रुतिविहित- संध्यावंदन आदि कर्म का जो, अन्यान्य कर्मों में अधिकार संपादन रूप- फल स्वीकारा गया है, वही उचित है । इससे सानुशय अवरोहण ही निश्चित होता है । अनिष्टादिकार्याधिक ररणः- अनिष्टादिकारिणामपि च श्रुतम् |३|१|१२|| केवलेष्टापूर्त्तदत्तकारिणश्चन्द्रमसं गत्वा सानुशया एव निव- र्त्तन्त इत्युक्तम्, इदानीमनिष्टादिकारिणोऽपि चन्द्रमसं गच्छति, नेति चिन्त्यते, ये विहितं न कुर्वन्ति, निषिद्ध ं च कुर्वन्ति, त उभयेऽपि पापकर्मणोऽनिष्टादिकारिणः । किं युक्तम् ? तेऽपि चंद्रमसं गच्छंतीति, कुतः ? तेषामपि हि तद्गमनं श्रुतं “ये वैकेचास्माल्लो- कात्प्रयंति चंद्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति” इत्यविशेषेण सर्वेषामेव गति श्रवणात् । केवल इष्टापूर्त और दत्त कर्म करने वाले ही चान्द्रमसी गति को प्राप्त कर सानुशय लौटते हैं, यह बतलाया गया । अब अनिष्ट आदि के करने वाले की चान्द्रमसी गति होती है या नहीं? इस पर विचारते हैं । जो शास्त्र विहित कर्म नहीं करते और जो शास्त्र निषिद्ध कर्म करते हैं, वे दोनों ही पापकर्म करने वाले, अनिष्टकर्मी हैं । कह सकते हैं कि वे भी चांद्रमसी गति को प्राप्त होते हैं उनकी भी वैसी ही गति सुनीजाती है जो भी इस लोक से जाते हैं, वे सभी चन्द्रमस को प्राप्त होते हैं” इत्यादि में सभी की गति का वर्णन है ।" एवं तर्हि सुकृतदुष्कृतकारिणोरुभयोरप्यविशिष्टैव गतिः स्यात् नेत्याह । ऐसा मानने से तो पाप और पुण्यकारी दोनों की ही एक सी गति होगी ? ऐसा नहीं होता, यही बतलाते हैं-
संयमने ( १२ ) त्वनुभूयेतरेषामारोहावरोहीतद्गतिदर्शनात् | ३|१|१३|| तु शब्द: शंकांव्यावर्त्तयति, इतरेषाम् अनिष्टादिकारिणां चन्द्राव रोहावरोहौ संयमने-यम शासने तत्प्रयुक्त यातना अनुभूयैव, नान्यथा । कुतः ? तद्गतिदर्शनात् दृश्यते हि पापकर्मणां यमवश्य- तया तद्गमनम् " श्रथं लोको नास्ति न पर इति मानी पुनः पुनर्वंशमापद्यते मे" वैवस्वतं संगमनम् जनानां यमं राजानम्" इत्यादिषु । तु शब्द शंका का समाधान करता है, अनिष्ट कर्म करने वाले लोगों का, चन्द्रमा में आरोहण तभी होता है, जब कि वे यम के शासन में नारकीय यातनाओं की अनुभूति कर चुकते हैं । अन्यथा उनकी चान्द्रमसी गति संभव नहीं है । उनकी गति का ऐसा ही वर्णन मिलता है " जो ऐसा सोचते हैं कि दृश्य लोक ही सब कुछ है, परलोक कुछ भी नहीं है, वे लोग बार बार मेरी अधीनता प्राप्त करते हैं " लोगों को यम का दर्शन और यमालय में जाना पड़ता है ।" इत्यादि । स्मरंति च |३|१|१४ ॥ स्मरति च सर्वेषां यमवश्यतां पराशरादयः “सर्वे चैते वशं यांति यमस्य भगवन् किल्” इत्यादिषु । पराशर आदि सभी की यमवश्यता बतलाते हैं- “ये सभी यम की वश्यता प्राप्त करते हैं” इत्यादि । अपि सप्त | ३|१|१५॥ पापकर्मणां गंतव्यत्वेन रौरवादीन् सप्त नरकानपि स्मरति । पापकर्म करने वालों के लिए, रौरव आदि सात नरकों का भी, गंतव्यस्थान के रूप से वर्णन करते हैं । । तत्रापि तद्व्यापारादविरोधः | ३|१|१६|| तेष्वपि सप्तसु यमाज्ञयैव गमनादविरोधः । अतोऽनिष्टादि-
( ६१३ ) कारिणामपि यमलोकं प्राप्य स्वकर्मानुरूपं यातनाश्चानुभूय पश्चात् चंद्रावरोहावरोहौ स्तः । उन सात रौरवादि नरकों में भी यम की आज्ञा से ही गमन होता है। इससे निश्चित होता है कि अनिष्टकारी भी यम लोक को प्राप्त कर अपने कर्मानुरूप यातनाओं को भोगकर बाद में चन्द्र पर आरोहण अवरोहण करते हैं । सिद्धान्तः - इति प्राप्ते उच्यते- इस मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- विद्याकर्मरगोरिति तु प्रकृतत्वात् । ३|१७|| तु शब्द पक्षव्यावृत्यर्थः अनिष्टादिकारिणामपि चंद्रप्राप्तिरस्ती- त्येतन्नोपपद्यते । कुतः ? विद्याकर्मणोरिति विद्याकर्मणोः फलभोगार्थत्वाद देवयान पितृयाणयोः । एतदुक्तं भवति श्रनिष्टादिकारिणां यथा विद्या विधुरत्वात् देवयानेन पथा गमनं न संभवति, तद्वदेव इष्टापूर्त्तदत्त- विधुरत्वात् पितृयानेन चंद्रगमनमपि न संभवति, इति । देवयान । पितृयाणयोः विद्याविषयत्वं पुण्यकर्मविषयत्वं च कथमवगम्यत इति चेत् - प्रकृतत्वात्तयोः । प्रकृता हि देवयाने विद्या, पितृयाणे च कर्म " यदयइत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धातप इत्युपासते" इत्युक्तवा “तेऽचैिषमभिसंभवन्यचषोऽहः” इत्यादिना देवयानवचनात् । “अथ य इमे ग्राम इष्टापूदत्तमित्युपासते” इत्युत्तवा- “ते धूममभिसंभवंति” इत्यादिना पितृयान वचनाच्च “ये वै के चास्माल्लोकात्प्रयंति चंद्रमसेव ते सर्वे गच्छंति” इत्येदपि वचनं “य इष्टादिकारिणः ते सर्वे” इति परिणेयम् । सूत्रस्थ तु शब्द उक्त मत का व्यावर्त्तक है । अनिष्ट कारियों की भी चांद्रमसी गति होती है, है ऐसा कथन उपयुक्त नहीं है, विद्या और कर्म के फलस्वरूप ही देवयान और पितृयान मार्ग से गति होती है ।
( ९१४ ) कथन यह है कि जैसे कि अनिष्टकारी, अध्यात्मविद्या की उपासना के बिना देवयान में नहीं जा सकते, पैसे ही ईष्टापूर्तदत्त कर्म के बिना, पितृयान मार्ग से भी चांद्रमसी गति असंभव है । यदि कहें कि - देवयान और पितृयान की विद्या विषयता और पुण्यकर्म विषयता कैसे ज्ञात हुई ? दोनों शास्त्रों में ही वर्णन किया गया है । देवयान के लिए उपासना और पितृयान के लिए कर्म का ही उल्लेख है । " जो उन्हें इस प्रकार जानते हैं, अरण्य में जो श्रद्धा पूर्वक तप करके उपासना करते हैं" वे अचिरादिगति को प्राप्त कर दिवसाभिमानी देवता को प्राप्त करते हैं" इत्यादि से देवयान का तथा “जो ग्राम में इष्टापूर्त्तदान से इनकी उपासना करते है” वह धूममार्ग को प्राप्त करते हैं" इत्यादि से पितृयान का उल्लेख किया गया है । “जो कोई इस लोक से जाते हैं, वे सब चान्द्रमसी गति ही प्राप्त करते हैं” इस वचन को भी “जो इष्टादिकारी हैं वे सब” इत्यादि की तरह ही समझना चाहिए । ननु पापकर्मणां चंद्रगमनाभावे पंचमाहुत्यसंभवात् शरीरारंभ एव नोपपद्यते, “पंचभ्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवंति” इति हि शरीरारंभः श्रूयते सा चाहुतिश्चंद्र प्राप्तिपूर्विकेति दर्शितम्, अतः शरीरारंभायैव तेषामपि चंद्रारोहावरोहाववश्याभ्युपेत्यावित्यत प्राह- तर्क - यदि पाप करने वालों को चान्द्रमसी गति न होगी तो वे पांच आहुतियों को भी न प्राप्त होंगे, फिर उनका शरीरारंभ भी न होगा क्योंकि - “पांचवीं आहुति प्राप्त कर पुरुष नाम वाला होता है” ऐसा शरीरारंभ का वर्णन मिलता है, इसमें चंद्र प्राप्तिपूर्विका आहुति ही दिखलाई । गई है इसलिए शरीरारंभ के लिए, उनका भी चंद्रारोहण अवरोहण स्वीकारना होगा। इस तर्क का परिहार करते हैं- न तृतीयोपलब्धेः | ३|१|१८ ॥ तृतीयस्थानस्य शरीरारंभाय न पंचम्याहुत्यपेक्षा, कुतः ? तयोपलब्धेः तृतीयस्थानशब्देन केवलपापकर्माण उच्यन्ते तेषां देहारंभे पंचमाहत्यमपेक्षत्वमुपलभ्यते “घेत्थ यथा केनासौ लोको न संपूर्यते” इत्यस्य प्रश्नस्य प्रतिवचने “श्रथैतयोः पथोनकतरेण च ( ११५ ) तानीमानि क्ष ुद्राण्यसकृदावत्तोनिभूतानिभवंति जायस्वप्रियस्वेत्येतत् तृतीयं स्थानं तेनासौ लोको न संपूर्यते" इति तृतीय स्थानस्य चुलो कारोहाव रोहाभावेन द्युलोका संपूतिं वचनादस्य तृतीय स्थानस्य शरीराम्भाय न पंचमाहुत्यपेक्षा । “पंचम्याहुतौ” इति चापां पंचमाग्निसंबंधस्य पुरुषवचस्त्वहेतुत्वमात्रं प्रतिपादयति, नान्यन्निवारयति, अवधारणाश्रवणात् । तृतीय स्थानीय पापी के लिए पांच आहुतियों की अपेक्षा नहीं होती ऐसा ही शास्त्र में पाया जाता है । तृतीय स्थान शब्द से केवल पाप करने वालों का ही उल्लेख है, उनके लिए पंच आहुतियों को अनपेक्षा का इस प्रकार वर्णन किया गया है- क्या तुम जानते हो कि यह च लोक भर क्यो नहीं जाता ? " इस प्रश्न के उत्तर में बार बार आने जाने वाले क्ष ुद्रव्यक्तियों का इन दोनों में से किसी भी मार्ग से आना जाना नहीं होता, उनकी तो यहीं मरने जीने की तीसरी गति होती है इसलिए द्य ुलोक नहीं भरता “ऐसे तृतीय स्थान का उल्लेख किया गया है, जिसमें द्यलोक के गमनागमन का अभाव रहता है इस वचन से तृतीय स्थानीय की, शरीरारंभ में, पंचाहति अनपेक्षा ज्ञान होती है। पंचम्बामाहुतावाप: " इत्यादि भ्रति तो केवल पंचाग्नि संबंधी जल को ही पुरुष के स्वरूप का समुत्पादक सिद्ध करती है, अन्य कारणों का प्रतिषेध भी नहीं करती । श्रुति में ऐसा कोई निश्चयात्मक शब्द भी नहीं है । स्मर्यतेऽपि च लोके | ३|१|१६|| पुण्यकर्मणामपि केषांचित्पंचमाहुत्यनपेक्षया केषांचित्पंचमाहुत्यनपेक्षया देहारंभोलो के स्मयंते द्रौपदीघृष्ट्य म्नप्रभृतीनाम् । स्मृतियों में पुण्य करने वालों में भी, किसी किसी का देहारंभ, पांचआहुतियों के बिना बतलाया गया है, द्रौपदी भ्रष्टद्य ुम्न आदि का इसी प्रकार का है । दर्शनाच | ३|१|२०| श्रुतावपिदृश्यते केषांचित् पंचमाहुत्यनपेक्षया देहारंभः “तेषां
( ६१५ ) खल्वेषां भूतानां श्रीष्येव बीजानि भवंति ग्रांड जंजीवजमुद्भिजम्” इति, एवमुदद्भिजस्वेदजयोः भूतयोः पंचमाहुतिमंतरेणोत्पत्तिर्दृश्यते । श्रुति में भी किसी किसी का पंचआहुति के बिना देहारंभ दिखलाया गया है - “इन भूतों में तीन ही प्रकार के बीज होते हैं अंडज, जीवज और उद्भिज” उद्भिज स्वेदज की उत्पत्ति, पांच आहुतियों के बिना ही दिखलाई गई है । ननुस्वेदजानामत्र न संकीर्तनमस्ति " त्रीण्येव बीजानि " इति वचनात् तत्राह- यहाँ स्वेदजों का तो उल्लेख ही नहीं है " त्रीण्येवबीजानि " ऐसा ही उल्लेख है ? इसका समाधान करते हैं- तृतीयशब्दावरोधः संशोकजस्य | ३|१|२१|| संशोकजस्य-स्वेदजस्यापि “आडजंजीवजमुदद्भिजम्” इत्यत्र तृतीयेनोदद्भिजशब्देनावरोधः संग्रहो विद्यत इत्यर्थः । श्रतः केवल पापकर्मणां चंद्रप्राप्तिनंसंभवति । “अण्डजं जीवज मुद्भिजम्” में कही गई तीसरी उद्भिज सृष्टि में ही स्वेदज का भी उल्लेख हो जाता है । इस विवेचन से निश्चित होता है कि केवल पाप करने वालों की, चान्द्रमसी गति नहीं होती । ४- तत्स्वाभाव्यापत्यधिकरणः- तत्स्वाभाव्यापत्तिरुपपद्यतेः | ३|१|२२| तीत्युक्तम्, इष्टादिकारिणोभूतसूक्ष्मपरिष्वकाः सानुशयाश्चन्द्रमसोऽवरोह- अवरोहप्रकारश्च “प्रथैतमेवाध्वानं पुनर्निवत्तन्ते यथेतमाकाशम् श्राकाशाद्वायुं, वायुभूत्वा धूमो भवति, घूमोभूत्वा प्रभ्रंभवति, प्रभ्रं भूत्वा मेघोभवति, मेघोभूत्वा प्रवर्षति” इति वचनात् । " यथेतमनेवं च” इत्युक्तम् तत्रास्याकाशादि प्रतिपत्तौ
( ११७ ) देवमनुष्यादिभाववदाकाशादिभावः, उत् तत्सादृश्यापत्तिमात्रमिति विशये श्रद्धावस्थस्य सोमभाववदविशेषादाकाशादिभावः इष्टादिकारी, भूतसूक्ष्म से परिष्वक्त होकर सानुशय चंद्रमार्ग से अवरोहण करते हैं, तथा अवरोहण का प्रकार " उसी मार्ग से लौटते हैं - आकाश से वायु- वायु से घूम धूम से अभ्र - अभ्र से मेव होकर वर्षते हैं इस प्रकार बतलाया गया। इस पर संशय होता है कि-जीव, मनुष्यादि देह की तरह होकर आकाश आदि से होकर आता है अथवा, आकाश आदि सदृशरूप बनकर आता है ? इस पर समझ में आता है कि श्रद्धावस्था में जैसी सोमभाव की प्राप्ति होती है, वैसा ही भाकाशादि भाव भी होता है । सिद्धान्तः- इति प्राप्ते तत्स्वाभाव्यापत्तिरेवेत्युच्यते । तत्स्वाभाव्यापत्तिः, तत्साहदृश्यापत्तिरित्यर्थः । कुत एतत् ? उपपत्तेः सोमभावमनुष्यभावदौ हि सुखदुःखोपभोगाय तद्भावः, अत्रत्वाकाशादौ सुखदुःखोपभोगाभावाद तदद्भावानुपपतेस्तदापत्ति वचमं तत्संसगंकृततत्सादृश्यापत्यभिप्रायम् । उक्त संशय पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि उसकी स्वाभाव्यापत्ति का उल्लेख है, स्वाभाव्यापत्ति का तात्पर्य है तत्सदृशता प्राप्ति । सोमभाव मनुष्यभावादि की प्राप्ति सुखदुःख के उपभोग के लिए ही होती है। प्रकाश आदि में सुखदुःख के भोग का अभाव रहता है, इसलिए तदापत्तिं या आकाश आदि कहने का अभिप्राय यह है कि आकाश के साथ मिलकर आकाश आदि का सा रूपधारण करता है । ५ नातिचिराधिकरणः– नातिचिरेरण विशेषात् ३।१।२३ ॥ प्राकाश प्राप्ति प्रभृति यावद व्रीह्मादि प्राप्ति किं तत्र तत्र नातिचिरं तिष्ठति उतानियम भावादनियमः । इति विशये, नियमहेत्व -
६१८ ) सिद्धांन्तः – इति प्राप्यते उच्यते - नातिचिरेण - इति । कुतः ? विशेषात् उत्तरत्र ब्रह्मादि प्राप्ती “प्रतोवैखलु दुर्निष्प्रपतरम्” इति विशिष्यकृच्छ निष्क्रमणत्वाभिधानात् पूर्वत्र ह्याकाशाद्विप्राप्ता वचिर- निष्क्रमणं गम्यते । दुर्निष्प्रपतरमितिछान्दसः त शब्दलोपः दुनिंष्प्रपतरं - दुःखनिष्क्रमणतरमित्यर्थः । आकाश आदि प्राप्ति से लेकर धान्य आदि की प्राप्ति तक जीव, थोड़ा ही समय व्यतीय करता है, अथवा उसके समय का कोई नियम नहीं है? इस शंका पर विचार करने पर नियम का कोई हेतु तो समझ में प्राता नहीं इसलिए अनियम ही होगा । सूत्र प्रस्तुत करते हैं । ब्रीहि आदि रूप प्राप्ति “बड़े कष्ट से निकलना इस पर सिद्धान्त रूप से “नातिचिरेण " इसका तात्पय है कि - अधिक समय नहीं लगता, का जो उल्लेख है, उससे ऐसा ही ज्ञात होता है । होता है” ऐसे विशेष कष्टपूर्ण निष्क्रमण से ज्ञात होता है कि इसके पूर्व के आकाश आदि रूप का बहुत थोड़े समय में, निष्क्रमण हो जाता है । “दुनिष्प्रपतरम्” इस शब्द में वैदिक व्याकरण के अनुसार द्वितीय “त” शब्द का लोप हो गया है, जिससे अर्थ होता है, दुःखपूर्णनिष्क्रमण वाला । ६ अम्याधिष्ठिताधिकररण:- अन्याधिष्ठितेपूर्ववदभिलापात् | ३|१|२४|| प्रवरोहन्तो जीवाः ब्रीह्यादिभावेन जायंत इति श्रयते “मैंघो भूत्वा प्रवर्षति त इह ब्रीहियवा श्रोषधिवनस्पतयस्तिलमाषा जायंतें” इति । ते किमन्यैर्भीक्त भिब्रीह्यिादिशरीरैरधिष्ठितान् ब्रीह्मादीनां श्लिष्यंति उत ते भोकारो ब्रीह्यादिशरीरा जायंत इति विशये- “जायंते " इति वचनात् देवो जायते मनुष्यो जायते इतिवद ब्रीह्मा- दिशरीरा एव- लौटने वाले जीव, धान्य आदि भाव से उत्पन्न होते हैं - “मेघ होकर वर्षते हैं, वे ही जौ - चावल - औषधि - वनस्पति-तिल-उर्द होकर
( ६१६ ) होते हैं " इस श्रुति से ज्ञात होता है । इस पर शंका होती है कि- ब्रोहि आदि शरीरधारी अन्य जीवों से अधिष्ठित व्रीहि आदि के साथ संश्लेष मात्र होता है, अथवा वे स्वयं ही ब्रोहि आदि शरीर में उपभोग करते हैं। इस संशय पर विचारने पर “जायंले " पद के अनुसार तो, “देवो जायते मनुष्यो जायंते” इत्यादि की तरह, ब्रीहि आदि शरीरों में ही जन्म लेते हैं ऐसा निर्णय होता है । यत्र सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - अन्याधिष्ठिते - इति । जीवा- न्तरेणाधिष्ठिते ब्रह्मादि शरीरे तेषां संश्लेषमात्रमेव । कुतः ? पूर्वव- दभिलापात् – प्राकाशादिमेधपर्यंन्तवत्केवल तद्भावाभिलापात् । हि भोक्त त्वमभिप्रेतम्, तत्र तत्साधन भूतं कर्माभिलप्यते " रमणीय- चरणा: " " कपूयचरणाः” इति इह चाकाशादिवन्नाभिलप्यते कमं. फलप्रदाने प्रवृत्तस्य स्वर्गोपभोग्यफलस्येष्टादेः कर्मणः स्वर्गे- पभोगादेव समाप्तत्वात्, अनारब्धस्य " रमणीयचरणा:-” कपूय- वक्ष्यमाणत्वात् मध्येकर्मान्तराभावाच्च । प्रत माकाशादि भावचत्वद श्रीह्यादि माथे तजम्म वचनमौपचारिकम् । चरणा: 71 1 उक्त मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि-जीव, अन्याधिष्ठित होकर हो लौटता है । ब्रीहि आदि के शरीर में उनका संश्लेष मात्र होता है आकाश से लेकर मेघ तक, उनका केवल तद्भाव मात्र बतलाया गया है, जहाँ उनका केवल भोक्तत्व ही अभिप्रेत है, वहाँ उनके साधन भूत कर्म भी बतलाये हैं " रमणीयचरणा:, कपूयश्चरणाः " आदि । यहाँ आकाश आदि की तरह साधन रूप कर्म का तो उल्लेख है नहीं । वस्तुतः फलोन्मुखं स्वर्गोपभोग्य, शुभ कर्मों की भुक्ति तो, स्वर्गोपभोग से ही समाप्त हो आती है जिनकर्मो के फल आरंभ ही नहीं होते, “रमणीय चरणाः कवूय चरणाः " श्रुति में, उन्हीं की चर्चा की गई है। इसलिए कोई ऐसा कर्म समझ में नहीं आता कि जिसके फलस्वरूप, जीवों का ब्रीहि आदि शरीरी होना माना जाय । आकाश आदि भाव के वचन की तरह, बीहि आदि भाव के वचन को भी, औपचारिक समझना चाहिए ।
( ६२० ) अशुद्धमिति चेन्न शब्दात् | ३|१|२५|| नैतदस्ति - यदन्याधिष्ठते ब्रीह्यादिशरीरे संश्लेषमात्रम्, भोक्तत्व हेत्वभावान्न ब्रीह्यादि भावेन जन्म- इति भोक्त त्वहेतु सद्भावात् स्वर्गोपभोग्यफलमिष्टादिकमैवाशुद्धम् - पापमिश्रम्, अग्नीषोमीयादि- हिंसायुक्तत्वात् । हिंसा च “हिस्यात् सर्वभूतानि” इति निषिद्धत्वात् पापमेव । न चात्र पदाहवनीयादिवदुत्सर्गापवादभावः संभवति भिन्न विषयत्वात् । श्रग्नीषोमीयहिसाविधिर्हिसायाः क्रतूपकार- कत्वं बोधयति “न हिस्यात इति तु हिंसायाः प्रत्यवाय फलत्वम् । का संश्लेष मात्र ही होता है ब्रीहि आदि जन्म नहीं होता । ब्रीहि आदि में अधिष्ठित जीव भोक्तृत्व के कारण का अभाव होने से, यह कथन ठीक नहीं है । वहाँ पर भोग का कारण रहता है- स्वर्ग में जिनका फलभोग होता है, वे यज्ञ आदि कर्म ही, अशुद्ध और पापमिश्रित रहते हैं, अग्निसोमीय यज्ञ हिंसायुक्त होते हैं, " प्राणिमात्र की हिंसा मत करो” इत्यादि में हिंसा का निषेध किया है, अतः हिंसा करना पाप ही है। यहाँ पर पदाहवनीयादि की तरह, उत्सर्गापवाद भाव भी नहीं हो सकता, क्योंकि वह विषय ही भिन्न है । अग्निषोमीय हिंसा विधि तो, हिंसा की यशोपकारकता की ही बोधक है, " न हिस्यात्” इत्यादि में तो सामान्यतः हिंसा की पाप जनकता बतलाई गई है | प्रथोच्येत अग्नीसोमीयादिषु इत्येवमादौ हि विधितः प्रवृत्तेनं तदविषयं निषेधविधिरास्कन्दति, राग प्राप्तविषयत्वात्तस्येति । नैवम- इहापि नैवम-इहापि रागप्राप्तेरविशिष्टत्वात् । “स्वर्गकामौ यजेत्” कामिनः कर्तव्यतया चागाद्य पदेशाद्यागादे: स्वर्गादिसाधनत्व- मवगम्य फलरागत एव यागादौ प्रवत्तते श्रग्नीषोमीयादिष्वपि तेषाफलसाधनभूतस्य यागादेरुपकारकत्वं शास्त्रादवगम्य रागादेव । प्रवर्त्तते लौकिक्यामपि हिंसार्या केनचित् प्रमाणेन हिंसायाः स्व
( ६२१ ) समीहित साधनत्वमवगम्य रागात् प्रवत्तत इति न कश्चन् विशेषः तथा नित्येष्वपिकमंसु " सर्ववर्णानां स्वधर्मानुष्ठाने परम परि- मितं सुखम्” इत्यादि वचनात् फलसाधनत्वमवगम्य रागादेव प्रवृत्तिरिति तेषामप्यशुद्धि युक्तत्वम् । प्रत इष्टादीनां पापमिश्रत्वेना- शुद्धियुक्तानां स्वर्गेऽनुभाष्यंफलं स्वर्गेऽनुभूयहिसाश्वस्यफलं ब्रीह्यादिस्था वरभावेनानुभूयते स्थावरभावं च पापफलं स्मरंति - " शरोर जैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः” इति । मतो ब्रीह्यादिभावेन भोगायानुशयिनो जायंत इति चेत । यदि कहें कि अग्नीषोमीय आदि हिंसा कार्य में, जो लोगों की प्रवृत्ति होती हैं वह शास्त्र विधि सम्मत है, अतः " न हिंस्यात्” वाक्य उस वैध प्रवृत्ति का बाधक नहीं हो सकता, इस वाक्य में तो, रागवश या स्वाभाविक हिंसा का ही विरोध किया है । सो ऐसी बात नहीं है- यहाँ भी राग के अतिरिक्त कोई विशेष बात नहीं है । “स्वर्ग कामोयजेत् " इत्यादि वाक्यों में, सकाम व्यक्तियों के लिए जो कर्तव्य रूप से याग का उपदेश दिया गया है, जिससे कि लोग, स्वर्ग प्राप्ति की कामना से ही, याग आदि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। अग्नि सोमीयआदि में भी, फल प्राप्ति की हो कामना रहती है। लौकिकी हिंसा में भी, किसी न किसी अंश में, अपनी अभीष्ट फलसिद्धि मानकर ही रागपूर्वक हिंसा प्रवृत्ति है, वैदिक हिंसा में, इससे विशेष कोई बात नहीं समझ में आती। वैसे ही नित्यकर्मों में भी " अपने धर्मानुष्ठान में सभी वर्गों को अपरिमित सुख होता है " इत्यादि से फल साधनता की अवगति होने पर ही, राग वश लोगों की स्वकर्म में प्रवृत्ति होती है। नित्यकर्म भी, सकाम होने से अशुद्ध ही समझे जावेंगे । यज्ञ आदि, अनुष्ठान तो, सकाम होने से, अशुद्ध हैं ही, उनका फल स्वर्ग में अनुभूत हो जाने पर, अवशिष्ट हिंसा के फल को भोगने के लिए, ब्रीहि आदि स्थावर शरीरों की प्राप्ति होती है । जिनमें उस फल का भोग हो जाता है स्थावर भाव, पाप के फल स्वरूप ही होता है, ऐसा स्मृति का प्रमाण भी है- “शारीरिक कर्म के दोषों से मनुष्य स्थावर होता है” इत्यादि इससे सिद्ध होता है कि- जीव:
पाप- ( २२ ) चन्द्रलोक से भोगानुशायी होकर लौटते समय, ब्रीहि आदि स्थावर योनियो में, उत्पन्न होता हुआ आता है । तन्न, कुतः ? शब्दात् - अग्नीसोमीयादेः संज्ञपनस्य स्वर्गलोक प्राप्ति हेतुतया हिसात्वाभावः, शब्दात् । पशोर्हि संज्ञपन निमित्तां स्वर्गलोक प्राप्तित्रदंतं शब्दमामनंति “हिरण्यशरीर ऊर्ध्वः स्वर्ग लोकमेति” इत्यादिकम् । प्रतिशयिताभ्युदयसाधनभूतोव्यापारोऽल्प दुःखदोऽपि न हिना, प्रत्युत् रक्षणमेव । तथा च मंत्रवर्णः - " न वा उ एतस्मिनम्रियसे न रिष्यसि देवान इदेषि पथिभिः सुगेभिः । यत्र यंति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्रत्वा देवः सविता दधातु " इति । चिकित्सक च रक्षकमेव वदति, तादात्विकाल्पदुखकारिणमपि पूजयंति च तज्ज्ञाः । जैसा तर्क उपस्थित किया गया, बात वैसी नहीं है उक्त मत शास्त्र सम्मत नहीं है। अग्नीसोमीय आदि जो हिंसा की विधि है, यह स्वर्ग लोक की प्राप्ति का हेतु है, इसीलिए उसे अहिंसा शब्द से प्रयोग किया गया है। पशु के विधिपूर्वक वध करने पर स्वर्गलोक की प्राप्ति का स्पष्ट उल्लेख, श्रुति में है “हिरण्य (स्वर्णमय) शरीर धारण करके, ऊर्ध्वगामी स्वर्गलोक प्राप्त करता “इत्यादि । अत्यंत अभ्युदय की साधन रूपा क्रिया, थोड़ी दुःखदायी भी हो तो उसे हिंसा नहीं कहते श्रपितु वह रक्षण ही है । वैदिकमंत्र में भी जैसे - “हे पशु | इस प्रकार के वध से तुम मरते नहीं, और न हिंसित ही होते हो, तुम सरल रीति से देवमार्ग को प्राप्त हो रहे हो । जहाँ पुण्यवान् ही जाते हैं, पापी नहीं जाते, उस स्थान में सवितादेव तुम्हें पहुँचावें । " इत्यादि चिकित्सक भी चिकित्सा के समय रोगी को थोड़ा बहुत दुःख देते ही हैं फिर भी, समझदार लोग उन्हें रक्षक कहकर पूजते हैं। रेतः सिग्योगोऽथ १३ | १|२६|| 1 इतश्चौपचारिकं व्रीह्यादिजन्मवचनं, व्रीह्यादिभाववचनानंतर “योह्यन्नमत्ति योरेतः सिचति तद्भूय एव भवति” इति रेतः
( २३ ) श्र यमाणो यथा तद्योगमात्र प्रतिपादयति, सिग्भावोऽनुशयिनां तद्वद ब्रीह्यादिभावोऽपीत्यर्थः । ब्रीहि आदि के जन्म की बात तो औपचारिक ही है, ब्रीहि आदि न खाते हैं जो रेतसिचन करते हैं में, दिखलाया गया है कि- शुक्र साथ जैसा संबंध होता है, व्रीहि भाव के बोधक वाक्यों के बाद “जो जो बहुलांश में बही होते हैं’’ इत्यादि श्रुति सिंचनभाव से जीव का, रेत सिंचक के आदि भाव में भी वैसा ही संश्लेष होता है । योनेः शरीरम् ३।११२७॥ योनि प्राप्तैः पंचादेवानुशयिनां शरीर प्रप्तिः तव सुखदु:खो- पभोग सद्भावात् । ततः मात्रमेवेत्यर्थः । प्रागाकाशादि प्राप्ति प्रभूति तद्योग- कर्मभोगानुशायी जीवों को, योनि से ही शरीर प्राप्ति होती है, तभी सुख:दुःख उपभोग होते हैं उसके प्रथम आकाश आदि में तो केवल जीव का योग मात्र होता है। || प्रथम पाद समाप्त ॥
२
१ संध्याधिकरण:– द्वितीय पाद संध्ये सृष्टिराह हि |३|२|१|| , एवं कर्मानुरूपगमनागमनजन्मादियोगेन जाग्रतो जोवस्य दुःखित्वं स्थापितं इदानीमस्य स्वप्नावस्था परीक्ष्यते । स्वप्नमधिकृत्य श्रूयतें - “न तत्र रंथा न रथयोगा न पंथानो भवंति अथारथान् रथयोगान् पयः सृजते न तत्रानंदा मुदः प्रमुदो भवंति, श्रथानंदान् मुदः प्रमुदः सृजते न तत्र वेशान्ताः पुष्करिण्यः सवंत्यो भवंति, श्रथ वेशान्ता पुष्करिण्यः स्रवन्त्यः सृजते स हि कर्त्ता” इति तत्र संशयः, किमयं रथादिष्टिर्जीवेनैव क्रियते, प्राहोस्विदीश्वरेण ? इति कि युक्तम् ? संध्येसृष्टिर्जीवेनेति । कुतः ? संध्यं स्वप्नस्थानमुच्यते “संध्यं तृतीयं स्वप्रस्थानमिति वचनात् । सा तु जीवेनैव क्रियते “सृजते स हि कर्त्ता” इत्यादि हि । स्वप्नदृग्जीव एव तत्र प्रतीयते । कर्मानुरूप आवागमन जन्म आदि योग से जाग्रत जीव को, दुःख प्राप्ति बतला दी गई। अब जीव की स्वप्नावस्था का विश्लेषण करते हैं स्वप्न के विषय में श्रुति में कहा गया है कि- “न वहाँ रथ, न रथ का संसर्ग, न मार्ग होते हैं, अपितु, रथ, अश्व, मार्ग आदि की सृष्टि करता है । न वहाँ आनंद, मोद और प्रमोद ही रहते हैं, अपितु आनंद- मोद- प्रमोद की सृष्टि करता है। वहाँ छोटे जलाशय, पुष्करिणी और नदियाँ भी नहीं होतीं, अपितु वेशांत, पुष्करिणी और नदियों की सृष्टि करता है। वही उसका कर्त्ता है ।” इस पर संशय होता है कि यह सृष्टि जीव कृत है अथवा ईश्वर कृत? विचार करने पर सरभ्य कृत सृष्टि जीव कृत ही ज्ञात होती है | संधि स्वप्न स्थिति को ही कहते हैं- “संध्या तीसरा स्वप्नस्थान I
( ६२५ ) है " इत्यादि । जो रचे सो कर्त्ता” इस वाक्य से स्वप्न को देखने वाला जीव ही, स्वप्न सृष्टि का कर्ता प्रतीत होता है । निर्मातारं चैके पुत्रादयश्च |३||२|| किच- एनं जीवं स्वप्न कामानां निर्मातारमेके शाखिनोऽघीयते “य एषु सुप्तेषु जागतिं कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः” इति, पुत्रादयश्च तत्र काम्यमानतया कामशब्देन निर्दिश्यंते, नेच्छामात्रम्, पुवत्र हि “सर्वान् कामान् छंदतः प्रार्थयस्व” " शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व” इति पुत्रादय एव कामाः प्रकृताः । प्रतोरथादीन् जीवः स्वप्ने सृजति जीवस्य च सत्यसंकष्पत्वं प्रजापति घाषये श्रतम्, अतः उपकरणाद्यभावेऽपि सृष्टिरुपपद्यते । किसी किसी वेद को शाखा में जीव को स्वप्नदृश्य “काम” का निर्माता भी कहा गया है- " नाना प्रकार के भोगों का निर्माण करने वाला पुरुष सोता हुभा भी जागता है” । पुत्र आदि हो वहाँ पर काम्य वस्तुओं के रूप में निर्देश किये गये हैं, केवल इच्छा मात्र ही, उसका अभिप्राय नहीं है । उक्त वाक्य के पूर्व के वाक्य में कहा गया है कि- “सभी कामों को इच्छानुसार मांग लो “सैकड़ों वर्षों की आयु वाले पुत्र पौत्रों को मांग लो” इनमें पुत्रादि को ही काम रूप से बतलाया गया है । इससे निश्चित होता है कि रथ आदि की स्वप्न रचना जीव ही करता है । जीव को सत्यसंकल्पता भी, श्रुति के प्रजापतिवाक्य में कही गई है। इसलिए बिना साघन के भी जीव में सृष्टि रचना को क्षमता है । सिद्धान्तः - इति प्राप्तेऽभिधीयते मायामात्र तु कात्र्त्स्न्येनानभिव्यक्त स्वरूपत्वात् | ३|२|३|| तु शब्द: पक्ष यावत्तयति, स्वप्नरथपुषकिरिण्याद्यर्थंजातं मायामात्र परं पुरुषसृष्टमित्यर्थः । मायाशब्दोहि प्राश्चर्यवाची “जनकस्य कुलेजातादेवमायेवनिर्मिता” इत्यादिषु तथा दर्शनात् । अत्रापि - " न तत्र रथा, न रथयोगा न पंथानः " सकलेतरपुरुषानु-
( १३६ ) भाव्यतया न भवतीत्यर्थः । “अथरथान् त्रथयोगान्पथः सृजते " स्वप्नदृगनुभाव्यतया तत्काल मात्रावसानान् सृजत् इत्याश्चर्यरूपत्वमे- वाह एवं विधाश्चर्यरूपा सृष्टिः सत्यसंकल्पस्य परमपुरुषस्यैवोपपद्यते, न जीवस्य तस्य सत्यसंकल्पत्वादि युक्तस्यापि संसारदशायाम् कात्स्न्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वान्न जीवस्य तथाविधाश्चर्यसृष्टि- रूपपद्यते ।
तु शब्द, पक्ष का निवारक है। स्वप्नदृष्ट रथपुष्करिणी आदि केवल माया मात्र हैं जो कि परमपुरुष की ही सृष्टि है । मायाशब्द आश्चर्य- वाची है जैसा कि - " जनक के कुल में देवमाया ने ही मानों जन्म लिया”” इत्यादि वाक्यों से ज्ञात होता है । स्वप्न प्रसंग में भी ‘न स्था” इत्यादि में जिन वस्तुओं का वर्णन किया गया है, वो साधारण पुरुषों के अनुभव में न आने वाली दुर्लभ वस्तुएं है। यही दिखलाया गया है। ‘रय घोड़े मार्ग आदि की सृष्टि करता है” इत्यादि स्वप्न में दुष्टगत ये वस्तुएं, उस कालमात्र में ही समाप्त हो जाती हैं, यह आश्चर्य की ही बात है । ऐसी ग्राश्चर्यमयी सृष्टि सत्यसंकल्प परमात्मा द्वारा ही संभव है, जीब द्वारा नहीं । जीव सत्यसंकल्प होते हुए भी; संसारदशा में उसका वह गुण पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं रह पाता इसलिए आश्चर्यमयी स्वप्न सृष्टि उससे स्वयं संभव नहीं है। “कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः” इति च परमपुरुषमेवनिर्मितार - माह - " य एषु सुप्तेषु जागति” तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मतदेवामृतमुच्यते, तस्मिन्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन् " इत्युपक्रमोपसंहारयोः परमपुरुषासाधारण स्वभाव प्रतीतेः । प्रथ “वेशान्वान पुष्करिण्यः स्रजन्त्यः सृजते स हि कर्त्ता” इति च तया तया श्रुत्यैकार्थ्यात् परमपुरुषमेव कर्त्तारमाह । “कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः” इत्यादि वाक्य भी, परमपुरुष परमात्मा के लिए ही, कहा गया है तथा “जो यह सोने पर भी जागता है” “वही परं विशुद्ध तत्त्व, परं ब्रह्म अमृत कहलाता है, उसी में संपूर्ण लोक
( ११७ } सकता” ऐसे उपक्रमोप असाधारण स्वभाव की आश्रित रहते हैं, उसे कोई अतिक्रमण नहीं कर संहार वाक्यों से भी, परमपुरुष परमेश्वर के प्रतीति होती है । “छोटे-छोटे कंड और सरोवर नदी आदि की जो रचना करता है, वही उसका कर्त्ता है” इस श्रुति पूर्व और श्रुति की एकवाक्यता होने से, स्वप्न सृष्टि, परमपुरुष की ही कृति निश्चित होती है । 1 स्वाभाविमं चेन्नीवस्वयापहतपाप्मत्वादिकं कुतस्तन्नाभिव्यज्यत् इत्यस् प्राह- निर्दोषता आदि धर्मं यदि जीव के स्वाभाविक गुण हैं जो स्वयं प्रकाशित क्यों नहीं हो पाते? इस पर कहते हैं- पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्यबंधविपर्ययौ |३|२|४|| तु शब्द: शंकाव्यावृत्यर्थः, पराभिध्यानात् परमपुरुषसंकल्यात् अस्य जीवस्य स्वाभाविकरूपं तिरोहितम् । श्रनादिकमपरम्परया कृपापराधस्य ह्यस्य स्वाभाविक कल्याणरूपं परमपुरुषस्तिरोधापयति, ततः सत्यसंकल्पादेव हि अस्य जीवस्य बंधमोक्षौ श्रुती ‘यदा त्रैष एतस्मिन्नदृश्येनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते ग्रथ सोऽभयं गतो भवति यदा ह्येवैप एतस्मिन्नदमन्तरं कुरुते श्रथ तस्य भयं भवति “एषा वानंदयति” “भीषाऽस्माद्वातः पवते” इत्यादिषु । तु शब्द शंका का निवारक है। पराभिध्यान अर्थात् परं पुरुष के संकल्प से इस जीव का स्वाभाविक रूप तिरोहिन रहता है। अनादि कर्म परम्परा से अपराध करने वाले इस जीव के स्वाभाविक कल्याणमय रूप को, परमात्मा तिरोहित कर देते हैं, उस परमात्मा के सत्यसंकल्प से ही जीब का बंधन मोक्ष होता रहता है, ऐसा श्रुति का मत है- “जब कभी यह जीव, अदृष्ट, निराकार, अकथ्य, स्वाश्रय, परब्रह्म परमात्मा में निर्भयता पूर्वक, स्थिति प्राप्त करता है, तब वह अभयपद को प्राप्त कर लेता है । जब तक यह थोड़ा भी परमात्मा से वियुक्त रहता है, तब तक उसे भय होता रहता है” यह परमात्मा ही सबको आनंद प्रदान करते हैं “इन्ही के भय से पवन चलता है " इत्यादि ।
६२* } देहयोगाद्वा सोऽपि | ३ | २|५|| सोऽपि तिरोभावो देहयोगद्वारेण वा भवति, सूक्ष्माचिच्छक्ति योगद्वारेण वा, वा, सृष्टिकाले देहावस्थेनाचिद्वस्तुना संयोगाद् भवति प्रलयकाले नामरूपविभागानर्हातिसूक्ष्माचिद् न वस्तुयोगात् । श्रतोऽनभिव्यक्तस्य रूपत्वात् स्वप्ने जीवोरथादीन् संकल्पमात्रेण स्वष्टुं शक्नोति । “तस्मात्लोकाः श्रिताः सर्वे तदुनात्येति कश्चन् " इति सर्वेषु सुप्तेषु जागरणं सर्वलोकाश्रयत्वमित्यादयो हि परमपुरुषस्यैव संभवति । श्रतो जीवानामत्पाल्पकर्मानुगुणफलानु- भवार्थं तावन्मात्रकालावसानान् तदेकानुभाव्यानर्थानुत्पादयति । जीव का स्वरूप तिरोभाव, देहयोग और सूक्ष्मजटशक्ति द्वारा होता है । सृष्टि के समय, देह में स्थित जड़ वस्तु के संयोग से होता है, और प्रलय काल में नामरूप से अविभक्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म जड़ वस्तु के योग से होता है । इसलिए निर्दोषता आदि अनभिव्यक्त स्वरूप बाला जीव, स्वप्न में, संकल्प मात्र से रथ आदि सृष्टि कर ले ऐसा संभव नहीं है । “उमी में संपूर्ण लोक आश्रय पाते है, उसे कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता” इत्यादि में जो विशेषतायें बतलाई गई हैं, वह परमपुरुष परमात्मा में हो संभव हैं । सूक्ष्मातिसूक्ष्म कर्मों के अनुसार, फलों का भोग कराने के लिए उतने ही समय में समाप्त होने वाले, एकमात्र जीव के अनुभव में आने वाले स्वाप्तिक पदार्थो की, परमात्मा सृष्टि करते हैं; ऐसा ही निश्चित होता है । सूचकश्च हि श्रुतेराचक्षते च तद्विदः | ३ |२| ६ || इतश्चस्वा प्रानर्थान जीवसंकल्पपूर्वकाः, यतः स्वप्नोऽभ्यु- दयानभ्युदयोः सूचकः श्रुतेरवगम्यते " यदा कर्मसु काम्येषु स्त्रियं स्वशॆषु पश्यति समृद्धि तत्र जानीयात् तश्मिन्स्वप्ननिदर्शने " इति " श्रथस्वने पुरुषं कृष्णं कृष्णदंतंपश्यति स एनं हंति " इत्यादेश्च । स्वप्नाध्यायविदश्च स्वप्नं शुभाशुभयोः सूचकमाचक्षते । सूचकत्वं च स्वसंकल्पायत्तस्य ( ६२६ ) नोपपद्यते, तथाचाशुभस्यानिष्टत्वाच्छुभस्य सूचकमेव सृष्ट्वा पश्येत् श्रतः स्वप्ने सृष्टिरीश्वरेणैव कृता ।
इसलिए भी स्वाप्न विषय; जीव के संकल्पित नहीं हो सकते - कि श्रुतियों में अभ्युदय और पतन के सूचक स्वप्नों का उल्लेख है जैसे कि- " जब किसी अनुष्ठान में संलग्नव्यक्ति, स्वप्न में स्त्री का दर्शन करता है तो उससे उसकी समृद्धि समझनी चाहिए” तथा “स्वप्न में यदि, काले दांत वाले काले पुरुष का दर्शन होता है तो वही पुरुष स्वप्न दृष्टा को मारता है’ इत्यादि । स्वप्नाध्याय के ज्ञाताओं ने, स्वप्न को शुभाशुभ सूचक कहा है । यह वस्तु अपने संकल्प के अधीन नहीं होती, अशुभता तो किसी को अभीष्ट होती नहीं, इसलिए शुभ सूचक स्वप्न की ही सृष्टि करके स्वयं देखने की बात समझ में नहीं आती । इससे स्वप्न सृष्टि परमात्मा को सिद्ध होती है । २ तदभावाधिकरणः- तदभावोनाडीषु तच्छु, तेरात्मनि च |३| २|७|| इदानीं सुषुप्ति स्थानं परीक्ष्यते । इदमाम्नायते - “यत्र तत्सुप्तः समस्तः संप्रसन्नः स्वप्नं न विजानाति श्रासु तदानाडीषु सुप्तो भवति” इति तथा - “अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाडयो द्वासप्तति सहस्राणि हृदयात् पुरीततमभिप्रतिष्ठते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते” इति तथा - “यत्रतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा संपन्नो भवति” इति । एवं नाड्यः पुरीतत् ब्रह्म च सुषुप्तिस्थानत्वेन श्रूयंतं, किमेषा विकल्पः समुच्चयोर्वेत्ति विशये निरपेक्षत्वप्रतीतेः युगपदनेकस्थानवृत्य- संभवाच्च विकल्पः । अब सुषुप्ति अवस्था पर विचार करते हैं । ऐसी श्रुति है कि - “ये जीव, जिस समय इन्द्रिय संबंध से रहित होकर एवं पूर्ण प्रसन्नता प्राप्तकर, किसी प्रकार का स्वप्न नहीं देखता तंब इन नाडियों में सोता है” “जब वह सोता है तब उस समय वह किसी के विषय में कुछ नहीं जानता,
( १३० ) बहत्तर हजार हिता नाडियाँ जो कि हृदय के पुरीतत स्थान से निकलती उन्हीं के द्वारा चलकर वह पुस्तस में जाकर विश्राम करता है " पुरुष जिस समय स्रोमा समझा जाता है, उस समय वह सब्रह्म से संसक्त रहता हे " इत्यादि वाक्यों में गाडियाँ, पुरीतत और ब्रह्म को सुषुप्ति स्थान बतलाया गया है । अब संशम होता है कि तीनों ही सुषुप्ति स्थल हैं अथवा इसमें से कोई एक है ? विचार करने पर ऐसा समझ में आता है कि एक ही समय मैं अनेक स्थानों में रहना तो संभव है नहीं, तीनों एक दूसरे से स्वापेक्ष भी नहीं प्रतीत होते, इसलिए इनमें से किसी एक ही में स्थिति हो सकती है । । सिद्धान्तः - इति प्राप्ते उध्यते तदभावः, इति । तदभाव- स्वप्नाभावः सुषुप्तिः, नाडीषुपुरीतन्यात्मनि च भवति, एष स्थानानां समुच्चय इत्यर्थः । कुतः ? तच्छ्र ुतेः त्रयाणां स्थानस्य श्रुतेः । न व कार्यभेदेन समुचये संभवति, पाक्षिकबाध गर्भविकल्पोन्याय्यः । संभवति च प्रासादखट्वापर्यकवन्नाड्यादीनां कार्यभेदः । तत्रनाडीपुरीततौ प्रासादखट्वास्थानीयौ ब्रह्म तु पयंकस्थानीयम् । तोब्रह्मैव साक्षात् सुषुप्तिस्थानम् । , उक्त संशम पर सिद्धान्त कहते हैं कि-स्वप्न का अभाव ही निद्राहै- सुषुप्ति तीनों स्थानों में होती है, ऐसी श्रुति की विज्ञप्ति है । कार्य में भेद होने से ही समुच्चय नहीं होता, एककार्यता होने से ही समुच्चय संभव है, किसी एक की कल्पना करना उचित नहीं है । ऐसा करने से पाक्षिक बाध होगा। इन तीनों में महल, खाट, गोद का सा भेद है । नाडी और पुरीतत को महल और खाट समझना चाहिए तथा ब्रह्म की गोद में ही शयन समझना चाहिए । ब्रह्म ही साक्षात् सुषुप्ति स्थान है । अतः प्रबोधोऽस्मात् |३|२८|| यतो ब्रह्मैव साक्षात्सुषुप्तिस्थानम्, अतः अस्मात् ब्रह्मणः एषां जीवानां प्रबोधः श्रूयमाण उपपद्यते - " स त आगम्य न विदुः सत आगच्छामहे” इत्यादिषु ।
( ६३१ ) जैसे कि - ब्रह्म को ही साक्षात् सुषुप्ति स्थान कहा गया है वैसे, ब्रह्म से हो, जीवों के जागरण की बात भी कही गई है । " सत् ब्रह्म के निकट से लौटने पर, जीव नहीं समझ पाता कि मैं सत् के पास से आ रहा हूँ " इत्यादि । ३ कर्मानुस्मृतिशब्दविध्याधिकरणः- स एव तु कर्मानुस्मृतिशब्दविधिभ्यः | ३|राहा कि सुषुप्त एव प्रबोध समये उत्तिष्ठति उतान्यः ? इति संशये अस्य सकलोपाधिविनिर्मुक्तस्य ब्रह्मणि संपन्नस्य मुक्तादविलक्षणत्वेन प्राचीनशरीरेन्द्रियादिसंबंधाभावादन्यः । क्या सोने वाला हो, जागता है, या कोई और जागता है? इस पर विचारने से, समझ में आता है कि सुषुप्त व्यक्ति जव संपूर्ण उपाधियों से रहित ब्रह्म से संसक्त रहता है तो वह मुक्त पुरुष से तो किसी प्रकार कम है नहीं, क्योंकि वह प्राक्तन शरीर इंद्रिय आदि से रहित हो जाता है । इसलिए जागने वाला कोई अन्य ही हो सकता है । सिद्धान्तः - इति प्राप्ते उच्यते - " स एव तु " इति । तुशब्द पक्षं व्यावत्तंयति, एवोत्तिष्ठति, कुतः ? कर्मानुस्मृतिशब्दविधिभ्यः । कर्म- तावत्सुषुप्तेन पूर्वकृतं पुण्यपापरूप तत्त्वज्ञानात्प्राक्त ेन नैव भोक्तव्यम् । श्रनुस्मृतिरपि - “य एवाहं सुप्तः स एवं प्रबुद्धोऽस्मि” इति । शब्दोऽपि सुषुप्तप्रबुद्धः स एवेति दर्शयति- “त इह व्याघ्रो वा, सिंहो वा, वृको वा वराहो वा, कीटो वा, पतंगोवा, दंशो वा, मशको वा यद्यद् भवंति तथा भवंति” इति । विधयश्च मोक्षयः सुषुप्तस्य मुक्तत्वेऽनर्थंकाः स्युः । न चासो सर्वोपाधिविनिर्मुक्त प्राविभूत स्वरूपः “तद् यत्रैतत् सुषुप्तः” इति सुषुप्तं प्रकृत्य” नाहं खल्वयमेत्रं संप्रत्यात्मानं जानात्ययमहम- स्मीति तो एवेमानि भूतानि विनाश मे वाणीतो भवति नाहमत्रं भोग्यं पश्यामि " इति वचनात् । मुक्तस्य च - " परं ज्योतिरुपसंपद्यस्वेन रूपे -
( ३२ ) णाभिनिष्पद्यते” स तत्र पर्येति जक्षत् क्रीडन् रममाणः " स स्वरा- भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति” " सवं हि पश्य: पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वशः" इति सर्वज्ञत्वादि श्रूयते । श्रतः सुषुप्तः संसरनेव प्रायस्तसर्वकरणो ज्ञानभोगाद्यशक्तो विश्रामस्थानं परमा- त्मानमुपसंपद्याश्वस्तः पुनर्भोगायोत्तिष्ठति । " उक्त संशय पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि वही उठता है। तु शब्द उक्त तर्क का निवारक है । कर्म - अनुस्मृति - शब्द और विधि से, उसी की उठने की बात सिद्ध होती है । सुषुप्त व्यक्ति को जब तक तत्त्व ज्ञान नहीं होता, तब तक, पुण्यपापरूप पूर्वकृत कर्म, उसे भोगने ही पड़ेंगे, ऐसी कर्मसंबंधी व्यवस्था है । " जो मैं सोया था, वही मैं उठ आया ऐसी जगने वाले व्यक्ति की पूर्वानुस्मृति होती है। सोना और जागना एक ही व्यक्ति का होता है, ऐसा श्रुति शब्दों से भी ज्ञात होता है, जैसे कि - " जो जो सोने के पूर्व, व्याघ्र सिंह वृक वाराह कीट-पतंग मच्छर आदि देखे जाते हैं, जागने बाद उनकी वैसे ही अनुभूति होती है ।" इत्यादि सुषुप्ति से ही यदि मुक्ति होजाती तो, मोक्षविधायक शास्त्रों की सार्थकता ही समाप्त हो जाती है । यह जीव सुषुप्ति के समय, उपाधियों से रहित आविभूत स्वरूप नहीं रहता । " जीव जिस समय सोता है" ऐसी उसकी सुषुप्ति बतलाकर - " उस समय वह जीव " मैं ऐसा हूँ " ऐसी अनुभूति नहीं कर पाता दृश्य मान पदार्थों को भी नहीं जानता, विनष्ट पदार्थों को भी नहीं जानता, मेरी लिए भोग्य क्या है, उसे ऐसा भान भी नहीं रहता " इत्यादि में उसकी तात्कालिक परिस्थिति का विवेचन किया गया है । मुक्त रूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है- “ परम ज्योति को प्राप्त कर अपने ज्योतिर्मय रूप में अभिव्यक्त होता है ।" वह मुक्त पुरुष उस अवस्था में भक्षण क्रीडा और रमण करता हुआ विचरण करता है “वह स्वच्छंद हो जाता है, उसकी सभी लोकों में अप्रतिहत गति हो जाती है ।” “तत्त्वदर्शी सब कुछ देखता है और सब कुछ प्राप्त कर लेता है” इत्यादि में मुक्त पुरुष की ही सर्वज्ञता का उल्लेख किया गया है । इससे स्पष्ट होता है कि- सुषुप्त व्यक्ति संसारी होते हुए भी, समस्त इन्द्रियों की चेष्टाओं से रहित, विषयों की उपलब्धि और भोग आदि से असक्त
rt
( ६३३ ) ET होकर विश्रामस्थल परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर, आश्वस्त होता है, और पुनः भोग के लिए उठ बैठता है । सुग्धाधिकरण :– ४ मुग्धेऽर्ध संपत्तिः परिशेषात् | ३ |२| १० | मुग्धमधिकृत्य चिंत्यते, किमियं मूच्छां सुषुप्त्यादिष्वन्यतमा- वस्था, उतावस्थान्तरमिति विशये सुषुप्त्यादीनां श्रन्यतमावस्थायामेव मूर्च्छा प्रसिद्धि उपपत्तेरवस्थान्तरकल्पने प्रमाणाभावादन्यतमा- वस्था । , अब मूर्छा पर विचार करते हैं, विचार होता कि यह मूर्छा क्या सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का ही कोई प्रकार है अथवा कोई स्वतंत्र अवस्था है? इस पर समझ में तो ऐसा आता है कि- सुषुप्ति आदि किसी एक में ही, इसका अन्तर्भाव हो सकता है, इसकी पृथक कल्पना करने का कोई कारण समझ में नहीं आता, यह उन्हीं में कोई एक अवस्था है । सिद्धान्तः - इति प्राप्ते उच्यते - " मुग्धेऽधं संपत्तिः” इति । मुग्धे पुरुषे यातस्यावस्था सा मरणायार्धसंपत्तिः । कुतः ? परिशेषात् न तावत् स्वप्नजागरौ, ज्ञानाभावात् । निमित्तवैरूप्यादाकार वैरूप्याच्चे न सुषुप्तिमरणे निमित्तं हि मूर्छाया श्रभिघातादिः । परिशेष्यात् मर- पायासंपत्ति मूर्छा, मरणं हि सर्वप्राणदेहसंबंघोपरतिः, सूक्ष्म प्रारणदेह संबंधावस्थिति मूर्छा । उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि मूर्छा आधी मृत्यु है । मुग्ध पुरुष की जो प्रवस्था होती है वह मरण की आधी अवस्था होती है । स्वप्त और जागृति में तो उसका अन्तर्भाव कर नहीं सकते, क्योंकि इसमें ज्ञान का अभाव रहता है। कारण की विभिन्नता और आकृति की विभिन्नता से इसे सुषुप्ति और मरण में भी अंतर्भाव नहीं कर सकते । सांघातिक चोट आदि मूर्च्छा के कारण होते हैं । इसलिये मूर्च्छा को सबसे भिन्न ही मानना चाहिए, वह मरण की श्रद्ध अवस्था है । मरणावस्था में
( ६३४ ) समस्त प्राणों सहित जीव का संबंध विच्छेद हो जाता है । मूर्छा में, जीव की, प्राणों की सूक्ष्म अवस्था सहित, देहस्थिति रहती है । ५. उभर्यागाधिकरण :– न स्थानतोऽपि परस्योभयलिंगं सर्वत्र हि | ३ |२|११ ॥ दोष दर्शनाद वैराग्योदयाय जीवस्यावस्थाविशेषा निरूपिताः, इदानीं ब्रह्मप्राप्तितृष्णा जननाय प्राप्यस्य ब्रह्मणोनिर्दोषत्व कल्याण गुणात्मकत्व प्रतिपादनायारभते । तत्रजागरस्वप्नसुषुप्तिमुग्ध्युत्कां- तिषु स्थानेषु तत्तत्स्थान प्रयुक्ता जीवस्य ये दोषाः ते तदंतर्यामिणः परस्य ब्रह्मणोऽपितत्रतत्रावस्थितस्य संति नेति विचार्यते । कि युक्तम् ? संतीति, कुत: ? तत्तदवस्थशरीरेऽवस्थानात् । अवस्थागत दोषों की अवगति से वैराग्य का उदय होता है, इस लिए सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का वर्णन किया गया । अब ब्रह्म प्राप्ति की तृष्णा को बढ़ाने के लिए, प्राप्य ब्रह्म के निर्दोषता, कल्याण- गुणमयता आदि गुणों के प्रतिपादन का प्रयास करते हैं । जाग्रत - स्वप्न- सुषुप्ति - मूर्छा और मृत्यु आदि अवस्थाओं के दोष जीव में संचरित होते हैं, वे सब परमात्मा में भी होते हैं या नहीं ? ऐसा संशय होता है । कह सकते हैं कि होते हैं क्योंकि उन अवस्थाओं में शरीर में उसकी भी तो स्थिति रहती है । ननु " संभोगप्राप्तिरिति चेन्न वैशेष्यात्" स्थित्यदनाभ्यां च " इत्यादिषु परस्याकर्मवश्यत्वेन दोषाभाव उक्तः, तत्कथमकर्मवश्यस्य परस्यब्रह्मणः ततत्स्थान संबंधाद् दोष उच्यते इत्थमुच्यते - कर्मा- ध्वपि देहसंबंधमापादयन्त्यषुरुषार्थं जननानि भवंति, इति । " देह- योगाद्वा" इत्यत्रोक्तम् तच्च देहसंबंधस्यापुरुषार्थत्वेन भवति । इत रथा कर्माण्येव दुःखं जनयिष्यति । किम् वेहसंबंधेन, अतोऽकर्मवश्यत्वे सत्यपि नानाविधाऽशुचिदेहसंबंधोऽपुरुषार्थ एव, अतस्तन्नियमनार्थं स्वेच्छया तत्प्रवेशेऽथपुरुषार्थसंबंधोऽवर्जनीयः, पूयशोणितादि मज्जनं
