+श्री-वैष्णव-मताब्ज-भास्करः

प्रकाशकीय

श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का एक अद्वितीय धर्मसंस्थान, 卐 श्रीजगदीश मन्दिर 卐

श्रीजगन्नाथजी मन्दिर भारत के गौरवपूर्ण मन्दिरों में से एक है। आज से लगभग ४३६ वर्ष पहले सिद्ध सन्त श्रीहनुमानदासजी महाराज ने अहमदाबाद के इस तपोभूमि को अपनी साधना के लिए चयन किया। साबरमती नदी के किनारे यह पवित्र भूमि आज श्रीजगन्नाथजी मन्दिर के नाम से जाना जाता है- जहाँ भगवान् श्रीजगन्नाथजी श्रीबलदेवजी, श्रीसुभद्राजी की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। सिद्ध महन्त श्रीहनुमानदासजी महाराज के सुयोग्य शिष्य श्रीसारंगदासजी महाराज ने इस जगह को विकसित किया। तत्पश्चात् उनके कृपा पात्र शिष्य महन्त श्रीबालमुकुन्ददासजी सारंगदासजी ने इस पुण्य भूमि को साधनामय बना दिया। इस मन्दिर का विकास अविरत रूपसे चलता रहा। महन्त श्रीबालमुकुन्ददासजी के परमशिष्य श्रीमहन्त श्रीनरसिंहदासजी महाराज ने इस मन्दिर को विश्वस्तर पर लाकर खड़ा किया। उनकी तपस्या और सिद्धियाँ चारों दिशाओं में व्याप्त हो गयी। यह मन्दिर त्याग और साधना का केन्द्र विन्दु हो गया मन्दिर का चहुमुखी विकास हुआ। साधु-सेवा गो सेवा तो चल ही रहा था, महाराज श्रीनरसिंहदासजी ने अन्नक्षेत्र का भी शुरुआत किया। क्षुधा तृप्ति कराना उनका सबसे बड़ा ध्येय बन गया। महाराजजी इस बात का खूब ध्यान रखते कि इस जगह से कोई भूखा न चला जाय।

एक समय अंग्रेज कलेक्टर ने मन्दिर पर छापा मारा और अपने सहयोगियों से अनाज के भण्डार में से चावल की बोरियों का वजन करने को कहा। उनके सहयोगी थक गये किन्तु अनाज के बोरी का वजन नहीं कर पाये। तत्पश्चात् अंग्रेज अफसर को ज्ञान हुआ तथा महाराजश्री के पास जाकर माफी मांगी और कहा कि महाराजजी भविष्य में कोई भी इस तरह की हरकत करने नहीं आयेगा।

श्रीमहन्त श्रीनरसिंहदासजी महाराज की ख्याति को उनके विद्वान् शिष्य श्रीमहन्त श्रीसेवादासजी महाराज ने आगे बढ़ाया मन्दिर के सम्पूर्ण विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया। उनके बाद उनके कृपापात्र शिष्य श्रीमहन्त श्रीरामहर्षणदासजी ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। आपने विश्रामद्वारका श्रीशेषमठ में जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजी से संस्कृत एवं साम्प्रदायिक ज्ञान का अर्जन किये।

इस मन्दिर के तरफ से चलाये जा रहे सदा व्रत एवं अन्नक्षेत्र में आज भी सैकड़ों व्यक्ति किसी जाति एवं धर्म के भेदभाव बिना भोजन ग्रहण करते हैं।

यद्यपि उक्त लिखित अनुसार पूर्व सभी महन्तों द्वारा यहाँ उत्तरोत्तर विकास होता ही गया है। परन्तु वर्तमान श्रीमहन्त महामण्डलेश्वर स्वामी श्रीरामेश्वरदासजी महाराज के समय में जो यहाँ प्रगति हुई है, वह अद्वितीय है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्पूर्ण मन्दिर परिसर का नव निर्माण, नवीन अत्याधुनिक गौशाला सम्पूर्ण नवीन विशाल सभागृह भोजनशाला, जगदीश उद्यान, दवा खाना, पञ्चकर्म होस्पिटल, विशाल गोबर गैस प्लान्ट, संस्कृत पाठशाला, नवीन अतिथि गृह, सर्वतो वास, भव्य विशाल धर्मसंस्थान निशकलंक महादेव का अत्याधुनिक ढङ्ग से नव निर्माण मन्दिर, सैकड़ों बीघा जमीन (जो यत्र तत्र विखरी पड़ी थी उसे मन्दिर परिसर से जोड़कर घास चारा एवं अन्न उत्पन्न करवाना) आदि अनेक कार्य पिछले पांच छ वर्षों में निर्विघ्नता से पूर्ण किए गये हैं। ज्ञातव्य है, इन सभी कार्यों में मन्दिर के मैनेजिङ्ग ट्रस्टी परमनिष्ठावान् भगवद् भक्त विवेकी विद्वान्वर्य श्रीमहेन्द्रझाजी का हाथ है इनके बिना इतना विशाल कार्य पूरा हो ही नहीं सकता था। अगर ऐसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सर्वविदित है कि जबसे आपने मेनेजिङ्ग ट्रस्टी का पद सम्भाला है, तबसे यह संस्था नित्य नए विकास की ओर अग्रसर हो रही है। आप अपनी सूझ बूझ से मात्र धार्मिक कार्यों तक ही सिमित नहीं हैं सामाजिक कार्यों पर भी अधिक रुचि रख रहे हैं। [[P3]]

इसी सन्दर्भ में आपके द्वारा, दवाखाना पञ्चकर्म होस्पिटल, गौमूत्र द्वारा कई प्रकार हठीले रोगों की दवाएँ, च्यवनप्राश, बना कर भक्तों एवं जरुरत मंदों को वितरण करवाकर भक्तिमय वातावरण के साथ-साथ स्वास्थ्य को भी भारतीय पद्धति से श्रेष्ठतम बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इसके उपरान्त श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में जिसका चलन अभी कम ही मात्रा में है वह साहित्य सेवा का भी प्रयास आपकी तरफ से निष्ठापूर्वक किया जा रहा है। संस्था की तरफ से कई ग्रन्थों का प्रकाशन संस्कृत पाठशाला एवं यह ग्रन्थ जो आपके हाथों में है, इसका प्रकाशन करवाना इन बातों का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इसप्रकार धर्म स्थानों का नव निर्माण, सन्तसेवा, गौसेवा, अतिथिगृह, दवा खाना, पाठशाला, साहित्य सेवा क्रमशः भगवत् भक्ति, सम्प्रदायनिष्ठा, जनहित के कार्य, सामाजिक सेवा आदि कार्यों के द्योतक हैं। प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक संस्था में अगर श्रीमहेन्द्रझाजी जैसे निष्ठावान् ट्रस्टीगण हो तो वह संस्था अवश्य ही प्रगति के पथ पर अग्रसर होगी। अस्तु इनका यह कार्य दर्शनीय, प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है।

गौ सन्तसेवी महामण्डलेश्वर स्वामी श्रीरामेश्वरदासजी महाराज उनके सहयोगी श्रीमहेन्द्रझाजी सहित अन्य सभी ट्रस्टीगण वास्तव में अभिनन्दन के पात्र हैं।

प्रकृत सद्‌ग्रन्थरत्न प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की ईश केन कठ प्रश्न मुण्ड माण्डूक्य तैत्तिरीय ऐतरेय छान्दोग्य बृहदारण्यक एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् इन ग्यारह उपनिषदों के आनन्दभाष्य, ब्रह्मसूत्रानन्दभाष्य एवं गीता आनन्दभाष्य के बाद की अन्तिम कृति है। यह आचार्यश्री के सद्‌ग्रन्थरत्नों के परिशीलन से स्पष्ट है, जिसका उल्लेख आगे पृष्ठ-२८ से २९-तक निदर्शित है यह श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर दिव्य ग्रन्थ जगद्‌गुरु श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी के दश प्रश्नों के समाधान प्रक्रिया में दश परिच्छेदों में आचार्यश्री से उपदिष्ट है। जिसमें २०३ श्लोक आबद्ध हुए हैं एवं श्रीरामार्चनपद्धति श्रीवैष्णव मताब्जभास्कर के परिशिष्ट रूपमें आबद्ध हुई है। इनके विषय में भी सिंहावलोकन पृष्ठ-२९ से ४१-तक अवलोकनीय है। यहाँ तो केवल आनन्दभाष्यसिंहासनासीनजी से लिखित प्रभा टीका मूल दिव्य प्रबन्ध के परिच्छेदानुसार किन पृष्ठों में अङ्कित है उसे ही निदर्शित किया जा रहा है। इस महान् वाद टीका ग्रन्थ की स्वतन्त्र समीक्षा अपेक्षित है सती अवसरे पुनः। अभी तो किन किन पृष्ठों में प्रभा एवं किरण टीका अङ्कित है उसीका निदर्शन किया जा रहा है परिच्छेद १ में श्लोक ९ के १ से ५ श्लोक तक मङ्गलाचरण एवं प्रश्न उत्तर २७ पृष्ठ तक, श्लोक ६ से प्रकृति निरूपण ८० पृष्ठ तक ५३ पृष्ठ में हुआ है ७ श्लोक जीव निरूपण १५६ पृष्ठ तक ७६ पृष्ठ में हुआ है। श्लोक ८-९ ईश्वर निरूपण २३३ पृष्ठ तक ७७ पृष्ठ में हुआ है। परिच्छेद-२ में ४४ श्लोकों से जाप्य निरूपण ३०६ तक ७३ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद ३ ध्येय निरूपण ६ श्लोकों में ३१० तक ४ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद-४ मुक्तिसाधन ४९ श्लोक ३८७ तक ७७ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद ५ श्रीवैष्णवधर्मनिरूपण १८ श्लोक ४०० पृष्ठ तक १३ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद-६ श्रीवैष्णवभेद २१ श्लोक ४१० पृष्ठ तक १० पृष्ठ में हुआ है। परिच्छेद-७ श्रीवैष्णवलक्षण ८ श्लोक ४२७ पृष्ठ तक १७ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद-८ कालक्षेप ९ श्लोक ४३४ पृष्ठ तक ७ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद-९ श्रीवैष्णव प्राप्यनिरूपण १० श्लोक ४४९ तक १५ पृष्ठों में हुआ है। परिच्छेद-१० निवास स्थान निदर्शन १५ श्लोक ४६१ तक १२ पृष्ठों में हुआ है फलश्रुति ४ श्लोक ४६४ तक ३ पृष्ठों में हुआ है। आमुख पृष्ठ यों कुल पृष्ठों का विशालकाय श्रीरामानन्द वेदान्तदर्शन का बहुमूल्यरत्न को प्रकाशित कर समाज का विशेष उपकार करनेवाले श्रीजगदीश मन्दिर अहमदाबाद के ट्रस्टी मण्डलों को अनेकानेक धन्यवाद। सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी से मङ्गलकामना करते हैं कि इन सभी परोपकारी जीवों को सत् प्रवृत्तियों में लगाये रखें।

महामण्डलेश्वर श्रीरामावतारदासजी ‘रत्न’ [[P4]]

सिंहावलोकन

भारतीय शास्त्र भण्डार का सर्वोत्कृष्ट रत्न श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की अन्तिम कृति है। जो भाष्यकारजी के दिग्विजय प्रसङ्ग में द्वारका-विश्रामद्वारकादि स्थलों की यात्रा को सम्पन्न करते हुये अर्बुदाचल-आबू पर्वत पहुँचने एवं वहां प्रतिपक्षियों के साथ दार्शनिक विवाद में विजयश्री को स्वीकार कर सर्वेश्वर श्रीरघुनाथजी के अर्चाविग्रह के प्रतिष्ठा प्रसङ्ग में श्रीआचार्यजी के प्रमुख द्वादश शिष्यान्यतम जगद्‌गुरु श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी के ‘तत्त्वं किम्’ आदि दश प्रश्नों के उत्तर के रूपमें ग्रथित हुआ है, प्रश्नानुरूप दश विभागों में विभक्त है।

प्रथम परिच्छेद में ९ श्लोक हैं। १-श्रीराम विषयक मङ्गलाचरण परक है। २-रा-श्रीसीताजी विषयक एवं ३-रा-श्रीराम शस्त्रास्त्र सङ्घों के चमत्कार वर्णन परक है। ४-था जगद्‌गुरु श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी का दश प्रश्नात्मक है जो १-तत्त्व क्या है? २-जप्य महामन्त्र कौन है? ३-ध्येय तत्त्व कौन है? ४-मोक्ष का कारण क्या है, ५-मुख्य धर्म कौन है, ६-वैष्णव कितने प्रकार के होते हैं, ७-उनका लक्षण क्या है, ८-कालक्षेप कैसे करना, ९-निवास कहां करना एवं १०-प्राप्य तत्त्व क्या है? इहीं प्रश्नों के उत्तर जगदाचार्यश्री की पूर्वाचार्य नमस्कारात्मक शिष्य सावधान परक प्रतिज्ञारूप वाणी है ५वें श्लोक में आचार्यश्री ने छठे श्लोक में अति स्पष्ट रूपसे प्रकृति का निरूपण किया है जो ऐसा संक्षिप्त एवं सुस्पष्ट वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। ७वें में सर्वशास्त्र सम्मत जीव स्वरूप [[P29]] का विवेचन किये हैं। इस वर्णन शैली को देख दार्शनिकों का मन मुग्ध हो जाता है कि जीवों के स्वरूप को एक ही श्लोक में गूंथ दिया गया है। ८-एवं ९वें में ईश्वर सर्वेश्वर श्रीराम तत्त्व का निरूपण किया गया है।

यों ‘तत्त्वं किम्’ ? प्रश्न का जवाब देकर ‘जाप्यं किम्’ ? का जवाब दूसरे परिच्छेद में ४४ श्लोकों से दिया गया है। उसमें एक श्लोक जप्यात्मक रहस्य श्री मन्त्रराज मन्त्ररत्न एवं चरममन्त्र का संक्षिप्त निरूपण कर २ रे से २३वें तक मन्त्रराज का साङ्गोपाङ्ग वर्णनकर २४ से ३५ तक में श्रीमन्त्ररत्न का निरूपण किया गया है। अनन्तर ३६ से ४४ तक के श्लोकों में चरममन्त्र का निरूपण हुआ है।

‘ध्यानं किम्?’ इस ३ रे प्रश्न के उत्तर में ६ श्लोकों से सर्वेश श्रीरामजी का सपरिकर ध्यान का निरूपण कर ‘मुक्तेः साधनं किम्’? इस ४ थे प्रश्न के समाधानार्थ ५९ श्लोकों का ग्रथन हुआ है। जिसमें दो श्लोकों में संक्षिप्त संस्कार का निरूपण कर ३ से ६ तक ४ श्लोकों से गुरु के लक्षण का निरूपण हुआ है जगदाचार्यश्री के आदेशानुसार—सायुज्य मुक्ति प्राप्ति हेतु साधकों को जीतेन्द्रिय पवित्र शास्त्रीय-साधावेश धारक अच्छे कुल में उत्पन्न सदाचार परायण नम्र शास्त्रों को जाननेवाला सदुपदेश देने में पटु विरक्त आश्रम में स्थित श्रीरामजी के ध्यान में संलग्न विशुद्ध बुद्धि वाले निग्रह तथा अनुग्रह में समर्थ को आचार्य-गुरु बनाना चाहिये पर हीन अङ्ग वाला अन्धा हाथ पैर आदि विना का अधिक अंग वाला कपटी काला दाँत वाला आँख का रोगी कुष्टी निरर्थक बहुत बोलनेवाला वामन व्यसन—गांजा भांग बीडी सिगरेट अफीम खैनी आदि व्यसन वाला बहुत सोने वाला खराव नाखूनवाला बहुत खानेवाला को किसी भी स्थिति में आचार्य-गुरु नहीं बनाना चाहिये। ७ एवं ८ से शिष्य लक्षण बताकर ९ से १४ श्लोकों से शिष्य संस्कार मन्त्रोपदेश एवं भक्ति का स्वरूप तथा नवधा भक्ति का उपदेश किये हैं। मुक्ति के साधन में अंगभूत व्रतों में एकादशी व्रत का निर्णय १५ से २६ तथा श्रीरामनवमी व्रत निर्णय २७ से २९ एवं श्रीजानकी नवमी व्रत निर्णय ३०-वें से कर ३१ वें से श्रीहनुमज्जयन्ती व्रत को बताकर ३२-३३ से श्रीनृसिंह जयन्ती व्रत का निर्णय किये हैं अनन्तर ३४ से ३७ तक में श्रीकृष्णाष्टमी व्रत निर्णय कर ३८ से ४१ तक में श्रीवामन द्वादशी व्रत का निर्णय किये हैं बाद में ४२ से ४९ तक में यथातथ्य विस्तारपूर्वक सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की कृपा आदि भेदों का निरूपण किये हैं। इसी प्रसङ्ग में जगदाचार्यश्री लिखते हैं—

‘सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता पदयोर्जगत्प्रभोः ।
अपेक्षते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो न च शुद्धतापि वै ॥४।५०

यानी यह जगदाचार्यश्री की दिव्य घोषणा है कि श्रीरामजी के प्रपत्ति के अधिकारी मानव मात्र है, इसमें किसी वर्ण विशेष या जाति विशेष मात्र का अधिकार नहीं, पोषणानुरूप कार्य में परिणत् भी करके जगत् को बता दिये जिसका उदाहरण श्रीकबीरदासजी श्रीरमादासजी प्रभृति हैं जिसका उल्लेख इतिहासकारों ने स्वर्णाक्षरों में किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जगद्‌गुरुत्वपना आनन्दभाष्यकारजी में ही वस्तुतः घटित है, अन्यों में नहीं।

५१ से ५९ श्लोकों से श्रीरामप्रपत्ति स्वीकार किये साधकों का सम्मानपूर्वक श्रीरामशेषत्व की भावना से वेदविहित धर्माचरण द्वारा श्रीराम सायुज्य प्राप्त करने का निर्देश है।

एकः धर्मः कः? इस ५वें प्रश्न के उत्तर में १८ श्लोक ग्रथित हुये हैं। जिसमें चार श्लोकों तक सामान्यतः अहिंसा धर्म का निरूपण कर ५वें से १० तक विशेष श्रीवैष्णव विरक्त धर्म का निरूपण किया गया है अनन्तर ११वें से १८ तक श्रीरामजी के अर्चावतारों के स्वरूपों एवं षोडषोपचार पूजन प्रार्थना तथा दण्डवत् प्रणाम का निरूपण है। अनन्तर वैष्णवः कतिधाः? इस छठे प्रश्न के उत्तर में वेद, स्मृति आदि शास्त्रों से अनुमोदित जीवों के बद्ध, मुक्त, नित्य आदि अनेक [[P30]] भेद प्रभेदों का निरूपण २१ श्लोकों में किये हैं। बाद में लक्षणं किञ्चतेषाम्? इस सातवें प्रश्न के समाधान में ८ श्लोकों का अवतरण हुआ है, जिसमें श्रीवैष्णवों के ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक तुलसी की कण्ठी धारणीय वस्त्र-कटिवस्त्र आदि विशुद्धवेश का यथाशास्त्र निरूपण हुआ है।

कालक्षेपः कथम्? इस ८वें प्रश्न के विषय में ९ श्लोकों का अवतरण हुआ है। जिसमें नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर सर्वेश्वर श्रीरामजी की प्रातः मध्याह्न एवं सायंकाल में यथोपचार सामग्री से आराधना कर श्रीमद्रामायण पुरुषसूक्त महाभारत, पूर्वाचार्यों से प्रणीत दिव्य प्रबन्धों एवं जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य प्रणीत प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्यों के स्वाध्याय तथा प्रवचन से काल-समय का क्षेप-यापन करने का उपदेश हैं। यदि स्वतः अध्ययन में अक्षम हों तो इनकी कथा सुनें। कथा सुनानेवाले श्रीवैष्णव की अनुकूलता न हो तो श्रीगुरुदेवजी से सविधि प्राप्त मन्त्रों का जप मन्त्र एवं सपरिकर श्रीरामचन्द्रजी की ईर्ष्या रहित होकर कैङ्कर्य करते हुये अपना समय व्यतीत करें—

‘रामस्य साङ्गस्य से पार्षदस्य सीतासमेतस्य सहानुजस्य ।
कैङ्कर्यमीर्ष्यारहितः प्रकुर्वन् क्षिपेत् स्वकालं सततं सुभक्तः ॥’

प्राप्यः किम्? इस ९वें प्रश्न के समाधान में १० श्लोकों का ग्रथन हुआ है जिसमें अचिरादिमार्ग द्वारा इन्द्र ब्रह्मादि प्रत्येक देवों से सत्कृत होता हुआ जीवात्मा श्रीरामजी का कैङ्कर्यरूप सायुज्य प्राप्त कर लेता है। उस विषय का सर्वशास्त्रानुमोदित तात्विक वर्णन हुआ है। प्राप्य श्रीराम स्वरूप का वर्णन करते हुये आचार्यश्री कहते हैं—

