गद्यत्रय की विशेषता
गद्यत्रय शरणागति मार्ग का प्रमाण ग्रन्थ है । इसके द्वारा श्रीरामानुज सम्प्रदाय अपने साधन-पथ और उसके लिये दिये गये भगवान् के आश्वासन को प्रमाणित करता है । आचार्य श्री रामानुजाचार्य अवतार -पुरुष थे; नित्यविभूति के व्यक्ति थे । उन्होंने शरणागति गद्य के द्वारा केवल अपने लिये ही भगवच्छरणार्गा का अनुष्ठान किया अथवा उनके अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान् ने केवल उनके लिये ही वरदान दिया ऐसा मानना शरणागतिशास्त्र को न जानना है । श्री वरवर मुनि ने यतिराज श्री रामानुजाचार्य की प्रार्थना करते हुए कहा है-
कालत्रयेऽपि करणत्रयनिर्मितानि पापक्रियस्य शरणं भगवत्क्षमैव ।
सा च त्वयैव कमलारमणेऽर्थितत्वात् क्षेमस्स एवहि यतीन्द्र भवच्छूितानाम् ॥
यतीन्द्र ! त्रिकाल में मनसा, वाचा, कर्मणा पाप में संलग्न चेतन के लिये भगवान् की दया का ही एकमात्र सहारा है । इसके लिये आपने ही लक्ष्मीपति से प्रार्थना करली । यह प्रार्थना आपके शिष्यजनों एवं उनकी परम्परा का कल्याण करने वाली है । ( छ )
श्रीवेदान्तदेशिक ने भगवान् श्री रंगनाथ की प्रार्थना की है-
उक्त्या धनञ्जयविभीषणलक्ष्यया ते प्रत्याय्य लक्ष्मणमुनेर्भवतावतीर्णम् ।
श्रुत्वा वरं तदनुबन्धमदावलिप्ते नित्यं प्रसीद भगवन् मयि रङ्गनाथ ॥
( न्यासतिलक २२ )
रंगनाथ भगवन् ! अर्जुन और विभीषण के लिये कहे गये वचनों से विश्वास दिलाकर आपने श्री रामानुजाचार्य को जो वरदान दिया था उसका लाभ आचार्य की शिष्यपरम्परा तक पहुँचता है यह मेरे गर्व की बात है । शिष्यपरम्परा के द्वारा मेरा आचार्य से सम्बन्ध है अतः आप मुझ पर प्रसन्न हों ।
उपर्युक्त उद्धरणों के अनुसार भगवान् रामानुजाचार्य की परम्परा उनके अनुष्ठान में अपने साधन का अनुभव करती है तथा भगवान् के द्वारा दिये गये वरदान को अपने लिये भी मानती है ।
सिद्धान्तचर्चा की पद्धति
सिद्धान्तचर्चा के अनेकों प्रकार हैं प्राचीन व्याख्याकारों ने शरणागति मन्त्र के विशेषार्थों की दृष्टि से गद्यत्रय पर विचार किया है । शरणागति मन्त्र ने जिस शरणागति का विधान किया है उसकी त्रिपुटी में शरण्य, शरणागत और शरणागति का ग्रहण होता है । इसी क्रम से यहाँ विचार करें । ( ज )
शरण्य
नारायण नाम- गद्यत्रय में जिस शरणागति मन्त्र की व्याख्या है उसके अनुसार शरण्य का नाम नारायण है। तीनों गद्यों में ‘नारायण’ नाम मिलता है । शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य में दो बार ‘नारायण’ नाम आया है ।
अन्य नाम - ‘नारायण’ नाम के अतिरिक्त शरणागति गद्य में परब्रह्मभूत, पुरुषोत्तम, श्रीमान्, श्रीवैकुण्ठनाथ और भगवान् नाम मिलते हैं। श्रीरंगगद्य में परब्रह्मभूत, पुरुषोत्तम, श्रीरंगशायी भगवान् को काकुत्स्थ, श्रीमन्, पुरुषोत्तम एवं श्रीरंगनाथ के नाम से सम्बोधित किया गया है । वैकुण्ठगद्य में परम पुरुष और भगवान् के नाम से उनका उल्लेख मिलता है ।
नामों का अर्थ - इन नामों का साधारण अर्थ इस प्रकार है