( ) ६.३.५ } हि स्वेच्छाकारितमप्यपुरुषार्थं एव । अतो मद्यपि जघवेककारणं सर्वसत्वादिकरूयाणगुणाकरं च ब्रह्म, तथापि यः पृथियां तिष्ठन् " य प्रात्मनि तिष्ठन् " यश्चक्षुषि तिष्ठन् “यो तेजसितिष्ठन्" इत्यादि वचनात् तत्रतत्रावस्थितस्य तत्संबंध रूपापुरुषार्थाः संति इति । प्रश्न होता है कि- “संभोग प्राप्तिरिति” तथा “स्थित्यदनाभ्यां च ’’ इत्यादि सूत्रों से जब, परब्रह्म की कर्मवशता संबद्ध दोषों का अभाव बतला चुके, तब उन अवस्थाओं से संबद्ध परब्रह्म को उन अवस्थाओं के दोषों से संसक्त कैसे कहा जा सकता है? ऐसे कह सकते हैं कि कर्मों में, देह संबंध को स्थापित करने पर पुरुषार्थं संपादन की क्षमता नहीं होती ऐसा " देहयोगाद्वा” सूत्र से सिद्ध कर चुके हैं । वे कर्म देहसंबंधित होने से अपुरुषार्थ जनक होते हैं। वे कर्म ही जब दुःख जनक होते हैं, इसलिए देह संबंध से क्या होता है ? जैसे कि यह विचार समीचीन है, वैसे ही, कर्मवश न होते हुए भी, विविध अपवित्रताओं से संबद्ध शरीर से संबंधी होने से अपुरुषार्थता (दु.ख ) होना स्वाभाविक ही है । उस शरीर को नियमन करने के लिए, स्वेच्छा से उसमें प्रवेश करने पर, शारीरिक दुः :खों का संश्लेष भी अनिवार्य होजाता है, पूयशोणित आदि में, स्वेच्छा से प्रवेश करना भी तो, मपुरुषार्थं (दुःख) है। यद्यपि ब्रह्म जगत् के एक मात्र कारण, सर्वज्ञता आदि कल्याणमय गुणों के भंडार हैं फिर भी “पृथ्वी में” “आत्मा में” नेत्रो में “तेज में इत्यादि में जो उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है, उससे उन उन बस्तुओं से उनका संबंध निश्चित होता है जो कि अपुरुषार्थ ( दुःख) ही है । सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्षमहे- “म स्थानतोऽपिपरस्य " इति । न पृथिव्यात्मादिस्थानतोऽपि परस्यब्रह्मणः पुरुषार्थं गंधः संभवति । कुतः " उभयलिगं सर्वत्र हि " - यतः सर्वत्र श्रुतिस्मृतिषु पर ब्रह्म, उभर्यालगं, उभय लक्षणमभिधीयते । निरस्त निखिलदोषतत्व कल्या- गुणाकरत्व लक्षणोपेत मित्यर्थः “ अपहतपाप्माविजरो विमृत्युर्विशोकों विजिधित्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः " समस्त कल्याणगुणा- हमकोऽसौ स्वशक्तिलेशाद धूतभूतसर्गः " तेजो बलैश्वयं महावबोध
1 १३६ ) सुवीर्यंशक्त्यादि गुणैकराशिः परः पराणां सकलान् यत्र क्लेशादयः संति परावरेशे " समस्त रहितं विष्ण्वाख्यं परमंपदम्” इत्यादि- श्रुतिस्मृतिभ्यः, उभयलक्षण हि ब्रह्मावगतम् । उक्त मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि पृथिवी आदि में स्थित रहते हुए भी, परब्रह्म परमात्मा में अपुरुषार्थ की गंध तक नहीं आती । श्रुति और स्मृतियों में, परब्रह्म को उभयलक्षणों वाला बतलाया गया है । अर्थात् उनमें, दोषहीनता और कल्याण गुणाकरता दोनों विशेषतायें हैं। जैसे कि - " वह, निर्दोष, अजर, अमर, शोक - भूख-प्यास रहित, सत्य काम और सत्य संकल्प हैं" वह समस्त कल्याणमय गुणों से युक्त, अपनी अंश रूप शक्ति से संपूर्ण जगत को धारण किये हुए हैं, तेज - बल - ऐश्वर्य - विशुद्ध ज्ञान उत्कृष्ट वीर्य और शक्ति आदि गुणों के एक मात्र पात्र, श्रेष्ठों के श्रेष्ठ हैं, उनमें बड़े छोटे किसी प्रकार के दोष नहीं हैं " समस्त हीन ताओं से रहित, विष्णु नामक परंदेव हैं ।" इत्यादि श्रुति स्मृतियों में उभयगुणवाले ब्रह्म का उल्लेख है । मेदादिति चेन्न प्रत्येकमतद्वचनात् |३|२| १२॥ यथा जीवस्य प्रजापतिवाक्याव गतापहतपाप्मत्वाद्युभयलिंगस्यापि देवादिदेहयोगरूपावस्थाभेदादपुरुषार्थयोगः, तथान्तर्यामिणः परस्यापि सतोऽपहतपाप्मत्वाद्युभयलिंगस्यतत्तदेवादि शरीरयोगरूपावस्थाभेदाद- पुरुषार्थयोगोऽवर्जनीय इति चेत्, तत्र, प्रत्येकमतदवचनात् -" यः पृथिव्यां तिष्ठन् “य श्रात्मनि तिष्ठन्’ इत्यादिषु प्रतिपर्यायं “सत श्रात्माऽन्तर्यामृतः” इत्यन्तर्यामिणोऽमृतत्ववचनेन तत्र तत्र स्वेच्छाया- नियमनं कुर्वं तस्तत्तत्संबंधप्रयुक्ता पुरुषार्थं प्रतिषेधात् । जीवस्य तु तत्स्वरूपं तिरोहितमिति “पराभिध्यानात्त तिरोहितम्” इत्यत्रोक्तम् । यदि कहें कि - प्रजापति वाक्य में बतलाया गया है कि-जीव में भी निर्दोषता आदि उभय विध गुण विद्यमान हैं, पर उसमें देव मनुष्य आदि देहयोग की अवस्थाओं के भेद से, अपुरुषार्थं अनिवार्य होता है । वैसे ही अन्तर्यामी परब्रह्म के भी, उभयविध गुण होते हुए भी अपुरुषार्थं होगा
( ६३७ ) हो । सो बात नहीं है क्योंकि परमात्मा की प्रत्येक में स्थित और अनासक्ति बतलाई गई है । “जो पृथ्वी में स्थित होकर " " जो आत्मा में स्थित होकर " " इत्यादि में निर्दिष्ट पर्यायों में “वही तुम्हारे अन्तर्यामी अमृत स्वरूप आत्मा हैं” ऐसे अमृतत्त्व निर्देश द्वारा, स्वेच्छा से नियमन करने वाले परमेश्वर के, विशेष - विशेष दोषों का प्रतिषेध किया गया है । जीव का उभयविध गुणों वाला स्वरूप तो तिरोहित रहता है “पराभिध्यानात्त तिरोहितम् ’ सूत्र से यह बतला चुके हैं । ननु स्वेच्छया कुर्वतोऽपि तत्तदवस्तुस्वभावायत्तापुरुषार्थं संबंधो अवर्जनीय इत्युक्तम् । नैतद्युक्तम्, नहि प्रचिदवस्वस्त्वपि स्वभावतोऽपुरुषार्थ स्वरूपम्, कर्मवश्यानां तु कर्मस्वभावानुगुण्येन परमपुरुष संकल्पादेकमेववस्तु कालभेदेन पुरुषभेदेन च सुखाय दुखाय च भवति, वस्तुस्वरूपप्रयुक्ते तु ताद्रूप्ये सर्वं सर्वदा सर्वस्य सुखायैव दुःखायैव वा स्यात्, न चैवं दृश्यते, तथाचोक्तं “नकं स्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम, यस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च । कोपाय च यतस्तस्मादवस्तुवस्त्वात्मकं कुतः, तदेव प्रीतये भूत्वा न दुःखाय जायते । तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते, तस्माद् दुःखात्मकं नास्ति न च कंचित् सुखात्मकम् ” इति । अतोजीवस्य कर्मवश्यत्वात्तत्तद् कर्मानुगुण्येन तत्तद्वस्तु संबंध एवापुरुषार्थः स्यात् परस्य । तु ब्रह्मणः स्वाधीनस्य स एव संबंधस्तत्तद् विचित्रनियमनरूपलीला रसयैव स्यात् । परमेश्वर स्वेच्छा से कार्य करते हुए भी, वस्तुओं के स्वभाव से आयत्त होने के कारण उनका अपुरुषार्थ अनिवार्य हो जाता है, ऐसा कथन भी उपयुक्त नहीं है । जडवस्तु भी स्वभाव से अपुरुषार्थं स्वरूप नहीं होती अपितु कर्माधीन होने से अपने ही स्वभावानुसार एक ही वस्तु परमेश्वर के संकल्प से काल भेद और पुरुष भेद से सुखकर और दुःखकर होती है । वस्तुओं में यदि सुख और दुःख स्वाभाविक होते तो, सभी वस्तुएं तद्रूप होने से या तो सुखी रहतीं या दुःखी ही रहतीं। ऐसा तो
( ६३८ ) होता नहीं । जैसा कि कहा भी गया है कि- “हे द्विजोत्तम । पाप और पुण्य हो, नरक और स्वर्ग नाम से कहे जाते हैं । एक ही वस्तु सुखकर दुःखकर, ईर्ष्याजनक और कोपजनक होती है, इसलिए उसका वास्तविक स्वरूप कैसे जाना जाय ? जो वस्तु प्रीतिजनक होकर पुनः दुःखदायी हो जाय और वही कोप और प्रसन्नता की भी कारण हो जाय तो उससे पता चलता है किन्न कोई वस्तु दुःखात्म है न सुखात्मक ।” इत्यादि वाक्य से ज्ञात होता है कि कर्माधीन होने से, कर्मानुसार वस्तुओं का संबंध ही, जीन के लिए अपुरुषार्थ होता है तथा स्वाधीन परब्रह्म के वे ही संबंध, विचित्र नियमन रूप लीला रस के कारण होते हैं । अपिचैवमेके | ३|२/१३॥ अपि च एके शाखिनः एकस्मिन्नेव देहसंयोगे जीवस्यापुरुषार्थ परस्य तु तदभावं स्वशब्देनाभिधीयते - “द्वा सुपर्णा नियमनरूपैश्वर्यायत्त दीप्तिप्रयोगं च सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते, तयोरन्नं पिप्पलं स्वादवत्यनन्नन्यो शीति” इति । अभिचाक- श्रुति की एक शाखा में भी, एक ही देह संयोग में, जीव के मपुरुषार्थ और परमेश्वर में उसके अभाव और नियमन रूप ऐश्वर्य से अधीन स्वप्रकाश का विवेचन किया गया है “सहयोगी, समान स्वभाव वाले दो पक्षी, एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, उनमें से एक पके हुए कर्मफल का भोग करता है, दूसरा साक्षी रूप से देखता मात्र है ।” श्रथ स्यात्- “अनेन जीवेनात्माऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि " " इति ब्रह्मात्मकं जीवानुप्रवेशपूर्वक नामरूपव्याकरण मिति ब्रह्मणोऽपि ब्रह्मात्मभूतस्य देवमनुष्यादिरूपत्वं तन्नामभाक्तवं चास्ति ततश्च “ब्राह्मणो यजेत्” इत्यादि विधिनिषेधशास्त्र गोचरत्वेन कर्मवश्यत्वमवर्जनीयमिति तत्राह - (शंका) ऐसा होते हुए भी “मैं इस जीवात्मा में प्रवेश करके नामरूप को व्यक्त करूँगा " ऐसी ब्रह्मात्मक अभिव्यक्ति तदात्मक होते से ( eta ) देव मनुष्यादि के नामरूपों वाली होती है तथा चाहिए” इत्यादि विधि निषेधात्मक वाक्यों से अनिवार्य हो जाती है । इसका उत्तर देते हैं- रूपवदेव हि तत्प्रधानत्वात् | ३|२| १४॥ 6893 “ब्राह्मण को यज्ञ करना परमात्मा की कर्माधीनता देवादिशरीरानुप्रवेशे तेन रूपेण युक्तमप्यरूपवदेव तत् ब्रह्म- रूपरहिततुल्यमेव, जीववच्छरीरित्वनिबंधनं कर्मवश्यत्वमस्य न विद्यत् इत्यर्थः । कुतः ? निर्वाहकत्वेन प्रधानत्वात् । “प्राकाशो ह वै नामरुपयोनिवहिता ते यदन्तरातद्ब्रह्म” इति सर्वानुप्रवेशेऽपि नामरूपकार्यास्पर्शेन नामरूपयोनिर्वाढित्वमेव ब्रह्मण: प्रतिपादयति । ननु तच्छरीरकत्वेन तदन्तर्यामित्वे कथमरूपवदिति रूपसंबंध रहित तुल्यत्वमुच्यते ? इत्थं यथाजीवस्य तत्तजन्य सुखदुःखभाक्तत्वेन तत्तद्रूपसंबंध: तथा तदभावात् परस्यारूपवत्वम् । विधिनिषेध- शास्त्राण्यपि कर्मवश्यमेवाधिकुर्वन्ति तस्मादरूपतुल्यमेव परंब्रह्म । ब्रह्म निरस्तनिखिल दोषत्व ततश्चान्तर्यामिरूपेणावस्थितमपि कल्याणगुणाकरत्वरूपोभयलिगमेव । देवादि शरीरों में अनुप्रवेश करते हुए, उन उन रूपों से मुक्त होकर भी, ब्रह्म, निश्चित ही निराकार की तरह ही रहता है, अर्थात् उसमें जीव की सी कर्माधीनता नहीं रहती। क्योंकि उसकी, निर्वाहक रूप से प्रधानता बतलाई गई है । " आकाश ही नामरूप का निर्वाहक है, ये नाम और रूप जिसमें स्थित हैं, वही ब्रह्म है " यह श्रुति उसी तथ्य का प्रतिपादन करती है। ब्रह्म, सब में प्रविष्ट होकर भी नामरूप जन्य किसी भी प्रकार के कार्यों से संस्पृष्ट नहीं होता, और उसकी नाम रूप निर्वाहकता भी साध्य होती है [प्रश्न ] देवादिकों के शरीर से, अतंर्यामी रूप से संबद्ध होते हुए भी उसे “अरूपवद्” कैसे कहा गया ? (उत्तर) जैसे कि जीव के कर्मों से होने वाले सुखदुःखों के भोग से, परब्रह्म की अरूपता होती है । विधिनिषेध शास्त्रों में भी, कर्माधीन के लिए ही अधिकार बतलाते हैं, इसलिए वह भरूपतुल्य ही है । इसलिए अंतर्यामी रूप से अवस्थित होते हुए भी,
( ८४० ) परब्रह्म के समस्तदोष राहित्य और कल्याण गुरणाकरत्व, रूप दोनों लक्षण सिद्ध होते हैं । ननु च “सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म” इत्यादिभिनिविशेषप्रकाशक- स्वरूपं ब्रह्मावगम्यते, ग्रन्यत्तु सर्वज्ञत्वसत्यसंकल्पत्वजगत्कारणत्व- सर्वान्तरात्मत्वसत्यकामत्वादिकं “नेति नेति” इत्यादिभिः प्रतिषिध्यमानत्वे न मिथ्याभूतमित्यवगंतव्यम्, तत्कथं कल्याणगुणा- करत्वनिरस्तनिखिल दोषत्वरूपोभयलिंगत्वम् ब्रह्मण इति प्रत प्राह- ( प्रश्न ) " ब्रह्म सत्य ज्ञान और अनंतस्वरूप है” इत्यादि वाक्यों से, निर्विशेष एकमात्र प्रकाशस्वरूप, ब्रह्म का ज्ञान होता है, उसी प्रकार अन्यत्र - सत्यसंकल्पता, सर्वज्ञता, जगत्कारणता, सर्वात्मकता, आदि का “नेति नेति” इत्यादि से प्रतिषेध किया गया है, जिससे ये सारे गुण मिथ्या से ज्ञात होते हैं, तब कल्याण गुणाकरत्व और निर्दोषत्व आदि दोनों रूपों वाला कैसे कह सकते हैं? इस पर कहते हैं प्रकाशवच्चावैयर्थ्यात् | ३ |२| १५ || यथा “सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म” इत्यादिवाक्यै वैयर्थ्यात् प्रकाशस्वरूपत्वं ब्रह्मणोऽभ्युपगम्यते, तथा सत्यसंकल्पत्वसर्वज्ञत्व- जगत्कारणत्व सर्वात्मकत्वनिरस्त निखिला विद्यादिदोषत्वाद्यभिधा- विवाक्यौ वैयर्थ्यादुभयलिंगमेव ब्रह्म । “ब्रह्म सत्य ज्ञान और अनंतस्वरूप है “इत्यादि वाक्यों की सार्थकता के लिए जैसे ब्रह्म की प्रकाशरूपता स्वीकारी जाती है, वैसे ही सत्यसंकल्पता, सर्वज्ञता, जगत्कारणता सर्वात्मकता, अविद्या आदि दीष राहित्य आदि के बोधक वाक्यों की सार्थकता के लिए, उभय विध लिंग वाला ब्रह्म मानना होगा । आह च तन्मात्रम् | ३|२।१६॥ कि च “सत्यं ज्ञानमनंत” इत्यादि वाक्य ब्रह्मणः प्रकाश स्वरूपतामात्रं प्रतिपादयति, नान्यत्सत्यसंकल्पत्वादिकं वाक्यान्तरा-
( १४१ ) वगतम् निषेधति, “नेति नेति” इति J नन्तरमेव वक्ष्यते । च निषेधविषयोऽ- “सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म” इत्यादि वाक्य, ब्रह्म की प्रकाशरूपतामात्र का प्रतिपादक है सत्यसंकल्पता आदि के बोधक अन्यवाक्यों के विषय का विरोध नहीं करता, “नेति नेति” निषेध विषयक वाक्य तो दूसरे प्रकरण का है । दर्शयति चाथो अपि स्मर्यते | ३|२| १७ | दर्शयति च वेदांतगरणः कल्याणगुणाकरत्वं निरस्त निखिलदोषत्वं च " तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं दैवतानां परमं च दैवतम् । स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्यकश्चिज्जनिता न चाधिपः । न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैय श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च । यः सर्वज्ञः सर्वबिद् यस्यज्ञानमयं तपः । भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः । एको ब्रह्मणः श्रानन्दः । यतोवाचो निवर्त्तन्ते श्रप्राप्यमनसा सह । श्रानंदं ब्रह्मणो विद्वान्नविभेति कुतश्चन । निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरंजनं । " इत्यादि । वेदांत वाक्य परमात्मा की कल्याण गुणाकरता और निर्दोषना का स्पष्टतः उल्लेख करते हैं- “वह ईश्वरों के ईश्वर परम महेश्वर, देवाधिदेव हैं । कारण और इन्द्रियों के भी कारण और अधिपति हैं, उनका कोई कारण और जनक नहीं है । उनमें कार्य और कारण नहीं है और न कोई उनके समान या अधिक है । उनकी पराशक्ति स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया आदि अनेक प्रकार की है । वह सर्वज्ञ और सर्वविद है, ज्ञानमय उनका तप है । उनके भय से वायु चलता है तथा सूर्य उदय होता है । वह ब्रह्म ही एक मात्र आनन्द हैं । मन सहित वाणी उनको न पाकर लौट आती है । आनन्द ब्रह्म को जान कर साधक किसी से नहीं डरता । वह परमात्मा प्रखण्ड, निष्क्रिय, शान्त, निर्दोष और निर्लेप है ।” इत्यादि ।
( e४२ ) स्मर्यते च - “यो मामजमनादि च वेत्ति लोक महेश्वरं । विष्ट- भ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् । मयाऽध्यक्षेण प्रकृति: सूयते संचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद् हि विपरिवर्तते । उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः यो लोकत्रयमाविश्य विभर्तव्यय ईश्वरः । सर्वज्ञः सर्वकृत् सर्वशक्तिज्ञानबलधिमान् । अन्यूनश्चाप्यवृद्धिश्च स्वाधीनो नाधिमान् वशी । क्लमतंद्राभयक्रोध कामादिभिरसंयुतः । निरवद्यः परः प्राप्तेनिर्दिष्टोऽक्षरः क्रमः” | इत्यादि, अतः सर्वत्रावस्थितस्यापि ब्रह्मण उभयलिंगत्वात्तत्तत्स्थान प्रयुक्ता दोषा न परंब्रह्म स्पृशन्ति । स्मृतियाँ भी उक्त तथ्य की पुष्टि करती हैं- “जो मुझे अज, अनादि और लोकाधिपति जानते हैं मैं एक अंश से सारे जगत् में व्याप्त हूँ। मेरी ही अध्यक्षता में प्रकृति इस जडचेतनमय जगत का प्रसव करती है, इसी से जगत का चक्र चलता रहता है । उत्तमपुरुष परमात्मा, जीवात्मा से भिन्न विशेष है। वह ईश्वर त्रिलोकी का अन्तर्यामी रूप से भरण करता है । वह सर्वज्ञ सर्वकर्ता, सर्वशक्ति, ज्ञान और बल ऐश्वर्य वान, ह्रास और वृद्धिरहित, स्वाधीन अजन्मा, वशी क्लेश, आलस्य, भय क्रोध और कामादि रहित निर्दोष, अप्राप्य, अनाश्रित और नित्य है ।” इत्यादि, इन सभी प्रमाणों से सिद्ध होता कि ब्रह्म व्यापक होते हुए भी, दोनों प्रकार के गुणो से युक्त होने के कारण, उन उन स्थानीय दोषों से अनस्पृष्ट ही रहता है । अतएव चोपमा सूर्यकादिवत् |३|२|१८|| , यतो नानाविधेषु स्थानेषु स्थितस्यापि परस्य ब्रह्मणो न तत् प्रयुक्त दोषभाक्त्वम् श्रतएव जलदर्पणादिप्रतिबिम्बितसूर्यादिवत् परमात्मा तत्रतत्राऽवस्थितोऽपि निर्दोष इति शास्त्रेषूपमा क्रियते- “आकाशमेकं हि यथा घटादिषुपृथग् भवेत्, तथात्मैको ह्यनेकस्थो
( ६४३ ) जलाधा रेष्विवांशुमान् । एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः दृश्यते जल चंद्रवत् । " इत्यादिषु । 7 परब्रह्म, अनेक स्थानों में स्थित होकर भी उन स्थानों के दोष से अस्पृष्ट रहते हैं, इनको शास्त्रों में, जलदर्पण आदि में प्रतिबिंबित सूर्य श्रादि की उपमा से समझाया गया है- “एक ही आकाश जैसे घट आदि में भिन्न हो जाता है तथा एक ही अनेक रूपों में प्रतिबिंबित होता है, वैसे सूर्य जैसे विभिन्न जलाशयों में ही एक ही परमात्मा सर्वान्तर्यामी रूप से हरेक भूतों में, जलाशयों में स्थित चंद्र की तरह है ।” इत्यादि । अत्र चोदयति- इस दृष्टांत को दूषित बतलाते हैं- अंबुवदग्रहरणात्त म तथात्वम् | ३ |२| १६ | सप्तम्यन्तात् वतिः । तु शब्दश्चोद्यद्योतयति । अंबुवदिति अंबुदर्पणादिषु यथा सूर्यमुखादयो गृह्यन्ते, न तथा पृथिव्यादिषु स्थानेषु परमात्मा गृह्यते । श्रभ्वादिषुहि सूर्यादयो भ्रान्त्या सत्रस्था इव गृहान्ते न परमार्थतः तत्रस्थाः इहतु “यः पृथिव्यां तिष्ठन् ” “योऽप्सुतिष्ठन् " " य श्रात्मनि तिष्ठन्” इत्येवमादिना परमार्थत एव परमात्मा पृथिव्यादिषु स्थितो गृह्यते । यतः सूर्यादरम्बु दर्पणादि- प्रयुक्तदोषाननुषंगस्तत्रतत्र स्थित्यभावादेव । श्रतो न तथात्वं- दाष्टन्तिकस्य न दृष्टान्त तुल्यत्वमित्यर्थः । सूत्रस्थ तु शब्द उक्त मत पर तर्क प्रस्तुत करना है । अंबुवद् पद में सप्तम्यंत वत् प्रत्यय है । उक्त वाक्य का अर्थ होता है कि जल दर्पण आदि में जैसे, सूर्य मुख आदि का प्रतिबिम्ब देखा जाता है, पृथ्वी आदि में, परमात्मा का वैसा प्रतिविम्ब तो दृष्टिगत होता नहीं । भ्रांतिवश ही जल आदि में सूर्य आदि की उपस्थिति मान ली जाती है वास्तव में तो वे वहाँ रहते नहीं । “जो पृथ्वी में स्थित हैं” “जो जल में स्थित है " इत्यादि वर्णनों में तो परमात्मा की वास्तविक स्थिति बतलाई गई है । सूर्य आदि की जो जल आदि से अनस्पृष्टता है, वह तो स्थिति के अभाव से J
( ६४४ ) है । परमात्मा की तो वैसी है नहीं । इसलिए उपमा उपमेय की तुल्यता न होने से उक्त द्रष्टान्त स्वीकार नहीं है । परिहरति उक्त वक्तव्य का परिहार करते हैं- बृद्धिहासभाक्त्वमन्तर्भावादुभयसांमंजस्यादेवं दर्शनाच्च | ३ |२| २० || पृथिव्यादिस्थानोन्तर्भावात् स्थानिनः परस्यब्रह्मणः स्वरूपतो गुणतश्च पृथिव्यादि स्थानगतवृद्धिहासादि दोषभाक्त्वमात्रं सूर्यादि दृष्टांतेन निवर्त्यते । कथमिदमवगम्यते ? उभयसामंजस्यादेवम्- उभयदृष्टांत सामंजस्यादेवमिति निश्चीयते । " आकाशमेकं हि यथा घटादिषुपृथग् भवेत्”-“जलाधारेष्विवांशुमान्” इति दोषवत् स्वनेकेषु वस्तुषु वस्तुतोऽवस्थितस्याकाशस्य, वस्तुतोऽनवस्थितस्यांशुमतश्चो- भयस्य दृष्टांतस्योपादान हि परमात्मनः पृथिव्यादिगतदोषभाक्त्व- निवर्तनमात्रे प्रतिपाद्ये समंजसं भवति । पृथिव्यादि स्थानों में अन्तर्यामी होते हुए भी, परब्रह्म स्वरूप और गुण से, पृथ्वी आदि स्थानगत वृद्धि ह्रास दोषों से, कहने मात्र को ही संलग्न हैं, यही सूर्य आदि के दृष्टान्त से बतलाया गया है । " एक ही सूर्य भिन्न जलाधारों में भिन्न दीखता है” एक ही आकाश भिन्न घड़ों में भिन्न भिन्न हो जाता है " ये दोनों दृष्टान्त, केवल परब्रह्म के, पृथिव्यादिगत दोष संस्पर्श राहित्य मात्र के लिए प्रस्तुत किए गए हैं । इस प्रकार इन दृष्टान्तों का सामंजस्य हो जाता है । घटकरकादिषु यथा वृद्धिहासभाक्षु पृथक् पृथक् संयुज्यमानं अप्याकाशं वृद्धिहासादिदोषैनं स्पृश्यते, यथा च जलाधारेषु विषमेष दृश्यमानोंऽशुमान् तद्गत् वृद्धिह्रासादिभिर्न स्पृश्यते, तथाऽयम् परमात्मा पृथिव्यादिषु नानाकारेष्वचेतनेषुचेतनेषु च स्थितः तदगत् वृद्धिहासादिदोषैरसंस्पृष्टः सर्वत्रवर्त्तमानोऽप्येकएवास्पृष्ट दोषगंध: कल्याणगुणाकर एव । एतदुक्तं भवति यथा जलादिषु
वस्तुतोऽनवस्थितस्यांशुमतो ( ६४५ ) हेत्वभावाज्जलादिदोषानभिष्वंगः तथापृथिव्यादिष्ववस्थितस्यापि परमात्मनो दोषप्रत्यनीकाकारतया दोषहेत्वाभावान्न दोषसंबंध, इति । दर्शनाच्च दृश्यते चैवं सर्वात्मना साधर्म्याभावेऽपि विवक्षितांशसाधर्म्यात् दृष्टांतोपादानं “ सहइव माणवकः " इत्यादौ । श्रतः स्वभावतोनिरस्तनिखिलाज्ञानादि- दोषगंधस्य समस्त कल्याणगुणाकरस्य पृथिव्यादिस्थानतोऽपि न दोष संभवः । घट करवा इत्यादि बड़े छोटे पात्रों में पृथक्-पृथक् स्थित आकाश जैसे वृद्धि ह्रास आदि दोषों से रहित होता है तथा विभिन्न जलाधारों में प्रतिबिंबितं सूर्यं जैसे- उनके वृद्धि ह्रास आदि दोषों से रहित होता है, वैसे ही यह परमात्मा, पृथिव्यादि विभिन्न आकार वाले अचेतनों और चेतनों में स्थित रहते हुए भी उनके वृद्धि ह्रास आदि दोषों से रहित हैं, सर्वत्र व्याप्त होकर भी एक और निर्दोष और कल्याण गुणों के भंडार हैं । कहने का तात्पर्य है कि - जैसे - जलादि में अवस्थित सूर्य कारण के अभाव से जलादिगत दोषों से अनासक्त रहता है, वैसे ही पृथिव्यादि में स्थित परमात्मा तदाकार न होने से, दोषों से अनस्पृष्ट रहते हैं । ऐसा व्यवहार भी किया जाता है । हर प्रकार की समानता न होते हुए भी, केवल अभिप्रेत अंशमात्र समानता के आधार पर दृष्टान्त दिया जाता है - “यह बालक सिंह के समान है” इसलिए यह निश्चित होता है कि- स्वभाव से निर्दोष समस्त कल्याणमय गुणों के भंडार परमात्मा, पथिव्यादि स्थानों में स्थित होकर भी उनके दोषों से रहित हैं । श्रथस्यात् -“द्व ेवावब्रह्मणोरूपेमूर्त्तचामूर्त्तमेव च " इति प्रकृत्य समस्तं स्थूलसूक्ष्मरूपं प्रपंचंब्रह्मणो रूपत्वेन परामृश्य तत्सर्वं प्रतिषिध्य " तस्य ह वा एतस्य पुरुषस्यरूपं यथा महारजनं वासः " इत्यादिना श्राकारविशेषंचाभिधाय " प्रथात प्रदेशो नेति नेति न ह्य ेतस्मादितिनेत्यन्यत् परमस्ति” इति सर्वं प्रकृतं ब्रह्मणः प्रकारमिति शब्देन परामृश्य तत्सर्वं प्रतिषिध्य सर्वविशेषाधिष्ठानं
( ६४६ ) सन् मात्रमेव ब्रह्म, विशेषास्त्वेवंविधं स्वस्वरूपमजानता ब्रह्मणा कल्पिता इति दर्शयति श्रतः कथमुभर्यालगत्वं ब्रह्मण इति मंत्राह- समान है " नही, ऐसा इत्यादि से आपत्ति की जाती है कि- “ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो रूप प्रसिद्ध हैं” इत्यादि भूमिका में, स्थूल सूक्ष्म सारे जगत को, ब्रह्म का रूप बतलाकर “उस परमात्मा का रूप हरिद्रारंजित वस्त्र के इत्यादि से आकार विशेष बतलाकर - " कहा गया कि वह ऐसा नहीं, इससे कोई उत्कृष्ट नहीं, इससे पृथक् कुछ और नहीं” ब्रह्म के सारे प्रकारों को इति शब्द से बतलाकर, उन सबका प्रतिषेध कर यह दिखलाया गया है कि- समस्त विषयों का आश्रयभूत केवल सत् स्वरूप ब्रह्म ही है तथा सारी विशेषतायें अपने स्वरूप को न जानने वाले ब्रह्म से कल्पित हैं । इसलिए ब्रह्म की उभयलिंगता संभव नहीं है । इसका उत्तर देते हैं- प्रकृतैतावत्वं हि प्रतिषेधति ततोब्रवीति च भूयः | ३|२|२१|| नैतदुतपपद्यते यद् ब्रह्मणः प्रकृतविशेषवत्त्वं " नेति नेति” इति प्रतिषिध्यत इति, तथासति भ्रांतजल्पितायमानत्वात् । न हि ब्रह्मणो विशेषणतया प्रमाणान्तराप्रज्ञातं सदं तदविशेषणत्वेनोपदिश्य पुनस्तदेवानुन्मत्तः प्रतिषेधति । यद्यपि निर्दिश्यमानेषु केचन पदार्था: प्रमाणान्तर प्रसिद्धाः, तथापि तेषां ब्रह्मणः प्रकारत्वमप्रज्ञातमेव, इतरेषां तु स्वरूपं ब्रह्मणः प्रकारत्वं च श्रज्ञातम् । अतस्तेषामनुवादा- संभवादत्रैवोपदिश्यते । प्रतस्तन्निषेधो नोपपद्यते । यस्मादेवं, तस्मात् प्रकृतैतावत्वं ब्रह्मणः प्रतिषेधतीदं वाक्यम् । ये ब्रह्मणोः विशेषाः प्रकृताः, तद् विशिष्टतया ब्रह्मणः प्रतीयमानेयत्ता “नेति नेति” इति प्रतिषिध्यते । “नेति नेति” नैवं नैवं उक्त प्रकारमात्र- विशिष्टं न भवति ब्रह्म, उक्त प्रकार विशिष्टतया ब्रह्मण इयत्ता प्रकृता, साऽत्र इति शब्देन परामृश्यत इत्यर्थः । T ऐसा नहीं हो सकता - " नेति नेति” श्रुति से तो ब्रह्म की वास्तविक विशेषता का निषेध किया गया है । यदि उक्त तात्पर्य मानेंगे तो शास्त्रों
( ६४७ ) की भ्रांतजल्पता होगी। जिन विशेषणों से ब्रह्म की विशेषता बतलाई ज्ञान काही गई, उनके अतिरिक्त किन्हीं अन्य प्रामाणों में तो उन होती नहीं, विशेषता बतलाकर उसी का निषेध करना तो कार्य हो सकता है । यद्यपि निर्दिष्ट विशिष्टताओं में, कुछ अन्य प्रामागों में भी प्रसिद्ध हैं तथापि अन्य वाक्यों से ब्रह्म की प्रकारता ज्ञात नहीं होती । और न अन्य पदार्थों के स्वरूप को ही, ब्रह्म के प्रकार रूप से बनलाया गया है । इसलिए “द्व ेवाव ब्रह्मणो रूपं” इत्यादि वाक्य को, ब्रह्म की विशेषता बतलाने वाले वाक्यों का अनुवाद मात्र नहीं कहा जा सकता । यही मानना होगा कि इस वाक्य में ब्रह्म की प्रकारता का विशेषोल्लेख है । “नेति नेति” से उसका निषेध नहीं हो सकता | जैसी इसकी विशेषता बतलाई गई है उस पर विचारने से तो यही जात होता है कि- “नेति नेति” वाक्य, परब्रह्म की इयत्ता का ही प्रतिषेध करता है । जो ब्रह्म की स्वाभाविक विशेषतायें हैं उससे ब्रह्म की जो विशिष्ट रूप से प्रतीत होने वाली इयत्ता है “नेति नेति” में उसी का प्रतिषेध किया गया है । अर्थात् ब्रह्म जैसा विशिष्ट प्रकार का बतलाया गया है उतना मात्र ही नहीं है “नेति नेति” से उसी का प्रतिषेध किया है उक्त प्रकार से प्रस्तुत ब्रह्म की विशिष्ट इयत्ता को इति शब्द से बतलाया गया है | यतश्च निषेधानंतरं ब्रह्मणो भूयो गुणजातं ब्रवीति, प्रतश्च प्रकृतविशेषणयोगित्वमात्रं प्रतिषेधति । ब्रवीति हि भूयो गुणजातं “न ये तस्मादितिनेत्मन्यत् परमस्त्यथनामधेयं सत्यस्यसत्यमिति प्राणा वै सत्यम् तेषामेव सत्यम्” इति । अयमर्थः इति नेति यद्ब्रह्म प्रतिपादितम् तस्मादेतस्मादन्यवस्तु परं नयस्ति, ब्रह्मणोऽन्यत स्वरूपतो गुरणतश्चोत्कृष्टं नास्तीत्यर्थः । तस्य ब्रह्मणः सत्यस्य सत्यमिति नामधेयं । तस्य च निर्वचनं - " प्राणा वै सत्यम् तेषामेव सत्यम्” इति । प्राणशब्देन प्राणसाहचर्यात् जीवाः परामृश्यन्ते, तेतावत्सत्यम्, वियदादिवत्स्वरूपान्यथाभावरूप परिणामाभावात्- तेषामेव सत्यम् - तेभ्योऽप्येष परमपुरुषः सत्यम् । जीवानां कर्मानुगुण्येन ज्ञानसंकोचविकासौ विद्येते । परमपुरुषस्य त्वपहतपाप्म-
( ९४५ ) नस्तौ न विद्यते, अतस्तेभ्योऽप्येष सत्यम् । प्रतश्चैवं वाक्यशेषोदित- गुणजातयोगात् “नेति नेति” इति ब्रह्मणः सविशेषत्वं न प्रतिषिध्यते, अपितु पूर्वप्रकृतेयत्तामात्रम् । अत उभयलिंगमेव परंब्रह्म । निषेध के बाद भी, ब्रह्म के अधिक गुणों का वर्णन किया गया है जिससे निश्चित होता है कि ब्रह्म की प्रस्तुत, विशिष्ट इयत्तामात्र का ही प्रतिषेध किया गया है । पुनः विशेष गुणों का वर्णन इस प्रकार का है - “नेति से जो ब्रह्म का निरूपण किया गया है उसका तात्पर्य है कि उस ब्रह्म से कुछ अतिरिक्त भिन्न नहीं है, उस ब्रह्म का नाम सत्यों का सत्य है अर्थात् सत्यस्वरूप प्राणों में वही सत्य है " इत्यादि । इस वाक्य का तात्पर्य है कि “नेति नेति” से जो ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है, उससे कुछ परे नहीं है अर्थात् परमात्मा से कोई गुणों में उत्कृष्ट नहीं है । इसीलिए वह सत्यों का सत्य है । प्राण शब्द से प्राणों के सहचारी जीवों का उल्लेख है अर्थात् वे भी सत्य हैं । उनका आकाश आदि की तरह स्वरूप का अन्यथाभाव परिणाम नहीं होता इसलिए वे सब सत्य हैं. उनमें भी यह ब्रह्म सत्य हैं । इससे निश्चित होता है कि- " नेति नेति” ब्रह्म की सविशेषता का प्रतिषेध नहीं करता अपितु प्रस्तुत इयत्ता मात्र का प्रतिषेधक है । इसलिए वह ब्रह्म दोनों प्रकार की विशेषता वाला सिद्ध होता है । ब्रह्मणः प्रमाणान्तरगोचरत्वेन तत्संबंधितया मूर्त्तामूर्त्तादि रूपानु- वादेन तन्निषेधासंभवात् प्रकृतेयत्ताप्रतिषेध उक्तः, तदेव प्रमाणान्तरा गोचरत्वं दृढयति । ब्रह्म जब अन्य किन्हीं प्रमाणों से ज्ञेय नहीं हैं तब उन्हें मूर्त्तअमूर्त्त बतलाकर प्रतिषेध करना भी संभव नहीं है, इसलिए उक्त प्रसंग में इयत्ता का प्रतिषेध ही निश्चित होता, इस बात को अन्य प्रमाणों से सिद्ध करते हैं तदव्यक्तमाह हि |३|२|२२|| तत्-ब्रह्म प्रमाणान्तरेण न व्यज्यते श्राह् हि शास्त्रं “न संदृशे ( ९४६ ) तिष्ठतिरूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् " न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा " इत्यादि । वह ब्रह्म किन्हीं अन्य प्रमाणों से वाच्य नहीं है, जैसा कि शास्त्र का वचन है- " इसका स्वरूप दृष्टि पथ पर आरूढ़ नहीं होता, कोई इसे इन नेत्रों से देख नहीं सकता “वह नेत्र और वाणी से ग्राह्य नहीं है” इत्यादि । हेत्वन्तरं चाह और कारण भी बतलाते अपि संराघने प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् | ३|२|२३|| अपि च संराधने - सम्यक् प्रीणने भक्तिरूपापन्ने निदिध्यासन एवास्य साक्षात्कारः । नान्यत्रेति श्रुतिस्मृतिभ्यामवगम्यते- " नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन यमेवैष बृणुते तेन लभ्यः तस्यैष प्रात्मा विवृणुते तनूं स्वाम्” ज्ञानप्रसादेन विशुद्ध सत्वः ततस्तु तं पश्यति निष्कलंध्यायमानः” इति श्रुतिः । स्मृतिरपि - " नाहं वेदैनं तपसा न दानेन न चेज्यया" भक्तया स्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन, ज्ञातुं द्रष्टुं च त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप" । इति, भक्तिरूपापन्नमेवोपासनं संराधनं तस्य प्रीणनमिति पूर्वमेवोक्तम श्रतो निदिध्यासनाय ब्रह्मस्वरूपमुपदिशत् “द्वेवाव ब्रह्मणः” इत्यादि शास्त्रं ब्रह्मणो मूर्त्तामूरूपद्वयादिविशिष्टतां प्रागसिद्धां नानुवदितुं क्षमम् । संराधन अर्थात् प्रेमाभक्ति रूप निदिध्यासन से ही साक्षात्कार होता है, अन्य उपायों से नहीं ऐसा श्रुति स्मृतियों से ही निश्चित होता है । जैसे कि - “यह परमात्मा, प्रवचन - बुद्धि या अधिक शास्त्राभ्यास से लभ्य नहीं है, जिसे वह स्वयं वरण करते हैं, उसे ही वह मिलते हैं, वे अपने को उसके समक्ष प्रकट कर देते हैं “पहिले ज्ञान प्रसाद द्वारा चित
1 ६५० ) शुद्ध होता है, बाद में ध्यान करते-करते उस अखंड स्वरूप का दर्शन होता है " इत्यादि श्रुति प्रमाण हैं । स्मृति में भी जैसे - " मैं वेद-तप-दान-यज्ञ आदि किसी से भी दृष्ट नहीं हूँ एकमात्र अनन्य भक्ति से ही मुझे इस प्रकार देखा जा सकता है ’ एकमात्र भक्ति से ही मुझे देखा या समझा जा सकता ।” इत्यादि उक्त प्रकार की भक्तिरूपता को प्राप्त उपासना को ही संराधन कहते हैं । उस परमात्मा की प्रियता ही महत्व रखती है ऐसा हम प्रथम ही बतला चुके हैं । इस प्रकार के निदिध्यासन के लिए ब्रह्म के स्वरूप का “द्ववाव ब्रह्मणः” इत्यादि से उपदेश दिया गया है । यह शास्त्रवचन । निदिध्यासन के लिए मूर्त अमूर्त्त दो रूपों का वर्णन करता है, इसे अनुवाद मात्र नहीं कह सकते । प्रकाशादिवच्चावै शेष्यं प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात | ३ |२| २४ ॥ 1. इतश्च प्रकृतैतावत्वमेव प्रतिषेधति, न मूर्त्तामूर्त्तादिविशिष्टत्वम्, यतः साक्षात्कृतपरब्रह्मस्वरूपाणां वामदेवादीनां दर्शने प्रकाशादिवत्, ज्ञानानंदादिस्वरूपवन्मूर्त्तादिप्रपंचविशिष्टताया श्रपि ब्रह्मगुणत्वा- वैशेष्यं प्रतीयते “तद्ध तत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदे अहंमनुरभवं, सूर्यश्च” इत्यादि । । ब्रह्मस्वरूप भूतप्रकाशानंदादिश्व तेषां वामदेवादीनां संराधनात्मके कर्मण्यभ्यासादुपलभ्यते । तदवश्चाभ्य- स्तत्संराधनानां तेषां मूर्त्तामूर्तादिविशिष्टत्वमप्यविशेषेण प्रतीयत इत्यर्थः । इसलिए भी इयत्ता का प्रतिषेध किया गया प्रतीत होता है कि वामदेव आदि ऋषियों के साक्षात्कार में अनुभूत प्रकाशादि अर्थात् ज्ञान आनंद आदि स्वरूप की तरह, मूर्त अमूर्त आदि की विशिष्टता भी, जो कि ब्रह्म की गुणरूप है, उसकी कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती “बामदेव मे ब्रह्म का दर्शन कर विचार किया कि मैं ही मनु हुआ था, एवं मैं ही सूर्य हुआ था । " इस प्रसंग से ज्ञात होता है कि ब्रह्म के स्वरूपभूत प्रकाश मानंद आदि, वामदेव आदि के साधनात्मक कर्म में, अभ्यास से हो प्राप्त
( १५१ ) हुए। उसी प्रकार संराघन में अभ्यस्त उन लोगों के समक्ष मूर्त अमूर्त्तं आदि जगतात्मभाव समानरूप से अनुभूत होता है । उक्त ब्रह्मण उभयलिंगत्वमुपसंहरति- उक्त ब्रह्म की उभयलिंगता का उपसंहार करते हैं - अतोऽनंतेन तथाहि लिंगम् | ३|२|२५|| अतः, उक्त हेतुभिर्ब्रह्मणः, अनंतेन कल्याणगुणगणेन विशिष्टत्वं सिद्धम् । तथाहि सत्युभयलिंगम् ब्रह्मोपपन्नं भवति । ऊपर कहे गए हेतुओं से, ब्रह्म की अनंत कल्याणगुणों की विशिष्टता सिद्ध होती है और इसी से ब्रह्म की उभयलिंगता भी सिद्ध होती है । ६ श्रहिकुंडलाधिकरणः- उभयव्यपदेशात्त्वहिकुंण्डलवत् | ३|२|२६|| मूर्त्तामूर्त्तात्मकस्य श्रचित् प्रपंचस्यब्रह्मणोरूपत्वं “द्वेवावब्रह्मणो रूपे” इत्यादिनोपदिश्यते “अथात श्रादेशो नेति नेति” इति मूर्त्तामूर्त्ताचिदवस्तुरूपतया ब्रह्मण इयत्ता प्रतिषिध्यते । “न ह्यतस्मादिति नेत्यन्यत् परमस्ति " इति ब्रह्मणोऽन्यदुत्कृष्टं नास्तीति प्रतिपादितम् । तदुपपादनाय " अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम्” इति प्राणशब्दनिर्दिष्टेभ्यश्चेत नेभ्योऽप्येष सत्यमिति कदाचिदपि ज्ञानादि संकोचाभावादुक्तम्” । तथा - " प्रधानक्षेत्रज्ञ पतिर्गुणेश : " " पति विश्वेश्वरस्यात्मेश्वरम् “नित्योनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्” इत्यादि श्रुतेश्चायमर्थोऽवगम्यते । तस्याचिद्वस्तुनो ब्रह्मरूपत्वप्रकार इदानीं चिन्त्यते ब्रह्मणों निर्दोषत्व सिध्यर्थम् - किमस्याचिदवस्तुनो ब्रह्मरूपत्वमहिकुंडल न्यायेन, उत प्रभाप्रभावतोरिवैकजातियोगेन, उत जीवस्येव विशेषणविशेष्यत - यांशांशिभावेन इति । इह स्थाप्यमानं विशेषणविशेष्यभावमंगी कृत्य
( ६५२ ) “प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टांतानुपरोधात् " तदन्यत्वमारंभणशब्दादिभ्यः सूक्ष्म चिर्दाचिदवस्तुविशिष्टा ब्रह्मणः इत्यत्र वस्तुविशिष्टस्योत्पत्तिरनन्यत्वं चोक्तम् । स्थूलचिदचिद श्रुति से मूर्त अमूर्त्त गया है । तथा “नहि से उत्कृष्ट कुछ भी सत्यस्य सत्यमिति” मूर्त्त अमूर्त्त जगत् प्रपंच को, ब्रह्म का रूप “द्व ेवाव ब्रह्मणो” में बतलाया गया है । " अर्थात श्रादेशो नेति नेति” जड़वस्तुरूप ब्रह्म की इयत्ता का निषेध किया एतस्मात् " श्रुति से कहा गया है कि उस ब्रह्म नहीं है। उसके समर्थन के लिए “अथनामधेयं इत्यादि श्रुति से प्राण शब्द वाच्य चेतन जीवों की अपेक्षा, परमात्मा की सत्यता का प्रतिपादन किया गया है । परमात्मा को परम सत्य इसलिए बतलाया गया है कि उसकी ज्ञान शक्ति का कभी संकोच नहीं होता । " प्रकृति पुरुष का भी वह ईश्वर और गुणाधिपति है “उस जगत के पति और आत्मा के स्वामी को " उस नित्यों के नित्य चेतनों के वेतन को " इत्यादि श्रुतियाँ भी उक्त तात्पर्य की बोधिका हैं । ब्रह्म को निर्दोषता सिद्ध करने के लिए यहाँ, उसी अचित् वस्तु की ब्रह्मरूपता के विचार करते हैं कि इसकी ब्रह्मरूपता अहिकुंडल की तरह, प्रभा और प्रभावान की तरह एक जातीय है? अथवा जीव की तरह विशेषण विशेष्यभूत अंशांशी भाववाली है? विशेषण विशेष्य भाव ही यहाँ स्थापित करना होगा, इस पक्ष को स्वीकार करके - प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टांता -नुपरोधात्” और " तदन्यत्वमार मरणशब्दादिभ्यः " इन दो सूत्रों में, सूक्ष्म चेतनअचेतन विशिष्ट ब्रह्म से, स्थूल चेतन अचेतन वस्तु विशेष की उत्पत्ति और अनन्यता का प्रतिपादन कर चुके हैं । प्रकार का किं युक्तम् ? श्रहिकुंडलवदिति, कुतः ? उभयव्यपदेशात्- “ब्रह्मैवेदं सर्वम्” इति तादात्म्यव्यपदेशात् “हंताहमिमास्त्रित्रोदेवता: “श्रनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य” इत्यादि भेदव्यपदेशाश्च श्रहेः कुंडलभाव- ऋजुभाववत् तस्यैव ब्रह्मणः संस्थान विशेष एवाचिदवस्तूनि । । ऊपर का कौन सा पक्ष युक्तिपूर्ण है ? इस पर विचारने से अहिकुंडल की तरह ही, ब्रह्म और मूर्त अमूर्त्त जगत का संबंध प्रतीत होता है । “यह सब कुछ ब्रह्म ही है” ऐसे तादात्म्यपरक अभेद के उल्लेख से तथा
( ६२३ ) “इन तीनों देवताओं में श्रात्मा रूप से प्रवेश करके” इत्यादि भेद के उल्लेख से, सर्प के कुंडलभाव और सीधे सपाट भाव की तरह सारी जड़ वस्तुएं, ब्रह्म की संस्थान विशेष रूप सिद्ध होती हैं । प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात् | ३|२|२७|| वा शब्द: पक्षव्यावृत्यर्थः, ब्रह्मस्वरूपस्यैवाचिद्रूपेणावस्थाने भेदश्रुतयो ब्रह्मणोऽपरिणामित्ववादिन्योऽपि बाधिताभवेयुः प्रतो यथा तेजस्त्वेन प्रभातदाश्रयोरपितादात्म्यम्, ब्रह्मणोरूपत्वमित्यर्थः । एवमचित् प्रपं वस्य प्रपंचस्य पूर्व पक्ष के सिद्धान्त का निवारक सूत्रस्थ वा शब्द है । स्वरूपतः ब्रह्म ही यदि अचेतन पदार्थों के रूप में स्थित माने जावेंगे तो भेद और अपरिणामता की प्रतिपादिका श्रुतियाँ निरर्थक हो जावेंगी, इसलिए तेजस्वितारूप से, प्रभा और उसके आश्रय का जैसा तादात्म्य होता है, वैसी ही अचेतन प्रपंच की भी, ब्रह्मरूपता है । पूर्ववद् वा | ३|२|२८|| वा शब्द: पक्षद्वयव्यावृत्यर्थः । एकस्यैव द्रव्यस्यावस्था विशेषयोगे ब्रह्मस्वरूपस्यैवाचिद्रव्यरूपत्वात् उक्तदोषादनिर्मोक्षः । अथप्रभातदाश्रययोरिवाचिद्ब्रह्म शो बृहत्वजातियोगमात्रम्, एवं तहि श्रश्वत्वगोत्वत् ब्रह्मापीश्वरे चिदचिदवस्तुनोश्चानुवर्तमानं सामान्यमिति सकलश्रुतिस्मृतिभ्यवहारविरोधः । सूत्रस्थ वा शब्द उक्त दोनों पक्षों का निवारक है । यदि एक ही द्रव्य की अवस्था विशेष योगिता मानो जाय तो ब्रह्म स्वरूप की ही अचिद् वस्तु रूपता सिद्ध हो जावेगी, जिससे कि पूर्वोक्त दोष से छटकारां नहीं मिल सकेगा। यदि प्रभा और उसके श्राश्रय की तरह, अचेतन और ब्रह्म में केवल ब्रह्मत्व जातिमात्र का ही संबंध मानते हैं तो अश्वत्व और गोत्व आदि जातियों की तरह, ईश्वर एवं चेतन अचेतन वस्तु से अनुगत ब्रह्म भी एक सामान्य जाति मात्र रह जायगा, जो कि सभी श्रुति स्मृति शास्त्रीय मत के विरुद्ध हैं ।
( ६५४ ) ब्रह्मांशत्वम् विशेषणविशेष्ययोः पूर्ववदेव “शोनानाव्यपदेशात् " प्रकाशादिवत्तुनैवंपरः” इति जीववत् पृथक् सिध्यन हे विशेषणत्वेनाचित्वस्तुनो विशिष्टवस्त्वेकदेशत्वेनाभेदव्यवहारोमुख्यः, स्वरूपस्वभावभेदेन भेदव्यवहारो मुख्यः, ब्रह्मणो निर्दोषत्वं च रक्षितम् । तदेवं प्रकाशजाति गुणशरोराणां मणिव्यक्तिगुण्यात्मनः - प्रत्यपृथक्सिद्धिलक्षण विशेषरणतया यथांशत्वम्, तथेह जीवस्याचिद्- वस्तुनश्च ब्रह्म प्रत्यंशत्वम् । इसलिए पूर्व मत के अनुसार " अंशोनानाव्यपदेशात् " प्रकाशादिवत्तु नैवं परः " इन दो सूत्रों में जीव की जैसी ब्रह्मांशता बतलाई गई है वैसी ही यहाँ भी, ब्रह्म से भिन्न न कहलाने योग्य अचित् वस्तु की भी ब्रह्मांशता सिद्ध होती है । विशिष्ट वस्तु के एकदेशीय होने से, मुख्य रूप से अभेद व्यवहार होता है, तथा विशेषण विशेष्य में स्वरूप का भेद होने से, मुख्यरूप से भेद का व्यवहार होता है, इस प्रकार ब्रह्म की निर्दोषता सुरक्षित हो जाती है । इससे निश्चित होता है कि जैसे- प्रकाश ज्योति-
- गुण और शरीर जैसे मणि व्यक्ति और गुणी आत्मा को छोड़ कर अलग टिक नहीं सकते, यही उनकी अपृयक मिद्ध विशेषता है, इसीसे वे, मणि आदि अंश हैं, वैसे ही, जीव और जड़ वस्तु की, ब्रह्मांशता है । प्रतिषेधाच्च | ३|२२६॥ " स वा एष महानज प्रात्माऽजरोऽमरः " नास्यजरयैतत् जीयंति इत्यादिभिः ब्रह्मणोऽचिद्धर्मप्रतिषेधाच्च विशेषणविशेष्यत्वेनैवांशां- शिभाव इत्यर्थः । अतः सूक्ष्मचिदचिद वस्तुविशिष्टं कारण भूतं ब्रह्म, स्थूलचिदचिद्वस्तुविशिष्टं कार्यंभूतं ब्रह्मेति, कारणात्कायंस्या- नन्यत्वम् । कारणभूतब्रह्मविज्ञानेन कार्यस्यज्ञाततेत्यादि सर्वमुपपन्नं, ब्रह्मणो निर्दोषत्वं च रक्षितम् । ब्रह्मणो निर्दोषत्वेन कल्याण- गुणांकरत्वेन । चोभयलगत्वमपि सिद्धम् । 1
( ६५५ ) “यह आत्मा महान् अज और जरा मरण रहित है” इसका शरीर जरा से जीर्ण नहीं होता “इत्यादि वाक्यों से, ब्रह्म के अचित् धर्मों का प्रतिषेध किया गया हैं, जिससे अचित् और ब्रह्म का विशेषण विशेष्य अचेतन विशिष्ट भावरूप अंशांशितभाव निश्चित होता है । सूक्ष्म चेतन ब्रह्म कारण स्वरूप है तथा स्थूल चेतन अचेतन विशिष्ट ब्रह्म कार्य अनन्यता है । कारण ब्रह्म के जान बातों का समाधान हो जाता है इस प्रकार ब्रह्म की निर्दोषता स्वरूप है, इसलिए कारण से कार्य की लेने से कार्य की जानकारी आदि सभी तथा निर्दोषता भी सुरक्षित हो जाती है और कल्याण गुणाकरता ये दोनों सिद्ध हो जाती है । ७ पराधिकरणः- परमतः सेतन्मान्संबंध भेदव्यपदेशेभ्यः | ३|२| ३०॥ इदानीमस्मात्परस्मात् जगन्निमितोपादानरूपपरमकारणात् पर- ब्रह्मणः परमपि किचित्तत्वमस्तीति कैश्चित् हेत्वाभासैराशंक्य निराक्रियते । प्रस्योपास्यस्य निर्दोषत्वानवधिकातिशया संख्येयकल्याण- गुणाकरत्यस्थेन । तत्रेयमाशंका यविवं तश्रेयमाशंका यदिदं परं ब्रह्मोभयलिंगं, एतस्मानिखिल जगत्कारणात् परमपि किचित्तत्वमस्ति । कथम् ? “अथ य श्रात्मा स सेतुविधृतिः” इत्यस्यपरस्य सेतुव्यपदेशात् । सेतु शब्दस्य च लोके कूलांन्तर प्राप्तिहेतौ प्रसिद्ध रितोऽन्यदनेन प्राप्तव्यमस्तीति गम्यते । तथा-एतं सेतुं तीर्त्वाऽन्धः सन्नधो भवति " इति तरितव्यतया चास्याभिधीयते प्रतश्चान्यत्प्राप्यमस्ति । उन्मानव्यपदेशाच्च - उम्मितं परिमितम् इदं परंब्रह्म “चतुष्पाद ब्रह्म” षोडशकलम्” इत्युन्मानव्यपदेशात् । स चायमुन्मानव्यपदेशः तेन सेतुना प्राप्यस्यानुन्मितस्यास्तितां द्योतयति । तथा संबंघव्यपदेशश्च सेतु सेतुमतो: प्रापकत्व प्राप्यत्वलक्षणोदृश्यते “अमृतस्य परं सेतुं दग्घेश्वनमिवानलं “अमृतस्यैष सेतुः” इति । अंतश्च परात्परमस्ति ।
( ६५६ ) भेदेन च परात्परं व्यपदिश्यते - “परात्परं पुरुषमुपैति " परात्परं यन्महतो महान्तम्” इति च । तथा तेनेदं पूर्वं पुरुषेण सर्वम्” ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्” इति । अत एभ्यो हेतुभ्यः परस्माद् ब्रह्मणः परमपि किचिदस्तीति गम्यत इति । अब जगत के निमित्तोपादान परम कारण इस परब्रह्म से अतिरिक्त कोई तत्त्व अवश्य है, ऐसी हेत्वाभास की दृष्टि से शंका करके उसका निराकरण करते हुए, ब्रह्म के उपास्य रूप की निर्दोषता और श्रतिशय कल्याणगुणाकरता की सिद्धि करते हैं । आशंका यह है कि यदि यह ब्रह्म दोनों प्रकार का है, तो संपूर्ण जगत का कारण कोई और ही तत्त्व निश्चित होता है । “यह जो आत्मा है, वही सब लोकों का विधारक सेतु है” इत्यादि से किसी दूसरे की सेतुता का ही निर्देश प्रतीत होता है, क्योंकि-लोक में सेतु शब्द इस पार से उस पार तक पहुँचाने वाले, आधार रूप पुल के अर्थ में प्रयुक्त होता है, इसलिए कोई अन्य प्राप्तव्य ही प्रतीत होता है तथा - " इस सेतु को पार कर अन्धा भी अनन्धा हो जाता है” ऐसी पार करने वाली बात स्पष्ट कही गई है । उन्मान के व्यपदेश से भी यही बात निश्चित होती है उन्मित प्रर्थात् ब्रह्म परिमित है जैसा कि - “ब्रह्म चतुष्पद है” सोलह कला वाला है” इत्यादि उन्मान बोधक वाक्यों से ज्ञात होता है । ऐसा उन्मान का व्यपदेश सेतु द्वारा प्राप्य अनुमित के अस्तित्व का द्योतन करता है । इन वाक्यों में प्राप्य प्रापक तथा सेतु - सेतुमान का संबंध दिखलाया गया है । " जली हुई लकड़ी के समान अमृत के सेतु को" तथा “यह अमृत का सेतु है” इत्यादि से ज्ञात होता है कि परब्रह्म से भी कोई पर है । पर से पर की भिन्नता भो - " पर को अपेक्षा भी पर को प्राप्त करता है “वह पर से भी पर औरं महान् से महान है” इत्यादि वाक्यों में बतलाई गई है । तथा - “उस पुरुष द्वारा ही सब परिपूर्ण है, जो कि अतिशय परवर्ती, नौरूप, निरामय है” इत्यादि से भी, परब्रह्म से भी कोई पर है ऐसी प्रतीति होती है । सिद्धान्तः - एवं प्राप्त ऽभिधीयते - इस शंका पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं.