श्रीमान् दिव्यगुणाब्धिरौपनिषदो हेतुः शरण्यः प्रभुः
देवेशो जगतामनादिनिधनो ब्रह्मादिदेवार्चितः ।
तारार्कानलचन्द्रमोबहुमहः सौदामिनीभासको
ऽजय्यो वीरसपत्नशस्त्रनिचयैर् जेता च तेषां मुहुः ॥९-२॥
नित्यो ब्रह्मविधायकश्च पुरुषो वेदप्रदो ब्रह्मणे
नित्यानां शरणं तपः प्रभृतिभिः सद्योगिनां दुर्लभः ।
एकश्चेतनचेतनो भृतजगद् ध्येयः स्वतन्त्रोवशी
स प्राप्योऽस्ति मुमुक्षुभिः सुगुरुभिः सत्सङ्गिभिस्तत्परैः ॥९-३॥

यानी ‘परमात्मा नराकृतिः’ वचनानुसार जो द्विभुजाकार से विद्यमान हैं एवं सर्वावतारी होने से पुरुष पदवाच्य हैं। श्रीमान् धन धान्यादि रूप श्री से सदा सम्पन्न हैं। अथवा श्री पदवाच्य विदेह कन्या श्रीजानकीजी से सदा नित्ययुक्त है। तथा हेय प्रत्यनिक सर्वज्ञत्व वात्सल्यादि अनन्त कल्याण गुणों के सागर रूप हैं। एवं स्थूल सूक्ष्म साधारण चराचर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण हैं। तथा शरण्य हैं-अर्थात् शरण में आये हुये प्रपन्न पुरुषों के पालक हैं ‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम’ यह दिव्य वाणी सर्वाभयप्रद श्रीरामजी की है। तदनुरूप शरण में आये सभी को अभय प्रदान करनेवाले हैं और समस्त जगत् का सर्ग करने की शक्ति से युक्त हैं, एवं ब्रह्मादि देवों के भी ईश्वर (शासक) हैं। सर्वोत्पादक होने से स्वयं उत्पत्ति विनाश रहित हैं तथा सुरोत्तम ब्रह्मा हिरण्यगर्भ एवं इन्द्रादिक देव श्रेष्ठों से भी पूजित हैं तथा सूर्य चन्द्रमा तारागण विद्युत तथा अग्नि के भी प्रकाशक हैं, श्रुति का भी यही कहना है ‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमाविद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा जगदिदं विभाति’ तथा जो वीर शत्रुओं के अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र समूहों से अजेय हैं एवं उन शत्रुओं के ऊपर बारम्बार विजय प्राप्त करने वाले हैं। एवं ‘सर्वेषामवताराणामवतारीरघूत्तमः’ इस [[P31]] आगम प्रमाणानुसार श्रीवराह एवं नृसिंह अवतार लेकर हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु पर विजय प्राप्त किये तथा श्रीरामादि अवतारों में रावणादि का अन्त किये। तथा जो चेतन के जो बद्ध मुक्त नित्य भेद हैं, वे भिन्न भिन्न उन मुक्त जीवों के भी चेतनरूप हैं क्योंकि श्रुति कहती है ‘नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्’ अर्थात् नित्य रूपतया प्रसिद्ध जो परमाणु, आकाश एवं जीवराशी हैं इनसे भी नित्य हैं। तथा जो एक है यानी सजातीय दूसरे से रहित हैं। क्योंकि श्रीरामजी में स्वकीय इच्छामात्र से सर्व वस्तुओं के साधक बाधक शक्ति होने से सहायकासन्तर निरपेक्षत्व है। एवं जो जगत् भृत है जगत् का पोषण तथा रक्षण करनेवाले हैं। तथा जो ब्रह्म चतुर्मुख को सर्गादिकाल में उत्पन्न करके उन्हें वेद पढानेवाले हैं। ‘यः सर्वज्ञः सः सर्ववित्’ श्रुति के वचनानुसार जो सर्वज्ञ एवं सर्वविद् हैं। एवं तपस्या आदि से श्रेष्ठत्व प्राप्त योगियों से भी दुर्लभ हैं। तथा सभी को वश में रखनेवाले या सर्व प्रकाशशील कान्तिमान् हैं एवं जो स्वतन्त्र है एतादृश क्लेश कर्म विपाकाशयों से अपरामृष्ट पुरुष विशेषरूपसे सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी हैं वे भगवत्परायण सत्संगी आचार्यवान् मुमुक्षुजनों से ध्यान करने योग्य उपर्युक्त सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी हैं, इतर नहीं यह अति संक्षेप से कहा गया है विशेष जिज्ञासुओं को मेरी प्रभा एवं किरण टीकाओं को देखना चाहिए।

कुत्र कार्यो निवासः? इस दसवें प्रश्न में आचार्यश्री ने १५ श्लोकों द्वारा श्रीअयोध्या प्रभृति ४६ अति उत्तम तीर्थस्थानों का वर्णनकर उन तीर्थों के अधिष्ठातृ देवों में सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी की ही भावना करके उनकी आराधना के साथ श्रीरामचन्द्रजी की आराधना करते हुये निवास करने का आदेश दिये हैं। १५वें श्लोक के आदि शब्द से पद्मपुराणादि में वर्णित निवास योग्य १०८ तीर्थों का संग्रह समझ लेना चाहिये।

कतिपय विद्वानों का मत हैं कि पुराणोक्त सभी तीर्थ यहाँ परिगणित थे, सम्भव है कि वे ही श्लोक रहे हों या तीर्थ नाम के सूचक आचार्य कीर्ति श्लोक कालक्रम से लिपिकादिकों के दोष से स्खलित हो गये हों। यों भारतीय ऋषिशास्त्र परस्पर में एक दूसरे का पूरक होता है। पुराण रचयिता श्रीसम्प्रदाय (श्रीरामानन्द सम्प्रदाय) के ही ७-वें आचार्य हैं तो भास्कर रचयिता २२ वें आचार्य, पूर्वाचार्योपदेश से ही कलिगत धर्म को लक्ष्यकर संक्षेप दृष्टया ४६ तीर्थों का ही जगदाचार्य श्री ने उपदेश किया हो। कुछ हो, भास्कर के १०।१५वें श्लोक के आदि शब्द से पुराणोक्त तीर्थों का संग्रह करलेने से सब समञ्जस है।

अनन्तर ४ श्लोकों से इस दिव्य प्रबन्ध का महत्व कथन करते हुये इस प्रबन्ध के अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा नियतेन्द्रिय होकर श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर के अनुष्ठाता सायुज्य मुक्ति के भागी होंगे ऐसा शुभाशीः प्रदान किये हैं—

सर्वावतारी सर्वेश्वर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र वेदों में वर्णित है ‘वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयति प्रभुः’ महर्षि श्रीवाल्मीकीजी के इस वाणी से यह स्पष्ट बोध होता है कि वेदों का उपबृंहण श्रीमद्रामायण है सर्वेश्वर श्रीरामजी वेद वेद्य है।

‘वेदे वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद्रामायणात्मना—
तस्माद्रामायणं देवि वेद एव न संशयः ॥’

इस संहिता वचन के अनुसन्धान से आबाल गोपाल सभी को यह विदित हो जाता है कि श्रीमद्रामायण वेद ही है। यह भगवान् शंकर का श्रीपार्वतीजी को उपदेश है वेद संग्रहकाल से ही सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के प्रत्यक्ष प्रतिपादक वेद मन्त्रों की अस्त व्यस्तता करने की प्रणालि देखी जाती [[P32]] है शंकालुओं की शंका निवृत्त्यर्थ विक्रमपूर्व ५६९ से ३२० में समुद्धृत महर्षि श्रीबोधायन श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी ने ‘वेद रहस्यम्’ नाम से १५९ मन्त्रों का संकलन किये उसमें ‘रहस्य-मार्तण्डभाष्य’ जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी का प्रकाशित है कुछ मन्त्रों के न्यूनाधिक रूपसे श्रीनीलकण्ठसूरि, मानसतत्वान्वेषी श्रीरामकुमारदासजी ने भी अपनी २ टीका के साथ प्रकाशित करवाये। ‘तस्माद्रामायणं देवि वेद एव’ इस अमर वाणी से बोधित सर्वावतारी सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के पावन तात्विक दिव्य चरितों का बोधक महर्षि श्रीवाल्मीकीजी की आर्प वाणी श्रीमद्रामायण को लोगों ने एक सामान्य खिलौना के तरह यथेच्छ निवेश प्रवेश जोड़-घटाव कर उस दिव्य वेदावतार सद्ग्रन्थ को नष्ट भ्रष्ट करने का कुप्रयास किये अभक्ष्य भक्षण अवाच्य वाणी आदि का प्रवेश करने में थोड़ासा भी संकोच नहीं किया गया। उसका वास्तविक रूपसे संशोधन परम अपेक्षित है सती अवसरे उधर ध्यान देने की अपेक्षा है। उसी वेदावतार श्रीमद्रामायण का अवतार श्रीमद्रामचरितमानस के छेड़खानी से भी लोग बाज नहीं आये, दोनों ही सर्वेश्वर श्रीरामतत्व प्रबोधक सद्ग्रन्थरत्नों में प्रति आवृत्ति या प्रकाशक के यहाँ से उपलब्ध प्रतियों में भिन्न भिन्नता उपलब्ध है यह सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के उदात्त नायकत्व एवं दिव्यचरित को विश्रृंखलित कर हेयता प्रदान करने की महत्वपूर्ण योजना का एक भाग है।

रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले इस आगम वाणी से बोधित प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार श्रीसम्प्रदाय के २२वें आचार्य जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी से प्रसादित दिव्य प्रबन्धों पर भी यथेच्छ हेराफेरी की गयी। आचार्यश्री के दिव्य चरित के ऊपर भी अपनी अदूरदर्शिता प्रदर्शित करने में अपनी बुद्धि वैभव को पीछे नहीं छोड़े। श्रीआनन्दभाष्यकारजी के दिव्य चरित के परिष्कार हेतु जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य, आचार्यमङ्गलध्वज, देशिकपरिचर्या प्रभृति सद्ग्रन्थ आचार्यपीठ से प्रकाशित प्रचारित हुए। जगदाचार्यश्री से प्रसादित प्रस्थानत्रयों के भाष्य सटीक प्रकाशित हो चुके हैं आचार्यपीठ अहमदाबाद से ही। प्रकृत श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर तथा श्रीरामार्चनपद्धति अनेक संस्थाओं से अनेक बार प्रकाशित हो चुके हैं जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यपीठ से उनकी कई आवृत्तियाँ निकल चुकी है इसी स्रोत में प्रभा-किरण टीका के साथ आचार्यपीठ से प्रकाशित हो चुके हैं। श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर विधिसम्मत कईएक विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम में नियत है सम्प्रति अनुपलब्धप्रायः है अतः यथाबुद्धि वैभव निरीक्षण कर पुनः प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है इन दिव्य ग्रन्थों पर कुदृष्टि का प्रक्षेप करनेवाले अदूरदर्शी सज्जनों ने अपनी बुद्धि वैभव का पर्याप्त उपयोग किया है उस हेयरूप के प्रक्षालन हेतु अन्यत्र कईएक प्रबन्ध चर्चित व प्रकाशित हो चुके हैं तथापि प्रकृत दिव्य प्रबन्ध के साथ कुछ अंशों के कुचोद्य का मार्जन प्रकाशित किया जा रहा है—

वर्तमान समय में भी कतिपय जगहों पर पूर्वापर परिणामों की विना चिन्ता किये ही विना सोचे विचारे कार्य करनेवाले लोगों के द्वारा श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की परम्परा का अनुसन्धान किया जाता है। उस परम्परा अनुसन्धान की प्रवृत्ति के विषय में मुझे कहना है कि, जो विषय अथवा प्रयोजन पूर्ण निश्चित है उस विषय में न्यायका प्रवर्तन नहीं किया जाना चाहिये। अर्थात् अनिर्णीत विषय वस्तु के लिये ही अनु सन्धान करने की प्रक्रियाओं की शुरुआत की जानी चाहिये। पूर्णिमा के सम्पूर्ण चन्द्र मण्डल की चान्दनी के प्रकाश से अत्यन्त सुस्पष्ट भूमण्डल पर दीपक के द्वारा प्रकाश [[P33]] डालना प्रकाश को प्रकाशित करने की असमीक्षकारिता के समान पुनरुक्ति ही है ऐसा कहना अयुक्त न होगा। इस श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की आचार्यों की परम्परा में पूर्ण अशिक्षित व्यक्तियों के द्वारा भी सरलता से जान लेने योग्य, और अनगिनत मठों एवं मन्दिरों तथा आचार्यपीठ में यह तेल की विच्छेद शून्य धारा के समान निर्वाध रूपसे प्रारंभकाल से वर्तमान काल में भी प्रकाशमान ही देखा जाता है तथा व्यवहार में प्रयोग किया जाता है। जिस परम्परा के अविच्छिन्नता का उल्लेख श्रुति स्मृति भाष्य दिव्यप्रबन्धादि पचासों ग्रन्थों में उपलब्ध है एवं जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यपीठ में अवाधगति से परम्परा प्रातः सायं गाई जाती है। लेकिन वाराणसी से २०४५ वि. में श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का रहस्य तत्त्वों का अनभिज्ञ (पूर्ण जानकार नहीं) ऐसे या जो श्रीरामानन्दीय के रूपमें तो दीखते हैं लेकिन छिपे हुए रामानुज सिद्धान्त को माननेवाले हैं ऐसे लोगों के द्वारा श्रीमठस्मारिका नामक पत्रिका प्रकाशित की गयी है। जिस पत्रिका में अनेकानेक प्रकार के अपने साम्प्रदायिक परम्पराओं के विपरीत बहुत से अनर्गल वातें (जिसकी कोई शींग पूँछ नहीं ऐसी वातें) प्रकाशित की गयी हैं। जो वातें किसी जागता हुआ व्यक्ति को जगाया जाय इसप्रकार जो प्रासङ्गिक नहीं है, और जो मूर्ख से लेकर विद्वानों तक सभी को ज्ञात हैं ऐसी वस्तुओं को, जोकि सज्जनों के द्वारा उपहास करने योग्य (मजाक उडाने योग्य विषय हैं) ऐसे वस्तुओं का ज्ञान करना अनुसन्धान शब्द से कहा गया है। ऐसे अविचारित रमणीय विचार धाराओं का खण्डन करना हमारे जैसे सम्प्रदाय के सिद्धान्त एवं परम्परा में आस्था रखनेवाले का कर्तव्य है। यह विचार कर इस सम्बन्ध में कुछ कहा जा रहा है। यद्यपि प्रकृत विषय में समीक्षासम्राट् दर्शनकेसरी श्रीवैदेहीकान्तशरणजी श्रीअवधेशदास रामायणीजी आचार्यप्रवर श्रीयोगीन्द्रजी तथा मैंने भी लिखकर श्रीमठ स्मारिका समीक्षा आचार्यपीठ से प्रकाशित किये हैं पुनः लिखना पिष्टपेषणप्रायः है तथापि कुछ लिखते हैं मनो विनोदार्थ। जोकि पूर्ण रूपसे जाना नहीं जा चुका है इस तरह के विषयों का सम्यक् रूपसे निश्चयात्मक ज्ञान किया जाना अनुसन्धान कहा जाता है। नकि अपने ही मुख को शीशा में प्रतिबिम्ब के रूपमें देखा जाना अनुसन्धान कहा जाता है। क्योंकि वह तो मुख भी नहीं होता है। केवल परछाई होती है। कभी कभी तो दर्पण में दोष होने से मुख के विपरीत स्वरूप का भी आभास होता है। इस प्रकृत प्रसङ्ग में असमीक्षकारी लेखकों का आधार स्तम्भ जैसा श्रीरामटहलदासजी का कुचोद्य पूर्ण लेख है जिसका बहुत खण्डन हो चुका है तथापि उसी पर अतिसंक्षेप से विचार किया जा रहा है श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर एवं श्रीरामार्चनपद्धति का प्रसङ्ग होने से इसके निरस्त होने पर तदाधारभूत सभी स्वतः निरस्त हो जायेंगे। (१) श्रीरामटहलदासजी महानुभाव के द्वारा—उन परम आदरणीय श्रीआनन्दभाष्यकार श्रीमान् जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के द्वारा विशेष रूपसे अपने शिष्यों का सन्देह निवारण हेतु लिखे गये श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर एवं श्रीरामार्चनपद्धतियों की प्रामाणिकता को आधार बनाकर श्रीरामानन्दसम्प्रदाय, श्रीरामानुजसम्प्रदाय के अन्तर्गत ही है यह वात सिद्ध करने का कुप्रयास किया गया है। इस श्रीरामानन्द एवं श्रीरामानुज सम्प्रदायों की एकता के विषय में लेखक के द्वारा प्रतिपादन किया गया है कि—सुख दुःख सम्भिन्न नतोन्नत (कराल) समय की विकरालता भयङ्करता ने ही इन ग्रन्थों के वास्तविक स्वरूप को विवेकी लोगों के दृष्टिपथ से ओझल कर दिया है, वक्ता के उपर्युक्त कथन से वक्ता के द्वारा यह वात मानी गयी है कि इन ग्रन्थों के वास्तविक स्वरूप ने तिरोधान को प्राप्त कर लिया है। प्रकृत में कतिपय प्रसङ्ग देखें थालीपुलाक न्याय से—श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर [[P34]] के २।२६ श्लोक का सीतापुरुकारार्था के स्थान पर लेखक के द्वारा लक्ष्मी पुरुषकारार्थी यह आदेश कर दिया गया है। अथर्थात् मूल ग्रन्थ का सीता पद को हटाकर उसके जगह लक्ष्मी पद को रख दिया गया है। और ६।१६ श्लोक के ‘सीतारामप्रियाः’ के स्थान में लक्ष्मी कान्त प्रिया यह निवेश करके उस भाग की टिप्पणी में स्वीकार किया। इस पूर्वोक्त पूर्वपक्ष की स्वीकृति के द्वारा, कालान्तर अन्य समयों में इन दोनों ही ग्रन्थों में अन्य पाठों का आक्षेप आरोपण हुआ यह वात सिद्ध हो जाती है। श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में किया गया व्यवहार से विपरीत (विरुद्ध) अन्य शब्दों का आक्षेप, इन कुचोद्यकारियों के द्वारा किया ही जाता रहा है। पूर्व प्रतिपादन कर्ता की इस अनुमति के द्वारा दोनों ही ग्रन्थों में अन्य अपपाठ जोड़ा गया है इस वात की स्वीकृति सिद्ध होने से—श्रीरामानन्दसम्प्रदाय के विरुद्ध सिद्धान्त को स्वीकार करनेवालों के द्वारा यह चोरी करते हुए ग्रन्थ के वास्तविक स्वरूप को छिपाया जाने का प्रयत्न किया गया यह वात सिद्ध होती है। चलने के रास्ता का पदचिह्न को देखकर भी चोर को पकड़ कर बुद्धिमान् प्रयत्नशील लोग अपने चुराये गये धनों की पुनः उपलब्धि और सर्वविध सुरक्षा करते ही हैं। इन दोनों श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर एवं श्रीरामार्चनपद्धति ग्रन्थों का अनुसन्धान करने से पहले अनुसन्धान करनेवाले इन के द्वारा अपना अभिप्राय प्रतिपादन किया गया है—(१) श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर का ‘प्राचीनाचार्यवर्यान् यतिपति सहितान्’ (१-५) इस श्लोकांश का प्राचार्याचार्य के रूपमें परिवर्तन कर उदाहरण देकर प्रतिपादन करके, पुनः प्राचार्य पद की व्याख्या करते हुए, प्राचार्य की श्रीशठकोप स्वामी इस व्याख्यान के द्वारा यतिपति इस शब्द का स्वामी श्रीरामानुजाचार्य यह अभिप्राय निरूपित किया गया है। इस तरह की श्रीशठकोपजी और श्रीरामानुजजी यह व्याख्या कर विवेचन करना शठत्व और अनुचित है। क्योंकि जो मनुष्य वास्तविकता को जानता हुआ भी केवल अपने दुराग्रहवश वस्तु के विपरीत आचरण करनेवाला ही व्यक्ति शठ इस शब्द से कहा जाता है। प्राचार्य शब्द की शठकोप एवं यतिपति शब्द की रामानुज यह व्याख्या करने में शब्द शक्ति से अर्थबोध करने में सहायक व्याकरण उपमान कोश आप्त वाक्य आदि भी प्रमाण नहीं है जिसकी प्रामाणिकता से इन शब्दों से पूर्वोक्त अर्थ करने में सहायता मिल सके। सुगत गिरिधर लम्बोदर पङ्कज आदि शब्दों के समान इस प्राचार्य और यतिपति शब्दों के पद की रामानुज या शठकोप अर्थों में रूढ़ि भी नहीं है। क्योंकि इन शब्दों का इन अर्थों में अनादिकाल से प्रयोग होता नहीं आ रहा है। विशेष रूपसे भिन्न भिन्न प्रकार के सम्प्रदायों का विशेष रूपसे अलग अलग यतिपति एवं उन उन सम्प्रदायों के आचार्य सम्भव होते हैं। क्योंकि अपनी श्रद्धा एवं अवधारणा के अनुसार उनके यतिराज एवं आचार्य होना सम्भव हैं। जिस तरह सर्वनाम वक्ता के बुद्धि में पहले से स्थित अर्थ को बोध कराने के लिये रूढ़ होता है ऐसे भी इन अर्थों में रूढ़ नहीं कहा जा सकता है। और जिसप्रकार संसार के बहुत से देशों के बहुत से राष्ट्रपति होते हैं, बहुत से प्रधानमन्त्री होते हैं। उसी प्रकार अलग अलग सम्प्रदायों का अलग अलग आचार्य होते हैं। और कहीं रामानुज आदि आचार्य आचार्यों के चक्रवर्ती आचार्य भी नहीं हैं जो प्राचार्य कहने से शठकोप और यतिपति से रामानुज अर्थ किया जा सके। जिससे कुलपति, राज्यपाल सभी राज्यस्थ विश्वविद्यालयों का पदेन होता है। उस तरह भी पदेन यतिपति नहीं कहा जा सकता है। इस विषय वस्तु का निरूपण कर लेने के पश्चात् ‘रहस्यत्रय का मन्त्रोपदेश भी रामानुज के ही समान है ऐसा कुचोद्यकारी के द्वारा कहा गया है। इस ‘रामानुजवत्’ के प्रतिपादन में तद्वत् शब्द का लेखक द्वारा [[P35]] जैसे धूर्तता करने का व्यवसाय धन्धा चलायी जा रही हो इस तरह धूर्तता व्यवहार में लायी गयी है। लेकिन तद्वत् शब्द यह कहने से ‘तेन तुल्यं क्रिया चेद् वति तत्र तस्येव’ इस शास्त्र के द्वारा विहित वत् प्रत्यय का व्यवहार करने से भेद रहने पर ही वति प्रत्यय होने के कारण, भेद प्रतिपादन करने से श्रीरामानुजाचार्य और श्रीरामानन्दार्यजी का और दोनों ही सम्प्रदायों की भिन्नता सिद्ध होती है। नकि रामानुजसम्प्रदाय और श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की एकता सिद्ध होती है। क्योंकि दोनों की एकता होने में जो कारण कहा गया है, वह साध्य को सिद्ध करने के वजाय साध्य से विपरीत को सिद्ध करने के कारण विरुद्ध हेतु होने के कारण इष्ट सिद्ध नहीं होता है। समानता प्रतिपादन में पूर्ण रूपसे एकता नहीं होती है। यत् किञ्चीद् धर्म की समानता को आधार बना कर ही इव शब्द के अर्थ में वति प्रत्यय का विधान किये जाने के कारण, और जहाँ एवकार होता है वहाँ अन्य का व्यवच्छेद होता है। तो जहां एकता होती है उस एव शब्द का प्रयोग नहीं करने के कारण दोनों सम्प्रदायों की एकता नहीं सिद्ध की जा सकती है। और श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में ‘रां रामाय नमः’ यह रहस्य मन्त्र कहा गया है। और रामानुजसम्प्रदाय में ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह रहस्य मन्त्र कहा गया है। इसलिये दोनों सम्प्रदायों में रहस्य मन्त्र की भिन्नता है। इसीप्रकार दोनों सम्प्रदायों की गायत्री और द्वयमन्त्र तथा शरणागति मन्त्र आदि में परस्पर भिन्नता है। इसलिये दोनों आपस में अलग अलग हैं ॥२॥