- १. नारायण - वह सम्पूर्ण जगत् में हैं और सारा जगत् उनमें है
- २. परब्रह्मभूत - वह महान् हैं ।
- ३. पुरुषोत्तम - वह समस्त पुरुषों से ( चेतनों) से उत्तम हैं।
- ४. श्रीमान्– वह लक्ष्मीपति हैं ।
- ५. वैकुण्ठनाथ - वह वैकुण्ठधाम के स्वामी हैं ।
- ६. भगवान् – वह समस्त कल्याणगुणों के आकर हैं ।
- ७. काकुत्स्थ—ककुत्स्थ वंश में उन्होंने श्रीराम के रूप में अवतार ग्रहण किया है ।
- ८. श्रीरङ्गनाथ—वह श्रीरंगधाम के स्वामी हैं ।
- ६. परमपुरुष – वह समस्त पुरुषों से बढ़कर हैं । ( झ )
स्वरूप
- शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य का पहिला सम्बोधन शरण्य के स्वरूप को इस प्रकार प्रकट करता है—
- १ ) वह समस्त हेयगुणों से रहित हैं। अचेतन पदार्थों में होने वाले विकार तथा चेतनों को होने वाले दुःख, अज्ञान आदि उनमें नहीं होते।
- २ ) वह समस्त कल्याणों के आधार हैं ।
- ३ ) वह अपने से भिन्न समस्त चेतन एवं अचेतन पदार्थों से विलक्षण हैं ।
- ४) वह अनन्त अर्थात् देश, काल और वस्तु की सीमा से वह सीमित नहीं है ।
- ५ ) वह ज्ञानानन्द के एक स्वरूप हैं ।
( क ) ज्ञान के कारण वह स्वयं प्रकाश और आनन्द के कारण प्रिय हैं । (ख) आनन्द भी एक विशेष प्रकार का ज्ञान ही तो है । ऐसा आनन्द उनका स्वरूप है । (ग) उनका स्वरूप चिन्मय आनन्द है, जड़ आनन्द नहीं । आनन्द के पहिले ज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रकट करता है ।
रूप
पाञ्च रात्र आगम ने भगवत्तत्त्व के पांच प्रकार बताये हैं । ये हैं—पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चा । शरणागतिगद्य और वैकुण्ठगद्य में पर रूप का स्पष्ट वर्णन है । श्रीरङ्गगद्य में ‘काकुत्स्थ’ विभव का और ‘श्रीरङ्गनाथ’ अर्चा ( ञ )
का निर्देश करता है । व्यूह का संकेत शरणागतिगद्य के जगदुदयविभवलयलील’ में तथा ‘नारायण’ में मिलता है । भगवान् के इन सभी रूपों की विशेषतायें शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य के दूसरे सम्बोधन के अनुसार इस प्रकार हैं
- १. स्वाभिमत – जो भगवान् को सदा अभिमत है अर्थात् कभी अप्रिय नहीं होता ।
- २. अनुरूप – जो कभी अपने स्वरूप का बाधक नहीं होता ।
- ३. एकरूप – जो सदा एक रूप रहता है । कभी विकारयुक्त नहीं होता ।
- ४. अचिन्त्य – उस जैसा कोई दूसरा रूप नहीं होता। जो तर्क से परे है ।
- ५. दिव्य – जो पाञ्चभौतिक नहीं है ।
- ६. अद्भुत – जो आश्चर्यमय है । सदा नवीन लगता है ।
- ७. नित्य - - जो नित्य है ।
- ८. निरवद्य – जो शरीरगत दोषों से रहित है ।
- ९. औज्ज्वल्य – जो प्रकाशमान है ।
- १०. सौन्दर्य – जिसका एक एक अंग सुन्दर है ।
- ११. सौगन्ध्य– जो सुगन्ध से युक्त है।
- १२. सौकुमार्य – जो सुकुमार है ।
- १३. लावण्य – जो पूर्ण रूप से सुन्दर है ।
- १४. यौवन – जो यौवन से सम्पन्न है ।
इन विशेषताओं में से अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य, यौवन, लावण्य, सौकुमार्य आदि का उल्लेख वैकुण्ठगद्य में भी ( ट )