सामान्यात्त |३|२|३१॥ 1 ९५७ ) तु शब्द: पक्षं व्यावर्त्तयति, यत्तावदुक्तं सेतुव्यपदेशात् परात्परमस्तीति तन्नोपपद्यते । न ह्ययमत्र किचित्प्राप्यं प्रति सेतु रुच्यते " एषां लोकानामसंभेदाय" इति सेतु सामान्येन सर्वलोका- संकरकरत्वश्रुतेः । सिनोतिवनातिस्वस्मिन् सर्वं चिदचिद् वस्तुजातं प्रसंकीर्णमिति सेतुरुच्यते । " एतं सेतुं तीर्त्वा" इति तीर्त्वा" इति तरतिश्च प्राप्तिवचनः । यथा " वेदान्तं तरति" इति । तु शब्द उक्त पक्ष का निवारक है । जो लोग यह कहते हैं कि -सेतु के उल्लेख से पर से भी किसी अन्य पर तत्त्व का बोध होता है, वह उनकी मिथ्या धारणा है । इस प्रसंग में किसी प्राप्य के लिए, सेतु का साधन रूप से उल्लेख नहीं किया गया है । " इस समस्त जगत के असंभेद (असांकर्य ) के लिए" इत्यादि वाक्य में सेतु के समान परब्रह्म की भी, सांकर्यं निवारकता बतलाई गई है । जो अपने में चेतन अचेतन समस्त को असंकीर्ण भाव से बन्धन करे उसे ही सेतु कहते हैं [षिधातु से सेतु शब्द बना है, यह धातु बंधन अर्थ का द्योतन करती है] “इस सेतु की पार करके " इत्यादि तृ धातु प्राप्ति बोधक है, जैसे कि - " वेदांतं तरति ’ का अर्थ - “वेदांत को प्राप्त करता है” किया जाता है । बुद्ध यर्थः पादवत् | ३|२|३२|| योऽयं " चतुष्पाद ब्रह्म” षोडशकलम् " पादोऽस्य विश्वाभूतानि” इत्युन्मानव्यपदेश: स बुद्ध्यर्थः - उपासनार्थः । " सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म “इत्यादिभिर्जगत्कारणस्य ब्रह्मणोऽपरिच्छिन्नत्वावगमात् स्वत उन्मितत्वासंभवात् । जगत्कारणत्वं हि तस्यैव श्रूयते । " तस्माद् वा एतस्मादात्मन प्राकाशः संभूतः " “सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेयति” इति । अतो यथा - " वाक्पादः प्राणः पादः चक्षुः पादो मनः पादः " " इत्यादिना ब्रह्मणो वागादिपादव्यपदेश उपासनार्थः एवमयमपि । 7
( ९५० ) जो यह " चारपादवालाब्रह्म " षोडशकलावाला” इसके एक पाद में संपूर्ण विश्व है” इत्यादि में उन्मान का व्यपदेश है वह बुद्धि अर्थात् उपासना के लिए है । " सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" इत्यादि से जगत के कारण ब्रह्म की अपरिच्छिन्नता प्रतीत होने से, उसका वास्तविक उन्मान संभव नहीं है । ब्रह्म की जगत कारणता का भी उक्त प्रसंग में स्पष्ट उल्लेख है- " उस ब्रह्म से आकाश हुआ " उसने कामना की अनेक होकर जन्म लूं" इत्यादि । “वाणीरूपपाद, चक्षुरूपपाद, प्राणरूपपाद मनरूपपाद " इत्यादि में वाणी आदि को ब्रह्म का चरण कहा गया है, वह केवल उपासना के लिए है; यही उक्त उन्मान का भी तात्पर्य है । स्वयमनुन्मितस्यकथमुपासनार्थतयाऽप्युन्मान संभवः ? तत्राह - जब वह स्वयं अनुन्मित है तो उपासना के लिए उनकी उन्मान कैसे संभव है ? इसका उत्तर देते हैं- स्थान विशेषात् प्रकाशादिवत् |३|२|३३|| प्रतिपन्नवागादिस्थानविशेषरूपोपाधिभेदात्तत्संबंधितयोन्मित- त्वानुसंधानं संभवति । यथा प्रकाशादेविततस्य वातायनघटादि- स्थानभेदैः परिच्छिन्नानुसंधान संभव इत्यर्थः । जैसे कि व्यापक प्रकाश, खिड़की घट आदि विभिन्न स्थानों में प्रविष्ट होकर उन उन स्थानों वाला कहलाता है, उसकी उनमें खोज की जाती है, वैसे ही अनुमित विभु परमात्मा भी, वागादि इन्द्रियों में अनुस्यूत होने से, उन इन्द्रियों में खोजा जाता है । उपपत्तेश्च | ३| २|३४|| यदुक्तम् - “अमृतस्यैष सेतुः” इति प्राप्यप्रापकसंबंधव्यपदेशात् प्रापकात् परं प्राप्यमस्तीति तन्न, प्राप्यस्यपरंपुरुषस्य स्वप्राप्तौ स्वस्यैवोपायत्त्वोपपत्तेः । " नायमात्माप्रवचनेन लभ्यो न मेघया न बहुना श्रुतेन, यमैवेषवृगृते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्” इत्यनन्योपायत्वश्रवणात् । ( × ૨ २५ ६ ) जो यह कहा कि - " अमृतस्यैष सेतुः " श्रुति से प्राप्य प्रापक संबंध बतलाया गया है जिससे प्रापक सेतु भिन्न, किसी अन्य प्राप्य की प्रतीति होती है । सो बात नहीं है, प्राप्य परं पुरुष स्वयं ही, प्राप्ति का उपाय बतलाया गया है, जैसा कि - “यह परमात्मा, शास्त्राभ्यास से लब्ध नहीं है, जिसे यह स्वयं प्रवचन - मेधा या विशेष वरण करता है, उसे ही प्राप्त होता है, उसके समक्ष स्वयं अपने को व्यक्त कर देता है ।” इस वाक्य में परमात्मा को प्राप्ति का अनन्य उपाय बतलाया गया है । तथाऽन्यप्रतिषेधात् । ३।२।३५॥ यत्पुनरुक्त - " ततो यदुत्तरतरं" परात्परं पुरुषम् " प्रक्षरात्परतः परः" इत्यादि भेदव्यपदेशात् परात्परमस्तीति - तन्नोपपद्यते तत्रैव ततोऽन्यस्य परस्य प्रतिषेधात् - " यस्मात्परं नामरमस्ति निचिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चिद्" इति । यस्मादपरं परं नास्ति किचित् न केनापि प्रकारेणपरमस्तीत्यर्थः । तथा अन्यत्रापि “नह्येतस्मादितिनेत्यन्यत्परमस्ति " इति । इति नेति निर्दिष्टा दे- तस्माद् ब्रह्मणोऽन्यत्परं न ह्यस्तोत्यर्थः । तथा - " न तस्येशे कश्चन् तस्य नाममहद्यशः” इति । तत् हि जगदुपादानकारणतयाऽनन्तरमुक्तं - “सर्वे निमेषाजज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि “स प्रापः प्रदुधे उभे इमे” इत्यादिना । " अद्द्भ्यः संभूतो हिरण्यगर्भ इत्यष्टौ " इति च जगत् कारणं पुरुषमेनं प्रत्यभिज्ञापयति । और जो यह कहा कि “ततो यदुत्तरतरं” परात्परं पुरुषम् “अक्षरात् परतः परः” इत्यादि भेद परक वाक्यों से, परब्रह्म से पर किसी अन्य तत्त्व की प्रतीति होती है, सो यह कथन भी भ्रामक है, क्योंकि उसी प्रसंग में, परमात्मा से अन्य किसी श्रेष्ठ परतत्त्व का स्पष्ट निषेव किया गया है - " जिनसे श्र ेष्ठ कोई दूसरा नहीं है तथा जिनसे सूक्ष्म और वृहत् भी कोई दूसरा नहीं है” इत्यादि, इसमें जिनसे श्र ेष्ठ कोई दूसरा नहीं है का तात्पर्य है कि किसी प्रकार श्रेष्ठ नहीं है । इसके अतिरिक्त अन्य प्रसंग में
( ६६० ) भी " जैसे- " न हि एतस्मादिति नेति अन्यत परमस्ति" कहा गया, जिसका तात्पर्य है कि इस ब्रह्म की अपेक्षा, कुछ और श्रेष्ठ नहीं है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जैसे- “ कोई भी उसका शासक नहीं है, उसका नाम ही महद्यश है" इत्यादि के बाद ही उसे जगत् का उपादान कारण बतलाया गया है - " उस पुरुष से ही समस्त काल और विद्युत उत्पन्न होते हैं " उस परमात्मा ने इन स्वर्ग और अंतरिक्ष दोनों से जल का दोहन किया “जल से हिरण्यगर्भ हुआ” इत्यादि । सभी श्र ुतियाँ परं पुरुष के ही जगत का परं कारण बतलाती हैं । " ततो यदुत्तरतरं " इति किमुच्यत इति चेत् ? पूर्वत्र - " वेदाहमेतं - पुरुषं महान्तं श्रादित्यवर्णं तमसः परस्तात् तमेव विदित्वाऽति- मृत्युमेतिनान्यः पन्था विद्यतेऽनाय" इति परस्यब्रह्मणो महापुरुषस्य वेदनमेवामृतत्वसाधनं नान्योऽमृतत्वस्य पन्था इत्युपदिश्य तदुपपादनाय " यस्मात्परं नापरमस्ति किचित् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् " वृक्ष इव स्तब्धोदिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम् " इति पुरुषस्य परत्वं तद् व्यतिरिक्तस्य परत्वासंभवं- च प्रतिपाद्य - " ततोयदुत्तरतरं तदरूपमनामयम् य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियंति" इति पूर्वोक्तमथं हेतुतो निगमयति - यदुत्तरतरं पुरुषतत्त्वम्, तदेवारूपमनामयं यतः ततो य एतत् पुरुषतत्वं विदुः, त एवामृता भवंति, श्रथेतरे दुःखमेवापियंति इति । अन्यथोपक्रम विरोधोऽनन्तरोक्ति विरोधश्च । " परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्" इति पूर्वत्र " अक्षरात् परतः परः" इति अक्षरात्- अव्याकृतात् यः परः, समष्टिपुरुषः तस्मात् परो योऽदृश्यत्वादिगुणक: सर्वज्ञः परमपुरुषः, स एवेहापि" परात्परः" इति समष्टिपुरुषात् परत्वेनोच्यते । यदि कहो कि - " ततोयदुत्तरतरं" का क्या उत्तर दोगे? तो सुनो- उक्त प्रसंग के पूर्व में ही - " अंधकार से रहित आदित्य की तरह ज्योतिर्मय इस महापुरुष को मैं जानता हूँ, जीव उसे जानकर मृत्यु का प्रतिक्रमण
( २६१ ) करता है, मोक्षधर्म में जाने के लिए इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है" इत्यादि में, महापुरुष परब्रह्म संबंधी वेदन को हो, अमृतत्व प्राप्ति का साधन रूप, अन्यतम मार्ग बतलाकर उसके समर्थन के लिए “जिसकी अपेक्षा उत्कृष्ट या अपकृष्ट कुछ और नहीं है तथा जिससे अतिसूक्ष्म या महान् भी कुछ और नहीं है वह वृक्ष की तरह स्तब्ध अकेला ही स्वर्ग में स्थित है, उस पुरुष से ही यह सारा जगत परिपूर्ण है” इस प्रकार पुरुष की परता और उससे भिन्न किसी अन्य की परता को असंभव बतलाकर “ततो यदुत्तरतरं” इत्यादि वाक्य में उसी पूर्वोक्त कथन के लिए पुनरुल्लेख करते हुए कहते हैं कि - " वह परब्रह्म परमात्मा आकार रहित और सब प्रकार के दोषों से रहित है, जो इस परब्रह्म परमात्मा को जानते हैं वे अमर हो जाते हैं, इस रहस्य को न जानने वाले अन्य लोग दुःख कोही प्राप्त होते हैं" इत्यादि । उक्त प्रसंग की ऐसी संगति करने से उपक्रम से विरुद्धता होगी तथा परवर्ती वाक्य से भी विपरीतता होगी । “अक्षरात् परतः परः में " अर्थात् अव्याकृत प्रकृति से पर जो समष्टि पुरुष है, उससे भी पर या उत्कृष्ट अदृश्यता आदि गुणों से विशिष्ट सर्वज्ञ परंपुरुष को हो” परात् परं " इत्यादि वाक्य में, परात् अर्थात् समष्टि पुरुष से पर श्रर्थात् श्रेष्ठ बतलाया गया है । अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दादिभ्यः | ३|२|३६|| अनेन ब्रह्मणा सर्वगतत्वम् - सर्वस्यजगतोव्याप्तत्वम् आयाम- शब्दादिभ्यः - सर्वव्याप्तिवाचिशब्देभ्योऽवगम्यमानमस्मात्परं नास्तीत्य- वगमयति । ग्रायामशब्दस्तावत् “तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् " यच किचिज्जगत्यस्मिन् दृश्यते श्रूयतेऽपि वा अन्तर्वंहिश्च तत्सर्वं व्याप्यनारायणः स्थितः " नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं, यद् भूतयोनि परिपश्यति धीराः “प्रादिशब्दात् " ब्रह्मैवेदं सर्वम्" प्रात्मैवेदं सर्वम्" इत्यादयो गृह्यन्ते । श्रत इदं परं ब्रह्मैव सर्वास्मात्परम् । सर्वव्यापकता के बोधक आयाम आदि शब्दों से ज्ञात होता है कि- सारा जगत् ब्रह्म से परिव्याप्त है । ऐसी सर्वगतत्व की प्रतीति हो, ब्रह्म से भिन्न अन्य वस्तु के अभाव का प्रतिपादन करती है । आयाम शब्द
( ९६२ ) का व्याख्यान जैसे- “सारा जगत उस पुरुष से ही पूर्ण है” इस जगत में जो कुछ भी दृष्ट श्रुत है, नारायण उन सभी में बाहर भीतर व्याप्त हैं ‘धीरलोग - नित्य, विभु, सर्वगत, अतिसूक्ष्म, उस भूतयोनि को भलीभाँति ‘देखते हैं ।" इत्यादि “यह सब कुछ ब्रह्म है” यह सब कुछ आत्म्य है" इत्यादि वाक्य ही, सूत्रस्थ आदि पद से अभिप्रेत हैं । इस विवेचन से निश्चित होता है कि- परब्रह्म ही सबसे श्रेष्ठ हैं । ८ फलाधिकररणः- फलमत उपपत्तेः | ३|२|३७|| , उक्तमुपासिसिषोपजननाथं जीवस्य सर्वावस्थासु सदोषत्वं, प्राप्यस्य च परं पुरुषस्य निर्दोषत्वं कल्याणगुणाकरत्वं सर्वस्मात् परत्वं च अतः परमुपासनं विवक्षन्मुपासीनानां परस्मादेवास्मात् पुरुषात्तत्प्राप्तिरूपमपवर्गारव्यं फलमिति संप्रति ब्रूते । उपासना में उत्साह बढ़ाने के लिए, जीवों की सदोषता और प्राप्य परं पुरुष की निर्दोषता कल्याणगुरणाकरता तथा सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है अब उपासना के प्रतिपादन के उद्देश्य से बतलाते हैं कि- उपासकों को परं पुरुष की कृपा से ही, ब्रह्म प्राप्ति रूप मोक्ष भी प्राप्त होता है । तुल्यन्यायतया शास्त्रीय मैहिकामुष्मिकमपि फलम् श्रतएव परस्मात् पुरुषात् भवतीति सामान्येन " फलमतः" इत्युच्यते । कुत एतत् ? उपपत्तेः, स एवहि सर्वज्ञः सर्वशक्तिर्महोदारो यागदानहोमादि- भिरुपासनेनचाराधित ऐहिकामुष्मिक भोगजातं, स्वस्वरूपावाप्ति- रूपमपवर्गं च दातुमीष्टे ; नहि प्रचेतनं कर्म क्षरणध्वंसिकालान्तर भाविफलसाधनं भवितुमर्हति । शास्त्रीय ऐहिक और आमुमिष्क दोनों ही फल, परं पुरुष परमेश्वर से ही प्राप्त होते हैं, ऐसा " फलमत" शब्द से बतला रहे हैं । यह बात उपपत्तेः अर्थात् विवेचन से ही ज्ञात होती है । सर्वज्ञ, सर्वशक्ति निरतिशय,
( ६६३ ) उदार प्रकृति वे परमात्मा ही - दानयज्ञ आदि क्रियाओं और उपासना द्वारा आराधित होकर, ऐहिक और पारलौकिक अनेक प्रकार के भोगों और सारूप्य मुक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं । अचेतन क्षणध्वंसी कर्म, कभी भी कालान्तरभावी फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हो सकता । श्रुतत्वाच्च | ३|२|३८|| " स वा एष महानज प्रात्माऽन्नादोवसुदानः " " एष एव हि श्रानंदयाति" इति भोगापवर्गरूपं फलमयमेव ददातीति हि श्रूयते । ऐसा यह महान् अजन्मा परमात्मा ही अन्न और धन का दाता है “यही सबको आनंदित करता है" इत्यादि श्रुतियों में भी परमात्मा को ही, भोग और प्रपवर्ग का दाता बतलाया गया है । धर्म जैमिनिरत एव | ३|२|३६|| अत एव उपपत्तेः, शास्त्राच्च यागदान होमोपासनरूपधर्म मेव फलप्रदं जैमिनिराचार्यो मन्यते । लोके हि कृष्यादि कर्म, दानादिकं च कर्म, साक्षाद बा, परम्परया वा स्वयमेवफल साधनं दृष्टम्, एवं वेदेऽपि यागदान होमादीनां साक्षात्फलसाधनत्वाभावेऽपि परम्परया अपूर्व द्वारेण फलसाधनत्वमुपपद्यते । तथा - “यजेत्
- स्वर्गकाम: " इत्यादि शास्त्रमपि सिषाधयिषित स्वर्गस्यकर्त्तव्यतया यागाद्यभिदधदन्यथानुपपत्त्या अपूर्वंद्वारेण फलसाधनत्वमवगमयति । आचार्य जैमिनि, पूर्वोक्त प्रकार की युक्ति और शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर, दान-यज्ञ और उपासना रूप धर्म-कर्म को ही फलप्रद मानते हैं । जगत में कृषि आदि और दान भादि कर्मों को ही, साक्षात् या परंपरा से स्वयं ही, फल साधन करते देखा जाता है । वेद में भी, यज्ञ दान होम आदि कर्म साक्षात् फल साधक न होते हुए भी, परम्परा या पुण्य रूप अपूर्व समुत्पादन द्वारा, फल साधक कहे गए हैं । “स्वर्ग की कामना से यज्ञ करना चाहिए” इत्यादि विधि परक शास्त्र वाक्य भी, स्वर्ग की कामना के लिए कर्तव्य रूप से किये जाने वाले यागादि कर्मों की अव- हेलना नहोने पावे, इसलिए अपूर्व द्वारा ही फलसाधनता बतलाते हैं ।
( ९६४ ) पूर्वं तु बादरायणो हेतु व्यपदेशात् | ३|२| 8० ॥ तु शब्दः पक्षव्यावृत्यर्थः, पूर्वोक्तं परं पुरुषस्यैव फलप्रदत्वं भगवान्बादरायणो मन्यते । कुतः ? हेतुव्यपदेशात्- " यज्देवपूजयाम्” " इति देवताराधनभूतयागाद्याराध्यभूताग्निवाय्वादि देवतानामेव तत्तत्फल हेतुतया तस्मिन् तस्मिन्नपि वाक्ये व्यपदेशात् । " वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामोवायुर्वैक्षेपिष्ठा देवता वायुमेवस्वेनभागधेयो. नोपधावति स एवैनं भूति गमयति ’ इत्यादिषु कामिनः सिष घयिषितफलसाधनत्व प्रकारोपदेशोऽपि विध्यपेक्षित एवेति नातत्परत्वशंकायुक्ता । एवमपेक्षितेऽपि फलसाधनत्वप्रकारे शब्दादेवावगते सति तत्परित्यागमश्रुतापूर्वादिपरिकल्पनं च प्रामाणिका न सहते । इस सूत्र में तु शब्द पक्ष का निवारक है । पूर्वोक्त परं पुरुष की ही फल प्रदानता भगवान बादरायण को मान्य है । वे ऐसा, हेतु के उल्लेख के आधार पर मानते हैं । “यज्” धातु देव पूजा के अर्थ में प्रयोग की जाती है । देवता के आराधन रूप यागादि कर्मों के आराध्य, अग्नि वायु आदि देवताओं को ही, फलों के हेतु रूप से, वाक्यों में उल्लेख किया गया है । " वायु देवता को श्वेत बकरा की बलि प्रदान करो वायु क्षिप्रगामी देवता कहे गए हैं, वायु अपने भाग्य से ही दौड़ सकते हैं, वायु उसे ऐश्वर्य प्रदान करते हैं" इत्यादि में - फलाभिलाषी व्यक्ति की, अभीप्सित फल की साधना प्रणाली को बतलाने के लिए, विधि की अपेक्षा बतलाई गई है | इसमें इससे अतिरिक्त कोई और तात्पर्यार्थ की, कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार अपेक्षित फल साधनता के प्रकार की, शास्त्रावगति हो जाने के बाद भी उसको न मानना अथवा अश्रुत अपूर्व की कल्पना करना, विवेचकों को कदापि सह्य नहीं हो सकता । लिंगादयोऽपि देवताराधनभूतयागादेः प्रकृत्यर्थस्य कर्तृव्यापार साध्यतां व्युत्पत्तिसिद्धां शब्दानुशासनानुमतामभिदधति, नान्यद लौकिकमिति प्रागेवोक्तंम् । तदेवं “वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता" इत्यादि "
शब्दात्वाय्वादीनां ( ६६१ ) फलप्रदत्वमवगम्यते । वाय्वाद्यात्मना च परमपुरुषएवाराध्यतया फलप्रदायित्वेन चावतिष्ठत इति श्रूयते - " इष्टापूर्त बहुधा जातं जायमानं विश्वं विभर्ति भुवनस्य नाभिः तदेवाग्निस्तद्वायुस्तत्सूर्यस्तदु चन्द्रमा ” इति । श्रन्तर्यामि ब्राह्मये च “यो वायौ तिष्ठन् यस्यवायुः शरीरम्” योऽग्नौ तिष्ठन्” य आदित्ये तिष्ठन्" इत्यादि श्रूयते । विधिलिंग के प्रत्यय और यज् आदि धातु के सहयोग से ही विधि परक वाक्यों का विवेचन किया जा सकता है । लिंग आदि भी, देवताराधन के साधन भूत याग आदि, यज् धातु के अर्थ की, शास्त्र सम्मत यौगिक अर्थ के अनुसार, कत्तु व्यापार संपादनीयता का ही समर्थन करते हैं। किसी अलौकिकता का प्रतिपादन नहीं करते, ऐसा कह भी चुके हैं । इसी प्रकार “वायु शीघ्रगामी देवता है” इत्यादि से वायु की फलप्रदानता प्रतीत होती है । वायु आदि के रूप से ही, परम् पुरुष आराध्य होकर फलप्रदान करने के लिए उपस्थित होते हैं, ऐसा श्रुति प्रमाण है- “जगत के नाभिस्वरूप इष्टापूर्त्त आदि कर्म के फलस्वरूप, जाय और जायमान इस विश्व को धारण करते हैं, वही वायु अग्नि, वही सूर्य और चंद्र हैं । इसी प्रकार अन्तर्यामी ब्राह्मण में भी जैसे- “जो वायु में स्थित हैं वायु जिनका शरीर है “जो अग्नि में स्थित हैं” जो मादित्य में स्थित हैं” इत्यादि । स्मयंते च - “यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेवविदधाम्यहम् " सा तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते, लभते च ततः कामान् मयैव विहितान हि तान्” इति “अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च “इति । प्रभुः फलप्रदायीत्यर्थः । “देवान् देवयजोयान्ति मद्भक्तायान्ति मामपि " यान्तिमयाजिनोऽपिमाम् " इति च । स्मृति में भी इसी प्रकार - " जो जोभक्त श्रद्धापूर्वक जिस जिस मूर्ति की अर्चना करते हैं, मैं उन भक्तों को तदनुसार ही श्रद्धा प्रदान करता हूँ। वे लोग वैसी ही श्रद्धावाले होकर उन रूपों की आराधना का प्रयास करते हैं और मेरे द्वारा प्रदत्त अभीष्ट कामनायें प्राप्त करते हैं ।
( ६६३ ) मैं हो सब यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ “प्रभु का तात्पर्य है फल प्रदायी । “देवताओं के उपासक देवताओं को और मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं” “मेरे उपासक मुझे ही प्राप्त होते हैं ।” इत्यादि । लोके च कृष्यादिभिर्विचित्ररूपान् द्रव्यविशेषान् संपाद्यतैः राजानं भृत्य द्वारेण साक्षाद्वाऽर्चयन्ति श्रर्चितश्च राजा तत्तदर्चना- नुगुणं फलं प्रयच्छन् दृश्यते । वेदांतास्त्वतिपतितसकलेत र प्रमाण संभावनाभूमि निरस्तसमस्ता विद्यादिदोषगंधं स्वाभाविकानवधिका- तिशयापरिमितोदार गुणसागरं पुरुषोत्तमं प्रतिपाद्य, तादाराधन- रूपाणि च यागदान होमात्मकानि स्तुतिनमस्कारकीर्तनार्चन ध्यानानि न तदाराधनानि श्राराधितात् परस्मात्पुरुषाद् भोगापवर्गरूपं फलं च वदतीति सवं समंजसम् । , लोक में भी देखा जाता है कि कृषि आदि द्वारा अनेक प्रकार के प्रश्नों का उत्पादन करके, स्वयं या भृत्य द्वारा उस अर्जित उत्पादन से राजा की अर्चना की जाती है, अर्चित होकर राजा अर्चना के अनुरूप फल प्रदान करते हैं । वेदांत शास्त्र जो कि - शब्द के अतिरिक्त किसी अन्य से ज्ञेय नहीं है, ऐसे अविद्यादि दोषों से शून्य स्वाभाविक सर्वातिशायो, निरवधि अपार कल्याणमय गुणों के सागर उन पुरुषोत्तम को ही उनके आराधनात्मक याग-दान होम आदि क्रियाओं तथा-स्तुति नमस्कार कीर्त्तन, अर्चना, ध्यान रूप आराधना के अनुसार, भोग मोक्ष रूप फल महाता बतलाते हैं । यही सुसंगत सिद्धान्त है । तृतीय अध्याय द्वितीय पाद समाप्त
३
तृताय अध्याय तृतीय पाद १ सर्व वेदांत प्रत्ययाधिकरणः- सर्द वेदांत प्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात् । ३।३१ ॥ , उक्त ब्रह्मोपा सिसिषोपजननाय वक्तव्यं ब्रह्मणः फलदायित्वपर्यन्तम् इदानीं ब्रह्मोपासनानां गुणोपसंहार विकल्पनिर्णयाय विद्याभेद चिन्ताप्रस्तूयते । प्रथमं तावदेकस्या वैश्वानर विद्यादिकाया अनेक शाखासु श्रूयमाणायाः किमेक विद्यात्वम् उत विद्याभेद इति । चिन्त्यते । अविशेष पुनः श्रवणस्य प्रकरणांतरस्य च भेदकत्वाच्छाखांतरे चोभयो रवर्जनीयत्वादविद्याभेद इति प्राप्तम् । अतएव “तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत् शिरोव्रतं विधिवद्यैस्तु चीर्णम्” इति शिरोव्रतवतामाथवं णिकानामेव विद्योपदेश नियमुपपद्यते । विद्यक्य हि विद्यांगस्य शिरोव्रतस्यान्येषामपि शाखिनां प्राप्त नियमो नोपपद्यते । ब्रह्मोपासना में अभीप्सा बढ़ाने के लिए, ब्रह्म की फलदातृता तक का वर्णन कर दिया गया । अब अनेक प्रकार की ब्रह्मोपासना संबंधी, गुरण -संबंधी उपसंहार और विषय के निर्णय के लिए विद्या के भेदों पर विचार प्रस्तुत करते हैं । विभिन्न शाखाओं में वर्णित वैश्वानर आदि विद्यायें, एक ही हैं अथवा भिन्न इस संशय पर विचारने से ज्ञात होता हैं कि विभिन्न प्रकरणों में एकही विद्या का जो एकसा ही वर्णन मिलता है, वह निश्चित ही किसी विशेष अभिप्राय से होगा, वंसे विद्या में भेद है । ‘उसे ही ब्रह्मविद्या बतलानी चाहिए जो विधिवत शिरोव्रत का पालन करने वाला हो “इत्यादि में शिरोव्रत करने वाले आथर्वणिकों के लिए ही, विद्योपदेश का नियम बतलाया गया है । यदि विद्यायें एक होती तो
( ६६८ ) व विद्याओं के अंगभूत शिरोव्रत का सभी विद्याओं में, सामान्य रूप से नियम कहा जाता, उक्त वाक्य तो विद्याविशेष के लिए उक्त व्रत के उपदेश का नियम बतलाता है। इससे विद्याओं में भेद है, ऐसा निश्चित होता है ।
, सिद्धान्तः - एवं प्राप्त उच्यते सर्वं वेदांत प्रत्यय मेकमुपासनामिति । कुतः ? चोदनाद्यविशेषात् चोदनातावत् " उपासीत्” “विद्यात्” इत्येवं जतीयको धात्वर्थ विशेष विधिः । श्रादिशब्देन “एकं वा संयोगरूप चोदनाख्या विशेषात् " इति कर्मकाण्डशाखान्तराधिकरण- सूत्रोक्ताः संयोगरूपाख्या गृह्यन्ते । एषां चोदनादीनामविशेषात् । सैवेयं विद्येति शाखान्तरे प्रत्यभिज्ञायते तथा हि-छांदोग्यवाजसनेयकयोः “वैश्वानरमुपास्ते” इति चोदनातावदेकरूपा, वेद्य कनिरूपणीय- स्वरूपस्य विदिपर्यायस्योपासे वैद्य भूत वैश्वान रैक्या द्रूपमप्यविशिष्टम्, आख्या च वैश्वानरविद्येत्यविशिष्टाः फलसंयोगोऽप्युभयत्रापि ब्रह्मप्राप्तिरूपोऽविशिष्टः । श्रतएभिः प्रत्यभिज्ञानात् शाखान्तरेऽपि विधे क्यम् । उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि सभी वेदांतों में एकही उपासना प्रतीत होती है। ऐसा प्रेरणादायक आदि वाक्यों के वर्णन से ज्ञात होता है। " उपासना करनी चाहिए " जानने से” इत्यादि क्रिया विशेष के बोधक विधि वाक्य हो प्रेरणादायक वाक्य हैं। आदि शब्द से यहाँ “फल संयोग, रूप, विधि और नाम में कोई भेद नहीं है” इत्यादि कर्मकांडीय शाखान्तराधिकरण सूत्र में उल्लेख्य संयोग स्वरूप और नाम, अभिप्रेत हैं। इन प्रेरणा दायक वाक्यों और संयोग आदि के सामान्यवर्णन से, शाखान्तरों में वर्णित “यह वही विद्या है” ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है । छांदोग्य और वाजसनेयक में “वैश्वानर की उपासना करो” ऐसी एक ही प्रकार की प्रेरणा की गई है, दोनों में जो, वेद्य का स्वरूपनिरूपण किया गया है, उससे भी बेद्य तत्व की एकता प्रतीत होती है। समानार्थक उपासना में जब, बेद्य वैश्वानर एक ही तत्व है तो उसकी उपासना भी, एक ही रूप की होगी, नाम भी उसका वैश्वानर ही है, फल और संयोग ( ese) भी, दोनों स्थानों में ब्रह्म प्राप्तिरूप ही बतलाया गया है। इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञाओं से, शाखान्तरीय विद्या एक ही प्रतीत होती है । यत्तक्तमविशेषपुनः श्रवणात् प्रकरणान्तराच्च विधैक्यमिति तदनुभाष्य परिहरति- विधेयभेदान जो यह कहा कि एक ही प्रकार का दो स्थलों पर पुनः उल्लेख किया गया है, इससे विद्या भेद की प्रतीति होती है, इसलिए विद्या की एकता नहीं है; उसे ही उपस्थित कर परिहार करते हैं- भेदान्नेति चेदेकस्यामपि | ३ | ३|२|| अविशेष पुनः श्रुत्या प्रकरणान्तराश्च विधेयभेदान्न, विद्यैक्यमिति चेत् एकस्यामपि विद्यायां प्रतिपतृभेदात्पुनः श्रुतिः प्रकरणान्तरं चोपपद्यते । यत्रह्येकस्मित् प्रतिपत्तरि पुनः श्रुतिप्रकरणान्तरं च विद्यते, तत्रान्यथानुपपत्त्या विधेयभेदान् विद्याभेदः, प्रतिपतृभेदे तु तत्प्रतिपत्यर्थतया पुनः श्रुत्याद्युपपत्तेस्तत्र न विधेयान्तर संभवः । यदि कहो कि एक से पुनरुल्लेख और प्रकरण भेद से विधेय का भेद प्रतीत होता है, इसलिए विद्या एक नहीं है। तो एकही विद्या में, प्रतिपादन के भेद से, पुनरुल्लेख मौर प्रकरणान्तर का होना असंभव नहीं है । जहाँ श्रोता एक होते हुए भी, पुनरुल्लेख और प्रकरण भेद है, वहाँ उपदेष्टा के भेद होने से विषेय (विद्या) का भेद हो गया है। श्रोता के भेद में तो समझाने के लिए पुनरुल्लेख हो जाना स्वाभाविक ही है । विधेय में भेद होना संभव नहीं है । यच्चोक्तं शिरोव्रतवतामाथर्वणिकानामेव विद्योपदेश नियम- दर्शनात् विद्याभेदः प्रतीयत इति तत्राह- और जो यह कहा कि-शिरोव्रत करने वाले आथर्वणिकों के लिए ही विद्योपदेश का नियम किया गया है, इससे विद्या भेद प्रतीत होता है । इस पर कहते हैं-
T स्वाध्यायस्य तथात्वे हि समाचारेऽधिकाराच्च सववच्च तन्नियमः |३|३|३॥ नैतदस्ति - शिरोव्रतोपदेशनियमदर्शनं विद्याभेदं द्योतयति- इति शिरोव्रतस्य विद्यांगत्वाभावात् । स्वाध्यायस्यतथात्वे हि तन्नियमः स्वाध्यायस्य तथास्वसिद्धयथं, तज्जन्यसंस्कार भाक्त्वसिद्धयर्थं हि शिरोव्रतोपदेशनियमः, न विद्यायाः । कुत एतत् ? " नैतदचीत्रतो- ऽधोयोत् " इति तस्याध्ययन संयोगात् समाचारेऽधिकाराच्च- समाचाराख्येग्रन्थे- इदमपिवेद व्रते नव्याख्यातम्” इत्यतिदेशात् । “तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यायां वदेत्” वेदविद्यामित्यर्थः । सववच्च तन्नियमः, यथा हि सवहोमाः सप्तसूर्यादयः शतोदनपर्यंन्ता प्राथर्वरिण- कैकाग्नि संबंधिनस्तत्रैव भवंति न त्रेताग्निषु । शिरोव्रत के आधार पर जो विद्या का भेद बतलाते हो वह भी निराधार है, शिरोव्रत की विद्यांगता का कहीं भी उल्लेख नहीं है । विद्या सिद्धि के लिए स्वाध्याय का वैसा प्रकार बतलाया गया है अर्थात् स्वाध्याय की तत्त्वार्थ सिद्धि के लिए शिरोव्रत संस्कार से संपन्न होना आवश्यक है, इसलिए शिरोव्रत की अनिवार्यता बतलाई गई है, विद्या के लिए नहीं । “व्रतानुष्ठान रहित व्यक्ति इसका अध्ययन न करे " इस श्रुति में शिरोव्रत के साथ अध्ययन का संयोग दिखलाया गया है तथा सदाचार को बतलाने वाले ग्रन्थों में, सदाचार के अधिकार की बात का स्पष्ट उल्लेख है कि- “उन लोगों को ही इसविद्या का उपदेश दो” अर्थात् इस ब्रह्मविद्या का उपदेश दो। इससे भी उक्त मत पुष्ट होता है । जैसे कि आथर्वणिक एकाग्नि संबंधी, सूर्य आदि शतोदन पर्यन्त सात, सबहोंम उसी में संपन्न होते हैं, त्रेताग्नि संपूर्ण में नहीं होते वैसे ही इस शिरोव्रत का पालन अथर्ववेदाध्ययन के लिए ही आवश्यक है, संपूर्ण विद्या के लिए नहीं है । दर्शयति च | ३ | ३ | ४|| दर्शयति च श्रुतिरूपासनस्य सर्ववेदांत प्रत्ययत्वम्-तथाहि-
( ६७१ ) छांदोग्ये - " तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम् " विद्यते यदन्वेष्टव्यम्” इति प्रश्नपूर्वकं इत्युक्तवा - “कि तदन अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टक - विशिष्ट: परमात्मा तस्मिन्नुपास्य इत्युक्तम् । तैत्तरीयके तु छांदोग्यथं प्रतिनिर्देशमुपजीव्य " तत्रापि दहरं गगनं विशोकस्त- स्मिन्यदंतस्तदुपासितव्यम्” इति गुणाष्टक विशिष्टस्य परमात्मन उपासनमुच्यते, तदुभयत्र विद्यैकत्वेन गुणोपसंहारादेवोपद्यते । स्वयं श्रुति भी उपासना की दृष्टि से, विभिन्न वेदांतों में उल्लेख्य विद्या की एकता बतलाती है । जैसा कि “उसमें जो निहित है वही अन्वेषणीय है “ऐसा कहकर - " इसमें ऐसा क्या है जिसका अन्वेषण किया जाय ऐसा प्रश्न करते हुए, निर्दोषता आदि आठगुणों वाले परमात्मा को उपास्य बतलाया गया है । तैत्तरीयक में इन्हीं छांदोग्योक्त गुणों का प्रतिनिर्देश किया गया है - “वहाँ जो दहराकाश है उसके अंदर निहित तत्त्व की उपासना करनी चाहिए” इसमें भी आठगुणों वाले परमात्मा की ही उपासना बतलाई गई है इस प्रकार के गुणोपसंहार से, दोनों शाखाओं में एक ही विद्या का समर्थन प्रतीत होता है । तदेवशास्त्रान्तराधिकरणन्यायसिद्ध तत्प्रयोजनमाह- विद्यैक्यं स्थिरीकृत्य इस प्रकार विभिन्न शाखाओं के अधिकरणों में उल्लेख्य विद्या की एकता का निर्णय करके उसका प्रयोजन बतलाते हैं- उपसंहारोऽयमेवात् विधिशेषवत्समाने च |३|३|५|| " एवं सर्ववेदांतेषु समाने सत्युपासने वेदांतांतराम्नातानां गुणानां वेदांतांतर उपसंहार कर्त्तव्यः कुतः ? विधिशेष बदर्थाभेदात्-यथै- कस्मिन्वेदांते श्रुतो वैश्वानरदह रादिविधिशेषो गुणस्तद्विद्यासंबंधात् तद्दुपकाररूपप्रयोजनसिद्धयर्थमनुष्ठीयते, तथा वेदांतांत रोदितोऽपि तद् विद्यासंबंधित्वेन च शब्दोऽवधारणे । तदुपकाराविशेषादुपसंहर्त्तव्य इत्यर्थः ।
( ८७२ } इस प्रकार जब सभी वेदांतों में एक ही उपासना है, तो विभिन्न बेदांतों में कहे गए उस्य के गुणों का भी उपसंहार करना चाहिए । विधि विशेष को तरह अर्थ का भी, प्रयोजन से अभेद होता है । जैसे कि- एक वेदांत में श्रुत, वैश्वानरोपासना बिधि के अनुरूप गुण, उस विद्या से संबद्ध होने के कारण उसके उपकार रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए, अनुष्ठित होते हैं, वैसे ही विभिन्न वेदांतों में कहे गए गुण भी, उसी विद्या के उपकारक हैं, ऐसा मान कर ही उनका उपसंहार करना चाहिए । सूत्रस्थ च शब्द, अत्रधारण अर्थ में प्रयुक्त है । २ अन्यथात्वाधिकररणः- श्रन्यथात्वं शब्दादिति चेन्न विशेषात् | ३|३|६|| एवं चोदनाद्य विशेषात् विद्यैकत्वं एकत्वे च गुणोपसंहारः कर्त्तव्य इत्युक्तम् श्रतः परं काश्चन् विद्याश्रधिकृत्य प्रत्यभिज्ञाहेतुभूत- चोदनाद्यविशेषोऽस्ति नेति निरूप्यनिर्णीयते । ऊपर प्रेरणा आदि की सामान्यता के आधार पर विद्यकता और एकता में गुणोपसंहार कर्त्तव्यता का प्रतिपादन किया गया। इसके बाद अब कुछ विद्याओं के उदाहरण प्रस्तुत कर, प्रत्यभिज्ञा के हेतु प्रेरणा आदि की, सामान्यता, उनमें है या नहीं? इसका निरूपण कर, सिद्धान्त प्रस्तुत करेंगे । । प्रस्त्युद्गीथविद्या वाजिनां छंदोगानां च । वाजिनां तावत् - “द्वयाह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च” इत्यारभ्य - “तेह देवा ऊचुः हंतासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययामः” इत्युद्गीथेनासुर विध्वंसनं प्रतिज्ञायोद्गीथे वागादिमनः पर्यन्तदृष्टौ वागादिमनः पर्यन्तदृष्टौ श्रसुरैरभिभवमुक्त्वा " अथ हेममासन्यं प्राणमूचुः” इत्यादिना उद्गीथे प्राणदृष्ट्या मसुरपराभवमुक्त्वा - " भवत्यात्मना परास्य द्विषन् भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद” इति शत्रुपराजयफलायोद्गीथे प्राणदृष्टिविहिता । एवं छंदोगानामपि - “देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे” इत्यारभ्य - " तद ह
- ( १०३ )
- देवा उद्गीथम | जह्नरनेनैनानभिहनिष्यामः " इत्युद्गीथेनासुरपराभवं प्रतिज्ञाय तद्वदेवोद्गीथे वागादिदृष्टौ दोषमभिधाय - " अथ ह य एवायं मुख्य: प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे” - इत्यादिना उद्गीथे प्राण दृष्ट्या असुरपराभवमुक्त्वा “यथाऽश्मानमाखणमृत्वा विध्वंसते एवं हैव स विध्वंसते य एवं विदि पापं कामयते” इति शत्रु पराभवाय उद्गीथे प्राणदृष्टिविहिता | वेदनविषयविधिप्रत्ययाश्रवणेऽपि फलसाधनत्व श्रवणात् वेदनविषयोविधिः
- विद्यायाः क्रत्वर्थत्वेन
कल्प्यते उदगीथ क्रतू साद्गुण्यफलत्वेऽप्यार्थवादिकमपि फलं तदविरुद्ध ग्राह्यमेवेति देवताधिकरणे प्रतिपादितम् ।
उद्गीथ विद्या वाजसनेयी और छांदोग्य दोनों में है । वाजसनेयी में जैसे- " प्रजापति के दो प्रकार के पुत्र थे देव और असुर “यहाँ से प्रारंभ करके उनमें से देवताओं ने कहा- हम यज्ञ में उद्गीथ द्वारा असुरों का अतिक्रमण करेंगे” इत्यादि से असुरों के ध्वंस की प्रतिज्ञा दिखलाकर, वाक से मन पर्यन्त प्राणों की उद्गीथ दृष्टि करने पर भी असुरों ने उन देवों को पराभूत कर दिया, ऐसा बतलाकर “फिर अपने निकटस्थ प्राण से कहा” इत्यादि में, उद्गीथ में प्राण दृष्टि से असुरों का पराभव बतलाकर " जो इस प्रकार जानता है, वह प्रजापति रूप से स्थित होता है, और उससे द्वेष करने वाले भ्रातृव्य का पराभव होता है” इस प्रकार शत्रु पराजय फलवाली उद्गीथ में प्राण दृष्टि दिखलाई गई है । इसी प्रकार छांदोग्य में भी - " देवता और असुर जब आपस में लड़ रहे थे “यहाँ से प्रारंभ करके - “उन देवताओं ने उद्गीथ को लक्ष्य बनाकर यज्ञ किया, इसके द्वारा हम इन्हे हरा देंगे” इस प्राकार उद्गीथ द्वारा असुरों के पराभव की प्रतिज्ञा दिखलाकर, पूर्व की तरह उद्गीथ में वागादि दोषों को दिखलाकर - “जो यह मुख्य प्राण है, उद्गीथ रूप से उसी की उपासना की " इत्यादि से उद्गीथ में, प्राण दृष्टि द्वारा असुरों का पराभव बतलाकर " खनित्र ( छेनी) जैसे पत्थर से टक्कर खाकर टूट जाती है, ठीक उसी प्रकार जो उद्गीथस्थ पुरुष के संबंध में पापाचार करता है वह भी नष्ट हो जाता है” ऐसी शत्रु पराभवरूप फलसिद्धि के लिए उद्गीथ में प्राणदृष्टि का विधान किया गया । उद्गीथ
( ९७४ ) प्रकरण में उपासना विषयक विधि वाक्य के न होते हुए भी, उपासना की फलोत्पादकता कही गई है, जिससे उपासना विधि की स्वतः कल्पना हो जाती है । उद्गीथ विद्या यज्ञ की उपकारिका है, यज्ञोत्कर्ष करना ही उसका फल है, फिर भी जो अर्थवाद फल कहा गया है वह विरुद्ध नहीं है वह भी ग्राह्य है, ऐसा देवताधिकरण में बतला भी चुके हैं । 1 तत्र संशय्यते -किमत्र विद्यैक्यम्, उत नेति ? कि युक्त ? विद्यैक्यमिति कुतः ? उभयत्रोद्गीथस्यैवाव्यस्त प्राणभावस्योपास्यत्व- श्रवणाश्चोदनाद्य विशेषात् । फलसंयोगस्तावच्छत्रु परिभवरूपो न विशिष्यते । विशिष्टम् । रूपमप्यध्यस्त चोदना चोद्गीथविद्य त्यविशिष्टा ! प्राणभावोद्गीथारव्योपास्यैक्यादि- च विदिधात्वर्थंगताऽविशिष्टा । श्राख्या राद्वान्तिच्छायया परिचोद्य परिहरति । " श्रन्यथात्वं शब्दादिति चेन्नाविशेषात् " इति । अब संशय होता है कि दो शाखाओं में वर्णित ये उद्गीथ विद्या एक है अथवा भिन्न है ? विचारने पर ज्ञात होता है कि एक है क्योंकि- दोनों शाखाओं में प्राणभाव आरोपण पूर्वक उद्गीथ को ही उपास्य बतलाया गया है, दोनों में- विधि आदि में भी एक्य है । शत्रु पराभव रूप फल संबंध में भी प्रथकता नहीं है । प्राणभाव से आरोपित उपास्य उद्गीथ में पृधकता न होने से विद्या में पृथकता नहीं है । विदि धातु का अर्थ भी दोनों जगह सामान्यतः वेदन ही है तथा दोनों जगह " उद्गीथ” नाम भी एकसा है। इस सिद्धान्त पर आपत्ति पूर्वक परिहार करते हैं- “अन्यथात्वं शब्दादिति चेन्नाविशेषात् " यदुक्त विद्यक्यमिति, तन्नोपपद्यते, रूपभेदात्, रूपान्यथात्वं शब्दावेव हि प्रतीयते । वाजसनेयकेहि - ‘अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्य एष प्राण उद्गायत्” इत्युगानस्य कर्त्तरि प्राणदृष्ट्या सुरपराभवमुक्त वा “य एवं वेद” इतिकत्तयेव प्राणदृष्टिरे वंशब्दादवगम्यते । छांदोग्ये - “अथह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे” इत्युद्गानस्य कर्म-
( १७५ ) } व्युद्गीथे प्रारणदृष्ट्या असुर पराभवमुक्त वा - " य एवं विदि पापं कामयते" इत्येवं शब्दात् कर्मण्येवोद्गीथे प्राणदृष्टिविहिना । अथ एकत्र कर्त्तरि प्राणदृष्टिशब्दादन्यत्र कर्मणि प्राणदृष्टिशब्दाच्च रूपान्यथात्वं स्पष्टम् । रूपान्यथात्वेच विधेय भेदे सति केवल चोदनाद्यविशेषोऽकिचित्कर इति विद्याभेद इतिचेत्-तन्न प्रविशे- - षात् - प्रविशेषेण हि उभयत्र उद्गीथ साघनकपरपरिभव उपक्रमे प्रतीयते । वाजसनेयके - “ते ह देवा ऊचुर्हन्तासुरान्यज्ञ उद्गीथे- नात्याम" इत्युपक्रमे श्रूयते, छांदोग्येऽपि - " तदह देवा उद्गीथ माजह्न, रनेनैनानभिहनिष्याम " इति । अथ उपक्रमाविरोधाय - " तेम्य एष प्राण उद्गायत्" इत्यध्यस्त प्राणभाव उद्गीथ उद्गान कर्मभूत एव पाकादिष्वोदनादिवत् सौकर्यातिशयविवक्षया कर्त्त त्वेनोच्यते श्रन्यथो पक्रमगत उद्गीथ शब्दः कर्त्तरिलाक्षणिकः स्यात् प्रतविद्यक्यम् | विद्या की जो एकता बतलाते हो, वह सिद्ध नहीं होती क्योंकि दोनों स्वरूपगत में पार्थक्य है । स्वरूपगत पृथकता शब्दों से ही प्रतीत होती है । जैसे कि वाजसनेयी में - “ अथ हेममासन्यं" इत्यादि से उद्गाता कर्त्ता में प्राण दृष्टि से असुरों का पराभव बतलाकर - “यं एवंवेद” वाक्य कहा, इस वाक्य के एवं शब्द से प्राण दृष्टि से उद्गाता की ही प्रतीति होती है । छांदोग्य में - “अथ ह य एवायं इत्यादि में उद्गाता के कर्मभूत उद्गीथ में प्राणष्टि द्वारा असुरों का पराभव बतलाकर “व एवं विदि- पापं " इत्यादि में एवं शब्द से कर्मभूत उद्गीथ में ही प्राण दृष्टि का निर्देश है । इस प्रकार एक जगह कर्त्ता में तथा दूसरी जगह कर्म में, प्राण दृष्टि का निर्देश है । जिससे विद्या का स्वरूपगत भेद हो जाता है । स्वरूप भंद और विधेय भेद होने से तथा केवल विधिनादि के अविशेष और अकिंचितकर होने से विद्या भेद निशित होता है [विवाद] उक्त कथन युक्ति संगत नहीं है- क्योंकि दोनों में कोई विशेष बात नहीं है, जिसके आधार पर भेद
माना जा सके, दोनों ही जगह प्रारंभ में, उद्गीथ साधना का शत्रु पराभवरूप फल बतलाया गया ।
( ९७६ ) बृहदारण्यक के उपक्रम में जैसे- “ते ह देवा ऊचुः” इत्यादि तथा- छांयोग्य में - " तद्हदेवा" इत्यादि कहा गया तथा उपक्रम के अविरोध के लिए - " तेभ्य एष प्राण उगदायत्" इत्यादि में प्राणभाव का अध्यास दिखलाया गया उद्गीथ का उद्गान ही उसका कर्म होता है जैसे कि पके हुए भात को सुविधावश चावल कह देते हैं, वैसे ही कहने की सरलता से, उद्गीथ का कत्तत्व बतला दिया गया । उपक्रम में उल्लेख्य उदगीथ शब्द कर्त्ता में लाक्षणिक है। इसलिए विद्या एक ही है ! सिद्धान्तः - एवं प्राप्त प्रचक्ष्महे - इस पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- न वा प्रकररणभेदात् परोवरीयस्त्वादिवत् | ३|३|७|| नवेति पक्षं व्यावर्त्तयति, नचैतदस्ति, तद्विद्य क्यमिति कुतः ? प्रकरण भेदात् " श्रोमित्येतदक्षरं उद्गीथमुपासीत्" इति प्रकृतं उद्गीथावयवभूतं प्रणवं प्रस्तुत्य " एतस्य वाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति" “देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे” इत्यारभ्य - " श्रथ ह य एवायं मुख्यः - प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे" इत्युद्गीथावयवभूतप्ररणव- विषयमुपासनं छंदोगा प्रधीयते वाजिनस्तु तादृशप्राचीन प्रकरणा- भावात् हंतासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययाम" इति कृत्स्नमुद्गीथं प्रस्तुत्य “अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गाय” इत्यादिकृत्स्नोद्गीथ- विषयमधीयते श्रतः प्रकरणभेदेन विधेय भेदः विधेयभेदे च रूपभेद इति न विद्ये क्यम् । नवा शब्द उक्त पक्ष का व्यावर्त्तक है । विद्या में भेद नहीं है । विद्या एक है, क्योंकि दोनों में प्रकरण का भेद है । “ऊँ इस उद्गीथाक्षर की उपासना करो” इत्यादि में प्रस्तावित उद्गीथ के अंग विशेष प्रणव का उल्लेख करके " इस अक्षर का उपव्याख्यान होता है" देवता और असुर जहाँ संग्राम करते थे" इत्यादि से प्रारंभ करके " इसके बाद जो मुख्य प्राण हैं, उसकी उद्गीथ रूप से उपासना की ।" इत्यादि में उगदीथ
( १७७ ) समस्त उद्गीथोपासना गया कि - “तुम हमारे की अवयवरूप प्रणवोपासना छांदोग्य में बतलाई गई है। वाजसने वी में उक्त प्रकार के प्राचीन प्रकरण का अभाव है इसलिए “हम लोग उद्गीथ असुरों का अतिक्रमण करेंगे” इत्यादि में का ही उपक्रम करके मुख्य प्राण के लिए कहा लिए उद्गान करो” इत्यादि इससे निश्चित होता है कि इसमें संपूर्ण उद्गीथोपासना का ही निर्देश है प्रकरण में भेद होने से, विषय में भी भेद होता है तथा विषय भेद से स्वरूप भेद होता है। इसलिए विभिन्न प्रकरणों की उद्गीथ विद्या एक नहीं है । कि च- ’ प्रथह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे" इति पूर्वप्रकृत उद्गोथावयवभूतः प्रणव एवाध्यस्त प्रारणभावः छंदोगानामुपास्यः । वाजिनांतु कृत्स्नस्योद्गीथस्यकर्ताद्गाथा प्राणदृष्टयोपास्य इति । " अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायति तथेति तेभ्य एष प्राण उद्गायत" इत्युद्गातरि प्राणाध्यासं निर्दिश्य " य एवं वेद" इत्युद्गातैवाध्यस्त प्रारणभाव उपास्यों विधीयते । प्रतश्च रूपभेदः । न चोद्गातर्युपास्ये विहितं “उद्गीथेनाययाम” इत्याख्यायिकोपक्रमविरोधः शंकनीयः, उद्गातुरुपासने उद्गीत- परपरिभवाख्यं फलं स्योदगानकर्मभूतस्यावश्यापेक्षितत्वात्तस्यापि प्रति हेतुत्वात् । श्रतोरूपभेदात् विद्याभेद इति चोदनाद्यविशेषेऽपि न विद्यैक्यम् । परोवरीयस्त्वादिवत् - यथैकस्यामपि शाखायामु- द्गीथावयवभूते प्रणवे परमात्मदृष्टि विधानसाम्येऽपि हिरण्यमय- पुरुषदृष्टिविधानात् परोवरीयस्त्वादि गुणविशिष्टदृ ष्टविधान- मर्थान्तरभूतम् । तथा - “इस मुख्य प्राण की उद्गीय रूप से उपासना की " इत्यादि में, पूर्ण प्रस्तावित उद्गोथांश प्रणव में प्रागात्मभाव का आरोप किया गया है। वही छांदोग्य का उपास्य है। वृहदारण्यक में संपूर्ण उद्गीथ का कर्त्ता उद्गाता ही प्राण रूप से उपास्य माना गया है । “इसके बाद निकटवर्ती मुखस्थ प्राण से कहा कि तुम हमारे लिए उद्गान
( E७६ ) करो, उसने तथास्तु कहकर उनके लिए उद्गान किया” इत्यादि से, उद्गाता कर्त्ता में ही प्राण भाव का आरोप करके " जो इस प्रकार जानते हैं इत्यादि में आरोपित प्राणस्वरूप उद्गाता को ही उपास्य बतलाया गया है । इस प्रकार भी उद्गाता में स्वरूपगत भेद है । उद्गाता के उपास्य रूप से विहित होने से, उसका कर्मभूत उद्गीथ भी अपेक्षित हो जाता है, जिससे शत्रु पराभवरूप फलसिद्ध में, उसकी भी कारणता हो जाती है । स्वरूप भेद से जब विद्या भेद हो जाता है तब विधि आदि की एकता होते हुए भी, विद्या का अभेद नहीं हो सकता जैसे कि छांदोग्य की एक ही शाखा में उद्गीथ प्रकरण के मध्य में उद्गीथांश रूप प्रणव के परमात्म दृष्टि से साम्य होते हुए भी, हिरण्मय पुरुष परक दृष्टि का विधान होने से, परोवरीय आदि गुणों से विशिष्ट दृष्टि का विधान, भिन्नता का द्योतक है | संज्ञातश्चेत्तदुक्तमस्ति तु तदपि |३३|८|| उद्गीथविद्य ेति संज्ञ क्यात् संज्ञ क्यं विधेयभेदेऽप्यस्त्येव यथा तत्- विद्यक्यमुक्तं चेत्-तत् श्रग्निहोत्रसंज्ञा नित्याग्निहोत्रे, कुडपायिनामयनाग्निहोत्रे च यथाचोद्गीथविद्येति छांदोग्ये प्रथम प्रपाठकोदितासुबह्वीषु विद्यासु । “उद्गीथ विद्या” ऐसी नाम नहीं है, प्रायः विधेय के भेद में की एकता है, ऐसा कथन भी संगत भी एक नाम होता है जैसे कि - नित्य अग्निहोत्र और कुण्डपायी अग्निहोत्र, दोनों ही अग्निहोत्र नाम वाले हैं । छांदोग्य के प्रथम प्रपाठक को अनेक विद्यायें, उद्गीथ नामवली हैं । व्याप्तेश्च समंजसम् ३|३|१|| छांदोग्ये प्रथमप्रपाठके उत्तरांस्वपिविद्यासुद्गीथावयवस्य प्रणवस्य प्रथम प्रस्तुतस्योपास्यत्वेन व्याप्तेश्च तन्मध्यगतस्य " तदह देवा उद्गीथमाजह्न : " इत्युद्गीथशब्दस्य प्रणवविषयत्वमेव समंजसम् । अवयवे च समुदाय शब्द: पटोदग्धः" इत्यादिषु दृश्यते । ( ६७६ ) प्रतश्चोद्गीथावयवभूतः प्रणव एवोद्गीथ शब्द निर्दिष्ट इति स एव प्राणदृष्ट्योपास्यश्छान्दोग्ये प्रतिपत्तव्यः । वाजसनेयके तु कृत्स्नोंद्- गीथ विषय उद्गीथ शब्द इति कृत्स्नोद्गीथस्य कर्तोद्गाता प्राण दृष्ट्योपास्य इति विद्यानानात्वं सिद्धम् । ६ छांदोग्य के प्रथम प्रपाठक में प्रथमवर्णित उद्गीथावयव प्रणव की उपासना, परवर्ती विद्याओं में भी अनुगत है इसलिए मध्यवर्ती- “देवताओं ने उस उद्गीय का आहरण कर लिया” इत्यादि में उल्लेख्य “उद्गीथ " शब्द का प्रणवार्थ मानना ही संगत होगा । “जला- कपड़ा” इत्यादि उदाहरणों में जैसे- समुदाय वाचक शब्द का उसके अवयव में भी प्रयोग किया जाता है [अर्थात् कपड़े का ढेर जले या एक जले प्रयोग “पटो दग्धः” ही किया जाता है] वैसे ही – उद्गीय के अंग प्रणव का भी, उद्गीथ शब्द से ही निर्देश किया गया है। उसे ही छांदोग्य में- प्राणदृष्टि से उपास्य कहा गया है। वृहदारण्यक में तो- मंपूर्ण उद्गीथ का बोधक उद्गीथ शब्द है, संपूर्ण उद्गीथ के कर्ता उद्गाता को ही प्राणदृष्टि से उपास्य कहा गया है। इससे विद्या का भेद ही सिद्ध होता है । सर्वाभिदाधिकररणः- सर्वाभेदादन्यत्र मे | ३|३|१०|| छांदोग्यवाजसनेयकयोः प्राणविद्या प्रान्नायते “योह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च हवै श्रेष्ठश्च भवति, प्राणोवाव ज्येष्ठश्च श्र ेष्ठश्च” इत्यादि तत्र ज्यैष्ठयश्रं ष्ठयगुणकं प्राणमुपास्यं प्रतिपाद्य वाकच्क्षुः श्रोत्रमन: सुवसिष्ठत्वप्रतिष्ठात्व संपत्वायतनत्वाख्यान् गुणान् प्रतिपाद्य वागादीनां देहस्य च प्राणायत्तस्थितित्वेन तदायत्ततत्तकार्यत्वेन च प्राणस्य श्रेष्ठ्यं प्रतिपाद्य वागादि संबंधितया श्रुतान्वशिष्ठत्वादीन् गुणांश्च प्राणसंबधितया प्रतिपादयति । एवं छांदोग्यवाजसनेयकयोज्यैष्ठयश्रेष्ठयगुणको
( ६८० 1 वसिष्ठत्वादिगुणकश्च प्राण उपास्यः प्रतिपाद्यते । कौषीतिकिनां तु प्राण विद्यायां तथैव ज्यैष्ठयश्र ेष्ठ्यगुणकः प्राण उपास्यः प्रतिपादितः, न पुनर्वसिष्ठत्वादयो वागादि संबंधिनो गुणः प्राण संबंधितया प्रतिपांदिताः । तत्र संशयः, किमत्र विद्याभिद्यते, उतनेति ? कि युक्तम् ? भिद्यत इति । कुतः ? रूपभेदात् । यद्यप्युभयत्र प्राण एव ज्यैष्ठय श्रेष्ठयगुणक उपास्यः, तथाप्येकत्र वसिष्ठत्वादिभिरपि गुणैर्युक्तः प्राणउपास्यः प्रतीयते, इतरत्र तु तदविधुर इत्युपास्य रूपभेदादविद्याभेदः । छांदोग्य और वृहदारण्यक दोनों में प्राणविद्या का उपदेश है " जो लोग ज्येष्ठ और श्रेष्ठ को जानते हैं, वे स्वयं ज्येष्ठ श्रेष्ठ हो जाते हैं, प्राण ही ज्येष्ठ हैं" इत्यादि । इसमें ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुण संपन्न प्राण की उपास्यता का प्रतिपादन करके-वाकु चक्षु श्रोत्र और मन को क्रम से वसिष्ठता, प्रतिष्ठता, समपद रूपता और आयतनता गुणों वाला बतलाया गया है । इसके बाद वाक आदि इंद्रियों और देह में स्थित विशेष कार्यों से प्रधीन प्राण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके - वागादि संबंधी वसिष्ठता आदि गुणों का भी, प्रारण संबंधी रूप से ही प्रतिपादन किया गया है । जैसी छांदोग्य वृहदारण्य में ज्येष्ठ श्रेष्ठ - वसिष्ठ आदि गुण विशिष्ट प्राण की उपास्यता बतलाई गई है, वैसी ही कौषीतकि प्राण विद्या में भी ज्येष्ठता श्रेष्ठता गुण विशिष्ट प्राण की उपास्यता बतलाई गई है, उसमें प्राण संबंधी वागादि इंद्रिय संपर्कित वसिष्ठता आदि गुणों का उल्लेख नहीं किया गया है । इस पर संशय होता है कि उक्त विद्या एक है या भिन्न ? कह सकते हैं कि - भिन्न, क्योंकि - रूप का स्पष्ट भेद है । यद्यपि दोनों जगह ज्येष्ठ श्र ेष्ठ गुरण वाले प्राण को ही उपास्य कहा गया है, पर एक जगह वसिष्ठता आदि गुणों से युक्त प्राण की उपास्यता का उपदेश है, दूसरी जगह, उनगुणों से होन प्राण उपास्य है । इस प्रकार रूप में भेद है । अतः विद्या भिन्न सिद्धान्तः - इति प्राप्ते ब्रूमः – सर्वाभिदादन्यत्रे मे – नात्रविद्या भेदः, अन्यत्र कौषीतकिनां प्राण विद्यायामपि इमे - वसिष्ठत्वादयो
( ६८१ ) गुणा उपास्या. संति कुतः ? सर्वाभेदात्-प्रतिज्ञात प्राण ज्यंष्ट्य- श्रेष्ठयोपपादनप्र कारस्य सर्वस्य तत्राप्यभेदात् । तथाहि- छांदोग्यवाजसनेयिनां प्राणविद्यायाम् " एताह वै देवता ग्रहं श्रं यसे व्यूदिरे " अहंश्रयसे विवदमानाः" इति चोपक्रम्य वागाद्य कैको- पक्रमणे अन्येषां स प्राणानामिन्द्रियाणां शरीरस्य च स्थिति तत्तत्कार्यं नाविकलं प्रतिपाद्य प्राणोत्क्रमणं सर्वेषां विशरणमकार्य- करत्वं चाभिधाय सर्वेषां प्राणाधीन स्थितित्वतदधीनकार्यत्वाभ्यां प्राणस्य ज्येष्ठयमुपपादितम् । एवमुपपादितं वागादिकार्यंस्य प्राणाधीनत्वं - “प्रथ हैनंवागुवाच यदहं वसिष्ठोऽस्मि त्वं तद्वद् वसिष्ठोऽसि” इत्यादिना वागादिभिरनूद्यते । उक्त संशय पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि - विद्या का भेद नहीं है, कौपतक में भी वमिष्ठता आदि गुणों का उपास्य रूप से उल्लेख है । प्राण के ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुणों के उपपादन से ही, उन सबकी अभिन्नता प्रतीत होती है । छांदोग्य और वृहदारण्यकीय प्राण विद्या में - “वे देवता ( इंद्रियां) अपनी-अपनी प्रधानता बतलाने के लिए विवाद करने लगे । “अपनी-अपनी प्रतिष्ठा के लिए विवाद करते-करते” इत्यादि से प्रारंभ करके - वागादि आदि एक-एक इन्द्रियों का बहिर्गमन तथा प्राणयुक्त इंद्रियों का शरीर में अवस्थान एवं कार्यकारिता का प्रतिपादन किया गया और अंत में प्राणों के उत्क्रमण से समस्त इन्द्रियों की शिथिलता और अकर्मण्यता का प्रतिपादन करके, प्राण की अधीनता में सबको अवस्थिति और कार्यकारिता के कारण प्राण को ज्येष्ठता आदि का समर्थन किया गया है । इसी प्रकार वागादि इन्द्रियों को प्राणाधीनना का भी समर्थन करते हुए “वा ने कहा जो मेरी वसिष्ठता है वही तुम्हारी भी वसिष्ठता है ।” इत्यादि में वागादि से अनूदित किया गया है । F कौषीतकिनां प्राणविद्यायामपि प्रारणज्यैष्ठ्य श्रेष्ठ्य प्रति- पादनाय वागादिषु वसिष्ठात्वादयः प्रतिपादिता: । " अथ हेमा देवताः प्रजापतिपितरमेत्याब्रु बन को वैन श्रेष्ठः” इत्यादिना
( १८२ ) बागादि गतागुणा वागादयश्च देहश्च प्राणाधीना इति प्राणस्य ज्यैष्ठ्यमुपपादितम् । वागादिभिः स्वस्वगुणा वसिष्ठत्वादीनां प्राणाधीनत्वानुवादमात्र तुनकृतम् । नैतावता रूपभेदः, वागादीनां वसिष्ठत्वादि गुणान्वितानां प्राणाधीनकार्यंत्वोपपादनेनैव प्राणस्य वागादि वसिष्ठत्वादि गुणहेतुत्वस्य सिद्धत्वात् । तदेव हि प्राणस्य वसिष्ठत्वादि गुणयोगित्वं यद्वागादिवसिष्ठत्वादि हेतुत्वम | | श्रतोऽत्रापि वसिष्ठत्वादिगुणयोगात् प्राणो ज्येष्ठः प्रतिपन्न इति नास्ति विद्या भेदः । कौषीतकि प्राण विद्या में भी, प्राण की ज्येष्ठता श्रेष्ठता के प्रतिपादन के लिए, वागादि की वशिष्ठता आदि का प्रतिपादन किया गया है । “इन देवताओं ने प्रजापति के पास जाकर कहा – हममें कौन श्रेष्ठ है ? " इत्यादि में वाक् आदि के गुण, वागादि इन्द्रियों और शरीर इत्यादि सबको प्राणाधीन बतलाकर प्रारण की ज्येष्ठता का समर्थन किया गया है । वागादि की एक मात्र गुणों के कारण ही प्राणाधीनता नहीं बतलाई गई अपितु उनको स्वरूपतः भी अभिन्न कहा गया है, क्योंकि जब एक मात्र प्राण हो, इन्द्रियों की वसिष्ठता आदि का कारण है, तब वसिष्ठता आदि गुणों से संपन्न इन्द्रियों की कार्यकारिता स्वतः ही प्राणाधीन सिद्ध होती है । वस्तुतः प्राण की जो, वागादि इन्द्रियगत वसिष्ठता आदि गुण संपादकता है, वह उसकी अपनी ही, वसिष्ठता आदि गुण योगिता है। इस विवेचन से निश्चित होता है कि कौषीतकि में भी वसिष्ठता आदि गुणों से संबंद्ध प्राण की ज्येष्ठता बतलाई गई है । इस प्रकार विद्या में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है । ४ श्रनंदायाधिकरणः– प्राणविद्यांगविषयमन्यदपि निरूपणमनंतरमेव करिष्यते । यथा प्राणस्य वसिष्ठत्वाद्यनुसंधानेन विना ज्येष्ठ्यश्रेष्ठयानुसं धानामुपपत्तेरनुक्तानामपि वसिष्ठत्वादीनां कौषीतकि प्राणविद्यायां प्राप्तिः तथा ब्रह्मस्वरूपानुसंधानं यैगुणैर्विनानोपपद्यते, ते ब्रह्म- विद्यासु सर्वास्वप्यनुसंधेया इत्ययमर्थं प्रतिपाद्यते । ।
( ६८३ ) प्राग विद्या के अन्य अंगों का भी प्रतिपादन करना होगा, जैसे कि प्राण की वसिष्ठना आदि के अनुसंधान के बिना ज्येष्ठता श्रेष्ठता आदि की प्रतीति नहीं होती इस बात को बतलाये बिना ही, वसिष्ठता आदि गुणों का, कौषीतकि प्राणविद्या में जो उल्लेख है तथा बिना समस्त गुणों की जानकारी के ब्रह्म का स्वरूप ज्ञान संभव नहीं है, ब्रह्म विद्याओं में उन गुणों का अनुसंधान आवश्यक है । इत्यादि बातों का प्रतिपादन करते हैं । आनंदादयः प्रधानस्य | ३ | ३ | ११ ॥ अत्रब्रह्मस्वरूपगुणानां सर्वासु परविद्यामूपसंहारोऽस्ति नेति विचार्यते । अप्रकरणाधीतानामुपसंहारे प्रमाणाभावात् प्रकरण श्रुतानामेवोपसंहार इति । ब्रह्म के स्वरूपगत गुणों का सभी विद्याओं में उपसंहार है या नहीं इस पर विचार करते हैं । भिन्न प्रकरणों में कहे गये गुणों के उपसंहार का कोई प्रमाण नहीं मिलता, इसलिए ज्ञात होता है कि प्रस्तुत प्रकरण में कहे गए गुणों का स्वतः में ही उपसंहार है । सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते ब्रूमः - प्रानंदादयः प्रधानस्य, अभेदादिति वर्त्तते गुणिनो ब्रह्मणः सर्वेषूपासनेष्वभेदात् गुण्यपृथग्- भावानां सर्वश्रनिंदादयस्तद्गुणा उपसंहर्त्तव्या ।