श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में ध्यान करने योग्य देवता के विषय में इसप्रकार का विधान है कि— आठ भुजाओंवाले का ध्यान स्थूल ध्यान कहा गया है। और सूक्ष्म ध्यान चार भुजाओंवाले देव का कहा गया है। किन्तु सभी ध्यानों की अपेक्षा उत्कृष्ट द्विभुज सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान कहा गया है। इसलिये उपासक अपनी योग्यता का आकलन करके इन पूर्व वर्णित ध्यानों में से स्वयोग्यतानुसार तीनों ही प्रकार का ध्यान करे। ‘स्थूलं चाष्टभुजं प्रोक्तं सूक्ष्मं चैव चतुर्भुजम्। परं तु द्विभुजं प्रोक्तम्…’ इस सिद्धान्त को अपने मन में सुस्थिर करके श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में श्रीआनन्दभाष्यकारजी ने हे प्रिय तथा उत्तम! अथवा सभी प्रिय शिष्यों में उत्तम सुरसुरानन्द! दो भुजाओं को धारण करनेवाले सर्वशक्तिमान् सर्वावतारी सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी का पूर्व चार श्लोकों में वर्णित प्रकार से ध्यान करना चाहिये। तथा सदैव भगवान् श्रीरामचन्द्रजी में आसक्त या समर्पित रहना चाहिये। इसप्रकार श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी को उपदेश दिये। इसलिये दो भुजाओं से युक्त सर्वाभयप्रद दिव्य धनुर्बाण से शोभित सर्वेश्वर श्रीरामजी का ध्यान करना ही सबसे उत्तम है। लेकिन रामानुजसम्प्रदाय में तो शङ्ख चक्र गदा पद्म किरीट कुण्डल आदि से सम्पन्न चतुर्भुज श्रीनारायण का ध्यान करना चाहिये यह कहा गया है। जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी से प्रवर्धित श्री सम्प्रदाय में तो—प्रातःकाल में रघुकुल नायक भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों का स्मरण करता हूँ। इत्यादि श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीरामजी का ध्यान के द्वारा प्रातः स्मरण कहा गया है। लेकिन श्रीरामानुजसम्प्रदाय में तो प्रातःकाल में संसार के भय एवं महान् पीड़ाओं की शान्ति के लिये चार भुजाओं को धारण करनेवाले गरुड़ वाहनवाले कमलनाभ नारायण का प्रातःकाल में स्मरण करता हूँ, यह भिन्न प्रातःस्मरण है। श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवसम्प्रदाय में तो पुष्य से युक्त वैशाख शुक्ल नवमी तिथि को जगदम्बा श्रीसीताजी प्रकट हुई, उक्त तिथि के दिन व्रत करना चाहिये ऐसा श्रीवैष्णव मताब्जभास्कर में कहा गया है। इससे श्रीजानकीजी के अवतार तिथि में व्रत का विधान है। और श्रीरामानुजीय में भाद्र मास में होनेवाली ज्येष्ठा नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथि से प्रारम्भ कर महालक्ष्मी का व्रत करने का विधान है, इसप्रकार व्रतों में भी भेद है। श्रीरामानन्दियों के द्वारा श्रीहनुमानजी [[P36]] का जयन्ती महोत्सव आयोजित किया जाता है। और रामानुजीय के द्वारा यह उत्सव आयोजित नहीं किया जाता है। इसप्रकार प्रतिपादित होता है कि दोनों ही सम्प्रदायों का भिन्न भिन्न प्रकार का मन्त्र उपास्य उपासना अर्चना आदि का प्रकार व्रत उपवास महोत्सव आचार विचार दिनचर्या आदि व्यवहार और इन मन्त्रादि में परस्पर विरोध देखा जाता है। इसप्रकार के भेदों के होने पर मन्त्रों की नाम कथा वार्ता आदि के विषय में श्रीरामानुज स्वामी कृत श्रीभाष्य एवं शठकोप स्वामी विरचित द्रविड प्रबन्ध सहस्त्र गीति आदि को श्रवण करने की आज्ञा दी गयी है। ऐसा कुचोद्य कर्ता के द्वारा कहा गया है। इस वाक्य के द्वारा बहुत से श्रीभाष्य है यह निरूपित होता है। क्योंकि विशेषण वहीं पर उपयोगी होता है जहाँ पर सम्भव हो अथवा व्यभिचार देखा जाता हो। सम्भव या व्यभिचार के अभाव में विशेषण की सार्थकता नहीं होती है। इनके बिना यदि विशेषण प्रयोग किया गया तो विशेषण की निरर्थकता ही होती है। दूसरों से अलग करना ही विशेषण का कार्य है। यदि दूसरे है ही नहीं तो विशेषण का क्या प्रयोजन? पण्डितजी समझदार होकर विशेषण दिये हैं इसलिये अनेक श्रीभाष्य होना चाहिये। अतः ‘रामानुज’ यह विशेषण श्रीभाष्य की अनेकता को सिद्ध करता है। इसलिये श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में श्री रामानुज शब्द का प्रयोग नहीं होने के कारण श्रीरामानुज कृत श्रीभाष्य का अभाव है यह सिद्ध होता है। उस श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर का श्रीआनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के द्वारा बनाये जाने के कारण जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी कृत श्रीभाष्य है अर्थात् सिद्ध हो जायगा। यदि यह कहते हैं कि श्रीभाष्य के अनेकत्व का अभाव है तो भली भाँति विशेषण देने का दोष है ही। और भी श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में श्री शठकोप स्वामी द्वारा विरचित ‘द्रविड प्रबन्ध सहस्रगीति’ का सर्वतोभावेन अभाव है। क्योंकि जगह जगह पर ‘दिव्यैः प्रबन्धैः’ यह कहे जाने के कारण। श्रीरामानुज सम्प्रदाय में द्रविड प्रबन्ध की रचना करनेवालों में श्रीशठकोपजी स्वामी भी थे और दूसरे दूसरे भी सभी आलवारों की रचनाओं का संग्रह करके उस सहस्रगीति का सम्पादन नाथ मुनि किये। जिसका नाम द्रविडप्रबन्ध या सहस्रगीति यह हुआ। अतः द्रविड प्रबन्ध की रचना या संग्रह करनेवाले नाथ मुनि हैं नकि शठकोप स्वामी। सहस्त्रगीति को द्रविड भाषा में विरचित होने के कारण वैष्णवों में से थोडी ही संख्या में द्रविड लोग ही उसको पढ़ते हैं। उस तमिल भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण दूसरे रामानुजीय लोग भी सहस्त्रगीति को नहीं पढ़ते हैं। इसलिये सभी रामानुजीय वैष्णवों के लिये द्रविड प्रबन्ध के पढ़ने का विधान करना उचित नहीं लगता है। क्योंकि जो द्रविड भाषा या अक्षर नहीं जानते हैं उनके लिये पढ़ना सम्भव नहीं है इसलिये, ‘शक्तैः श्रीभाष्यतश्च द्रविडमुनिकृतोत्कृष्टदिव्यप्रबन्धैः’ यह पाठ तो स्वयं जो कहना चाहते उस अर्थ के लिए स्वार्थवश परिवर्तित पाठ ही है। जिसका अर्थ है, श्रीभाष्य से और द्रविड मुनियों के द्वारा बनाये गये दिव्य अलौकिक रचनाओं की कथा वार्ता चर्चा विचारणाओं के द्वारा भगवान् में अनुराग रखनेवाले भक्त कालक्षेप करें। यह अर्थ जोड़ना अनुचित है। वास्तविकता में तो ‘शक्तैरानन्द भाष्यैरथ च शुभतमाचार्यदिव्यप्रबन्धैः’ यह जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी कृत शुद्ध एवं समुचित पाठ है। जिसका अर्थ भगवान् के गुणों के प्रति अनुराग रखनेवाले भक्तवर्ग श्रीआनन्दभाष्य और परम शुभ सम्पादक आचार्यों के द्वारा बनाये गये दिव्य प्रबन्धों के पठन पाठन कथा वार्ता सत्सङ्ग आदि के द्वारा कालक्षेप करें। यहाँ श्रीआनन्दभाष्य के साथ दिव्यप्रबन्ध इस कथन से महर्षि श्रीबोधायन श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी द्वारा लिखित बोधायनवृत्ति तथा सार-प्रमिताक्षरावृत्ति का सहस्र श्लोकों में विरचित किया गया दिव्य प्रबन्ध है उसका एवं अन्य अपने पूर्वाचार्यों से प्रणीत दिव्यप्रबन्धों का अध्ययनार्थ उपदेश किया गया है। कुदृष्टि कुचोद्यकार लिखते हैं कि—गुरु वरदाचार्यजी [[P37]] द्वारा लिखित ग्रन्थ का सत्सङ्ग करने से निःस्पृह बनकर, व्रत नियम जयन्ती अर्चना अचिरादिमार्ग मोक्षमार्ग आदि सभी बातें श्रीरामानन्दीय सम्प्रदाय में श्रीरामानुजसम्प्रदाय के अनुरूप गुणवाले ही है। और श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में ही श्रीभाष्य की रचना करनेवाले श्रीरामानुजाचार्यजी की परम्परा के अनुसार व्यवहार का निर्देश किया गया है, किसी विशाल स्तम्भ की यह गलती नहीं है कि उस खम्भा को अन्धा आदमी नहीं देखता है। गलती तो नहीं देखनेवाले की है। काला काच अथवा पीलिया रोग से दूषित नयनवाला व्यक्ति का यदि सभी जगह नील अथवा पीत (पीला) रङ्ग का ही बोध होता है। या मेढ़क की चर्बी से अञ्जित नयन वाला व्यक्ति को जैसे कि बाँस में सर्प के स्वरूप का आभास होता है तो उसमें संसार के विभिन्न रङ्गवाले वस्तुओं का दोष नहीं अपितु उस व्यक्ति के आँखों या साधनों का अपराध है। उसीप्रकार यदि श्रीरामानुजाचार्यजी के साथ स्वार्थवश तादात्म्य (एकरूपता) हो जाने के कारण समस्त वाङ्मय में ही श्रीरामटहलदासजी को सभी रामानुजार्थ बोधक ही लगते हैं तो सभी शब्द सभी अर्थ को बोध कराने वाले होते हैं यह जो शब्द विषयक योगियों की दृष्टि में सिद्धान्त हैं, उसके जगह कुचोद्यकार के सिद्धान्त में सभी शब्द रामानुजार्थ वाचक ही है यह आदेश हो गया है। क्योंकि ये आदेश करने में प्रवीण हैं, किसी शब्द को हटाकर दूसरा अभीष्ट शब्द जोड़ देते हैं। परिणाम जो भी हो। दोनों सम्प्रदायों के सिद्धान्तों एवं व्यवहार आदि के विषय भिन्नता है यह बात पहले प्रतिपादित हो चुकी है। पाठ विकृतकारक की आँखों की चिकित्सा तो कोई डाक्टर ही कर सकता है। आँख ठीक करना दूसरे के वश की बात नहीं। श्रीरामानुजाचार्य से अलग श्रीआनन्दभाष्यकार श्रीरामानन्दाचार्य जी का श्रीसाकेतलोक मोक्षधाम है जो अथर्ववेदादि सभी शास्त्रों से अनेक स्थानों में बहुशः प्रतिपादित है। उस श्रीसाकेतधाम की उपलब्धि के लिये शरणागत वत्सल सर्वशरण्य सर्वावतारी सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति और प्रपत्ति साधन हैं। और रामानुजीयों का तो अलग वैकुण्ठ मोक्षधाम एवं श्रीनारायण भक्ति-प्रपत्ति उसका साधन हैं। तब भी बिना किसी आधार के ही मनमानी उन्माद प्राप्त कुचोद्य कर्ता का पागलपन के कारण बुद्धि विभ्रमित हो गयी है यह प्रतीत होता है। जो ये सभी जगह परस्पर भेदों के होते हुए भी तद्वत् शब्द की विमारी लग जाने से अभेद है ऐसा व्यवहार करते हैं ॥३॥