है । ध्यान रहे कि इसी प्रकार की अन्य विशेषतायें भी भगवान् के रूप में सदा रहती हैं ।
भगवान् के रूप में, उसके वर्ण, आभा आदि के अतिरिक्त एक एक अंग की शोभा अवर्णनीय होती है । वैकुण्ठगद्य के चतुर्थ वाक्य में अलकावली, ललाट, नेत्र, भ्रूलता, नासिका, कपोल, अधर, ग्रीवा, ( गरदन ), स्कन्ध ( कन्धे ), करतल ( हथेली ), अंगुलियाँ, नखावली एवं चरणों का निर्देश किया गया है ।
भूषण
रूप के प्रसङ्ग में वस्त्र भूषण भी उल्लेखनीय हैं । पीताम्बर भगवान् का विशेष वस्त्र है । भूषणों में शरणागतिगद्य के ५ वें वाक्य के चौथे सम्बोधन में किरीट, मुकुट, चूडामणि, कुण्डल, कण्ठहार, भुजबन्ध, कंगन, श्रीवत्सचिन्ह, कौस्तुभमणि, मुक्ताहार, उदरबन्धन, कर्धनी, नूपुर, इन भूषणों को गिनाया गया है वैकुण्ठगद्य के चौथे वाक्य में इन भूषणों के अतिरिक्त अंगूठियों एवं वैजयन्ती, वनमाला का भी उल्लेख है । भूषणों की संख्या इतनी ही नहीं है। ये नाम तो केवल विशेष भूषणों का संकेत करते हैं । ये सारे भूषण दिव्य हैं । भगवान् की अनुरूपता, विचित्रता, आश्चर्यमयता, नित्यता, निर्मलता, सुगन्ध, सुखस्पर्शता एवं उज्ज्वलता इनकी विशेषतायें हैं ।
आयुध
भगवान् के आयुध भी असंख्य हैं। ये सारे आयुध भगवान् के अनुरूप, अचिन्त्य, शक्तिसम्पन्न एवं दिव्य हैं। इन आयुधों में सुदर्शनचक्र पाञ्चजन्य शंख, कौमोदकी गदा, नन्दक खड्ग एवं शार्ङ्ग धनुष उल्लेखनीय हैं। ( ठ )
शरणागतिगद्य और वैकुण्ठगद्य में इनका नाम निर्देश है । शंख, चक्र, एवं गदा के साथ भगवान् के एक कर में कमल का भी उल्लेख मिलता है । परमसंहिता के अनुसार भगवान् के कमल में सृष्टि का, चक्र में स्थिति का, गदा में संहार का, शंख में मुक्ति का बीज है । भगवान् के पाँच आयुध आकाश वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के शक्ति केन्द्र भी माने जाते हैं ।
भूषणों और आयुधों का रहस्य
भगवान् के रूप, भूषणों एवं आयुधों का रहस्य यह है कि जगत के समस्त चेतनाचेतन तत्त्वों का केन्द्र इनमें विद्यमान है। कौस्तुभमणि चेतन जीवात्मा का प्रतीक है। श्रीवत्स चिन्ह प्रकृति का केन्द्र है। गदा में महत्तत्व, शंख में सात्विक अहंकार, शार्ङ् धनुष में तामस अहंकार, खड्ग में ज्ञान, चक्र में मन, वाणों में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ, वनमाला में पञ्चमहाभूतों का अनुभव किया जाता है ।
गुण
भगवान् असंख्य कल्याण गुणों के आकर हैं। तीनों ही गद्यों में इनका उल्लेख मिलता है । ये सारे गुरग स्वाभाविक हैं तथा सीमारहित हैं। ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज ये छ: प्रधान गुण हैं। इनका विस्तार अन्य गुणों में मिलता है। इन अन्य गुणों में सौशील्य वात्सल्य आदि गुण ऐसे हैं जिनका उपयोग आश्रित जनों के संग्रह एवं संरक्षण में होता है । प्रमुख गुणों की तालिका एवं उनकी व्याख्या इस प्रकार है( ड )