उक्त कथन पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि पूर्व सूत्र से “अभेदात् " पद की इस सूत्र में भी अनुवृत्ति है, जिससे अर्थ होता है कि आनंदादि प्रधान गुणों वाले ब्रह्म का सभी उपासनाओं से अभेद संबंध होने से तथा - गुण और गुणी की अपृथक्ता होने से, आनंदादि गुणों का सभी विद्याओं में उपसंहार करना चाहिए । एवं तर्हि - गुण्य पृथक्भावादेवानंदादिवत् प्रियशिरस्त्वादयोऽपि " तस्य प्रियमेवशिरः” इत्यादौ ब्रह्मगुणत्वेन श्रुताः सवंत प्रसज्येरन- नेत्याहु–
( ६८४ ) (शंका) ऐसा मानने से तो गुणी से अभिन्न आनंदादि की तरह आनंद के अंग प्रियशिर आदि जो कि - “तस्य प्रियमेवशिरः” इत्यादि में ब्रह्म के गुण रूप ही कहे गए हैं, उनका भी सब जगह उपसंहार करना होगा इसका निराकरण करते हैं प्रियशिरस्त्वाद्यप्राप्तरुपचयापचयौहि भेदे | ३ | ३|१२|| ब्रह्मस्वरूपगुणानां प्राप्तावच्यमानायां प्रियशिरस्त्वादीनाम- प्राप्तिः तेषामब्रह्म गुणत्वात् ब्रह्मणः पुरुषविधत्वरूपणमात्रान्तर्गत- त्वाप्रियशिरस्त्वादीनाम् । अन्यथा शिरः पक्षपुच्छाद्यवयव भेदेसति ब्रह्मणोऽप्युपचयापचयौ प्रसज्येयाताम् । तथाच सति - " सत्यंज्ञान- मनंतं ब्रह्म” इत्यादि विरुध्यते । ब्रह्म के स्वरूप भूत गुणों की गणना करने में, प्रियशिरत्व आदि गुणों की गणना नहीं हो सकती, क्योकि वे ब्रह्म के गुण नहीं हैं अपितु वे प्रियशिरता आदि, ब्रह्म के अवतार रूप के निरूपण करने वाले अवान्तर गुण मात्र हैं । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो शिर - पक्ष - पुच्छ आदि अवयव भेद, ब्रह्म के उपचय अपचय के परिचायक देहगत विकार हो जायेंगे। जो कि - " सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" इत्यादि ब्रह्मस्वरूप के विरुद्ध बात होगी । नन्वेवमेव ब्रह्मसंवंधिनामेवैश्वर्यगांभीर्यौदार्य का रुण्यादीनां गुणानामनंतानां गुण्यपृथक् स्थितवमात्रेण तत्राश्रु तानामप्युपसंहारे सर्वे सर्वत्र प्रसज्येरन्, आनंत्यादुपसंहाराशक्तिश्च । तत्राह - इस प्रकार तो ब्रह्म संबंधी, ऐश्वर्य गांभीर्य - औदार्य कारुण्य आदि अनंतगुणों की, गुणी से अपृथक्ता होने से, जहाँ गुणों का कथन नहीं है, वहाँ भी समस्त गुणों की उपस्थिति अनिवार्य हो जायेगी ? ब्रह्म के अनंत गुणों का उपसंहार संभव भी नहीं है? इसका उत्तर देते हैं- इतरेत्वर्थ सामान्यात् ॥ ३|३|१३|| तु शब्दश्चोद्य व्यावर्त्तयति, इतरेतु श्रानंदादयः, अर्थसामान्यात् सर्वत्रानुवर्तन्ते । मे त्वर्थसमाना, अर्थस्वरूपनिरूपणधमत्वेन । र्थं
( ६८५ ) } । प्रतीत्यनुबंधिसः, तेऽर्थं स्वरूपवत् सर्वत्रानुवर्त्तन्ते । ते च गुणाः सत्यज्ञानानंदा मलत्वानंतानि । “यतो वा इमानि" इत्यादिना जगत्- कारणतयोपलक्षितं ब्रह्म “सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म” “आनंदो ब्रह्म” इत्यानंदादिभिर्हि स्वरूपतो निरूप्यते प्रत उपास्य ब्रह्म स्वरूपाव- गमाय सर्वासु विद्यास्वानंदादयोऽनुवर्त्तन्ते । ये तु निरूपित स्वरूपस्य ब्रह्मणः कारुण्यादयोगुणाः प्रतिपन्नाः तेषां गुण्यपृथक् स्थितत्वेऽपि प्रतीत्यनुबंधित्वाभावात्-ये यत्र श्रुताः ते तत्रोपसंहार्याः, इति निरवद्यम् । सूत्रस्थ तु शब्द उक्त तर्क का समाधान करता है । आनंद आदि सामान्य अर्थ बोधक होने से सभी विद्यानों में अनुवृत्त हो सकते हैं, जो कि गुणी के समानार्थक गुण हैं, अर्थात् जो अर्थ स्वरूप के निरूपक होने से एकमात्र अर्थ प्रतीति के कारण ही गुण वाच्य हैं, वे जिस गुणी की अर्थ प्रतीति कराते हैं, उस गुणी की तरह ही, समस्त विद्याओं में अनुवृत्त हो सकते हैं । वे गुण - सत्य - ज्ञान - आनंद अनंतता आदि ही हैं । “यतो वा इमानि" इत्यादि से, जगत् कारणरूप से उपलक्षित ब्रह्म ही “सत्यंज्ञान- मनंतं ब्रह्म” आनंदोब्रह्म" इत्यादि वाक्यों में आनंद आदि रूपवाले निरूपण किये गए हैं । उपास्य ब्रह्म स्वरूप की प्रतीति के लिए ही सभी विद्याओं में बार-बार अनुवर्त्तन कियागया है। उक्त प्रकार से निरूपित ब्रह्म के कारण आदि प्रसिद्ध गुणों की गुणी से अपृथक् स्थिति होते हुए भो, उन गुणों से एकमात्र ब्रह्म की ही प्रतीति होती हो, अन्य की नहीं, ऐसा कोई अनुबंधन होने के कारण वे कारुण्य आदि गुण जहाँ कहे गए हैं, उनका वहीं उपसंहार होगा, अन्यत्र नहीं । प्रियशिरस्त्वादयो यत्तपचयापचयप्रसंगात् ब्रह्मणः पुरुष विवत्वरूपणमात्रार्थाः न तु ब्रह्म गुणाः । तर्हि प्रतथारूपस्य ब्रह्मण- स्तथात्वेन रूपणं किमर्थं क्रियते प्रतथाभूतस्य हि तथात्वरूपणे केनचित् प्रयोजनेन भवितव्यम्, यथा- ‘आत्मानं रथिनंविद्धि" इत्यादिनोपासकस्य तदुपकरणानां च रथिरथादित्वरूपणम्
( ६८६ ) उपासनोपकरणरूप शरीरेन्द्रियादिवशी करणार्थं क्रियत इत्युक्तम् । नवेह तथाविधम् किंचित्प्रयोजनं दृश्यते । इति बलात् ब्रह्मगुणत्वं प्रियशिरस्त्वादीनामभ्युपेत्यम् । तत्राह- जो यह कहा कि- ब्रह्म के अवतार की ही पक्षिरूप से कल्पना की गई है उसी के लिए प्रियशिरत्व आदि कल्पित है. वस्तुतः वे परमात्मा के गुण नहीं हैं । यदि ऐसा ही है तो, ब्रह्म के पक्षिरूप कल्पना का प्रयोजन क्या होगा ? असंभव वस्तु की संभवकल्पना का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। जैसे कि “आत्मा को रथी जानो - इत्यादि कल्पना में उपासक जीव और उसकी साधना के उपकरण इन्द्रिय आदि का, रथीरथ, आदि रूपों से वो निरूपण किया गया है. वह उपासना के साधनभूत शरीरेन्द्रियादि के वशीकरण के लिए है, वही उसका प्रयोजन है। इस प्रकार का कोई भी प्रयोजन, पक्षिरूप की कल्पना में तो दीखता नहीं, इसलिए अगत्या प्रिय शिरता आदि को परमात्मा का ही गुण मानना पड़ेगा । इसका उत्तर देते हैं । आध्यानाय प्रयोजनाभावात् | ३|३|१४|| प्रयोजनान्तराभावात् श्राध्यानाय श्रयं रूपणोपदेशः क्रियते । श्राध्यानं श्रनुचिन्तनम् उपासनमुच्यते । “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” इत्यत्रोपदिष्टाध्यानरूपवेदन सिद्धये हि श्रानंदमय ब्रह्मप्रतिपत्त्यर्थ- मानंदमयं ब्रह्म प्रियमोदादिरूपेण विभज्य शिराः पक्षादित्वेन रूपयित्वोपदिश्यते । यथाऽन्नमयः पुरुषः प्रयं देहः शिरः पक्षादिभिः “तस्येदमेवशिरः” इत्यादिना बुद्धावारोप्यते, यथा प्राणमय मनोमयविज्ञानमयाः तस्य प्राण एवं शिरः” इत्यादिना प्राणाद्यवयवैबु द्धावारोप्यन्ते, एवमेभ्योऽर्थान्तरभूतस्तदंतरात्मा श्रानंदमयोऽपि प्रियमोदादिभिरेकदेशैः शिरःप्रभृतित्वेन एवमानंदमयोपलक्षणत्वात् रूपितैराध्यानाय बुद्धावारोप्यते । प्रियशिरस्त्वादीनां न सर्वदामानंदमय प्रतीतावनुवर्त्तन्ते । च
( ६८७ ) उक्त कल्पना का कोई अन्य प्रयोजन नहीं है, केवल आध्यान के लिए ही उक्त कल्पना की गई है आध्यान अर्थात् अनुचितन, उपासना को कहते हैं । " ब्रह्मवेत्ता परमात्मा को प्राप्त करता है” इसवाक्य में आध्यान रूप वेदन का उपदेश दिया गया है, उसकी सिद्धि के लिए ही, आनंदमय ब्रह्म का विवेचन, प्रियमोद श्रादि रूपों से विभक्त करके, शिर पंख आदि रूपों से किया गया है जैसे कि पुरुष पदवाच्य, अन्नमय स्थूल देह को “यही उसका शिर है” इत्यादि से शिरपक्षादियुक्त विशिष्ट रूप, से बुद्धि में आरोपित करने के लिए कल्पना की गई है तथा प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय इत्यादि को तस्य प्राणमयः शिरः" इत्यादि से प्राण आदि की बुद्धि में आरोपित करने के लिए कल्पना की गई वैसे ही अन्नमय आदि से स्वतंत्र, उनके ही अंतरात्मा आनंदमय की, प्रियमोद आदि एक देशीय विशेषतानों की शिर आदि रूपों में आध्यान करने के लिए कल्पना की गई है। आनंदमय के उपलक्षण होने के कारण प्रियशिर आदि सब जगह आनंदमय की ही प्रतीति कराते हों ऐसा नहीं है, यह ऊपर के विवेचन से निश्चित हो जाता है । वे तो एक मात्र उपासना के लिए ही हैं । आत्मशब्दाच्च १३ |३|१५|| “अन्योऽन्तर प्रानानंदमयः’, इत्यात्मशब्देन निर्देशादात्मनश्च शिरःपक्षपुच्छासंभवात् प्रियशिरस्त्वादयस्तस्य रूपणमात्रमिति गम्यते । सुखप्रतिपत्त्यर्थं “इससे भिन्न उत्तव्य आत्मा आनंदमय है” इत्यादि वाक्य में आय का आत्मा शब्द से निर्देश किया गया है, आत्मा में शिर-पंख पूछ आदि संभव नहीं हैं, इसलिए उसके प्रियशिरत्व आदि की कल्पना सुख प्राप्ति के लिए, रूपक मात्र ही प्रतीत होते हैं । ननु ‘अन्योऽन्तर श्रात्माप्राणमयाः” मन्योऽन्तरआत्मा मनोमयः “इत्यात्मशब्दस्यनात्मस्वपि पूर्वं प्रयुक्तत्वात् “अन्योऽन्तरात्मा श्रानंदमयः” इत्यात्मशब्दस्य परमात्मविषयत्वं कथं निश्चीयते? तत्राह–
( १८६ ) ( शंका ) " इससे भिन्न अन्तरस्य प्रात्मा प्राणमय है” इससे भिन्न अन्तरस्थ आत्मा मनोमय है” इत्यादि वाक्यों में आत्मा शब्द का प्रयोग अनात्म-प्रारण, मन आदि के लिए भी किया गया है, फिर इन वाक्यों के परवर्ती “इससे भिन्न अन्तरस्थ आत्मा आनंदमय है” इस वाक्य में प्रयुक्त आत्मा शब्द को परमात्मा विषयक ही कैसे निश्चिय किया जा सकता है? इसका उत्तर देते हैं- आत्मगृहीतिरितरवदुत्तरात् | ३|३|१६|| ग्रहणम्, “ग्रन्योऽन्तरमात्मानंदमयः इत्यत्रात्मशब्देन परमात्मन एव इतरवत्-यथेरत्र-“आत्मावाइदमेक एवाग्र ग्रासीत् स ईक्षत् लोकान्तु सृजै” इत्यादिष्वात्मशब्देन परमात्मन् एव ग्रहणम् । तद्वत् । कुत एतत् ? उत्तरात् - “सोऽकामयत्बहुस्यां प्रजायेय “इत्यानंदमयविषयात् उत्तराद्वाक्यात् । “इससे भिन्न अन्तरात्मा आनंदमय है” इस वाक्य में प्रयुक्त आत्म शब्द परमात्मात्राची ही माना जायगा जैसे कि “वृष्टि से पूर्व एक मात्र आत्मा ही था । उसने इच्छा की कि -लोकों की सृष्टि करू” इत्यादि अन्य वाक्यों में आत्मा शब्द परमात्मावाची ही है । उक्त आनंद- मय विषयक वाक्य के बाद के “उसने कामना की कि अनेक हो कर जन्म लूं” इत्यादि वाक्य से उस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है । श्रन्वयादिति चेत्स्यादवधारणात् |३|३|१७|| पूर्वत्र प्राणमयादिष्वनात्मशब्दान्ययदर्शनान्नोतरान्निश्चेतुं शक्यत् इति चेत् स्यादवधारणात् स्यादेव निश्चयः कुतः ? पूर्वत्रापि - " तस्मादवा एतस्मादात्मन प्रकाश: श्रवधारणात् संभूतः” इति परमात्मन एव बुद्धयाऽवधारितत्वात् अम्नमयादनन्तरे प्राणमये प्रथमं परमात्मबुद्धिरवतीर्णातदनंतरं च प्राणमयादनन्तरे मनोमये, ततोविज्ञानमये तत श्रानंदमये प्रक्रान्ता परमात्मबुद्धिस्त- दन्तराभावादुत्तराच्च " सोऽकामयत्” इति वाक्यात् प्रतिष्ठितेत्युप- क्रमेऽप्यपरमात्मनिपरमात्मबुद्धया आत्मशब्दान्वयः इति निरवद्यम् । ( 252 ) यदि कहें कि पूर्वोक्त प्राणमय आदि अनात्म शब्दों से संबद्ध आनंद- मय को परवर्ती वाक्य से निश्चित नहीं किया जा सकता सो बात नहीं है, अवधारण से निश्चित किया जा सकता है । अन्नमय प्राणमय आदि अव- धारण से पूर्व भी " इस आत्मा से आकाश हुआ” इस आत्मा में परमात्मा ही बुद्धि में सरलतापूर्वक समझा जा सके इसलिए अन्नमय से भिन्न प्राणमय को सर्वप्रथम परमात्मा बुद्धि से प्रस्तुत किया गया; उसके बाद प्राण- मय से भिन्न मनोमय में और फिर आनंदमय में परमात्म बुद्धि की गई । इसके बाद अन्त में कुछ कथ्य ही नहीं है यही एकमात्र सिद्धान्त है इस लिए " उसने कामना की" इत्यादि वाक्य से आत्म शब्द का परमात्मा अर्थ निश्चित हो जाने पर उपक्रम वाक्य में भी अपरमात्म (अन्नमय आदि) में परमात्म बुद्धि के लिए आत्म शब्द का संबंध दिखलाया गया है इसलिए उक्त मत निर्दोष है । ५ कार्याख्यानाधिकरणः कार्याख्यानादपूर्वम् |३|३|१८|| पूर्व प्रस्तुत प्राणविद्याशेषभूतमिदानीं चिन्त्यते । छांदोग्यवाज- सनेयकयोः ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च प्राणमुपास्यमुक्तवा प्राणस्य वासस्त्वेना पोऽभिधीयते । छांदोग्ये तावत्- " स होवाच कि मे वासो भविष्यतोत्याप इति होचुः तस्मादवा एतदशिष्यन्तः पुरस्ताच्चोपरिष्टाच्चाभिः परिदधति लम्भुको हवासो भवत्यनग्नो भवति" इति । वाजसनेयके - " कि मे वास ? " इति प्राणेनपृष्ट्वा वागादय ऊचुः " आपो वास इति तद् विद्वांसः श्रोत्रिया अशिष्यन्त श्राचामन्त्यशित्वा चाचामन्त्येतमेव तदनमनग्नं कुर्वन्तो मन्यन्ते “तस्मादेवं विदशिष्य- नाचामेदशित्वा चानामेदेतमेव तदनमनग्नं कुरुते " इति । तत्र संशयः, कि अत्राचमनं विधीयते उत प्रपां प्रारणवासत्त्वानुसंधानमिति ? “अशिष्यन्नाचामेदशित्वा चाचामेत् “इत्याचमने विधिप्रत्ययश्रवणात् " एतमेव तदनमनग्नं कुरुते” इति वेदने विधिप्रत्ययाभावादनग्नता संकीर्तनस्य स्तुत्यर्थतयाऽन्वयोपपत्तेश्च भोजनांगस्याचमनस्य
( ६६० ) स्मृत्याचार प्राप्तत्वेन विधि प्रत्ययबलात् प्राणविद्यांगमाचमनान्तरं विधीयते । पूर्व प्रस्तुत प्राणविद्या के अंगों पर यहाँ विचार करते हैं। छांदोग्य और वृहदारण्यक में ज्येष्ठ श्रेष्ठ प्राण की उपास्यता बतलाकर प्राण के वस्त्र के रूप से, जल का उल्लेख किया गया है । छांदोग्य में जैसे- “उस प्राण ने कहा कोई मेरा वस्त्र होगा ? इन्द्रियों ने कहा “जल” होगा । इसीलिए भोजन करने वाले, भोजन के बाद जल द्वारा परिवेष्टन करते है, इसी से प्राण वस्त्र धारण करने वाला अनग्न रहता है " वृहदारण्यक में - " मेरा वस्त्र क्या है? " प्राण द्वारा ऐसा पूछने पर वागादि ने कहा- जल ही वस्त्र है । इसलिए शास्त्रमर्मज्ञ भोजन के पूर्व और पश्चात् आचमन करके अपने प्राण को अनग्न करते हैं । " इस पर संशय होता है कि उक्त प्रसंग में आचमन का विधान किया गया है, अथवा जल का, प्राण के वस्त्र रूप से अनुसंधान किया गया है? “भोजन के पूर्व और बाद में आचमन करना चाहिए” इस वाक्य में आचमन में विधि प्रत्यय के उल्लेख से, तथा “इसे अनग्न करते हैं” इत्यादि में उपासनापरक विधिप्रत्यय न होने से, एवं अनग्नता दिखलाने केलिए स्तुतिवाद की उपपत्ति से, और स्मृतिशास्त्र के भोजनांग रूप आचमन के सदाचार उपदेश से निश्चित होता है कि प्राणविद्या के अंगभूत स्वतंत्र आचमन का ही विधान किया गया है । " प्राणस्य सिद्धान्तः - इति प्राप्तेब्रूमः श्राचमनीयानामपां वासस्त्वानुसंधानमेवेह-प्रपूर्वम् प्रप्राप्त विधीयते, कार्याख्यानात् - अप्राप्ताख्यानात् प्रप्राख्यानेशब्दस्यार्थवत्वादित्यर्थः । एतदुक्तं भवति - “कि मेवास:” “प्रपोवासः " प्रदद्भिः परिदधति “एतमेव तदनमनग्नं कुरुते” इत्युपक्रमोपसंहारयोर्वाक्यापां प्राणवासा दृष्टिपरत्वप्रतीतेराचमनस्य स्मृत्याचारप्राप्तत्वादाचमननूद्याचम- नीयास्वप्सु प्राणवासस्त्वानुसंधानं विधीयते इति । अतएव छांदोग्ये - " तस्मादवा एतदशिष्यन्तः पुरस्ताच्चोपरिष्टाच्चाद्भिः - परिदधति” इत्यदुभिः परिधानमेवोक्तम् नाचमनम् ।
i eet ) १ इस पर सिद्धान्त कहते हैं कि प्राण के वस्त्ररूप के प्राचमनीय जल का विधान किया गया है। इसके पूर्व कहीं भी ऐसा विधान नहीं मिलता कहीं भी ऐसा आख्यान अर्थात् शब्दार्थ नहीं मिलता । कथन यह है कि- " मेरा वस्त्र क्या है ? ‘जल वस्त्र है " जल को धारण करता है “इससे ही अनग्न करता है” इत्यादि उपक्रम और उपसंहार के वाक्यों में, जल में प्राण की वस्त्ररूप प्रतीति होने से ज्ञात होता है कि स्मृति शास्त्र भी, सदाचाररूप आचमनीय जल का उल्लेख करके उसमें प्राणवस्त्रता के चिन्तन का विधान करता है । इसीलिए भोजन करने वाले भोजन के प्रथम और बाद में जल को धारण करते हैं इस छांदोग्य वाक्य में जल को केवल परिधान मात्र कहा गया है आचमन नहीं । ६ समानाधिकरण:- समान एवं चाभेदात् | ३ | ३|१६||
वाजसनेयके अग्निरहस्ये शांडिल्यविद्याऽन्नाता- “सत्यं ब्रह्मे- त्युपासीत प्रथखलु क्रतुमयोऽयं पुरुषः " इत्यारभ्य " स श्रात्मान- मुपासीत मनोमयप्राण शरीरं भारूपं सत्यसंकल्पमाकाशात्मानं " इति । तथा तस्मिन्नेव वृहदारण्यके पुनरपि शांडिल्यविद्याऽम्नायते " मनोमयोऽयं पुरुषोभाः सत्य तस्मिन्नत्तहृदये यथा व्रीहिर्वा यवो वा स एव सर्वस्यवशी सर्वस्ये शानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं कि च” इति । तत्र संशयः किमत्र विद्या भिद्यते उत नेति ? संयोगचोदनाख्यानामविशेषेऽपि वशित्वाद्युपास्यगुणभेदेन रूपभेदात् विद्याभेदः । ’ शुक्लयजुर्वेदीय वृहादरण्यक में अग्निरहस्य के प्रकरण में शांडिल्य विद्या का उपदेश है - " सत्यब्रह्म की उपासना करो, यह पुरुष (जीव ) निश्चित ही ऋतुमय है “इत्यादि से प्रारंभ करके " मनोमय प्राणस्वरूप ज्योतिर्मय, सत्यसंकल्प आकाशात्मक उस आत्मा की उपासना करो | “उसी वृहदारण्यक में पुनः शाण्डिल्य विद्या का उपदेश इस प्रकार है “अंत: -करण में ज्योति और सत्यस्वरूप मनोमय पुरुष (जीव ) स्थित है जैसे कि -ब्रीहि या यव होते हैं, वैसे ही वह है, वही सर्वज्ञ - वशी सर्वेश्वर - सर्वाधिपति
( EER ) तथा सारे विश्व का प्रशासक है” इत्यादि, अब संशय होता है कि यहाँ विद्या में भेद है या नहीं? फल संयोग, विधिवाक्य और नाम विषयक पृथक्ता न होते हुए भी उपास्यगत वशित्व आदि गुणों का भेद होने से, विद्या भिन्न ही प्रतीत होती है । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - समान एवमिति । यथाऽन्नि- रहस्ये मनोमयप्राणशरीरमा रूप सत्य संकल्पत्वगुणगणः श्रुतः, एवं वृहदारण्यकेsपि मनोमयत्वादिके समाने सत्यधिकस्य वशित्वादेश्च सत्यसंकल्पत्वगुणाभेदान्न रूपभेदः, अतो विद्यैक्यम् । उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं-जैसे कि अग्निरहस्य में मनोमय प्राणशरीर भारूप सत्यसंकल्पता आदि गुणों का उल्लेख है, वैसे ही वृहदारण्यक में भी मनोमयता आदि तो समान हैं ही, वशित्व आदि गुण, सत्यसंकल्पता श्रादि गुणों की अपेक्षा, समानरूप से अधिक ही हैं । उनमें कोई भेद न होने से रूपभेद नहीं है, इसलिए विद्या एक ही है । ७ संबंधाधिकरणः- संबंधादेवमन्यत्रापि | ३ | ३|२०|| । वृहदारण्यके श्रूयते “सत्यं ब्रह्म " इत्युपक्रम्य” तद् यत्सत्यमसौ स आदित्यो य एष एतस्मिन् मंडले पुरुषो यश्चाऽयं दक्षिणेऽक्षिन् " इत्युपक्रम्य प्रादित्य मंडलेऽक्षिणि च सत्यस्य ब्रह्मणो व्याहृति शरीरत्वेनोपास्यत्वमुक्त्वा “तस्योपनिषदहमित्यध्यात्मम्” इति द्व े उपनिषदौ - रहस्यनामनी उपासन शेषतयाऽन्नायेते, ते कि यथा श्रुतस्थानविशेषनियतत्वेन व्यवस्थिते, उतोभयत्रोभे अनियमेनेति संशये सत्यस्यव्याहृति शरीरस्यैवोपास्यस्य ब्रह्मणो द्वयोः स्थानयोः संबंधात् उपास्यैक्येन रूपाभेदात् संयोगाद्यभेदाच्च विद्यैक्यादनियमेनेति प्राप्तम् । तदिमुच्यते - " संबंधा देवमन्यत्रापि " इति यथा मनोमयत्वादि गुणविशिष्टस्यैकत्वादुपास्यैक्येन रूपाभेदात् विद्यैक्याद्गुणोपसंहारः,
( २८३ ) एवमन्यत्राक्ष्यादित्य संबं घिनो ब्रह्मणः सत्यस्यैकत्वेन विद्य क्यादुभयो - रुभयत्रोपसंहारः । वृहदारण्यक में “सत्यं ब्रह्म " इत्यादि उपक्रम करके " जो यह सत्य है वही प्रसिद्ध आदित्य है जो कि आदित्य मंडल और नेत्र में स्थित पुरुष है “इत्यादि में मादित्य मंडल और नेत्रों में, सत्यब्रह्म की व्याहृति को शरीर विशिष्ट रूप से आस्य बतलाकर- " उसका उपनिषद् में अहः ऐसा श्रधिदेवत नाम है " उसका उपनिषद में अहम् ऐसा अध्यात्म नाम है” इन दो रहस्यमयी उपनिषदों को, उपर्युक्त आमना के अंगरूप में वर्णन किया गया है। इस पर संशय होता है कि उक्त दोनों नामों में जिनका जहाँ उल्लेख है, वहीं वह व्यवहार्य हैं, अथवा उनका कोई नियम नहीं है ? इसलिए दोनों जगह व्यवहार होता है? व्याहृति शरीर विशिष्ट सत्य नामक उपास्य ब्रह्म के साथ दोनों ही जगह संबंध होने से, उपास्य की एकता प्रतीत होती है, विद्या की एकता से दोनों नामों का भी, दोनों जगह प्रयोग संबंध होगा । इस पर “संबंधादेवमन्यत्रापि " सूत्र, पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं । जैसे कि मनोमयत्व आदि गुण विशिष्ट का, एक उपास्य होने से, रूप में अभेद तथा एक विद्या होने से गुणोपसंहार होता है। ऐसे ही भिन्न भिन्न, नेत्र आदित्य संबंधी ब्रह्म के एक होने से, एक विद्या निश्चित होती है । विद्या एक होने से दोनों नामों का दोनों जगह उपसंहार होगा, यह भी निश्चित है । सिद्धान्तः एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे- इस पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं- न वा विशेषात् | ३|३|२१|| न वैतदस्ति यदविद्यक्यादुपसंहारः इति । कुतः ? विशेषात् उपास्यरूपविशेषात् । ब्रह्मण एकत्वेऽप्येकत्रादित्य मंडलस्थतया उपास्यत्वम्, इतरत्राक्ष्याधारतयोपास्यत्वमिति स्थानसंबंधित्व- भेदेन रूपभेदात् विद्याभेदः । नैवं शांडिल्यविद्याया: उपास्यस्थानं भिद्यते, उभयत्र हृदयाधारत्वेनोपास्यत्वात । अतोव्यवस्थित इति ।
( ६६४ ) ऐसी बात नहीं है जैसा कि आप अनुमान कर रहे हैं कि - विद्या की एकता के आधार पर गुणोपसंहार होगा । उपास्य ब्रह्म की स्वरूपगत एकता होते हुए भी स्थान का भेद है, एक जगह आदित्य मंडल में उपास्य की स्थिति बतलाई गई है, दूसरी जगह नेत्रों में । इस प्रकार स्थान भेद से रूप भेद और विद्याभेद है । शांडिल्यविद्या में उपास्यस्थान का भेद नहीं है, दोनों जगह हो ह्रदयाधार उपासना का उपदेश हैं । इसलिए जो नाम जहाँ व्यवस्थित हैं, वहीं उसका व्यवहार होगा । दर्शयति च | ३ | ३|२२|| दर्शयति चाक्ष्याधारादित्याधारयोर्गुणानुपसंहारं - “तस्येतस्य तदेवरूपं यदमुष्यरूपम्” इत्यादिना रूपाद्यतिदेशन | स्वतो हि अप्राप्तावति देशेन प्राप्त्यपेक्षा । “यह अक्षिपुरुष उसी रूप का है, जो पूर्ववर्त्ती श्रादित्यपुरुष का रूप था’ इत्यादि में रूपादि के उल्लेख द्वारा श्रुति भी नेत्राधार और प्रादित्याधार में गुणों का अनुपसंहार बतला रही है । जहां स्वत: विषयावगति नहीं होती वहाँ अतिदेश अपेक्षित होता है । ८ संभृत्याधिकररण:– संभृतिद्युब्याप्त्यपि चातः | ३|३|२३|| तैत्तरीयके नारायणीयानां खिलेषु च “ब्रह्म ज्येष्ठावीर्या संभृतानि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमाततान, ब्रह्मभूतानां प्रथमोऽतजज्ञे ते नहिति ब्रह्मणस्पर्धितुं कः” इति ब्रह्मणि ज्येष्ठानां बीर्याणां संभृतिः, द्यव्याप्तिश्चेत्यादिगुणजातमान्नातम् । तेषामुपासनविशेष- मनारभ्याधीतानां गुणानां सर्वासु विद्यासूपसंहारे प्राप्त उच्यते— तैत्तरीय और नारायणीय के खिल कांड में “ब्रह्म ही सर्वोत्कृष्ट वीर्यों के रूप में संचित थे, तथा आदि भूतब्रह्म ही पहिले द्युलोक में व्याप्त थे, ब्रह्म ही सब भूतों में सर्वप्रथम जन्मे थे, इसलिए ब्रह्म के साथ स्पर्धा करने में कौन समर्थ है ?” इस प्रकार उत्कृष्ट वीर्यों का संचय और
( ६६५ द्युलोक व्याप्ति आदि गुणों का उल्लेख है, किसी उपासना विशेष का प्रसंग क्रम नहीं हैं, इसलिए सभी विद्याओं में उक्त गुणों का उपसंहार हो सकता है । इस पर कहते हैं- सिद्धान्तः - " संभूतिद्य व्याप्त्यपि " इति । संभूतिद्य व्याप्तीति समाहार द्वन्द्वत्वादेकवद्भावः | संभृत्यादिकमनारम्याधीतमपि अतएवस्थानभेदात् व्यवस्थाप्यम् न सर्वत्रोपसंहत्तंत्र्यम् । कथम- नारभ्याधीतानां स्थानविशेष नियतत्वम् ? स्व सामर्थ्यात् इति ब्रूमः । द्यव्याप्तिस्तावद हृदयाद्यल्पस्थानगोचरासु विद्यासु नोपसंहत्तु शक्या, संभृत्यादयोऽपि तत् सहचारिणः तत्तुल्यदेशा इत्यल्पस्थानविपयासु विद्यास्वनुपसंहार्याः । शांडिल्यदहादिविद्यास्वल्पस्थानविषयासु “ज्यामान् पृथिव्याः " यावान्वाऽयमाकाशस्तावानेषोऽन्त दयाकाशः इत्यादयस्तत्रतत्राशक्योपसंहाराः विशिष्टस्योपास्यस्य माहात्म्य प्रतिपादनपराः । मनोमयत्वापहतपाप्मत्वादि सिद्धान्तः – " संभूतिद्युव्याप्ति” पद में समाहार द्वन्द्व समास होने से एक वचन है । जिससे यह तात्पर्य होता है कि–संभूति आदि गुग, प्रकरण विषय नहीं है, इसलिए स्थान भेद के अनुसार उनकी व्यवस्था करनी होगी, सर्वत्र उपसंहार नहीं किया जा सकता । यदि कहें कि जो सर्वत्र उपसंहृत नहीं हो सकते वे स्थान विशेष में ही कैसे होंगे ? (उत्तर) वे अपनी सामर्थ्य से हो सकते हैं । द्युव्प्राप्ति हृदय आदि अति सूक्ष्म अलक्ष्य विद्याओं में तो उपसंहृत नहीं किये जा सकते | संभृति आदि भी, उनके सहचारी होने से, अति सूक्ष्म स्थानीय विद्याओं की तरह स्थानों में, उपसंहार्य नहीं हैं। शांडिल्य दहर आदि अल्प स्थानीय विद्याओं में- “पृथ्वी से श्रेष्ठ” बाह्याकाश के परिमारण की तरह हृदयाकाश का भी, परिमाण है” इत्यादि उपदेश यद्यपि अशक्य हैं, फिर भी उनका जो वहाँ उपसंहार बतलाया गया है, वह मनोयमता, निर्दोषता आदि गुणों से विशिष्ट उपास्य की महिमा का प्रतिपादक है । हपुरुष विद्याधिकरणः- पुरुष विद्यायामपि वेतरेषामनाम्नानात् । ३।३।२४ ॥
( २११ )
तैत्तरीयके पुरुषविद्याऽन्नायते " तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यऽत्मायज- मानः श्रद्धा पत्नी शरोरमिध्ममुरो वेदर्लोमानि वहिः” इत्यादिका । छांदोग्येऽपि पुरुषविद्याऽन्नायते - " पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशति वर्षारिण” इत्यादिका । तत्र संशयः किमा विद्याभिद्यते उत न ? इति । पुरुषविद्येति नाम्यैक्यात् पुरुषावयवेषु यज्ञावयव कल्पनसाम्येन रूपैक्यात् तैत्तरीयके फलसंयोगाश्रवणात्” प्रह षोडश वर्षशतं जीवति” इति छांदोग्ये श्रुतस्यैव पुरुषविद्या फलत्वाद फलसंयोगस्याप्यविशेषात् विद्यैक्यम् । कौषीतकि में पुरुष विद्या का उपदेश इस प्रकार दिया गया है– “ज्ञान संपन्न उस यज्ञ पुरुष का आत्मा ही यजमान है, श्रद्धा उनकी पत्नी है, काष्ठ उसका शरीर है कुश उसके लोम हैं” । छांदोग्य में पुरुष विद्या का उपदेश इस प्रकार है - " प्रसिद्ध पुरुष ही यज्ञ है उसकी चौबीस वर्ष की आयु है ।” संशय होता है कि ये दोनों विद्या एक हैं या भिन्न ? पुरुष विद्या ऐसी नाम एकता से, पुरुष के अंगो में, यज्ञांगों की कल्पना से रूप एकता से, तैत्तरीय में विद्या के फल का उल्लेख न होने से तथा- छांदोग्योक्त - “जो सोलह सौ वर्ष जीवित रहता है” ऐसे फल निर्देश से विशेष भेद न होने से, विद्या-एक ही प्रतीत होती है। , सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते-उभयत्राम्नातयोविद्ययोः पुरुष विद्यात्वेऽपि विद्याभेदोऽस्त्येव कुतः ? इतरेषामनाम्नानात् एकस्यां शाखायां श्राम्नातानां गुणानामन्यत्रानान्नानात् । तथा हि- " यत्साय प्रातर्मध्यन्दिनं च तानि सवनानि" इत्यादयस्तैत्तरीयके श्राम्नाताः छांदोग्ये सवनत्वेन नान्नायन्ते त्रेधा विभक्त पुरुषायुषं छांदोग्ये सवनत्वेन कल्प्यते छांदोग्ये श्रुतानां श्रशिशिषादीनां दीक्षादित्व कल्पनं तैत्तरीयके न कृतम् यजमान पत्न्यादि परिकल्पनं चान्यथा । श्रतो रूपमुभयत्र भिद्यते । तथा फलसंयोगोऽपि भिद्यते तैत्तरीयके हि पूर्वानुवाके-" ब्राह्मणे त्वामहस ग्रोमित्यात्मानं युंजीत्” इति ब्रह्मविद्यामभिधाय तत्फलस्वेन " ब्रह्मणो महिमानमाप्नोति”
( ६८७ ) इत्युक्तत्रा “तस्यैवंविदुषः” इत्यादिना श्रान्नाता पुरुषविद्याऽस्येव ब्रह्म विदुषो यज्ञत्वकल्पनमिति गम्यते । उक्त संशय पर सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं- दोनों जगह कही गई विद्या में नामैक्य होते हुए भी, विद्या भेद है । एक शाखा के उल्लेख गुणों का दूसरी शाखा में उल्लेख न होने से ही उक्त मत स्थिर होता है । “जो सायं प्रातः और मध्मान कालिक है वही सिवन है” इत्यादि तैत्तरीय का वचन है, छांदोग्य में सवन रूप का उल्लेख नहीं है, अपितु तोधा विभक्त पुरुष की आयु सवन रूप से कल्पित सवन रूप से कल्पित है । छांदोग्य में- भोजनेच्छा आदि की, दीक्षा रूप से कल्पना की गई है, जो कि नैत्तरीय में नहीं हैं; यजमान पत्नी आदि की कल्पना भी भिन्न प्रकार से की गई है, इस प्रकार दोनो के रूप में भेद है । इसी प्रकार फल संयोग में भी भेद है, तैतरीय के पूर्वानुवाक में “ज्योतिर्मय ब्रह्म प्राप्ति के उद्देश्य से, ऊँकार से आत्मा को संयोजित करो” इत्यादि से ब्रह्म विद्या का उपदेश देकर फल बतलाते हैं- “ब्रह्म की महिमा को प्राप्त करता है” तस्यैवं पुरुषः से ब्रह्म विद्या का उल्लेख करते हैं । इसी ब्रह्मविद्या के ज्ञाता की यज्ञरूप कल्पना प्रतीत होती है । अतो ब्रह्मविद्यांगत्वाद् ब्रह्मप्राप्तिरेवात्र फलम, “फलवत सन्निधावफलं तदंगम्” इति न्यायात तैत्तरीयकाम्नातापुरुषविद्या ब्रह्मविद्यागमिति गम्यते । छांदोग्ये स्वायुः प्राप्तिफला पुरुषविद्यत्युक्तम् । अतो रूपसंयोगोदादविद्याभेद इत्येकत्राम्नातानां गुणानामितर- त्रानुपसंहारः । इसलिए ब्रह्म विद्या के अंग होने से, ब्रह्म प्राप्ति हो इसका फल हैं ऐसा समझना चाहिए । " सफल क्रिया के सन्निधान में उक्त फल रहित क्रिया, उस सफल कार्य का ही अंग होती है” इस नियम से ज्ञात होता है कि-तंत्तरीय में पठित पुरुष विद्या ब्रह्म विद्या का ही अंग है । छांदोग्य में दीर्घ जीवन प्राप्ति को ही पुरुष विद्या का फल बतलाया गया है । इस प्रकार स्वरूप और फल संयोग भिन्न होने से, विद्या में भी भेद है; इसलिए एक स्थान के उल्लेख्य गुणों का दूसरी जगह उपसंहार नहीं हो सकता !
१० वेधाद्यधिकरण:- वेधाद्यर्थभेदात् । ३।३।२५॥ ( ६६६ ) प्राथर्वणिका उपनिषदारम्भे “शुक्र प्रविध्य हृदयं प्रविष्य" इत्यादीन्मंत्रानधीयते; सामगाश्च रहस्यब्राह्मणारम्भे - “देवः सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव” इत्याद्यामनंति, काठकास्तैत्तरीयकाश्च " शन्नोमित्र: शंवरुणः" इत्य दिकम् ; शाट्यायनिनश्च “श्वेतोऽश्वो हरिनीलोऽसि " इत्यादिकम् ऐतरेयिणस्तु महाव्रतब्राह्मणमधीयते " इंद्रोहवै वृत्र ं हत्वा महानभवत्" इत्यादि, कौषित किनोऽपि महाव्रतब्राह्ममेव “प्रजापतिर्वै संवत्सरः तस्यैष आत्मा यन्महाव्रतम्” इति वाजसने- यिनस्तु प्रवर्ग्यब्राह्म “देवा हवै सत्रं निषेदुः " इत्यादि । तत्र संशयः किमुपनिषदारंभेष्वधीताः “शुक्र प्रविध्य “ शन्नो मित्रः” इत्यादयो मंत्राः प्रवर्ग्यादीनि च कर्माणि विद्यांगं उत न ? इति कि युक्तम् ? विद्यांगमिति । कुतः ? सन्निधिसमाम्नानात् विद्यांगत्व प्रतीतेः । यद्यपि “शुक्र प्रविष्य” इत्यादिनां मंत्राणां प्रवर्ग्यादेश्च कर्मण: श्रतिर्लिंगवाक्यैर्बल व द्भिर्यथायथं कर्मसु विनियोगोऽवगम्यते । तथापि - " शंन्नोमित्रः " सह नाववतु " इत्यादे मंत्रस्यान्यत्र विनियोगा भावात् विद्याधिकाराच्च विद्यांगत्वमवर्णनीयमिति सर्वासु विद्यासु हमे मंत्रा उपसंहर्त्तव्याः । आथर्वणिक उपनिषद के प्रारम्भ में - " शुक्र को वेधकर हृदय की वेधकर" इत्यादि मन्त्र का पाठ है, सामवेदीय रहस्य ब्राह्मण के प्रारम्भ में " हे प्रकाशमान सूर्यदेव, यज्ञ का प्रसव करो’ इत्यादि पाठ है । तैत्तरीय काठक में - “सूर्य हमारा मंगल करें, वरुण हमारा कल्याण करें” एवं शाट्यायन शाखा में " हे हरि ! तुम्हीं नील श्वेत अश्व हो’ तथा ऐतरेय महाव्रत ब्राह्मण में “इन्द्रवृत्र को मारकर महान हो गये” और कौषीतकि महाव्रत ब्राह्मण में - " प्रजापति ही संवत्सर हैं", वही उसकी आत्मा है, जिसका नाम महाव्रत है इसी प्रकार वाजसनेय प्रवयं ब्राह्मण ( EEE ) में देवता रात्र में निमग्न थे" इत्यादिपाठ मिलता है। अब संशय होता है कि- उपनिषदों के आरम्भ में पढ़े गये “शुक्र प्रविष्य” मंत्रो मित्र " इत्यादि मन्त्र और प्रवर्ग्य आदि कर्म-विद्यांग हैं या नहीं? कह सकते हैं कि क्योंकि - विद्याओं के साथ ही इनका पाठ है । यद्यपि “शुक प्रविध्य” इत्यादि मंत्र और प्रवयं आदि कर्म श्रुति-लिंग वाक्य आदि पूर्व बलवान प्रमाणों के अनुसार यज्ञादि कर्मों में ही विनियोग प्रतीत होते हैं, फिर भी “शत्रो मित्र” सहनाववतु" इत्यादि मंत्रों का कहीं अन्यत्र विनियोग नहीं पाया जाता विद्याधिकार में ही इनका पाठ है इसलिए इनकी विद्यांगता अनिवार्य हो जाती है, सभी विद्याओं में इनका उपसंहार हो सकता है । सिद्धान्तः एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे - वेदाद्यर्थभेदात्- " शुक्र प्रविष्य हृदयं प्रविध्य" ऋतं वदिष्यामि " सत्यं वदिष्यामि" क्रतमवादिषं सत्यमवादिषं ‘तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै " इत्यादि- भिलिंगैरभिचाराध्ययनादिष्वेषां विनियोगावगमान्न विद्यांगत्वम् । एतदुक्त भवति यथा–“हृदयं प्रविष्य” इत्यादि मंत्रसामर्थ्यात् इत्यादीनामभिचारादिशेषत्वमवगम्यते, एवमेव “ऋतं वदिष्यामि " तेजस्विनामधीतमस्तु” इत्यादि मंत्र सामर्थ्यादेव स्वाध्याय शेषत्वम् ‘‘शन्नो मित्रः" इत्यादि मन्त्राणामवगम्यते, प्रतो- न तेषां विद्यांगत्वम् इति, “शुक्र ं प्रविष्य” इत्यादीनां प्रवर्ग्यादि- ब्राह्मणानां चेह पाठो दिवाकीर्त्यत्वारण्येनुवाक्यत्वकृतः । “शुक्र प्रविध्य” उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “वेदाद्यर्थं भेदात् " सूत्र प्रस्तुत करते हैं । " शुक्रं प्रविष्य” ऋतं वदिष्यामि" सत्यं वदिष्यामि " तेजस्विनामवधीत मस्तु मा विद्विजावहै" इत्यादि स्थलों में कहे गए अभिचार, अध्ययन आदि के लिंग से ज्ञात होता है कि इनका विनियोग अभिचार आदि में ही है ये विद्या के अंग नहीं हो सकते । कथन यह है कि “हृदयं प्रविष्य” इत्यादि मंत्र के सामर्थ्य से ही “शुकं प्रविध्य” इत्यादि की अभिचारादि मैं ही पूर्ति प्रतीत होती है इसी प्रकार “ऋतं वदिष्यामि” तेजस्विनामवधीत- मस्तु " इत्यादि मत्रों के सामर्थ्य से हो स्वाध्याय की पूर्ति “शंनो मित्रः "
1 १००० } इत्यादि मंत्रों में प्रतीत होती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये विद्यांग नहीं हैं । " शुक्रं प्रविध्य” इत्यादि मंत्र और प्रवर्ग्य आदिब्राह्मण का जो उल्लेख किया गया है, उसका उद्देश्य है कि दिन में इनका पाठ नहीं होता तथा जंगल में ही इनका पाठ होता है । ११ हान्याधिकररणः हानौतूपायनशब्दशेषत्वात्कुशाच्छंदः स्तुत्युपगानवत्तदुक्तम् 1 |३|३|२६|| छंदोगा ग्रामनंति “अश्व इव रोमाणि विधूय पापं चंद्र इव राहोर्मुखात् प्रमुच्य, धूत्वाशरीरमकृतं कृतात्मा ब्रह्मलोक- मभिसंभवानि ” इति श्रथर्वणिकाश्च– “ तदाविद्वान पुष्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति ” इति शाट्यायनिनस्तु- “तस्यपुत्रा दायमुपयंति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषंतः पापकृत्याम् " इत्यादि । कौषीतकिनस्तु " तत्सुकृतदुष्कृते धुनुते तस्य प्रिया ज्ञातयः सुकृतमुपर्यंत अप्रिया दुष्कृतम्” इति । एवं क्वचिद पुण्यपापयो हिनिः क्वचिदप्रियाप्रियेषु तत्प्राप्तिः क्वचिदुभयं च श्रुतम् । तदुभय- मेकैकविद्यायां श्रुतमपि सर्वविद्यांगमास्थेयम, सर्वविद्यांगमास्थेयम, सर्व ब्रह्मविद्या- निष्ठस्यायि ब्रह्म प्राप्नुवतः पुण्यपापप्रहाणस्यावश्यम् भावित्वात् प्रहीणविषयत्वाच्चोपासनस्य । तच्चितनं च विधीयमानं सर्वविद्यांग भवितुमर्हति । छांदोग्य में पाठ है कि- “घोड़े के रोंयें की तरह पापों को झाड़कर राहु से छटे हुए चन्द्र की तरह निष्पाप निष्कर्म कृतार्थ आत्मा में निर्मल शरीर धारण कर ब्रहलोक को प्राप्त करूँगा” इसी प्रकार आथर्वणिक में भी " वह विद्वान पाप-पुण्य को धोकर निरतिशय ब्रह्म की समता प्राप्त करता है तथा शाट्यायन में भी ऐसे ही “उसके पुत्र संम्पत्ति पाते हैं, मित्र उसका पुण्य पाते हैं और शत्र उसका पाप प्राप्त करते हैं
( १००१ ) “कौषीतकि में भी जैसे- “तब ज्ञानी पुण्य पाप का परित्याग करते हैं उसके प्रिय को मित्रगण तथा अप्रिय को शत्रगण प्राप्त करते हैं । " इस प्रकार कहीं पुण्य पाप की हानि, कहीं प्रिय अप्रिय की प्राप्ति, कहीं दोनों की प्राप्ति बतलाई गई है । विद्या विशेष में ही त्याग और ग्रहण का उल्लेख होते हुए भी सभी विद्याओं में प्रकारांतर से उन्हें स्वीकारा गया है, क्योंकि सभी विद्याओं में निष्ठाप्राप्त पुरुष की ही ब्रह्म प्राप्ति बतलाई गई है, उसका पुण्य पाप से हीन होना अवश्यम्भावी है । विषयों की हीनता ही एक मात्र ब्रह्मप्राप्ति का उपाय है। उक्त वाक्यों में जो चिन्तन की शैली है. उससे ये सब विद्यांग ही हो सकते हैं । तत्रेदं विचार्यते - हा निचिन्तनमुपायनचिन्तनमुभयचिन्तनं च विकल्प्येरन्, उपसंहियेरन्वा ? किं युक्तम् ? विकल्प्येरन्निति । कुतः ? पृथगाम्नानसामर्थ्यात् । समुच्चये हि सर्वश्रोभयानसंघानं स्यात्, तच्च कौषीतकि वाक्येनैव सिद्धमित्यन्यत्रान्नानमनर्थके मेव स्यात् । अतो अनेकत्रान्नानस्य विकल्प एव प्रयोजनम् । नचाध्येतु- भेदेन परिहर्तु शक्यमनेकत्रास्नानम् श्रविशेष पुनः श्रवणं हि श्रध्येतृभेद परिहार्यम् श्रश्तु हानिरेवद्वयोः शाखयोः उपायनमेव वैकस्याम् । न च विद्याभेदेन व्यवस्थापयितुं शक्यम् सर्वशेषभूत- मिदमनुसंधान मित्युक्तत्वात् । , इस पर विचार होता है कि हानि के चितन, उपायन के चिन्तन और दोनों के चिन्तन, इसमें से एक का ही विकल्प होगा अथवा सबका उपसंहार होगा ? कह सकते हैं कि विकल्प होगा क्योंकि अलग-अलग इनका उल्लेख है। विषय का चिन्तन यदि समुच्चय बोधक होता तो सभी जगह पापमोचन और उसका ग्रहण दोनों का ही उल्लेख होता, ऐसा होने से कौषीतकी वाक्य ही सिद्ध होगा अन्य पाठ विरुद्ध हो जावेंगे। इसलिए भिन्न-भिन्न पाठों के अनुसार विकल्प ही प्रयोजनीय प्रतीत होता है । अध्याता के भेद से इन सबका खंडन नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनेक उपनिषदों में भिन्न-भिन्न पाठ हैं। अविशेष एक हीं प्रकार की पुनरुक्ति में, अध्येता भेद की बात संगत हो सकती है । यहाँ तो दो शाखाओं में हावि तथा एक शाखा में उपायत का वर्णन है । उक्त
( १००२ चिन्तन को समस्त विद्यानों का अंग कहा गया है इसलिए इनमें विद्या भेद की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सिद्धान्तः — प्रत्रेदमुच्यते- हानौतूपायनशब्दाशेषत्वात् इति । तु शब्दः पक्ष व्यावर्त्तयति, हानाविति प्रदर्शनार्थम्, केवलायां हानौ केवले चोपायने श्रयमाणे तयोरितरेतरसमुच्चयोऽवश्यंभावी, कुतः ? उपायनशब्दशेषत्वात् – उपायनशब्दस्य हानिवाक्यशेषत्वात् । उपायनशब्द वाक्यस्य हि हानिवाक्यशेषत्वे मेवोन्वितम् विदुषा त्यक्तयोः पुण्यपापयोः प्रवेशस्थानवाचित्वादुपायनवाक्यस्य । प्रदेशान्तराम्नातस्य वाक्यस्य प्रदेशान्तराम्नात शेषत्वे दृष्टांता उपन्यस्यते– कुशाच्छन्दः स्तुत्युपगानवदिति । कालापिनः " कुशा वानस्पत्या: " इत्यामनति । शाट्यायिनां तु " श्रदुम्बर्यः कुशा : " इति वाक्यं सामान्येन वानस्पत्यत्वेनावगताः कुशाः प्रौदुम्बर्य इति विशिषत्तद्वाक्य शेषतामापद्यते । तथा “देवासुराणांछंदोभिः इत्यादिना प्रविशेषेण देवासुराणां छन्दसां प्रसंगे” देवच्छंदासि पूर्वम् " इति वचनं क्रमविशेषं प्रतिपादयत्तद्वाक्य शेषतां गच्छति । तथा " हिरण्येन षोडशिनः स्योत्रमुपाकरोति” इत्यविशेषेण प्राप्ते “समया विषिते सूर्ये षोडशिनः स्त्रोमुपाकरोति” इति विशेष विषयं वाक्यं तद्वाक्यशेषतां भजते । तथा “ऋत्विज उपगायन्ति " इत्यविशेष प्राप्तस्य " नाध्वर्युरुपगायेत्” इति वाक्यमनध्वर्यु विषयतामवगयत्तद्वाक्यशेषत्वमृच्छति, एवं सामान्येनावगतमर्थं विशेषेव्यवस्थापयितुं क्षमस्य वाक्यस्य तच्छेषत्व मनभ्युपच्छद्भिस्त- योरर्थयोविकल्पा समाश्रयितव्यः सच संभवत्यां गतौन युज्यते, तदुक्त पूर्वस्मिन् कांडे “अपितु वाक्य शेषस्यादन्याय्यत्वाद विकल्पस्य विधीनामेकदेशः स्यात्” इति । तदेवं केवलहानोपायनवाक्ययोरे- कवाक्यत्वात् केवलस्यहानस्य, केवलस्यचोपायनस्याभावाद् विकल्पो
( १००३ ) नोपपद्यते । कौषतकीनां उभयान्नानमविशेष पुनः श्रवणत्वेन प्रति- पतृभेदादविरुद्धम् । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “हानोत्पायन” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । तु शब्द उक्त पक्ष का निवारक है । हानौ पद तो केवल उदाहरण की प्रस्तुति का बोधक है। केवल हानि या केवल उपायन के उल्लेख से ही दोनों का परस्पर समुच्चय अवश्यम्भावी हो जाता है । हानिवाक्य के शेष होने पर, उपायन शब्द की स्वतः ही उपस्थिति हो जाती है । उपायन वाक्य की हानिवाक्य शेषता स्वाभाविक ही हैं, पुण्य- पापहीन महात्मा के प्रवेश स्थान के वाची उपायन वाक्य की स्वतः प्रतीति हो जाती हैं (अर्थात् जब पाप पुण्य से छुटकारा मिल गया तब ब्रह्म ही एक मात्र उपायन (प्राप्ति) स्थल है. यह अवश्यम्भावी है, अतः उपायन वाक्य का उल्लेख हो या न हो, उसकी प्रतीत तो हो ही जायगी ) । एक स्थान में पठित वाक्य, अन्य स्थानीय वाक्य का शेष (अंगभूत) हो सकता है, इसे उपन्यस्त (विस्तृत रूप से) करते हैं । कलाप शाखा में प्रसंग है कि - " कुशवनस्पति है” शाट्यायन का प्रसंग है- “कुश ओदुम्बर्य है ।” कलाप वाक्य से कुश की वानस्पत्यता मात्र ज्ञात होती है। शाट्य से कुश की औदुम्बर्यता विशेष रूप से प्रतीत होती है इस प्रकार शाट्य वाक्य, कलाप वाक्य का विशेषज्ञ सिद्ध होता है । इसी प्रकार “देवता और छंदों से” इत्यादि वाक्य सामान्यतः देव असुरों के लिए छंदों के प्रयोग का उल्लेख करता है, जब कि - “देवता छंदों से सबं प्रथम” वाक्य क्रमविशेष का प्रतिपादन करता है, जिससे वाक्य शेषता प्रतीत होती है। तथा “वह हिरण्य द्वारा षोडशी स्त्रोत का पाठ करता है ।” इस सामान्यवर्णन से “सूर्योदय होने पर षोडशी स्तोत्र का पाठ करेगा” इत्यादि विशेष समय बोधक वाक्य, पूरक है । तथा “ऋत्विजं उपगान करते हैं” इस सामान्य वर्णन से’ अध्वर्यु उपगान न करें " इत्यादि से अनध्वयं विषयता ज्ञात होती है जिससे इसकी वाक्यशेषतां स्वतः सिद्ध हो जाती है । जो इस प्रकार, सामान्यतः अवगंत विषय को विशेषार्थ निरूपण करने में समर्थ वाक्य को, सामान्य का शेषभूत (पूरक ) नहीं मानते उनकी दृष्टि में तो दोनों वाक्यार्थों में विकल्प हो सकता है,
( १००४ ) किंतु संभव उपाय के होते हुए, ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता । पूर्व मीमांसा में वैसा भी कहा गया है- “वैध (विधि संबंधी) कर्म का विकल्प करना जहाँ उचित नहीं है, वहाँ ( विभिन्न स्थानवर्ती) सामान्य - विशेषात्मक वाक्यों में, एक वाक्य अन्य का पूरक माना जायगा, अन्यथा विधि की संपूर्णना न हो सकेगी ।” इसलिए केवल हानि और आयन वाक्यों में एकवाक्यता न होने से केवल हानि या केवल उपायन के अभाव होने से विकल्प नहीं हो सकता । कौषीतकी में दोनों के पाठ का सामान्य रूप से पुनः उल्लेख होने से श्रोताओं के भेद की प्रतीत होती है, जिससे विरुद्धता समाप्त हो जाती है। १२. साम्परायाधिकरण :– साम्पराये तर्त्तव्याभावात्तथा हि श्रन्ये | ३|३|२७|| स्कृतदुष्कृतयोहिनमुपायनं st स्कृतदुष्कृतयो हिनमुपायनं च सर्वासु विद्यासु चितनीयं इत्युक्तम् । तदहानं कि देहवियोग काले देहादुत्कान्तस्याध्वनि च, उत देहवियोगकाल एव ? इति विशये उभयत्रेति युक्तम्, उभयथा श्रुतत्वात् एवं हि कौषीतकिनः समामनंति - “स एतं देवयानं पंथानमापद्याग्निलोकं गच्छति” इत्युपक्रम्य " स श्रागच्छति विरजां नदीं तां मनसाऽत्येति तत्सुकृतदुष्कृते धुनुते” इति । इति वाक्ये अध्वनि सुकृतदुष्कृत हानिः प्रतीयते । ताण्डिनस्तु - “अश्व इव रोमाणि विधूय पापं चंद्र इव राहोर्मुखात् प्रमुच्य, धूत्वाशरीर- मकृतं कृतात्मा ब्रह्म लोकमभिसंभवानि " इति । अत्र तु देहवियोग काल इति प्रतायते ( शाट्यायन केऽपि ) “तस्यपुत्रादायमुपयंति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषंतः पाणकृत्याम्” इति पुरुषु दायसंक्रांति समकालं सुकृतदुष्कृत संक्रमणं श्रयमाणं देहवियोगकाल इति गम्यते । अतः सुकृतदुष्कृतयोरेकदेशो देहवियोगकाले होयते, शेषस्त्व ध्वनि ।
( १००५ } सुकृतदुष्कृत के हानोपायन की सभी विद्यानों में चितना करनी चाहिए यह बतला दिया गया । अब विचार होता है कि वह ज्ञान ( पुण्य पाप का त्याग ) देह त्याग के समय होता है अथवा देह त्याग के वाद परलोक जाते समय ) मार्ग में होता है ? विचारने पर निश्चित होता है कि दोनों ही स्थिति में हो सकता है, श्रुति में दोनों ही प्रकार का वर्णन मिलता है । कौषीतकी का वचन है कि - “वह इस देवयान मार्ग को प्राप्त कर अग्निलोक जाता है” ऐसा उपक्रम करके “वह विरजा नदी को प्राप्त कर उसे मनन द्वारा ही पार करता है जिससे पाप पुण्य को दूर कर देता है” इत्यादि वचन से ही मार्ग में ही, पाप पुण्य की हानि प्रतीत होती है । ताण्डीय शाखा के - " घोड़े के रोयों की तरह पाप को झाड़कर, राहु के मुख से छटे हुए चंद्र की तरह, पाप से मुक्त हो जाता है ।” इस शरीर का परित्याग कर पाप विमोचन पूर्वक शुद्ध निर्मल मति होकर ब्रह्म लोक प्राप्त करूंगा’ इत्यादि वाक्य से, देह वियोग काल में हो हानि प्रतीत होती है । शाट्यायन के" उसके पुत्र धन पाते हैं, मित्र पुण्य पाते हैं, शत्र पाप पाते हैं, इत्यादि वाक्य से पुत्रों की दाय प्राप्ति मृत्यु के समय तथा पाप पुण्य हानि मृत्यु के बाद बतलाई गई है, जिससे देह वियोग काल की ही प्रतीति होती है । इन सबसे ज्ञात होता है कि पाप पुण्य का एक अंश के समय ही छट जाता है, बाकी मार्ग में छूटता है । तो मृत्यु इति प्राप्त उच्यते - साम्परार्य - इति । सांपरायं - देहादपक्रमण काले एव विदुषः सुकृतदुष्कृते निरवशेषं हीयते । कुतः ? तर्त्तव्या- भावात् विदुषोदेहवियोगात् पश्चात् सुकृतदुष्कृताभ्यां तरितव्य भोगाभावात् । विद्याफलभूत ब्रह्मप्राप्ति व्यतिरेकेण हि सुकृतदुष्कृ- भ्यां भोक्तव्ये सुखदुःखे न विद्यते । तथाहि श्रन्ये देहवियोगादूध्वं ब्रह्मप्राप्तिव्यतिरिक्त सुखदुःखोपभोगाभावमधीयते" अशरीरं दा वसंतं न प्रियाप्रिये स्पृशतः " एष संप्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते" तस्य तावदेवचिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ संपत्स्ये" इति । उक्त मत पर- ‘साम्यंराये" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं। देह के छटते समय ही महात्मा के पुण्य पाप निःशेष हो जाते हैं। देह त्याग के
( १००६ ) 3 बाद पाप पुण्य उस ज्ञानी (भक्त) के लिए तारितव्य ( पार करने योग्य) नहीं रहते, क्योंकि उसके संपूर्ण भोगों की समाप्ति हो जाती है । उपासना के फलस्वरूप होने वाली ब्रह्म प्राप्ति से पाप पुण्य से होने वाले भोक्तव्य सुख दुःख रही नहीं जाते । जैसा कि अन्य स्थलों में, देह वियोग के बाद ब्रह्म प्राप्ति के अतिरिक्त, सुख दुःख भोग का अभाव, बतलाया गया है- “अशरीरी हो जाने पर प्रिय अप्रिय उसे स्पर्श नहीं करते” उपासक इस शरीर से उठकर परं ज्योति के सकाश से आत्म ज्योति से संपन्न हो जाता है उसके वास्तविक मोक्ष में तभी तक का बिलम्व रहता है, जब तक शरीर से नहीं छट जाता" इत्यादि । छन्दत उभयाविरोधात् | ३ | ३ |२८|| एवमर्थस्वाभाव्यात् सुकृतदुष्कृत हानिकालेऽवधूते सत्युभयावि- रोधेन श्रुते रथंस्वभावस्य चाविरोधेन छंदतः यथेष्टं पदानामन्वयो वर्णनीयः । कौषीतकीवाक्ये - “तत्सुकृतदुष्कृते धुनुते” इति चरम श्रुतो वाक्यावयवः “ एतं देवयानं पंथानमापद्य" इति प्रथम श्रुतावय- वात् प्रागनुगमयितव्य इत्यर्थः । इस प्रकार श्रति के अर्थ की पर्यालोचना करने से सुकृतदुष्कृत हानि का समय निर्धारण हो गया । अब श्रुति और वस्तु की वास्तविकता में विरोध न हो, इस धारणा से, पद समूहों का संबंध निरूपण करते हैं । कौषीतकी वाक्य की - “तब पाप पुण्य को छोड़ता है” इस अंतिम विज्ञप्ति को “देवयान मार्ग को प्राप्त कर इस प्रथम श्रुत वाक्य के अंग से, पहिले ले जाना होगा, तभी सही अन्वय होगा । अत्र पूर्वपक्षी प्रत्यवतिष्ठते- इस पर पूर्व पक्षी प्रपत्ति करते हैं- गतेरर्थवत्त्वमुभयथाऽन्यथा हि विरोधे | ३ | ३|२६|| सुकृतदुष्कृतयोरेकदेशस्य देहवियोग काले हानिः शेषस्य च पश्चादिति उभयथा कर्मक्षये सत्येव गते रर्थवस्वम्- देवयान गतिश्रुतेर- थंवत्त्वमित्यर्थः । अन्यथा हि विरोधः, देह वियोगकाल एव सर्व
( १००७ ) कर्मये सूक्ष्म शरीरस्यापि विनाशः स्यात्, शरीरस्यापि विनाशः म्यात्, तथासति केवलस्यात्मनो गमनं नोपपद्यते । अत उत्क्रांति समये विदुषो निःशेष कर्मक्षयो- नोपपन्नः । पुण्य और पाप का एक अंश, देह त्याग के समय नष्ट माना जाय और अविशिष्ट अंश देवयान मार्ग में विनष्ट माना जाय तभी देवयान मार्ग गति की सार्थकता सिद्ध हो सकती है । अन्यथा विरोध होगा, देह त्याग के समय ही समस्त कर्मों का क्षय स्वीकारने से, सूक्ष्म शरीर का विनाश भी स्वीकारना होगा, सूक्ष्म शरीर के विनष्ट हो जाने पर निराधार आत्मा का गमन तो संभव नहीं है। इससे अनुमान होता है कि - उपासक के, मृत्यु के समय ही समस्त कर्मों का क्षय नहीं होता । 1 अत्रोत्तरम् - इसका उत्तर देते हैं उपपन्नस्तल्लक्षरणार्थोपलब्धेर्लोकवत् | ३ | ३ |३०|| उपपन्न एवोत्क्रांति काले सर्वकर्मक्षयः, कथम् ? तल्लक्षणा- र्थोपलब्धेः क्षीणकर्मणोऽप्याविर्भूतस्वरूपस्य देहसंबंध लक्षणार्थोप- लब्धेः " पर ज्योतिरूपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते " स तत्र प्रर्येति जक्षत् क्रीडन् रममाणः " स स्वराडभवति तस्य सर्वेषु कामचारो भवति " “स एकधा भवति त्रिधाभवति” इत्यादिषु देहसंबंधाख्योऽर्थो हि उपलभ्यते । अतः क्षीण कर्माणोऽपि सूक्ष्मशरीर मुक्तस्य देव यानेन गमनमुपपद्यते । शरीर छटने के समय ही समस्त कर्मो का क्षय हो जाता है, ऐसा शास्त्र वाक्यों से ही ज्ञात होता है । क्षीण कर्म हो जाने के बाद भी आविर्भूत स्वरूप मुक्त जीवात्मा के स्वयं अपने तेजीय शरीर के सारे लक्षण विद्यमान रहते हैं ऐसा शास्त्र का मत है- ‘बहू परं ज्योति को प्राप्त कर अपने स्वरूप में व्यक्त हो जाता है” वह स्वच्छंद हो जाता है उसकी सभी लोको में स्वच्छंद गति हो जाती हैं" इत्यादि वाक्यों में, देह सम्बध
| १००८ ) का उल्लेख है । क्षीण कर्म हो जाने पर भी सूक्ष्म शरीर का देवयान गमन हो सकता है | कथं सूक्ष्मशरीरमप्यारंभककर्म विनाशेऽवतिष्ठत इति चेत् ? विद्यामाहात्म्यादिति ब्रूमः । विद्या हि स्वयं सूक्ष्म शरीरस्यानार- भिकापि प्राकृत सुखदुःखोपभोगसाधन स्थूलशरीरस्य सर्वकर्मणां च निरवशेषक्षयेऽपि स्वफलभूत ब्रह्मप्राप्तिप्रदानाय देवयानेन पथैनं गमयितुं सूक्ष्मशरीरं स्थापयति । लोकबत्-यथा लोके सस्यादिसमृद्धयर्थं मांरब्धे तटाकादिके तद् हेतुषु तदिच्छादिषु विनष्टेष्वपि तदेव तटाकादिकमशिथिलं कुर्वन्तस्तत्र पानीय- पानादि कुर्वन्ति, तद्वत् । यदि कहें कि कर्म ही तो सूक्ष्म शरीरोत्पत्ति के कारण होते हैं, यदि वे कर्म ही समाप्त हो जायेंगे तो सूक्ष्म शरीर रहेगा कैसे ? उपासना की महिमा से ही सूक्ष्म शरीर रहता है । विद्या स्वयं सूक्ष्म शरीर की उत्पादिकता नहीं होती, किन्तु प्राकृत सुख दुःखोपभोग के साधन स्थूल शरीर के विनष्ट हो जाने पर, ब्रह्म प्राप्तिरूप अपने फल प्रदान की सहायता के लिए, देवयान में जाने वाले उपासक के सूक्ष्म शरीर की रक्षा करती है । जैसे कि खेती की वृद्धि के उद्देश्य से, जलाशय बनाया जाता है, खेती के समाप्त हो जाने पर भी, भलीभाँति रक्षित वह जलाशय, पथिकों के पेय जल की पूर्ति करता है, वैसे ही यह सूक्ष्म शरीर होता है । श्रथस्यात् - ज्ञानिनां साक्षात्कृतपरतत्त्वानां देहपातसमये कर्मणो निरवशेषक्षयात् देहपातादूध्वं सूक्ष्मशरीरमात्रं गत्यर्थमनुव- तंते, सुखदुःखानुभवो न विद्यत इति यदुक्तम्, तन्नोपपद्यते, वसिष्ठावान्तरतपः प्रभृतीनां साक्षात्कृत परतत्त्वानां देहपातादूर्ध्वं देहान्तरसंगमः पुत्रजन्म विपत्यादि निमित सुखदुः दद्यनुभवश्च दृश्यते - इति - अतउत्तरं पठति ! ( 2008 ) शंका - ज्ञानी भक्तों द्वारा परतत्त्व का साक्षात् कर लेने पर देहपात के समय ही समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने पर, देहपात के बाद गति के लिए केवल सूक्ष्म शरीर मात्र रहता है, सुख दुःख नहीं रहते, आपके इस मत को मान लेने से, गति हो नहीं सकती । वसिष्ठ अपान्तरतप आदि परतत्ववेत्ता महात्माओं का शरीरपात के बाद भी देहान्तर संयोग, पुत्र जन्म - विपत्ति आदि के निमित्त, सुख दुःख आदि के अनुभवों का वर्णन मिलता है इसका उत्तर देते हैं- यावदधिकारमवस्थितिराधिकारिकाणाम् | ३ | ३|३१|| नास्माभिः सर्वेषां ज्ञानिनां देहपात समये सुकृतदुष्कृत योविनाश सुकृतदुष्कृतयोर्विनाश उक्तः, अपितु येषां ज्ञानिनां देहपातानन्तरमचिरादिका गतिः प्राप्ता तेषां देहपातसमये सुकृतदुष्कृत हानिरुक्ता । वसिष्ठादीनां त्वाधिकारिकानां न देहपातानंतर मचिरादिगति प्राप्तिः, प्रारब्धस्या- धिकारस्य असमाप्तत्वात् । तेषां कर्मविशेषेणाधिकारविशेषं प्राप्तानां यावदाधिकारसमाप्ति तदारम्भकं कर्म न क्षोयते । प्रारब्धस्य हि कर्मणोभोगादेवक्षयः । अत आधिकारिकाणां तदारम्भकं कर्म यावदधिकारमवतिष्ठते । प्रतस्तेषां न देहपातादनन्तरमचिरादिगति प्राप्तिः । उक्त महात्माओं के देहपात के समय पापपुण्य के विनाश का उल्लेख नहीं मिलता, अपितु जिन ज्ञानियों की देहपात के बाद अर्चिरादि गति बतलाई गई है, उन्हीं के पापपुण्य हानि का उल्लेख किया गया है। वसिष्ठ आदि कर्माधिकारियों की देहपात के बाद अचिरादि गति नहीं हुई थी क्योंकि उनके प्रारब्ध कर्म की परम्परा समाप्त नहीं हो पाई थी । उन्हें जो कर्मफल का विशेषाधिकार मिला था, उसके समाप्त होने तक उनके प्रारब्ध कर्म का क्षय नहीं हुआ । प्रारब्ध कर्म का क्षय तो भोग से ही समाप्त होता है । प्रायः लोगों के आधिकारिक प्रारब्ध कर्म अपने अधिकार की समाप्ति तक अपना सिलसिला चालू रखते हैं, इसलिए उन लोगों की, देहपात के बाद अर्चिरादि गति नहीं होती ।