प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार श्रीमान् जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की रचना श्रीरामार्चन पद्धति में भी किन्हीं निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये कपटपूर्वक पाठभेद किया गया है। यह बात श्रीरामानुजसम्प्रदाय के अन्तर्गत श्रीरामानन्दसम्प्रदाय को सिद्ध करने का जीतोड़ प्रयास करनेवाले श्रीरामटहलदासजी के द्वारा भी स्वीकार किया जाता ही है। वे परम आदरणीय जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी आचार्य श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी महर्षि बोधायन की वृत्ति एवं पूर्वाचार्यों के अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों को आधार मानकर ही श्रीआनन्दभाष्य आदि ग्रन्थों को लिखे। इस विषय में तत्त्ववेत्ता विद्वान् का मतभेद होने की गुंजाइस नहीं है। इसलिये श्रीमान् पुरुषोत्तमाचार्यजी बोधायन द्वारा लिखित गृह्यशेषसूत्र में प्रतिपादन किया गया देवताओं की सेवा विधि को आश्रय मानकर जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी श्रीरामार्चनपद्धति नामक इस ग्रन्थ का प्रणयन किये। यो श्रीरामार्चनपद्धति श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर का पूरक षोडश अर्चाविधान परिच्छेद ५ श्लोक १३ तथा १४ का परिशिष्ट भाग होने से मङ्गलाचरण की कोई आवश्यकता नहीं तथापि तथाकथित मङ्गलाचरण श्लोक में श्रीबोधायन प्रतिपादित अर्चनापद्धति का अनुशरण करने के कारण ही श्रीरामार्चनपद्धति के मङ्गलाचरण के श्लोक में ‘स्मृत्वाथ बोधायनम्’ यह पद विशेष रूपसे कहा है। लेकिन इस श्रीरामार्चनपद्धति के मङ्गलाचरण श्लोक में भी चतुर्थपाद में ‘स्मृत्वायतिक्ष्मापतिम्’ इस पद को अभिलाषा पूर्ति हेतु घुसेड़ दिया। जोकि जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आचार्य परम्परा के विपरीत [[P38]] है तथा प्रामाणिक नहीं है। और अनुचित भी है। क्योंकि ब्रह्मसूत्र गीता एवं उपनिषदों के श्री आनन्दभाष्यों में सर्वावतारी सर्वेश्वर श्रीरामजी सर्वेश्वरी श्रीसीताजी श्रीहनुमानजी श्रीब्रह्माजी श्रीवशिष्ठजी श्रीपराशरजी श्रीव्यासजी श्रीशुकदेवजी श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी बोधायन श्रीगङ्गाधराचार्यजी श्लोक के आदि शब्द से ग्रहीत श्रीसदानन्दाचार्यजी श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी श्रीद्वारानन्दाचार्यजी श्रीदेवानन्दाचार्यजी श्रीश्यामानन्दाचार्यजी श्रीश्रुतानन्दाचार्यजी श्रीचिदानन्दाचार्यजी श्रीपूर्णानन्दाचार्यजी श्रीश्रियानन्दाचार्यजी श्रीहर्यानन्दाचार्यजी एवं अपने दीक्षा शिक्षा गुरु आचार्य प्रवर श्रीराघवानन्दाचार्यजी को सादर दण्डवत प्रणाम करता हूँ। सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी से प्रवर्तित श्रीशुकदेवाचार्यजी एवं श्रीबोधायनाचार्यजी मध्यम में समन्वित श्रीराघवानन्दाचार्यजी पर्यन्त गुरु परम्परा को सादर नमन करता हूँ। ऐसी पूर्वोक्त प्रकार की अपनी गुरुपरम्परा का जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी प्रतिपादन किये हैं। हर स्थानों पर ही छल कपट में परायण धूर्तों के द्वारा हर प्रकार से ही योग्य अवसर को देखकर अपना रामानुजीपना का रङ्ग चढ़ाने के लिये सर्वविध प्रयास किया गया है। इन रामानुजीयत्व का सभी जगह आरोप करने के व्यवसायवाले लोगों के द्वारा श्रीरामार्चनपद्धति की पूजा विधियों में गरुड़ विष्वक्सेन आदि का निवेश ये व्यावसायिक छल कपट धूर्त आदि करनेवाले लोग इन अङ्गोपाङ्ग देवता का निवेश ये लोग कर दिये हैं। श्रीआनन्दभाष्यकार श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराज के पूर्वकालीन मन्दिरों में गरुड़ विष्वक्सेन आदि की मूर्तियों की स्थापना नहीं देखी जाती है। और इस वर्तमानकालीन मन्दिरों में भी जो श्रीरामानन्दसम्प्रदाय के हैं उन गरुड़ आदि की अन्य सम्प्रदायों से आयी हुई देवताओं की मूर्तियाँ नहीं उपलब्ध होती हैं। तो इस श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की पद्धति में किस प्रकार इन पूर्वोक्त देवताओं का स्थान होगा? इस बात का सज्जन विद्वान् लोगों को सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना चाहिये। क्योंकि जिस जगह पर असत्य विषय वस्तु को ही प्रमाणित किया जाता है। उस असत्य सत्यापन में असत्य का खण्डन एवं सत्य का प्रमाणीकरण अत्यन्त कठिन जैसा हो जाता है। लेकिन शास्त्रों में सत्य असत्य का निर्णय करानेवाले बहुत से ऐसे तत्त्व हैं, जिन निर्णायक तत्त्वों के द्वारा वास्तविकता का असत्य का खण्डन के साथ सत्य का अनुसन्धान (अन्वेषण) किया जा सकता है। सबसे पहले तो ‘श्रीरामार्चनपद्धति’ इस नाम के द्वारा ही यह निश्चय किया जाता है कि इस श्रीरामार्चनपद्धति नामक ग्रन्थ में प्रतिपादन करने योग्य सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की पूजा है। एक वस्तु से सम्बन्धित ज्ञान दूसरे वस्तु से सम्बन्धित ज्ञान का स्मरण करानेवाला होता है। इस सिद्धान्त के विद्यमान होने पर दोनों का परस्पर साहचर्य सम्बन्ध है। जिसके बिना जिसकी स्थिति नहीं होती है उसको साहचर्य कहा जाता है। वह कारण यहाँ है। प्रासङ्गिक इस श्रीरामार्चनपद्धति ग्रन्थ में, सामान्य रूपसे पूजा का विषय बने हुए अन्य देवताओं के होने पर भी। यद्यपि सभी देवता अपने अपने भक्तों के द्वारा पूजनीय हैं यह स्थिति होने पर भी, सन्दर्भ का नियन्त्रण करनेवाला श्रीराम शब्द का यहाँ होने के कारण सर्वाराध्य भगवान् श्रीरामचन्द्र, श्रीरामचन्द्रजी के परिवार का एवं उनके अङ्ग उपाङ्ग सेवकवर्ग आदि का उनके वाहनों का एवं उनके आयुधों का पूजन होना चाहिये, नकि उनसे जिनका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है ऐसे देवताओं का? इससे यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ में गरुड़ विष्वक्सेन एवं शठकोप आदि का आक्षेप ही कर दिया गया है। इस पूर्वोक्त सयुक्ति के अनुसार इस ग्रन्थ में अन्य गरुड़ादि का समावेश करना सभीप्रकार से भानुमती की कुनवा का जोड़ तोड़ जैसा ही है यह निश्चय किया जाता है। अर्थात् परस्पर विरुद्ध एवं असम्बद्ध वस्तुओं को जोड़कर संगत करने का प्रयास ही है। ग्रन्थकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के द्वारा दूसरे स्थानों पर श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में निर्दिष्ट श्रीरामचन्द्रजी का [[P39]] अङ्गों के सहित पार्षदों के सहित श्रीसीताजी के सहित और भाइयों के साथ (सहित) का कैङ्कर्य (सेवकत्व) ईर्ष्या से विमुक्त होकर करता हुआ’ इत्यादि वचनों के द्वारा भी प्रमाणित हो जाने के कारण, अन्य श्रीरामजी से सामान्यतया असम्बद्ध का समावेश करना सिद्ध होता है। और भी शाब्दबोध करने का साधनों में—शब्द सामर्थ्य का ज्ञान व्याकरण आदि साधनों में व्यवहारतश्च इस कथन के अनुसार व्यवहार की शक्तिग्रह में प्रधानता स्वीकृत की गयी है। श्रीआनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी से प्रतिष्ठापित श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यपीठों मठों एवं मन्दिरों में प्राचीनकाल में या वर्तमान समय में कही पर भी शठकोप श्रीगरुड़ और अनन्त आदि का जोकि उन इतर सम्प्रदाय के अङ्ग देवताओं की मूर्तियों की प्रतिष्ठा या पूजा करने की रीति रिवाज का विधान नहीं था, नहीं है। अथवा न कहीं जगदाचार्य श्रीमान् श्रीरामानन्दाचार्यजी के द्वारा कहीं पर इन देवताओं की प्रतिष्ठा करायी गयी है। इसलिये बहुत प्रकार के छल और बल से समृद्ध (परिपूर्ण) माया के विस्तार के द्वारा रामानुजसम्प्रदायावलम्बियों के द्वारा स्वभाव से ही भोले भाले विशुद्ध अन्तःकरण तथा पवित्रात्मा जड़भरत के समान सम्यक् आचरण करनेवाले श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवों की पूजाओं का साधन बनी हुई यह श्रीरामार्चनपद्धति नामक सद्ग्रन्थ उनके द्वारा दूषित कर दिया गया है—यह बात प्रमाणित हो जाती है। इसलिये मेरे द्वारा महर्षि श्रीपुरुषोत्तमाचार्य बोधायनजी के सिद्धान्त का अनुसरण करके इस श्रीरामार्चनपद्धति का समुद्धार (दोष निराकरण) किया गया है। इसप्रकार पूर्वपक्षी के द्वारा उठाया गया आक्षेप का खण्डन एवं अपने पक्ष का समाधान करके परिष्कृत एवं विशुद्ध स्वरूप का अनुसन्धान प्रतिपादित किया गया है। श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर का प्राप्य (उपासना के द्वारा उपलब्ध करने योग्य) देवता श्रीसीताजी से अभिन्न स्वरूपवाले सर्वावतारी भगवान् श्रीरामजी हैं। उन्हीं श्रीसीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजी के मन्त्रों का प्रतिपादन करने के लिये ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्कार के स्वरूप में भूमिका बनायी गयी है। उन्हीं ससीत श्रीरामजी की पूजा करने हेतु ही श्रीविग्रहों मूर्तियों की स्तुति आचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी के द्वारा की गयी है। श्रीरामानन्दाचार्यजी की गुरुपरम्पराओं में शठकोप आदि का समावेश करने की प्रक्रिया का खण्डन करने के लिये श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर नामक ग्रन्थ में कहा गया श्रीरामब्रह्मतारक मन्त्र विषयक वाक्य ही पर्याप्त है। इसलिये ‘श्रुतिमुनिसुमतः शिष्टमुख्यैर्गृहीतः’ ब्राह्मण मन्त्र तथा उपनिषत् स्वरूप वेद, प्राचीन श्रीराम तत्त्ववेत्ता मुनिगण के द्वारा अच्छीतरह सावधानी पूर्वक प्रतिपादन किया गया। तथा पूर्ववर्ती शिष्टों में प्रधान लोगों के द्वारा जाना गया इस वचन के द्वारा भी होता है। क्योंकि महाभाष्यकार पतञ्जलि के द्वारा ‘आर्यावर्त नामक देश विशेष में निवास करनेवाले जो ब्राह्मण सम्पत्ति के नाम पर एक घड़ा अनाजवाले (धनासक्त नहीं)…विद्या में पारङ्गत वे परम आदरणीय ब्राह्मण शिष्ट कहे जाते हैं’, इस वचन के द्वारा ब्राह्मण शिष्ट का अर्थ होता है यह प्रतिपादित किया गया। प्रकृष्ट योग साधना से युक्त योगी कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में शिरोमणि के समान श्रीपुण्यसदनशर्माजी के यहाँ माघकृष्ण सप्तमी विक्रमसम्वत १३५६ में स्वयं श्रीरामजी ही श्रीरामानन्दजी के रूपमें अवतरित हुये, इत्यादि अगस्त्य संहिता आदि सद् ग्रन्थों से प्रमाणित सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण वंश में अवतीर्ण श्रीरामानन्दाचार्यजी की गुरुपरम्परा में शूद्र जाति में उत्पन्न शठकोप पूर्णाचार्य आदि, जो श्रीरामानुजाचार्य के पूर्वाचार्य हैं, ब्रह्मतारक श्रीराममहामन्त्र की उपासना करनेवाले आचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी का गुरु होना सम्भव नहीं हो सकता है क्योंकि वे शूद्र हैं। समिधा हाथ में लेकर वेदशास्त्र का अध्ययन करनेवाले ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास संसार बन्धन से विमुक्ति हेतु उपस्थित होना चाहिये, उपनिषद् में ऐसा कहे जाने के कारण भी शूद्र को गुरु नहीं होना चाहिये। उन्हें श्रीराममहामन्त्र के आचार्यत्व से शून्य होने के कारण [[P40]] भी श्रीराममहामन्त्रोपदेशक गुरु नहीं होना चाहिये। हमारे द्वारा प्रकाशित किये गये बहुत से पुस्तकों में और पत्रिकाओं में श्रीराम महामन्त्र प्रदान करनेवाले आचार्यों की परम्परा प्रकाशित की गयी है। उन्हीं ग्रन्थों से श्रीराम महामन्त्राचार्य परम्परा समझनी चाहिये ॥४॥

प्रकृत प्रसङ्ग में अन्यत्र आचार्यपीठ से प्रकाशित सत्प्रबन्धों में अनेक बार प्रकाशित हो चुका है। अतः विशेष पृष्टपेषण की आवश्यकता नहीं। तत्वसन्धिंत्सु साधकवर्गों के सामान्य ज्ञान हेतु यथोपलब्ध लेख प्रतियों को प्रकाशित किया जा रहा है।

卐 श्रीवैष्णवमताब्जभास्करः 卐

आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यप्रणीतः

श्रीमन्तं श्रुति-वेद्यम् अद्भुत-गुण-ग्रामाग्र-रत्नाकरं
प्रेयः स्वेक्षण-संसुलज्जित-मही-जाताक्षि-कोणेक्षितम् ।
भक्ताशेष-मनोऽभिवाञ्छित-चतुर्वर्ग-प्रदं स्व-द्रुमं
रामं स्मेर-मुखाम्बुजं शुचि-महानीलाश्म-कान्तिं भजे ॥१॥

आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यकृता प्रभा

प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकाराय नमो नमः
सीताराम-समारम्भां रामानन्दार्य-मध्यमाम् ।
रामप्रपन्न-गुर्वन्तां वन्दे गुरु-परम्पराम् ॥

अथ समस्त-हेय-रहितानन्त-कल्याण-गुण-महोदधिर् दयालुः सर्व-शरीरी सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वरो भगवान् श्रीसीतानाथः परमेश्वर-प्रसारित-वेद-मार्ग-विमुखान् अत एवाधर्मोन्मुखान् दुःखिनो जीवान् अवलोक्य तद्-उद्धार-कामनया भुवि श्रीरामानन्दाचार्य-रूपेणावततार। ‘रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले’ इति स्मृतेः। स च श्रीरामानन्दाचार्यो बाल्याद् एव तीक्ष्ण-बुद्धिर् वाराणसी-स्थ-श्रीमठाध्यक्ष-जगद्‌गुरु-श्रीराघवानन्दाचार्य-गुरु-चरणम् अध्यास्य तत्र लब्ध-साङ्ग-वेद-वेदान्त-विद्यो दुःखिनो जीवनिवहस्योद्धाराय विशिष्ट-बुधजनैकगम्यं प्रसाद-गुण-गुम्फितं प्रस्थानत्रयानन्द-भाष्यं निर्माय स्व-शिष्यान्यतम-जगद्‌गुरु-श्रीसुरसुरानन्दाचार्यं निमित्तीकृत्य सर्व-साधारण-जनोपकृतयेऽचिच्-चिद्-ईश्वरात्मक-तत्त्व-त्रयादि-निरूपण-परकं ‘श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर’ नामकं ग्रन्थम् अचीकरोत्। तस्य ग्रन्थ-रत्नस्य निर्विघ्न-पूर्वकं परिसमाप्तये शिष्टाचार-परम्परा-प्राप्त-स्वेष्ट-देवता-नमस्कार-रूपं मङ्गलं आरचय्य [[P43]] शिष्य-शिक्षायै ग्रन्थ-रूपेण निबध्नाति ‘श्रीमन्तम्’ इत्यादि। ननु यथा दण्ड-कपालादि-समवधाने तद्-अव्यवहितोत्तरं घटादि-कार्यस्य भवति समुत्पत्तिस् तद्-अभावेऽर्थात् दण्डादि-कारणाभावे घटादि-कार्यस्योत्पत्तिर् न भवति इत्य् अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां घटादि-कार्य-प्रति दण्डादेः कारणता निर्णीता भवति। तद्वद् एव प्रकृते यदि मङ्गल-सद्भावे विघ्न-ध्वंसो ग्रन्थ-समाप्तिर् वा भवेत् तदा मङ्गलस्य समाप्तिं प्रति कारणता सिध्येत्? परन्तु प्रकृते दार्ष्टान्तिके कादंबर्यादि-ग्रन्थे मङ्गलस्य सत्त्वेऽपि समाप्ति-रूप-कार्यस्याभावात्, तथा मङ्गल-विरहे बौद्धीय-किरणावल्यादौ कार्य-समाप्ति-दर्शनेनान्वय-व्यतिरेक-व्यभिचारान् मङ्गलस्य ग्रन्थ-समाप्ति-कारणत्वे विघ्न-ध्वंसत्वे वा न सफलत्वं, तद्-अभावे च तदाचरणं न कर्तव्यं जल-ताडनादिवद् इति चेत्, तत्रोच्यते—भावानवबोधात्। प्रात्यक्षिक-स्थलेऽन्वय-व्यतिरेक-व्यभिचार-निश्चयस्य प्रतिबन्धकत्वं भवति। अनुमितौ तु संशय-पक्षता-सम्पादक-विधया कारणत्वेन तद्-अङ्गत्वम् इति न तस्य प्रतिबन्धकत्वम् अपि तु कारणत्वम् एव। तथा चानुमानाद् एव समाप्ति-साधनं सफलत्व-साधन-द्वारेण भवति। तथाहि—‘मङ्गलं सफलम् अविगीत-शिष्टाचारत्वात् दर्शादिवत्’। यथा दर्शादौ अनिन्दित-शिष्टाचार-विषयत्वम् इति तत्र हेतु-व्यापक-साध्य-सद्भावोऽपि प्रसिद्ध्यति, यथा वा धूम-सद्भावाद् धूम-ध्वजस्य पर्वतादौ सद्भावः प्रसिद्ध्यति, तथैव प्रकृते मङ्गलेऽविगीत-शिष्टाचार-हेतु-सद्भावात् सफलत्वम् अपि प्रसिद्ध्यति। पर्वतो वह्निमान् इति संशयत्वे तद्-बलात् पर्वते वह्नि-सिद्धिस् तादृश-पक्षता-रूपत्वात्, तद्वत् प्रकृतेऽपि व्यभिचार-दर्शने तस्य संशय-रूपत्वेन ततः सफलत्व-रूप-साध्यस्य मङ्गल-पक्षे सिद्धिर् भवत्य् एवेति।

ततश् च प्रदर्शितानुमानेन मङ्गलस्य सफलत्वे सिद्धे—किं तस्य फलम् इति जिज्ञासायाम्—यत्र फलं न श्रूयते तत्र विश्वजिन्-न्यायात् स्वर्गः फलं कल्पितं भवतीति मङ्गल-फलं स्वर्गादिकम् इति न वक्तव्यम्, दृष्ट-फलस्य सम्भवत्वे स्वर्गादि-कालान्तर-भाविनः फलस्याकल्पनात्। दृष्ट-फलेऽपि न पुत्र-पश्वादि-रूपस्य सिद्धिः, किन्तु उपस्थितत्वात् प्रबन्ध-समाप्तिर् एव फलं मङ्गलस्येति। एवञ्च यत्र मङ्गलं न दृश्यते तत्र जन्मान्तरीय-मङ्गलस्यानुमानं भवति। यत्र सत्य् अपि मङ्गले न समाप्तिस् तत्र विघ्न-बाहुल्यम् एव कल्पनीयम्।

मङ्गलस्य साक्षात् फलं ग्रन्थ-समाप्तिर्, विघ्न-ध्वंसस् तु तज्-जन्यत्वे सति तज्-जन्य [[P44]] जनकत्वात्मक-व्यापार-रूपम् एव। अर्थात् गौणं फलं विघ्न-विनाशो, मुख्यं च ग्रन्थ-समाप्तिः। यथा दण्ड-व्यापारस्य गौणं फलं चक्र-चालनं, मुख्यं च घटोत्पादस्, तद्वत् प्रकृते मङ्गलस्य गौण-फलं विघ्न-विनाशनं, तद्-द्वारा मुख्यं फलं समाप्तिर् एवेति प्राचीन-मतम्। उपाध्याय-गङ्गेश-प्रभृतिक-नवीनास् तु मङ्गलस्य मुख्यं फलं विघ्न-विनाश एव, न तु समाप्तिः। न च तर्हि समाप्तेर् अकारणकत्वम् आकास्मिकत्वं वा स्याद् इति वाच्यम्, बुद्धि-प्रतिभादि-कारण-सामग्र्यैव तन्-निष्पत्तेः।

अर्थात् मङ्गलं मङ्गल-कर्तारं विघ्न-रहितं करोति, ततः स बुद्ध्यादि-कारण-समुदायेन समाप्ति-रूपं कार्यं सम्पादयति। अन्यथा अल्पाधीतोऽपि द्वित्रान् मङ्गल-श्लोकान् निर्माय तद्-बलेन बहु-भोग्यता-साध्यं ग्रन्थं समापयेत्। न त्व् एवं क्वचित् सम्भवति। मङ्गलं विघ्न-ध्वंस-मात्रं करोति, समाप्तिस् तु तदितर-तत्-कारण-साध्येति। न चैवं यस्य पुण्य-शालिनो जनस्य पाप-लक्षण-विघ्नो नास्ति, स्वभावत एव तादृश-पुरुषेण सम्पादित-मङ्गलस्य नैरर्थक्यम् आपद्येत। यतस् तत्र मङ्गल-नाश्य-विघ्नस्य स्वभाव-विशेषाद् एवाभावाद् इति वाच्यम्—तादृश-स्थल-विशेषे मङ्गल-नैरर्थक्यस्येष्टत्वात्। न च तथा सति ‘विघ्न-ध्वंस-कामो मङ्गलम् आचरेत्’ इति शिष्टानुमित-मङ्गल-कर्तव्यता-बोधक-वेदस्यानर्थक्यं स्याद् इति वाच्यम्, सति विघ्ने तन्-नाशस्यैव वेद-बोधितत्वात्। अर्थात् यदि विघ्नः स्यात् तदा मङ्गल-करणेन तन्-नाशः स्यात्। अत एव पाप-भ्रमात् कृतस्य तादृश-पाप-विनाशक-प्रायाश्चित्तानुष्ठानस्य साफल्यं तद्-बोधक-वेदस्य प्रामाण्यं च। यदि वस्तुतः पापं नास्ति तदा कृतं प्रायश्चित्तं न फलाय, न च तावता प्रायश्चित्त-बोधक-वेदस्याप्रामाण्यम्। यदर्थं प्रायश्चित्तानुष्ठानं, तन्-निमित्त-भूतस्य तस्य पापस्यैवाभावात्। अयं भावः—प्रतियोगिता-सम्बन्धेन नाशं प्रति तादात्म्य-सम्बन्धेन प्रतियोगिनः कारणत्वम् इति नियमः। यथा यत्र घट-ध्वंसो भवति, स ध्वंसः प्रतियोगिता-सम्बन्धेन घटे उत्पद्यते, तत्र घटे तादात्म्य-सम्बन्धेन घटस्य विनाश-प्रतियोगिनो घटस्य विद्यमानत्वात्। तत्र विनाश-ग्रस्तो घट एव भवन् विपद्यते, नान्यस्मिन् घटः पटादिर् वा विनश्यति। कुतः? घटान्तरस्य पटादेस् तादृश-ध्वंसाप्रतियोगित्वात्। अतो ध्वंस-प्रकृत-समये प्रतियोगिनः सत्त्वम् अवश्यम् एव भाव्यम्, अन्यथा कस्य विनाशः स्यात्। एवञ्च यदि यत्र विघ्नो भवेत् तदैव तत्रत्य-विघ्न-विनाशः, नान्यथा। न वा पाप-भ्रम-जनित-कृत-प्रायश्चित्त-स्थलीय-वेदवत् [[P45]] प्रकृते वेदस्याप्रामाण्यम् इति। तस्मात् विघ्न-विरह-स्थले नावश्यकता मङ्गलस्य, न वा तद्-बोधक-वेदाप्रामाण्य-शङ्केति।

एवञ्च विघ्न-विनाश-पूर्वकारब्ध-ग्रंथस्य समाप्ति-कामनया शिष्टाचार-परिप्राप्तं मङ्गलम् अकरोद् आचार्यः। तत्र यथा—मङ्गलं विघ्न-विनाशकं, तथा श्रीहनुमत्-स्तवादिनापि तादृश-विघ्नादि-विनाशो भवति। क्वचित् तु प्रायश्चित्तेन, क्वचिच् च प्रयागादौ सुवर्ण-दानादिनापि विघ्न-विनाशो भवत्य् एव। क्वचित् तु विघ्नात्यन्ताभाव एव समाप्ति-साधनं, यतः प्रतिबन्धक-संसर्गाभावस्य कार्य-जनकत्वात्। अयम् आशयः—यत् कार्यं प्रति यः प्रतिबन्धकः कार्योत्पत्ति-विरोधी, तस्य विरोधिनः संसर्गाभावः कारणं भवतीति नियमः। यथा सत्य् अपि वह्नीन्धनादि-संबलेन चन्द्रकान्त-मणेः समवधाने सति दाह-रूपं कार्यं न भवति, परन्तु यदि तत्र चन्द्रकान्त-मणेर् अभावो यदा भवति तदा तेनैव वह्नीन्धनादिना दाहो जायते इति लोक-सिद्धम्। तत्र यदि वह्नीन्धनादि-संबलन-स्थले चन्द्रकान्त-मणेः प्राग्-अभावो भवति। अर्थात् कालान्तरे आगमिष्यति मणिस् तदापि दाह-कार्यं भवति। यदि वा मणेर् विनाशो जातस् तदापि संसर्गाभावान्तर्गत-विनाश-सत्त्वेन दाहो भवन् दृष्टः। अथवा यत्र चन्द्रकान्त-मणेर् अत्यन्त-अभावो भवति तदापि दाहो भवत्य् एवेति प्रतिबन्धक-प्राग्-अभाव-ध्वंसात्यन्ताभावानां समान-रूपेण कारणत्व-दर्शनात्। तद्वत् प्रकृते प्रतिबन्धक-विघ्नस्य प्राग्-अभाव-प्रध्वंसात्यन्ताभावेष्व् अन्यतमस्यापि सद्भावस् तदा समाप्तिर् भवत्य् एवेति। यत्र मङ्गल-सत्त्वेऽपि समाप्तेर् अभावस् तत्र विघ्न-प्राचुर्यं बोध्यम्। यत्र तु मङ्गलाभावेऽपि समाप्तिर् दृश्यते तत्र जन्मान्तरीय-मङ्गल-सद्भावोऽनुमातव्यः, नास्तिकात्मा जन्मान्तरीय-मङ्गलवान् ग्रन्थ-समाप्ति-दर्शनात्। अथवा स्वतः सिद्ध-विघ्नाभावो वा तत्रानुमातव्यः, नास्तिकात्मा स्वतः सिद्ध-विघ्न-विरहवान् ग्रन्थ-समाप्ति-दर्शनात्। अधिकम् अन्यत्रानुसन्धेयम् इति संक्षेपः।