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१. ज्ञान –- भगवान् सर्वज्ञ हैं । वे स्वतः सर्वदा पूर्ण रूप से समस्त पदार्थों का साक्षात्कार करते हैं ।
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२. बल–भगवान् समस्त पदार्थों को धारण करते हैं । ऐसा करने से उनको कोई श्रम नहीं होता ।
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३. ऐश्वर्य –- भगवान् समस्त पदार्थों का नियमन करते हैं । वह सर्वनियन्ता हैं ।
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४. वीर्य – धारण और नियमन करने में वे कभी शिथिल नहीं होते । सब का उपादान होने पर भी उनमें कभी कोई विकार नहीं होता ।
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५. शक्ति – अघंटित को घटित करने की सामर्थ्य उनमें है ।
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६. तेज – उनको किसी सहकारी की अपेक्षा नहीं होती । वे कभी किसी से पराभूत नहीं होते ।
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७. सौशील्य – भगवान् की सुशीलता यह है कि वे महान् से महान् होते हुए छोटे से छोटे से मिलते हैं ।
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८. वात्सल्य – गोमाता का अपने बछड़े के प्रति, माता का अपनी सन्तान के प्रति जो प्रेम देखा जाता है उसे वात्सल्य कहते है। भगवान् प्रेमपूर्वक अपने अभिमतजनों के दोषों को क्षमा के द्वारा नष्ट कर देते हैं । यह भगवान् का वात्सल्य है ।
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९. मार्दव – भगवान् के स्वभाव में मृदुता है जिसके कारण वे अपने अभिमत जनों के विरह को सहन नहीं कर पाते और सरलता से उनको प्राप्त हो जाते हैं । ( ढ )
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१०. आर्जव – ऋजुता भगवान् का गुण है । उनके मन वाणी और क्रिया में एकरूपता रहती है ।
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११. सौहार्द – भगवान् समस्त प्राणियों के सुहृद हैं । सब का हित चाहना उनका स्वभाव है ।
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१२. साम्य –- जाति, गुण, अवस्था, वृत्ति आदि के तारतम्य की चिन्ता न कर भगवान् समस्त प्राणियों को समान रूप से आश्रय प्रदान करते हैं ।
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१३. कारुण्य – भगवान् दया के समुद्र हैं । विना किसी प्रयोजन के वे दूसरों के दुःखों को दूर करने की इच्छा रखते हैं ।
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१४. माधुर्य – मधुरता भगवान् में सदा रहती है। वे सदा रसरूप हैं ।
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१५. गाम्भीर्य –- भगवान् स्वभाव से गम्भीर हैं ।
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१६. औदार्य – प्रत्युपकार की कोई इच्छा न रखकर भगवान् देते हैं। अधिक से अधिक देकर भी कभी तृप्त नहीं होते !