१३- श्रनियमाधिकरणः — ( १०१० ) श्रनियमः सर्वेषामविरोधः शब्दानुमानाभ्याम् ।३।३।३२ ॥ उपकोसलादिषु येषूपासनेष्वचिरादिगतिः श्रयते, कि तन्निष्ठा- नामेव तया ब्रह्मप्राप्तिः, उत सर्वेषां ब्रह्मोपासननिष्ठानामिति संशये । इतरेष्वनाम्नात् ‘येचेमेरण्ये श्रद्धातप इत्युपासते" श्रद्धां सत्यमुपासते " इतीतर सकल ब्रह्मविद्योपस्थापकत्वे प्रमाणाभावाच्च तन्निष्ठानामेव । उपकोसल आदि उपासनाओं में जो अचिरादि गति सुनी जाती है वह उसकोपल आदि के उपासकों की ही होती है अथवा उपासक मात्र की होती है इस पर विचारने से ज्ञात होता है कि अन्य उपासकों का वर्णन नहीं मिलता, अपितु “जो अरण्य में श्रद्धारूप तप से इनकी उपासना करते हैं “जो श्रद्धा की सत्य रूप से उपासना करते हैं” इत्यादि वाक्यों में उपकोसल आदि विद्योपासकों की ही विशेषता बतलाई गई है, इसलिए उन उपासनाओं में निष्ठ व्यक्तियों की ही अर्चिरादि गति होती है । सिद्धान्तः - इति प्राप्तेऽभिधीयते-अनियमः इति । सर्वेषां सर्वोपासननिष्ठानां तयैव गंतव्यत्वात् तन्निष्ठानामेवेति नियमो नास्ति । सर्वेषां तथैव हि गमने सति शब्दानुमानाभ्यां श्रुतिस्मृति- भ्यामविरोध, अन्यथा विरोध एवेत्यर्थः । श्रुतिस्तावत् छांदोग्य- । वाजसनेयकयोः, पंचाग्निविद्यायामर्चिरादि मार्गेण सर्व ब्रह्मोपासन निष्ठानां गमनमाह - " यएवमेतद् विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते तेऽर्चिषमभिसंभवंति” इति छांदोग्ये “य इत्थं विदुः " इति पंचाग्निविद्या निष्ठान् “ये चेमे” इत्यादिना श्रद्धापूर्वकं ब्रह्मोपासीनांश्चोद्दिश्या चिंरादिकागतिरुपदिश्यते “सत्यं ज्ञानमनं तं ब्रह्म” सत्यंत्वेव विजिज्ञासितव्यम्" इति सत्यशब्दस्य ब्रह्मणि प्रसिद्ध ेः । तपः शब्दस्यापि तेनैकार्थ्यात् सत्यतपः शब्दाभ्यां ब्रह्म- वाभिधीयते । “श्रद्धापूर्वकं ब्रह्मोपासनं चान्यत्र श्रुतं “सत्यंत्वेव
( १०११ ) “विजिज्ञासितव्यम्” इत्युपक्रम्य " श्रद्धात्वेव विजिज्ञासितव्यः” इति । स्मृतिरपि “प्रग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्, तत्र प्रयाता गच्छंति ब्रह्म ब्रह्मविदोजना:” इति सर्वेषां ब्रह्मविदामनेनैव मार्गेण गमगमित्याह एवं जातीयकाः श्रुतिस्मृतयो वह्वयः संति । एवं सर्वं विद्यासाधारणी इयं गतिः प्राप्तैवोपकोसल विद्यादावनूद्यते । उक्त कथन पर सिद्धान्त रूप से " अनियमः” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । सभी विद्याओं के उपासकों की एकमात्र अचिरादि गति ही है, एकमात्र उपकोसल आदि के उपासकों की ही उक्त गति होती हो ऐसा कोई नियम नहीं है । सभी की अर्चिरादि गति होती है, यह शास्त्र और अनुमान से निश्चित होता है । शास्त्र जैसे -छांदोग्य और वृहदारण्यक की पंचाग्नि विद्या में अर्चिरादि मार्ग से उपासक मात्र के गमन का उल्लेख है- “जो इस प्रकार इसे जानते हैं और जो अरण्य में श्रद्धारूप तप से इसकी उपासना करते हैं, वे अचिरादि मार्ग से गमन करते हैं” इत्यादि वृहदार- रण्यक में तथा-“जो इस प्रकार जानते हुए अरण्य में श्रद्धापूर्वक इसकी उपासना करते हैं वे नचिरादि गति प्राप्त करते हैं” इत्यादि छांदोग्य का वचन है । “य इत्थं विदुः " से, पंचाग्निविद्यानिष्ठों और “ये चेमे” से श्रद्धालु ब्रह्मोपासकों की अचिरादि गति बतलाई गई है । “सत्यं ज्ञान- मनंतं ब्रह्म” “सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यः” इत्यादि वाक्यों में “सत्य” शब्द ब्रह्म के लिए ही प्रसिद्ध है । तप और सत्य शब्द एकार्थक हैं । सत्य -तप-श्रद्धा इन तीनों से ब्रह्म ही अभिधेय हैं । श्रद्धापूर्वक ब्रह्मोपासना का " सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यः " श्रद्धात्वेवविजिज्ञासितव्यः” इत्यादि में भी उल्लेख है । स्मृति में भी इसी प्रकार - " अग्नि, ज्योति, अह, शुक्लपक्ष और उत्तरायण, षणमास के देवयान में गगन करने वाले सभी ब्रह्म लोक प्राप्त करते हैं" इत्यादि में सभी ब्रह्मोपासकों का उक्त मार्ग से गमन कहा गया है । ऐसी अनेक श्रुतिस्मृतियाँ हैं । इस प्रकार सभी विद्याओं के उपासकों के लिए इस असाधारण अचिरादि गति का उल्लेख है उपकोसल आदि विद्याओं में इसका अनुवाद मात्र मिलता है ।
१४ अक्षरध्यधिकररणः- ( १०१२ ) अक्षरधियांत्ववरोधः सामान्यतद्भावाभ्यामौपस दबलयुक्तम् । ३।३।३३|| प्रस्थूलमनण्वहृस्व संगमरसमगंधमचक्ष वृहदारण्यके श्रूयते - " एतद् वै तदक्षरं गागिं ब्रह्मणा अभिवदंति मदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवायवनाकाशम- ष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कमप्राणमसुखममात्र - मनंतरमवाह्यं न तदश्नाति किं च न एतस्य वाक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौतिष्ठतः" इति । तथा प्राथर्वणे - अधपरा यया तदक्षरमधिगम्यते यत्तदेश्यमग्राह्यमगोत्रमचक्षुश्रोत्रं तदपाणि- पादम्" इति । तत्र संशयः, विमिमे अक्षरशब्दनिर्दिष्ट ब्रह्म संबंधितया श्रुताः, अस्थूलत्वादयः प्रपंच प्रत्यनीकतास्वरूपाः सर्वासु ब्रह्मविद्यास्वनुसंधेयाः, उत यत्र श्रूयन्ते तत्रैव इति । किं युक्तम् ? यत्र श्रुतास्तत्रैवेति । कुतः ? विद्यान्तरस्य रूपभूतानां गुणानां विद्यान्तरस्य रूपये प्रमाणाभावात् प्रतिषेधरूपाणामेषामानंदादिवत्स्वरूपावग- मोपायत्वाभावाच्च । ब्रह्मरिण स्थूलत्वादयः प्रपंचधर्माः प्रतिषिध्यते निलंबन प्रतिषेधायोगात् । आनंदादिभिरवगतस्वरूपे हि
वृहदारण्यक में पाठ है कि - " हे गार्गि ! ब्रह्मवादी इस अक्षर को. अस्थूल, अनणु, अह्रस्व, अदीर्घ अलोहित, अस्नेह, छायारहित, अंधकार रहित, वायु और आकाश रहित, अनासक्त, रस-गंध नेत्र कर्ण - मन- तेज - प्राण- सूर्य और चंद्र इस अक्षर के शासन में ही स्थित हैं । “तथा आथर्वण में पाठ है कि - " इसके बाद पराविद्या का उल्लेख है, जिससे उस अक्षर पुरुष की प्राप्ति होती है जो कि अदृष्ट, अग्राह्य, गोत्र-वर्ण- नेत्र - कर्ण - हस्त पाद रहित है ।” यहाँ संशय होता है कि -अक्षर शब्द निर्दिष्ट ब्रह्म से संबंधित अस्थूलता आदि जगत् विलक्षण प्रपंचों की सभी ब्रह्मविद्याओं में चिन्तना की जायगी, अथवा जहाँ कहे गए हैं वहीं की जायगी ? कह सकते हैं कि- जहाँ कहे गए हैं, केवल वहीं की जायगी ।
( १०१३ ) ऐसा कहीं भी प्रमाण नहीं मिलता कि एक विद्या के स्वरूप भूत गुणों को दूसरी विद्या के गुणों के रूप में चिन्तना की जाय । तथा अस्थूलत्व आदि निषेधात्मक की, आनंद ज्ञान आदि की तरह, स्वरूपावगति न होने से, इनमें साधनता का भी अभाव है (अर्थात् इन्हें उपासना का आधार नहीं कहा जा सकता ) आनंद आदि से अवगत होने वाले ब्रह्म स्थूलता आदि प्रपंच धर्मो का प्रतिषेध किया गया है इसलिए निरवलम्ब का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता [अर्थात् अस्थूलत्व आदि निर्गुणब्रह्म की उपसना के बोधक हैं, जैसे कि - आनंद आदि ब्रह्म को निर्गुण उपासना होती है, वैसे ही अक्षर की भी होती है, जिन विद्याओं में सगुणोपासना का विधान है, वहाँ इनकी चिन्तना कैसे संभव है ? ] सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्म हे अक्षरधियांत्ववरोधः, इति । अक्षरब्रह्म संबंधिनामस्थूलत्वादिधियां सर्व ब्रह्मविद्यास्ववरोधः, संग्रहणमित्यर्थः । कुतः ? सामान्यतद्भावाभ्यां । सर्वेषूपासनेषूपासस्याक्षरस्य ब्रह्मः समानत्वाद्स्थूलत्वादीनां तत्स्वरूपप्रतीती भावाच्च । एतदुक्तं भवति श्रसाधारणाकारेण- ग्रहणं हि वस्तुनो ग्रहणम् । न च केवलमानन्दादि ब्रह्मणोऽसाधारण माकारमुपस्थापयति, प्रत्यगात्मन्यप्यानं दादेर्विद्यमानत्वात् । हेय प्रत्यनीको हि आनंदादि ब्रह्मणोऽसाधारणं रूपम् । प्रत्यगात्मस्तु स्वतो हेयविरहिणोऽपि हेयसंबंघयोग्यताऽस्ति, हे प्रत्यनीकत्वं च चिदचिदात्मक प्रपंचधमं भूतस्थूलत्वादि विपरीत रूपम् । अतोऽसा - धारणाकारेण ब्रह्मणोऽनुसंदधताऽस्थूलत्वादिविशेषितज्ञानानंदाद्याकार ब्रह्मानुसंधेयमिति प्रस्थूलत्वादीनांमानंदादिवद् ब्रह्मस्वरूप प्रतीत्यन्त- र्भावात् सर्वासु ब्रह्मविद्यासु तथेव ब्रह्मानुसंधेयमिति गुणानां प्रधानानुवत्तित्वे दृष्टांतमाह - श्रपसद्वत् - इति । जामदग्न्यचतूरात्र पुरोडाश्युपसद्गुणभूतः सामवेद पठितः " श्रग्निर्वै होत्रं वेतुः" इत्यादिको मंत्र: प्रधानानुवर्त्तितया याजुर्वेदिकेनोपांशु-
यथा । ( १०१४ ) स्वेन प्रयुज्यते । तदुक्तं प्रथमे काण्डे " गुणमुख्य व्यतिक्रमे तदर्थत्वान्मु- ख्येन वेद संयोगः " इति । उक्त मत पर सिद्धान्तरूप से “अक्षरधियांत्ववरोधः” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । अक्षर ब्रह्म संबंधी अस्थूलत्व आदि चिन्तनों का सभी ब्रह्म विद्याओं में अवरोध अर्थात् संग्रहण होगा। सभी उपासनाथों के उपास्य अक्षर के ही समान हैं । अस्थूलत्व आदि उन सभी की प्रतीति करा सकते हैं । कथन यह है कि किसी वस्तु के ग्रहण करने का तात्पर्य है, उसके विशेषाकार का ग्रहण करना । जीव में भी आनंद आदि की स्थिति है, इसलिए केवल ब्रह्म की ही, आनंद आदि असाधारण विशेषतायें नहीं कही जा सकतीं । हीनता से रहित आनंद आदि ही ब्रह्म के असा- धारण रूप हैं । जीवात्मा वस्तुतः हीनता से रहित होते हुए भी हीनता से संबंधित होने के अयोग्य नहीं कहला सकता [अर्थात् अनादि मायावश हीनता से संबद्ध है ] जड़चेतनात्मक प्रपंचमयजगत् की स्थूलता आदि से विपरीत रूप ही, हेयप्रत्यनीकता हीनता राहित्य है । इस प्रकार के आसाधारण रूप से, जो ब्रह्म की चिन्तना करते हैं उन्हें अस्थूलत्व आदि रूपों से विशेषित आनंदादि रूप ब्रह्म की चिन्तना करनी ही होगी । आनंदादि की तरह अस्थूलत्व आदि भी, ब्रह्मस्वरूपोपलब्धि के अन्तर्गत आ जाते हैं, इसलिए सभी ब्रह्म विद्याओं में, उसी प्रकार इनकी भी चिन्तना की जावेगी । गुणी, गुण का अनुवर्त्ती होता है, इसका दृष्टांत उपस्थित करते हैं- जमदग्नि द्वारा अनुष्ठित चतुरात्र नामक याग में जैसे पुरोडाश के संस्कारक प्रपसद् का अनुवर्त्तन होता है " अग्निहोत्रवेतु" इत्यादि मंत्र, सामवेदोक्त होते हुए भी, यज्ञांग होने के कारण, यजुर्वेद में उपांशु रूप से उच्चारित है। पूर्व मीमांसा में कहा भी गया है जहाँ गुण और गुणी का विरोध उपस्थित हो, वहाँ गुणी के साथ ही वैदिक मंत्र और क्रियाओं का संबंध होता है, क्योंकि गुणों के लिए ही गुणों की योजना होती है ।" नन्वेवं सर्वासुब्रह्मविद्यासु ब्रह्मणएव गुणित्वादगुणानां च प्रधानानुवत्तित्वात् “सर्वकर्मा सर्वगंधः सर्वरसः” इत्यादेर्गुणजातस्य प्रतिविद्यं व्यवस्थितस्याप्यव्यवस्थास्यात्-तत्राहु-
( १०१५ ) ब्रह्म ही जब सब विद्याओं का गुणी है और सारे गुण उसके अनुवर्ती हैं, “तब सर्वकर्मा, सर्वगंध, सर्व रस” इत्यादि गुणों की जो प्रत्येक विद्याओं में चिन्तन की व्यवस्था को गई है, वह तो अव्यवस्थित हो जायेगी । इसका उत्तर देते हैं- इयदामननात् । ३।३।३४॥ श्रामननं श्राभिमुख्येन मननं - अनुचिन्तनम् । श्रामननाद हेतो- रियदेव गुणजातं सर्वत्रानुसंधेयत्वेन प्राप्तम्, यदस्थूलत्वादि विशेषितमानंदादिकम् । येन गुणजातेन विना ब्रह्मस्वरूपस्येतरव्यावृत्त- स्यानुसंधानं न संभवति, तदेव सर्वत्रानुवर्त्तनीयम्, तच्चेयदेवेत्यर्थः । इतरे तु सर्वकर्मत्वादयः प्रधानानुवर्त्तिनोऽपि चिन्तनीयत्वेन प्रतिविद्यव्यवस्थिताः । आभिमुख्य मनन अर्थात् अनुचिन्तन को आमनन कहते हैं आमनन के हेतु - अस्थूलता आदि सहित आनंदादि गुणों की सर्वत्र, चिन्तना बतलाई गई है। जिन गुणों के बिना ब्रह्म के स्वरूप का चिन्तन संभव नहीं केवल वे ही गुण, सर्वत्र अनुवृत्त होते हैं, और ग्रहण किये जा सकते हैं. ये गुण अस्थूलता आदि ही हैं। अन्य जो सर्वकर्मा आदि गुण हैं, वे गुगी के अनुवर्त्ती होते हुए भी, प्रत्येक विद्याओं में, पृथक् रूप से चिन्त्य बतलाए गए हैं । १५ अन्तरत्वाधिकरणः- अन्तराभूतग्रामवत् स्वात्मनोन्यथा भेदानुपपत्तिरिति चेन्नोपदेशवस् । ३|३|३५|| वृहदारण्य के उषस्तप्रश्न एवमाम्नायते " यत्साक्षादपरोक्षाद ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः तन्मे व्याचक्ष्व " इति । तस्य प्रतिवचनं “यः त्राणेन प्राणिति स त श्रात्मा सर्वान्तरो आत्मा” इत्यादि । प्रतुष्टेन तेन पुनः पृष्ट पश्येमं श्रुतेः श्रोतारं श्रुणुयाः न मतेर्मन्तारं योऽपानेनापनिति स त प्राह - " न दृष्टेर्द्रष्टार मन्वीथाः न विज्ञाते
( १०१६ ) विज्ञातारं विजानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तम्” इति । तथा तदनन्तरं कहोल प्रश्ने चैवमाम्नायते - " यदेव साक्षादपरोक्षाद ब्रह्मय आत्मा सर्वान्तरः तन्मेव्याचक्ष्व " इति । प्रतिवचनं च- " योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येति एवं हैतमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणः पुत्रेषणायाश्च वित्तेषणायाश्च” “इत्यादि " अतो- ऽन्यदात्तंम्” इत्यन्तम् । वृहदारण्यक में - उषस्त द्वारा ऐसा प्रश्न किया गया कि “जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म सर्वान्तर्यामी आत्मा है मुझे उनका स्वरूप बतलाओ " इसका उसे उत्तर मिला कि - " जो प्राणों के प्राण, जो सर्वान्तरात्मा, अपानों के अपान हैं, वही आत्मा ।” इस उत्तर से असंतुष्ट पृष्टा के पुनः प्रश्न करने पर उत्तर दिया गया कि - " जो तुम दृष्टि के द्रष्टा को नहीं देख सकते श्रुति के श्रोता को नहीं सुन सकते, मति के मंता को, मनन नहीं कर सकते । विज्ञाति के विज्ञाता को नहीं जान सकते, तुम्हारा यह आत्मा सर्वान्तर है इससे भिन्न सब कुछ आर्स (नाशवान ) है ।" इसके बाद कहोल द्वारा भी इसी प्रकार का प्रश्न किया गया - " जो भी साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म सर्वान्तर आत्मा है, उसकी व्याख्या करो।" उत्तर मिला कि “जो, भूख प्यास, शोक, मोह जरा और मृत्यु से परे है, उस आत्मा को ही जानकर ब्राह्मण पुत्रषणा और वित्तैषणा” इत्यादि से लेकर - “इससे भिन्न सब आर्त है” यहाँ तक उक्त तत्त्व की व्याख्या की गई । तत्र संशय्यते - किमनयोविद्याभेदोऽस्ति, नेति ? कि युक्तम् भेद इति, कुतः ? रूपभेदात् । प्रतिवचनभेदात् रूपं भिद्यते । प्रश्नस्यैक रूप्येऽपि प्रतिवचन प्रकारो हि भेदेनोपलभ्यते । पूर्वत्रप्राणादीनां कर्त्ता सर्वान्तरात्मत्वेनोच्यते परत्राशनायापिपासादि रहितः । श्रतः पूर्वत्र प्राणिता देहेन्द्रियबुद्धिमनप्राणव्यतिरिक्तः प्रत्यगात्मोच्यते । परत्र तु तदतिरिक्तोऽशनायापिपासादिरहितः परमात्मा । श्रतोरूपं भिद्यते । भूतग्रामवतश्च प्रत्यगात्मनस्तस्य भूतग्रामस्य सर्वस्यान्तरत्वेन सर्वान्तरत्वमप्युपपन्नम् । यद्यपि प्रत्यगात्मनः सर्वान्तरत्वं भूतग्राम-
( १०१७ ) मात्रापेक्षत्वे नापेक्षिकम् तथापि तदेव ग्राह्यम्, अन्यथा मुख्यान्तरा- त्मपरिग्रह लोभात् - परमात्म स्वीकारे प्रतिवचन भेदो नोपपद्यते । प्रतिवचनं हि पूर्वत्र प्रत्यगात्म विषयम्, परमात्मनः प्राणितृत्वापा- नितृत्वाद्यसंभवात् । परं च परमात्मविषयं प्रशनायापिपा- साद्यतीत्वात् । इस पर संशय होता है कि उक्त प्रसंग में विद्याभेद है या नहीं? कह सकते हैं कि भेद है, क्योंकि दोनों में जो उत्तर दिया गया है वह भिन्न है इसलिए दोनों के रूप में भेद है । एक ही प्रकार का प्रश्न है पर उत्तर भिन्न है । पहिले में प्राण आदि के कर्त्ता को सर्वान्तर्यामी कहा गया है, दूसरे में भूखप्यास रहित को सर्वान्तर्यामी कहा गया है । समस्त भूतों में व्याप्त जीवात्मा, भूतों के अन्दर व्याप्त होने के कारण सर्वान्तरयामी है । यद्यपि जीवात्मा की सर्वान्तर्यामिता, सभी भौतिक तत्त्वों में नहीं होती, कुछेक में होने के कारण ही उसे सर्वान्तर्यामी कहा जा सकता है । मुख्यान्तर्यामी परमात्मा को ही यदि, पूर्व उत्तर में भी, सर्वान्तर्यामी मान लेंगे तो भेदात्मक उत्तरों की संगति न होगी । पहिले उत्तर का विषय जीवात्मा संबंधी ही है । प्राण अपान से संबंधित, परमात्मा नहीं हो सकते । दूसरा उत्तर परमात्म विषयक है, क्योंकि उसमें भूख-प्यास आदि से रहित विशेषताओं का उल्लेख है । तदिदमाशंकते - अन्तराभूतग्रामवत् स्वात्मनोऽन्यथा भेदानुप- पत्तिरिति इति चेत् ? अन्तरा सर्वान्तरत्वेन प्रथम प्रतिवचनं भूतग्रामवत् स्वात्मनः, भूतग्रामवान्, तदन्तरः स्वात्मा, प्रत्यगात्मा सर्वान्तर इत्युच्यत इत्यर्थः । अन्यथा - " यः प्राणेन प्राणिति” योऽशनाया पिपासाद्यतीतः" इति प्रतिवचन भेदानुपपत्तिरितिचेत्- उक्त मत पर शंका करते हैं कि-भूत समुदायों की तरह अपने आत्मा से भिन्न कोई तत्व अन्तर्यामी है, ऐसी भेद प्रतीति “अन्तराभूत् ग्रामवत्” इस सूत्र से होती है ? इसका यह तात्पर्य नहीं है अपितु अन्तरा अर्थात् सर्वान्तर रूप से भूतग्रामवत - अपना भूतसमुदाय युक्त आत्मा ही उन भूतसमुदायों का अन्तर्यामी आत्मा है अर्थात् जीवात्मा ही सर्वान्तर्यामी
( १०१० ) श्रात्मा है इत्यादि तात्पर्य है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो - " प्राणों का प्राण" और " जो भूख प्यासादि से रहित है" इन विभिन्न उत्तरों का समाधान नहीं होगा । सिद्धान्त-प्रत्रोत्तरं - नेति । न विद्याभेद इत्यर्थः । उभयत्र पर विषयत्वात् प्रश्नप्रतिवचनयोः । तथाहि - " यत्साक्षादपरोक्षाद- ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तिरः" इति प्रश्नस्तावद् परमात्मविषय एव, ब्रह्मशब्दस्य परमात्मा साधारणत्वेऽपि प्रत्यगात्मन्यपि कदाचिदुप- चरित प्रयोगदर्शनात्तद्व्यावृत्यापरमात्मप्रतिपत्त्यर्थं - “सत्साक्षाद्- ब्रह्म” इति विशेषणं क्रियते । श्रपरोक्षत्वमपि सर्वदेश सर्वकाल संबंधित्वं “सत्यं ज्ञानमनंत ब्रह्म” इत्यत्रन्तत्वेनावगतस्य परमात्मन एवोपपद्यते । सर्वान्तरत्वमपि - " यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या- अन्तरः” इत्यारभ्य “य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरः” इति सर्वान्तर्यामिणः परमात्मन एव संभवति । प्रतिवचनमपि तथैव परमात्मविषयम् । " यः प्राणेन प्राणिति" इति निरुपाधिकं प्राणनस्य कर्तृत्वं परमात्मन एव । प्रत्यगात्मनः सुषुप्तौ प्राणनं - प्रति कर्तृत्वाभावात् एवमजानतोषत्वेन प्राणने कर्तृत्वमात्रमुक्तं मन्वानेन प्रत्यगात्मनोऽपि साधारणत्व प्रतिवचनस्य मत्वा श्रतुष्टेन पुनः पृष्ठस्तंप्रति प्रत्यगात्मनो व्यावृतं निरुपाधिकत्वेन प्राणस्य कर्त्तारं परमात्मानमाह - " न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः" इत्यादिना । इन्द्रियाधोनानां दर्शनश्रवणमनन विज्ञानानां कर्त्तारं प्रत्यगात्मानं प्राणनस्य कर्तृत्वेनोक्त इति न मन्वीथाः, तस्य सुषुप्तिमूर्छादौ प्राणनादेरकर्तृत्वात् । " को ह्येवान्यात कः प्राण्यात् यदेष आकाश प्रानंदीनस्यात्" इति सर्व प्राणि प्राणन हेतुत्वं हि परमात्मन एवान्यत्र श्रुतम् । श्रतः पूर्वप्रश्न प्रतिवचने परमात्मविषये । एवमुत्तरे अपि अशनायाद्यतोतत्वस्य परमात्मासाधारणत्वात् । ( १०१६ } उभयत्र - “अतोऽन्यदात्तंम्” इत्युपसंहारश्चैकरूपः । प्रश्नप्रतिवचना- वृत्तिस्तु कृत्स्नप्राणिप्राणन हेतोः परस्य ब्रह्मणोऽशनायाद्यतीतत्व प्रतिपादनाय । सिद्धान्तः- उक्त मत का उत्तर नकारात्मक है, अर्थात् विद्याभेद नहीं है । दोनों जगह प्रश्नोत्तर परमात्म विषयक ही हैं । जैसे कि - “जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म सर्वान्तरात्मा है” इत्यादि प्रश्न परमात्म विषयक ही है ! ब्रह्म शब्द सामान्यतः परमात्मवाची है, कभी-कभी गौण रूप से इसका प्रयोग जीवात्मा के लिए भी किया गया है । उक्त प्रसंग में परमा- त्मवाची ही है क्योंकि - प्रश्न में “साक्षात् ब्रह्म” ऐसा विशेषण दिया गया है । अपरोक्षता भी सर्वदेश, सर्वकाल संबंधी “सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म” इत्यादि विशेषताओं वाले अनंत परमात्मा में ही संगत हो सकती है । सर्वान्तरत्व भी - “जो पृथ्वी में स्थित सर्वान्तर्यामी है " जो आत्मा में स्थित सर्वान्तर्यामी है” इत्यादि में वर्णित, सर्वान्तर्यामी परमात्मा में ही संभव है । उत्तर भी परमात्म विषयक ही प्रतीत होता है । “जो प्राणों का प्राण” ऐसा आधिक्य प्रतिपादन प्राणकर्त्ता परमात्मा के लिए ही संभव है, क्योंकि जीवात्मा का प्राण सुषुप्तावस्था में, कत्तृत्व शक्ति रहित निश्चेष्ट रहता है । इस रहस्य के अज्ञाता उषस्त द्वारा केवल प्राण के कर्तृत्व के अनुसार जीवात्मा को प्राणशब्दवाची मान कर बार-बार आग्रहपूर्वक प्रश्न करने पर “न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः” इत्यादि में, जीवात्मा से पृथक, प्राण के निरुपाधिक (सर्वकालीन) कर्त्ता परमात्मा का उपदेश दिया गया । इन्द्रियाधीन दर्शन-श्रवण-मनन-विज्ञान आदि भावों के कर्त्ता जीव को, प्राण का कर्त्ता, नहीं माना जा सकता, क्योंकि - सुषुप्तिमूर्छा में जीवात्मा में, प्राणकत्तुत्व का अभाव रहता है" यदि यह आकाश- आनन्द न होता तो प्राणन और चेष्टा कौन कर सकता ?" इस प्रकरणान्तरीय वाक्य में सभी प्राणियों के प्राणनकर्त्ता परमात्मा का उल्लेख है । इस प्रकार -पूर्व के प्रश्नोत्तरों के विवेचन से, परमात्म- विषयता स्पष्ट हो जाती है । बाद के प्रश्नोत्तरों में भी भूखप्यासादि से रहित परमात्मा की असाधारणता दिखाई गई है । दोनों ही जगह " बाकी सब आर्त है" ऐसा एक सा उपसंहार किया गया है । प्रश्नोत्तरों की
( १०२० ) पुनरावृत्ति समस्त प्राणियों के प्राणनकर्त्ता परब्रह्म की, अनशनादि विशेषताओं के प्रतिपादन के लिए की गई है । तत्र दृष्टान्तमाह उपदेशवदिति - यथा स विद्यायाम् " उत- तमादेशमप्राक्ष्यः" इति प्रक्रान्ते सदुपदेशे “भगवांस्त्वेवमेतद्- वब्रीत्विति “भूय एव मा भगवान् विज्ञापयतु” इति प्रश्नस्य " एषोऽणिमा ऐतदात्म्यमिदं सर्वतत्सत्यम्” इति प्रतिवचनस्य च भूयोभूय प्रवृत्तिः सतो ब्रह्मणः तत्तन्माहात्म्यविशेष प्रतिपादनाय दृश्यते तदवत् । अत एकस्यैव सर्वान्तरभूतस्य ब्रह्मणः कृत्स्नप्राणि- प्राणन हेतुत्वाशनायाद्यतीतत्वप्रतिपादनेन रूपैक्याद विद्यैक्यम् । सूत्रकार- उपदेशवत् कहकर इस विषय में दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं कि जैसे- छांदोग्य के सविद्या के प्रकरण में- “तुम क्या उस उपदेश की जिज्ञासा करते हो ?” इत्यादि से ब्रह्मविद्या का उपक्रम करके – " पूजनीय ! आप मुझे उसे बतलाने की कृपा करें" हे भगवन् पुनः बतलाइए,’ इत्यादि प्रश्न करने पर - " वह अत्यन्त अणु जगदात्मक और सत्य स्वरूप है" इत्यादि उत्तर में ब्रह्म और उसकी महिमा विशेष के प्रतिपादन के लिए पुनरावृत्ति की गई है, वैसे ही उक्त प्रसंग में भी है । समस्त प्राणियों के प्राणनकर्त्ता एक ही सर्वान्तर्यामी आदि के प्रतिपादन के लिए ही पुनरावृत्ति की गई है, विद्यायें एक हैं ऐसा सिद्ध होता है । एकत्र ब्रह्म के अशन इसलिए दोनों श्रथ स्यात् यद्युभये प्रश्नप्रतिवचने परब्रह्मविषये तथाऽपि विद्याभेदोऽवर्जनीयः, सर्वप्राणिप्राणन हेतुत्वेनोपास्यम्, इतरत्राशनायाद्यतीतत्वेनेत्युपास्यगुणभेदेन रूपभेदात् प्रष्ट्रभेदाच्च, पूर्वत्र उषस्तः प्रष्टा, उत्तरत्र कहोल:, इति । तत्राह- यद्यपि दोनों प्रश्नोत्तर परब्रह्म विषयक हैं फिर भी, विद्या भेद अपरिहार्य है, क्योंकि एक जगह ब्रह्म को, प्राणों के हेतु रूप में तथा दूसरी जगह अनशनादि विशेषताओं वाला कहा गया है, जिससे उपास्य के गुणों का स्पष्ट भेद प्रतीत होता है, इसलिए रूपभेद तो हो ही गया । प्रश्न-
( १०२१ ) कर्त्ता का भी भेद है, पहिले में उषस्त प्रश्नकर्ता है दूसरे में कहोल है । इसका उत्तर देते हैं :- व्यतिहारो विशिषंति हीतरवत् | ३ | ३ | ३६॥ तावत्सर्वान्तरात्मत्व नात्र विद्याभेद: प्रश्नप्रतिवचनाभ्यामेकरूपार्थविषयाभ्यामेकेन च विधिपदेनैकवाक्यत्वप्रतीतेः । प्रश्नद्वयं विशिष्टब्रह्म विषयम् । द्वितीये प्रश्ने “यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः" इत्येवकारश्च पूर्वत्रोषस्तेन पृष्टगुणविशिष्ट ब्रह्मविषयत्वं कहोल प्रश्नस्यावधारयति । प्रतिवचनं चोभयत्र “सत आत्मा सर्वान्तरः” इति सर्वान्तरात्मत्वविशिष्टब्रह्मविषय- मेकरूपमेव । विधिप्रत्ययश्चोत्तरत्रैव दृश्यते " तस्माद् ब्राह्मण पांडित्यं निर्विद्य बाल्यत्वेन तिष्ठासेतु" इति । एव सर्वान्तरात्मत्व- विशिष्टं ब्रह्मक विषयत्वे द्वयोरवगते सत्येकस्मिन्नेव सर्वान्तरात्मत्व विशिष्टे ब्रह्मण्युपास्ये उषस्तकहोलयोरितरेतरबुद्धि व्यतिहार: कर्त्तव्यः । उषस्तस्य या सर्वान्तरात्मो ब्रह्मणः सर्वप्राणिप्राणन हेतुत्वविषया बुद्धिः, सा कहोलेनापि प्रष्ट्रा कार्या, या च कहोलस्य ब्रह्मणोऽशनायाधतीतत्वविषयाबुद्धिः सा उषस्तेनापि कार्या । एवं व्यतिहारे कृते उभाभ्यां सर्वान्तरस्य ब्रह्मणो जीव- व्यावृत्तिरवगता भवति । एतं सर्वान्तरात्मानं प्रत्यगात्मनो व्यावृत्त- मवगमयितुं सर्वाप्राणिप्राणन हेतुत्वाशनायाद्यतो तत्व प्रतिपादनेन विशिषंति हि याज्ञवल्क्यस्य प्रतिवचनानि । तोब्रह्मणः सर्वान्तरात्मत्वमेवोपास्यगुणः । प्रणनहेतुत्वादयस्तु तस्योपपादकाः नोपास्याः । तस्यैव उक्त प्रसंग में विद्याभेद नहीं है । प्रश्नोत्तरों में एक ही प्रकार के विषय, एक ही प्रकार की विधि से, एकवाक्यता की प्रतीति होती है । दोनों ही प्रश्न सर्वान्तर्यामी ब्रह्म विषयक हैं । द्वितीय प्रश्न में “यदेवसाक्षाद-
( १०२२ ) परोक्षाद" इत्यादि स उषस्त द्वारा पूछी गई, गुणविशिष्ट ब्रह्म विषयता ही कहोल के प्रश्न में अनुकृत है। दोनों जगह का उत्तर भी “स आत्मा सर्वान्तरः " सर्वान्तर्यामी विशिष्ट ब्रह्म विषयक, एक सा है । उपासना विधायक विधि प्रत्यय “ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति पांडित्य का त्याग कर बाल्य- भाव में स्थित होते है” इत्यादि दोनों के अंत में दृष्टिगत होता है। इस प्रकार - सर्वान्तर्यामी विशिष्ट ब्रह्मकविषयता के, दोनों स्थानों पर निश्चित हो जाने पर - एकही सर्वान्तर्यामी विशिष्ट उपास्य ब्रह्म के विषय में, उषस्त और कहोल दोनों के चिन्तन को परस्पर विनियमित समझना चाहिए. अर्थात् उषस्ति की जो, सर्वान्तर्यामी ब्रह्म की समस्त प्राणियों से संबंधित प्राणहेतु विषयक बुद्धि है, वही कहोल द्वारा पृष्ट है; तथा कहोल की जो अनशन आदि विशिष्ट परमात्म संबंधी बुद्धि है, वही उषस्त द्वारा पृष्ट है। इस प्रकार पारस्परिक विनिमय करने पर सर्वान्तर्यामी ब्रह्म की, जीव से भिन्नता, स्पष्ट हो जाती है । सर्वान्तर्यामी परमात्मा की जीवात्मा से भिन्नता बतलाने के लिए ही, उक्त याज्ञवल्यक्य वाक्य प्राणियों की प्राण धारण हेतुता और अनशन आदि का प्रतिपादन, विशेष रूप से ब्रह्म परक ही करता है। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म की सर्वान्तरात्मकता ही उपास्य गुण है, प्राणन आदि की हेतुता, उपपादक गुण हैं, उपास्य नहीं । ननूपास्यगुणः सर्वान्तरात्मत्वमेव पुनः चेत्– प्राणनहेतुत्वस्य अशनायाद्यतीतत्वस्य च पृष्ट्रोः व्यतिहृत्यानुसंधानं किमर्थम् ? तदुच्यते–सर्वप्राणिप्राणनहेतुत्वेन सर्वान्तरात्मनि जीवाव्यावृत्ते ब्रह्मण्युषस्तेनावगते सति कहोलेन जीवस्य सर्वात्मना संभावितेन स्वभावविशेषेण सर्वान्तरात्मव्यावृत्तोऽनुसंधेय इति कृत्वा इतिकृत्वा प्रश्नः कृतः । याज्ञवल्क्योऽपि तदभिप्रायमभिज्ञाय प्रत्यगात्म- नोऽसंभावित मशनायादिप्रत्यनीकत्वमुक्तवान् । अतश्चोपास्यस्य व्यावृत्तिप्रतीतिसिद्धयर्थंमुभाभ्यां परस्परबुद्धिव्यतिहारः कर्त्तव्यः । इतरवत् - - यथेतरत्र सदविद्यायां भूयोभूयः प्रश्नैः प्रतिवचनैश्चतदेव सद्ब्रह्मव्यवच्छिद्यते, न पुनः पूर्व प्रतिपन्नाद् गुणान्तरविशिष्णु-
( १०२३ ) तयोपास्यं प्रतिपाद्यते, तदवत् ।
यदि कहें कि यदि सर्वान्तरात्मकता ही उपास्य गुण है तो, प्राणनहेतुता और अनशन आदि गुरणों के अनुसंधान का प्रश्न करने का क्या प्रयोजन था ? इस पर कथन यह है कि उषस्त ने जाना कि, समस्त प्राणियों के प्राणाधार के कारण होने से ही, सर्वान्तरात्मा, जीव से विलक्षण ब्रह्मस्वरूप है । ऐसा ही कहोल ने भी माना कि जीव में जो नितान्त असंभव हैं, ऐसे विशिष्ट गुणों से युक्त सर्वान्तरात्मा का चिन्तन करना चाहिए । इसीलिए उन्होंने पुनः प्रश्न किया और याज्ञवल्क्य ने भी उनका अभिप्राय समझकर, जीवात्मा से असंभाव्य अनशन आदि की गुणातीतता का उपदेश दिया । उपास्य की, जीव से विलक्षणता सिद्ध करने के लिए, उषस्त और कहोल के पारस्परिक बुद्धि व्यवहार का विनिमय करना चाहिए। जैसे कि सद्विद्या में बार बार प्रश्नोत्तरों से. उसी एक सत्र की विशेषता सिद्ध की गई है, पूर्व प्रतिपत्र गुणों से किसी अन्य विशिष्ट गुणों वाले उपास्य का प्रतिपादन नहीं किया गया है, वैसे ही उक्त प्रसंग में सर्वान्तरात्मा की विशेषता सिद्ध की गई है । तत्रापि प्रश्नप्रतिवचदभेदे सति कथमैक्यमवगम्यत इति चेत्– तत्राह– यदि कहें कि वहाँ सद्विद्या में भी प्रश्न प्रतिवचन में ही जब भेद है तो एकता कैसी जानी जाय उसका उत्तर देते हैं :- —- सैव हि सत्यादयः | ३|६|३७|| सैव हि सच्छब्दाभिहिता परमकारणभूतापरा देवतैव “सेयं देवतैक्षत” तेजः परस्यां देवतायाम्" इति प्रकृता " तया सोम्य मधु मधुकुतोनिस्तिष्ठति" इत्यादिषु पर्यायेषु सर्वेषूपपद्यते । यतः “ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा” इति प्रथमपर्यायोदिताः सत्यादयः सर्वेषु पर्यायेषूपपाद्योपसंहिते । " उसी परा देवता ने इच्छा की" तेज परा देवता में लीन हुआ " इत्यादि स्थलों में जिस परा देववा परब्रह्म का वर्णन किया गया है, उसी को “हे सौम्य ! मधुकर जैसे मधु में चिपकते है” इत्यादि वाक्यों में
( १०२४ ) प्रतिपादन किया गया है । “यह सब कुछ तदात्मक सत्य है वही आत्मा है " इत्यादि में जिस सत्यादि संपन्न उपास्य का उपदेश दिया गया है, परवर्ती सभी उपदेशों में, उसी का संग्रह किया गया है । केचित्तु - “व्यतिहारो विशिषंति होतरवत्” सैवहि सत्यादय: इति सूत्रद्वयमधिकरणद्वयंवर्णयति । तत्र पूर्वेण " त्वंबाऽहमस्मि भगवो देवते अहं वै त्वमसि भगवो देवते तद्योऽहं सोऽसौ योऽसौ सोऽहम्” इति वाक्ये जीवपरयोर्व्यतिहारानुसंधानं प्रतिपाद्यत इत्युच्यत इत्याहुः तत् " सर्वखल्विदं ब्रह्म" ऐतदात्म्यमिदं सर्वम् " तत्त्वमसि " इत्यवगत सर्वात्मभावविषयत्वादस्य वाक्यस्य नात्र प्रतिपादनीयमपूर्वमस्तीत्यनादरणीयम् । तत्तुवक्ष्यते - “ श्रात्मेतितूप- गच्छति ग्राहयंति च" इति । न च सर्वात्मत्वानुसंधानातिरेकेण परस्मिन् ब्रह्मरिण जीवत्वानुसंधानम्, जीवे च परब्रह्मत्वानुसंधानम्, तथ्यं संभवति । । कुछ लोग “व्यतिहारो विशिषंति हीतरवत्” सैव हि सत्यादयः इन दो सूत्रों को पृथक् अधिकरण रूप से वर्णन करते हैं । प्रथमसूत्र में: हे भगवन् ! तुम मैं हूँ और मैं तुम हो; जो मैं हूँ सो यह है, जो यह है सो मैं हूं" इस वाक्य को प्रस्तुत कर, जीव और ब्रह्म के अभेद का प्रतिपादन करते हैं । किन्तु - “यह सब कुछ ब्रह्म स्वरूप है” यह सब आत्म्य है ’ वह तू है" इत्यादि से जो सर्वात्मभाव निश्चित किया जा चुका वही, ‘तुम मैं हूँ" इत्यादि वाक्व का प्रतिपाद्य विषय है । इसमें कोई नवीन अर्थ योजना करना ठीक नहीं है । उक्त प्रकार की व्याख्या आदरणीय भी नहीं है । “आत्मेति तूपगच्छति ग्राह्यंति च” सूत्र में - इस पर विशेष कहेंगे । सर्वात्मकतानुसंधान के बहाने, परब्रह्म में जीवत्व का अनुसंधान तथा जीव में, परब्रह्मत्व का अनुसंधान करना भी सही नहीं है । वै उत्तरेण च सूत्रेण " स यो ह वै तन्महद्यक्ष प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्म" इत्यादि वाक्य प्रतिपादितस्य सत्योपासनस्य " तद्यत्सत्य- मसौ स आदित्यो य एष एतस्मिन् मंडले पुरुषो यश्चायं
( १०२५ ) दक्षिणेऽस्मिन्" इत्यादि वाक्य प्रतिपादितोपासनस्य चैक्यं प्रतिपाद्यत इति, तदप्ययुक्तं उत्तरवाक्ये, श्रक्ष्यादित्यस्थानभेदेन विद्याभेदस्य पूर्वमेव । " न वा विशेषात्" इत्यनेन प्रतिपादितत्वात् । द्वितीय सूत्र में - " जो उस प्रथमजात अतीव रमणीय सत्य ब्रह्म को जानते हैं" इत्यादि वाक्य की सत्यब्रह्मोपासना और " जो सत्य है वही आदित्य हैं, जो इस प्रादित्य मंडल का पुरुष है, वही दक्षिणनेत्रस्य पुरुष है" इत्यादि वाक्य प्रतिपादित उपासना की एकता का प्रतिपादन करते हैं वह भी असंगत बात है । दूसरे वाक्य में नेत्र और आदित्य में स्थान भेद होने से विद्या भेद है, ऐसा “न वा विशेषात् " सूत्र में बतला चुके हैं । न च द्वयोरनयोर्व्याहृत्यादि शरीरकत्वेन रूपवतो: ‘हन्तिपापू- मानं जहाति च य एवं वेद’ इति पृथक्संयोगचोदनावतोद्वयोरुपास- नयो: “स यो ह वै तन्महद्यक्ष प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्म ेति जयतीमान् लोकान्” इति संयोग रूपादिमत्तया निरपेक्षण पूर्वेणैकैनोपासने नाभेदः संभवति । उक्त दोनों उपासनाओं की व्याहृति आदि शरीर के रूप से भी कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि- ‘जो इस प्रकार जानता है वह पापों को नष्ट करता और छोड़ता है" इत्यादि । पृथक संयोग और विधि वाली दोनों उपासनाओं का " जो उस प्रथम जात अतीव रमणीय सत्य ब्रह्म को जानते हैं वह इस समस्त लोक को जीतते हैं" इत्यादि में पृथक् फलोल्लेख होने से, पर वाक्य, पूर्व वाक्य से पूर्ण रूप से भिन्न हो जाता है, इसलिए दोनों वाक्यो में एक उपासना नहीं हो सकती । न च “हंति पाप्मानं जहाति” इति । फलाधिकारत्वम्, प्रमाणाभावात् । पूर्वेणैकविद्यात्वं प्रमाणामिति चेत्, न, इतरेतरा- श्रयत्वात् । एकविद्यात्वे निश्चिते पूर्वफलस्यैव प्रधानफलत्स्वे निश्चिते सति संयोग भेदाभावात् पूर्वेण विद्यक्यमिति इतरेतराश्र - यत्वमित्येवमादिभि यथोक्त प्रकारमेव सूत्रद्ववम् ।
( १०२६ } “हंतिपाप्मानं जहाति” को उपासना का गौण फल भी नहीं कह सकते इसको गौण मानने का कोई प्रमाण नहीं मिलता । यदि कहें कि पूर्व और पर विद्या की एकता ही उसका प्रमाण है सो ऐसा मानने से अन्योन्याश्रय दोष होगा । अर्थात् दोनों को एकविद्या मानने से पूर्व फल की प्रधानता पर के दोनों फलों की गौणता सिद्धि होगी । ऐसा होने से. फल संयोग के भेद का अभाव हो जावेगा, जिससे कि दोनों विद्याओं की एकता घटित होती है । इत्यादि असंगतियों से उक्त दो प्रकरणों की बात मान्य नहीं है । जो प्रकार हमने प्रस्तुत किया है वही समीचीन है । १६ कामाद्यधिकरणः- कामादोतरत्र तत्र चायतनादिभ्यः | ३|३|३८|| छांदोग्ये श्रूयते - " अथ यदिदमस्मिम् ब्रह्मपुरे दहरं पुंडरीकं, वेश्म दहरोऽस्मिन्न तर श्राकाशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्" इत्यादि वाजसनेयके च “स वा एष महानज श्रात्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय श्राकाशस्तस्मिन् शेते सर्वस्यवशी सर्वस्येशानः" इत्यादि । तत्र संशयः, किमनयोर्विद्याभेदः, उतनेति ? किं युक्तम् ? भेद इति कुतः ? रूपभेदात् । श्रपहतपाप्मत्वादि गुरणाष्टकविशिष्टं आकाश: छांदोग्ये उपास्यः प्रतीयते । वाजसनेयके त्वाकाशे शयानो वशित्वादिगुणविशिष्ट उपास्यः प्रतीयते, अतो- रूपभेदात् विद्याभेदः । 1 छांदोग्य में पाठ है कि - " इस ब्रह्मपुर शरीर के अन्दर जो दहर पुंडरीक गृह है, उसके अन्तस्थ आकाश में जो तत्व है वही अन्वेष्टव्य है" इत्यादि । वाजसनेयी में भी इसी प्रकार - " यही वह महान अज आत्मा जो कि प्राणों के मध्य में विज्ञानमय हृदय के मध्य में जो आकाश है, उसमें निवास करता है, वह सर्व नियामक और सर्वाधिपति हैं" इत्यादि यहाँ संशय होता है कि इन दोनों विद्याओं में भेद है कि अभेद ? कह सकते है कि-भेद है क्योंकि दोनों में स्वरूपगत भेद है । छांदोग्य में आठ
( १०२७ ) गुणों वाले विशिष्ट ब्रह्म को उपास्य बतलाया गया है तथा वाजसनेयी में आकाश में शयन करने वाले वशित्व मादि गुण विशिष्ट ब्रह्म को उपास्य बतलाया गया है इस प्रकार दोनों में स्वरूपगत भेद है इसलिए दोनों विद्यायें भिन्न हैं । च कामाद्येव हि इति । कुतः ? सिद्धांत:- इति प्राप्ते प्रचक्ष्महे न भेद रूपाभेदात् - इतरत्रतत्र रूपम् - वाजसनेयके छांदोग्ये च सत्यकामादिविशिष्टमेव ब्रह्मोपास्यमित्यर्थः | कुत एतदवगम्यते ? श्रायतनादिभ्यः हृदयायतनत्यमेतुत्व विधारणत्त्रादि- भिस्तावदुभयत्र सैव विश्चेतिप्रत्यभिज्ञायते । वशित्वादयश्च वाजसनेयके श्रुताः छांदोग्ये श्रुतस्य गुणाष्टकान्यतमभूतस्य सत्यसंकल्पत्वस्य विशेषा एवेति सत्यसंकल्पत्व सहचारिणां सत्यकामत्वादीनामपहतपाप्मत्वपर्यन्तानां सद्भावमवगमयंति, अतो रूपं न भिद्यते । सिद्धांत बतलाते हैं कि-भेद नहीं है; रूप के अभेद से यह बात स्पष्ट होती है; जैसे- अन्यत्र काम आदि गुणों से संपन्न को उपास्य कहा गया है, वैसे ही वाजसनेयी और छांदोग्य में, सत्यकामादि विशिष्ट को ही उपास्य कहा गया है । आयतन आदि के वर्णन से ही यह बात निश्चित होती है । हृदायतनत्व, सेतुत्व, विधारणत्व आदि रूप से जिसके चिन्तन का विधान किया गया है, उसे ही, इन दोनों स्थलों पर भी उपास्य कहा गया है | यहाँ वही विद्या निश्चित होती है । वशित्व आदि विशेषतायें वाजसनेय में बतलाई गई हैं और सत्यसंकल्पता भादि विशेषतायें छांदोग्य में बतलाई गई हैं । सत्यसंकल्प से लेकर सत्यकामता निष्पापता पर्यन्त सभी विशेषतायें, सत् का अस्तित्व बतलाने वाली विशेषतायें हैं, इसलिए स्वरूप में भेद नहीं है । संयोगोऽपि परं ज्योति संपद्य स्वेनरूपेणाभिनिष्पद्यते" “अभयं वै ब्रह्म भवति” इति ब्रह्मप्राप्ति रूपो न भिद्यते । आकाश शब्दः छांदोग्ये परमात्मविषय इति “दहर उत्तरेभ्यः "
( १०२० ) इत्यत्र निर्णीतम् । वाजसनेयके त्वाकाशे शयानस्य वशित्वादि- श्रवणात्तस्य तस्य शयानस्य परमात्मत्वे सति तदाधाराभिधायिन श्राकाशशब्दस्य " तस्यान्ते सुषिरंसूक्ष्मम्” इति हृदयान्तर्गतस्य सुषिरशब्द वाच्यस्याकाशस्याभिधायकत्वमवगम्यते श्रतो विद्यैक्यम् । " परं ज्योति को प्राप्त कर अपने रूप से निष्पन्न हो जाता है” निर्भय ब्रह्म हो जाता है" इत्यादि ब्रह्म प्राप्ति रूप, फल संयोग में भी दोनों की अभिन्नता है । छांदोग्य में, आकाश शब्द परमात्म स्वरूप माना गया है, “दहर उत्तरेभ्यः " सूत्र में इसका निर्णय किया जा चुका है । वाजसनेयक में तो, आकाश में शयन करने वाले को वशित्व प्रादि विशेषताओं का भी उल्लेख है । " तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मम्” में उल्लेख्य “सुषिर " शब्द आकाशवाची ही निश्चित होता है, इसलिए विद्या एक है । अथ स्यात् यदुक्तं वाजसनेयके वशित्वादिभिः सह सत्काम- त्वादि सद्भावोऽवगम्यते इति, तन्नोपपद्यते, वशित्वादीनामेव तत्र परमार्थतः सद्भावाभावात् तदभावश्च " मनसैवानुदृष्टव्यं नेह नानास्ति किचन, मृत्योः स मृत्यमाप्नोति य इह नादेव पश्यति " " एकधैवानुदृष्टव्यं एतदप्रमेयं ध्रुवम्” इति प्रकृतेन वाक्येन " स एष नेति नेत्यात्मा" इत्युत्तरेण चोपास्यस्य ब्रह्मणो निर्विशेषत्व प्रतीतेरव- गम्यते, अतो वशित्वादयोऽपि स्थूलत्वागुत्ववन्निषेध्या इति प्रतीयंते, अत एव छांदोग्येऽपि सत्यकामत्वादयो न ब्रह्मणः पारमार्थिका गुणा उच्यंते, प्रतोऽपारमार्थिकत्वादेवंजातोयकानां गुणानां मोक्षार्थेषूपा- सनेषु लोप इति तत्राह - आपत्ति की जाती है की - वाजसनेयक में जो वशिता आदि गुणों के साथ सत्यकामता आदि गुणों की प्रतीति बतलाई, वह संभव नहीं है । क्योंकि वहाँ वशिता पादि का परमार्थिक भाव नहीं है । “मन से ही उसे जानना चाहिए, जगत् में कोई भिन्नता नहीं है, जो भिन्नता देखता है वह मृत्यु के बाद मृत्यु प्राप्त करता है” अप्रमेय और ध्र ुव इस ब्रह्म को एक ही समझो " इस पारमार्थिक वाक्य से" वही यह आत्मा नेति नेति कहा जाता है" इत्यादि परवर्त्ती वाक्य में, निर्विशेषता की प्रतीति होती ( १०२६ ) है । इसलिए वशिता आदि भी, स्थूलता अणुता आदि की तरह भिन्न ही प्रतीत होते हैं, अर्थात् इनका अभाव प्रतीत होता है। इससे निश्चित होता है कि छांदोग्य में भी, सत्यकामता आदि ब्राह्म गुण, पारमार्थिक नहीं हैं। ऐसे अपारमार्थिक गुणों का, मोक्ष संबंधी उपासनाओं में कोई अस्तित्व नहीं है । इसका उत्तर देते हैं- श्रादरादलोपः | ३|३३६ ॥ ब्रह्मगुणत्वेन प्रमाणान्तरा प्राप्तानां गुणानामेषां सत्यकाम- त्वादीनां " तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्” एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरोविमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सर्वस्यवशी सर्वस्येशानः " एष सर्वेश्वर एष भूताधिपति- रेषभूतपाल एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसंभेदाय" इत्यादिभि- रनयोः श्रुत्योरन्यासु च मोक्षार्थोपासनोपास्यब्रह्मगुणत्वेन सादरमुपदेशादेषामलोप:, अपितूपसंहार एव कार्यः ब्रह्म के गुण रूप से, इन सत्यकाम आदि गुणों की प्रतीति किन्हीं अन्य प्रमाणों से नहीं होती, अपितु “उसमें जो अन्तस्थ है वही अन्वेषणीय है” यह आत्मा-निष्पाप, जरा मृत्य-शोक-भूख-प्यास रहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है “सबको वश में करने वाला सर्वेश्वर है” “यही सर्वेश्वर, भूताधिपतियों क पालक, लोकमर्यादा का रक्षक आधाररूप सेतु है” इत्यादि शास्त्रीय वचनों से ही प्रतीत्य हैं, इन्हें अन्य वाक्यों में भी, मोक्ष संबंधी उपासना के उपास्यगुणों के रूप में, सादर स्मरण किया गया है, इसलिए मोक्षार्थ में इनके अस्तित्व को न स्वीकारना अज्ञान ही है । अपितु मोक्ष के लिए इनका उपसंहार करना चाहिए । छांदोग्ये तावत् -" तद् य इहात्मानमनुविद्यव्रजन्त्येतांश्च सत्यान् कामान् तेषां सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति" इति सत्यकामत्वादि गुणविशिष्टस्य ब्रह्मणो वेदनमभिधाय " अथ ह इहात्मानमनुविद्य- व्रजन्त्येतांश्च सत्यानुकामांस्तेषां सर्वेषु लोकेष्वकामचारो भवति "
( 2030 ) इत्यवेदन निन्दा क्रियमाणा गुणविशिष्टवेदनस्यादरं दर्शयति । तथा - वाजसनेयके- “सर्वस्यवशी सर्वस्येशानः " एष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपालः” इति भूयोभूय ऐश्वर्योपदेशाद् गुणेष्वादरः प्रतीयते । एवमन्यत्रापि । न च मातापितृसहस्रेभ्योऽपि वत्सलतरं शास्त्रं प्रतारकवदपारमार्थिकान्निरसनीयान् गुणान् प्रमाणान्तरा प्रतिपन्नानादरेणोपदिश्य संसारचक्र परिवत्र्त्तनेन पूर्वमेव बभ्रम्यमा- गान् मुमुक्षून् भूयोऽपि भ्रमयितुमलम् । छांदोग्य में " जो इनकी आत्मरूपता और सत्यकामादि विशेषताओं को जानकर प्रयाण करता है, वह सभी लोकों में यथेच्छ विहार कर सकता है" ऐसे सत्यकामता आदि विशेषताओं वाले परब्रह्म की वेद्यता बतलाकर “जो इस लोक में इनकी आत्मता और सत्यता आदि को न जानकर प्रयाण करता है, वह सभी लोक में यथेच्छ विचरण नहीं कर सकता” इत्यादि से न जानने वालों की अज्ञानता की निंदा करके, इन गुणों से विशिष्ट वेद्य के प्रति आदर प्रकाश किया गया है तथा वाजसनेय में - “सबको वश करने वाला सबका स्वामी है “यही सर्वेश्वर यही भूताधिपतियों का स्वामी भूतपाल है” इत्यादि वाक्यों से बार बार, उपास्य के ऐश्वर्य की प्रशंसा करते हुए आदर प्रकाश किया गया है । ऐसा ही अन्यत्र भी है । ऐसा तो हो नहीं सकता कि हजारों माता पिताओं से भी अधिक वात्सल्य प्रकाश करने वाले शास्त्र प्रतारणा देने वाले शासक की तरह, अपारमार्थिक विरोध करने योग्य प्रमाषांतरों से सिद्ध गुणों का आदरपूर्वक उपदेश देकर, संसारचक्र में पहिले से ही प्रमित मुमुक्षुओं को पुनः भ्रम में डाल दें।
“नेह नानास्ति किचन " एकधैवानुद्रष्टव्यम्” इति तु सर्वस्य ब्रह्मकार्यत्वेन तदात्मकत्वादेकधाऽनुदर्शनं विधायाब्रह्मणात्मकत्वेन पूर्व सिद्धानानात्वदर्शनं निषेघयतीत्ययमर्थः प्रागेव प्रपंचितः । “स एष नेतिनेत्यात्मा” इत्यत्र वेति शब्देन प्रमाणांतर प्रतिपन्नंं प्रपंचाकारं परामृश्यं न तथाविधं ब्रह्मेति, सर्वात्मभूतस्य ब्रह्मणः
( १०३१ ) प्रपंचविलक्षणत्वं प्रतिपाद्यते, तदेव चानन्तरमुपपादयति- “प्रग्राह्यो नहि गृह्यतेप्रशोर्यो नहि शोर्यंते प्रसंगोनहि सज्यते प्रव्यथितो न व्यथते न रिष्यति” इति । प्रमाणान्तरग्राह्यविसजातोयत्वान्न विशोर्यते एवमुत्तरत्रानुसंघेयम् । छांदोग्येऽपि - ’ नास्य जरयैतन्नीर्यंति न वधेनास्य हन्यते एतसत्यं ब्रह्मपुरमस्मिन् कामाः समाहिताः” इति सर्वविसजातीयत्वं ब्रह्मणः प्रतिपाद्य तस्मिन् सत्यकामत्वादयो बिधीयते । “नेहनानास्ति " एकधैवानु” इत्यादि वाक्य, ब्रह्म के कार्य रूप सारे जगत को तदात्मक अद्वैत बतलाकर ब्रह्मात्मक न मानकर की जाने वाली भिन्नता का निषेध करते हैं, ऐसा पहिले ही बतला चुके हैं ।” स एष नेतिनेत्यात्मा” वाक्य में इति शब्द से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से स्थूलसूक्ष्म जगत का उल्लेख करके, ब्रह्म वैसा नहीं है अपितु वह समस्त प्रपंच मय जगत का अन्तर्यामी होते हुए भी, जगत से विलक्षण है, ऐसा प्रतिपादन किया गया है । उसी की अनन्तता का समर्थन करते हुए कहते हैं कि- “ब्रह्म, ग्रहण न करने योग्य अग्राह्य, शीर्ण न होने योग्य अशीर्य, आसक्त न होने योग्य प्रसंग, व्यथित न होने योग्य अव्यथित तथा च्युत न होने योग्य अच्युत है” इत्यादि वर्णन से ज्ञात होता है कि-शब्दातिरिक्त प्रमाण से ज्ञेय वस्तुनों से, यह ब्रह्म, विसजातीय है, इसलिए ब्रह्म की जानकारी में एकमात्र शास्त्र ही प्रमाण है, वह एकमात्र उसी से ज्ञेय है । जो सारे पदार्थ विसजातीय हैं, वे सब शीर्ण होते हैं, ब्रह्म शीर्ण नहीं होता। इसी प्रकार छांदोग्य में भी वर्णन मिलता है कि- “न यह जरा से जर्जर होता है, न मारने से मरता है, यही सत्स्वरूप ब्रह्म का नगर है, इसी में सारी कामनायें निहित हैं” इसमें भी सारे जगत को ब्रह्म से विसजातीय बतलाकर उन्हीं में सत्यकामता आदि गुणों को निहित बतलाया गया है । नन्वेमपि - “तद्य इहात्मानमनुविद्य इहात्मानमनुविद्य ब्रजन्त्येतांश्च सत्यान् कामांस्तेषां सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति स यदि पितृलोक कामों भवति” इत्यादिना सत्यकामादिगुणविशिष्ट वेदनस्य, परविद्याफल
( १०३२ ) च " परं ज्योतिरुपसंपद्य स्वेनरूपेणाभिनिष्पद्यते " इतीदमेव । अतः सत्यकामत्वादयो ब्रह्मप्रेप्सोर्नोपसंहार्यांः इति । श्रत उत्तरं पठति- (तर्क) ऐसा होते हुए भी - " तद्य इहात्मानमनुविद्य" इत्यादि वाक्य से - सत्यकामादि गुणविशिष्ट ब्रह्म की उपासना के सांसारिक फलोल्लेख होने से इसे मुमुक्षुओं की सगुणोपासना भी नहीं कह सकते । और जो परा विद्या का फल है, वह " परंज्योति को प्राप्त कर अपने स्वरूप को प्राप्त करता है" इत्यादि में स्पष्ट कहा गया है । इसलिए जो मुमुक्षु हैं, उनके लिए, सत्यकामादि गुणों का उपसंहार, उपासनार्थ करना ठीक नहीं । इसका उत्तर देते हैं— उपस्थितेऽतस्तद्वचनात् | ३ | ३|४०|| उपस्थितिः, उपस्थानम्, ब्रह्मोपसंपन्ने सर्वबंधविनिर्मुक्त) स्वेन रूपेणाभिनिष्पन्ने प्रत्यगात्मनि, अतएव - उपसंपत्ते रेवहेतोः सर्वेषु लोकेषु कामचार उच्यते “परंज्योतिरुपसंपद्य स्वेनरूपेणाभिनिष्पद्यते, स उत्तमः पुरुषः स तत्र पर्येति जक्षत् क्रीडन्ममाणः स्त्रीभिर्वा यातैर्वा ज्ञातिभिर्वा मोपजनं स्मरन्निदं शरीरं स स्वराड्भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति” इति तदेतच्चतुर्थे निपुणतरमुपपाद- यिष्यते । श्रतः सर्वेषु लोकेषु कामचारस्य मुक्तोपभोग्यफलत्वात् । मुमुक्षोः सत्यकामत्वादयो गुणा उपसंहार्याः । व्यक्ति के उपस्थित का अर्थ है उपस्थापन ( प्राप्ति ) अर्थात् जो आत्म ब्रह्म संपत्र हैं, वह सब बंधनों से मुक्त अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हैं । ऐसी ब्रह्म संपन्नता को प्राप्त लिए ही कामचार की बात कही गई है - " परंज्योति को प्राप्त कर अपने स्वरूप को प्राप्त करता है, वह उत्तम पुरुष अपने समीपवर्ती स्थूल शरीर को भूलकर, भक्षण, स्त्रीरमण, अश्वादि गमन, ज्ञातिजनों के साथ परिभ्रमण, आदि करते हुए लोकों में यथेच्छ भ्रमण करता है’ इस भवस्था का वर्णन चतुर्थ पाद में विशेष रूप से करेंगे। सभी लोकों की यथेच्छ प्राप्ति, मुक्त पुरुष का उपभोग्य फल ही
( १०३३ ) है इसलिए सत्यकामता आदि का मुमुक्षुत्रों के लिए, उपास्यरूप से उप- संहार करना चाहिए । तन्निर्धारणनियमः तदृष्टेः प्रथूग्ध्यप्रतिबंधः फलम् | ३ | ३ | ४१ | ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्" इत्यादीनि कर्माङ्गाश्रयाण्यु- पासनानि कर्मागभूतोद्गीथादिमुखेन जुहवादिमृखेन पर्णतादिवत् कर्मागत्वेन निरुढानुष्ठानानीत्युद्गीथाद्युपासन संबंधिनो “यदेव विद्ययाकरोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति" इति पर्णतादिसंबंध्यापापश्लोक वर्तमान निर्देशस्य श्रवणवत् प्रथक्फलत्वकल्पनायोगात् क्रतुषु नियमे नोपसंहार्याणि इति । यज्ञ कमगजुहू जैसे पत्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है वैसे ही ॐ" अक्षर की उद्गीथावयव के रूप में उपासना करनी चाहिए" इत्यादि में उद्गीथ को भी कर्माग उपासना के रूप में विधान किया गया है, यह उपासना कर्मागं उपासना के रूप में ही प्रसिद्ध है । उद्गीथ उपासना के संबंध में “विद्या या उपासना के साथ जो कर्म किया जाता है वही प्रबल होता है” इत्यादि में जो वर्तमान कालिक क्रिया “करोति” का प्रयोग किया गया उससे ज्ञात होता है कि- जैसे- “पर्ण भयी जुहू” में पापश्लोक ( अमंगल - कथन ) श्रवण के अभाव की पृथक् फलरूप से कल्पना की गई है, वैसी कल्पना उक्त प्रसंग में नहीं है। इसलिए इस संपूर्ण उपासना का यज्ञकार्य में उपसंहार करना चाहिए । सिद्धान्त:- " एवं प्राप्त प्रचक्ष्महे - तन्निर्धारिणानियमः" इति निर्धारणं निश्चयेन मनसोऽवस्थापनं, ध्यानमित्यर्थः । तन्निर्धार- पानियमः कर्मसूद्गीथाद्युपासनानामनियमः कुतः ? तदृष्टेः उपलभ्यते हि उपासनानुष्ठानानियमः ‘तेनोभौ कुरुतोपपश्चैतद्द बं वेद यश्च न वेद" इत्यविदुषोऽप्यनुष्ठानवचनात् । न चांगत्वे सत्युपासनस्यानुष्ठानानियम उपपद्यते । एवमुपासनस्यानं गत्वे निश्चिते सत्युपासनविधेः फलाकांक्षायां रात्रिसत्रन्यायेन वीर्यवत्तरत्वं
( १०३४ ) कर्मफलात् पृथग्भूतं फलमित्यवगम्यते । किमिदं वीर्यवत्तरत्वं ? कर्मफलस्यैवाप्रतिबंधः । प्रतिवध्यते हि कर्मफलं प्रबलक मन्तिरफलेन तावन्तं कालम् तदभावोऽप्रतिबंधः । स हि अप्रतिबंधः कर्मफलात् स्वर्गादिलक्षणात् प्रथग्भूतमेव फलम् । तदिमुच्यते - पृथग्ध्यप्रतिबंध: फलमिति । अतः कर्माणाश्रयाणामपि पृथग्फलत्वाद्गोदोहनादिवत् कर्मसूद्गीथाद्युपासनानामनियमेनोपसंहारः । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से " तन्निर्धारणानियमः" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । निश्चित मनःस्थिति को निर्धारण अर्थात् ध्यान कहते हैं । यज्ञकमों में उद्गीथ आदि उपासना के कर्तव्य का कोई नियम नहीं है। ऐसा ही वर्णन मिलता है- “जो ऐसा जानते हैं और जो लोग नहीं जानते वे दोनों ही कर्म करते हैं” इत्यादि वाक्य में अज्ञाता के लिए भी कर्मानुष्ठान का नियम कहा गया है, इससे उपासना अनुष्ठान का कोई विशेष नियम समझ में नहीं आता । उपासना, यदि कर्माग होती तो, किसी भी समय उसके अनुष्ठान का अनियम न होता । उपासना की कमांगता अनिश्चित हो जाने पर उपासना विधि की फलाकांक्षा में “रांत्रि - सत्रन्याय” के अनुसार यह निश्चित होता है कि- कर्मफल से अधिक प्रबल फलवाली उपासना होती है, यही उक्त वाक्य का तात्पर्य है । इसकी प्रबलता क्या है? कर्मफल का प्रतिबंध न होना । प्रबल कर्मों के फल से, सामान्य कर्मों का फल निश्चित काल तक प्रतिबंधित होता है, जब की प्रबल कर्मों का फल अप्रतिबंधित रहता है । यह अप्रतिबंध, कर्म से प्राप्त स्वर्गादि प्राप्तिरूपफल, से निराला ही फल है । इसीलिए इसे पृथक अप्रतिबन्ध फल कहा गया । इसलिए उद्गीथ आदि उपासना कर्मा गाश्रित होते हुए भी फलश्रुति के अनुसार विशिष्ट फलवाली हैं, “गोदोहनन्याय" के अनुसार संपूर्ण कर्मों में उद्गीथ आदि उपासनाओं का उपसंहार करना चाहिए । १५ प्रदानाधिकरणः- प्रदानवदेव तदुक्तम् ||३|३|४२ ॥ " बहर विद्यायां तद्यं इहात्मानमुविद्य ब्रजन्त्येतांश्च सत्यान