ननु प्रकृते आचार्येण सर्वेश्वर-श्रीराम-नमस्कारात्मकं मङ्गलं कृतम्, परन्तु तन् न युक्तम्, नमस्कार्य-परमेश्वर-सद्भावे प्रमाणाभावात्। प्रमाणाधीना खलु प्रमेयावगतिः। अत्रेश्वरात्मक-प्रमेय-साधनाय प्रमाणाभावात्। जीवातिरिक्त-सर्वेश्वरस्य केनापि प्रमाणेनानुपलम्भात्। चार्वाक-मते प्रत्यक्ष-मात्रं प्रमाणं, तेन विलक्षण-पृथिव्यादि-भूत-सङ्घात-लक्षणस्यैव सिद्धि-दर्शनेन देह-लक्षण-जीवातिरिक्त-चेतनान्तर- [[P46]] स्यासिद्धत्वात्। अन्य-मते चत्वारि प्रमाणानि—प्रत्यक्षानुमानोपमान-शब्दाः। एषु अन्यतमेनापि परमेश्वरो न सिद्ध्यति। तथा हि इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष-जनितं तत् प्रत्यक्षं, तत्-करणं चक्षुरादिकं, तच् च द्विविधं बाह्यम् आन्तरं च। तत्र न प्रथम-प्रत्यक्षेण परमेश्वरो ग्राह्योऽरूपि-द्रव्यत्वेन तद्-अयोग्यत्वात्। रूप-रूपत्व-रूपाभाव-रूपि-द्रव्य-ग्राहकत्वम् एव प्रत्यक्षस्य। तथा ‘न सद्-दृशे तिष्ठति रूपम् अस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्’ इत्यादि श्रुत्या परमेश्वरस्य बाह्य-प्रत्यक्षाग्राह्यत्व-कथनात्। जीव-सुखादि-व्यतिरिक्ततया आभ्यन्तर-प्रत्यक्षेणापि सर्वेश्वर-ग्रहणासंभवात्। ‘अहं सुखी अहं जानामि’ इत्यादि जीव-सुखादि-आभ्यन्तर-वस्तु-विशेषाणाम् एव मनसा ग्राह्यत्व-नियमात्। नाप्य् अनुमानं प्रमाणम्—अव्यभिचरित-लिङ्गाभावात्। प्रत्यक्षयोर् महानसे वह्नि-धूमयोः सहचार-दर्शनेन तयोः सामानाधिकरण्य-रूपा-व्याप्तेर् निर्णयस्, ततश् च कदाचिद् अव्यभिचरित-धूम-दर्शने धूम-ध्वजोऽनुमितो भवति। परन्तु प्रकृते साध्यस्य परमेश्वरस्याप्रत्यक्षतया तेन सह हेतोः सामानाधिकरण्य-रूप-व्याप्ति-ग्राहकाधिकरणाप्रसिद्ध्या परमेश्वरानुमानासंभवात्।

न च यथा क्षित्य्-अङ्कुरादौ कार्यत्व-हेतुना परमेश्वर-कर्तृकत्वम् इव तद् अनुमाने परमेश्वर-सिद्धिः कुतो नेति वाच्यम्, व्यभिचारात्। कार्यत्व-हेतोर् मेघ-मालायां वल्मीकादौ च सत्त्वेन तत्र कर्तृ-पुरुषस्य कस्यचिद् अपि दर्शनाभावात्। तस्मान् नानुमानेनेश्वरः सिद्ध्यतीति।

नाप्य् उपमान-प्रमाणेनेश्वर-सिद्धिः। तत्-सदृश-कश्चित् पदार्थाभावात्। यथा मुख-सदृश-चन्द्र-सत्त्वे तत्-सादृश्यम् आदाय मुखं चन्द्रवद् इति प्रयोगो भवति। प्रकृते ‘न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते’ इत्यादि-श्रुत्या परमेश्वर-सदृश-पदार्थान्तराभावान् न सादृश्य-मूलकोपमान-प्रसरः। अत एव ‘गमनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः। राम-रावणयोर् युद्धं राम-रावणयोर् इव’ इत्यत्र तत्-तत्-सदृश-पदार्थान्तरस्याभावेन नोपमालङ्कारोऽपि त्व् अनन्वयालङ्कार एव स्वीकृतः। तस्मान् नोपमानेनेश्वर-सिद्धिः। नापि शब्द-प्रमाणम्। अन्योन्याश्रयात्। वेद-प्रामाण्य-सिद्धाव् ईश्वर-सिद्धिर्, ईश्वर-सिद्ध्या च वेदस्य सिद्धिर् इत्य् अन्योन्याश्रयान् न तस्य तत्र प्रामाण्यम् इति संक्षिप्तः पूर्व-पक्षः। तद् अत्र यद्य् अपि परमेश्वर-साधने सर्व-साधारणस्य प्रत्यक्षादि-प्रमाणावसरो न भवति, तथापि नित्यापौरुषेय-वेदाद् एव परमेश्वर-सिद्धिर् भवति। तथाहि—‘सत्यं ज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म’ [[P47]] ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’, ‘न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते’, ‘परास्य शक्तिर् विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च’, ‘जगत् सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं ते वसुधातलम्’, ‘अहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस् तथा’, ‘अनाख्यम् अनभिव्यक्तं सत् किञ्चिद् अवशिष्यते’ इत्यादि श्रुति-स्मृत्यादिभिर् एव परमेश्वर-सिद्धिर् भवति। तद् अत्र जगद्-गुरवः श्रीबोधायन-मतादर्श-काराः श्रीपूर्णानन्दाचार्याः—‘ब्रह्म-सत्त्वे प्रमाणं च शास्त्रम् एव सुनिश्चितम्। तत् त्व् औपनिषदं चैतच् छ्रुति-वाक्य-प्रमाणतः’ श्रीबोधायन-मतादर्श १३१ इत्याहुः।

वेदस्यापौरुषेयत्वादिम् उपरिष्टाद् उपपादयिष्यते। तद् एवं सामान्यतः सिद्ध-परमेश्वरस्य स्वाभिलषित-सर्व-जगत्-सर्जकस्य श्रीसीतानाथस्य नमस्कारात्मकं मङ्गलं कृतम् आचार्य-चरणैः—‘श्रीमन्तं श्रुति-वेद्यम्’ इत्यादि। अहं ग्रन्थ-कारो जगद्-गुरु-श्रीरामानन्दाचार्यः रामम् (रमन्ते योगिनो यस्मिन् स राम इति राम-पद-व्युत्पत्तेः)। स च, ‘यतो वा इमानि भूतानि’, ‘सत्यं ज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म’ इत्यादि-श्रुत्या जड-चेतन-साधारण-सकल-प्रपञ्चस्याभिन्न-निमित्तोपादान-रूपः सकल-जगच्-छरीरः सर्वस्यान्तरात्मा सर्व-शेषी हेय-प्रत्यनीक-सकल-कल्याण-गुणालयो दया-सागरस् तादृशं रामम्। अथवा ‘जातो दशरथे कुले’ इति वचनेन दशरथापत्य-पुंस्त्व-विशिष्टः, एतावता परशुराम-बलरामयोर् व्यवच्छेदः। त्रयो हि राम-पद-बोध्या भवन्ति। तत्र तयोर् द्वयोर् व्यवच्छेदाय दशरथापत्यस्यैवात्र ग्रहणम्। एतादृशं सर्वस्यात्मत्वेन तद्-अन्तर्यामितया व्यवस्थितं भगवन्तं रामं श्रीसीतानाथं भजे, सर्व-भावेन तस्य शरणं गच्छामि। प्रपत्तेर् मोक्ष-कारणताया अग्रे वक्ष्यमाणत्वात्, ‘सकृद् एव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्व-भूतेभ्यो ददाम्य् एतद् व्रतं मम’ इति श्रीसीतानाथ-वचनात्। कीदृशं पुनः रामं तत्राह—‘श्रीमन्तम्’ इति। श्रीर् लक्ष्मीः श्रीसीता-रूपा विद्यते यस्य स श्रीमान् तम्। अत्र श्री-पदोत्तर-जायमानो मतुप्-प्रत्ययो ‘गोमान्’, ‘धनवान्’ इत्यादि-वत् न स्व-स्वामि-भाव-सम्बन्धे, आधाराधेये वा, किन्तु नित्य-योगेऽर्थे ‘अनन्या राघवेणाहं भास्करेण यथा प्रभेति’ श्रीमद्-रामायणीय-महर्षि-वचनात्। यथा प्रभा-सूर्ययोः सार्वदिको विच्छेद-रहितश् च सम्बन्धस् तथैव श्रीसीतारामयोः सर्वदा विच्छेद-रहित एव सम्बन्धः। न च रावणापहारे पृथिवी-प्रवेशे वा सम्बन्ध-विच्छेदो दृष्ट इति वाच्यम्, तत्र भगवतो श्रीरामस्य मर्यादा-पुरुषत्वेन तथा करणात्। लीलोप- [[P48]] करण-रूपायाः विच्छेद-प्रतिभासेऽपि विभूत्य्-उपकरण-रूपायाः सदैवानपायात्। अन्यथा ‘अनन्या च मया सीता भास्करेण यथा प्रभा’ इति श्रीमद्-रामायणीय-महर्षि-वचन-विरोधात्।

तद् अत्रानुसन्धेयं सर्वेश्वर-श्रीसीताराम-भेद-विषयक-श्रीवशिष्ठ-संहिता-स्थं प्रकरणम्—

यथा रामस् तथा चाहं च भेदः कश्चिन् न चावयोः ॥
शीतता हि यथा नीरे तथा हं राघवे स्थिता ।
गन्ध-वत्त्वं यथा भूम्यां स्थितो रामस् तथा मयि ॥
इच्छाम्य् अहं न किञ्चिद् धि कर्तुं रामेच्छया विना ।
मां विना न च रामोऽपि किञ्चित् कर्तुं समीहते ॥
सर्वेश्वरी यथाहं रामः सर्वेश्वरस् तथा ।
षड्-गुणो भगवान् रामः षड्-गुणा हं स्वभावतः ॥
सर्वस्याधार-भूतौ च त्वावाम् एव हि मारुते ।
स्वे महिम्नि स्थिताव् आवाम् अन्य्-आधारो न चावयोः ॥
सच्चिदानन्द-रूपश् च मादृशो राघवोऽपि हि ।
मादृशो राघवश् चापि सर्वत आराध्यतां गतः ॥
सर्व-फल-प्रदौ चावां नित्यौ च सर्व-शेषिणौ ।
नित्य-लीला-विभूत्योस् तच् चावां नाथौ श्रुतौ श्रुतौ ॥
दिव्य-देह-गुणो रामो दिव्य-देह-गुणा ह्य् अहम् ।
भक्त्या मुक्ति-प्रदो रामो तथा चाहं मता बुधैः ॥
पूज्यौ स्तुत्यौ तथाऽमोघौ कीर्तनीयौ समावथ ।
चिन्तनीयौ प्रणामार्हाव् आवां दृश्याव् अभीष्ट-दौ ॥
आवां तौ हि यतः कश्चिन् नाधिको न च यत्-समः ।
सर्वात्मानौ मतौ चावां सर्वेषां प्रेरकौ तथा ॥
सूक्ष्माचिच्-चिद्-द्वयेनावां विशिष्टौ प्रलये किल ।
सृष्टाव् आवां विशिष्टौ तु स्थूलाचिच्-चिद्-द्वयेन हि ॥
सत्य-कामौ तथा चावां सत्य-संकल्पतां गतौ । [[P49]]
शरण्यौ वेदनीयौ च भजनीयौ हि मुक्तये ॥
वेद-वेद्यो जगद्-योनिर् मन्-निभो राघवो मतः ।
जगत्-सृष्ट्यादयो लीला ममैव राघवस्य च ॥
मम लीलां विना राम-लीला पूर्णा कदापि न ।
पूर्णा ममापि नो लीला श्रीराम-लीलये विना ॥
सर्वेषाम् अवताराणाम् आवाम् एवावतारिणौ ।
भासक-भास्करादीनाम् आवाम् एव विभासकौ ॥
त्रातुं धर्मं च भक्तांश् चावतरावो युगे युगे ।
आवयोर् नित्य-सम्बन्धः शक्ति-शक्तिमतोर् इव ॥
मया विना वदन् रामं रामं विना वदंश् च माम् ।
वदत्य् आवां यतश् चावाम् अभिन्नाव् एव सम्मतौ ॥
कुरुते नावति-प्रीतिं तथाप्य् उभौ वदन् नरः ।
द्विगुणं कीर्तनं यस्माज् जायते च तथावयोः ॥
सर्व-शक्ति-स्वरूपा हं सर्व-शक्तिर् हि राघवः ।
वर्णिता शास्त्र-तत्त्व-त्रैर् आवयोः सर्व-रूपता ॥
जगद्-देहश् च सर्वज्ञो विभू रामः सदैव हि ।
जगद्-देहा तथैवाहं सर्वज्ञा विभुतां गता ॥
ऐश्वर्येण सदा रामो मादृशश् चास्ति मारुते ।
माधुर्येऽपि सदा रामो मत्-सादृश्यं जहाति न ॥
कोटि-जन्म-ार्जितं पुण्यं ध्रुवं नश्यति तस्य हि ।
अज्ञत्वेनावयोर् निन्दां यः करोति नराधमः ॥
कुरुते त्व् अधमो मूढो भेद-बुद्धिं य आवयोः ।
यावच्-चन्द्र-रवी तस्य तावद् धि निरये स्थितिः ॥

विस्तरस् त्व् अन्यत्र वेद-रहस्यादि-ग्रन्थे द्रष्टव्यः, अथवा श्री-लक्ष्मीस् तया युक्तम्। ‘कलत्रवन्तम् आत्मानम् अवरोधे महत्य् अपि, तया मन्ये मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाधिप’ इति कालिदासोक्तेः। अथवा श्रीः शोभा तया युक्तम्। लीलोपकरण-वस्तुभिः स्व-जनितैः सर्वदैव शोभायमानम्। इत्थं भूतं श्रीरामं भजे सेवे इत्यर्थः। [[P50]]

पुनः कीदृशं श्रीरामं तत्राह—‘अद्भुतगुणग्रामाग्ग्ररत्नाकरम्’ इति। अद्भुता अतिविलक्षणाः अतएवाश्चर्यजनकाः ये गुणाः सत्यकामसत्यसङ्कल्पत्वसर्वान्तर्यामित्वसर्वशेषित्वसर्वान्तरात्मत्वशौर्यवात्सल्यादिकाः स्वेतरसविलक्षणा अप्राकृतिकाः एतादृशोपर्युक्तगुणानां यो ग्रामः समुदायः, ग्रामशब्दस्यात्र समुदायबोधकत्वात्। न तु अधिकरणविशेषो ग्रामः, ते गुणसमुदाया एव, अग्ररत्नानि विलक्षणरत्नविशेषरूपाणि, यथा बहुमूल्यरत्नादिकं भाग्यवतामेव प्राप्तं भवति, तथैव भवपरम्परयोपार्जितसुपुण्यशालिनां महापुरुषाणामेवोपर्युक्तगुणविशिष्टभगवद्दर्शनं भवति नान्येषां मादृशानामितिभावः। एतेषां गुणानामाकरम् स्थानमधिकरणं श्रीरामम् सेवे इति क्रियान्वयः। यथा प्राकृतं क्षीरोदसमुद्रोऽनेकप्रकारकरत्नसमुदायस्याधिष्ठानं तथैव भगवान् श्रीरामो हेयप्रत्यनीकासंख्येयकल्याणगुणानामाधार इति। तथा ‘प्रेयः स्वेक्षणसंसुलज्जितमहीजाताक्षिकोणेक्षितम्’ इति। जगज्जनन्याः प्रेयोऽतीवप्रियो रामः, तेन कृतं यदीक्षणं श्रीसीताया मुखनिरीक्षणं तेन प्रियदर्शनेन सुलज्जिता इषल्लज्जावती या मही सुता पृथिव्याः पुत्रीः (यागप्रसङ्गे हलप्रवहणं कुर्वतो जनकस्य महीमध्यादाविर्भूता श्रीसीता, तेनेयं महीपुत्रीति कथ्यते) तस्याः श्रीसीताया अक्षिकोणेन नेत्रप्रान्तेन कटाक्षेणेति यावत्। ईक्षितम्, श्रीसीताकर्तृकदर्शनकर्मभूतम् श्रीरामम्। एतावतातदुभयोर्विलक्षणस्नेहप्रकर्षः सूचितो भवति, स्नेहादेर्द्विष्ठत्वात्। ‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेवरूपं रमणीयतायाः’ इति वचनेन एकदा दर्शनेनौत्सुक्यनिवृत्तेः पुनः पुनर्दर्शनं रमणीयतामभिव्यञ्जयति। यथा श्रीसीतामुखदर्शनं श्रीरामस्यकृते मनोज्ञं मनोहारि तथैव श्रीराममुखदर्शनं तस्या अपि तथैवेति, तदुभययोः पुनर्दर्शनमिति। ‘भक्ताशेषमनोभिवाञ्छितचतुर्वर्गप्रदं स्वद्रुमम्’ अनन्यभक्त्या भगवन्तं भजमाना ये चतुर्विधाश्चतुः प्रकारका भक्ताः प्रपन्नाश्च ‘चतुर्विधाभजन्ते मां’ इति गीतोक्तेः। तेषां समस्तमनोवाञ्छितधर्मार्थकाममोक्षाख्यं फलं प्रददातीति, भक्ताशेषमनोभिवाञ्छितचतुर्वर्गप्रदः तम्, अतएव ‘स्वद्रुमम्’ कल्पवृक्षतुल्यम्, यथा देववृक्षः कल्पवृक्षः स्वच्छायाश्रितं पुरुषं स्वमनोवाञ्छितधनकलत्रादिरूपफलं सद्यः प्रयच्छति। यथा वा चिन्तामणिर्मणिः स्वाश्रिताय सर्वफलं सद्यः प्रददाति, तथा सर्वशेषी भगवान् श्रीरामः सर्वभक्तेभ्यस्तत्तत्फलमनुस्मरणमात्रेण ददादीति भगवति कल्पवृक्षवदिति सादृश्यकथनम् इषुरिव सविताधावतीति वद् द्रष्टव्यम्। यतः ‘न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते’ इत्यादिश्रुतेस्तत्सदृशतदधिकस्य निषेधात् सामान्यनिदर्शनमिति ध्येयम्। तथा ‘स्मेरमुखाम्बुजम्’ इति, स्मेरम्-ईषत् हास्यविशिष्टं मुखाम्बुजम् विकसितकमलवत् मुखं यस्य स स्मेरमुखाम्बुजः तादृशं श्रीरामम्। सूर्यप्रभया किञ्चिद् विकसितसहस्रदलसरोजवन्मुखवान्। अर्थात् यथा कमलमीषत् विकसितमतीवशोभायमानं भवति, तादृशकमलवत् किञ्चिद् हासविशिष्टमतीवशोभायुक्तं भुखं तद्वदेव मुखकान्तिः सर्वेश्वरस्येति। ईषद् हास्येनैव स्वाश्रितानां सर्वस्वं ददामीति संसूचनपरकमिदम्। ‘शुचिमहानीलाश्मकान्तिम्’ इति। नीलोनीलवर्णः श्याम इति यावत्। नीलश्चासौ अश्मा प्रस्तरश्चेति नीलाश्मा। अत्र ‘नीलोघटः’ इत्यत्र यथा नीलघटयोरभेदान्वयः अर्थात् अभेद सम्बन्धावच्छिन्ननीलत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यताशालिबोधे स्वतन्त्रनीलपदसमभिव्याहृतस्वतन्त्रघटत्वावच्छिन्नविशेष्यकोपस्थितेः कारणतया तादृशाभेदविषयकः शाब्दबोधो भवति। तथैव प्रकृते अभेदसम्बन्धेन [[P52]] नील-प्रकारक-अश्मात्वावच्छिन्न-विशेष्यक एवं बोधो भवति। अर्थात् नीलाश्मनोर् अभेदान्वयः, तेनाभेद-सम्बन्धेन नीलस्य प्रकारता, अश्मा च विशेष्य-रूप इति। नीलाश्मा नील-मणिर् इत्यर्थः। महाश् चासौ नीलाश्मा चेति महानीलाश्मा। शुचिर् निर्मलः सूर्य-दोष-रहितः, तादृश-शुचि-महानीलाश्मनः कान्तिः’ कान्तिर् इव कान्तिर् विद्यते यस्य, अर्थात् तद्वत् शरीरस्य रमणीयता आह्लादकता विद्यते यस्य स तथा, एतादृश-गुण-विशिष्टं सर्वेश्वर-श्रीरामं भजे।

सदा शोभायुक्तं श्रुति-प्रतिपाद्यं विलक्षण-गुण-समुदायस्य महा-समुद्र-भावाविष्ट-जनक-जया प्रेक्षितं कल्प-वृक्षवत् भक्तानाम् अनेक-प्रकारक-फल-प्रदं कमल-वन्-मुखं नील-मणि-सदृश-श्यामलाङ्गं श्रीसीतापतिम् अहं प्रपद्ये इति सारार्थः। ‘आशीर्-नमस्क्रिया-वस्तु-निर्देशो वाऽपि तन्-मुखम्’ इति वचनात् मङ्गलं त्रिविधं भवति, प्रकृते च नमस्कारात्मकं मङ्गलं कृतम् इति ज्ञेयम्। विशेष-विवरणं तु अन्यत्रानुसन्धातव्यम् इति संक्षेपः ॥१॥