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१७. चातुर्य – आश्रितजनों की शंकाओं तथा दोषों के दूर करने में भगवान् चतुर हैं ।
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१८. स्थैर्य — अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में वे कभी विचलित नहीं होते। स्थिरता उनमें सदा रहती है ।
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१९. धैर्य – कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे अपनी प्रतिज्ञा से विचलित नहीं होते । ( ण )
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२०. शौर्य – विरोधियों में भी निर्भयता से प्रवेश करने में भगवान् समर्थ हैं ।
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२१. पराक्रम – अपनी सामर्थ्य से विरोधियों को छिन्न-भिन्न करने में वे सदा समर्थ हैं ।
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२२. सत्यकाम – सत्यकामत्व भगवान् का एक गुण है । इसके कारण उनके तथा उनके भक्तजनों के भोग्य पदार्थ सदा उपस्थित रहते हैं ।
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२३. सत्यसंकल्प – सत्यसंकल्पत्व भी भगवान् का एक गुण है। इसके कारण भगवान् अपूर्व भोग्य पदार्थों की सृष्टि तत्काल करते हैं । इस जगत से लेकर वैकुण्ठधाम पर्यन्त सर्वत्र भगवान् का यह संकल्प अमोघ रहता है ।
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२४. कृतित्व – उपकार करना भगवान् का स्वभाव है ।
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२५. कृतज्ञता – दूसरों के द्वारा किये गये थोड़े उपकार को भी सदा स्मरण रखते हैं ।
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२६. श्रियःपतित्व – भगवान् श्रियः पति अर्थात् श्रीशब्दवाच्या लक्ष्मी के पति हैं । लक्ष्मी के स्वरूप, रूप, गुण, वैभव एवं ऐश्वर्य शील आदि असंख्य कल्याण गुण भगवान् के अभिमत एवं अनुरूप हैं । लक्ष्मी और नारायण दिव्यदम्पती हैं। दोनों ही उपाय एवं प्राप्य हैं । शरणागति में लक्ष्मी का पुरुषकार भी है । इस प्रकार पुरुषकार, उपाय और ( त )
प्राप्य
ये तीनों रूप लक्ष्मी के हैं। शरणागतिगद्य में सर्वप्रथम उनकी ही शरणागति की गई है । शरणागति गद्य के ५ बें वाक्य में छटा सम्बोधन लक्ष्मी से ही सम्बद्ध है । इस सम्बोधन में भगवान् को श्रीवल्लभ कहने के पश्चात् अगले सम्बोधन में उनको भूमि नीला नायक कहा गया है। वैकुण्ठगद्य के चौथे वाक्य में बताया गया है कि लक्ष्मी वैकुण्ठधाम को अपनी दृष्टि से आप्लावित करती हैं तथा समस्त परिजनों को सेवा की आज्ञा प्रदान करती हैं ।
ध्यान रहे कि श्रीदेवी, भूदेवी और नीलादेवी ये तीन रूप क्रमशः भगवान् की दया, क्षमा और उदारता को विशेषतया प्रकट करते हैं ।+++(5)+++
लीलाविभूति
यह सम्पूर्ण जगत भगवान् की लीलाविभूति है । शरणागतिगद्य के ५ वें वाक्य के १० वें सम्बोधन से इसकी ये विशेषतायें प्रकट होती हैं-
- १. इस जगत का स्वरूप, स्थिति और प्रवृत्ति भगवान् के संकल्प के अधीन है ।
- २. यह जगत् भगवान् का शेषभूत है ।
- ३. इस जगत् में तीन धारायें हैं- जड़ प्रकृति, काल और चेतन जीवात्मा ( थ )