( १०३५ ) कामान् " इति दहराकाशस्य परमात्मन उपासनमुक्त्वा “एतांश्च सत्यान् कामान्” इति गुणानामपि पृथगुपासनं विहितं तत्र संशयः, गुणचिन्तनेऽपि तद् गुणविशिष्टतया दह रस्यात्मनश्चितन मावर्त्तननीयम्, उत नेति ? दहराकाशस्यैवापहतपाप्मत्वादीनां गुणित्वात्तस्य च सकृदेवानुसंघातुं शक्यत्वाद् गुणार्थन्तच्चितनं- नावर्त्तनीयम् । 1 दहर विद्या में - " जो इस लोक में इस आत्मा को और उसके सत्य- कामादि गुणों को जानकर" इत्यादि में दहराकाश परमात्मा की उपासना बतलाकर “सत्यान् कामान् से इन गुणों की भी उपासना का विधान किया गया है । यहाँ संशय होता है कि-गुणों के चिन्तन के समय, उन गुणों से विशिष्ट दहराकाश का चिन्तन भी आवश्यक है या नहीं ? दहराकाश परमात्मा ही जब निष्पापता आदिगुणों के आश्रय हैं, तो उनका एकबार चिन्तन करने से ही कार्य चल सकता है तो गुणों के साथ बार बार चिन्तन करना आवश्यक नहीं है । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - " प्रदानवदेव" इति । प्रदानवदा- वर्त्तनीयमेवेत्यर्थः । यद्यपि दहराकाश एक एवापहतपाप्मत्वादि- गुणानां गुणी, स च प्रथमं चिन्तितः, तथाऽपि स्वरूपमात्रात् गुणविशिष्टा कास्य भिन्नत्वात् “मपहतपाप्मा विजरः” इत्यादिना गुणविशिष्टतया चोपास्यत्वेन विहितत्वात्पूवं स्वरूपेणानु संहितस्या- पहतपाप्मत्वादि विशिष्टतयाऽनुसंधानार्थमावृत्तिः कर्तव्या यथा- “इंद्रायराज्ञे पुरोडाशमेकादश कपालं निर्वपेत् " इंद्रायाधिराजा य” इंद्रायस्वराज्ञे” इतीन्द्रस्यैव राजत्वादिगुणविशिष्टत्वेऽपि तत्तद्गुण- संबंध्याकारस्य भिन्नत्वात् । प्रदानावृत्तिः क्रियते; तदुक्तं सांकर्षणे- - " नाना वा देवता प्रथक्त्वात्" इति । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “प्रदानवदेव” सूत्र प्रस्तुत करते हैं अर्थात् प्रदान विधि की तरह, बार बार चिन्तन कर्त्तव्य है । यद्यपि
t ( १०३६ ) दहराकाश ही एकमात्र निष्पापता आदि विशिष्ट गुणों के गुणी होने से प्रथम चिंतित होते हैं, फिर भी दहराकाश का जो स्वाभाविक रूप है गुणविशिष्ट रूप से वह निश्चित ही भिन्न है । " अपहतपाप्मा" इत्यादि वाक्य में गुणविशिष्ट रूप से उनकी उपासना का विधान किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि अविशेषित रूप से उपासित दहर का निष्पाप आदि विशिष्ट गुणों सहित पुनः चितन करना चाहिए । जैसे कि - " राजा इंद्र को ग्यारह पात्रों में पुरोडाश अर्पित करो “अधिराज इंद्र को “स्वराट् इन्द्र को” इत्यादि में राजगुण विशिष्ट इन्द्र को अधिराज, स्वाराज इत्यादि विशिष्ट गुणों से बार बार प्रदान करने की आवृत्ति की गई है, वैसे ही उक्त चिंतन की बार बार आवृत्ति का विधान है । पूर्वकांड के संकर्षण में कहा भी गया है - “विशेष विशेष आकृतियों की पृथक्ता से देवता की भी पृथकता होती है । " १६- लिंगभूयस्त्वाधिकरणः - लिंगभूयस्त्वात्तद्धि बलीयस्तदपि | ३ | ३ | ४३॥ तैत्तरीया दहरविद्यानंतरमधीयते “सहस्रशीर्षं देवं विश्वाक्षं विश्वशंभुवम् विश्वं नारायणं देवं प्रक्षरं परमं प्रभुम्” इत्यारभ्य - " सोऽक्षरः परमः स्वराट्” इत्यन्तम् । तत्र संशयः, किं पूर्वप्रकृत विद्ययैकविद्यात्वेन तदुपास्य विशेषनिर्धारणमनेन क्रियते, उत सर्वं वेदांतोदित परविद्योपास्यविशेष निर्धारणमिति ? कि युक्तम् ? दहर- विद्योपास्यविशेष निर्धारणमिति । कुतः ? प्रकरणात् । पूर्वस्मिन्ननु- वाके दहरविद्या हि प्रकृता - “दहरं विपाप्मं परवेश्मभूतं यत्पुंडरीकं पुरमध्यसंस्थम्, तत्रापि दह गगनं विशोकस्तस्मिन्यदन्तस्तदुपासि- तव्यम् ।” इति, अस्मिंश्चानुवाके - “पद्मकोशप्रतीकाशं हृदयं चाप्यधोमुखम्” इत्यादिना, हृदयवुडरोकाभिधानमस्यनारायणा- नुवाकस्य दहरविद्योपास्यनिर्धारणार्थत्वमुपोवलयतीति । वैत्तरीयोपनिषद् में- दहरविद्या के बाद कहा गया है - “सहस्रशिर-
( १०३७ ) वाले विश्वदर्शी, विश्वकारण, विश्वात्मक, परंप्रभु निर्विकार देव नारायण को” इत्यादि से प्रारंभ करके “वही निरतिशय प्रकाशमान भक्षर है” यहाँ तक । इस पर संशय होता है कि पूर्व प्रस्तावित दहरविद्या के साथ, उसी से संबंधित, उपास्यगत कोई विशेष निर्धारित उपासना है अथवा सभी वेदांतों में कही गई परविद्या के उपास्य विशेष की उपासना का निर्धारण है ? कह सकते हैं कि दहरविद्योपास्य का निर्धारिण है. ऐसा उसी प्रकरण में वर्णन है । इसके पूर्व के अनुवाक में दहरविद्या का ही वर्णन है । " निष्पाप दहर अर्थात् सूक्ष्म हृदय ही परमेश्वर का वासस्थान है । जो कि देह में पुण्डरीक नाम से प्रसिद्ध है, उसके मध्य में भी सूक्ष्म आकाश है उसमें जो स्थित है, उसी की उपासना करना चाहिए” इत्यादि इसी अनुवाक में “पद्मकोश की आकृतिवाला अधोमुख हृदय है” इत्यादि के उपास्य ही, नारायण अनुवाक में भी । उपासनीय हैं । एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे - लिंगभूयस्त्वात् - रति । अस्य निखिल परविद्योपास्यविशेषनिर्धारणार्थत्वे भूयांमि लिगानि दृश्यते, तथाहि परविद्यास्वक्षर शिवशम्भुपरब्रह्म परज्योतिः परतत्त्वपरमात्मादि शब्द निर्दिष्टमुपास्यं वस्त्विह तैरेव शब्दैरनूद्य तस्य नारायणत्वं विधीयते, भूयसीषु विद्यासु श्रुताननूद्य नारायणत्व ‘वधानभूयस्त्वं नारायण एव सर्वविद्यासूपास्यमस्थूलत्वादिविशेषितानंदादिगुणकं परंब्रह्मेति विशेष निर्णये भूयः बहुतरं लिंग भवति । अत्र लिंग शब्द: चिह्नपर्यायः । चिह्नभूतं वाक्यं बहुत रंमस्तीत्यर्थः । तद् िप्रकरणाद् वलीयः । तदप्युक्तं प्रथमकांडे “श्रुतिलिंगवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्वल्यमर्थविप्रकर्षंणात्” इति । यत्तुक्त - " पद्मकोषप्रतीकाशम् ” इत्यादि वचनं दहशेषत्वमस्योपोदवलयति - इति । तत्र, बलीयसा प्रमाणेन सर्वविद्योपास्यनिर्धारणार्थत्वेऽवधूते सति दहरविद्यायामपि तस्यैव नारायणस्योपास्यत्वेन तदवचनोपपत्तेः । इस मत पर - " लिंगभूयस्त्वात् " सूत्र प्रस्तुत करते हैं । समस्त पर- विद्या के उपास्य विशेष के निर्धारणता के द्योतक अनेक नाम प्रस्तुत
( १०३५ } किए गए हैं, जैसे कि परविद्याओं में, अक्षर - शिव शम्भु - परब्रह्म परज्योति, परतत्त्व, परमात्मा श्रादि शब्दों से निर्दिष्ट उपास्य, यहाँ उन्हीं शब्दों से अनूदित नारायण रूप से उपास्य कहे गए हैं, परविद्या प्रतिपादन अनेक श्रुतियों में जिन गुणों का उल्लेख किया गया है, वे ही सब गुण, यहाँ नारायण के लिए पुनः कहे गए हैं, इससे ज्ञात होता है कि- सभी विद्याओं के उपास्य नारायण ही अस्थूलता आदि विशेषित आनंद गुण वाले परब्रह्म हैं । इसके निर्णय में अनेक “लिंग” हैं। लिंग शब्द चिह्न का पर्यायवाची है, अर्थात् उस चिह्न के अनेक वाक्य मिलते हैं । वाक्य प्रकरण से प्रवल हैं । पूर्वमीमांसा के प्रथम काण्ड में इसका नियम इस प्रकार बतलाया गया है - श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण स्थान और समाख्या इन सभी कारणों के उपस्थित होने पर पूर्व की अपेक्षा पर कारणों से अर्थ करने से विलंब होता है इसलिए पूर्व से पर कारण निर्वल है ।" जो यह कहा कि - “पद्मकोश प्रतीकाश इत्यादि वचन कहरोपासना के शेष प्रकरण में आया है अतः उसी का बोधक है, सो बात भी नहीं हैं; बलवान लिंग प्रमाण द्वारा सर्वविद्योपास्यता के निर्णीत हो जाने पर यह समझना चाहिए कि - दहरविद्या में वही नारायण, पद्मकोश में उपास्य कहे गए हैं । नच " सहस्रशीर्ष” इत्यादि द्वितीया निर्देशेन पूर्वानुदाकोदितो- पासिता संबंध शंकनीयः " तस्मिन्यदंतस्तदुपासितव्यम्" इत्युपासित गतेन कृत्प्रत्ययेनोपास्यस्य कर्मणोऽभिहितत्त्वात् तदुपास्ये द्वितीयानु- पपत्तेः । “विश्वमेवेदं पुरुषः “तत्त्वं नारायणः परः” इत्यादि प्रथमा । निर्देशाच्च प्रथमार्थे द्वितीया वेदितव्या । " अन्तहिश्चतत्सर्वं ध्याप्यनारायणः स्थितः " तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः सब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः निर्देशैः सर्वस्मात् परोनारायण एवं त्वाच्च प्रथमार्थे द्वितीयेति निश्चीयते । सोऽक्षरः परमः स्वराट" इति सर्वत्रोपास्य इति निर्णीयमान- सहस्रशीर्षम् में किये गए द्वितीया विभक्ति के निर्देश के आधार पर पूर्वानुवाक वर्णित उपासना के संबंध की शंका भी नहीं की जा सकती ( १०३९ ) " तस्मिन्यदंतस्तदुपासितव्यम" इत्यादि वाक्य में जो उपासना में कृत् प्रत्यय का प्रयोग किया गया है वह कर्मभूत उपास्य का बोधक है द्वितीया विभक्ति का नहीं। इसी प्रकार “सहस्रशीर्षम् " में कर्मपद में द्वितीया विभक्ति नहीं है अपितु प्रथमा स्थानीय द्वितीया है । जैसे कि - " विश्वमेवेदं पुरुषम् " तत्त्व नरायणः परः” इत्यादि में प्रथमा स्थानीय द्वितीया है । " नारायण ही सब वस्तुओं में बाहर भीतर व्याप्त हैं" उसकी ज्योति में परमात्मा स्थित हैं, वहीं ब्रह्मा शिव व ंद्र अक्षर परम और स्वप्रकाश है इत्यादि से सब जगह नारायण हो परम उपास्य के रूप में निश्चित होते हैं कि उक्त पद में प्रथमा स्थानीय द्वितीया विभक्ति है। २० पूर्वविकल्पाधिकरणः - पूर्वविकल्यः प्रकरणात्स्यात् क्रिया मानसवत् | ३ | ३ | ४४ || वाजसनेयके अग्निरहस्ये मनश्चिनादयोऽग्नयः श्रयंते " मनश्चितोवाचितः प्राणचितः चक्षुश्चितः श्रोत्राचितः कर्मचितोऽ- ग्निचितः " । तत्र संशयः किमेते मनश्चितादयः सांपादिकत्वेन विद्या- रूपा श्रन्यः क्रियामय क्रत्वनुप्रवेशेन क्रियारूपा ग्राहोस्वित् विद्या- मयक्रत्वनुप्रवेशेन विद्यारूपाएव ? इति विशये क्रियारूपत्वं- तावदाह - पूर्व विकल्पः इत्यादिना । चित्याग्नित्वेन संपादिताना मेषां मनश्चितादीनां क्रत्वनुप्रवेशसाकांक्षाणां स्वदेशे क्रतुविध्यभावात् पूर्वत्र “असवा इदमग्र आसीत्” इत्यादिनेष्ट कचितस्याग्नेः प्रकृतत्वात् तस्य च क्रियामयक्रत्वव्यभिचारित्वेन तत्र क्रतु सन्निधानात्तत्प्रकरण गृहीता मनः तादयस्ते नेष्टकचितेना- ग्निना विकल्प्यमानाः क्रिया रूपा एवस्युः । विद्यारूपाणामपि क्रियामयक्रत्वनुप्रवेशेन क्रियारूपत्वं मानसग्रहवदुपपद्यते । यथाद्वाद- शाहे अविवाक्ये दशमेऽहनि मानसग्रहस्य मनोनिष्पाद्यग्रहणा-
( १०४० ) सादनस्तोत्रशस्त्रप्रत्याहरणभक्षणत्वेन विद्यारूपस्यापि क्रियामय क्रत्वंगतया क्रियारूपत्वं तथेहापि । , वाजसनेयक के अग्निरहस्य में मनश्चितादि अग्नियों का ऐसा वर्णन मिलता है - " मनश्चिद् वाक्चिद् प्राणचिद्-नेत्रचित् श्रौतचित्- कर्म चित् और अग्निचित्" इत्यादि । इस पर संशय होता है कि मनश्चिद् आदि, मानस संकल्प संपादित विद्यारूप अग्नियाँ, क्रियामय यज्ञ संबंधी क्रियायें हैं अथवा ज्ञानमय यज्ञ की अन्तर्भूत विद्या हैं ? इस पर कह सकते हैं कि क्रियारूप ही हैं “पूर्व विकल्प” इत्यादि सूत्र में उक्त मत का ही प्रतिपादन किया गया है । चयन योग्य अग्निरूप से परिकल्पित मनश्चित् आदि यज्ञ विशेष में अंतर्भूत हैं ऐसी आशंका होती है, इनका यज्ञ प्रकरण में तो कोई यज्ञ विधि रूप से उल्लेख मिलता नहीं । प्रकरण के पूर्व के “यह सारा जगत असत् ही था” इत्यादि वाक्य में, इष्टचित् अग्नि का उल्लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि - क्रियात्मक यज्ञ के साथ उस अग्नि का अव्य- भिचारी (प्राकृत) संबंध है । इसलिये उक्त प्रसंग में भी क्रिपामय यज्ञ का प्रसंग समझना चाहिये । इस प्रसंग में कही गई मनश्चित आदि भी यज्ञीय अग्नि के साथ प्रकरान्तर से कल्पित हैं, इसलिए क्रियारूप ही हैं । मानस अर्थात् चिन्तामय ग्रह की तरह मनश्चित् आदि ज्ञानात्मक होते हुए भी क्रियात्मक यज्ञ से संबंद्ध होने से क्रिया रूप ही कही जावेंगी । जैसे कि बारह दिन में पूर्ण होने वाले यज्ञ में दसवें दिन मानस ग्रह ( हवनीय द्रव्याधार पात्र विशेष मन) की कोई विधि (अर्थात मन को कैसे पात्र बनाया जाय ) न होते हुए भी; मन से ही ग्रहण- उत्पादन स्तोत्र - शस्त्र (स्तोत्र विशेष प्रत्याहरण और भक्षण का विधान बतलाया गया है तथा विद्यारूप होते हुए भी इसे क्रियामय यज्ञ का अंग होने से क्रियारूप माना गया है वैसे ही उक्त प्रसंग है । प्रतिदेशाच्च | ३|३|४५॥ इत्यश्चेष्टकवितेनाग्निना मनस्चितादीनां विकल्पः क्रियारूपत्वं चावगम्यते - " तेषामेकैकएव तावान् यावानसौ पूर्व." इति पूर्व-
( १०४१ ) स्येष्टकचितस्याग्नेर्वीयं मनश्चितादिष्वतिदिष्यते, तेन तुल्यकार्यत्वाद् विकल्पः तश्चेष्टकचित्वत्तत्क्रतुनिर्वर्तनेन तदंगभूताः मनश्चितादयः क्रियामय क्रत्वनुप्रवेशेन, क्रियारूपा एवेति ।
इसलिए भी - इष्टकचित् आदि से मनश्चित् आदि विकल्पों की क्रियारूपता ज्ञात होती है कि- “इन मनश्चित् आदि में एक एक का उतना ही परिमाण है जितना कि पूर्वोक्त अग्नि का परिमाण है” इत्यादि में - मनश्चित आदि अग्नियों में, पूर्वोक्त यज्ञांग अग्नि का वीर्य अर्थात् फलसाधन शक्ति, अतिदिष्ट है । जब दोनों का एक सा ही कार्य है तो, इनमें तदनुरूप विकल्प भी होगा । इष्टकचित् अग्नि जैसे यज्ञ निर्वाहक है मनश्चित् आदि भी उसी प्रकार यज्ञ निर्वाहक हैं। इसलिए ये क्रिया- रूपा ही है । एवं प्राप्ते प्रचक्षमहे- इस पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- विद्येव तू निर्धारणाद्दर्शनाच्च | ३ | ३ | ४६ ॥ तु शब्दः पक्षं व्यावर्त्तयति, यदुक्तं मनश्चित्तादयः क्रियामय क्रत्वनुप्रवेशेन क्रियारूपा एवेति नैतदस्ति । विद्यारूपाएवैते - विद्यारूपकत्वन्वयित इत्यर्थः । कुतः ? निर्धारणाद दर्शनाच्च निर्धारणं तावत - “ते है ते विद्याचित् एव विद्यया हैवैते एवंविद- श्चिता भवंति” इति । वाङ्मनश्चक्षुरादि व्यापाराणामिष्ट कादिवत् चयनानुपपत्तेर्मनसा संपादिताग्नित्वेन विद्यारूपत्वे सिद्धेऽपि “विद्याचित् एव” विद्यया हैवैते" इति चावधारणं विद्यामय क्रत्वन्वयेन विद्यारूपत्वज्ञापनार्थमिति निश्चीयते । दृश्यते चात्रै वैषां शेषी विद्यारूपः क्रतुः “ते मनसैवाधीयन्तमनसैवाचीयन्त - मनसैषु ग्रहा अग्रह्यन्त मनसास्तुवन्तु मनसाशंसन यत्किं च यज्ञे कर्म क्रियते, यत्किंच यज्ञीयं कर्म मनसैव तेषु मनोमयेषु मनश्चित्सु मनोमयमक्रियत” इति । इष्टकचित्तेष्वग्निषु यत् क्रियामयं यज्ञीयं
( १०४२ ) कर्म क्रियते, तन्मनोनिवत्र्येषु मनश्चिताद्यग्निषु मनोमयमेवाक्रिय- तेति वचनात् क्रतुरपि विद्यामयोऽत्र प्रतीयते । तु शब्द पक्ष का व्यावर्तक है। जो यह कहा कि - क्रियामय यज्ञ से संबद्ध होने से क्रियारूप हैं । सो ऐसा नहीं है ये विद्यारूप ही हैं अर्थात् विद्यामय यज्ञ से संबद्ध हैं। ऐसा ही शास्त्रों में उल्लेख है “ये अग्नियाँ विद्याचित ही है क्योंकि ये ज्ञान संपन्न पुरुष से समाहृत हैं । " वाक्यमनचक्षु आदि की क्रियायें कभी यज्ञीय अग्नि की तरह चयन नहीं की जा सकती, इसलिए इन अग्नियों को मनःकल्पित मानस अग्नि के रूप में ही समझना चाहिए। इस प्रकार इनकी विद्यारूपता सिद्ध हो जाने पर भी पुनः " विद्याचित् एवं” विद्या हैवते" इत्यादि से इनकी विद्यारूपता का अवधारण किया गया है । जो कि इनकी विद्या- मय संबंधी होने की पुष्टिमात्र है । ऐसा ही श्रुतिवाक्यों में अग्नियों के अंगीरूप विद्यात्मक यज्ञ का उल्लेख भी मिलता है - " वे मन से ही अध्य- यन करते हैं मन से ही चयन करते हैं मन के सहयोग से ही हवनीय द्रव्यों का संग्रह करते हैं मन से ही स्तव और मन से ही आशंसा करते हैं अधिक क्या यज्ञ में जो कुछ भी कर्तव्य हैं वे सब मनोमय चितात्मक मनश्चित् यज्ञ में मनोमय ही होते हैं " इत्यादि में स्पष्ट बतलाया गया कि - इष्टकचित् अग्निमय यज्ञों में जो भी क्रियायें की जाती हैं वो सब मन से संपाद्य मनश्चित् आदि अग्नियों में, मनोमय ही की जाती हैं। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ भी विद्यामय यज्ञ का ही प्रसंग है । नन्वत्र विधिपदा श्रवणात् फलसंबंघाप्रतीतेश्चेष्टक चिताग्न्यु पस्थापितक्रियामय ऋतुप्रकरणात् विद्यामयकत्वन्वयेन विद्या- रूपतैषां वाध्यते- नेत्याह- आता है (तर्क) उक्त प्रसंग में कोई विधिवाची पद या स्वतंत्र फल का निर्देश नहीं है, इसलिए क्रियामय यज्ञ का ही प्रकरण समझ में क्रिया के साथ इनका संबंध भी दिखलाया गया है जिससे रूपता बाधित हो जाती है । इस तर्क का निरसन करते हैं- विद्या -
( १०४३ ) श्रुत्यादिबलीयस्त्वाच्च न बाधः | ३ | ३ | ४७ || श्रुतिर्लिंगवाक्यानां प्रकरणादबलीयस्त्वेन श्रुत्याद्यवगतः क्रतुरेषां तदन्वयश्च दुर्बलेन प्रकरणेन बाधितुं न शक्यते । श्रुति- स्तावत् “तेहैते विद्याचित् एव इति । तां विवृणोति - “विद्या हैवैते एवंविदश्चिता भवंति” इति । मनश्चितादयश्चिता भवतीत्यर्थः भूतानि चिन्वन्त्यपि स्वपते” इति विद्यया विद्यामयेन ऋतुनः संबद्धा तान् हैतानेवंविदे सर्वदा सर्वाणि लिंगम् । वाक्यं च “एवं विदे वाक्यम् । एवं विदे विद्यामय- चिन्वंति” इति । समभिव्याहारो ऋतुमते सर्वदा सर्वाणि भूतानि चिन्वंतीत्यर्थः सर्वभूतकत्तृ के सर्वकालव्यापि चयनं मनसा संपादितं परिमितकत्तू काल क्रियाम- येष्टकचितकार्यद्वारेण क्रत्वनुवेश संभवमलभमानं विद्यामय कत्वनु- प्रवेशे लिगं भवति । श्रुति लिंग वाक्य आदि प्रकरणों के बल से श्रुत्यादि से ज्ञात यह कदापि बाधित नहीं हो सकता । श्रुति में जैसे- “ये सब विद्यामय ही हैं” इसका और भी विस्तार किया गया है जैसे- “इस प्रकार ज्ञान संपन्न व्यक्ति समस्त अग्नियों को ज्ञान द्वारा ही चयन करता है” अर्थात् ज्ञान- मययज्ञ के साथ संबद्ध मनश्चित् आदि अग्नि, मानस चिन्तन द्वारा ही संपादित होती हैं । इसी अर्थ का बोधक लिंग भी है - “ऐसे ज्ञान संपन्न व्यक्ति के लिए ही समस्त भूतवर्ग सदा, समस्त अग्नियों का चयन करके सोते हैं ।” “एवं विदे चिन्वंति” वाक्य भी उक्त लिंग के अर्थ का ही ग्राहक है - अर्थात् ऐसे विद्या संपन्न व्यक्ति के लिए ही समस्त भूत समुदाय चयन करते हैं । पद समाप्ति को ही वाक्य कहते हैं । समस्त भूत समुदाय से मन ही मन किया गया अग्निचयन कभी क्रियामय यज्ञ में संभव नहीं है- क्योंकि जिसका कर्त्ता, काल और क्रिया सभी परिमित हैं ऐसा मन:, संपादित चयन, मनश्चित् आदि; विद्यामान यज्ञ का ही लिंग है । यच्चेदमुक्त - विधिप्रत्ययाश्रवणात् फलसंबंघाप्रतीतेश्च क्रिया- मयात्क्रतोरन्यत्र विद्यामयः क्रतुर्नसंभवति इति तत्राहू-
( २०४४ ) जो यह कहा कि किसी प्रकार की विधिया प्रत्यय का उल्लेख नहीं मिलता और न फल विशेष का ही उल्लेख मिलता है इसलिए यह क्रियामय यज्ञ के अतिरिक्त - विद्यामय यज्ञ नहीं हो सकता । इसका उत्तर देते हैं- अनुबंधादिभ्यः प्रज्ञांतर पृथकत्ववदृष्टश्चतदुक्तम् | ३|३|४८ ॥ इष्टकचितान्वयिनः क्रियामयात् क्रतोविद्यामयोऽयं ऋतुः पृथक्त्वेन अनुबंधादिभ्यः पृथक्त्वहेतु भ्योऽवगभ्यते । अनुबंधाः यज्ञानुबंधिनो ग्रहस्तोत्र शास्त्रादयः “ मनसैषु ग्रहा अग्रह्यन्त मन- सास्तुवंत मनसाशंसन्" इत्यादिता प्रतिपादिताः । श्रादि शब्देन श्रुत्यादयः पूर्वोक्ता गृह्यन्ते । श्रुत्यादिभिः सानुबंध : विद्यामयऋतुः पृथगवम्यत इत्यर्थः प्रज्ञांतर पृथक्त्ववत - यथाप्रज्ञान्तरं दहरविद्यादि क्रियामयात् क्रतोः पृथग्भूतं श्रुत्यादिभिरवगभ्यते, एवमयमपि । एवं चानुबंधादिभिः पृथग्भूते विद्यामये यज्ञेऽवगते सति विधिः परि- कल्प्यते । दृष्टिश्चानुवाद सरूपेषु कल्प्यमानो विधिः । तदुक्त - “वचनानित्वपूर्वत्वात्” इति । फलं च - " तेषामेकैक एव तावान् यावानसौ पूर्वः" इत्यतिदेशात् स्वऋतुद्वारेण फलमित्यवगम्यते । । इष्टकचित् क्रियात्मक यज्ञ से, यह विद्यामय यज्ञ पृथक है, ऐसा- पृथक्ता के ज्ञापक अनुबंधादि से ज्ञात होता है । यज्ञ संबंधी ग्रह को अनुबंध कहते हैं जो कि स्तोत्र शास्त्र आदि हैं । जैसे कि - " मन ही मन ग्रहों का ग्रहण करते हैं तथा - मन ही मन स्त्रोत्र तथा आशंसा करते हैं" इत्यादि सूत्र में आदि से तात्पर्य श्रुति इत्यादि से है; अर्थात् अनुबंध युक्त श्रुति आदि से इस विद्यामय यज्ञ की पृथक्ता ज्ञात होती है । जैसे कि- श्रुतिलिंग आदि प्रमाणों से’ दहर आदि अन्य विद्यायें जैसे क्रियामय यज्ञ से पृथक प्रतीत होती हैं, वैसे ही यह भी है । अनुबंध आदि कारणों से विद्यामय यज्ञ की पृथक्ता सिद्ध हो जाने पर इस विषय में विधि कल्पना भी की जा सकती है । अनुवाद स्वरूप वाक्यों में विधि कल्पना देखी भी जाती है । ऐसा ही उल्लेख भी है - “अपूर्व यां प्रमाणांतर प्रसिद्ध विषय के
( १०४५ ) ज्ञापक सामान्य वचन भी विधिरूप से कल्पित हो सकते हैं । " पूर्ववर्ती यज्ञ जिस परिमाण में फलदायक हैं उसी परिणाम में ये सब, एक एक फलदायक हैं” इत्यादि में पूर्वोक्त ऋतुफल के अतिदेश से ज्ञात होता है कि- इष्टकचित अग्नि से जो फल प्राप्त होता है मनश्चित् आदि से भी वही मिलता है । यत्पुनरतिदेशेन तुल्यकार्यत्वावगमात् क्रियामय ऋत्वनुप्रवेशो अवगम्यत इत्युक्तम् । तत्राह- और जो यह कहा है कि अतिदेश से दोनों की तुल्यकारिता प्रतीत होने से मनश्चित् आदि भी क्रियामय यज्ञ संबद्ध ही ज्ञात होते हैं । इसका उत्तर देते हैं- न सामान्यादप्युपतब्धमृत्युवन्न हि लोकापत्तिः | ३ | ३४६ || नावश्यमतिदेशादवान्तरव्यापारस्यापि तुल्यतया भवितव्यं येन क्रियामयक्रत्वनुप्रवेश एषां स्यात्, यस्मात्कस्माच्चित्सामान्य- मात्रादतिदेशोपलब्धेः । उपलभ्यते हि - " स एष एव मृत्युयं एष एतस्मिन् मंडले पुरुषः " इत्यादिषु संहतृत्वादिसामान्यमात्रादतिदेशः, नहि तत्र मंडलपुरुषस्य मृत्युवत्तल्लोकापत्तिः, तद्देशप्राप्तिरपि भवति, एवमिहापि मनश्चितादीनामिष्टक चिताग्निवद् भावातिदेशमात्र े - णेष्टकचिताग्निदेशरूप क्रियामयक्रत्वनुप्रवेशेनापि न भवितव्यम् । मत इष्टकचिताग्नेः स्वक्रतुद्वारेण फलमित्यतिदेशादवगम्यते । अतिदेश के प्रधान कार्य में तुल्यता हो सकती है, उपकार्य में भी तुल्यता हो ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके आधार पर मनश्चित् आदि को क्रियामय यज्ञ का अंग माना जा सके। किसी न किसी सामान्य सादृश्य में ही अतिदेश होता है। जैसे कि - “यह जो आदित्य मंडल में पुरुष है, यही वह मृत्यु है । " इसमें केवल संहारकर्तत्व के सादृश्य के आधार पर अतिदेश है । मृत्यु का जो देश या काल है मंडल पुरुष उसें प्राप्त भी करे ऐसा कोई सादृश्य नहीं है । इसी प्रकार यहाँ भी मनश्चित
( १०४६ ) आदि का इष्टकचित् से साधर्म्य मात्र में ही अतिदेश है; इष्टकचित् अग्नि स्थानीय मनश्चिदादि भी हैं इसलिए क्रियामय यज्ञ में उनकी गणना की जाय ऐसा कोई सादृश्य नहीं है । इष्टकचित् अग्नि की यज्ञ क्रिया से जो फलावाप्ति होती है वही मनश्चिदादि विद्यामय क्रिया से भी सहज प्राप्त हो जाती है, यही उक्त अतिदेश का तात्पर्य है । परेण च शब्दस्य ताद्विध्यं भूयस्त्वात्त्वनुबंध ः | ३ | ३|५० ॥ परेण च ब्राह्मणेनास्यापि मनश्चिताद्यभिधायिनः शब्दस्य तादविध्यं - तदविधत्वं विद्यामय प्रतिपादित्वमवगम्यते । परेण हि ब्राह्मणेन “श्रयंवावलोक एषोऽग्निचितस्तस्याप एव परिश्रिताः” इत्यादिना " स यो हैतदेवं वेद लोकं पूणानामेनं भूतमेतत्सर्वमभि- संपद्यते " इति पृथक्फलविद्यैव विधीयते, तथा वैश्वानर विद्यादौ च विद्यव विधीयते । श्रतोऽग्निरहस्यस्य क्रियैकविषयत्वं नास्ति । एवं तहि विद्यामया मनश्चितादयो वृहदारण्यकेऽनुबद्धव्याः, किमर्थमिहानुबध्यते, तत्रोच्यते भूयस्त्वात्वनुबंध:, इति । मनश्चिता- दिषु संपादनीयानामग्न्यंगानां भूयस्त्वात्संन्निधाविहानुबंधः कृतः । " परवर्ती ब्राह्मण वाक्य के, मनश्चिदादिबोधक शब्दों से विद्यामय यश की प्रतिपादकता ज्ञात होती है। जैसा कि “यह लोक ही अग्निचित् है जल इसे परिवेष्टित किये हैं जो इसको उक्त प्रकार से जानते हैं वे जागतिक वृतियों को प्राप्त करते हैं” इत्यादि से पृथक फल विद्या का विधान किया गया है। इसी प्रकार वैश्वानर आदि विद्याओं का भी पृथक निर्देश किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि-क्रियानुष्ठान ही अग्नि रहस्य का एकमात्र विषय नहीं है । आप कह सकते हैं कि यदि ऐसा ही था तो बृहदारण्य में इसका उल्लेख होना चाहिए था, कर्मकाण्ड के प्रकरण में इसके उल्लेख का क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर सूत्रकार “भयस्त्वादनुबंध :” इस सूत्रांश से देते हैं अर्थात् मनश्चिदादि अग्नियों मैं, यज्ञांग अग्नियाँ, अधिकांश में विद्यमान हैं, इसलिए इनका इस प्रकरण मैं उल्लेख है । i
( १०४७ ) २१. शरीरेभावाधिकरणः- एक आत्मनः शरीरे भावात् । ३।३।५१ ॥ सर्वासु परविद्यासूपास्योपासनस्वरूपवदुपासक स्वरूपस्यापि ज्ञातव्यत्वमुक्त’ - " त्र्याणामेव चैवमुपन्यासः प्रश्नश्च” इति वक्ष्यति चास्य प्रत्यगात्मनः परमात्मकत्वेवानुसंधानम् “प्रात्मेति तुपगच्छंति ग्राहयंति च” इति । किमयं प्रत्यगात्मा ज्ञाताकर्ताभोक हा मुत्र- संचारक्षमोऽनुसंधेयः, उत प्रजापतिवाक्योंदितापहतपाप्मत्वादि- स्वरूपः ? कि युक्तम् ? ज्ञातृत्वाद्याकारमात्र इत्येके मन्यंते, कुतः ? अस्योपासकस्यात्मनः शरीरेभावात्, शरीरे वर्त्तमानस्य तादृशंमेव- रूपम्, तावतैवानुसंधानेन तत्फलसिद्धयुपपत्तेश्च । नहि कर्मस्व- धिकृतानां स्वर्गादिफलार्थिनां ज्ञातृत्वाद्यतिरेकेण फलानुभवदशायां यादृशं रूपम्, तादृशं रूपं साधनानुष्ठानदशाया मनुसंधातव्यम, तावतैव साधनानुष्ठानतत्फलयोः सिद्ध रतिरिक्तानुसंघाने प्रयोजना- भावात्, तदविशेषादिहापि तथैव । ननुचात्र " यथाक्रतुस्मिल्लो के पुरुषोभवति तथेतः प्रेत्य भवति" इति विशेषवचनादपहतपाप्म- स्वाद्याकार एवानुसंघातव्य इत्यवगम्यते, मैवम “तं यथायथोपासते " इत्युपास्यविषयत्वात्तस्य । सभी परविद्याओं में उपास्य और उपासनाओं के स्वरूप की तरह उपासक के स्वरूप को भी ज्ञातव्य कहा गया है । “तीनों के स्वरूप कें विस्तार का प्रश्न किया” इत्यादि से यही मत स्थिर होता है । “आत्म- तितुपगच्छति ग्राह्यंतिच” सूत्र भी जीवात्मा में परमात्मभाव के चिन्तन का विधान बतलाता हैं। इस पर संशय होता है कि यह जीवात्मा ही ज्ञाता कर्त्ता भोक्ता तथा इहलोक परलोक क्षम कहा गया है अथवा प्रजा- प्रति वाक्य में निष्पापता आदि गुणों वाला कहा गया है ? इस पर एक का कथन है कि - ज्ञातृत्वादिविशिष्ट जीवात्मा ही यहाँ विवक्षित है:
( १०४८ ) क्योंकि - उपासक के शरीर में उसकी सत्ता रहती है, अर्थात् शरीर में उसका अपहतपाप्मता आदि गुणों से संपन्न रूप वर्तमान रहता है ज्ञातृत्व आदि धर्मों का चिन्तन और फलसिद्धि भी शरीर स्थिति में ही होता है। जो कर्मानुष्ठान के अधिकारी और स्वर्गफलाभिलाषी हैं, फलानु- भवंकाल में उनका जैसा स्वरूप अभिव्यक्त होता है, साधमानुष्ठान काल में वैसे ही स्वरूप का चिन्तन आवश्यक नहीं है । क्योंकि - चिन्तन द्वारा ही जब उनका साधनानुष्ठान और उसका फल संपन्न हो जाता है तो उसके अतिरिक्त चिन्तन का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता, वैसे ही उपासक की स्थित भी है कोई विशेष बात नहीं है ज्ञातृत्व आदि विशिष्ट जीवात्मा के स्वरूप का ही चिन्तन करना चाहिए। अब प्रश्न होता है कि - " साधक इस लोक में जैसी उपासना करता है, मरणोपरान्त वैसी ही अवस्था प्राप्त करता है” इत्यादि से तो यही ज्ञात होता है कि-निष्पापता आदि विशिष्ट आकार का ही चिंतन करना चाहिए; सो बात नहीं है, " उसे जैसे-जैसे भजते हैं" इत्यादि में उपास्य विषयक विज्ञप्ति है, उपासक विषयक नहीं । सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे - इस मत पर सूत्रकार सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं— व्यतिरेकस्तद्भावभावित्वान्वतूपलब्धिवत् । ३ । ३ । ५२॥
न श्वेतदस्ति यत् ज्ञातृत्वाद्याकार एवानुसंधेय इति श्रस्या- त्मनः संसारदशायाः मोक्षदशायां यो व्यतिरेकः सोऽपहतपाप्म- त्वादिकोऽनुसंधेयः अस्य मोक्षदशायां यादृशं रूपं तादृग्रूप एव उपासन वेलायामात्माऽनुसंधेय इत्यर्थः कुतः ? तदभावभावित- स्वात्तदरूपापत्त ेः । " यथाक्रतुस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति" तं यथोयथोपासते तथैव भवति" इति यथोपासनमेव हि प्राप्तिः श्रूयते । बात उक्त प्रकार की नहीं है अपितु ज्ञातृत्व आदि विशिष्ट आकार को ही चिन्त्य बतलाया गया है । इस जीव का संसार दशा और ( १०४९ ) मोक्ष दशा का जो भेद है वह अनुसंधेय निष्पापता आदि विशिष्ट आकार से ही है । अर्थात् इसका मोक्ष दशा का जैसा रूप है, वैसे ही रूप का उपासना के समय आत्मा में अनुसंधान करना चाहिए। उस रूप की प्राप्ति के लिए तद्भावभावित होना चाहिए । “पुरुष इस लोक में जैसा अनुष्ठान करता है मरणोपरान्त वैसा ही होता है “उसको जैसे-जैसे भजता है वैसा ही होता है” इन वाक्यों में उपासनानुसार ही फलावाप्ति बतलाई गई है । न च परस्वरूपमात्रविषयमेवेदमिति वक्त. शक्यते, प्रत्यगात्म- नोऽप्युपास्यभूतपरब्रह्मशरीरतयोपास्य कोटिनिक्षिप्तत्वात् । प्रतः प्रजापतिवाक्यादितापहपाप्मत्वादिगुणकप्रत्यगात्मशरीरपरमात्मोपास नस्य तथारूपमेव प्राप्यमित्युक्तं भवति । श्रतएव “एवं क्रतुहीं- मुंलोकं प्रेत्यभिसंभवितास्मि” इत्युच्यते । तस्मात् प्रत्यगात्मा प्राप्याकार एवानुसंधेयः । ऐसा नहीं कह सकते कि यह वाक्य परमात्म विषयक हो है । जीवात्मा, उपास्य परमात्मा का शरीर हो तो है इसलिए उसे भी उपास्य श्रेणी के अंदर ही समझना चाहिए। कथन यह है कि प्रजापतिवाक्य में उल्लेख्य निष्पापता आदि गुणों वाले जीवात्मा के शरीरी परमात्मा की उपासना का, वैसा (निष्पापता आदि गुणों वाला) ही रूप प्राप्य बतलाया गया है । इसीलिए “मैं यहाँ जैसा संकल्प वाला हूँ परलोक में वैसे ही रूप का होऊँगा” इत्यादि कहा गया । इस श्रुति से ज्ञात होता है कि-जीवात्मा का प्राप्य आकार ही मनुसंधेय है । उपलब्धिवत् - यथा ब्रह्मोपलब्धिविहिता, यथावस्थित ब्रह्म- स्वरूपविषया, तथात्मोपलब्धिरपि यथावस्थितात्मस्वरूप बिषयेत्यर्थः । कर्मस्वात्मस्वरूपानुसंधानं कर्मागम्” यजेत् स्वर्गकाम इति कर्मानुष्ठानमेव हि फलाय चोद्यते । देहातिरिक्तज्ञातृत्वाद्याकारात्माव- कालांतरभाविफलसाधनकर्माधिकारार्थेति तावन्मात्रमेव गतिः तत्रोपेक्षितमिति न किचिदपहीनम् ।
( १०५० ) जैसे कि ब्रह्मोपलब्धि, ब्रह्मस्वरूपविषया होने पर हो यर्थाथ रूपं से संभव है, वैसे ही आत्मोपलब्धि भी, आत्मस्वरूपविषया होने पर ही यथार्थ हो सकती है। कर्मानुष्ठान में आत्मचिंतन कर्म का ही एक अंग है “स्वर्ग की कामना से यज्ञ करना चाहिए” इत्यादि में शुद्ध कर्मानुष्ठान ही फलोत्पादन में विहित है । देहातिरिक्त ज्ञातृत्वादिविशिष्ट आत्मा की जो अनुभूति होती है, वह कालान्तर में होने वाले फल के उपाय स्वरूप कर्माधिकार की द्योतिका मात्र होती है, वहीं इसकी अपेक्षा रहती है २२ गावबद्धाधिकरणः- , अंगावबद्धास्तु न शाखासु हि प्रतिवेदम् | ३ | ३ |५३ ॥ 11 “श्रो मित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्” लोकेषुपंचविधंसामो- पासीत्” उक्थमुक्यमिति वै प्रजावदंति तदिदमेवोक्थम इयमेव पृथ्वी “प्रयंवाव लोक एषोऽग्निचितः” इत्येवमाद्याः क्रत्वं गाश्रया उपासना भवंति, ताः किं यासु शाखासु श्रूयंते, तास्वेव नियता:, उत सर्वासु शाखासूद्गीथादिषु संबध्यंत इति विचारः । सर्ववेदांत प्रत्ययत्वे स्थितेऽपि प्रतिवेदं स्वरभेदादुद्गीथादयो भिद्यते इति तंत्र तत्र व्यवतिष्ठेर मिति युक्ता शंका कि युक्तम् ? व्यवतिष्ठेरन्निति, कुतः ? “उद्गीथमुपासीत्” इति सामान्येनोद्गीथ संबंधितया श्रुतायास्तस्यामेवशाखायां स्वरविशेषयुक्तस्योद्गीथविशेषस्य सन्निधानातस्मिन्नेव विशेषे पर्यवसानं युक्तमिति एवमाद्यास्तास्वेव शाखासु व्यवतिष्ठेरन्निति । “ओम इस अक्षर की उद्गीथ रूप से उपासना करो” “लोकों मैं पांच प्रकार के साम की उपासना करनी चाहिए” प्रजा जिसे उक्थ कहती है, वह उक्थ ही पृथ्वी है “यही लोक में ‘अग्निचित् है” इत्यादि यज्ञांग उपासनायें हैं। प्रश्न होता हैं कि ये जिन शाखाओं में कहीं गई हैं वहीं के लिए नियत है, अथवा सभी शाखाओं में उद्गीथ आदि में संबद्ध हैं ? की सकते हैं कि जहाँ जहाँ वर्णन है वहीं नियत हैं। जैसे- “उद्गीथमुपासीत्” "
( १०५१ ) इत्यादि में सामान्यतः उद्गीथ संबंधी उपासना सुनी जाती है, किसी शाखा में स्वरविशेष युक्त उद्गीथ विशेष का उल्लेख मिलता है। इसलिए ऐसी ही अन्यान्य उपासनायें भी अपनी अपनी शाखाओं में ही विशेष उपयुक्त हैं । उपासना का उसी मैं पर्यवसान उपयुक्त है । सिद्धान्तः - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे - " मंगावबद्धास्तु” इति । तु शब्दः पक्षं व्यावर्त्तयति, नहि उद्गीथाद्यंगावबद्धा उपासनास्तास्वेव शाखासुव्यवतिष्ठेन्, अपितु प्रतिवेदं संबध्येरन् सर्वासु शाखास्वित्यर्थः । हि शब्दो हेतौ । यस्माच्छुत्यैवोद्गीथाद्य गमागावबद्धा, तस्माद्यगोद- गीथादयः, तत्र सर्वत्र संबंध्येरन् यद्यपि स्वरभेदेनोद्गीथ व्यक्तयो- भिद्यन्ते, तथापि सामान्येनोद्गीथ श्रुत्या सर्वाव्यक्तयः सन्निहिता इति न क्वचिद् व्यवस्थायां प्रमाणमस्ति । सर्वशाखा प्रत्ययन्यायेन च सर्वामु शाखासु क्रतुरेकः । अतः सर्वासु शाखास्वेकस्य क्रतोः सन्निधानात् क्रत्वंगभूतोद्गीथादयोऽपि सन्निहिता इति नैकस्य सन्निधिविशेषोऽस्तीति न व्यवस्था । इस पर सूत्रकार सिद्धान्तरूप से " अंगाववद्वास्तु" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । तु शब्द शंका का समाधान करता है । उद्गीथ आदि उपासनायें केवल उन्हीं शाखाओं में ही युक्त नहीं हैं अपितु हर श्रुति से संबद्ध हैं अर्थात् सभी शाखाओं से सबद्ध हैं। जिन कारणों से श्रुति में इन्हे शाखामात्र से आबद्ध बतलाया गया है, उन्हीं कारणों से उद्गीथ को भी सभी शाखाओं से संबद्ध कहा गया है । यद्यपि स्वर भेद से प्रत्येक शाखा में उद्गीथ भिन्न भिन्न रूप से वर्णित है फिर भी सामान्य रूप से उद्गीथ नाम सभी शाखाओं में एक ही उपासना का वाचक है उपासना संबंधी व्यवस्था का कहीं कोई प्रमाण नहीं है । “सर्वशाखा प्रत्ययन्याय” से ज्ञात होता है कि- समस्त शाखों का यज्ञ एक है, सभी शाखाओं में एक ही यज्ञ के सानिध्य होने से, उसी यज्ञ की अंगरूप उद्गीथ श्रादि स्वतः ही वहाँ सन्निहित रहती हैं, इनकी शाखाओं में, कोई स्वतंत्र स्थिति तो रहती नहीं जिससे इनकी भिन्न व्यवस्था की जा सके ।
( १०५२ ) मंत्रादिवद्वाऽविरोधः | ३ | ३ |५४ || वा शब्दश्चार्थे, प्रदिशब्देन, जातिगुणसंख्या सादृश्यक्रमद्रव्य कर्माणि गृह्यंते, यथा मंत्रादीनामेकैकशाखास्वाम्नातानामपि शेषिण: क्रतोः सर्वशाखास्वेकत्वेन यथायथं श्रुत्यादिभिः सर्वासु शाखासु विनियोगो न विरुध्यते तद्वदिहाप्यविरोधः । सूत्रस्थ वा शब्द च अर्थ में प्रयुक्त है । आदि शब्द, जाति-गुण-संख्या- सादृश्य-क्रम - द्रव्य और कर्म का ग्राहक है । मंत्र आदि का जैसे शाखा विशेष में पठित होते हुए भी, उनके अंगी, प्रधान यज्ञ के सभी शाखाओं में एक होने से उनका सभी शाखाओं में विनियोग करना विरुद्ध नहीं होता; वैसे ही यहाँ भी उक्त यज्ञांग उपासनाओं का कोई विरोध नहीं होता । २३- भूमज्यायस्त्वाधिकररणः – भूम्नः क्रतुवज्ज्यायस्त्वं तथाहि दर्शयति | ३ | ३|५५ || “प्रा वोनशाल श्रौपमन्यवः” इत्यारभ्य वैश्वानर विद्या प्रान्नाता, तत्र वैश्वानरः परमात्मा त्रैलोक्यशरीर उपास्यः श्रुतः स्वर्लोकादित्यवाय्वाकाशात्पृथिव्यवयवः, तत्र च द्यौमूर्धा, प्रादित्य श्चक्षुः वायुः प्राणः श्राकाशः संदेहः मध्यकाय इत्यर्थः, आपो वस्तिः, पृथ्वीपादावित्यवयवविशेषाः । तत्र संशयः, किमस्य त्रैलोक्य शरीरस्य व्यस्तस्योपासनं कर्त्तव्यम् उत व्यस्तस्य समस्तस्य च श्रथ समस्तस्यैवेति ? कि युक्तम् ? व्यस्तस्येति, कुतः ? उपक्रमे व्यस्तोपासनो- पदेशात् । तथाहि उपदिश्यते श्रौपमन्यवादयः किलोद्दालकषष्ठाः केकयमश्वपतिमुपसद्य " श्रात्मानमेवेमं वैश्वानरं संप्रत्यध्येषितमेव नो ब्रूहि" इति पप्रच्छुः । स च तेभ्यः प्रत्येकं स्वोपास्यान् द्युप्रभृतीनुक्त- बदभ्यो मूर्घादिषु व्यस्तेषूपासनं तत्र तत्र फलं चोक्तवान् " प्रत्यन्नं
( १०५३ ) पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानर- मुपास्ते मूर्धात्वेष श्रात्मन इति एष वै सुतेजा श्रात्मा वैश्वानरः" इत्यादिना । तेषुतेषूपासनेषूपास्यस्य वैश्वानरत्वं चाह । अतो व्यस्तस्योपासनं कर्त्तव्यम् । " प्राचीनशाल" आदि में जो वैश्वानर उपासना का उपदेश है उसमें, वैश्वानर परमात्मा त्रैलोक्य शरीर वाला उपास्य कहा गया है । उसमें भी द्यलोक - आदित्य-वायु - आकाश - पृथ्वी आदि अवयव रूप से बतलाए गए हैं, द्यलोक उनका मूर्धा, आदित्यनेत्र वायु प्राण, आकाश मध्य शरीर, जल कटि प्रदेश, पृथ्वी चरण स्थानीय है । इस पर संशय होता है कि त्रैलोक्य शरीर वैश्वानर के प्रत्येक अंग की पृथक् पृथक् उपासना करनी चाहिए अथवा अवयव और संपूर्ण देह दोनों की करनी चाहिये या केवल समस्तदेह ही की करनी चाहिए? कह सकते हैं कि अलग अलग अंगों की ही करनी चाहिए, उपक्रम में ऐसा ही उपदेश दिया गया है । उद्दालक को लेकर उपमन्यु आदि छः व्यक्ति कैकेया- धिपति राजा अश्वपति के यहाँ गए और जिज्ञासा की कि " इस समय केवल आप ही वैश्वानर आत्मा के ज्ञाता हैं, हमें उसके स्वरुप का उपदेशकरिये " इसके बाद उन लोगों ने अपने अपने उपास्य द्यलोक आदि का उल्लेख किया तब अश्वपति ने उन सब को उन अंगों की उपासना और उसका फल का माहात्म्य बतलाया " वे उपासक, अन्न का भोग करते हैं, प्रियदर्शन करते हैं, उनके वंश में ब्रह्म तेज संपन्न व्यक्ति जन्म लेते हैं, जो ऐसी वैश्वा- नर की उपासना करते हैं’ इत्यादि से उन उपासनाओं में उपास्य, वैश्वानरत्व की ही सिद्धि की । इससे स्पष्ट होता है कि अलग अलग उपासना ही करनी चाहिए । परत्र “यस्त्वेतमेवं प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानर- मुपास्ते" इति । द्युप्रभृतिप्रदेशावच्छिन्नमात्रे वैश्वानरे उक्तस्य । मूर्घाद्युपासनस्य समासेनोपसंहार इत्यवगंतव्यं अपर प्राह - एवमेव समस्तस्याप्युपासनं कार्यमिति, पृथक्फलनिर्देशात् “यस्त्वेतमेवं प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते स सर्वेषु लोकेषु
( १०२४ ) सर्वेषु भूतेषु स्वर्वेष्वात्मस्वन्नमत्ति " इति । न चैतावता वाक्यभेदः, यथा भूमविद्योपक्रमे नामाद्युपासनं तत्तत्फलं चाभिधाय " एष तु वा प्रतिवदति यः सत्येनातिवदति” इत्यादिना भूमविद्यामुपदिश्य " स स्वराड् भवति तस्य सर्वेषुलोकेषु कामचारो भवति" इति तत्फलं च व्यपदिशति, तत्र भूमविद्यापरत्वेऽपि वाक्यस्य नामाद्यवान्तरोपासनं तत्तत्फलं चांगीक्रियते, तथा इहापीति । दूसरी जगह " जो प्रदेशमात्र इस वैश्वानर आत्मा की उपासना करता है" इत्यादि में द्य लोक आदि प्रदेश परिच्छिन्न वैश्वानर के संबंध में कही गई उपासना का संक्षेप में उपसंहार किया गया है दूसरा मत है कि व्यष्टि की तरह समष्टि की भी उपासना करनी चाहिए। उसका पृथक् फल बतलाया गया है “जो व्यक्तिप्रादेश परिमित वैश्वानर की इस प्रकार उपासना करते हैं, वे सभी लोकों में सभी प्राणियों में, सभी भूतों में अन्न भोग करते हैं ।” इत्यादि, समस्त और व्यस्त उपासना मानने पर वाक्य भेद की संभावना भी नहीं है । जैसे कि भूमाविद्या के प्रकरण में नाम आदि की स्वतंत्र उपासना और उसका फल बतलाने के बाद “जो सत्य- वादी है वही अतिवादी है’ इत्यादि से भूमाविद्या का उपदेश करके “वे स्वच्छंद हो जाते हैं, सभी जगह उनकी यथेच्छ गति हो जाती है” इत्यादि से भूमा का स्वतंत्र फल भी बतला दिया गया है । जैसे उसमें भूमा के मानुषंगिक नाम आदि की पृथक उपासना और फल का उल्लेख है, वैसे ही यहाँ इस वैश्वानर विद्या में भी है । सिद्धान्तः — एवं प्राप्तेऽभिधीयते - भूभ्नः, विपुलस्य समस्तस्यैव ज्यायस्त्वं प्रामाणिकत्वमित्यर्थः एकवाक्यत्वावगतेः । तथाहि “प्राचीनशाल श्रपमन्यवः’ इत्युपक्रम्य “उद्दालको ह वै भगवंतो श्रयमारुणिसंप्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति तं हंताभ्यागच्छाम " इति वैश्वानरात्मवुभुत्सयोपमन्यवादयः पंच महर्षयः तमुद्दालक- मुपेत्य तलवैश्वानरात्मवेदनमलभमानास्तेन च सहाश्वपतिं केकयं वैश्वानरात्मवेदिनमुपसंगम्य " आत्मानमेवेमं वैश्वानरं संप्रत्यधेषि
( १०५५ ) तमेव नो ब्रूहि " इति पृष्ट्वा तत्सकाशात् परमात्मानं वैश्वानरं स्वर्लोकादिपृथिभ्यन्तशरीरमुपास्यमवगम्य तत्फलं व सर्वलोक सर्वभूत सर्वात्मात्रभूतब्रह्मानुभवमवगतवन्त इत्युपसंहारतो वाक्य- स्यैकत्वमवगम्यते । एवमेक्यवाक्यत्वेऽवगते सत्यवयवविशेषेषू- पास्तिवचनं फलनिर्देशश्च निश्चीयते । समस्तोपासनैकदेशानुवादमात्रमिति
भूमा का तात्पर्य विपुलता अर्थात् समस्त से है, ज्यायता का तात्पर्य प्रामाणिकता अर्थात समस्त प्रसंग की एक वाक्यता है । जैसा कि “प्राचीन शाल” इत्यादि से प्रारंभकर " हे भगवान् अरुण पुत्र उद्दालक ही इस वैश्वानर आत्मा को जानते हैं, हम उनके निकट ही गमन करें” इस प्रकार वे उपमन्यु आदि पांचों ऋषि वैश्वानर विद्या की प्राप्ति की आशा से अरुणि के पास गए वहाँ भी वैश्वानर रहस्य को न पाकर उनके साथ महाश्वपति केकय के पास जाकर जिज्ञासा करते हैं कि- " इस समय वैश्वानर आत्मा को केवल आप ही जानते हैं, आप हमें उसका उपदेश दें” इसके बाद अश्वपति से स्वंग से पृथ्वी तक वैश्वानर शरीरी की उपास्यता समझ कर उसके फलस्वरूप, सर्वलोक, सर्वभूत सर्वात्मा का अन्न स्वरूप ब्रह्मानुभव भी किया। इस प्रकार समस्त प्रक- रण की एकवाक्यता है । एकवाक्यता के निश्चित किये जाने पर ही प्रधान अंगी वैश्वानर के अवयवों का पृथक् उपदेश और फल निर्देश किया गया है जोकि समस्त वैश्वानर उपासना के एकांश का पुनरुल्लेख मात्र ही निश्चित होता है । क्रतुवत - यथा - " वैश्वानरं द्वादश कपालं निर्वपेत पुत्रे जाते" इति विहितस्यैव क्रतोरेकदेशाः “यदष्टाकपालोभवति" इत्यादि भिरनूद्यंते, तथा समस्तोपासनमेव न्याय्यम् न व्यस्तोपासनम् । जैसे कि - " पुत्र के जन्म होने पर द्वादशकपालों में वैश्वानर यज्ञ करना चाहिए" इत्यादि में विहित यज्ञ विधिका " यदष्टाकपालो भवति " इत्यादि में- एकांश में अनुवाद मात्र ही किया गया है । वैसे ही उक्त
( १०५६ ) बात भी है । इसलिए समस्त उपासना ही न्याय्य है व्यस्त उपासना नहीं । तथाहि दर्शतीयं श्रुतिः व्यस्तोपासने अनर्थं ब्रुवती - " मूर्धा ते व्यपतिष्यद्यन्मां नागमिष्यः" इति " अन्धोऽभविष्यो यन्मां नागमिष्यः" इत्यादिका । श्रत इदमप्यपास्तं यन्नामाद्युपासन साम्यमुक्तम् । तत्र हि नामाद्युपासनेष्वनर्थो न श्रुतः, नामाद्य पा- सनेभ्यो भूमोपासनस्यातिशयितफलत्वं श्रुतम् " एष तु वा प्रति- वदति यः सत्येनातिवदति" इति । तत एव तत्र भूमाविद्यापरत्वेऽपि वाक्यस्य नामाद्य ुपासनानां सफलानां विवक्षितत्त्वं अन्ययाऽति शयितफलत्वनिमित्तातिवादेन भूमविद्यास्तुत्यनुपपत्तेः, समस्तोपासनमेव न्यायम् । भ्रतः श्रुति भी व्यस्तोपासना की अनिष्टता बतलाती है–“यदि तुम मेरे निकट न आते तो तुम्हारा मस्तक गिर जाता” यदि तुम न आते तो अंधे हो जाते" इत्यादि । नाम आदि उपासना के साथ साम्य कहा गया है, यह कथन भी उक्त विवेचन से निरस्त हो जाता है वहाँ जो नाम आदि की उपासना कही गई है, उसका कोई अनिष्ट फल नहीं बतलाया गया है, नाम आदि उपासना के बजाय भूमा उपासना के फलाधिकार का उल्लेख मिलता है । जैसे की - " जो सत्य बोलते हैं वे अतिवादी हैं" भूमा विद्या के प्रतिपादक वाक्य से, नामादि की उपासना और उसका फल विवक्षित है । अन्यथा अतिशयित फल बतलाने वाला अतिवादी वाक्य भूमा विद्या का स्तुत्यवाक्य नहीं हो सकता । इसलिए समस्तोपासना ही न्याय है । २४. शब्दादिभेदाधिकरणः- नाना शब्दादिभेदात् | ३ | ३ |५६ || इहु ब्रह्मविद्याः सर्वाः ब्रह्मप्राप्तकरूपमोक्षैकफलाः सदविद्या-
( १०५७ ) भूमविद्यादह र विद्योपको सलविद्याशांडिल्यविद्यावैश्वानर विद्यानंदमय- विद्याक्षरविद्यादिकाएक शाखा गताः शाखांतरगताश्चोदाहरणम्, अन्याः प्राणाद्य कविषयफलाश्च । किमत्र विद्य क्यम् उत विद्याभेद इति संशय्यते ? अत्रैवासां परस्परभेदे समर्थिते सति एकस्या दहरविद्यादिकायाः सर्व वेदांत प्रत्ययन्यायः । कि विद्यक्यमिति, कुतः ? वेद्यस्य ब्रह्मण एकत्वात्, वेद्यं हि विद्याया रूपम्, प्रतोरूपैक्यात् विद्यैक्यमिति । युक्तम् सद्विद्या- भूमाविद्या- दहर विद्या- उपकोसलविद्या - शांडिल्यविद्या- वैश्वानर विद्या - आनंदमयविद्या-अक्षरविद्या आदि सभी विद्याओं का एक- मात्र फल, ब्रह्म प्राप्ति रूप मोक्ष ही है । ये विद्यायें चाहे एक शाखागत हो या विभिन्न शाखागत हों, इस सूत्र में सभी पर विचार किया जायेगा । एक विषयक और एक फल वाली प्राण आदि पर भी विचार प्रस्तुत करेंगे। संशय करते हैं कि ये विद्यायें एक हैं या भिन्न ? इनके परस्पर भेद का समर्थन होने से, दहर विद्या आदि प्रत्येक का सर्ववेदांत प्रत्यय ही न्याय्य है । कह सकते हैं कि - विद्यायें सब एक हैं, क्योंकि सबका उपास्य एक है, वेद्य ही तो विद्या का रूप होता है, इसलिए वेद्यक्य होने से विद्य’क्य होगा । सिद्धान्तः - एवं प्राप्तेऽभिधीयते - नाना इति । नानाभूता विद्याः, कुतः ? शब्दादिभेदात्- प्रादिशब्देनाभ्याससंख्यागुण प्रक्रिया नामधेयानि गृह्यन्ते, शब्दान्तरादिभिरत्र विधेयभेदहेतवोऽनुबंध भेदा: दृश्यन्ते, यद्यपि वेदोपासीत्येत्यादयः शब्दाः प्रत्ययावृत्यभिधा- यिनः प्रत्ययाश्च ब्रह्मकविषयाः, तथापि तत्प्रकरणोदित जगदेक कारणत्वापहतपाप्मत्वादिविशेषणविशिष्टब्रह्मविषयप्रत्ययावृत्यबोधिनः प्रत्ययावृत्तिरूपा: बिद्या भिन्दति । ब्रह्मप्राप्तिरूपफलसंबंध्यु- पासनविशेषाभिधायोनि न निराकांक्षाणि वाक्यानि प्रति- प्रकरणं विलक्षणविद्याभिधायीनीति निश्चीयते । अस्मिन्नर्थ-
( १०५८ ) “शब्दान्तरे कर्म भेदः” इत्यादिभिः पूर्व कांडोदितैः सूत्र: सिद्धोऽपि पुनरिह प्रतिपादनं वेदांतवाक्यानि प्रविधेयज्ञानपराणीति कुदृष्टि निरसनाय । अतो विद्याभेद इति स्थितम् । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से “नाना” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं विद्यायें भिन्न हैं, इनमें नामों का ही भेद है सूत्र में आदि शब्द से अभ्यास- संख्या-गुण- प्रक्रिया नाम आदि अभिधेय हैं । शब्द भेद आदि के कारण, उपास्य के भेद के ग्राहक, अनुबंध का भी भेद देखा जाता है । यद्यपि " वेद" उपासीत" आदि शब्द ज्ञानात्मक उपासना की पौनः पुन्यता के ही बोधक हैं । तथा प्रत्यय भी ब्रह्म विषयक ही हैं, फिर भी विभिन्न प्रकरणों में कहे गए जगदेककारणता, निष्पापता आदि विशेषणों से विशिष्ट ब्रह्म विषयक, ज्ञानानुशीलन बोधक, ज्ञानवृत्ति स्वरूप वाक्य, विद्या में भेद कर देते हैं । ब्रह्म प्राप्ति रूप फल के संपा- दक, उपासना के बोधक, वाक्य प्रत्येक प्रकरण में, निराकांक्ष रूप से वर्णित हैं इसलिए प्रति प्रकरण में, एक विलक्षण विद्या की प्रतीति कराते हैं । यद्यपि कर्मकाण्ड के " शब्द से कर्म भेद इस सूत्र से उक्त विषय सिद्धान्त रूप से निर्णीत हो जाता है, भिन्न विधि का विधान नहीं मिलता । होता है" फिर भी वेदांत वाक्यों में इसलिए उक्त प्रसंग को उठाया गया, जिससे उक्त विषय में जो भ्रामक दृष्टिकोण है, वह ठीक हो जाय। इसलिये विद्याभेद ही निश्चित होता है । २५. विकल्पाधिकररणः– विकल्पोऽविशिष्ट फलत्वात् |३|३|५७|| ब्रह्मप्राप्तिफलानां सद्विद्यादहर विद्यादीनां सविद्यादहरविद्यादीनां नानात्वमुक्तम्, इदानीमासांविद्यानामेकस्मिन् पुरुषे प्रयोजनवत्वेन समुच्चयोऽपि संभवति । उत प्रयोजनाभावाद् विकल्प एव ? इति विशये कि युक्तम् ? समुच्चयोऽपि संभवतीति, कुतः ? एकफलानां भिन्नशास्त्रा- समुच्चयदर्शनात् । दृश्यते हि एकस्यैव स्वर्गादेः र्थानपि ( १०१९ ) साधनानामग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादीनां तस्यैव स्वर्गस्य भूयस्त्वापेक्ष- यैकत्र पुरुषे समुच्चयः, एवमिहापि ब्रह्मानुभव भूयस्त्वापेक्षया समुच्त्रयोऽपि संभवतीति । 1 ब्रह्म प्राप्ति रूप फलवाली सद्विद्यादहरविद्या आदि की भिन्नता बतला दी गई । अब संशय होता है कि एक ही पुरुष के लिए, इन विद्याओं के अनुष्ठान का प्रयोजन है या नहीं ? यदि सब के अनुष्ठान का प्रयोजन नहीं है तो एक ही विद्या की साधना से कार्य चल जावेगा । कह सकते हैं कि सभी उपासनाओं का अनुष्ठान आवश्यक है क्योंकि– भिन्न शास्त्र वाक्यों में सभी उपासनाओं का एक ही फल बतलाया गया है । जैसे कि एक ही स्वर्गादि फल के साधन अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास आदि यज्ञों का अनुष्ठान, फल प्राप्ति के लिए करते देखा जाता है । वैसे ही ब्रह्मानुभूतिरूप फल की प्राप्ति के लिए सभी उपासनाओं का अनुष्ठान कर्त्तव्य हो सकता है। सिद्धान्तः – एवं प्राप्ते प्रचक्ष्म है - विकल्प एव-न समुच्चयः संभवतीति । कुतः ? अविशिष्टफलत्वात् - सर्वासां हि ब्रह्म- विद्यानामनवधि कातिशयानंद ब्रह्मानुभवः फलमविशिष्ट श्रूयते “ब्रह्म- त्रिदाप्नोति परम् " स एको ब्रह्मण आनंदः श्रोत्रियस्य चाकामह- तस्य” यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनि, तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति " इत्यादिभ्यः । ब्रह्म हि स्वस्य परस्य च स्वयमनुभूयमानमनवाधि- कातिशयानन्दं भवति । स च तादृशो ब्रह्मानुभव एकयाविद्य- याऽवाप्यते चेत् किमन्येयेति न समुच्चय संभवः स्वर्गादे हि देशतः कालतः स्वरूपतश्च परिमितत्वेन तत्र देशाद्यपेक्षया भूयस्त्व- संभवात्तदर्थिनः समुच्चयः संभवति, इह तु तद्विपरीत स्वरूपे ब्रह्मरिण तन्त्र संभवति । सर्वाश्च विद्याः ब्रह्मानुभव विरोध्यनादि कर्मा- विद्यानिरसन मुखेन ब्रह्मप्राप्तिफला इत्यविशिष्टफलत्वात् सर्वासां विकल्प एव ।
( १०६० ) उक्त मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि किसी एक के ही अनुष्ठान का विधान है, सबके अनुष्ठान का नहीं । सभी उपासनाओं का एकसा ही फल होता है, अर्थात् सभी ब्रह्मविद्याओं का अत्यधिक आनंद ब्रह्मा- नुभव रूप फल, सामान्य रूप से बतलाया गया है । " ब्रह्मवेत्ता परब्रह्म को प्राप्त करता है" वह ब्रह्मज्ञ और निष्काम श्रोत्रिय का आनंद है “दिव्यदर्शी पुरुष जब, सुवर्णवर्ण वाले जगत्कर्ता और वेद प्रसू पुरुष जगदीश्वर को देख लेता है, तब वह विद्वान् पुण्यपाप से छुटकर निर्दोष होकर, अनिर्वचनीय सर्वोत्तम ब्रह्म की समता प्राप्त करता है ।” इत्यादि ब्रह्म स्वयं या दूसरे के द्वारा अनुभूत होने पर अतिशय आनंद प्रदान करता है । उसका वैसा अनुभव जब एक ही विद्या के अनुष्ठान से हो जाता है तो अनेक विद्याओं की उपासमा की आवश्यकता ही क्या है ? इससे सिद्ध होता है कि सभी की उपासना संभव नहीं है । स्वर्ग आदि तो देश काल स्वरूप से परिमित हैं, इसलिए देश कालादि की तरह उनमें वृद्धि ह्रास भी संभव हैं, इसलिए अनेक कर्मानुष्ठानों की आवश्यकता होती है, किन्तु अपरिमित ब्रह्म में तो वैसी संभावना नहीं है । जब सभी विद्यायें, ब्रह्मानुभूति के प्रतिबंधक अज्ञान का निवारण कर ब्रह्मप्राप्ति कराती हैं तो सभी की उपासना के अनुष्ठान का प्रयोजन ही क्या है? अपितु किसी एक के अनुष्ठान से ही फलावाप्ति हो जायगी । ब्रह्मप्राप्तिव्यतिरिक्तफलाविद्याः स्वर्गादिफलकर्मवद यथेष्टं विकल्पेरन, समुच्चीयेरन्वा, तासां परिमितफलत्वेन भूयस्त्वापेक्षा- विभवात् । तदाह- जो विद्यायें, ब्रह्मप्राप्ति से भिन्न काम्यफल की साधिका हैं, वह तो इच्छानुसार समुच्चय रूप से या वैकल्पिक रूप से अनुष्ठेय हो सकती हैं क्यों कि उनका तो परिमित फल होता है, अतः उनमें बाहुल्य भी अपेक्षित हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं- काम्यास्तु यथाकामं समुच्चीयेरन्न वा पूर्व हेत्वभावात् |३|३|५८ || अपरिमित फलत्वाभावादित्यर्थः ।
( १०६१ ) काम्य विद्याओं का अनुष्ठान, समुच्चय या विकल्प किसी भी प्रकार किया जा सकता है, क्यों कि इनके अनुष्ठान में अपरिमित फलता का अभाव रहता है । अर्थात अधिक फल की इच्छा हो तो समुच्चया- नुष्ठान करना चाहिए अन्यथा वैकल्पिक करना चाहिए । २६. यथाश्रयभावाधिकररणः– अंगेषु यथाश्रयभावः । ३ । ३ । ५६ ॥ उद्गीथादिक्रत्वंगेष्वाश्रिताः “प्रोमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्" इत्यादिका विद्याः किमुद्गीथादिवत् क्रत्वर्थतया क्रतुषु नियमेनो- पादेयाः, उतगोदोहनादिवत् पुरुषार्थतया यथाकाममिति विशये, नियमेनोपादेया:, इति युक्तम् । उद्गीथ आदि, यज्ञांगाश्रित अनेक विद्यायें हैं, संशय होता है कि- उद्गीथ की तरह, वो सब भी यज्ञोपकारक रूप से प्रत्येक यज्ञ में ग्राह्य होंगी, अथवा गोदोहनन्याय की तरह, इच्छानुसार ग्राह्य होंगी ? इस पर कहते हैं कि सभी में ग्राह्य करना ही युक्ति संगत है।
ननु चासां पुरुषार्थत्स्वेनानियमः प्रतिपादित: ’ तन्निर्धारणा- नियमस्तदृष्टेः पृथग्ध्यप्रतिबंधः फलम्" इत्यत्र । सत्यम् - तदेव दृढयितुं कैश्चिल्लिगदर्शनैः युक्तया चाक्षिप्यते । तत्र हि - “तेनोभौ- कुरुतः इत्यमियम दर्शनात् पृथक्फलत्वमुक्तम्, उपासनाश्रयभूतोद्गी- थादिवदुपासनानामप्यंगतयोपादाननियमे बहवो हेतव उपलभ्यंते नहि श्रत्र " गोदोहनेन पशुकामस्य प्रणयेत” इत्यादिवदुपासना विधि- वाक्येफलसंबंधः श्रूयते । “उद्गीथमुपासीत्" इत्युद्गीथादिसंबंधित - यैवोपासनं प्रतीयते । जब " तन्निर्धारणानियमः" इत्यादि सूत्र में बतला चुके हैं कि-पुरु- षार्थ साधन में, सभी विद्याओं का साधन नियमित नहीं है, तब उक्त बात