पुनश् च कीदृशं रामं-तत्राह—‘श्रुति-वेद्यम्’ इति श्रुतिभिः—‘सत्यं ज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म’ इत्यादिभिः वेद्यं, ज्ञातुं योग्यं, वेद-प्रतिपाद्यम्, श्रुति-जनित-शाब्द-बोध-विषयीभूतम्। विद्-धातोर् ज्ञान-रूपार्थे स्मरणात्, ‘वेद-वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। वेदः प्राचेतसाद् आसीत् साक्षात् रामायणात्मने’ इत्य् आगमोक्तेः। वेद-शब्देनात्रोपासनात्मकं साक्षात्कारि-ज्ञानवद् अतिविशदं ध्यानम् एव कथ्यते, तेन तादृशोपासनया सर्वदैवोपास्यम्। तादृशानुध्यानस्यैव मोक्ष-जनकत्वात तादृश-भगवतो रामस्य भक्त-प्राप्यत्वं मोक्ष-प्रदत्वं चाभिव्यक्तं भवति। तदाहुः श्री-आनन्द-भाष्यकाराः स्व-भाष्ये—‘तथा हि-सकृत् प्रत्ययं कुर्याच् छब्दार्थस्य कृतत्वात् प्रयाजादिवत्’ (बो.वृ.) इत्यादिना पूर्व-पक्षम् उपन्यस्य समाहितम्—‘सिद्धन् तूपासन-शब्दात्’ (बो.वृ.) इति। वेदनम् एवोपासनम् इत्य् अप्य् उक्तं—‘वेदनम् उपासनं स्यात् तद्-विषये श्रवणात्’ (बो.वृ.) इति। उपासनं तु ध्रुवानुस्मृति-रूपम् इत्य् अभिहितम्। ‘उपासनं स्याद् ध्रुवानुस्मृतिर् दर्शनान् निर्वचनाच् च’ (बो.वृ.) इति। सा च ध्रुवानुस्मृति-साधन-सप्तकाद् एवेत्य् उदीरितम्—‘तल्-लब्धिर् विवेक-विमोकाभ्यास-क्रिया-कल्याणानवसादानुद्धर्षेभ्यः सम्भवान् निर्वचनाच् च’ (बो.वृ.) इति। (आनन्दभाष्यम् १.१.१)

पुन कीदृशं श्रीरामं तत्राह—अद्भुत-गुण-ग्रामाग्र-रत्नाकरम् इति। अद्भुता अतिविलक्षणाः अत एवाश्चर्य-जनकाः ये गुणाः सत्य-काम-सत्य-सङ्कल्पत्व-सर्वान्तर्यामित्व-सर्व-शेषित्व-सर्वान्तरात्मत्व-शौर्य-वात्सल्यादिकाः स्वेतर-सविलक्षणा अप्राकृतिकाः, एतादृशोपर्युक्त-गुणानां यो ग्रामः समुदायः, ग्राम-शब्दस्यात्र समुदाय-बोधकत्वात्। न तु अधिकरण-विशेषो ग्रामः, ते गुण-समुदाया एव, अग्र-रत्नानि विलक्षण-रत्न-विशेष-रूपाणि, यथा बहु-मूल्य-रत्नादिकं भाग्यवताम् एव प्राप्तं भवति, तथैव भव-परम्परयोपार्जित-सुपुण्य-शालिनां महा-पुरुषाणाम् एवोपर्युक्त-गुण-विशिष्ट-भगवद्-दर्शनं भवति, नान्येषां मादृशानम् इति भावः। एतेषां गुणानाम् आकरम् स्थानम् अधिकरणं श्रीरामम् सेवे इति क्रियान्वयः। यथा प्राकृतं क्षीरोद-समुद्रोऽनेक-प्रकार-करत्न-समुदायस्याधिष्ठानं तथैव भगवान् श्रीरामो हेय-प्रत्यनीकासंख्येय-कल्याण-गुणानाम् आधार इति। तथा ‘प्रेयः स्वेक्षण-संसुलज्जित-मही-जाताक्षि-कोणेक्षितम्’ इति। जगज्-जनन्याः प्रेयोऽतीव प्रियो रामः, तेन कृतं यद् ईक्षणं श्रीसीताया मुख-निरीक्षणं, तेन प्रिय-दर्शनेन सुलज्जिता ईषल्-लज्जावती या मही-सुता पृथिव्याः पुत्रीः [[P51]] (याग-प्रसङ्गे हल-प्रवहणं कुर्वतो जनकस्य मही-मध्याद् आविर्भूता श्रीसीता, तेनेयं मही-पुत्रीति कथ्यते) तस्याः श्रीसीताया अक्षिकोणेन नेत्र-प्रान्तेन कटाक्षेणेति यावत्। ईक्षितम्, श्रीसीता-कर्तृक-दर्शन-कर्म-भूतम् श्रीरामम्। एतावता तद्-उभयोर् विलक्षण-स्नेह-प्रकर्षः सूचितो भवति, स्नेहादेर् द्विष्ठत्वात्। ‘क्षणे क्षणे यन् नवताम् उपैति तद् एव रूपं रमणीयतायाः’ इति वचनेन एकदा दर्शनेनौत्सुक्य-निवृत्तेः पुनः पुनर् दर्शनं रमणीयताम् अभिव्यञ्जयति। यथा श्रीसीता-मुख-दर्शनं श्रीरामस्य कृते मनोज्ञं मनोहारि, तथैव श्रीराम-मुख-दर्शनं तस्या अपि तथैवेति, तद्-उभयोः पुनर् दर्शनम् इति। ‘भक्ताशेष-मनोऽभिवाञ्छित-चतुर्वर्ग-प्रदं स्व-द्रुमम्’—अनन्य-भक्त्या भगवन्तं भजमाना ये चतुर्विधाश् चतुः-प्रकारका भक्ताः प्रपन्नाश् च ‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ इति गीतोक्तेः, तेषां समस्त-मनोवाञ्छित-धर्मार्थ-काम-मोक्षाख्यं फलं प्रददातीति, भक्ताशेष-मनोऽभिवाञ्छित-चतुर्वर्ग-प्रदः तम्, अत एव ‘स्व-द्रुमम्’ कल्प-वृक्ष-तुल्यम्, यथा देव-वृक्षः कल्प-वृक्षः स्वच्छायाश्रितं पुरुषं स्व-मनोवाञ्छित-धन-कलत्रादि-रूप-फलं सद्यः प्रयच्छति। यथा वा चिन्तामणिर् मणिः स्वाश्रिताय सर्व-फलं सद्यः प्रददाति, तथा सर्व-शेषी भगवान् श्रीरामः सर्व-भक्तेभ्यस् तत्-तत्-फलम् अनुस्मरण-मात्रेण ददातीति भगवति कल्प-वृक्षवद् इति सादृश्य-कथनम् इषुर् इव सविता धावतीति वद् द्रष्टव्यम्। यतः ‘न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते’ इत्यादि-श्रुतेस् तत्-सदृश-तद्-अधिकस्य निषेधात् सामान्य-निदर्शनम् इति ध्येयम्। तथा ‘स्मेर-मुखाम्बुजम्’ इति, स्मेरम्—ईषत्-हास्य-विशिष्टं मुखाम्बुजं विकसित-कमलवत् मुखं यस्य स स्मेर-मुखाम्बुजः, तादृशं श्रीरामम्। सूर्य-प्रभया किञ्चिद् विकसित-सहस्र-दल-सरोजवन्-मुखवान्। अर्थात् यथा कमलम् ईषत् विकसितम् अतीव शोभायमानं भवति, तादृश-कमलवत् किञ्चिद्-हास-विशिष्टम् अतीव-शोभायुक्तं मुखं तद्वद् एव मुख-कान्तिः सर्वेश्वरस्येति। ईषद्-हास्येनैव स्वाश्रितानां सर्वस्वं ददामीति संसूचन-परकम् इदम्। ‘शुचि-महानीलाश्म-कान्तिम्’ इति। नीलो नील-वर्णः श्याम इति यावत्। नीलश् चासौ अश्मा प्रस्तरश् चेति नीलाश्मा। अत्र ‘नीलो घटः’ इत्यत्र यथा नील-घटयोर् अभेदान्वयः, अर्थात् अभेद-सम्बन्धावच्छिन्न-नीलत्वावच्छिन्न-प्रकारता-निरूपित-घटत्वावच्छिन्न-विशेष्यता-शालि-बोधे स्वतन्त्र-नील-पद-समभिव्याहृत-स्वतन्त्र-घटत्वावच्छिन्न-विशेष्यकोपस्थितेः कारणतया तादृशाभेद-विषयकः शाब्द-बोधो भवति। तथैव प्रकृते अभेद-सम्बन्धेन [[P52]] नील-प्रकारक-अश्मात्वावच्छिन्न-विशेष्यक एवं बोधो भवति। अर्थात् नीलाश्मनोर् अभेदान्वयः, तेनाभेद-सम्बन्धेन नीलस्य प्रकारता, अश्मा च विशेष्य-रूप इति। नीलाश्मा नील-मणिर् इत्यर्थः। महाश् चासौ नीलाश्मा चेति महानीलाश्मा। शुचिर् निर्मलः सूर्य-दोष-रहितः, तादृश-शुचि-महानीलाश्मनः कान्तिः’ कान्तिर् इव कान्तिर् विद्यते यस्य, अर्थात् तद्वत् शरीरस्य रमणीयता आह्लादकता विद्यते यस्य स तथा, एतादृश-गुण-विशिष्टं सर्वेश्वर-श्रीरामं भजे।

सदा शोभायुक्तं श्रुति-प्रतिपाद्यं विलक्षण-गुण-समुदायस्य महा-समुद्र-भावाविष्ट-जनक-जया प्रेक्षितं कल्प-वृक्षवत् भक्तानाम् अनेक-प्रकारक-फल-प्रदं कमल-वन्-मुखं नील-मणि-सदृश-श्यामलाङ्गं श्रीसीतापतिम् अहं प्रपद्ये इति सारार्थः। ‘आशीर्-नमस्क्रिया-वस्तु-निर्देशो वाऽपि तन्-मुखम्’ इति वचनात् मङ्गलं त्रिविधं भवति, प्रकृते च नमस्कारात्मकं मङ्गलं कृतम् इति ज्ञेयम्। विशेष-विवरणं तु अन्यत्रानुसन्धातव्यम् इति संक्षेपः ॥१॥

卐 श्रीश्रियः श्रियै नमः 卐

आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी प्रणीत किरण॥

संसार-महोदधि में निमज्जित होने वाले वेद से बहिर्मुख तथा अनर्थ का कारण काम-क्रोधादिक में आग्रहशील दुःखी जन्तुओं को देखकर इन जीवों को संसार-सागर से उद्धार करने की इच्छा से सर्वेश्वर श्रीरामजी जोकि सकल-हेय-प्रत्यनीक अनन्त-कल्याण-गुणों से शोभित हैं, वे स्वयं सर्वावतारी श्रीराम श्रीरामानन्दाचार्यजी रूप से इस लीला-भूमि में माघ-कृष्ण-सप्तमी विक्रम-संवत १३५६ को अवतरित हुए। इसके बाद श्रीरामानन्दाचार्य जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी जो श्रीमठ पञ्चगङ्गाघाट के आचार्यत्व के रूप में समस्त जगत् का धार्मिक नेतृत्व कर रहे थे, से शिक्षा-दीक्षा को प्राप्त करके लोक-कल्याण के लिये वेद, स्मृति, इतिहास, पुराणादि रूप शास्त्र-सागर के अर्थ को निकाल करके प्रस्थानत्रयानन्द-भाष्यादि ग्रन्थों में प्रकाशित किए। तदनन्तर अल्पमति के साधारण व्यक्ति को भी शास्त्र के अर्थों का यथावत् बोध हो, तथान्य अल्पमतिक पण्डितों से दूषित श्रीसम्प्रदाय का कण्टकोद्धार करने [[P53]] के लिये आचार्यजी ने श्रुति-स्मृत्यादिकों के अर्थों का संकलन करके संक्षिप्त रूप से स्व-शिष्य जगद्‌गुरु श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी को निमित्त बनाकर ‘श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। प्रारीप्सित ग्रन्थ की निर्विघ्न-पूर्वक समाप्ति हो, इसलिये ग्रन्थ के आदि में मङ्गल करते हैं। मङ्गल तीन प्रकार का होता है—एक तो आशीर्वादात्मक, द्वितीय-नमस्कारात्मक, तृतीय मङ्गल होता है—वस्तु-निर्देशात्मक, अर्थात् जिस मङ्गल में ग्रन्थ-प्रतिपाद्य वस्तु का ही निर्देश किया जाय, वह ऐसा प्राचीनों का कथन है—‘आशीर्-नमस्क्रिया वस्तु-निर्देशो वाऽपि तन्-मुखम्’ इति।

प्रकृत प्रकरण के आरम्भ में आचार्यश्री ने जगद्-उत्पत्ति-स्थिति और प्रलय का नियामक, दया-सागर, सर्व-दोष-रहित, अनन्त-कल्याण-गुणों का सागर तथा सम्पूर्ण-चराचर-स्थूल-सूक्ष्म-साधारण जिनका शरीर है, इन सब का अन्तर्यामी, सर्व-शेषी भगवान् परमेश्वर श्रीसीतानाथजी हैं—उनका नमस्कार-रूप मङ्गलाचरण किया है, निर्विघ्न-पूर्वक ग्रन्थ-समाप्ति हो इसके लिये, अतः यह नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण किया गया है।

प्रश्न—सामान्यतः कारणता का नियामक अन्वय-व्यतिरेक होता है—तत्-सत्त्वे तत्-सत्ता, तद्-व्यतिरेके तद्-अभावः। यहाँ अन्वय-घटक प्रथम ‘तत्’ शब्द से कारणत्वेन अभिमत वस्तु का ग्रहण होता है, तथा द्वितीय ‘तत्’ शब्द से कार्य का ग्रहण होता है। इसी तरह व्यतिरेक में भी प्रथम ‘तत्’ कारण का बोधक होता है, द्वितीय ‘तत्’ शब्द कार्य का बोधक होता है।

उदाहरण—जिस तरह दण्ड के अव्यवहित पूर्व में सद्भाव रहने से घट-रूप कार्य की उत्पत्ति होती है और दण्ड के अव्यवहित पूर्व में नहीं रहने से घट की उत्पत्ति नहीं होती है, तो इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक रहने से दण्डादिक कारण में कारणता का निश्चय होता है और रासभ आदि पदार्थों में अन्वय-व्यतिरेक के नहीं रहने से रासभादिक में घटादि कार्य के प्रति कारणत्व नहीं होता है। इसी प्रकार प्रकृत में यदि मङ्गल रहने पर ग्रन्थ की समाप्ति है तथा मङ्गल के नहीं रहने से ग्रन्थ की समाप्ति नहीं हो, तब विघ्न-ध्वंस अथवा समाप्ति के प्रति मङ्गल को कारणत्व हो सकता है! परन्तु ऐसा तो नहीं होता है, क्योंकि कादम्बरी प्रभृति ग्रन्थों में मङ्गल तो है, परन्तु समाप्ति नहीं हुई तो अन्वय-व्यभिचार है तथा बौद्ध की किरणावली में [[P54]] मङ्गल नहीं है तथापि ग्रन्थ की समाप्ति देखने में आती है तो व्यतिरेक-व्यभिचार है? तब मङ्गल में किस तरह कारणता निश्चय करते हैं, अर्थात् कारणता का निश्चय नहीं होता है, तब आप किस तरह कहते हैं कि निर्विघ्न-पूर्वक ग्रन्थ-समाप्ति होने के लिये ग्रन्थ के आदि में मङ्गल किया गया है।

अब इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि प्रत्यक्ष-ज्ञान में अन्वय-व्यतिरेक-व्यभिचार-संशय प्रतिबन्धक होता है, परन्तु अनुमिति द्वारा वस्तु-साधन करने में व्यभिचार-संशय संशय-रूप-पक्षता-विधया सहायक होता है तो अन्वय-व्यतिरेक-व्यभिचार रहने से भले ही प्रत्यक्ष मङ्गल में समाप्ति-कारणता का निश्चय न हो, परन्तु अनुमान द्वारा तो मङ्गल में यथोक्त कारणता का निश्चय हो सकता है। तथाहि—‘मङ्गलं सफलं अविगीत-शिष्टाचार-विषयत्वात् दर्शादिवत्’ (मङ्गल सफल है क्योंकि अविगीत अनिन्दित शिष्टाचार का विषय होने से—जिसमें यह हेतु है, उसमें यथोक्त साध्य भी है, जिस तरह दर्श वगैरह याग में अर्थात् दर्श-याग में अविगीत शिष्टाचार-विषयता है तो सफलत्व साध्य भी है। अर्थात् दर्श-याग सफल है, यहाँ स्वर्गादिक फल है, तादृश स्वर्ग-फल से दर्श-याग फलवान् कहलाता है।) इस अनुमान से मङ्गल में सफलत्व सिद्ध होता है। अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि मङ्गल का क्या फल है क्योंकि यहाँ फल तो कोई श्रुत नहीं है, तो विश्वजित्-याग की तरह स्वर्ग-फल की ही कल्पना करेंगे, अर्थात् मङ्गल करने से स्वर्ग-फल मिलेगा—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि एक नियम है कि अगर दृष्ट-फल की सम्भावना रहे तब तक अदृष्ट-फल की कल्पना उचित नहीं है। प्रकृत में जब ग्रन्थ-समाप्ति-रूप फल उपस्थित है तब अदृष्ट-स्वर्गादि-फल अथवा पुत्र-कलत्रादि-फल-कल्पना उचित नहीं है, अर्थात् मङ्गल का फल समाप्ति है। इस प्रकार मङ्गल सफल हुआ तब सफल मङ्गल का आचरण आवश्यक है, इस बात को समझ करके मङ्गलाचरण किया है।

इस जगह में अब दूसरा भी प्रश्न होता है कि जिस ईश्वर को नमस्कार किया गया है उस ईश्वर के सद्भाव में क्या प्रमाण है? इसमें प्रत्यक्ष प्रमाण तो कह नहीं सकते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष बाह्य-आभ्यन्तर-भेद से दो प्रकार का है तो बाह्य जो प्रत्यक्ष है वह रूपी द्रव्य का ही ग्रहण करता है, उससे ईश्वर का प्रत्यक्ष हो नहीं सकता, क्योंकि—‘स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम्’, ‘न तस्य कार्यं करणं च विद्यते’ इत्यादि [[P55]] श्रुतियों के प्रमाण से ईश्वर के शरीरादिक नहीं होने से बाह्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकते हैं। और जीव सुखादि-भिन्न होने से मानस-प्रत्यक्ष का भी विषय नहीं है। और ईश्वरानुमापक अव्यभिचरित-लिङ्ग नहीं होने से अनुमान-प्रमाण से ग्राह्य नहीं है। ईश्वर के सदृश अन्य कोई नहीं है, इसलिये उपमान-प्रमाण-गम्य भी ईश्वर नहीं है। एवं शब्द-प्रमाण से ईश्वर-सिद्धि करने में अन्योन्याश्रय-दोष होता है। ईश्वराधीन वेद में प्रामाणिकत्व है, तथा वेदाधीन ईश्वर-सिद्धि होगी? यह हुआ पूर्व-पक्ष।

इसके उत्तर में कहते हैं कि—‘यों सर्व-साधारण-जन प्रत्यक्षादि से ईश्वर को निश्चय नहीं कर पाते तो भी ‘जगत् सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं ते वसुधातलम्’, ‘सत्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म’, ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, न तस्य कार्यं करणं च विद्यते’ इत्यादि श्रुति-समुदाय से ईश्वर है, यह निश्चित होता है। ‘ब्रह्म-सत्त्वे प्रमाणं च शास्त्रम् एव सुनिश्चितम्। तत्त्व् औपनिषदं चैतच् छ्रुति-वाक्य-प्रमाणतः’ इस श्रीबोधायन-मतादर्श-श्लोक के सामञ्जस्य में ब्रह्म-सर्वेश्वर श्रीरामजी की साधना में श्रुति-वेद-वाक्य प्रथम प्रमाण है, अनन्तर प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण है अथवा निम्न-प्रकार के अनुमान के द्वारा भी ईश्वर-सिद्धि होती है—‘क्षित्य्-अङ्कुरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात् घटादिवत्’। जो पदार्थ जन्य होता है वह अवश्य कर्ता से उत्पन्न होता है, जैसे जन्य घटादिक कुलालादि-जन्य है, इसी प्रकार प्रकृत-पक्ष क्षित्यादिक में कार्यत्व है तो इनमें सकर्तृकत्व भी है, तो इन पृथिवी आदि का कर्ता असर्वज्ञ अस्मदादिक तो हो नहीं सकते हैं, इसलिये भगवान् श्रीसीतानाथ सर्वज्ञत्वादि-गुण-विशिष्ट सर्व-शरीरी ही कर्ता सिद्ध होते हैं। इसमें—‘द्यावाभूमी जनयन् देव एकः’ इत्यादि आगम भी ईश्वर-सिद्धि में प्रमाण होते हैं। इस प्रकार नमस्कार्य परमेश्वर के सद्भाव सिद्ध होने पर भगवान् श्रीरामानन्दाचार्यजी ने ईश्वर को नमस्कारात्मक मङ्गल किया—‘श्रीमन्तं श्रुति-वेद्यम्’ इत्यादि।