- ४. इस जगत् में चार विभाग मिलते हैं - भोग्य, भोक्ता, भोगोपकरण और भोगस्थान । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध भोग्य हैं । चेतन जीवात्मा भोक्ता हैं । इन्द्रियाँ भोगोपकरण हैं और शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक सारे भोगस्थान हैं ।
नित्यविभूति
लीलाविभूति से परे भगवान् की नित्यविभूति है शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य के ९ वें सम्बोधन में संक्षिप्त रूप से तथा वैकुण्ठगद्य में विस्तृत रूप से इसका वर्णन किया गया है । तात्पर्य इस प्रकार है-
-
१. नित्यविभूति नित्य, दिव्य एवं अनन्त है ।
-
२. वैकुण्ठधाम, परम व्योम आदि इसके नाम है ।
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३. यह दिव्यधाम वाणी एवं मन के लिये अगोचर है ।
-
४. इसका स्वरूप, स्वभाव, परिमाण, ऐश्वर्य आदि का पूरा ज्ञान इस जगत् में अशक्य है । ऋषियों एवं देवताओं के लिये यह दिव्यधाम अचिन्त्य है ।
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५. इस दिव्यधाम में भगवान् के अभिमत अनन्त भोग्य, भोगोपकरण एवं भोगस्थान हैं। दिव्यधाम के चारों ओर दिव्य आवरण हैं, मध्य में दिव्य उद्यान हैं जिनके केन्द्र में दिव्य आयतन है । यह दिव्य आयतन उन दिव्य उपवनों से सुशोभित है जिनमें दिव्य लीलामण्डप क्रीडामण्डप एवं बावलियाँ हैं । दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का अनुभव होता है । ( द )
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६. दिव्यधाम का केन्द्र है दिव्य आयतन और दिव्य आयतन का केन्द्र है दिव्य आस्थान मण्डप । इस मण्डप के मध्य में दिव्ययोग पर्यङ्क है जहाँ अनन्त शेष पर शेपी भगवान् के पररूप का साक्षात्कार होता है ।
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७. इस दिव्यधाम में अनन्त परिजन एवं परिचारिकायें हैं जिनमें शेष, विष्वक्सेन एवं गरुड प्रधान हैं। परिजनों में उल्लेखनीय हैं पार्षद, गणनायक और द्वारपाल तथा परिचारिकाओं में चामरहस्ता देवियाँ ।
तात्त्विकदृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनन्त शेष सिंहासन, शय्या, आसन, पादुका, वस्त्र, तकिया आदि रूपों में अपने शेषभाव को प्रकट करते हैं। शेष ज्ञान और बल के प्रतीक हैं । गरुड़ वाहन, ध्वज, वितान एवं व्यजन के रूप में अपने दास्यभाब को प्रकट करते हैं। वह वेदमय हैं । विष्वक्सेन दण्डधर और सेनापति हैं। परिजनों में जो नौ चामरहस्ता देवियाँ, आठ द्वारपाल और आठ गणनायक हैं वे भगवान् के विभिन्न गुणों को अभिव्यक्त करते हैं ।
शरणागत
चेतनाचेतन
श्रीरङ्गगद्य के पहिले तथा श्रीवैकुण्ठ गद्य के दूसरे वाक्य के प्रथम पद में बताया गया है कि त्रिविध चेतन और अचेतन का स्वरूप, स्थिति और प्रवृत्ति भगवान् के अधीन है । तीन प्रकार के चेतन हैं - (१) नित्य, (२) मुक्त और (३) बद्ध । नित्य वे हैं जो भगवान् की नित्यविभूति में सदा से परिजन भाव में उपस्थित हैं। मुक्त वे हैं जो कर्मबन्धन एवं ( ध )
प्रकृति सम्बन्ध से मुक्त होकर इस भाव को प्राप्त होते हैं । ये नित्य और मुक्त सदा भगवान् का अनुभव और कैंकर्य करते रहते हैं । बद्ध वे हैं जो अभी तक संसार से मुक्त नहीं हो सके हैं ।
बद्ध चेतन