( १०६२ ) कैसे संभव ? ऐसा संशय करना ठीक ही है, अब उसी बात को दृढ़ करने के लिए, विरुद्ध तर्क उपस्थित करके आक्षेप कर रहे हैं । उक्त सूत्रों में तो केवल " तेनोभौ कुरुतः " इस श्रुति की सहायता से, उपासना का अनियम बतलाते हुए, पृथक् फलता का निर्णय किया गया है । परन्तु इस प्रसंग में तो- उपासना की आश्रय उद्गीथ आदि की तरह जब, अन्य उपासनायें भी अंगमात्र ही हैं तब उनको ग्रहण करने में अनेक हेतु मिलते हैं । “पशुसमृद्धि की कामना से गोदोहन करके चरुपाक करना चाहिये" इत्यादि में जैसा काम्य पशु रूप फल विशेष का निर्देश है, वैसी यहाँ तो किसी विशेष फल के निर्देश की बात है नहीं । “उद्गीथमुपासीत्" इत्यादि में उद्गीथ संबंधी उपासना ही प्रतीत होती है । “यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरम्” इति वर्त्तमानोपदेशरूपवाक्यान्तराद हि फलसंबंधो ज्ञायते, स्ववाक्येनै वाव्यभिचरितऋतुसंबंध्युद्गीथादिसंबंधेन निर्ज्ञातऋत्वंगभावस्य वाक्यांतरस्थवर्त्तमानफलसंबंध निर्देशोऽर्थवादमात्रं स्यात् अपापश्लोक श्रवरणादिवत् । अतो यथोद्गीथादय उपासनाश्रयाः ऋत्वंगतया प्रयोग विधिना नियमेनोपादीयन्ते, यथातदाश्रिताश्चोपासनास्तन्मुखेन ऋत्वंगभूता इति नियमेनोपादेया एव । “श्रद्धा और विज्ञान के साथ जो विद्या का अनुष्ठान करता है बही प्रबलतम होता है” वर्त्तमानता मात्र के बोधक इस अन्य वाक्य से भी, उपासना की सफलता ज्ञात होती है, इसलिए उपासना विधायक वाक्य मैं, केवल यज्ञ संबंधी उल्लेख होने से ही उपासना की यज्ञांगता ज्ञात होती है, अन्य वाक्यों में जो वर्तमान कालीन फल संबंधी उल्लेख मिलता है, वह निश्चित ही, अपापश्लोक श्रवण की तरह अर्थवाद मात्र है । उद्- गीथ उपासना के आश्रय, उद्गीथ आदि जैसे- प्रयोग विधि के अनुसार नियमित यज्ञांग माने जाते हैं, वैसे ही, तदाश्रित उपासनायें भी नियमित रूप से यज्ञांग हैं । शिष्टैश्च | ३|३|६० ॥ शिष्टिः शासनं, शासनं विधानमित्यर्थः । “उद्गीथमुपासीत्”
( १०६३ ) इत्युद्गोथांगतयोपासनविधानाच्चोपादान नियमः । “गोदोहनेन पशुकामस्य प्रणयेत्” इत्यादिवदविधिवाक्येऽधिकारान्तराश्रवणादु- द्गीथांग भाव एव हि विधेय इति गम्यते । शिष्टि अर्थात् शासन या विधान से भी उपासना के नियम की सिद्धि होती है । “उद्गीथमुपासीत् " श्रुति में उद्गीथांगरूप से उपासना का विधान बतलाया गया है । “पशु की कामना से गोदोहन द्वारा चरु प्रस्तुत करना चाहिए” इत्यादि में जैसे अन्य क्रिया के अधिकारी से संबंधित गोदोहनाधिकार कहा गया है, वैसा यहाँ तो है नहीं, इससे निश्चित होता है कि- उक्त उपासना, उद्गीथांग रूप से ही विधेय है । समाहारात् | ३|३|६१|| । " होतृषदनाद्धे वापि दुरुद्गीथमनुममाहरति" इत्युपासनस्य समाहार नियमो दृश्यते । दुरुद्गीथ वेदनविहोनमुद्गीथं । वेदन- हानावन्येन समाधानं ब्र वत्तस्य नियमेनोपादानं दर्शयति । 9 " होतृ षदन से दुरुद्गीथ को परिपूर्ण करता है" इत्यादि श्रुति से उपासना के ग्रहण की आवश्यकता परिलक्षित होती है । दुरुद्गीथ का तात्पर्य है, उपासना विहीन उद्गीथ । उक्त अति में उपासना के अभाव में, अन्य के द्वारा भी परिपूर्ण करने का उपदेश देकर, उस उपासना की अवश्यग्रहणीयता दिखलाई गई है । गुरणसाधारण्य श्रुतेश्च | ३|३|६२ || प्रणवस्य सोपासनस्य उपासन गुणस्य उपासनाश्रयस्य “तेनेयंत्रयी विद्या वर्त्तते, ओमित्याश्रवत्योमितिशंसत्योमित्युद्गायति” इति साधारण्यश्रुतेश्चोपासनसमाहारो गम्यते । “तेन” इति प्रकृतिपरामर्शात् सोपासन एव प्रणवः सर्वत्र संचरति । प्रत उपासनस्य प्रणवसहभाव नियमदर्शनाच्चोद्गीथाद्युपासनामुद्गीथा- दिवन्नियमेनोपादानम् ।
( १०६४ ) “उसके द्वारा ही ये वेद विद्या प्रवृत्त होती है, जो ॐ कहकर ही हो सुनता है, ॐ कहकर ही प्रशंसा करता है, ॐ कहकर ही उद्गान करता है” इत्यादि में-उपासना के आश्रय रूप प्रणव का समानाधिकरण्य दिखलाया गया है जिससे उपासना की अनुवृत्ति ज्ञात होती है । वाक्य के " तेन” पद से, प्रस्तावित विषय से संबद्ध उपासना के साथ प्रणव की सर्वत्र अनुवृत्ति ज्ञात होती है, केवल प्रणव की ही नहीं । प्रणव सहित उपासना साहचर्य के नियम से ज्ञात होता है कि - उद्गीथ आदि की तरह उपासना का भी हर जगह ग्रहण होगा । एवं प्राप्तेऽभिधीयते -.. उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं- न वा तत्सहभावाश्रुतेः । ३।३।६३ ॥ न चैतदस्ति यदुद्गीथाद्युपासनानां क्रतुषूद्गीथा दिवदुपादान नियमः इति । कुतः ? तत्सहभावाश्रुतेः उद्गीथांग भावाश्रु तेरि- त्यर्थः । अंग भावे हि सहभाव नियमो भवति । यद्यपि " उद्गीथ- मुपासीत्” इत्यस्मिन् पद समुदायेऽधिकारान्तरं न प्रतीयते तथाऽपि तदनंतरमेव “यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवत्ति” इति विद्यायाः क्रतु वीर्यवत्तरत्वं प्रतिसाधनभावः प्रतिपाद्यते । तेन ऋतुफलात्पृथगभूत फलसाधनभूता विद्या “उद्गीथमु- पासीत्” इति कर्तव्यतया विधीयते । क्रतुफलात् पृथग्भूतफलसाधन- तयाऽवगतस्योपासनस्य क्रत्वंगभूतोद्गीथांगतया विनियोगो नोपपद्यते । अथ उपासनस्याश्रयापेक्षायां सन्निहित उदगीथ श्राश्रयमात्र’ भवति । यज्ञ में उद्गीथ आदि क्रिया का जैसा अवश्य ग्रहणीयता का नियम है, उद्गीथ आदि उपासना में भी, वैसा नियम नहीं है । ऐसी कोई सत् सहभाव वाली श्रुति नहीं मिलती, अर्थात् उपासना भी,
( १०६५ ) उद्गीथ आदि की तरह यज्ञांग है, ऐसी कोई श्रुति नहीं मिलती। अंग भांव होने पर ही सहभाव का नियम होता है । यद्यपि " उद्गीथमुपासीत्’ वाक्य में अन्य किसी का अधिकार प्रतीत नहीं होता, फिर भी इस वाक्य के बाद ही “विद्यापूर्वक जो कुछ किया जाता है, वही बलवत्तर होता हैं” इस वाक्य में, विद्या को, यज्ञ से अधिक बलवती रूप से प्रतिपादन किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि - उद्गीथमुपासीत्" इत्यादि श्रुति में यज्ञ फल से विशेष अधिक फल साधन के लिए, विद्या की कर्त्तव्यता बतलाई गई है । यज्ञ फल से भिन्न ही साधक रूप से जब उपासना की प्रतीति होती है, तब उदगीथांग रूप से उस उपासना का प्रयोग कदापि संगत नहीं हो सकता । इससे ज्ञात होता है कि - उपासना मात्र, एक आश्रय की अपेक्षा करती है, उद्गीथ उपासना में भी एक आश्रय आवश्यक है । सन्निहित उद्गीथ ही उपासना मात्र का आश्रय स्थानीय सिद्ध होता है । उद्गीथश्च क्रत्वंगभूत इति क्रतु प्रयुक्तोद्गीथाद्याश्रये उपासने क्रत्वाधिकारिण एव क्रतोवीर्यवत्तरत्त्वेच्छानिमित्तमिदमधिकारान्तर- मिति न क्रतुषु तदुपादाननियमः । वीर्यवत्तरत्वं च क्रतुफलस्य प्रबल कर्मान्तरफलेनाप्रतिबंधं इत्युक्तम् । क्रतोरविलंबितफलत्वमि- स्वर्थः । पर्णतादीनां तु “यदेव विद्यया करोति तदेव वीयंवत्सरं भवति” इति विद्यायाः फलसाधनत्ववदपापश्लोक श्रवणादिफलं प्रतिसाक्षात्साधनभावो न श्रुत इति कत्वंगभूत जुह्वाद्यंगतया विनियोगाविरोधात्तदंगभूतानां फलांतरसाधनभावकल्पनानुपपत्ते- स्तत्र फलश्र तिरथंवादमात्र स्यात् । उद्गीथ, यज्ञ का अंगरूप है, यज्ञ में जिसका अधिकार है उद्गीथ साधना में भी उसी का अधिकार है, किन्तु उद्गीथ आश्रित उपासना में, अधिकार का कोई नियम नहीं है। यज्ञ का अधिकारी पुरुष यदि चाहे कि, मेरा यज्ञ अधिक बलवत्तर हो ऐसी इच्छा करने पर ही वह उपासना का अधिकारी हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । उद्गीथ भोर उपासना दोनों का एक ही - अधिकारी नहीं हो सकता, ऐसी अधिकार की पृथकता
( १०६६ ) e के आधार पर, उद्गीथ आदि की उपासना की अवश्यकत्तव्यता की व्यवस्था नहीं की जा सकती । अन्य किसी प्रबल कर्म फल के द्वारा, उपस्थित कर्मफल में बाधा न होना ही" प्रबलता है, अर्थात् अनुष्ठित यज्ञ फल की प्राप्ति में विलम्ब न होना ही प्रबलता है । यज्ञांग “जुहू” की पर्णमयता के साथ विद्या की समता नहीं की जा सकती क्योंकि - " यदेव विद्यया करोति" इत्यादि वाक्य से जैसी प्रबलता रूप पृथक् फलसाधनता बतलाई गई है, जुहू की पर्णमयता में वैसी, पापश्लोक श्रवणाभाव के फलस्वरूप कोई विशेषता नहीं कही गयी है । यज्ञांग जुहू की पर्णमयता के विनियोग में किसी प्रकार की बाधा न होने से, फलान्तर साधनता की कल्पना करना संभव नहीं है । इसलिए उक्त फल श्रुति को अर्थवाद मानना चाहिए । दर्शनाच्च | ३ | ३|६४॥ दर्शयति च श्रुतिरुपासनोपादानानियमम् “एवं विद्ध वै ब्रह्मा यज्ञं यजमानं सर्वांश्चत्विजोऽभिरक्षति” इति ब्रह्मणो वेदनेन सर्वेषां रक्षणं ब्रुवती । उद्गातृप्रभृतीनां वेदनस्यानियमे सत्येतदुप- पद्यते । अनेन लिगेन पूर्वोक्तानां समाहारादिलिंगानां प्रायिकत्वम- वगम्यते । अतोऽनियम एवेति स्थितम् । “ऐसा ज्ञान संपन्न ब्रह्मा ही, यज्ञ यजमान और समस्त होताओं की सब प्रकार से रक्षा करता है” इत्यादि श्रुति ब्रह्म ज्ञान से ही सब की रक्षा बतलाती है । इससे उद्गाता आदि के ज्ञान के अनियम की प्रतीति होती है, ऐसा मानने से ही उक्त प्रसंग की संगति हो सकती है । इस हेतु वाक्य से ज्ञात होता है कि पहिले जो समाहार आदि हेतु बतलाए गए हैं, वे प्रायिक मात्र हैं आवश्यक नहीं हैं । इससे अनियम का सिद्धान्त स्थिर होता है । तृतीय अध्याय तृतीय पाद समाप्त
४
१ पुरुषार्थाधिकरण: तृतीय - अध्याय चतुर्थ पाद पुरुषार्थोऽतः शब्दादिति बादरायणः | ३ | ४ | १ ॥ गुणोपसंहारानुपसंहारफला विद्यैक्यत्व नानात्व चिन्ताकृता । इदानों विद्यातः पुरुषार्थः, उत विद्यांगकात्कर्मणः इति चिन्त्यते । कि युक्तम् ? श्रतः विद्यातः पुरुषार्थ, इति भगवान बादरायणो मन्यते, कुत: ? शब्दात् - दृश्यते हि श्रौपनिषदः शब्दो विद्यातः पुरुषार्थं ब्रुवन “ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्” वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं प्रादित्यवर्णं तमसः परस्तात । तमेवं विद्वानमृतइह भवति । नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय ।” यथा नद्यः स्यन्दमानः समुद्रे श्रस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय, तथाविद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं मुरुषमुपैति दिव्यम्" इत्यादि । उपास्य गुणों का उपसंहार कैसे किया जा सकता है कैसे नहीं, इसके निरूपण के लिए तृतीय पाद में विद्या की एकता और भिन्नता के विषय में विचार किया गया । अब विचार किया जाता है कि विद्या से पुरुषार्थ (मोक्ष) होता है अथवा विद्यांग कर्म से होता है ? विद्या से पुरुषार्थ होता है - ऐसा भगवान बादरायण का मत, शास्त्र के आधार पर है । उपनिषदों के वचन विद्या से पुरुषार्थ का उल्लेख करते हैं- “ब्रह्मविद ही परमतत्त्व प्राप्त करते हैं” तम अज्ञान) से अतीत आदित्यवर्ण (ज्योतिर्वर्ण) इस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ, उसे जो जानता है वह इस लोक में अमृत हो जाता है मुक्ति लाभ का और कोई उपाय नहीं है “बहती हुई नदियाँ जैसे नामरूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष भी, नामरूप को छोड़कर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं” इत्यादि ।
( १०६८ ) अत्र पूर्वपक्षी प्रत्यवतिष्ठते इस पर पूर्वपक्ष वाले उपस्थित होते हैं- शेषत्वात्पुरुषार्थवादो यथान्येष्विति जैमिनिः | ३ |४| २ || नैतदेवम् - यद्विद्यातः पुरुषार्थावाप्तिः शब्दावगम्यते - इति । न ह्येषः “ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्” इत्यादि शब्दो वेदनात् पुरुषार्था- वाप्तिमवगमयति, कर्मसु कर्तृभूतस्यात्मनो याथात्म्यवेदनप्रतिपादन- परत्वात् । अतः कर्त्तुः संस्कार द्वारेण विद्यायाः क्रतुशेषत्वात्तत्र फलश्रुतिः श्रर्थवादमात्रम्, यथाऽन्येषु द्रव्यादिषु - इति जैमिनिराचार्यो मन्यते तदुक्तं द्रव्यगुणसंस्कारकर्मसु परार्थत्वात् फलश्रुतिरर्थवादः स्यात् ।”
प्राप्ति की बात कही गई है, वह जैसा आप समझ रहे हैं । “ब्रह्म- उपासना से पुरुषार्थ प्राप्ति नहीं शास्त्रों में जो विद्या से पुरुषार्थ उक्त प्रकार के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है विदाप्नोति परम्” इत्यादि वचन बतलाते अपितु, कर्म कर्त्ता द्वारा किए गए आत्मा के यथार्थ स्वरूप ज्ञान से- पुरुषार्थ प्राप्ति बतलाते हैं । कर्त्ता के संस्कार के द्वारा जब विद्या, यज्ञांग रूपहै तब विद्या साध्य मोक्ष प्राप्ति की प्रशंसा, केवल अर्थवाद मात्र है, जैसे कि अन्यशास्त्रीय फल श्रुतियाँ अर्थवाद हैं। ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है। वे कहते हैं कि - “यज्ञीयद्रव्यगुण और संस्कार रूप कर्मों के विषय में जो फल श्रुति है, वह परार्थ होने से अर्थवाद मात्र है” ननु च कर्मसु कर्त्तुजीवादन्यो मुमुक्षुभिः प्राप्यतया वेदांतेषु वैद्य उपदिश्यत इति प्रागेवोपपादितम् “नेतरोऽनुपपत्तेः " भेदव्यपदेशाच्च " श्रनुपपत्तेस्तु न शारीरः" इतरपरामर्शात् स इति चेन्नासंभवात् " इत्येवमादिभिः सूत्रैः, तदेव ब्रह्म तत्त्वमस्यादि सामानाधिकरण्येन जीवादनतिरिक्तमित्येतदपि “श्रधिकं तु भेदनिर्देशात्” इत्येवमादि भिर्निरस्तम् सामानाधिकरण्य निर्देशश्च “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” ( १०६६ ) सर्वंखल्वियं ब्रह्म “इति चेतनाचेतन साधारणः " यः पृथिव्यां तिष्ठन् “य आत्मनितिष्ठन् इत्यादिनाऽवगततत्तदात्मतयाऽवस्थितिनिबंधन इति - " अवस्थितेरिति काशकृत्स्नः” इत्यादिभिरुपपादितं तत्कथं कर्मसु कर्त्तुरात्मनो याथात्म्योपदेशपरा वेदांत शब्दा इति विद्याया: कर्मागत्वं प्रतिपाद्यते ? (वाद) वेदांत शास्त्र, कर्त्ता जीव से पृथक् पदार्थ को ही, मुमुक्षत्रों के लिए पुरुषार्थ बतलाते हैं, ऐसा ’ नेतरोऽनुपपत्तेः " भेदव्यपदेशाच्च " अनुपपत्तेस्तु न शारीरः" इतरपरामर्शात्" इत्यादि सूत्रों में विवेचन हो चुका है । इसके बाद अभेद सूचक “तत्त्वमसि " इत्यादि महावाक्य के अनुसार, ब्रह्म से जीव की अनतिरिक्तता या जीवस्वरूपता की संभावना का भी " अधिकन्तु भेद निर्देशात् " आदि सूत्रों में निराकरण हो चुका है । तथा " यह सब आत्म्य है” सब कुछ ब्रह्म है’ इत्यादि से जड़चेतन की ब्रह्मता एवं " जो पृथ्वी में स्थित है " जो आत्मा में स्थित है" इत्यादि से उन उन आकारों में आत्मरूप से अभेद बोधक स्थिति सामानाधिकरण्य के निर्देश के रूप में “अवस्थितेरिति काशकृत्स्नः” इत्यादि सूत्र में बतलाई गई । तब यहाँ - कर्मानुष्ठान के कर्त्ता जीव के यथार्थ स्वरूप के उपदेश में वेदांत वाक्यों का तात्पर्य बतलाते हुए, विद्या की कमांगता का कैसे प्रतिपादन करते हो ? उच्यते - वेदांतवाक्येष्वेव विद्यायाः कर्म प्राधान्यं सूचयद्भिलिंगैः तदुपबृंहित सामानाधिकरण्यनिर्देशेन च वेदांतशब्दाः देहातिरिक्त जीव स्वरूपयायात्म्योपदेशपरा इति बल | दभ्युपगमनीयमिति पूर्वपक्षिणोऽभिप्रायः । इसका उत्तर पूर्वपक्षवाले देते हैं कि वेदांत वाक्यों में ही विद्या की कर्म प्रधानता को बतलाने वाले लिंग (चिन्ह) हैं, जिनसे कर्म की अपेक्षा विद्या की प्रधानता सूचित होती है, तथा सामानाधिकरण्य के निर्देश से अनिच्छा होते हुए भी स्वीकारना पड़ता है कि देहातिरिक्त जीवात्मा के सथार्थ स्वरूप का वर्णन करना ही वेदांत वाक्यों का मुख्य तात्पर्य है ।
( १०७० ) ननु च कर्त्तसंस्कारमुखेन विद्यायाः क्रत्वनुप्रवेशो न शक्यते वक्त लौकिक वैदिकसाधारणत्वेनाव्यमिचरित क्रतुसंबंधित्वात् । (वाद) यज्ञादि कर्त्ता जैसे वेदोक्त क्रिया का निर्वाह करता है वैसे ही व्यावहारिक क्रिया का भी निर्वाह करता है; यज्ञ के ही साथ उसका अव्यभिचारी संबंध नहीं रहता । इसलिए यह नहीं कह सकते कि कर्त्ता की संस्कार रूप विद्या, यज्ञांग है । नैवम् - लौकिकस्य कर्मणः कर्त्तुर्देहादव्यतिरिक्तत्वेऽप्युपपत्तेर्देहा- तिरिक्तनित्यात्मस्वरूपस्य क्रतावेवोपयोगात्तत्स्वपप्रतिपादन मुखेन क्रत्वनुप्रवेशो न विरुध्यते । श्रतो विद्यायाः ऋतुशेषत्वान्नातः पुरुषार्थः । (विवाद) उक्त आपत्ति भ्रामक है; जीवात्मा देह वाला होकर ही, लौकिक क्रिया का कर्त्ता हो सकता है किंतु आत्मा में जब तक नित्य बुद्धि नहीं होगी तब तक उसकी पारलौकिक फलसाधक वेदोक्त क्रिया में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यज्ञादि क्रियाओं में देह से भिन्न नित्य आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास होना आवश्यक है । इस प्रकार के विवेचन से, यज्ञान्तर्भावमाना जा सकता है। इससे यह निश्चित होता है कि यज्ञांग होते हुए भी विद्या से पुरुषार्थ सिद्धि नहीं हो सकती । कानिपुनस्तानिलिंगानि, यदुपवृंहितसामानाधिकरण्य निर्देशेन वेदांतशब्दा जीवस्वरूपपरा इति निर्णीयन्ते । तत्राह - वे लिंग कौन से हैं, जिनसे वेदांत वाक्यों की जीवस्वरूप परकता अवधारित होती है? उसी का उत्तर देते हैं- आचार दर्शनात् |३|४|३॥ ब्रह्मविदांप्राधान्येन कर्मस्वेवाचारो दृश्यते अश्वपतिः केकयः किल श्रात्मवित्तमस्तद्विज्ञानायोपगतांस्तानुषीन् प्रत्याह - " यक्ष्यमाणो
( १०७१ ) ह वै भगवंतोऽहमस्मि" इति । तथा जनकादयो ब्रह्मविदग्रेसराः किर्मनिष्ठाः स्मृतिषु दृश्यंते “कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः “इयाज सोऽपि सुबहून् यज्ञान् ज्ञानव्यपाश्रयः” इति । ब्रह्मविदां कर्मप्रधानत्वदर्शनादविद्यायाः कर्त्तुस्वरूपवेदन रूपत्वेन कर्मागत्वमेवेति न विद्यातः पुरुषार्थः । ब्रह्म वेत्ताओं के आधार में, कर्म की ही प्रधानता देखी जाती है, आत्म तत्त्वेच्छ ऋषियों से कहते हैं- “भगवन् ! मैं इस समय यज्ञानुष्ठान में संलग्न हूँ ।” इसी प्रकार ब्रह्म वेत्ताओं में अग्रगण्य जनक आदि को भी. स्मृतियों में कर्मनिष्ठ बतलाया गया है “जनक आदि ने कर्म से संमिद्धि प्राप्त की " ज्ञाननिष्ठ होते हुए भी उन्होने अनेक यज्ञ किए” इत्यादि । ब्रह्म वेत्ताओं में भी कर्म की स्वरूपानुभूति रूप विद्या, कमींग ही है विद्या से पुरुषार्थ असंभव है । लिंगमिदं प्राप्तिरुच्यतामित्यत्राह- जो विद्या की कर्मा गता बतलावे वही लिंग है, अब उसके उपयुक्त प्रमाण प्रस्तुत करते हैं- | तच्छ्रुतेः | ३|४|४|| श्रुतिरेव हि विद्यायाः कर्मागत्यमाह - “यदेव विद्यया करोति श्रदोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति” इति । नेयं श्रुतिः प्रकरणा- दुद्गीथमात्रविषयेतिव्यवस्थापयितुं शक्याः विद्यामात्र विषया हीयं श्रुतिः । 1 श्रुति में ही विद्या की कर्मा गता दिखलाई गई है- “विद्या, श्रद्धा और ज्ञान के सहयोग से जो कर्म किया जाता है वही प्रबलतम होता है" उदगीथ प्रकरण में पठित होने से यह श्रुति केवल उद्गीथ से ही संबद्ध है, ऐसा नहीं कह सकते, प्रकरण से श्रुति अधिक बलवती होती है " यदेव विद्यया करोति" श्रुति विद्यामात्र की विषय है, केवल उद्गीथ की ही नहीं ।
( १०७२ ) समन्वारम्भरणात् | ३ | ४|५|| " तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते" इति विद्याकर्मणोः साहित्यं च दृश्यते । साहित्यं चोक्त ेन न्यायेन विद्यायाः कर्मागत्वे सत्येव भवति । “विद्या और कर्म व्यक्ति का अनुगमन करते हैं” इत्यादि श्रुति में विद्या और कर्म का साहचर्यं दीखता है । इस साहचर्य के वर्णन से भी विद्या की कमींगता सिद्ध होती है । तद्वतो विधानात् | ३ |४|६|| विद्यावत: कर्म विधानात् विद्या कर्मागत्वमित्यनगम्यते “प्राचार्य कुलादवेदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कर्मातिशेषेणाभिसमा- वृत्यकुटुंबे शुचौ देशे” इत्यादौ । “वेदमधीत्य” इत्यध्ययनवतः कर्माणि विदधदर्थावबोधपर्यन्ताध्ययनवत् एव विदधाति । अर्थावबोधपर्यन्तं हि अध्ययनमिति स्थापितम् श्रतो ब्रह्मविद्याऽपि कर्मसु विनियुक्त ति न पृथक् फलायावकल्पते । “आचार्य कुल से विधि पूर्वक वेद पढ़कर - गुरु संबंधी कर्त्तव्य कर्मों को समाप्त कर पवित्र कुटुम्ब में प्रवेश करता है” इत्यादि में विद्या संपन्न व्यक्ति के लिए कर्म का विधान बतलाया गया है - जिससे विद्या की कर्मागत सिद्ध होती है । “वेदमधीत्य” पद से वेदाध्ययन करने वाले के भी, कर्म का विधान वेदार्थावगति तक बतलाया गया है । अर्थावबोध तक ही अध्ययन कहा गया है, इसलिए ब्रह्म विद्या भी कर्म से अलग रहकर पृथक् फल की साधिका नहीं हो सकती । नियमात् | ३|४|७|| । इतश्च न विद्यातः पुरुषार्थः “कुर्वन्नवेह कर्माणि जिजीविषे- च्छतं समाः” इत्यात्मविदः पुरुषायुजस्य सर्वस्य कर्मसु नियमेन विनियोगात् कर्मण एव फलमित्यवगम्यते विद्या तु कर्मागमिति ।
। ( १०७३ ) इसलिए भी विद्या से पुरुषार्थं संभव नहीं है कि - “कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीने की आकांक्षा करते हैं” इत्यादि श्रुति श्रात्मज्ञ पुरुष की, आयुपर्यन्त नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान में नियुक्ति बतलाती है । जिससे, कर्म से ही फलावाप्ति की प्रतीति होती है, विद्या से नहीं । विद्या तो कर्मागं मात्र है | सिद्धांत - एवं प्राप्ते प्रचक्ष्महे- उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- अधिकोपदेशात्तु बादरायणस्यैवं तद्दर्शनात् | ३ |८|| तु शब्दात् पक्षो व्यावृतः, विद्यात एव पुरुषार्थः कुतः ? अधिकोपदेशात् — कर्मसु कर्त्तुर्जीवाद हेयप्रत्यनीका नवधिकातिशया- संख्येयकल्याणगुणाकरत्वेनाधिकस्यार्थान्तरभूतस्य परस्य ब्रह्मणो वेद्यतयोपदेशात् भगवतो बादरायणस्य विद्यातः फलमित्येवमेव मतम् । तु शब्द पूर्वपक्ष का व्यावर्तक है । विद्या से ही पुरुषार्य सिद्धि होती है, अधिकता के उपदेश से ऐसा ही निश्चित होता है। कर्नानुष्ठान के कर्त्ता जीवात्मा से अधिक, स्वतंत्र - उत्तम, सीमा और संख्या से रहित, अति कल्याणमय गुणों के आकर परब्रह्म को ही वेद्य कहा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि उनकी प्राप्ति उपासना से ही होती है, ऐसा भगवान बादरायण का मत है । लिगानि तिष्ठन्तु वेद्यतयोपदेशस्तु तावत्कर्तुः प्रत्यगात्मनो- ऽधिकस्यैव । कथम् ?त दर्शनात् - प्रत्यगात्मन्यशुद्ध े शुद्ध ऽप्यसंभाव- नोयानंतगुणाकरस्य वेद्यस्य निरस्तनिखिलहेय गंधस्य स्वसंकल्प - कृत जगदुदयविभवलयलीलस्य सर्वज्ञस्य सर्वशक्के वाङ्मनसापरिच्छे- द्यानन्दस्य जीवाधिपस्य कृत्स्नस्य प्रशासितुः परस्य ब्रह्मणो वेदनोप- देशवाक्येषु दर्शनात् " अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेये-
( १०७४ ति तत्त जोऽसृजत" यः सर्वज्ञः सर्वविद् " परास्य शक्तिर्विविधैव श्रयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च " स एको ब्रह्मण आनंद: " यतो वाचो निवर्त्तन्ते श्रप्राप्य मनसा सह-प्रानंदं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चन “ एष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुविधारण: “सकारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः” “एतस्य वाऽक्षरस्य प्रशासने गागि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः” भीषास्माद् वातः पवते, भीषोदेति सूर्यः, भीषास्मादग्नि- श्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पंचमः" इत्यादिषु । तस्माद् वेदनोपदेश शब्देषु कर्त्त: प्रत्यगात्मनः स्वद्योतकल्पस्याविद्यादिहेय संबंध योगस्य गंधोऽपि नास्तीति परमपुरुषविषयाया विद्यायास्तत्प्राप्तिरूपममृ- तत्वं तत्र तत्र श्रयमाणं फलमिति विद्यातः पुरुषार्थ इति सुष्ठुक्तम् । संकल्प है " विद्या की कर्मा गता बतलाने वाले लिंगों की बात छोड़िये वेद्यरूप से जिसका उल्लेख है, वह जीवात्मा से अधिक ही है- जैसा कि - “वह निष्पाप, जरामृत्यु शोक भूख प्यास रहित, सत्य काम, सत्य उसने इच्छा की बहुत होकर व्यक्त हो जाऊँ “ उसने तेज की सृष्टि की " जो सर्वज्ञ और सर्वविद है " पर की ज्ञान-बल-क्रिया आदि स्वाभाविक शक्तियाँ सुनी जाती हैं ’ वह एक ब्रह्म का आनंद है” जहाँ से वाणी मन सहित होकर लौट आती है ऐसे आनंद ब्रह्म को जान कर साधक किसी से नहीं डरता “वही सर्वेश्वर भूताधिपति भूपाल सबका विधारक सेतु है “वह कारणों का भी कारण, स्वामियों का भी स्वामी है, उसका कोई जनक या स्वामी नहीं है” हे गागि ! इस अक्षर के प्रशासन में सूर्य और चन्द्र स्थित हैं” इसी के भय से वायु चलता है । सूर्य अग्नि चन्द्र और पाँचवा मृत्यु दौड़ता है’’ इत्यादि से बद्धमुक्त जीवात्मा में असंभव, हीनता से रहित, संकल्प मात्र से सृष्टि स्थिति संहारात्मक लीलामय, सर्वज्ञता, सर्व शक्ति संपन्नता अवाङ्मनस गोचारता, असीम आनन्दरूपता सर्व शासकता, जीवाधिपत्य, आदि वैद्य परब्रह्म की बतलाई गई विशेष- ताओं से निश्चित होता है । उक्त उपासनोपदेशक वाक्यों में कर्ता के
( १०७२ ) स्वरूप जीवात्मा का, जो कि परमात्मा के समक्ष खद्योत के तुल्य है, और अविद्या आदि दोषों वाला है, कहीं नाम भी नहीं है। परब्रह्म विषयक विद्या से, जो अनेक स्थानों में ब्रह्म प्राप्ति की बात कहीं गई है, वही विद्या का फल है, इसलिए विद्या से ही पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है, यही मानना युक्ति संगत है । लिंगान्यपि निरस्यंते लिंगों का भी निराकरण करते हैं । तुल्यं तु दर्शनम् | ३|४|६|| यदुक्तं ब्रह्मविदां कर्मानुष्ठानदर्शनाद् विद्या कर्मा गमिति तत्र विद्यायाsनंगत्वेऽपि तुल्यं दर्शनम्, ब्रह्मविदां कर्मानुष्ठानदर्शनमनै- कांतिकमित्यर्थः, अननुष्ठानस्यापि दर्शनात् । दृश्यते हि ब्रह्मविदां कर्मत्यागः " ऋषयः कावषेयाः किमर्था वयमध्येष्यामहे किमर्था वयं यक्ष्यामहे" इत्यादौ । तोब्रह्मविदां कर्मत्याग दर्शनान्न विद्या कर्मा- गम् । कथमिमुपपद्यते ब्रह्मविदां कर्मानुष्ठानमननुष्ठानंच ? फलाभिसं धिरहितस्य यज्ञादिकर्मणो ब्रह्मविद्यांगत्वात्तथाविधस्य कर्मणोऽनु- ष्ठानदर्शनमुपपद्यते । वक्ष्यति च - सर्वांपेक्षा च यज्ञादिश्रुतेरश्ववत्" इति । फलार्थस्य तस्यैव यज्ञादेः कर्मणो मोक्षैकफलब्रह्मविद्या- विरोधित्वत्तस्याननुष्ठानदर्शनमुपपन्नतरम् । विद्यायाः कर्मा गत्वे कर्मत्यागः कथमपि नोपपद्यते । जो यह कहा कि ब्रह्मवेत्ताओं में कर्मानुष्ठान देखा जाता है, इसलिए विद्या कर्माग है, यह बात भी असंगत है, विद्या की अनंगता में भी तुल्य आचार देखा जाता है, अर्थात् ब्रह्मवेत्ताओं का जो कर्मानुष्ठान देखा जाता है वह अनैकान्तिक नहीं है, उनमें कर्मानुष्ठान का अभाव भी पाया जाता है " कावषेय ऋषि कहते हैं कि - " किसके लिए अध्ययन करें और किसके लिए यज्ञ करें" इत्यादि से - ब्रह्मवेत्ताओं का कर्म के प्रति उपेक्षा भाव निश्चित होने से विद्या कर्माग नहीं है यह भी निश्चित हो
( १०७६ } जाता है। प्रश्न होता है कि ब्रह्मवेत्ताओं में कर्मानुष्ठान श्रौर कर्मत्याग दोनों कैसे संभव हैं ? सो फलाकांक्षारहित यज्ञादि कर्म ब्रह्मविद्या के ही अंग हैं, इसलिए ब्रह्मवेत्ता कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं, ऐसा ही “सर्वापेक्षा च यज्ञादि श्रुतेरश्ववत् " सूत्र में सूत्रकार ने सिद्ध किया है । यज्ञादि क्रियायें सकाम होने से ही मोक्षदायिनी ब्रह्मविद्याओं से विरुद्ध है इसीलिए उनका त्याग होता है, यदि विद्या को कर्माग मानें तो कर्म का त्याग नहीं हो सकता । यदुक्तं श्रुत्यैव विद्यायाः कर्मा गत्वमवगम्यते - तत्राह - जो यह कहा कि श्रुति से ही विद्या की कर्मा गता ज्ञात होती है । उसका उत्तर देते हैं- प्रसार्वत्रिकी | ३|४|१०|| न सर्व विद्याविषयेयं श्रुतिः, श्रपितुद्गीथविद्याविषयैव “यदेव विद्यया करोति” इति यच्छब्दस्यानिर्धारित विशेषस्य “उद्गीथमुपासीत्” इति प्रस्तुतोद्गीथविशेष निष्ठत्वात् । नहि यत्करोति तद् विद्ययेति सम्बध्यते यदेव विद्यया करोति तदेव वीर्यवत्तरमिति विद्यया क्रियमाणं यच्छब्देन निर्दिश्य तस्य हि वीर्यवत्तरत्वमुच्यते । उक्त श्रुति- सभी विद्याओं से संबंधित नहीं है, अपितु उद्गीथ विद्या विषयक ही है " यदेव विद्यया करोति" में यत् शब्द अविशेष भाव से प्रयुक्त हुआ है- “उद्गीथमुपासीत्” इत्यादि में प्रस्तुत - उद्गीथ विशेष की निष्ठा निश्चित होती है। " यत्करोति" का अर्थ “वह विद्या के साथ करता है” ऐसा नहीं है, अपितु “विद्या के साथ जो करता है वही प्रबल- तम होता है” इतना अर्थ है विद्या के साथ किये जाने वाले कर्म की ही यत् शब्द से निर्दिष्ट वीर्यवत्तरता कही गई है । यच्चेदमुक्त “तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते” इति विद्याकर्मणोः साहित्यदर्शनादविद्या कर्मागमिति तत्राह- और जो यह कहा कि - " तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते" वाक्य में
( १०७७ ) विद्या और कर्म का साहचर्य दिखलाया गया है, इसलिए विद्या कर्माग है । इसका निराकरण कहते हैं- विभागः शतवत् | ३ | ४|११ ॥ “तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते” यत्त्रोक्त ेन न्यायेन विद्या- कर्मणोर्भिन्नफलत्वाद विद्यास्वस्मैफलाय स्वस्मै फलायेति विभागो दृष्टव्यः । विक्रयिणं शतद्वयमन्वेतोत्युक्त क्षेत्रार्थं शतं विभागः प्रतीयते तथेहापि । समन्वारभते, कर्म च शतवत् - यथाक्षेत्र रत्न- रत्नार्थं शतमिति “विद्या और कर्म उसका अनुगमन करते हैं" इत्यादि से उपरोक्त नियमानुसार विद्या और कर्म का भिन्न फल समझना चाहिए । विद्या अपने फल प्रदान के लिए अनुगमन करती है और कर्म अपने फल प्रदान के लिए ऐसा विभाग है । जैसे कि खेत और रत्न के लिए दो सौ मुद्रा ले जाने वाला एक सौ से रत्न और एक सौ से क्षेत्र खरीदता है; वैसी ही उक्त व्यवस्था भी है । अध्ययनमात्रवतः | ३ |४|१२|| यदुक्तं विद्यावतः कर्मविद्यानाद्विद्याकर्मा’ गम् इतिनैतद्युक्तम्, “वेदमधीत्य” इत्यध्ययनमात्रवतो विधानात् । न चाध्ययन विधिरेवार्थबोधे प्रर्वर्त्तयति श्रधानवदध्ययनस्याक्षरराशि ग्रहण- मात्र पर्यवसानात् । गृहीतस्य च स्वाध्यायस्य फलवत्कर्माववो- धित्वदर्शनात्तन्निर्णयफले तदर्थविचारे पुरुषः स्वयमेव प्रवर्त्तते ततः कर्मार्थी कर्मज्ञाने प्रवर्तते, मोक्षार्थी च ब्रह्मज्ञान इति न विद्या कर्मा गम् । यद्यप्यध्ययनविधिरेवार्थावबोधे प्रवर्तयति, तथापि न विद्या कर्मागम् अर्थज्ञानादर्थांतरत्वाद् विद्यायाः । यथा ज्योतिष्टी मादिकर्मस्वरूपविज्ञानात् फलसाधनभूतं कर्मानुष्ठानमर्थान्तरम्, तथाऽर्थज्ञानरूपात् ब्रह्मस्वरूप विज्ञानादर्थान्तरमेव ध्यानोपासनादि
( १०७३ ) शब्दवाच्या पुरुषार्थंसाथनभूता विद्येति न तस्याः कर्म संबंधगंधो विद्यते । जो यह कहा कि विद्वान के लिए भी कर्म का विधान मिलता है, इसलिए विद्या कर्माग है, यह भी असंगत बात है, “वेदमधीत्य " में केवल अध्ययन वाले व्यक्ति के लिए ही कर्म का विधान किया गया है । केवल विधिपूर्वक अध्ययन ही तो अर्थबोध करा नहीं सकता । अक्षर राशि के अभ्यास को ही वेदाध्ययन कहते हैं, अर्थात् वेदाध्ययन से, केवल गुरु के निकट रहकर वैदिक अक्षर की प्राप्ति की बात ही सामने आती है | अर्थज्ञान भी हो जाता हो ऐसी बात निश्चित नहीं होती । वेदाध्ययन से कर्म और उसके फल के निर्देश की जानकारी मात्र होती है, कर्म और कर्मफल के निर्णय के लिए तो वेदार्थ के विचार की आव- श्यकता है. वेदार्थं विचार के बाद हो फलाकांक्षी कर्म में प्रवृत्त होते हैं और मुमुक्ष ब्रह्म ज्ञान में प्रवृत्त होते हैं । इससे स्पष्ट है कि - विद्या कर्माग नहीं है । यद्यपि अध्ययन की विधि हो अर्थज्ञान की ओर प्रवृत्त करती है, फिर भी विद्या कर्म का अंग नहीं है, क्योंकि - अर्थज्ञान और विद्या नितान्त भिन्न वस्तुएँ हैं । जैसे कि - ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ के स्वरूप के ज्ञान से, फल का साधक कर्मानुष्ठान, नितान्त भिन्न है | वैसे ही ब्रह्म स्वरूप विषयक ज्ञानात्मक वेदार्थ की प्रतीति से, ध्यान- उपासना आदि शब्द वाच्य, पुरुषार्थ की साधनरूप विद्या, एकदम भिन्न वस्तु है । उसके साथ कर्म का किसी प्रकार का संबंध नहीं है । नाविशेषात् | ३ | ४ | १३ ॥ योक्त - “कुर्वन्नेवेह कर्माणि” इत्यात्मविदं ज्ञानादव्यावत्यं यावज्जीवं कर्मानुष्ठाने नियमयतीति, तन्नोपपद्यते, अविशेषात्- नहि श्रयं नियमः, फलसाधनभूतस्वतंत्र कर्मविषय इति विशेष हेतुरस्ति विद्यांगभूतकर्मविषयत्याऽप्युपपत्तेः । “कर्मणैव हि संसिद्धमास्थिता जनकादयः” इति च विदुषः त्वाप्रयाणादुपासन- स्यानुवर्त मानत्वात् । ( १०७८ ) जो यह कहा कि - “कर्मों को करते हुए ही " यह श्रुति आत्मवेत्ता के लिए ज्ञान से पृथक् कर्मानुष्ठान का यावज्जीवन पालन करने का उपदेश देती है, यह बात भी असंगत है, उक्त श्रुति में, ऐसा कोई विशेष नियम नहीं बतलाया गया है, जैसा आप समझ रहे हैं । कर्म को विद्या का अंग मानने पर भी उक्त बात बन सकती है । “जनकादि ने कर्म करते हुए सिद्धि प्राप्त की " इस वाक्य से तो, मरणपर्यन्त उपासनानुवर्ती कर्म की बात सिद्ध होती है । एवमर्थस्वाभाव्येन चोद्यं परिहृत्य " कुर्वन्नेवंह कर्माणि " इत्यस्य वाक्यस्यार्थमाह- इस प्रकार उक्त वाक्य का विवेचन करके आपत्ति का समाधान किया गया, अब “कुर्वन्नेवेह कर्माणि " वाक्य का अर्थ बतलाते हैं- स्तुतयेऽनुमतिर्वा | ३ |४| १४ ॥ वा शब्दोऽवधारणार्थ: “ईशावास्यमिदं सर्वम्” इति विद्या- प्रकररणाद विद्यास्तुतये सर्वदा कर्मानुष्ठानानुमतिरियम् विद्या माहात्म्यात् सर्वदा कर्मकुर्वन्नपि न लिप्यते कर्मभिरिति हि विद्या स्तुता भवति । वाक्यशेषश्चैवमेवं दर्शयति " एवं त्वयि नान्यथेतो- ऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे” इति । अतो न कर्माग विद्या । वा शब्द, अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है । “यह सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है ।” इत्यादि विद्या के प्रकरण से विद्या की प्रशंसा के व्याज से, सदा कर्मानुष्ठान की अनुमति दी गई है । विद्या के माहात्म्य से सदा कर्म करते हुए भी, कर्मों से लिप्त नहीं होता, ऐसी विद्या की स्तुति की गई है । इसी प्रकरण के अंतिम वाक्य से उक्त बात स्पष्ट हो जाती है- “तुम मनुष्य होकर भी यदि इस प्रकार विद्या में स्थित रहोगे तो कोई भी कर्म तुम्हें लिप्त न कर सकेंगे ।” इससे स्पष्ट है कि - विद्या कर्म का श्रंग नहीं है । कामकारेण चैके | ३|४|१५|| अपि चैवमेके शाखिनः कामकारेण कामकारेण ब्रह्मविद्यानिष्ठस्य
( १०८० ) गार्हस्थ्य त्यागमधीयते " कि प्रजया करिष्यामो येषां नोयमात्माऽयं लोकः” इति । विदुषो विरक्तस्य कामकारेण गार्हस्थ्यकर्मत्यागं ब्रुवदिदं वचनं ब्रह्मविद्यायाः कर्मानंगत्वं दर्शयति । यज्ञादिकर्मागत्वे हि विद्यायाः विद्यानिष्ठस्य कामकारेण गार्हस्थ्यत्यागो न संभवति । श्रतो न विद्या कर्मा गम् । किसी एक वेद की शाखा में ब्रह्मविद्यापरायण व्यक्ति के लिए ग्रहस्थ कर्मों के त्याग का भी उपदेश दिया गया है “मैं संतान से क्या प्राप्त करूँगा, इससे मेरे अभीष्ट लोक की प्राप्ति नहीं हो सकती” यह श्रुति विरक्त विद्वान के गार्हस्थ्य त्याग को बतलाकर यह सिद्ध करती है कि- ब्रह्मविद्या, कर्म का अंग नहीं हैं । विद्या यदि, यज्ञादि कर्म का अंग होती तो, विद्यापरायण व्यक्ति के लिए गार्हस्थ्य कर्मों के त्याग की बात न कही गई होती । इससे स्पष्ट है कि - विद्या, कर्म का अंग नहीं हैं । उपमर्द च | ३ | ४|१६ ॥ पुण्यापुण्यरूपस्य समस्तसांसारिकदुःखमूलस्य कर्मणो ब्रह्मविद्ययोपमदं च प्रतिद्वंदांतमधीयते । “भिद्यते हृदय ग्रंथि- शिछद्यते सर्व संशयाः क्षीयंते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे " इत्यादिकम् । तद्विद्यायाः कर्मागत्वे न संगच्छते । पुण्य और पाप रूप समस्त सांसारिक दुःखों के मूल कर्म का विद्या से नाश हो जाता है, ऐसा प्रत्येक बेदांत वाक्य का मत है । " परावर ब्रह्म दृष्टि हो जाने पर हृदयस्थ अविद्या ग्रंथि छिन्न हो जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और कर्म राशियाँ क्षीण हो जाती हैं” इत्यादि । इसलिए विद्या की, कर्मा गत संगत नहीं होती । ऊर्ध्वरेतस्तु च शब्दे हि | ३ | ४ | १७ || ऊर्ध्वरेतस्स्वाश्रमेषु ब्रह्म विद्यादर्शनात् तेषु श्रग्निहोत्रदर्श- पूर्णमासादीनां यावज्जीवाधिकार श्रुतेः श्रुतिविरुद्धानां स्मृतीनां चाप्रामाण्यात् । अत प्राह शब्दे हि-इति । वैदिक एव हि शब्दे ते
( १०८१ ) श्रद्धातप दृश्यंते-” त्रयोधर्मस्कन्धाः " ये चेमेऽरण्ये एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रब्रजंति" श्रुतिस्त्वविरक्त विषया । इत्युपासते इत्यादौ । यावज्जीव- ऊर्ध्वरेतस - ब्रह्मचर्यं वाणप्रस्थ, संन्यास आदि श्राश्रमों में भी ब्रह्मविद्या का चिन्तन विहित है, उनमें अग्निहोत्र दर्शपूर्ण मास आदि कर्मों का अनुष्ठान तो हो ही नहीं सकता, इससे भी स्पष्ट है कि - विद्या, कर्म का अंग नहीं है, यदि कहें कि ऊर्ध्व रेतस आश्रम होते ही नहीं क्योंकि - “जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र यज्ञ करता है’ इत्यादि से अग्निहोत्र आदि की जीवन पर्यन्त कर्त्तव्यता निश्चित होती है इसलिए जो स्मृति वाक्य, ऊर्ध्वरेतस आश्रमों का विधान बतलाते हैं वे श्रुति विरुद्ध होने से अप्रामाणिक हैं । इस पर सूत्रकार " शब्दे हि कहकर बतलाते हैं कि- वैदिक शब्दों में ही इन आश्रमों का उल्लेख है जैसे- “धर्म की तीन शाखायें हैं “जो जंगल में श्रद्धापूर्वक उपासना करते हैं” प्रव्राजक आत्म- लाभ के लोभ से ही प्रब्रजित होते हैं” इत्यादि । जीवन पर्यन्त कर्म का उपदेश देने वाली श्रुति, ग्रहस्थों के लिए है । 7 परामर्श जैमिनिरचोदनाच्चापवदति हि | ३ | ४ | १८ || यदिदं श्रयो धर्मस्वन्धाः इत्यादौ वैदिके शब्दे ऊर्ध्वरेतस श्राश्रमदृश्यंते, प्रतस्ते सन्त्येवेतिनैतद्युपपद्यते, यतः " त्रयो धर्म- स्कन्धाः” इत्यादिषु तेषामाश्रमाणां परामर्शमात्रं क्रियते श्रनुवादमात्र- मित्यर्थः । कुत एतत् ? अचोदनात् प्रविधानादित्यर्थः । नहि त्र विधिशब्दः श्रयते, “त्रयोधर्मस्कन्धाः " इत्यादिना हि प्रकृतं प्रणवेन ब्रह्मोपासनं स्तूयते " ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति” इत्युपसंहारात् । अतोऽन्यार्थमनुवादमात्रमत्रत्रियते तेषामाश्रमाणाम् । “ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपास्यते" इति च देवयानविधिपरत्वात्तत्रापि नाश्रमान्तरविधि संभवः । श्रपि चापवदति हि श्रुतिमाश्रमांतरम् “वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुद्वासयतें” इत्यादिका । श्रत ऊर्ध्व रेतस आश्रमा न संति इति जैमिनिराचार्यो मन्यते ।
( १०८२ ) “त्रयोधर्म स्कन्धाः” इत्यादि वैदिक शब्दों में ऊर्ध्वरेतस आश्रमों का उल्लेख मिलता है, इसलिए उन आश्रमों का अस्तित्व है, ऐसा कहना भ्रामक हैं । इन वाक्यों में तो उन आश्रमों का परामर्श मात्र किया गया है, अर्थात् अनुवाद मात्र हैं । शास्त्र में इनकी विधि का उल्लेख न होने से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है । “त्रयो धर्म स्कन्धाः " में तो त्रैमात्रिक प्रणवब्रह्म की उपासना की स्तुति की गई है “ब्रह्मसंस्थव्यक्ति अमृतत्व प्राप्ति करता है” इस प्रसंग के उपसंहार परक वाक्य से यही बात ज्ञात होती है । इस वाक्य से आश्रमपरक अर्थ निकालना तो अनुवाद मात्र ही है । " जो श्रद्धा और तप से वन में उपासना करता है” यह वाक्य भी देवयान विवि परक है, इसमें भी आश्रमविधि का उल्लेख नहीं है। ग्रहस्थ के अतिरिक्त अन्य आश्रमों का स्पष्ट विरोध भी किया गया है " जो अग्नि त्याग करता है वह, देवताओं के बीर्य की हानि करता हैं" इत्यादि । इस विवेचन से निश्चित हो जाता हैं कि - ऊर्ध्वरेतस आश्रम नहीं हैं ऐसी जैमिनि प्राचार्य की मान्यता है । अनुष्ठेयं बादरायणः साम्यश्रुतेः | ३|४|१६|| ग्रहस्थाश्रमवदाश्रमान्तरमप्यनुष्ठेयं भगवान बादरायणो मन्यते । कुतः ? साम्यश्रुतेः, उपादेयतयाऽभिमतग्रहस्थाश्रम साम्यं हि तेषामप्याश्रमाणां श्रूयते । " त्रयोधर्मस्कन्धाः" इत्यारभ्य ब्रह्म- संस्थस्तुत्यर्थतया संकीर्त्तनं ग्रहस्थाश्रमस्येतरेषां च समानम्, श्रथ ग्रहस्थाश्रमस्यानुवादः प्राप्तौ सत्यामेव संभवतीति तस्य प्राप्ति- रवश्याभ्युपेत्येतिमतम्, तदितरेषामपि समानमन्यत्राभिनिवेशात् । ग्रहस्थ की तरह अन्य आश्रम भी अनुष्ठेय हैं ऐसी भगवान बादरायण की मान्यता है । ग्रहस्थाश्रम की तरह उनकी भी उपादेयता का वर्णन मिलता है । “त्रयो धर्मस्कन्धाः " से प्रारंभ करके जो ब्रह्मसंस्थ की प्रशंसा की गई है, वह ग्रहस्थ और उन आश्रमों में समान रूप से लागू होती हैं (अर्थात् ब्रह्मसंस्थ व्यक्ति चाहे ग्रहस्थ हो या उन आश्रमों का हो वह अमृतत्व प्राप्त करेगा ) यदि कहें कि - ग्रहस्थाश्रम की प्रशंसा भी अनुवाद मात्र ही है, सो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता, इसलिए उसे
( १०८३ ) तो अनुवाद मान नहीं सकते । [ अर्थात् ग्रहस्थाश्रम में तो, उपासना- ब्रह्मसंस्थता और अमृतत्व प्राप्ति वैध है ही] ग्रहस्थाश्रम के समान अन्य आश्रमों में भी मानना न्याय संगत है । न च ग्रार्हस्थ्य धर्म एव " यज्ञोऽध्ययनं दानं तपो ब्रह्मचयं इति सर्वैः शब्दैरभिधीयते ब्रह्मचर्यं तपसोर्ग्र हस्थस्यैव संभवा- दितियुक्तम्, त्रयोधर्मस्कंधा : " इति त्रित्वेन संगृह्य " प्रथमो - द्वितीय- तृतीय” इति विभागवचनानुपपत्तेः । श्रतः “यज्ञोऽध्ययनं दानं " इति ग्रहस्थाश्रम उच्यते । श्रध्ययनशब्दो वेदाभ्यासपरः । तपः शब्देन वैखानसपारिव्राज्ययोर्ग्र हरणम् उभयोः तपः प्रधानत्वात् । तपः शब्दो हि कामक्लेशेरूढः, स च द्वयोरपि समानः । ब्रह्मचारि धर्म एव ब्रह्मचर्य शब्देनाभिधीयते । केवल ग्रहस्थाश्रम ही वैदिक है तथा " यज्ञ अध्ययन, दान, तप, और ब्रह्मचर्य" इत्यादि साधन केवल ग्रहस्थाश्रम के लिए ही विधेय हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता । ब्रह्मचर्यं और तप ग्रहस्थ के लिए भी विधेय हैं यह बात ठीक है किन्तु " त्रयो धर्मस्कन्धाः " वाक्य में जो तीन का उल्लेख किया गया है वह, उक्त साधनों में प्रारंभिक - प्रथम द्वितीय तृतीय के विभाग का बोधक है, इसके अनुसार प्रारंभिक तीन साधन यज्ञ - अध्ययन और दान, ग्रहस्थ आश्रम के अनुष्ठेय - विशेष साधन हैं। अध्ययन का तात्पर्य वेदाध्य- यन से है । “तप” साधन वाणप्रस्थी और संन्यासी के लिए बतलाया गया है क्योंकि दोनों ही आश्रम तप प्रधान हैं । तप शब्द प्रायः काय क्लेश के लिए ही रूढ है जो कि दोनों आश्रमों में समान रूप से विहित है । ब्रह्मचर्य शब्द, ब्रह्मचारी की साधना का बोधक है । "" “ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति" इति परत्र श्रूयमाणो ब्रह्मसंस्थ शब्दो यौगिकः सर्वाश्रमसाधारणः सर्वेषामाश्रमिणां ब्रह्मसंस्थासंभवात् । ब्रह्मणिसंस्था - संस्थितिः, ब्रह्मसंस्थत्वम्, तच्च सर्वेषां संभवत्येव । ब्रह्मनिष्ठा विकलाः केवलाः केवलाश्रमिणः पुण्यश्लोकभाजः तेष्वेव ब्रह्मष्ठोऽमृतत्वभाग्भवति । तदेतदविस्पष्टमुक्तं भगवता पराशरेण
( १०८४ ) संन्यासिनां स्मृतम् " ब्रह्मलोक प्राप्त्यं तं “प्राजापत्यं ब्राह्मणानां” इत्यारभ्य “ब्रह्मं " इत्यन्तेन वर्णानामाश्रमाणां च केवलानां फलमभिधाय " एकांतिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये तेषां तत्परमं स्थानं यदवै पश्यंति सूरयः” इति तेष्वेव ब्रह्मनिष्ठानां ब्रह्मप्राप्तिमभिदत्रता । प्रतो ग्रहस्थाश्रमतुल्याः ऊर्ध्वरेतस श्राश्रमा अपि दृश्यन्त इति तेऽप्यनुष्ठेयाः । “येचेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते" इति च अरण्ये इति तपः प्रधानाश्रमप्राप्त्यपेक्षत्वात् देवयान विधानस्य तत्रापि तत्प्राप्तिरंगीकरणीया । , “ब्रह्मसंस्थ व्यक्ति अमृतत्व प्राप्त करता है” इस अंतिम वाक्य में प्रयुक्त ब्रह्मसंस्थ शब्द यौगिक है, जो कि सभी आश्रमों के लिए समान रूप से प्रयोग किया गया है । इसलिए सभी आश्रम में ब्रह्मसंस्थता संभव है । ब्रह्म विषयक संस्था अर्थात् सम्यक् स्थिति को ब्रह्मसंस्थता कहते हैं । जो ब्रह्म संस्थता से विहीन केवल आश्रम धर्म का पालन करने वाले हैं, वे सब स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, उन्हीं में जो लोग ब्रह्मसंस्थ होते हैं वे अमृतत्त्वप्राप्त करते हैं, ऐसा भगवान पराशर ने स्पष्ट कहा है- “ब्राह्मणों को प्राजापत्य लोक मिलता है” से “संन्यासियों को ब्रह्म लोक मिलता है” इस वाक्य तक सभी वर्ण और आश्रमों की वर्णाश्रमानुसार पारलौकिक गति बतलाकर “जो लोग सदा ब्रह्म ध्यान में लीन रहते हैं, उन्हे परंपद प्राप्त होता है, उसे उपासक ही देख पाते हैं” इत्यादि से ब्रह्मनिष्ठ व्यक्तियों की ब्रह्म प्राप्ति स्पष्ट बतलाई गई है । इससे ज्ञात होता है कि- ग्रहस्थ की ही तरह ऊर्ध्वरेतस आश्रम भी हैं, उनका भी पालन करना चाहिए । “ये चेमेऽरण्ये" इत्यादि वाक्य में “अरण्ये” पद से वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम का निर्देश किया गया है । देवयान कें विधान में यह वाक्य अनूदित होते हुए भी इसकी तद्विषयक विधि भी स्वीकारनी चाहिए, अनुवाद की सिद्धि में प्रमाणान्तर की अपेक्षा होती है । परामर्शपक्षे विधानपक्षे च ग्रहस्थाश्रमतुल्यमेषामप्यनुष्ठेयत्व
( १०८५ ) मित्युपपाद्य विधिरेवायमाश्रमाणां सर्वेषां नानुवाद इत्युपपादयितुं श्राह- परामर्श और विधान के आधार पर ग्रहस्थाश्रम की तरह अन्य आश्रमों की अनुष्ठेयता बतलाकर, अब बतला रहे हैं कि सभी आश्रम वैध हैं अनुवाद मात्र नहीं है- विधिर्वा धारणवत् | ३ | ४|२०|| धारणवत्- वा शब्दोऽवधारणार्थः । विधिरेवायमाश्रमाणां यथादिष्टाग्निहोत्रे " अधस्तात्समिधं धारयन्ननुद्रवेदुपरि हि देवेभ्यो धारयति" इत्यत्रानुवादसरूपादपि वाक्यादुपरिधारणस्याप्राप्तत्वाद- विधिराश्रीयते, तदुक्त शेषलक्षणे “विधिस्तु धारणेऽपूर्वत्वात्” इति, तथाऽत्राप्यप्राप्तत्वाद्विधिरेवाश्रयणीयः “ब्रह्मचयं समाप्यगृही भवेत् गृहादवनी भूत्वा प्रव्रजेत् यदिवेतरमा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् गृहाद वा वनादवा यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्" इति जाबालानामा- श्रम विधिमसंतमिवकृत्वैतेष्वन्यपरेष्वपि वाक्येष्वाश्रमप्राप्तिरवश्या- श्रयणीत्येत्युपपादितम् । एवमाश्रमान्तरविधानादृणश्रुतिर्यावज्जीव- श्रुतिपवादश्रुतिश्चाविरक्तविषया एवेति वेदितव्याः । अन्याश्च ब्रह्मविदः कर्मणामप्रयाणादवश्यकर्त्तव्यता विधायिन्यः श्रुतयः स्मृतयश्च स्वस्वाश्रमधर्मविषयः, प्रत ऊर्ध्वरेतस्सु च ब्रह्मविद्या विधानाद विद्यातः पुरुषार्थ इति सिद्धम् । वा शब्द अवधारणार्थक है । शास्त्र में सभी आश्रमों की विधि का उल्लेख है । जैसे कि- आदिष्ट अग्निहोत्र यज्ञ के अधस्तात ‘समिव’ इत्यादि में ऊपर धारण करने की बात अनुवादमात्र ही है, बिना विधि के, अनुवाद की बात नहीं बनती, इसलिए “धारयति” अनुवाद पद को विधि पद के रूप में " धारयेत" मानना पड़ेगा । जैसे कि - पूर्वमीमांसा के शेष लक्षण में कहा भी गया है- ‘धारण क्रिया जब कहीं प्राप्त न हो तो धारणा में विधि की कल्पना करनी चाहिए" वैसे ही ऊर्ध्वरेतस आश्रमों
( १०६६ ) का स्पष्ट उल्लेख न मिलने से अनुवाद से ही विधि की ही कल्पना करनी होगी । “ब्रह्मचर्यं समाप्त कर गृही होवे, गृही होकर बनी होवे, बनी होकर प्रव्रज्या ग्रहण करे, श्रथवा सामर्थ्य होने पर ब्रह्मचर्य से ही प्रव्रज्या ग्रहण करे, जहाँ भी वैराग्य का संचार हो वहीं से संन्यासी हो जावे” इस जाबालो पनिषद् में तो आश्रमों की विधि का स्पष्ट उल्लेख भी है । अन्य वाक्यों में भी जहाँ आश्रमों का वर्णन मिलता है, उसमें भी आश्रमों की अवश्य आश्र यता का उपपादन ही समझना चाहिए । इस प्रकार आश्रमों के सदभाव के प्रमाणित हो जाने पर ऋषि श्रुति, यावज्जीव श्रुति, अपवाद श्रुति आदि ग्रहस्थ विषयक ही हैं, ऐसा समझना चाहिए। और जो, श्रुति श्रौर स्मृति वाक्य, ब्रह्मवेत्ताओं के संबंध में आमरणकाल तक कर्त्तव्यता का विधान करते हैं, वह उन आश्रमों के धर्म के अनुसार विधान करते हैं । ऊर्ध्वरेतस आश्रमों में भी जो ब्रह्मविद्या का विधान किया गया है, उससे सिद्ध होता है कि - विद्या से पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है । २ स्तुतिमात्राधिकरणः- स्तुतिमात्रमुपादानादिति चेन्ना पूर्वत्वात् | ३ | ४|२१| इदमिदानीं चिन्त्यते " स एष रसानां रसतमः परमः परार्थ्यो- ऽष्टमो यदुद्गीथः" इति एवं जातीयकानिवाक्यानिऋत्ववयव भूतोद्गीयादिस्तुतिमात्रपराणि, युक्तम् ? । ग्राहोस्वित् उद्गीथादिषु रसतमादिदृष्टिविधानार्थानीति । अत्र प्रतिपादितमुपासनपरत्व- मंगीकृत्योपासनस्य पुरुषार्थत्वेन क्रतुषूपादाननियम उक्तः । कि स्तुतिमात्रपराणीति । कुतः ? उद्गीथाद्युपादानात् । क्रत्वंगभूतानि हि उदगीथादीन्युपादाय तेषां रसतमादित्वं प्रतिपादितम् । यथा जुह्वादीनां पृथिव्यादित्वं प्रतिपादयतो वचनस्य " इयमेव जुहूः स्वर्गो लोक ग्राहवनीयः" इत्यादिकस्य तत्स्तुतिमात्र- परत्वं तथेहापि । तदिदमाशंकते - स्तुतिमात्रमुपादानादिति चेत् इति । ।
( १०८७ ) उद्गीथाद्युपादानात्तत्स्तुतिमात्रमेवैषां चेत् । वाक्यानां विवक्षित मिति अब विचार करते हैं कि- “वह रसों का परमरस आठवाँ उद्गीथ नामक रस है” इस प्रकार के वाक्यों को यज्ञांग रूप उद्गीथ के स्तुतिपरक माना जाय अथवा उद्गीथ में रसतम दृष्टि का विधायक कहा जाय ? पहिले तो इसे उपासना परक, तथा उपासना के ही पुरुषार्थ साधक तथा यज्ञ में उपासना की आवश्यकर्त्तव्यता को अनियमित बतला चुके हैं, अब यह विचारना है कि युक्ति संगत क्या है? स्तुतिपरक ही कह सकते हैं, उद्गीथ आदि के उपादान से ऐसा ही समझ में आता है । यज्ञांग रूप उद्गीथ आदि के आधार पर उद्गीथ आदि संबंधी रसतम आदि भावों का प्रतिपादन किया गया है। जैसेकि - यज्ञांगजुहू में आदि के प्रति- पादक “पृथिवी ही जुहू है जो कि स्वर्ग में आहवनीय है” वाक्य जुहू के ही बोधक हैं । इसपर शंका करते हैं कि-संपूर्ण स्तुति के लिए अवलंवन किया गया है अथवा अंश में ही किया गया है? इस पर कहते हैं कि- उद्गीथ आदि का उपादान होने से इन वाक्यों का स्तुतिमात्र ही विवक्षित है । सिद्धान्तः - श्रत्रोत्तरं ना पूर्वत्वात् इति । न स्तुतिमात्रत्वमुपपद्यते, कुत: ? अपूर्वत्वात् अप्राप्तत्वात् । न हि उद्गीथादयो रसतमादितया प्रमाणान्तरेण प्रतिपन्नाः, येन तत्प्राशस्त्यबुद्धयुत्पत्यथं रसतमादि- त्वेनानूद्येरन् । न चोद्गीथादिविधिरत्र सन्निहितः येन " इयमेवजुहूः स्वर्गो लोक आहवनीयः" इत्यादिवत्तदेकवाक्यत्वेन ययाकयाचन विघया तत्स्तुतिपरत्वमाश्रीयेत । अतः क्रतुवीर्यवत्तरत्वादिफलसिद्ध्य- र्थमुद्गीथादिषु रसतमादिदृष्टिविधानमेव न्याय्यम् । सिद्धान्तः – यह वाक्य स्तुतिपरक मात्र नहीं है, ऐसा किसी भी श्रुति में प्रमाण भी नहीं मिलता। उद्गीथ आदि की रसतमता किन्हीं अन्य प्रमाणों से सिद्ध नहीं है उसमें तो श्रुति ही प्रमाण है इसलिए रसमयता को केवल स्तुतिमात्र नहीं कहा जा सकता । " इयमेव जुहु " की तरह उद्गीथ आदि स्तुतिपरक नहीं है “इयमेव जुहू” इत्यादि में तो,
( १०८६ ) किसी प्रकार विधिसमानार्थक मानकर स्तुतिपरता की कल्पना की गई है। यज्ञ की प्रबलतम फलावाप्ति की फलश्रुति के आधार पर उद्गीथ आदि की रसमयता स्वीकारना ही न्याय संगत है । भावशब्दाच्च | ३|४|२२|| " उपासीत्" इत्यादि भावशब्दाच्च विधिपरत्वमेव न्याय्यम् । विधिप्रत्यय युक्तो हि क्रियाशब्दो विधेयमेव स्वार्थमवगमयति । तस्मादुपासनविधानार्था एताः श्रुतयः । “उपासीत्” इत्यादि भावात्मक शब्दों के प्रयोग से उद्गीथादि को विधिपरक मानना ही उचित है, विधिप्रत्यययुक्त क्रिया बोधक शब्दों से- अनुष्ठेय विषय का वास्तविक अर्थ प्रतीत होता है । इससे यह निश्चित होता है कि ये श्रुतियाँ विधानार्थी हैं, केवल स्तुति मात्र नहीं । ३ पारिप्लवाधिकरणः- पारिप्लवार्या इति चेन्न विशेषितत्वात् |३|४|२३|| “प्रतर्दनो ह वै दैवोदा सिरिन्द्रस्य प्रियं धामोपजगाम” श्वेत- केतुर्हारुणेय श्रास " इत्येवमादीनि वेदान्तेष्वाख्यानानि कि पारिप्लव प्रयोगार्थानि उत विद्याविशेष प्रतिपादनार्थानीति चिन्तायाम् " श्राख्यानानिशंसन्ति" इत्याख्यानानां पारिप्लवे विनियोगान्न विद्या प्रधानत्वं न्याय्यम् इति चेत्- दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन इन्द्र के प्रिय भवन में गया" श्वेततकेतु आरुणेय का" इत्यादि वेदांतों के आख्यान, क्या पारिप्लव प्रयोग हैं अथवा विद्या विशेष के प्रतिपादक हैं? इस विचार पर " आख्यायिकाओं का पाठ करो" इस विधि वाक्य के अनुसार तो, पारिप्लव प्रयोग ही प्रतीत होता है, विद्याविशेष मानना उचित नहीं है । सिद्धान्तः - न सर्वाण्याख्यानि पाप्लिव प्रयोगे विनियोगमर्हन्ति, कुतः ? विशेषितत्वात् विनियोगस्य । " आख्यानानिशंसन्ति " इत्युक्त्वा ( १०५९ ) तत्रैव “मनुर्वैवस्वतो राजा" इत्यादिना मन्वादीनामाख्यानानि विशेष्यन्ते, अतस्तेषामेव तत्र विनियोग इति उच्यते । तस्मान्न सर्वा वेदांनेष्वाख्यानश्रुतयः विध्यर्थाः । पारिप्लवप्रयोगार्था: श्रपितु विद्या सिद्धान्तः - सभी आख्यान, पारिप्लव प्रयोग वाले नहीं माने जाने, प्रयोग के लिए विशेष आख्यानों का हो उल्लेख मिलता है - “आख्यानों का पाठ करो” ऐसा विधान बतलाकर " सूर्यवंश में मनु नामक राजा हुए" इत्यादि में विशेष आख्यानों का उल्लेख किया गया है । इससे निश्चित होता है कि-वेदांतों के सभी बाख्यान पारिप्लव प्रयोग के लिए नहीं हैं, अपितु विद्यार्थक भी हैं । तथाचैकवाक्योपबंधात् | ३|४|२४|| “आत्मा वा अरे दृष्टव्यः” इत्यादिविधितैकवाक्यतयोपबंधा चाख्यानानां विद्याविध्यर्थान्येव तानीति गम्यते, यथा- " सोऽरोदीत्" इत्येवमादेः कर्मविध्यर्थत्वम्, न पारिप्लवार्थत्वम् ।