मैं श्रीरामानन्दाचार्य भगवान् श्रीरामचन्द्रजी को स्मरण करता हूँ, अर्थात् प्रणाम करता हूँ, सर्वेश्वर श्रीरामजी किस प्रकार के हैं? जो सकल वेदों से वेद्य—जानने के योग्य हैं, अर्थात् सकल वेद से प्रतिपाद्य है तथा सौशील्य-वात्सल्यादि अनन्त-कल्याण-गुणों के समुद्र हैं, सकल-दोष-रहित हैं। प्रियतम के प्रेम-दृष्टि से देखने पर लज्जित श्रीसीताजी से देखे गये। और उपासक पुरुषों का जो धर्मार्थ-काम और मोक्ष-रूप सकल-मनोऽभिलषित पदार्थ उसकी पूर्ति करने में कल्प-वृक्ष के सदृश अर्थात् [[P56]] जिस तरह कल्प-वृक्ष स्वाश्रित व्यक्ति के मनोऽभिलषित सकल पदार्थ को पूर्ण करता है, उसी तरह प्रकृत में भी भक्त के सकल मनोरथ पूरक भगवान् हैं। ‘न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते’ इस श्रुति-प्रमाण से भगवान् के सदृश कोई न होने पर भी लोक-प्रसिद्धि के कारण कल्प-वृक्षोपमा दी गई है।

अत्युत्तम नील-मणि की तरह अति निर्मल कान्ति-प्रभा से युक्त—‘तम् एव भान्तम् अनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वम् इदं विभाति’ इत्यादि श्रुतियों से सिद्ध होता है कि भगवान् का श्रीविग्रह अत्यन्त कान्ति-युक्त है, यथा—‘नील-तोयद-मध्यस्था विद्युल्-लेखेव भासुरा’ इत्यादि। तथा ईषत्-हास्य-युक्त मुख-कमल है जिनका एतादृश भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का आश्रय लेता हूँ ॥१॥

ऐश्वर्यं यद् अपाङ्ग-संश्रयम् इदं भोग्यं दिगीशैर् जगत्
चित्रं चाखिलम् अद्भुतं शुभ-गुणा-वात्सल्य-सीमा च या ।
विद्युत्-पुञ्ज-समान-कान्तिर् अमित-क्षान्तिः सु-पद्मेक्षणा
दत्तान्न् ओलिख-सम्पदो जनकजा राम-प्रिया सानि शम् ॥२॥

प्रथम-श्लोकेन परात्परं पुरिशयं सर्व-शरीरिणं हेय-प्रत्यनीकानन्त-कल्याण-गुण-सागरम् श्रीसीतानाथं प्रणम्य तद्-अभिन्न-शक्ति-स्वरूपां विदेहजां द्वितीय-श्लोकेन नमस्कर्तुं तदाशिषं च निर्विघ्न-ग्रन्थ-समाप्तये लब्धुं सकल-लोक-जननीं प्रकृति-शक्त्यादि-पद-वाच्यां तदाहुर् जगद्‌गुरु-श्रीरामभद्राचार्याः—

‘प्रकृतिर् इति सरस्वतीति लक्ष्मीर् इति गिरिजेति जगन्-मयीति वा याम्
गदति मुनि-गणः कवित्व-सिद्ध्यै कथम् अपि तां कलये विदेह-कन्याम् ॥’

प्रणमति—‘ऐश्वर्यं यद् अपाङ्ग-संश्रयम्’ इत्यादि।

सा जगति प्रसिद्धा जनकजा जनकस्य विदेहाधिपतेर् मिथिला-नायकस्येत्यर्थः। सेत्यत्र तच्-छब्द-प्रसिद्धार्थको न तु प्रक्रान्ताद्यर्थकः। प्रसिद्धार्थकोऽपि तच्-छब्दो दृश्यते यथा—‘द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागम-प्रार्थनया कपालिनः। काला च सा कान्तिमती कलावतस् त्वम् अस्य लोकस्य च नेत्र-कौमुदी।’ तपः कुर्वन्तीं विवाहो भवतु शिवेन सहेतीच्छ्या पर्वत-राज-पुत्रीं प्रति तपः परीक्षितुं शिवस्योक्तिर् इयम्। हे पार्वति? कपालिनो महादेवस्य समागम-प्रार्थनया [[P57]] महादेव-शिवेन सह मम नित्य-सम्बन्धो जायताम् इतीच्छया एतत् द्वयं सम्प्रति एतत्-काले शोचनीयतां लोके निन्दा-पात्रम् अभवत्। ‘कला च सा कान्तिमती कलावतः’ कलावतश् चन्द्रस्य जगति प्रसिद्ध-प्रकाशात्मिका कला तथा अस्य समस्तस्य लोकस्य संसारस्य नेत्र-कौमुदी नयनानन्द-कारिणी त्वं पार्वती चेत्यर्थः। अत्र श्लोके कुमार-संभवीये सा कान्तिमती चन्द्रस्य कला इत्यत्र तत्-पदेन चन्द्र-कलाया जगति प्रसिद्धिर् द्योतयति। तथैव प्रकृत-मङ्गल-श्लोके—‘राम-प्रिया सा’ इत्यत्रोपात्तस् तच्-छब्दः प्रसिद्ध-रूपम् अर्थम् एव बोधयति। को नु खलु न जानाति जनकजायाः स्वरूप-स्थिति-गुणादिकं चेति। एतादृशी लोक-प्रसिद्धा शक्ति-रूपापि सर्व-शक्तिमती वात्सल्यादि-गुण-विशिष्टा नोऽस्मभ्यं ग्रन्थ-सम्पादन-कर्त्रेऽध्येतृभ्यश् च ‘अखिल-सम्पदः’ सर्वाः सम्पत्तीः लीला-विभूत्य्-अन्तर्गत-सर्व-प्रकार-कैश्वर्याणि नान्य-शरण-लभ्य-सायुज्याख्य-स्व-धाम-प्रापक-मुक्तिं च ‘अनिशम्’ अहर्-निशं सर्व-कालम् इत्यर्थः। दत्तात् ददातु प्रापयत्व् इत्यर्थः। सेयं जनकजा नमस्कर्तृभ्योऽभिलषितं पुरुषार्थं सततं वितरतु, इति तात्पर्यः।

पुनः सा श्रीजानकी कीदृशी तत्राह—दिगीशैर् इत्यादि, दिशां प्राच्यादि-दिशाम् ईशोऽधिपाल इन्द्रादिर् नायको लोकपाल इत्यर्थः। एतादृशानेक-दिगीशैर् लोक-पालादिभिर् भोग्यं भोक्तुं योग्य-पदैश्वर्यम् अथवा विविध-वनिता-धन-धान्यादि-परिपूरितं स्वर्ग-राज्यादिकम्। यत्रोक्तं—‘यन् न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तम् अनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं च तत् सुखं स्वः पदास्पदम्’ इति। एतादृश-विलक्षण-सुखात्मकत्वस्य यत् राज्यम्, यच् च वाजपेयादि-यागाद्य्-अनुष्ठातृभिर् एव लभ्यते, तद् अन्यस्य स्वर्ग-मात्र-प्राप्तिर् इति शास्त्रोक्तेः। एतादृशं दिगीशैर् भोग्यं यद् राज्य-सुखम् तत्, ‘यद् अपाङ्ग-संश्रयम्’ यस्याः जनकजाया श्रीराम-पल्या, अपाङ्ग-नेत्र-युगलयोर् अवलोकनम् एवाश्रयः सम्यग् अवलोकनम् एव कारणम्, यस्य तादृशम् तद् ऐश्वर्यम्, अर्थात् इन्द्रादि-दिक्पालानां यन् महद् वैभवम् तद् भगवत्या जनकजाया एव कृपाधीनं, तदीय-कृपया एव इन्द्रादीनां विलक्षणैश्वर्य-प्राप्तिर् जातेति भावः। अपि चेदम् अद्भुतं जगत् आश्चर्य-जनकम् अनेक-प्रकारकं चेतनाचेतन-संयुक्तं तद् अपि यद् अपाङ्ग-संश्रयम्, अर्थात्—यदिदं विचित्र-प्रकारकं जगत् तद् अपि जनकजा-कृपाधीनम् एव। जगतो विवरणं करोति—‘चित्रं चाखिलम् अद्भुतम्’ इति। अखिलं स्थावर-जङ्गमात्मकं चित्रम् अनेक-प्रकारतया [[P58]] मनुष्य-देव-नारक-तिर्यक्-कीट-पतङ्गादि-भेदाद् अतीव दुर्बोधम् इव भासमानं जगत् यत्-कृपाधीनं यस्याः कटाक्ष-मात्रेण करामलकवत् सुज्ञेयम्।

शुभ-गुणेति—या जनकजा शुभ-गुणवती, शुभानि मङ्गलानि अर्थात् मङ्गल-प्रदानि गुणाः पातिव्रत्य-शरणागत-रक्षण-प्रभृतिका ये गुणास् ते सन्ति यस्याः सा शुभ-गुणा जनकजा, तद्-अपाङ्गाश्रयम् इदं जगद् इति। तथा—‘या वात्सल्य-सीमा च’ या च जनकजा वात्सल्यस्य दयादेः सीमेव सीमा, अर्थात् दयादीनाम् अवधि-भूता। दयाधीना सा कृतोपद्रवम् अपि खर-रावणादिकं प्रति दयैवाविष्कृता, तद् उक्तम् आदि-कविना श्रीमद्-रामायणे—‘तेन मैत्री भवतु ते यदि जीवितुम् इच्छसि’ इति, न तु तद् उपरि क्रोधम् अकरोद् इति। अर्थात् रावणादिनोपद्रुतापि सर्व-शरीरकस्यायोध्याधिपतेरेवायं शरीर-रूपो न तु तद् अन्य इति, अयं दयनीय इति मत्वा तद् उपर्य् अपि दयैव दर्शिता—‘तेन मैत्री भवतु ते’ इत्यादिना। अतो ज्ञायते यद् इयं दया-मूर्तिर् इति मत्वा प्राहुर् आचार्याः—‘वात्सल्य-सीमे’ति। तदाहुर् जगद्-गुरवः श्रीराम-भद्राचार्याः—‘मधुर-भणितये पतिव्रतानां मुकुट-मणिं कलये मही-कुमारीम्। पति-कृत-रिपु-पातन-प्रतिज्ञा-दलन-भयाद् अहितेऽप्य् अदत्त-शापाम्॥’

‘विद्युत्-पुञ्ज-समान-कान्तिः’—विद्युत् तडित्, तस्याः पुञ्जः समुदायः, तेन समाना सदृशी कान्तिः शरीर-शोभा रमणीयता यस्याः सा विद्युत्-पुञ्ज-समान-कान्तिः। यदि कदाचित् एकदैवानेका विद्युतो मेघ-मण्डले विस्फूर्यमाणा भवेयुस् तासां या तीक्ष्णा कान्तिस् तत्-सदृश-कान्तिमती श्रीजनकजेत्यर्थः। ‘अमित-क्षान्तिः’—अपरिमेय-क्षान्त्यादि-गुणवतीत्यर्थः। अमातुम् अशक्य-क्षमादि-गुण-सार-भूतेति भावः। तथा ‘सु-पद्मेक्षणा’—प्रफुल्लित-कमल-सदृश-नेत्रवतीत्यर्थः। तदीया क्षान्तिः केनापि प्रमाणेन मातुं योग्या न भवतीति। तथोक्तम् आदि-कविना श्रीमद्-रामायणे—रावण-वधाद् अनन्तरं जीवति रावणे श्रीसीतां क्षोभयन्तीनां राक्षसीनां वधायाज्ञां समीहमानं श्रीहनुमन्तं प्रतिवचनम्—‘राज-संश्रय-वश्यानां कुर्वन्तीनां पराज्ञया। विधेयानां च दासीनां कः कुप्येत् वानरोत्तम। भोग्य-वैषम्य-योगेन पुरा दुश्चरितेन च। मयैतत् प्राप्यते सर्वं स्व-कृतं ह्य् उपभुज्यते। प्राप्तव्यं तु दशा-योगान् मयैतद् इति निश्चितम्। दासीनां रावणस्याहं भर्त्सयामीह दुर्बला। आज्ञप्ता रावणेनैता राक्षस्यो माम् अतर्जयन्। हते तस्मिन् न कुर्वन्ति तर्जनं वानरोत्तम’ इति। अत्र ‘स्व-कृतं ह्य् उपभुज्यते’ इति श्रीसीतायाः कथनं मनुष्य-देहाभिप्रायेण, न तु लोकोत्तर-शरीराभिमानेन, सम्प्रति लीला-सम्पादनाय मनुष्य-शरीरवत्त्वाद् इति ज्ञेयम् ॥२॥

सर्व-जगत्-के कारण तथा सर्वान्तरात्मा सर्व-शेषी भगवान् श्रीरामजी को नमस्कार करके जगत्-जननी सर्व-लोक-जनक-शक्ति-स्वरूपा श्रीजानकीजी विदेह-कन्या का नमस्कार द्वितीय-श्लोक से करते हैं—‘ऐश्वर्यम्’ इत्यादि। इन्द्र, कुवेर, यम, वरुण प्रभृतिक जो दिक्पाल हैं उनसे भोग करने के लायक स्वर्ग-राज्य-रूप महा-ऐश्वर्य तथा देव-मनुष्य से लेकर चौरासी लक्ष योनि-विशेषों से विचित्र अनेक-प्रकारक, अत एव माया की तरह अत्याश्चर्य-जनक यह परिदृश्यमान स्थूल-सूक्ष्म-साधारण स्थावर-जङ्गम-रूप प्रपञ्च-समुदाय जिस श्रीजानकीजी की कृपा के अधीन है तथा जो अनेक शुभ-गुणवाली है तथा वात्सल्यादि गुणों की सीमा अवधि-रूप हैं तथा क्षमा की महोदधि हैं, भक्तों के अपराध को अपने हृदय में स्थान न देने वाली है। बिजली के समुदाय की तरह कान्ति-शोभावाली तथा कमल के समान नेत्र-युक्त हैं, ऐसी श्रीरामजी की अति-प्रिया तथा इस श्रीसम्प्रदाय की प्रवर्त्तिका हैं, ऐसी श्रीसीताजी मुझको मुक्ति आदि समस्त सम्पत्ति दें, अर्थात् एतादृश श्रीसीतादेवीजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥

प्रत्यूह-व्यूह-भङ्गं विदधद् उरु-बलः शक्तिमान् सर्व-कारी
भूरि-श्रेयः-प्रतापो मुनि-वर-निकरैः स्तूयमानो विमानः ।
रक्षो-दैत्यादि-नाशी क्षुभित-जल-निधिर् लोक-जिल् लोक-मान्यो
धन्यो नो मङ्गलौघं सपदि सुकुरुताद् राम-शस्त्रास्त्र-सङ्घः ॥३॥

सर्व-विघ्न-विनाश-करं सर्व-शेषिणं जगतोऽभिन्न-निमित्तोपादान-कारणं भगवन्तं सर्वान्तर्यामिणं श्रीरामचन्द्रं नमस्कृत्य तदनु श्रीरामाभिन्नां श्रीराम-शक्ति-स्वरूपां तस्येच्छया स्थावर-जङ्गम-साधारण-सर्व-जगद्-उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय-निमित्तां श्रीजनक-जां च नमस्कृत्य तदनन्तरं श्रीराम-कार्ये करण-भूतं तदीय-शस्त्राद्य्-अधिष्ठापक-देवं श्रीराम-गौरवेण गौरवान्वितं नमस्करोत्य् आचार्यः—‘प्रत्यूह-व्यूह-भङ्गम्’ इत्यादि। सर्व-जगत्-पालकस्य भगवतो रामस्य शस्त्राणि बाण-खड्गादीनि अस्त्राणि—ब्रह्मास्त्रादीनि च, तादृशानां श्रीराम-शस्त्रास्त्राणां सङ्घः समुदायः। एतेन श्रीरामस्य [[P60]] शस्त्रादिकं नैक-मात्रम् अपि तु विभिन्न-प्रकारकम् अनेकं चेत्य् अभिव्यञ्जितम्। स उपर्युक्त-सङ्घः नः अस्माकं ग्रन्थ-कर्तॄणां तद्-अध्येतॄणां च। मङ्गलौघं मङ्गलानां कल्याणानाम् ओघं समुदायं, न त्व् एकं द्विकं वा, सपदि झटिति न तु विलम्बेन सुसम्यक् कुरुतात् करोतु। किं कुर्वन् मङ्गलं करोतु तत्राह—प्रत्यूह-व्यूह-भङ्गं विदधत्, प्रत्यूहो विघ्नस् तस्य व्यूहः समुदायस् तस्य विघ्न-समुदायस्य भङ्गं विनाशं विदधत् सम्पादयन्। विघ्नो हि सर्व-कार्यस्य प्रतिबन्धकः, प्रतिबन्धके विद्यमाने कार्यं न भवतीति प्रतिबन्धकाभावः कारणम् इति स्थितिः। ततश् च यावत् पर्यन्तं प्रतिबन्धक-पाप-विशेषस्य विनाशो न स्यात् तावत् पर्यन्तं कल्याणादिकं कार्यं न सम्भवति। ततः प्रथमं विघ्नं विनाश्य तद् अनु माङ्गलिकं माङ्करोतु इत्य् अभिप्रायेणाह प्रत्यूह-व्यूह-भङ्गम् इति। प्रथमतः श्रीराम-शस्त्रादिर् मदीयं विघ्नं विनाशयतु, तद् अनु कल्याणं करोतु इति कवेर् अभिप्रायः। श्रीराम-शस्त्रास्त्रेऽन्यद् अपि विशेषणं दर्शयति—ऊरु-बलः शक्तिमान् इति। ऊरु-महद्-बलं वेगो यस्य स महा-वेगवान् इत्यर्थः। पुनः कीदृशः शस्त्र-सङ्घस् तत्राह—शक्तिमान्। सर्वतो विलक्षणा शक्तिर् विद्यते यस्य तादृशः। एतादृश-विलक्षण-शक्तिमद्-गृहीतो जयन्तः शक्र-पुत्रः स्व-रक्षणाय कृत-नाना-प्रयत्नोऽपि अन्यत्र कुत्रचिद् शरणम् अलभमानः पुनः श्रीराम-समीपे आगत्य शरणागतिं स्वीकृत्य रक्षित-शरीरोऽभवद् इति श्रीमद्-रामायणीया कथात्रानुसन्धेयेति। तथा सर्व-कारी। श्रीरामस्य यद् यद् ईप्सितं तत् तत् सर्वं कार्यं सम्पादयति सप्त-ताल-गिरि-रसातलादि-काप्रतर्क्य-कार्यस्यापि सम्पादकः। भूरि-श्रेयः-प्रतापः—भूर्योर् अनेकशः श्रेयांसि प्रतापाश् च यस्य सः, अनेक-श्रेयः-प्रतापादि-युक्तो ब्रह्म-राम-शस्त्रास्त्र-सङ्घ इति। मुनि-वर-निकरैः स्तूयमानः—मननान् मुनिर्, मनन-शीला मुनयो, मुनीनां वराः श्रेष्ठास्, तेषां निकरैः स्तुति-विषयतां नीयमानः, अर्थात् विगत-राग-मनन-शीला अपि मुनयो यस्य स्तुतिं कुर्वन्तीति, ‘यस्यामलं नृप-सदस्सु यशोऽधुनापि गायन्त्य् अघ-घ्नम् ऋषयो दिगिभेन्द्र-पट्टम्। तन्-नाक-पाल-वसु-पाल-किरीट-जुष्टं पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥’ इति श्रीशुकार्योक्तेस् तादृशोऽस्यास्त्र-सङ्घ इति। विमानः—विगतं मानं यस्य स विमानः, रावण-खर-दूषण-बालि-वध-प्रभृत्य्-अनेक-विलक्षण-कार्य-कारित्वेऽपि अहम् एवैवं-विधो यच् छ्रीरामस्यैतादृशं कार्यं करोमि, नान्य एतादृश-कार्य-करणे समर्थ इत्य् एवं-प्रकारकम् अभिमानं न विद्यते यस्यातो विमानः। एकदा गरुडस्य मनस्य् एव् [[P61]] अभिमानो जातो—यद् अहम् एवं विधो यत् भगवन्तं पृष्ठे आरोप्य वहामि, यद् अहं न स्यां तदा भगवत एवं विधं कार्यं न कोऽप्य् अन्यः कर्तुं प्रभुः स्याद् इति। तस्य तादृशं विचारं ज्ञात्वा कदाचिद् उड्डयन-समये स्व-कनिष्ठिकया तम् अताडयत्, ततः स विगत-बलो रसातल-मुखोऽभवत्, ततः भगवतः प्रभावान् ममैतादृशी दशा सञ्जातेति विचार्य भगवतः स्तुतिं कृत्वा तं प्रसादयामास। ततः तुष्टो भगवान् तस्मै पुनः स्व-बलं ददाव् इति, ततः प्रभृति गरुडो विमानोऽभवद् इति पौराणिकी वार्ता। एकदा द्वारकायां श्रीकृष्णेन श्रीहनुमता तन्-मान-भङ्गम् अकारि इत्य् अपि वार्ता प्रसिद्धा। भगवच्-छ्रीरामास्त्र-सङ्घो न गरुडादिवद् अभिमान-युक्तः, अपि तु भगवति विगत-मान एव सदा भवति स्मेत्य् आकृतम्। अथवा विगतो विनाशितो रावणादीनां रक्षसां मानोऽभिमानो येन सः। अथवा वि-पदं पक्षि-बोधकम्। ततश् च वेः पक्षिणो गरुडस्येव मानं वेग-प्रमाणं यस्य, अर्थात् स्वयं विनीतः रावणादीनाम् अभिमान-विनाशकश् चास्त्र-संघो भगवतो रामस्येत्यर्थः, सामान्य-लौकिक-दृष्ट्येयं व्युत्पत्तिः।