चेतन को बन्धन की यह अवस्था कहाँ से और कैसे प्राप्त हुई ? इस प्रश्न का उत्तर शरणागति गद्य के ११, १२, १३, १८ तथा २१ संख्या के वाक्यों में है । इन वाक्यों से प्रकट होता है कि अनादि कर्मप्रवाह के कारण चेतन की प्रवृत्ति प्रकृति की ओर है और वह संसार के बन्धन में है। पाप ( विपरीत कर्म ), अहंकार ( विपरीत ज्ञान ) और वासना के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध ने इस कर्म के प्रवाह को बनाये रक्खा है । फलस्वरूप चेतन का अपना स्वरूप जागृत नहीं हो पाता । वह विपरीत ज्ञान और विपरीत कर्म के परिणामों को त्रिविध तापों के रूप में भोगता रहता है ।
कर्म, पाप, अहंकार, वासना और त्रिविध तापों की व्याख्या इस प्रकार की जाती है -
कर्म
कर्म के तीन भेद हैं – प्रारब्ध, सञ्चित और क्रियमाण ।
- १. प्रारब्ध – जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है ।
- २. संचित – जिनका भोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है ।
- ३. क्रियमाण – जो किये जारहे हैं । कालभेद से इसके तीन प्रकार हैं– भूत, वर्तमान और भविष्य । भूत-जो किये जा चुके हैं, वर्तमान – जो किये जा रहे हैं और भविष्य – जो किये जाने वाले हैं । ( न )
पाप
पाप के पाँच रूप हैं- अकृत्यकरण, कृत्याकरण, भगवद पचार, भागवतापचार और असह्यापचार ।
- १. अकृत्यकरण – निषिद्ध आचरण जैसे हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि ।
- २. कृत्याकरण — शास्त्रविहित सन्ध्यावन्दन, तर्पण आदि कर्मों को न करना ।
- ३. भगवदपचार – भगवान् के अपराध जैसे भगवान्. की सत्ता पर अविश्वास, अवतारों में प्राकृतिक बुद्धि, भगवान् की आज्ञाओं का उल्लंघन आदि ।
- ४. भागवतापचार - भागवतों का अपराध जैसे, भागवतों का अपमान, उनकी उत्कृष्टता को सहन न करना आदि ।
- ५. असह्यापचार — असहनीय अपराध जैसे, भगवान् और भागवतों से अकारण द्वेष, उनकी निन्दा करना आदि ।
अहंकार
देहात्म भ्रम, यह विपरीत ज्ञान का एक प्रकार है । जगत के विषय में भ्रम, यह विपरीत ज्ञान का दूसरा प्रकार है ।
वासना
पाप करने के लिये प्रेरित करने वाली रुचि ।
त्रिविध ताप
आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । आध्यात्मिक ताप दो प्रकार के होते हैं ( प )
मानसिक जैसे काम, क्रोध, लोभ, भय आदि; शारीरिक-रोग ।
आधिदैविक–अग्नि, वायु बिजली आदि से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख ।
आधिभौतिक – पशु, पक्षी, मनुष्य आदि से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख ।
लक्ष्य
बद्ध अवस्था चेतन की स्वाभाविक अवस्था नहीं है । इस अवस्था में उसका अपना स्वरूप तिरोहित (छिपा ) रहता है । तत्त्वतः चेतन भगवान् का शेषभूत है, भगवान् उसके शेषी हैं । इस स्वरूप की पूर्ण अनुभूति उसे प्रकृति के बन्धन से मुक्त होने पर होती है । इस अनुभूति का पर्यवसान भगवदनुभूति में होता है और भगवदनुभूति की पूर्ति भगवान् के नित्य कैंकर्य में होती है जो चेतन को नित्य विभूति में प्राप्त होता है । यही चेतन का परम लक्ष्य है । शरणागतिगद्य के २, १७, १८ व २१ श्रीरंग गद्य के १, २ व ३ और वैकुण्ठगद्य के ४, ५, ६ व ७ वाक्यों में इसका वर्णन है । इसका सार यह है-
१. मुक्त होने पर चेतन को भगवान् का जो अनुभव प्राप्त होता है उसकी विशेषतायें ये हैं-
- क. परिपूर्ण –- यह अनुभव परिपूर्ण होता है ।