" आत्मा को देखना चाहिए" इत्यादि विधिपरक वाक्यों की एक वाक्यता से ज्ञात होता है कि उनसे संबद्ध आख्यायिकायें, विद्या विधि की परिपोषक हैं, जैसे कि- ‘सोऽरोदीत्" इत्यादि कर्मविधि की पोषक हैं। इससे सिद्ध होता है कि वेदांतों की आख्यायिकायें, पारिप्लवार्थक नहीं हैं । ४ अग्नधनाद्याधिकरणः – अतएव चाग्नीन्धनाद्यनपेक्षा | ३|४|२५| स्तुतिप्रसंगादवांतरगसं तिविशेशणार्थद्वयं चिन्तितम् विद्यावंत ऊर्ध्वरेतस प्राश्रमिणः संतीत्युक्तम् " ऊर्ध्वरेतस्सु च शब्दे हि " इत्यादिभिः सूत्रः । इदानीमूध्वं रेतसो यज्ञाद्यभावात्तदंगिका विद्या न संभवतीत्याशंक्याह - प्रतएव चाग्नीन्धानाद्यनपेक्षा - इति । यत
( १०१० ) ऊर्ध्वं रेतस श्राश्रमिणो विद्यासंबंधित्वेन श्रुत्या संस्थोऽमृतत्वमेति - " ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप परिगृह्यन्ते - " ब्रह्म- इत्युपासते" एतमेव प्रब्राजिनो लोकमिच्छंतः प्रब्रजन्तः “यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरति " इत्यादिकया श्रतएवोर्ध्वरेतस्सु विद्या अग्नीन्धनाद्यनपेक्षा अग्नीधनम्, अग्न्याधानम् श्राधानपूर्वका ग्निहोत्रदर्शपूर्ण मासादिकर्मानपेक्षा तेषु विद्या । केवल स्वाश्रमविहित कर्मापेक्षेत्यर्थः । स्तुति के प्रसंग में दो आवश्यक बातों पर विचार प्रस्तुत करते हैं । “ऊर्ध्वरेतस्सु शब्दे हि” इत्यादि सूत्रों से ज्ञानी ऊर्ध्वरेतस आश्रम वालों का माहात्म्य बतलाया । उन आश्रम वालों का यज्ञादि कर्मों में अनधिकार है, यज्ञ की पोषिका विद्या में भी अनधिकार है ? ऐसी शंका करके उसका समाधान करते हैं । " ब्रह्मसंस्थ अमृतत्व प्राप्त करते हैं “श्रद्धा और तप से अरण्य में उपासना करते हैं” आत्मलोक की प्राप्ति के लिए संन्यासी संन्यास ग्रहण करते हैं “जिसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं” इत्यादि श्र तियों से ज्ञात होता है कि ऊर्ध्वरेतस आश्रमों का भी विद्या में अधिकार है, ऊर्ध्वरेतसों की विद्या अग्नि इंधन आदि सापेक्ष नहीं है । अग्नींधन का तात्पर्य है, अग्न्याधान, अर्थात् आधान- पूर्वक अग्निहोत्र दर्श पूर्णमास आदि कर्मों की विरक्त आश्रमवालों को अपेक्षा नहीं होती । केवल अपने आश्रम से विहित कर्मों की ही अपेक्षा होती है । ५ सर्वापेक्षाधिकरणः- सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रु तेरश्ववत् | ३ | ४|२६|| यदि विद्या यज्ञाध्यनपेक्ष वामृतत्वं साधयति, तहिं गृहस्थेष्वपि तदनपेक्षैव साधयितुमर्हति यज्ञादि श्रुतिरपि “विविदिषंति” इति शब्दात् कर्मणो वेदनांगतां न प्रतिपादयतीति । यदि विद्या, यज्ञादि के बिना ही अमृतत्व का साधन करती है तो गृहस्थों में भी बिना यज्ञादि के अमृतत्व साधन कर सकती है? यज्ञादि
( १०६१ ) की प्रतिपादिका कर्म को विद्या का अंग नहीं बतलाती ऐसा ही समझना चाहिए । मिद्धान्तः प्रतप्राह सर्वापेक्षा इति । अग्निहोत्रादिसर्वकर्मापेक्षेव विद्याकर्मवत्सु गृहस्थेषु, कुतः ? यज्ञादिश्रुतेः । " तमेतं वेदानुवचनेन- ब्राह्मणा विविदिषंति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन” इत्यादिना याज्ञादयो हि विद्यांगत्वेन श्रूयंते । यज्ञादिना विविदिषंति वेदितु- मिच्छति, यज्ञादिभिर्वेदनं प्राप्तुमिच्छंतीत्यर्थः । यज्ञादीनां ज्ञान साधनत्वे सत्येव यज्ञादिभिः ज्ञानं प्राप्तुमिच्छंतीति व्यपदेश उपपद्यते, यथा प्रसेननसाधनत्वे सति प्रसिना जिघांसतीति व्यपदेश:, अतो यज्ञादीनां, ज्ञानसाधनत्वमवगम्यते । ज्ञानं च वाक्यार्थज्ञानादर्थान्तर- भूतं ध्यानोपासनादिशब्दवाच्यं विशदतमप्रत्यक्षतापन्न स्मृतिरूपं निरतिशयप्रियमहरह रभ्यासाधेयातिशयमाप्रयाणादनुवर्त्तमानं मोक्ष- साधनमित्युक्तमस्माभिः पूर्वमेव, वक्ष्यति च “प्रवृत्तिरसकृदुपदेशात्” इत्यादिना । एवं रूपं च ध्यान महहरनुष्ठीयमानैर्नित्यनिमित्त कर्मभिः परमपुरुषाराधनरूपैः परमपुरुष प्रसादद्वारेण जायत इति यज्ञादिना विविदिषंतोति शास्त्रेण प्रतिपाद्यते । अतः कर्मवत्सु गृहस्थेषु यज्ञादिनित्यनैमित्तिक सर्वकमपिक्षा विद्या । अश्ववत् यथा गमन साधन भूतोऽश्वः स्वपरिकरबंधपरिकर्मापेक्षः, एवं मोक्षसाधन- भूताऽपि विद्या नित्यनैमित्तिककर्मपरिकरापेक्षा । तदिदमाह स्वयमेव भगवान् " यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्, यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् “यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदंत- तम्, स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विदंति मानवः” इति । उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि - गृहस्थों के लिए विद्या, कर्मसापेक्ष है । कर्मयोगी गृहस्थों में, अग्निहोत्र आदि सर्व कर्म सापेक्ष विद्या का विधान है । ऐसा यज्ञादि प्रतिपादिका श्रुतियों से ही सिद्ध होता है । “ब्राह्मण, यश-दान-तप और अनासक्ति कर्म द्वारा इस आत्मा को
( २०१२ ) जानने की इच्छा करते हैं” इत्यादि श्रति, यज्ञ आदि को विद्या का अंग बतलाती हैं । यज्ञादि से विविदिषा करते हैं का तात्पर्य है कि यज्ञादि से विद्या प्राप्ति की इच्छा करते हैं । यज्ञादि सब ज्ञान के साधक हैं फिर भी यज्ञादि के सहयोग से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, यही उक्त वाक्य का सही अर्थ है । जैसे कि खड्ग हिंसा का साधन हैं, फिर भी “खड्ग से मारता है” ऐसा प्रयोग किया जाता है जो कि क्रियात्मकता का बोधक है। इस प्रकार यज्ञादिकों की ज्ञान साधकता ज्ञात होती है । उक्त वाक्य में जिस ज्ञान का उल्लेख है वह शास्त्रीय ज्ञान से भिन्न वस्तु है जो कि ध्यान उपासना आदि शब्द वाच्य, सर्वाधिक प्रिय सुस्पष्ट प्रत्यक्षभावापन्न स्मृति स्वरूप है । यह मृत्यु काल पर्यन्त निरंतर अहर्निश अभ्यास द्वारा उत्कृष्ट होकर मोक्ष साधन करता है, यह बात पहिले ही सूत्र में कही गई है । “आवृति सकृदुपदेशात्” में यही वाद सूत्रकार भी कहते हैं परमपुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति के उपाय नित्य नैमित्तिक कर्म के, निरंतर अनुष्ठान से, परम पुरुषोत्तम के अनुग्रह के फलस्वरूप ही उक्त ज्ञान का उदय होता है, यही बात “विविदिषंति” इत्यादि से प्रतिपादित है कर्मयोगी गृहस्थों की उपासना निश्चित ही यज्ञादि कर्म सापेक्ष है । जैसे कि घोड़ा, गमन का साधन होते हुए भी, अन्यान्य गमनोपयोगी साधनों से सापेक्ष होता है, वैसे ही मोक्ष साधनभूत विद्या, नित्यनैमित्तक आदि सहायक कर्मों से सापेक्ष होती है । भगवान् स्वयं ही उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं- " यज्ञ - दान तप और कर्म कभी परित्याज्य नहीं हैं, अनुष्ठेय हैं, यज्ञ - दान और तप ही उपासकों को पवित्र करते हैं सारे भूत जिससे उत्पन्न होते हैं, जिसमें यह सारा जगत व्याप्त है, मानव, अपने कर्त्तव्य कर्म से उसकी उपासना करके उसे प्राप्त करते हैं । " ५. शमदमाद्यधिकरणः- शमदमाद्युपेतः स्यात्तथापितुतद्विधेः तदंगतया तेषामप्यवश्यानुष्ठे- यत्वात् ३ | ४ | २७॥ ग्रहस्थस्य शमदमादीन्यप्यनुष्ठेयानि उत न ? इति चिन्तायाम श्रान्तरवाह्यकरणव्यापाररूपत्वात् कर्मानुष्ठानस्य शमदमादीनां तद्- विपरीत रूपत्वाच्चाननुष्ठेयानि ।
( १०६३ ) ग्रहस्थ के लिए शमदम आदि साधन भी अनुष्ठेय हैं या नहीं ? इस संशय पर विचारने पर समझ में आता है कि कर्मानुष्ठान तो बाह्य और आभ्यंतर साधनों द्वारा साध्य हैं तथा शमदम आदि इसके विपरीत हैं, इसलिए ग्रहस्थों द्वारा वे साध्य नहीं है । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते यद्यपि गृहस्थः करणव्यापार- रूप कर्मसु प्रवृत्तः तथापि स विद्वान् शमदमाद्युपेतः स्यात् कुतः ? तदंगतयातद्विधे विद्यांगतया तेषां विधेः " तस्मादेवंविच्छांतो दांत उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वाऽत्मन्येवात्मानं पश्येत्” इति । दृष्टपरिकरत्वाच्छमादीनां, । विद्योत्पत्तेश्चित्तसमाधानरूपत्वेन विद्यानिवृत्तये तेषां शमदमादीनामप्यवश्यानुष्ठेयत्वाच्च तान्य- प्यनुष्ठेयानि । न च करणव्यापार तद् विपर्ययरूपत्वेन कर्मणां शमदमादीनां च परस्परविरोधः, भिन्नविषयत्वात् विहितेषु करण व्यापारः, प्रविहितेषु प्रयोजनशून्येषु च तदुपशम इति । न च करणव्यापाररूप कर्मसु वर्त्तमानस्य वासनावशाच्छमादीना- मुपादेयत्वसंभवः, विहितानां कर्मणां परमपुरुषाराधनतया तत्प्रसाद- द्वारेण निखिलविपरीतवासनोच्छेदहेतुत्वात् श्रतो गृहस्थस्य शम- दमादयोऽप्यनुष्ठेयाः । उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं - यद्यपि गृहस्थ करणव्यापार रूप कर्मों में ही प्रवृत्त होते हैं फिर भी वे गृहस्थ साधक शमदम आदि साधन कर सकते हैं, विद्या के अंगरूप से उनकी विधि कही गई है- “ऐसे ज्ञानी पुरुष शांत दांत उपरति तितिक्षु और समाहित होकर स्वतः ही आत्म- स्वरूप का दर्शन करते हैं ।” ज्ञानोत्पत्ति अर्थात् चित्त समाधानात्मक ज्ञान साधन में, शमदम आदि की प्रत्यक्ष उपयोगिता देखी जाती है । विद्या की उत्पत्ति के लिए शमदम आदि के अनुष्ठान की आवश्यकता है, इसलिए भो उनका अनुष्ठान आवश्यक है । कर्म और शमदम आदि नितांत विप- रीत विषयक हैं इसलिए, करणव्यापार संपादित कर्म और उससे विपरीत रूप वाले शमदम आदि में परस्पर विरोध नहीं हो सकता । विहित विषयों में इ ंद्रियों के व्यापार को कर्मानुष्ठान तथा निष्प्रयोजन इद्वियों
१०६४ ) के व्यापार को निवृत्ति को उपशम कहते हैं। ऐसा नहीं है कि-करण- के कारण वासनावश शमदम आदि ही कर्म जब परमपुरुष परमात्मा के तो उनकी कृपा से सारी ही विपरीत इसलिए गृहस्थ से भी शममद आदि व्यापार रूप कर्मों में लगे रहने का पालन किया जा सके सारे आराधन में ही नियुक्त रहते हैं वासनाओं का उच्छेद हो जाता है’ अनुष्ठेय हैं । ७. सर्वान्नानुमत्याधिकरणः- सर्वान्नानुमतिश्च प्राणात्यये तद्दर्शनात् |३|४|२८|| वाजिनां छंदोगानां च प्राणविद्यायां “न हवा श्रस्यानन्नं दग्धंभवति नानन्नं परिगृहीतं भवति” न हवा एवं विदि किंचनानन्नं भवति" इति प्राणविदः सर्वान्नानमतिः संकीत्यंते’ किमिमं प्राण- विद्या निष्ठस्य सर्वान्नानुमतिः सर्वदा, उत प्राणात्ययापत्ताविति विशयेविशेषादुपादानात् सर्वदा - वाजसनेयी और छांदोग्य की प्राणविद्या में - “ये प्राणोपासक कुछ भी अभक्ष्य नहीं खाते” प्राणोपासकों के लिए अभक्ष्य नहीं है “इत्यादि में प्राणोपासकों के लिए सर्वभक्षता कही गई है वह सर्वकालिक विधि है या आपत्कालीन ? विचारने पर तो ऐसा लगता है कि-प्राणो पासकों के लिए जो विशेष निर्देश किया गया है, उससे तो सार्वकालिक ही प्रतीत होती है ! सिद्धान्तः – इति प्राप्त उच्यतें प्राणात्यये - इति । च शब्दोऽवधा - रणे, प्राणात्ययापत्तावेव सर्वान्नाभ्यनुज्ञा, किं पुनः प्राणविदः । उषस्तिः किल चाक्रायणो ब्रह्मविदग्रसरो मटचीहतेषु दुर्भिक्ष- दूषित ष्वभ्यग्रामे वसन्ननशनेन प्राणसंशयमापन्ने ब्रह्मविद्यानिष्पत्तये प्राणानामनवसादमाकांक्षमाण इभ्यंकुल्माषान् खादन्तं भिक्ष- माणस्तेन च उच्छिष्टेभ्योऽन्ये न विद्यन्त इति प्रत्युक्तः पुनरपि “एतेषां मे देहि” इत्युक्त्वा तेन चेभ्येनोच्छिष्टेभ्य प्रादाय दत्तान्
( १.२५ } कुल्माषान् प्रतिगृह्यानुपानप्रतिग्रहमिभ्येनाथितः " उच्छिष्टं वै मे पोतं स्यात्” इति वदन् चाक्रायणः किमेते कुल्माषा अनुच्छिष्टा इति इभ्येन पर्यनुयुक्तः “न वा प्रजीविष्यमिमानखादन कामो म उदपानम्” इति कुल्माषा खादने स्वस्यप्राणसंशयापत्तेस्तावन्मात्र- खादनेन धृतप्राणस्य स्वस्योच्छिष्टोदकपानं कामकारितं निषिद्ध स्यादित्युक्तवा स्वखादितशेषं जायायै दत्वातया च रक्षितान् श्रपरेद्युः याजनेनाजिजोषया जिगिमिषुः पुनरपि प्राणसंशयमापन्नः तानेवे- भ्योच्छिष्टान् स्वोच्छिष्टभूतान् पर्युषितांश्चखाद । प्रतोब्रह्मविदा- मपि प्राणसंशय एव सर्वान्नानुमतिदर्शनादत्राविशेषेण कीर्तितमपि प्राणविदः सर्वान्नीनत्वं प्राणात्ययापत्तावेवेति निश्चीयते । सिद्धान्तः - प्राण की रक्षा के लिए आपत् धर्म के रूप में हो अभक्ष्य भक्षण की बात कही गई है । सूत्रस्थ वा शब्द अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है जिससे तात्पर्य होता है कि प्राणान्तक आपत्ति के समय ही सब कुछ ग्रहण किया जाना चाहिए। ब्रह्मोपासक मात्र के लिए प्रणांतक आपत्ति आने पर सर्वभक्षता का उदाहरण मिलता है । केवल प्राणविद्योपासकों के लिए हो ऐसा विधान हो सो बात नहीं है। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ उषस्ति चाक्रायण वज्र दग्ध कुरुदेश के अकाल पीड़ित होने पर किसी महावतों के गाँव में जाकर बस गए, अनशन से जब उनकी संशयित दशा हो गई, जीवन का भी ठिकाना नं रहा तब उन्होंने उर्द खाने वाले किसी महावत से अन्न की आंकाक्षा की, हस्तिपक ने कहा कि- मैं जो खा रहा हूँ उसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है, इस पर ऋषि ने वे झूठे उर्द ही मांग कर खाए, भोजन के बाद जब हस्तिपक उन्हें अपना झूठा जल देने लगा तब उन्होंने कहा कि मुझे झूठा पीने का पाप लगेगा । इस पर हस्तिपक ने पूछा कि - “क्यां मेरे उर्द झूठे नहीं थे ?” इस पर ऋषि ने कहा कि यदि मैं उर्द न खाता तो जीवित न रह पाता, इसलिए उसमें दोष नही है, परन्तु जल तो मुझे अन्यत्र भी प्राप्त हो सकता है, इसलिए उसे ग्रहण करने पर मुझे दोषं होगा ।
( १०६६ ) इस प्रसंग में देखा जाता है कि- उर्द भोजन के अभाव में प्राण वियोग की संभावना थी, इसलिए जीवनोपयोगी उर्दों का भक्षण वैध ही रहा परन्तु यदि वह जल पीते तो उन्हें स्वेच्छाचारिता का दोष प्राप्त होता। उन्होंने अपने अर्धभुक्त उर्द स्त्री को दिये उसने उसमें से कुछ खाकर दूसरे दिन के लिए बचा लिये दूसरे दिन भी ऋषि ने उन अवशिष्ट उर्दों से अपने जीवन की रक्षा की। इस प्रसंग से निश्चित होता है कि ब्रह्म- वेता भी प्राणरक्षा के लिए अभक्ष्य भक्षण कर सकते हैं । इसी प्रकार प्राणोपासक भी अभक्ष्य भक्षण कर सकते हैं । प्राणात्यय काल में ही अभक्ष्य भक्षण की वैधता सिद्ध होती है । अबाधाच्च |३|४|२६॥ " आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धिः सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः” इति ब्रह्मविद्योत्पत्तावाहारशुद्धि विधानावाधादपि ब्रह्मविदां सर्वान्नी- नत्वामापद्विषयमवगम्यते । एवं ब्रह्मविदामतिशयशक्तीनामपि सर्वान्नीनत्व स्यापदविषत्वात् प्राणविदोऽल्पशक्त : सर्वान्नानुमति- रायद्विषयैव । " आहार शुद्धि से आत्म शुद्धि तथा आत्म शुद्धि से भगवत्स्मृति होती है ।" इत्यादि श्रुति में, ब्रह्मविद्या की सिद्धि के लिए, आहार शुद्धि वा महत्त्व बतलाया गया है, भगवच्चितन में बाधा न पड़े, इसलिए ब्रह्मवेत्ताओं को प्राणात्यय काल में सर्वभक्षण विहित है । प्राणोपासक तो अत्यल्प शक्तिशाली होते हैं उनके लिए तो उक्तकाल में सर्वभक्षण वैध ही है। आपत्तिकाल में ही अभक्ष्य भक्षण वैध है । अपि स्मयं | ३ | ४|३०|| श्रपि च श्रापद्विषयमेव सर्वान्नीनत्वं ब्रह्मविदामन्येषां च स्मयंते - " प्राणसंशयमापन्नो योऽन्नमत्ति इतस्ततः लिप्यते न स पापेन पदमपत्रमिवांभसा" इति । ब्रह्मवेत्ताओं के लिए, ऐसी आपतकालीन सर्वानभक्षणता स्मृति से भी विद्दित है जैसे- “जो जीवन के संशयित हो जाने पर इधर उधर
१०९७ ) कहीं से भी प्राप्त कर मन्न खा लेता है, वह कमल के पत्र के समान पाप से लिप्त नहीं होता ।” शब्दश्चातोऽकामकारे ३१४|३१|| यतो ब्रह्मविदामन्येषां च सर्वान्नीनत्वमापद्विषयमेव, प्रतएव सर्वेषामकामकारे शब्द: कामकारस्य प्रतिबोधकः शब्दो वर्त्तते । अस्ति हि कठानां संहितायां कामकारस्य प्रतिषेधकः शब्द. तस्माद् ब्राह्मण सुरां न पिबति पाप्मना नोत्सृजा इति पाप्मना संस्पृष्टो न भवानीति मत्वा ब्राह्मणः सुरां न पिबतीत्यर्थः । ब्रह्मवेत्ता के अतिरिक्त सभी को, आपतकाल में ही सर्वान भक्षण की आज्ञा दी गई है । कठ संहिता में स्वेच्छाचरण का स्पष्ट निषेध किया गया है - “मुझे पाप लगेगा ऐसा विचार कर ब्राह्मण सुरा पान नहीं करता ।” इसका तात्पर्य है कि मैं पाप से स्पृष्ट न होने पाऊँ, इसलिए ब्राह्मण सुरापान नहीं करता । ८. विहितत्वाधिकररणः विहितत्वाच्चाश्रमकर्मापि | ३ | ४|३२|| यज्ञादि कर्मागिकाब्रह्मविद्येत्युक्तम्, तानि च यज्ञादीनि कर्माण्यमुमुक्षुणा केवलाश्रमिणाऽप्यनुष्ठेयानि, उत न ? इति चिन्तायां, विद्यांगानां सतां केवलाश्रमशेषत्वे नित्यानित्यसंयोग विरोध: प्रसज्यत् इति यज्ञादीनां केवलाश्रमधर्मत्वं न संभवति । यज्ञादि कर्म, ब्रह्मविद्या के अंग हैं यह बतलाया गया । अब विचारा जाता है कि जो लोग आश्रम धर्म का पालन करते हैं, यज्ञादि कर्म उनके लिए भी विहित है कि नहीं ? इस पर विचार करने पर समझ में आता है कि जो लोग विद्योपासक नहीं हैं केवल आश्रम धर्म पालक हैं, वे यदि यज्ञादि कर्म करेंगे तो, नित्यानित्य संयोग रूपो विरोध की उपस्थिति होगी, इसलिए यज्ञादि कर्म केवल आश्रम नहीं हो सकते । पालकों के लिए
( १०६८ ) सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - आश्रमकर्मापि इति । श्राश्रमस्य कर्मापि भवति । केवलाश्रमिणापि अनुष्ठेयानीत्यर्थः । कुतः ? “यावज्जीवं मग्निहोत्रं जुहोति” इत्यादिना विहितत्वात् जीव निमित्ततया नित्यवत विहितत्वादित्यर्थः । उक्त संशय पर सिद्धान्त रूप से आश्रम कर्मापि सूत्र प्रस्तुत करते हैं, अर्थात् केवल आश्रम धर्म पालन करने वालों के लिए भी यज्ञादि कर्म अनुष्ठेय हैं । “जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र करना चाहिए” इत्यादि में, जीवन को दैनिक चर्या की तरह यज्ञादि की नित्यता का विधान बतलाया गया है । तथा विद्यांगतया च " तमेतं वेदानुवचनेन” इत्यादिना विहित- त्वादविद्याशेषतयाप्यनुष्ठेयानीत्याह- इसी प्रकार विद्या प्रकरणीय " तमेतं वेदानुवचनेन" इत्यादि श्रुति में यज्ञांगरूप विद्यानुष्ठान का भी विधान बतलाया गया है । यही बतलाते हैं- सहकारित्वेन च | ३|४|३३|| विद्योत्पत्तिद्वारेण विद्या सहकारितयाऽप्यनुष्ठेयानि । अग्नि- होत्रादीनामिव जोवनाधिकारस्वर्गाधिकारवत् विनियोगपृथक्त्वे- नोभयार्थत्वं न विरुध्यत इत्यर्थः । विद्योत्पादक, विद्या के सहकारी रूप से भी, यज्ञादि अनुष्ठेय हैं, जीवन पर्यन्त होने वाले, स्वर्गादि कामनाओं के प्रदाता अग्निहोत्रादि की तरह प्रयोग की पृथकता से विद्या साधनता और आश्रम साधनता, दोनों ही कार्य अविरुद्ध रूप से हो सकते हैं ।
तदवदेव कर्मान्तरत्वमपि नास्तीत्याह- उसी प्रकार कर्मान्तिरता भी न होगी यह बतलाते हैं- सर्वथापित एवोभया लिंगात् | ३ | ४ | ३ ४ | सर्वथा विद्यार्थत्वे, आश्रमार्थत्वेऽपि तं एव यज्ञादय इति ( १०६६ ) प्रतिपत्तव्यम्, न कर्मस्वरूपभेद इत्यर्थः । कुतः ? उभय लिंगात्- उभयत्रश्रुतौ यज्ञादि शब्दैः प्रत्यभिज्ञाप्य विनियोगात् । कर्मस्वरूप- भेदे प्रमाणाभावाच्च । यज्ञादि क्रियायें चाहे विद्यांग हों या वह एक ही हैं, उनमें स्वरूपगत कोई भेद श्रुतियों में यज्ञ ही कहा गया है, उनमें जो आश्रमांग हों, दोनों प्रकार से नहीं हैं। दोनों प्रकारों को पृथकता है वह प्रयोग ही है । कर्म में स्वरूपगत कोई भेद हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता । अनभिभवं च दर्शयति |३|४|३५॥ “धर्मेणपापमपनुदति” इत्यादिभिश्च तामेव यज्ञादि धर्मं निर्दिश्य तै विद्याया अनभिभवं - पापकर्मभिरुत्पत्तिप्रतिबंध भावं दर्शयति । अहरहरनुष्ठीयमानैर्हि यज्ञादिभिर्विशुद्ध े ऽन्तःकरणे प्रत्यहं प्रकृष्यमाणा विद्योत्पते । श्रतस्त एवोभयत्र यज्ञादयः । “धर्म से पाप नष्ट होते हैं” इत्यादि में उन्हीं यज्ञादि धर्मो का उल्लेख करके, यह बतलाया गया है कि- पाप कर्मों से विद्योत्पत्ति में कोई बाधा नहीं होती । नित्य प्रति किये जाने वाले यज्ञानुष्ठानों से विशुद्ध अन्त:करण में नित्य विद्योत्पत्ति होती है । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि विद्या और आश्रम दोनों जगह, यज्ञादि कर्म एक हैं । ६ विधुराधिकरण:– अन्तरा चापि तु तदृष्टेः | ३ | ४ | ३६ || |३|४|३६|| चतुर्णामाश्रमिणां ब्रह्मविद्यायामधिकारोऽस्ति, विद्या सहकारि श्राश्रम धर्मा इति चोक्तम् । ये पुनराश्रमानन्तरा वत्तन्ते विधुरादयः तेषां ब्रह्मविद्यायामाधिकारोऽस्ति न वा ? इति विशये श्राश्रम धर्मेति कर्त्तव्यतारूपत्वादविद्यायाः श्रनाश्रमिणां चाश्रमधर्माभावान्ना- स्त्याधिकारः '
( ११०० ) चारों आश्रम वालों का ब्रह्मविद्या में अधिकार है तथा आश्रम धर्म विद्या के सहकारी हैं, ऐसा निर्णय हो चुका । अब विचार करते हैं कि जो आश्रम रहित विधुर आदि हैं उन्हें ब्रह्म विद्या में अधिकार है या नहीं? इस पर विचारने पर मत होता है कि - आश्रम धर्म वालों के लिए ही विद्या को कर्तव्य रूप से बतलाया गया है, इसलिए आश्रम रहित के लिए विद्या का प्रभाव है अतएव वे उसके अधिकारी नहीं हैं । सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते - प्रन्तरा चापि तु- इति । तु शब्द: पक्षव्यावृत्यर्थः, च शब्दोऽवधारणे अन्तरा वर्त्तमानानाम् - अनाश्रमि- णामपि विद्यायामधिकारोऽस्त्येव । कुतः ? यदृष्टे :- दृश्यते हि रैक्व भीष्मसंवदतां श्राश्रमिणामपि ब्रह्मविद्यानिष्ठत्वम् न चाश्रम धर्मैरेव विद्यानुग्रह इति शक्यं वक्तम् । " यज्ञेन दानेन तपसानाश- केन” इति दानादीनामाश्रमेषु श्रनैकान्तिकानामप्यनुग्राहकत्व दर्शनात् । यथोर्ध्वरेतस्सु विद्यानिष्ठत्वदर्शनादग्निहोत्रादिव्यति- रिक्तरेव विद्यानुग्रह क्रियते, तथाऽनाश्रमिष्वपि विद्यादर्शनादाश्रमा- नियतैर्जपोपवासदानदेवताराधनादिभिर्विद्यानुग्रहः शक्यते कर्तुं म । उक्त संशय पर सिद्धांत रूप से “अन्तरा चापि तु’ सूत्र प्रस्तुत करते हैं । तु शब्द पक्ष का व्यावर्त्तक है तथा च शब्द अवधारक है । जिससे निश्चित होता है कि-आश्रम रहित व्यक्तियों को भी ब्रह्मविद्या में अधिकार है, रैक्व, भीष्म, संवर्तक आदि आश्रम विहीन व्यक्तियों की ब्रह्म विद्या निष्ठता प्रसिद्ध है। आश्रम धर्म ही विद्या के उपकारक हैं ऐसा नहीं कह सकते । " यज्ञ दान तप और इन्द्रिय प्रत्याहार द्वारा” इत्यादि वाक्य में, आश्रम विशेष में, अनियत दान आदि धर्म से भी विद्या प्राप्ति की बात कही गई है । जैसे कि ऊर्ध्वरेतस आश्रमों में अग्नि होत्र के बिना, केवल ध्यान आदि उपाय ही, विद्या निष्ठता के उपकारी साधन हैं वैसे ही, माश्रम रहित व्यक्ति भी जप उपवास दान देवताराधन आदि उपासना के उपकारी सामान्य साधनों से विद्या निष्ठ हो सकते हैं । अपि स्मर्यते | ३ | ४ | ३७ ॥
अपि च अनाश्रमिणामपि जपादिभिरेव विद्यानुग्रहः स्मर्यंते-
( ११०१ ) “जप्येनापि च संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते” इति इति । संसिध्येत - जपानुग्रहीतया विद्यया सिद्धो भवतीत्यर्थः । 3 विद्या निष्ठता के जपादि साधनों का श्रनाश्रमियों के लिए, स्मृति, में भी उल्लेख है “ब्राह्मण केवल जप से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है वह कुछ करे या न करे ससार उसे मैत्र कह कर ही पुकारेगा। “समिध्येत्” का तात्पर्य है कि वह जपादिपरिपोषित विद्या से सिद्धि प्राप्त करते हैं । विशेषानुग्रहश्च | ३ | ४|३८|| न केवलं न्यायस्मृतिभ्यां प्रयमर्थः साधनीयः श्रयतेचानाश्रम- नियतैधर्मविशेषैविद्यानग्रहा " तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्यया श्रात्मानमन्त्रिष्येत्” इति । न केवल युक्ति और स्मृति से ही उक्त मत पुष्ट होता है अपितु अनाश्रम नियत धर्म विशेष का श्रुति में स्पष्ट उल्लेख भी है " तप, ब्रह्म- चर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मानुसंधान करना चाहिए । प्रतस्त्वितरज्यामो लिंगाच्च | ३|४|३६|| ज्याया तु शब्दोऽवधारणे, अतः, अनाश्रमित्वात् इतरत् श्राश्रमित्यमेव अनाश्रमित्वमापविषयम, शक्तस्यत्वाश्रमित्वमेवोपादेय- मित्यथी । भूयोधर्म काल्पधर्मकयोरतुल्यकार्यत्वात् । लिंगाच्च स्मृतेरित्यर्थः । स्मर्यते च शक्तं प्रत्याश्रमस्योपादेयत्त्रम् - “अनाश्रमी न तिष्ठेत् दनमेकमपि द्विजः” इत्यादिना । निवृत्तब्रह्मचर्यस्य मृतभार्यस्य च प्रविराग्ये सति दारालाभ प्रापत् । | सूत्र में तु शब्द अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है । आश्रमिता ही श्रेष्ठ है, अनाश्रमी रहना तो आपत धर्म है । सामर्थ्यवान के लिए तो आश्रम धर्म ग्रहण करना ही उचित है। अधिक गुण संपन्न और अल्प गुण संपन्न में समान कार्य साधकता तो हो नहीं सकती यह स्वभाव सुलभ बात है ।
( ११०२ ) ऐसा लिंग अर्थात् स्मृति का प्रमाण भी है " द्विज एक दिन भी आश्रम रहित होकर न रहे" इत्यादि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य से निवृत्त हो गया हो अथवा जिसकी पत्नी का देहांत हो गया हो, उसे किसी भी प्रकार स्त्री की प्राप्ति न हो पावे तो वह उसका आपत काल ही है । ११ तद्भूताधिकररणः- तद्भूतस्य तु नातद्भावो जैमिनेरपि नियमात्त पाभावेभ्यः नैष्ठिकवैखानस परिब्राजकाश्रमेभ्यः |३|४|४०|| प्रच्युतानामपि ब्रह्म विद्यायामधिकारोऽसि न ? इति चिन्तायां, विधुरादिवदनाश्रमैका- न्तैदीनादिभिर्विद्यानुग्रह संभवादस्त्यधिकारः । ब्रह्मचारी वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से गिरे हुए पतित व्यक्ति को भी विद्या का अधिकार है या नहीं ? इस पर विचारने से ऐसा मत होता है कि जैसे धनाश्रमी विधुर आदि के लिए, दानादि सामान्य धर्मों से परिपुष्ट ब्रह्म विद्या की निष्ठा बतलाई गई है, वैसे ही इन लोगों की भी हो सकती है इसलिए इनका भी अधिकार है । तु शब्द: पक्षव्यावृत्यर्थः,
सिद्धान्तः- इति प्राप्त उच्यते तद्भूतस्य तु नातद्भावः इति । तद्भूतस्य नैष्ठिकाद्याश्रमनिष्ठस्य, नासभावः, प्रतथाभावः, अनाश्रमित्वेनावस्थानं न संभवति, कुतः ? तदरूपाभावेभ्यो नियमात् - तद्रूपाणि तेषां नैष्ठिकादीनां रूपाणि, वेषा: घर्मा इत्यर्थः, तेषामभावाः, तद् रूपाभावः तेभ्यः शास्त्र नियमात् 1 नैष्ठिकाद्याश्रमप्रविष्टान् स्वाश्रमधर्मनिवृत्तिभ्यो नियच्छन्ति हि शास्त्राणि “ब्रह्मचर्याचार्यकुलवासी तृतीयोत्यंतमा- त्मानमाचार्यकुलोऽवसादयन्” इति “प्ररण्यमियात्ततो न पुनरेयात्” इति ’ संन्यस्याग्निं न पुनरावर्त्तयेत्” इति च । अतो विधुरादिवत नैष्ठिकादीनामनाश्रमित्वे नावस्थाना संभवान्न तानधिकरोति
( ११०३ ) ब्रह्मविद्या, दृढ़यति । जैमिनेरपि - इत्यविगानं दर्शयन्तुक्त स्वाभिमतं उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से उक्त सूत्र प्रस्तुत करते हैं । सूत्रस्थ तु शब्द पक्ष का व्यावर्त्तक है । ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों में निष्ठ व्यक्यिों का अतद्भाव अर्थात् अनाश्रमी होना संभव नहीं है। उन आश्रम के रूपों को धारण करने के बाद उनके त्याग का कहीं भी विधान नहीं है । उनके रूप का तात्पर्य है उनका वेष अर्थात् धर्म का अभाव, उनके विहित शास्त्रीय नियमों के विरुद्ध है । ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों में निष्ठ हो जाने के बाद उनसे च्युत होने का शास्त्र में निषेध किया गया है । “आचार्य कुलवासी नैष्ठिक ब्रह्मचारी को सदा आचार्य कुल में ही वास करना चाहिए | - - " अग्नि का त्याग कर उसे पुनः नहीं ग्रहण करना चाहिए ।” अरण्य जाने के बाद पुनः नहीं लौटना चाहिए ।" इत्यादि से ज्ञात होता है कि जो आश्रम धर्म से च्युत हो जाते हैं, उन्हें विधुर आदि की तरह ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं है । जैमिनि की सम्मति के अनुसार सूत्रकार ने अपना भी ऐसा ही दृढ़ मत स्थिर किया है । अथ स्यात् - नैष्ठिकादीनां ब्रह्मचर्यात् प्रच्युतानां प्रायश्चित्तात् अधिकारः संभवति, अस्ति च प्रायश्चित्तमधिकारलक्षणे निरू- पितं - " अवकीर्णि पशुश्चतद्वत्" इति, अतः प्रच्युतब्रह्मचर्यस्य प्रायश्चित्त संभवात् कृतप्रायश्चित्तो ब्रह्मविद्यायामधिकरिष्यति- इति-तत्राह- प्रश्न होता है कि ब्रह्मचर्यं से च्युत नैष्ठिक आश्रमों का प्राय- श्चित्त भी तो हो सकता है, अधिकार लक्षण में उसके लिए प्रायश्चित्त का निरूपण करते हुए कहा भी गया है कि- “व्रतच्युत पशुयाग से शुद्ध होते हैं । " इस प्रकार प्रच्युत ब्रह्मचर्य से व्यक्ति के प्रायश्चित्त के बाद ब्रह्मविद्या का अधिकार हो सकता है । इसका उत्तर देते हैं- न चाधिकारिकमपि पतनानुमानात्तद योगात् | ३|४| ४१|| अधिकारलणणोक्तमपि प्रायश्चित्तं नैष्ठिकादीनां तद्द्द्रष्टानां न संभवति, कुतः ? पतनानुमानात्तदयोगात् - नैष्ठिकादीनां प्रच्यु
( ११०४ ) तानां पतनस्मृतेस्तस्य प्रायश्चित्तस्यासंभवात् - " प्रारूढो नैष्ठिकं धर्मं यस्तु प्रच्यवते द्विजः प्रायश्चितं न पश्यामि येन शुध्येत स आत्महा" इति । तो अधिकारलक्षणोक्त प्रायश्चित्तमितर ब्रह्मचारिविषयम् । अधिकर लक्षण में जो प्रायश्चित्त का लक्षण है वह ब्रह्मचर्य विच्युत व्यक्तियों के लिए नहीं है, जो लोग नैष्ठिक ब्रह्मचर्य आदि से भ्रष्ट हो जाते हैं वैसे पतितों का कोई प्रायश्चित्त नहीं है । उनके लिए प्रायश्चित्त की असंभावना बतलाई गई है “नैष्ठिक माश्रमों में आरूढ़ होने के बाद जो द्विज पतित हो जाता है उस आत्महत्यारे के लिए कोई प्रायश्चित्त दृष्टिगोचर नहीं होता जिससे कि वह शद्ध हो सके ।” इससे सिद्ध होता है कि जो अधिकार लक्षण में जिस प्रायश्चित्त का विधान है वह नैष्ठिक आश्रमों के लिए नहीं है । उपपूर्वमवीत्येके भावमशनवत्तदुक्तम् | ३|४|४२ ॥ नैष्ठिकादीनां ब्रह्मचयं प्रच्यवनमुपपूर्वम् - उपपातकम्, महापात- केष्वपरिगणितत्वादिति तत्र प्रायश्चितस्य भावं विद्यमानतामध्येके श्राचार्या मन्यन्ते, अशनवत् यथा मध्वदिनिषेधस्त प्रायश्चित्तं चोपकुर्वाणस्य नैष्ठिकादीनां च समानम्, तदुक्त स्मृतिकारैः “उत्तरेषां चैतदविरोधि” इति गुरुकुलवासिनो यदुक्त, तत्स्वाश्रमा- विरोध्युत्तरेषामप्याश्रमिणां भवतीत्यर्थः तद्वदिहापि ब्रह्मचर्यं प्रच्यवने प्रायश्चित्तसंभवाद् ब्रह्मविद्यायोग्यताप्यस्ति । किसी आचार्य का मत है कि जो नैष्ठिक आदि का पतन है वह उपपातक है, उसकी महापातकों में गणना नहीं है इसलिए उनका प्राय- श्चित्त हो सकता है । जैसा कि मधुपान का निषेध और उसका प्रायश्चित्त उपकुर्वाण और नैष्ठिक दोनों के लिए समान है, वैसे ही यहाँ भी प्राय- श्चित्त संभव है । जैसा कि स्मृतिकार का मत भी है कि-“यदि विरोधी न हो तो बाद के आश्रमों में भी यही नियम लागू होगा” अर्थात् गुरुकुलवासी ब्रह्मचारी के लिए जो कहा गया यदि वह आश्रम के विरुद्ध न हो तो
( ११०५ ) परवर्ती वानप्रस्थ संन्यासी आदि नैष्ठिक में भी संभव है । इसलिए ब्रह्मचर्य से च्युत का प्रायश्चित्त संभव है और ब्रह्मविद्या में अधिकार भी हो सकता है । बहिस्तूभयथापि स्मृतेराचाराच्च |३|४|४३ ॥ तु शब्दो मतान्तरव्यावृत्त्यर्थः, उपपातकस्वे महापातकत्वेऽप्येते बहिभूता एव ब्रह्मविद्याधिकारिभ्यः, ब्रह्मविद्यामनधिकृता इत्यर्थः । कुतः ? स्मृतेः पूर्वोक्तात्पतनस्मरणात् । यद्यपि कल्मषनिर्हरणाय कैश्चिदवचनैः प्रायश्चित्ताधिकारो विद्यते तथापि कर्माधिकारा- नुगुण शुद्धिहेतु प्रायश्चित्तं न संभवति “प्रायश्चित्तं न पश्यामि येन शुध्येत् स आत्महा" इति स्मृतेरित्यर्थः । आचाराच्च शिष्टा हि नैष्ठिकादीन् भ्रष्टान् कृतप्रायश्चित्तानपि वर्जयंति तेभ्यो ब्रह्म- विद्यादिकं नोपदिशन्ति, अतस्तेषां नास्ति ब्रह्मविद्यायामधिकारः । J सूत्रस्थ तु शब्द उक्तमतान्तर का व्यावर्तक है । ब्रह्मचर्य स्खलन चाहे उपपातक हो या महापातक किन्तु स्खलित ब्रह्मचारी को ब्रह्मविद्या में अनधिकृत ही माना गया है । पूर्वोक्त स्मृति वाक्य में नैष्ठिक के पतन को जधन्य पातक ही माना है । यद्यपि पापों के प्रायश्चित्त के कुछ वचन प्रायश्चित्ताधिकार में मिलते हैं, फिर भी जिनसे सारा संसार कर्म के अधिकार की शिक्षा प्राप्त करता है उनकी शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त संभव नहीं है यही " प्रायश्चित्तं न पश्येत्" इत्यादि वाक्य का तात्पर्यं है । पतित नैष्ठिकादिकों के प्रायश्चित्त का शिष्ट लोग भी विरोध करते हैं । उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं देते, इसलिए उन लोगों का ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं है । ११. स्वाम्यधिकरणः- स्वामिनः फल तेरित्यात्र यः | ३ | ४|४४ || कर्मागाश्रमाणि उद्गीथादि उपासनानि कि यजमान कत्त - काणि उत्त ऋत्विककत्त काणि ? इति चिन्तायां - यजमान
( ११०६ ) J कत्त कारिण इति प्रात्रेयोमन्यते कुतः ? फलश्रुतेः, वेदांत विहितेषु दहराद्युपासनेषु फलोपासनयोरेकाश्रयत्वदर्शनादिह च ऋतुफलाप्रति- बंधरूपस्योद्गीथोपासनफलस्य यजमानाश्रयत्वश्रवणादित्यर्थः । न च गोदोहनादिवदंगाश्रयत्वेन यजमानकत्तुंकत्वासंभवः गोदो- हनादिषु हि श्रध्वर्युकक प्रणयनाश्रयगोदोहनोपादनमन्येना- शक्यम्, इह तु उद्गातृक केऽप्युद्गीथे रसतमत्वानुसंधानं यजमानेनैव कर्त्तुं शक्यत । तस्योद्गीथादेः कर्मागाश्रित उद्गीथ आदि उपासनायें, यजमानकर्तृ के हैं अथवा ऋत्विक ? इस पर आत्रेय का मत है कि यजमानकर्त्ती क हैं ऐसी ही फल- श्रुति भी है । वेदांत की दहरादि उपासनाओं में उपासक और फलभोक्ता एक ही व्यक्ति कहा गया है । वैसे ही फलावाप्ति यजमान के लिए कही गई है इससे ज्ञात होता है कि - उपासना भी यजमान द्वारा ही होनी चाहिए । यह नहीं कह सकते कि यज्ञ के अंग गोदोहन आदि कर्म जैसे यजमान द्वारा संभव नहीं हैं वैसे ही कर्माग उपासनायें भी संभव नहीं हैं । गोदोहन तो अध्वर्यु के लिए ही रुचपाक में विहित है, वह अन्य के द्वारा संभव नहीं है । किन्तु उद्गीथ आदि उपासनाओं में जो क्रियानुष्ठान होते हैं उनमें उद्गाता कर्त्ता होता है फिर भी उद्गीथ की रसतम रूप से होनेवाली उपासना तो यजमान से ही संपादित होती है । सिद्धान्तः – इति प्राप्तेऽभिधीयते- इस पर स्वसिद्धान्त बतलाते हैं- प्रात्त्विज्यमित्यौड लोभिस्तस्मै हि परिक्रियते | ३|४|४५ || प्राविज्यम् — ऋत्विजः कर्मोद्गीथाद्युपासनमित्यौडुलोम- राचार्योमन्यते, कुतः ? प्रयोजनाय ऋत्विक परिक्रियते, फलसाधन- भूतस्य सांगस्य क्रतोनुपादानायेत्यर्थः । कर्मविधिषु " ऋत्विजो- वृणीते" ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां ददाति" इति ऋत्विक् कत्तु कत्व-
( ११०७ ) शास्त्रेण फलसाधनभूतं सांगं कर्म ऋत्विग्भिरनुष्ठेयमित्यवगम्यते, तदन्तर्गतानि कायिकानि मानसानि च कर्माणि ऋत्विक्त् काष्वेव, न च शक्तयशक्तौ तस्य निबन्धनम् । यद्यपि उद्गीथाद्युपासनं पुरुषार्थ:, तथापि क्रत्वधिकृताधिकारत्वात् ऋतोश्च सांगस्य ऋत्विककत्त कत्वात् “यदेव विद्यया करोति तदेव वार्यवत्तरम्” इति ऋत्विक्कत्तुं क क्रियोपयोगित्वेन विद्यायास्तदेककत्तु कत्व श्रवणात् ऋत्विक्कत कान्येतानि दहरादिषूपासनेषु ऋत्विक्कत्त कत्वाश्रवणात् " शास्त्रफलं प्रयोक्तरि" प्रयोक्तरि" इति न्यायाच्च फल- कत्त कत्वमेव । ओडलोमि आचार्य का मत है कि उद्गीथ आदि उपासना ऋत्विक कर्तृक है | प्रयोजन सिद्धि के लिए यजमान ऋत्विक् को खरीद लेता है । अर्थात् फल सिद्धि के उपाय रूप कर्म के सांगोपांग संपादन के के लिए उसका वरण करता है । " कृत्विक् का वरण करता है" " ऋत्विजों को दक्षिणा देता है" इत्यादि कर्मकांडोक्त वाक्यों से ज्ञात होता है कि - फलसाधक कर्म और संपूर्ण कर्माग ऋत्विजों से ही अनुष्ठेय हैं । उन अनुष्ठानों के अंतर्गत जितने भी कायिक मानसिक कर्म हैं वे सभी ऋत्विक कर्त्तृक हैं, यजमान में उनके करने की शक्ति है या नहीं, इसका प्रश्न ही नहीं उठता । यह तो एकमात्र ऋत्विजों का स्वायत्त कर्म है । यद्यपि उद्गीथ आदि उपासनायें पुरुषार्थ साधक हैं फिर भी वह जब यज्ञाधिकार से अधिकृत है तो उन पर ऋत्विक का ही अधिकार माना जावेगा “विद्या से जो करता है वह प्रबलतम होता है" इत्यादि में उपासना को यज्ञ की ही उपकारिणी कहा गया है, इसलिए उसका कर्त्ता ऋत्विक् ही निश्चित होता है । दहर आदि उपासनाओं में भी ऋत्विकका कर्तृत्व बतलाया गया है “शास्त्र का फल प्रयोक्ता में ही होता है" इत्यादि नियम से ज्ञात होता है कि-फलभागी ऋत्विक् ही उपासना का कर्त्ता है ।
१२. सहकार्यन्त्यधिकरणः ( ११०६ ) सहकार्यन्तरविधिः पक्षेण तृतीयं तद्वतो विध्यादिवत् | ३|४|४६ || “प्रस्माद् ब्राह्मण: पांडित्यं निर्विद्यबाल्येन तिष्ठासेत् बाल्यं च पांडित्यं च निविद्याथ मुनिः” इत्यत्र बाल्य पांडित्यवन्मौनमपि विधीयते, उत अनूद्यत ? इति विशये मौनपांडित्यशब्दयोः ज्ञानार्थ- त्वात् " पांडित्यं निर्विद्य" इति विहितमेव ज्ञानं “अथ मुनिः " इत्यनूद्यते, विधि शब्दो नात्र श्रूयत इति । “ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति पांडित्य से व्युत्पन्न होकर बाल्य में अदस्थान करे और फिर पांडित्य और बाल्य दोनों से अधिगत होकर मुनि हो जाय” इत्यादि में बाल्य और पांडित्य का जैसा विधान है मुनि का भी वैसा ही विधान होगा या नहीं ? इस संशय पर मत होता है कि -मोन और पांडित्य दोनों ही शब्द ज्ञानार्थक हैं " पाडित्य निविद्य" में जो ज्ञान अर्थ विहित है " अथमुनिः " में उसी का अनुवाद मात्र कर दिया गया है विधि बोधक शब्द का प्रयोग नहीं है । इसलिए मौन की विधि नहीं है । 7 1 1 सिद्धान्तः – एवं प्राप्ते ब्रमः, सहकायंन्तरविधिः, इति । तद्वतः विद्यावतः विध्यादिवत् विधीयते इति यज्ञादिः सर्वाश्रम - धर्मः शमदमादिश्च विधिशब्देनोच्यते श्रादिशब्देन श्रवणमनने- गृह्येते सहकार्यन्तरविधिरित्यत्रापि, विधीयत इति विधिः, सहकार्यंन्तरं विधिश्चेति सहकार्यन्तरविधिः । एतदुक्तं भवति- यथा - " तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषंति यज्ञेन दानेन " इत्यादिना “शांतो दान्तः” इत्यादिना च सहकारी यज्ञादिः शमदमादिश्च विधीयते; यथा च “श्रोतव्यो मंतव्यः” इति श्रवण- मननेचार्थं प्राप्ते विद्या सहकारित्वेन गृह्यते, तथा “तस्माद ब्राह्मणा पांडित्यं विधीयते इति । ( ११०६ ) उक्त संशय पर सिद्धान्त रूप से “सहकार्यन्तर विधिः” इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । विद्या संपन शास्त्रीय यज्ञादि विधि की तरह मौन भी बिहित है। जो विहित हो उसे ही विधि कहते हैं इस व्युत्पत्ति के अनुसार सारे ही प्राश्रम धर्म और शम दम आदि साधन सभी विधि हैं । आदि शब्द से श्रवण और मनन भी ग्राह्य हैं । विधि शब्द का अर्थ है - विहित विधि का विषय | सहकार्यन्तरविधि का तात्पर्य है - जो विधि विहित हो । कहने का तात्पर्य यह है कि- जैसे “ब्रह्मनिष्ठ वेदविहित यज्ञ और दान द्वारा आत्मा को जानने की इच्छा करते हैं’ इत्यादि और " शान्तो दान्तः” इत्यादि वाक्यों से सहकारी यज्ञ आदि क्रिया एवं शम दम आदि विहित हैं तथा “ श्रोतव्यः मंतव्यः" इत्यादि से श्रवण और मनन का विधान बतलाया गया है वैसे ही - " तस्माद ब्राह्मण पांडित्यं निर्विद्य" इत्यादि वाक्य से पांडित्य बाल्य और मौन तीन को ही, विद्या के सहकारी रूप से विहित कहा गया है । मौनं च पांडित्यादर्थान्तरमित्याह - पक्षेणेति । मुनिशब्दस्य पक्षेण प्रकृष्टमननशीले व्यासादौ प्रयोग दर्शनात् मौनंपांडित्यबाल्य- योद्वयोः तृतीयम् । यद्यपि “अथ मुनिः” इत्यत्र विधिप्रत्ययो न श्रूयते, तथापि मौनस्याप्राप्तत्वात् विधेयत्व मंगीकरणीयम् - श्रथ मुनिः स्यात् इति । इदं च मौनं श्रवणप्रतिष्ठार्थान्मननादर्थान्तरमुपासना- लंबनस्य पुनः पुनः संशीलनं तदभावनारूपम् । मोन और पांडित्य दोनों भिन्न स्वतंत्र पदार्थ हैं । मुनि शब्द का प्रकृष्ट मनन शील, व्यास आदि में विशेष प्रयोग देखा जाता है जिससे ज्ञात होता है कि मुनि, पांडित्य और बाल्य से भिन्न तीसरी वस्तु है । यद्यपि " अथ मुनिः" में विधि प्रत्यय का प्रयोग नहीं है, फिर भी अन्यत्र कहीं भी मौन विधि का प्रयोग न होने से इस वाक्यांश में ही विधि प्रत्यय की कल्पना करनी होगी। सुनी हुई वस्तु की धारण के लिए जिस मनन वृत्ति का विधान है, यह मौत उससे भिन्न स्वतंत्र वृत्ति है, यह उपासना के आलंबन की चिन्ताप्रवाहात्मक उपास्य भावनारूप एक वृति विशेष है ।
( १११० ) तदेवं वाक्यार्थः, ब्राह्मण: विद्यावान् पांडित्यं निर्विद्य, उपास्यं ब्रह्मतत्वं परिशुद्ध परिपूर्ण च विदित्वा श्रवणमननाभ्यामप्राप्तं वेदनं प्रतिलभ्येत्यर्थः । तच्चभगवद्भक्तिकृतसत्त्वविवृद्धिकृतम् । यथोक्त- " नाहंवेदैः " इत्यारभ्य " भक्त्यात्वनन्यया शक्यः ज्ञातुम्” इति । श्रुतिश्च - " यस्यदेवे पराभक्तिः " नायमात्मा प्रबचनेन" इत्यादिका । बाल्येन तिष्ठासेत्, बाल्यस्वरूपंचानन्तरमेव वक्ष्यते, बाल्यं च पांडित्यं च निविद्याथ मुनिः स्यात् बाल्यपांडित्ये यथावदुपादाय परिशुद्ध परिपूर्ण ब्रह्मणि मननशीलोभवेत्, निदिध्यासनरूपविद्या प्राप्तये । एवमेव त्रितयोपादानेन लब्धविद्याभवतीत्याह “अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः” इति । श्रमौनं मौनेतर सहकारि कलापः, तं च मौनं च यथावदुपाददानो विद्याकाष्ठां तदेक निष्पाद्यां लभेतेत्यर्थः । " स ब्राह्मणः केन स्यात् " उक्तादुपायात् किमन्योऽप्युपायोऽस्तीतिपृष्टे “येन स्यात्तेनेदृश एव” इति येन मौन पर्यन्तेन ब्राह्मणः स्यादित्युक्तम् तेनैवेदृशः स्यात् न केनाप्यन्येनोपाये- नेति परिहृतम् ! श्रतः सर्वेष्वाश्रमेषु स्थितस्यविदुषोयज्ञादिस्वाश्रम- धर्मवत् पांडित्यादिकं मौन तृतीयं विद्यायाः सहकार्यन्तरं विधीयते । इस प्रकार उक्त वाक्य का अर्थ होगा कि- ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति विद्या- खान, पांडित्य अर्थात् विद्या प्राप्तकर, उपासना द्वारा विशुद्ध परिपूर्ण, उपास्य ब्रह्म तत्त्व को जानकर, श्रवण और मनन से, अप्राप्त वेदन ( उपासनात्मक ज्ञान ) को प्राप्त करे, जो कि भगवद्भक्तिकृत् सत्व गुण से बढ़ाया गया है । जैसा कि - " नाहं वेदै : " से लेकर “भक्तया त्वनन्या- शक्यः ज्ञातुम्” तक गीता में और “यस्य देवे पराभक्ति” नायमात्मा प्रवचनेन इत्यादि श्रुतियों में कहा गया है ! “बाल्यं तिष्ठासेत्” में जो बाल्य का स्वरूप बतलाया गया है उसे आगे बतलावेंगे । “बाल्य ओर पांडित्य को अच्छी तरह जानकर मुनि होते हैं” इत्यादि का तात्पर्य है कि बाल्य और पांडित्य के रूप में अभ्यस्त
( ११११ ) होकर निदिध्यासन रूप विद्या की प्राप्ति के लिए परिशुद्ध परिपूर्ण ब्रह्म में मननशील होवे । इस प्रकार - बाल्य - पांडित्य और मौन के अनुशीलन से आत्मविद्या का ज्ञान होता है यही “अमोन और मौन दोनों से अधिगत होकर ब्रह्मनिष्ठ होते हैं” इत्यादि वाक्य में दिखलाया गया है । मौन के अतिरिक्त विद्या के सहकारी सभी साधन अमौन हैं। जो व्यक्ति फोन और अमीन को विधिपूर्वक ग्रहण करते हैं, वे भगवन्निष्ठात्मक विद्या की पराकाष्ठा को प्राप्त करते हैं । इसके बाद प्रश्न किया गया है कि - “वह ब्रह्मनिष्ठ इन उपायों के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय के भी आश्रित होता है या नहीं ? " इसका उत्तर दिया गया कि - “येन स्यात् तेनेदृश एव” अर्थात् मौन तक जिन साधनों की सहायता से ब्रह्मनिष्ठ होता है वे ही हैं अन्य नहीं । इसलिए सभी आश्रमों में स्थित उपासकों को यज्ञादि माश्रम धर्मों की तरह, पांडित्य बाल्य मौन आदि विद्या के सहकारी साधनों का पालन करना चाहिए । अथ स्यात् सर्वेष्वाश्रमेषु स्थितानां विदुषः तत्तदाश्रमधर्मं सहकारिणी मौनतृतीय सचिवा विद्या ब्रह्मप्राप्ति साधनमुच्यते, कथं तर्हि छांदोग्ये - " अभिसमावृत्य कुटुंबे शुचौ देशे” इत्यारभ्य " स खल्वेवं वर्त्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसंपद्यते न च पुनरावर्त्तते’ यावदायुषं इति श्रत प्राह– गार्हस्थ्यधर्मेण "" स्थितिदर्शनमुपपद्यते । प्रश्न होता है कि यदि सभी आश्रमों में स्थित उपासकों के लिए मौन आदि युक्त विद्या को ही ब्रह्म प्राप्ति का साधन कहा गया है तो छांदोग्य - में “विद्याध्ययन समाप्त कर पवित्र ग्रहस्थ आश्रम में - " तथा- “वह जीवन पर्यन्त ऐसा करते हुए ब्रह्म लोक की प्राप्ति करता है पुन: लौटकर नहीं आता” इत्यादि से जीवन पर्यन्त ग्रहस्थाश्रम में ही रहने को समर्थन क्यों किया गया है? इसी का उत्तर देते हैं- कृत्स्नभावात्तु गृहिणोपसंहारः १३|४|४७|| तु शब्दश्चोद्यंव्यावर्त्तयति, कृत्स्नभावात् कृत्स्नेषु भावात् कृत्स्नेष्वाश्रमेषु विद्यायाः सद्भावात् गृहिणोऽप्यस्तीति तेनोपसंहारः
( १११२ ) तस्मात् सर्वाश्रमधर्मं प्रदर्शनार्थो गृहिणोपसंहारः इत्यभिप्रायः । तु शब्द उक्त शंका का व्यावर्तक है । सभी आश्रमों में विद्या- नुशीलन का अधिकार है, ग्रहस्थ में भी है, इसलिए छांदोग्य में केवल ग्रहस्थ प्रकरण का उपसंहार किया गया है । सभी आश्रम धर्मो का प्रदर्शन करने के लिए ही ग्रहस्थ धर्म में उपसंहार किया गया है । तथैतस्मिन्नपि वाक्ये “ब्राह्मणः पुत्रेषणायाश्च वित्तेषणायाश्च लोकेषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचयं चरति” इति पारिव्राज्यक्रांत धर्मं प्रतिपाद्य " तस्माद ब्राह्मणः पांडित्यं निर्विद्य” इत्यादिना पारिब्राज्यधर्मस्थितिहेतुक मौनतृतीय सहकारविधानं प्रदर्शनार्थं मित्याह- उसी प्रकार इसी वाक्य में “ब्रह्मनिष्ठ पुत्रेषणा, वित्तेषणा, और लोकेषणा से उत्तीर्ण होकर भिक्षाटन करते हैं " इत्यादि पारिव्राजक धर्मं का प्रतिपादन करके “तस्माद् ब्राह्मण: पांडित्यं निर्विध” इत्यादि से पारिव्राजक धर्म के रक्षक मूलभूत मौन आदि सहकारी साधनों का प्रदर्शन किया गया है, ऐसा विवेचन करते हैं- मौनववितरेषामप्युपदेशात् | ३|४|४८ ॥ सर्वेषणाविनिर्मुक्तस्य भिक्षाचरणपूर्वक मौनोपदेशः सर्वेषां श्राश्रमधर्माणां प्रदर्शनार्थः कुतः ? एवं विधिमौनोपदेशवदित रेषा- माश्रमिणां श्रपि “त्रयो धर्मस्कंध ः” इत्यारभ्य “ब्रह्मसंस्थोऽमृत- स्वमेति” इति ब्रह्मप्राप्त्युपदेशात् । उपपादितश्च पूर्वमेव ब्रह्मसंस्थ शब्दः सर्वाश्रमिसाधारण इति । श्रतः सुष्ठुक्त - यज्ञादि सर्वाश्रम धर्मवन्मौन तृतीयः पांडित्यादिविद्या सहकारित्वेन विधीयते इति । सभी एषणाओं से मुक्त, भिक्षाटन पूर्वकं मोनोपदेश सभी आश्रमों के धर्मों के स्वरूप के प्रदर्शन के लिए है। ऐसे मोनोपदेश की तरह अन्य आश्रमवासियों के लिए “त्रयो धर्मस्कंधा : " से लेकर “ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्व- मैति तक ब्रह्म प्राप्ति का उपदेश दिया गया है । ब्रह्मसंस्थ, प्रायः सभी "
21283 ( १११३ ) श्राश्रमों के लिए प्रयोग होने वाला सामान्य शब्द है, ऐसा पहिले ही बतला चुके हैं । इसलिए यह कहना ठीक ही है कि यज्ञादि सर्वाश्रम धर्मों की तरह मोन पांडित्य आदि विद्या सहकारी साधन भी विहित हैं । १३. अनाविष्काराधिकररणः- अनाविष्कुर्वन्नन्वयात् | ३|४|४६ ॥ “तस्माद् ब्राह्मणः पांडित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत्” इत्यत्र विदुषा बाल्यमुपादेयतयाश्रुतम् । वाल्यस्य भावः कर्म वा बाल्यम् बालभावस्य वयोवस्थाविशेषस्यानुपादेयत्वात् कर्मेवेह गृह्यते । तत्र कि बाल्यस्य कम कामचारादिकं सर्वं विदुषोपादेयम् उत् डम्भादि रहितत्वम् एव ? इति विशये विशेषाभावात् सर्वमुपादेयम्, नियम शास्त्राणि च विशेष विधानाऽनेन बाध्यंत इति । “तस्माद् ब्राह्मणः” इत्यादि वाक्य में साधक के लिए बाल्य भाव की उपादेयता बतलाई गई है । बाल्य का भाव या कर्म ही बाल्यत्व है, अवस्था विशेष रूप जो बाल भाव है उसका तो स्वेच्छा से पालन किया नहीं जा सकता, इसलिए बाल्य का अर्थ बाल्य कर्म ही समझा जायेगा । बालक की जो स्वेच्छाचारिता है वही साधक के लिए उपादेय है अथवा बालक की जो अहंकार शून्यता आदि है केवल वही उपादेय है ? इस पर विचारने पर मत होता है कि उक्त वाक्य में कोई विशेषोल्लेख तो है नहीं इसलिए सभी भाव उपादेय हैं । स्वेच्छाचारिता के निवारक जो नियम शास्त्र हैं वे सभी इस विशेष विधि शास्त्र से बाधित हो ही जाते हैं ।
सिद्धान्तः - एवं प्राप्तेऽभिधीयते - मनाविष्कुर्वन्निति । बालस्य यत् स्वभावानाविष्कार रूपं कम तदुपाददानो वर्त्तेत विद्वान् । कुतः ? अन्वयात्-तस्यैवान्वयात् । “बाल्येन तिष्ठासेत्” इत्यस्मिन् विधौ तस्यैव ह्यन्वय संभवः, इतरेषां विद्याविरोधित्वश्रवणात् “नाविरतो दुश्चरितान्नाशांतों ना समाहितः । नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्” आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः" इत्यादिषु ।
( १११४ ) बालक जो स्वाभाविक अनाविष्कृत कर्म है, वही साधक के लिए उपादेय है । उसी की वाक्य के साथ संगति बैठ सकती है । " बाल्यं तिष्ठासेत्" में उक्त तात्पर्य ही निहित है, अन्य जो स्वेच्छाचारिता आदि हैं, उन सब को तो विद्या विरोधी कहा गया है " जो दुश्चरितों से अशांत नहीं होते, असमाहित नहीं होते, अशांत चित्त नहीं होते, वे ही प्रकृष्ट ज्ञान द्वारा परम पुरुष को प्राप्त करते हैं ’ आहार शुद्धि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है" इत्यादि वाक्य में भी बालकोचित स्वेच्छाचारिता आदि कर्मों को विरोधी कहा गया है । १४ ऐहिकाधिकरणः — ऐहिकम्प्रस्तुत प्रतिबंधे तद्दर्शनात् | ३|४|५० ॥ द्विविधा विद्या श्रभ्युदयफला, मुक्ति फला च । तत्राभ्युदयफला स्वसाधनभूतैः पुण्यकर्मानन्तरमेव उत्पद्यते, उत अनन्तरं कालान्तरे वेत्यनियमः ? इति संशयः । पूर्वकृतैः पुण्यकर्मभिः विद्वान जायते, यथोक्त भगवता “चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन” इति । साधने निवृत्ते विलम्ब हेत्वभावात् अनन्तरमेव । विद्या दो प्रकार की है, एक प्रभ्युदय फल वाली दूसरी मुक्तिफल वाली । जो अभ्युदय फल वाली विद्या है, वह अपने साधन रूप पुण्य कर्मों द्वारा तत्काल ही फल प्रदान करती है, अथवा कालान्तर में ? इस पर विचारने से मत होता है कि- पूर्वकृत पुण्य कर्मों के प्रभाव से ही लोग विद्वान होते हैं जैसा कि भगवान ने कहा भी है- “अर्जुन ! सुकृत लोग मुझे चार प्रकार से भजते हैं" इत्यादि । कारण के रहते हुए कार्योत्पत्ति में विलम्ब हो यह बेतुकी सी बात है । इसलिए साधना के बाद ही फलं मिलता है ऐसा ही मानना चाहिए। सिद्धान्तः - इति प्राप्त उच्यते- ऐहिकम्प्रस्तुत प्रतिबंध - इति ऐहिकमभ्युदयफलमुपासनम्, अप्रस्तुत प्रतिबंधे - प्रप्रस्तुते प्रबलकर्मा- तरा प्रतिबंधे सत्यनन्तरं, प्रतिबंधे सति तदुत्तरकालमित्यनियमः
( १११५ ) कुतः ? तद्दर्शनात् - दृश्यते हि प्रबलकर्मान्तरेण कर्मफल प्रतिबंधा भ्युपगमः श्रुतौ " यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरम्" श्रवणात् । इत्युद्गीथविद्यायुक्तस्य इत्युद्गीथविद्यायुक्तस्य कर्मणः फला प्रतिबंध उक्त संशय पर सिद्धांत रूप से " ऐहिक प्रस्तुत प्रतिबंधे" सूत्र प्रस्तुत करते हैं । अर्थात् अन्य प्रबल प्रतिबन्धक कर्मों के न होने पर ही अभ्युदयजनक विद्या का फल इस शरीर से प्राप्त हो सकता है, प्रति- बंधक कर्मों के क्षय होने पर फलावाप्ति होती है, इस विषय में कोई निश्चित नियम है भी नहीं । देखा जाता है कि अन्य प्रबल कर्म हो, फलावाप्ति में बाधक हो जाते हैं, तथा प्रबलतर साधन से प्रतिवन्धक कर्मों का नाश भी हो जाता है जैसा कि - “विद्या श्रद्धा और उपनिषद् द्वारा जो किया जाता है वही प्रबलतर होता है” इत्यादि श्रुति से सिद्ध है । इस वाक्य में उद्गीथ विद्यायुक्त कर्म को फल का अप्रतिबंधी कहा गया है । १५ मुक्तिफलाधिकरणः- एवं मुक्तिफला नियमस्तववस्थावधूतेस्तदवस्थावधृतेः | ३|४|५१ || मुक्तिफलस्याप्युपासनस्य स्वसाधन भूतैरतिशयित कर्मभिरु- त्पत्तावेवमेव फलानियमः, तस्यापि पूर्ववत् प्रतिबंधाभाव प्रतिबंध समाप्तिरूपावस्थावगतेः, अत्रापितस्य हेतोः समानत्वादित्यर्थः । सर्वेभ्यः कर्मभ्यो मुक्तिफलविद्या साधनस्य कर्मणः प्रबलत्वात् प्रतिबंधासंभव इत्याधिका शंका | श्रत्रापि ब्रह्मविदपचाराणां पूर्वकृतानां प्रबलानां संभवात् प्रतिबंध संभव इति परिहारः, द्विरुक्तिरध्याय परिसमाप्ति द्योतयति ।
( १११६ ) विद्या के साधन रूपी सर्वोत्कृष्ट कर्मों से विद्या की उत्पत्ति हो जाने पर भी उक्त प्रकार की ही अनियमित फल व्यवस्था है. इस स्थिति में भी प्रतिबन्धाभाव होने पर ही फलावाप्ति हो सकती है, प्रबलतम प्रतिबन्धक कर्म ही प्रतिबन्धी कर्मों को नष्ट कर फलोन्मुख कर सकता है इस पर विशेष शंका यह होती है कि फल की साधक - मुक्ति जिस कर्म से प्रकट होती है, वह कर्म अन्यान्य कर्मों से तो निश्चित ही प्रबलतम होता है, इसलिए अन्य कर्म उसके प्रतिबंधक हो सकते हैं ? उपासक का अपकारी कोई प्रबलतम प्राक्तन कर्म ही प्रतिबंधक होता है । सूत्र में को गई द्विरुक्ति अध्याय समाप्ति की ओतक है । तृतीय अध्याय चतुर्थ पाद समाप्त