- ख. अनवरत – इसका क्रम बीच में नहीं टूटता । ( फ )
- ग. नित्य – इसका अन्त नहीं होता ।
- घ. विशदतम– अनुभव का इससे अधिक विस्तार नहीं होता ।
- ङ. अनन्य प्रयोजन – इस अनुभव का अन्य कोई प्रयोजन भी नहीं होता ।
- च. अनवधिकातिशय –- यह पूर्ण प्रीतिरूप होता है ।
२. मुक्त पुरुष का यह अनुभव प्रीति, प्रीति से रति और रति से कैंकर्य की दशा को प्राप्त होता है । अनुभव का तात्पर्य है शेषत्वज्ञान, प्रीति है तदनुकूल बुद्धि, रति है तदनुकूल इच्छा और कैंकर्य है तदनुकूल ध्यवहार ।
३. भगवदनुभव के फलस्वरूप होनेवाली प्रीति परिपूर्ण होती है और प्रीति जब रति का भाव ग्रहण करती है तो उसमें समस्त अवस्थाओं के अनुरूप शेषभाव रहता है । यही कैंकर्य का प्रधान स्वरूप है ।
४. उपर्युक्त भगवदनुभव की स्थिति के पहिले की तीन अवस्थायें परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति हैं जिनको क्रमशः प्राप्त कर लेने के पश्चात् भगवदनुभव होता है । इन तीन अवस्थाओं से अभिप्राय यह हैं -
- क. परभक्ति – साक्षात्कार करने की इच्छा ।
- ख. परज्ञान – उत्तरोत्तर साक्षात्कार ।
- ग. परमभक्ति–निरन्तर अनुभव की आकांक्षा । ( ब )
५. मुक्त अवस्था में जो भगवदनुभव होता है उसमें निरन्तर संयोग की अवस्था रहती है । इस दृष्टि से परभक्ति का अर्थ होता है दर्शन की कामना, परज्ञान का संयोग और परमभक्ति का वियोग को सहन न करने की स्थिति ।
शरणागति
साधन
परमपुरुषार्थंभूत मोक्ष अथात् नित्यविभूति में भगवदनुभव तथा भगवान् का नित्य कैंकर्य प्राप्त करने के दो साधन हैं– ( १ ) भक्ति और ( २) शरणागति । श्रीरंगगद्य के द्वितीय वाक्य से प्रकट होता है कि सात्त्विकता, आस्तिकता आदिगुणों के कारण साधक कर्मयोग में प्रवृत्त होता है । कर्मयोग की समुचित क्रिया के द्वारा ज्ञानयोग का द्वार खुलता है । ज्ञानयोग के सम्यक् ज्ञान से भक्तियोग में प्रवृत्ति होती है । जो कर्मयोग, कर्मयोग से ज्ञानयोग और ज्ञानयोग से भक्तियोग की साधना में समर्थ नहीं है उनके लिये शरणागति का साधन है ।
शरणागति का आदेश
भगवान् श्री राम ने रामायण में तथा भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में जिन शब्दों के द्वारा शरणागति का आदेश दिया है वे शब्द शरणागतिगद्य के २३ वें वाक्य में भगवान् के श्रीमुख से पुनः प्रकट हुए हैंशपथ के साथ ।
शरणागति की साधना
शरणागति मार्ग में पहिले लक्ष्मी की शरणागति, तत्पश्चात् नारायण की शरणागति की जाती है । शरणागतिगद्य में यही क्रम है । पुरुषकार लक्ष्मी का ( भ )
और इसके पश्चात् उपाय और उपेय के रूप में लक्ष्मी समेत नारायण, यह व्यवस्था है । गद्यत्रय में ‘श्रीमन्’ इस व्यवस्था का द्योतक है । उपाय और उपेय दोनों का वर्णन गद्यत्रय में है । शरणागति के अंगों का संकेत भी इसमें मिलता है ।
- १) आनुकूल्यसंकल्प,
- २) प्रातिकूल्यवर्जन,
- ३) कार्पण्य
- ४) महाविश्वास,
- ५) गोप्तृत्ववरण और
- ६ ) आत्मनिवेदन
गद्यत्रय से गतार्थ हैं । स्वनिष्ठा के साथ साथ उक्तिनिष्ठा की भी चर्चा इसमें है । इन्हीं कारणों से शरणागति की साधना में शरणागति गद्य का उपयोग किया जाता है । और शरणा- गति के पश्चात् शरणागति मार्ग के साधक के लिये ये तीनों गद्य नित्य स्मरणीय हैं ।