‘रक्षो दैत्यादि-नाशी’—तत्र शास्त्र-प्रतिषिद्ध-दुराचार-व्यभिचार-पेयापेय-कर्म-कर्ता राक्षसः, दितेर् अपत्यं दैत्यः, तान् राक्षसान् दैत्यादींश् च विनाशयति समूल-घातम् उपहन्ति, अर्थात् एतेषाम् उपहनन-शीलः। पुरा किलोत्पथ-गामिनं हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु-रूपं दैत्यं जघान श्रीसीतानाथो वराह-नृसिंह-रूपं शरीरम् अधिष्ठाय, तत्र कर्ता भगवान् स्वयम् एव, करणं च तदीयास्त्रम् इति करणे शस्त्र-सङ्घेऽपि विनाशकत्वोपचारः। रामेण बाणेन हतो वालीतिवत्। तथा श्रीरामवतारे खर-दूषण-कबन्धादि-राक्षसान् वालि-प्रभृत्य्-अनाचार-कर्तारं च जघानेति पौराणिकी वार्तानुसन्धेया इति भावः।

‘क्षुभित-जल-निधिः’ इति—तत्र क्षुभितो व्याकुलतां नीतो जडोऽपि जल-निधिर् जल-राशिर् येन सः क्षुभित-जल-निधिः। यद्य् अपि क्षोभादिकं कार्यं चेतन-धर्मः, चेतनो देवदत्तः क्षोभम् आप्नोति क्रुध्यति हृष्यति वेति प्रयोग-दर्शनात्। न तु शुष्कः काष्ठः क्षुभितो भवति। प्रकृते च समुद्रस्य जडतया कथं क्षोभादयस् तदीय-धर्माः स्युः? ततश् च ‘क्षुभित-जल-निधिर्’ इति विशेषणम् अनुचितम् इवाभातीति, तथापि आसन्न-पतनतां कुलस्यालक्ष्य नदी-कूलं पिपतिषति इति अचेतनेऽपि कूले पतितुम् इच्छतीति चेतनवद् एवौपचारिकः प्रयोगस् तथैव जल-राशि-रूपस्य जडस्य [[P62]] जलाधेर् अपि श्रीराम-बाणेनाकूल-व्याकुलताम् आलक्ष्य क्षुभित-जल-निधिर् इति प्रयोगः। अथवा जल-निधिर् इति पदं जलाभिमानी-चेतन-जलाधिष्ठातृ-देवस्य बोधकम्। अर्थात् चेतनो जलाधिपतिर् जल-शोषणादि-करणेन क्षुभितः। अत एव जलधि-कन्यका चेतना लक्ष्मीर् इति गीयते पुराणादौ। जल-निधेर् जडत्वे तेन जाता लक्ष्मीः कथम् इव स्यात्। ततश् चेतन एव जल-निधिस्, तेन क्षुभित-जल-निधिर् इति विशेषणं न कामपि क्षतिम् आवहतीति विशेषोऽन्यत्रानुसंधातव्य इति दिक्। ‘लोक-जित्’ इति। लोकान् जयतीति लोक-जित्, अत्र लोक-पदं सु-मार्गं परित्यज्यामार्गेण गच्छतो लोकस्य बोधकम्। ततश् च लोकान् दुर्जनान् पथ-भ्रष्टान् जयतीति लोक-जित्। यथा स लोकानान्न्दयन्न् अपि भगवान् जनार्दन इति कथ्यते दुष्टान् निगृह्णन्, तथैव प्रकृतेऽपीति।

‘लोक-मान्य’ इति। लोकानां मान्यो लोकैः संपूजनीयः, तत्र लोकानां त्रिभुवनोदर-विवर-वर्ति-जीव-समुदायानां मान्यः, तादृश-लोक-समूहैः वन्दनीयः। यथा हि भगवान् श्रीरामः सर्व-वन्द्यस् तद्वत् तद्-अस्त्र-संघोऽपि नमस्करणीयः, तद्-भय-भीतत्वात्, ‘भीषास्माद् वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भयाद् इन्द्रश् च वायुश् च मृत्युर् धावति पञ्चमः’ इत्यादि-श्रुत्या सर्व-भय-हेतुत्व-श्रवणाद् इति। ‘धन्यः’ इति विजयाद्य्-ऐश्वर्य-सपन्नः। अयं हि श्रीरामीय-शस्त्र-समुदायो दुर्जनान् विजित्य धनं लभतेऽन्येभ्यो ददातीति च ततो धन्य इति। उपर्युक्त-गुण-विशिष्टः श्रीराम-शस्त्रास्त्र-संघो विघ्न-निकरं विनाशयन् अस्माकं ग्रन्थ-कर्तुर् अध्येतुश् च मङ्गलौघं करोतु इति भावः ॥३॥

जगत् का अभिन्न-निमित्तोपादान-कारण तथा पदार्थ-मात्र का अन्तरात्मा सर्व-शेषी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी को नमस्कार कर के, तदनन्तर श्रीसम्प्रदाय की प्रवर्त्तिका भगवती श्रीसीताजी को नमस्कार किया। तदनन्तर भगवान् श्रीरामजी के अतिप्रिय तथा स्मरण करने मात्र से सर्वदा कैङ्कर्ये में संलग्न जो भगवान् का शस्त्र तथा अस्त्रों का समुदाय है, उनका आचार्यश्री नमस्कार करते हुए कहते हैं—‘प्रत्यूह-व्यूह-भङ्गम्’ इत्यादि। भगवान् श्रीरामजी का जो शस्त्र तथा अस्त्रों का समुदाय है, इसमें मन्त्र के बिना जो चलाया जाय उसको शस्त्र कहते हैं—यथा बाण, खङ्गादिक, एवं मन्त्र-पूर्वक जिसका प्रयोग किया जाय उसको कहते हैं अस्त्र, यथा आग्नेयास्त्र, ब्रह्मास्त्र इत्यादि। यथा—सदर्भ-संस्तराद् गृह्य ब्राह्मणास्त्रेण योजयत्। सतं प्रदीप्तं चिक्षेप दर्भं तं वायसं प्रति। [[P663]]

स दीप्त इव कालाग्निर्जज्वालाभिमुखः खगम्। इत्यादि स्थल में अस्त्र प्रयोग का वर्णन किया है एतादृश भगवान् का शस्त्रास्त्र है वह हमलोगों के मङ्गल को शीघ्रता पूर्वक संपादन करे, क्या करता हुआ श्रीरामजी का शस्त्रास्त्र मङ्गल करे, इस जिज्ञासा के उत्तर में कहते हैं—प्रत्यूहव्यूहभङ्गम् प्रत्यूह का अर्थ होता है—विघ्न तो विघ्न का जो समुदाय है, उनको विनाश करता हुआ। वह श्रीराम शस्त्रास्त्र सङ्घ कैसा है? इस जिज्ञासाके उत्तर में ‘ऊरुबलः’ इत्यादि विशेषण कहते हैं जिस शस्त्रास्त्र सङ्घ का बल महान् बहुत बडा है बल शब्द का अर्थ है वेग अर्थात् वह शस्त्रास्त्रसंघ अत्यन्त वेगशील है। तथा शक्तिमान् है अर्थात् अत्यधिक विलक्षण शक्ति है जिसका, एतादृश शक्तिमान् वह शस्त्रास्त्र संङ्घ है। एतादृश विलक्षण शक्ति से इन्द्रसुत जयन्त निगृहीत होकर के तीनों लोकों में पर्यटन किया। तथा रक्षक को नहीं प्राप्त करके भगवान् श्रीरामकी शरण में ही पुनः आया, तब करुणा निधान श्रीरामजी ने बध योग्य था तो भी, अपराध को क्षमा करके एक आँख को फोड कर छोड दिया। उस दिनसे काकको एक ही आँख होती हैं। यह सब प्रभाव उस अस्त्र संघका है। पुनः श्रीरामजीका वह शस्त्र कैसा है? इस जिज्ञासाके उत्तर में कहते हैं—‘सर्वकारी’ सर्वकार्य को करनेवाले हैं शस्त्र समुदाय। अस्मदादि पुरुषों को मन से भी आलोचन करने के अयोग्य तर्क विषय को सात ताल वृक्षोका छेदन पहाड को तोड देना रसातल का शोषण भेदनादिक आदि असाध्य कार्य करनेवाले है श्रीरामजी का शस्त्रसङ्घ। ‘भूरिःश्रेयः प्रतापी’ अति श्रेष्ठप्रतापशाली ‘मुनिवरनिकरै स्तूयमानः’ मनन शील जो ऋषिलोग हैं उनके समुदाय से सर्वदास्तूयमान है। ‘विमानः’ अनेक दुष्कर कार्य का संपादन करने पर भी स्वयं सर्वथा अभिमानरहित हैं अर्थात् रावण प्रभृति महाबली व्यक्तियों का विनाश करनेवाले अथवा विमान पद घटक ‘वि’ का अर्थ होता है, गरुड पक्षिराज उस गरुड का जो मान अर्थात् वेग तादृश वेग को भी तिरस्कृत करनेवाला है वेग जिसका, एतादृश श्रीरामजी का शस्त्र समूदाय है। ‘रक्षो दैत्यादिनाशी’ राक्षस खरकबन्धादिक दैत्य हिरण्याक्ष हिरण्यकश्यपप्रभृति तथा आदि पदग्राह्य वाली प्रभृति उन्मार्ग गामी अनेक दुर्जन व्यक्तियों का विनाश करने का स्वभाव है तथा क्षुभितजलनिधिः अगाध जलराशिरूप समुद्र भी जिससे अर्थात् [[P64]] जिस श्रीरामजी के शस्त्र ने आकुलव्याकुल कर दिया, जड जलराशि अगाध समुद्र को भी क्षुब्ध करनेवाले भगवान् का शस्त्रास्त्र सङ्घ है। ‘लोकजित्’ लोक अर्थात् दुष्ट लोक में विप्लव कारी व्यक्तियों को परास्त करनेवाला अर्थात् जीतनेवाला और भगवान् का जो शास्त्रास्त्र सङ्घ है वह लोक मान्य अर्थात् त्रिभुवन बिबर में रहनेवाले जो लोग हैं उनके द्वारा यह शस्त्र सङ्घ संमान्य है। जब रावणादिक विप्लवकारी व्यक्तियों से त्रिभुवन में अशांति दुराचारादिक चरम सीमा को प्राप्त कर जाता है तब जगत् का पालक सर्वान्तर्यामी लोगों के दुःख को विनाश करने के लिये स्वकीय बाण द्वारा इन राक्षसों का विनाश कर देते हैं, अतः प्रत्येक इन बाणों का संमान करते हैं। एतादृश श्रीरामजी का शस्त्रास्त्र समूह शीघ्र मेरे विघ्न राशि को विनाश करता हुआ समस्त मङ्गल को प्रदान करे ॥३॥

तत्त्वं किं किञ्च जाप्यं परमिह विवुधैर्वैष्णवैर्ध्यानमिष्टम्?
मुक्तेः किं साधनं सत्सुमतिमतिमतो धर्म एकोऽस्ति कश्च।
धर्माणां वैष्णवास्ते गुरुवर? कतिधा लक्षणं किञ्च तेषाम्?
कालक्षेपः किमाप्यं कथमुरुशुभदं कुत्रकार्यो निवासः ॥४॥

जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यस्य द्वादश शिष्येष्वन्यतमोऽतिविशालमतिः श्रीसुरसुरानन्दाचार्यः संसारमहोदधिनिमग्नाञ्जनान् दृष्ट्वा तदुद्धर्तुकामनया स्वयं सर्वशास्त्र निष्णातोऽपि अल्पप्रज्ञं तत्त्वबोधरहितमिव तत्त्वबोधनाय स्वयं जिज्ञासुर्भूत्वा स्वाचार्यं श्रीमन्तं श्रीरामानन्दाचार्यं तत्त्वादिकं पृच्छन् श्रीसुरसुरानन्दाचार्य उवाच—श्रीगुरुं सम्बोध्य श्रीसुरसुरानन्दाचार्यो वक्ति हे गुरुवर! तत्र गुरुर् इत्यत्र ‘गु’ शब्दार्थोऽज्ञानालक्षणो अन्धकारः, ‘रु’ शब्दश्च अज्ञानलक्षणान्धकारविनाशकः, तथा च शिष्यहृदयगताज्ञानान्धकारनिवर्तने दक्षो, ज्ञानात्मकोद्योतकारको गुरुः। तत्रापि वरः श्रेष्ठो गुरुवरः तत्संबोधने हे गुरुवर? हे जगद्‌गुरो श्रीरामानन्दाचार्यवर्य! ‘इह’ अस्मिन् चराचरात्मके जगति तत्त्वं वेदादिद्वारा ज्ञातुं योग्यम् किमस्ति तत्त्वविषयकः प्रथमः प्रश्नः सर्वत्र किं शब्दः प्रश्नार्थकः। तथा ‘विवुधैः’ पण्डितैः श्रीवैष्णवैः तत्र विष्णोर्भगवतो जगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणीभूतस्य श्रीसीताधिपतेरयोध्यानायकस्य इमे भक्ताः समुपासकाः श्रीवैष्णवास्तैर्विवु [[P65]] धैर्शातृभिः परमत्युत्कृष्टं जाप्यं जप्तुं योग्यम् किमस्ति इति द्वितीयः प्रश्नः। तथेष्टं ध्यानं च किमस्ति, शास्त्रप्रतिपादितं मनोऽनुकूलं च ध्यानं किमस्तीति तृतीयः प्रश्नः।

तथा मुक्तेर्मोक्षस्य संसारनिवृत्तिपूर्वकनिरतिशयानन्दप्राप्तिरूपस्य साकेतप्राप्तिरूपमोक्षस्य साधनम् उपायः कोऽस्ति, अर्थात्, मोक्षस्य कारणं ज्ञानं कर्म वा भक्तिर्वा कारणमथवा ज्ञानकर्मसहितभक्तिर्वा मोक्षसाधनमिति विविच्य कथयेति। तथा सत्सुमतिमतिमतः समुत्कृष्टबुद्धिशालिभिः सर्वदासमाराधनीयः पालनीयश्च धर्माणां शाक्तशैववैष्णवानां मध्ये एकः सर्वेषु अतिशयेन श्रेष्ठो मुख्यो धर्मः कोस्तीति। ते वैष्णवा विष्णोर्भक्ता कतिधा कतिप्रकारका भवन्ति? यदि भेदो भवति तदा के के ते इति। तथा तेषां वैष्णवानां श्रीरामभक्तानां लक्षणं चिह्नं किमिति प्रश्नः, लक्षणप्रमाणाभ्यां प्रमेयस्य सिद्धिर्भवतीति कृत्वा श्रीवैष्णवलक्षणमावश्यकमिति लक्षणविषयकः प्रश्नः। तथा तैर्विष्णुभक्तैः कुत्र-कस्मिन् देशविशेषे ब्रह्मावर्तार्यावर्तादिषु निवासो वसतिः कर्तव्य इत्यपि कथयेति। श्रीरामचन्द्रप्रपन्नैः कालक्षेपः कथं कार्यः? तथा एतेषां भगवद्भक्तानामुरुशुभदमत्युत्कृष्टमोक्षदम् नित्यनिरतिशयपरमपदप्रापकमाप्यं प्राप्तव्यं किं भविष्यति तदपिकथयेति चरमो दशमः प्रश्नः ॥४॥

भगवान् भाष्यकार श्रीरामानन्दाचार्यजी के मुख्य बारहशिष्य रत्न थे उनमें से श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी ने दुःख महोदधि में निमज्जमान जीवराशि को देखकर के उन दुःखी जीवों के उद्धार करने की इच्छा से स्वकीय गुरु महाराज श्रीरामानन्दाचार्यजी से दश प्रश्न पूछे हैं-हे पूजनीय गुरुवर? इस असार मरुमरीचिका की तरह प्रतिभासमान, दुःखनिधान संसार में तत्त्व (१) क्या है? तथा विद्वान् वैष्णवों का सर्वजपों में श्रेष्ठ जाप्य (२) क्या है, अर्थात् कौन ऐसा जप है कि जो सर्वश्रेष्ठ हो, ध्यानों में सर्वोत्तम ध्यान (३) क्या है? तथा सर्वोत्तम मोक्ष का साधन कारण (४) क्या है अर्थात् किस साधन के द्वारा साधक मोक्ष रूपपरमपद को प्राप्त करते हैं। धर्म अनेक प्रकार के हैं, उन धर्मों में सर्व श्रेष्ठ एक मुख्य धर्म (५) कौन है? वैष्णव कितने प्रकार (६) के होते हैं? और उन वैष्णवों का लक्षण (७) क्या है? अर्थात् किस चिह्न विशेष से जाना जासकता है कि ये वैष्णव है और [[P66]] उन वैष्णवों को आर्यावर्त ब्रह्मावर्तादिक किस देश में निवास (८) करना चाहिये, एवं उन वैष्णवों को किस प्रकार से अहोरात्रादिकाल का यापन (९) करना चाहिये। तथा उपर्युक्त साधनों से युक्त जो हैं, उन वैष्णवों को मोक्षरूपफल विशेष को देने वा प्राप्त होने के योग्य पदार्थ क्या है? अर्थात् इन सब साधनों के द्वारा प्राप्य (१०) वस्तु क्या है ॥४॥

आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य उवाच
इत्थं पृष्टस् त्वया यः सकल-हितकारः प्रश्न-राशिर् गरिष्ठो,
वेद्यः सर्व-श्रुतीनां जगति सुरसुरानन्द ? सद्यो मया सः ।
प्राचीनाचार्य-वर्यान् यति-पति-सहितान् सादरं संप्रणम्य
सम्यक् शास्त्रानुसारं गुरु-निरत समाधीयते श्रूयतां तत् ॥५॥

तत्त्व-जिज्ञासया श्रीसुरसुरानन्दाचार्येण पृष्टः श्रीरामानन्दाचार्यो लोकोपकाराय प्रविवक्षुः प्राह—‘इत्थं पृष्टस्त्वया यः’ इत्यादि। हे सुरसुरानन्द? इत्थं पूर्वोक्तप्रकारेण त्वया सुरसुरानन्देन यो विलक्षणोऽन्येनाकलयितुमशक्यः सकललोकानां हितकारकः कल्याणकारकः सर्वश्रुतीनां वेद्यः सकलश्रुतिभिरेवं प्रतिपादयितुं योग्यो नतु प्रमाणान्तरेण त्वत्पृष्टप्रश्नस्य श्रुतिमात्रेण समाधानसंभवः। गरिष्ठः अतिशयेन गहनो कठिनो वा जगति यः प्रश्नराशिः कृतो नतु एको द्वौवा सः प्रश्नराशिः, मया सद्यः समाधीयते, प्रश्नानन्तरमेव यथाशास्त्रं, तस्योत्तरं ददामि हे गुरुसेवानिरतसुरसुरानन्द? सावधानेन श्रूयताम्। किं कृत्वा यतिपतिसहितान् महर्षि श्रीबोधायनपुरुषोत्तमाचार्यादिसहितान् प्राचीनाचार्यवर्यान् श्रीराघवानन्दाचार्यवर्यान् स्वगुरुञ्च सम्यक् प्रणम्य सम्यक् शङ्कानिवृत्तिर्यथास्यात्तथा शास्त्रानुसारं यथाशास्त्रं समाधीयते कथयामि तत् समाहितमनसा श्रृणु तस्य श्रवणं कुरु तदनुमननीयो लोके प्रकाशनीयश्चेत्यर्थः। यथा परमपुरुषश्रीरामस्य नमस्कारो ग्रन्थादौ आवश्यकस्तथैव गुरुनमस्करोप्यावश्यक एव तदुक्तम् ‘यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिताह्यर्थाः प्रकाशन्तेः महात्मनः’ इति। गुरुश्च शिष्यगताज्ञानान्धकारनिवर्तको वेदाद्यध्ययनशीलः परब्रह्मनिष्ठश्च। ‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो [[P67]] निर्वेदम् आयान् नास्त्य् अकृतः कृतेन, स तद्-विज्ञानार्थं गुरुम् एवाभिगच्छेत् समित्-पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्म-निष्ठम्’, ‘आचार्यवान् पुरुषो वेद’ इत्यादिना गुरु-समीप-गमनम् आवश्यकम् एव। अन्यत्रापि गुरु-स्वरूपं प्रदर्शितम्, तस्माद् ब्रह्मैवाचार्य-रूपेणावतिष्ठते। भागवतैकादश-स्कन्धेऽपि ‘आचार्यं मां विजानीयान् नावमन्येत कर्हिचित्। न मर्त्य-बुद्ध्यासूयेत सर्व-देवमयो गुरुः। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म-संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’, इति गीता। अन्यत्रापि—शिवे रुष्टे गुरुस् त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन। तस्मात् सर्व-प्रयत्नेन गुरुम् एव प्रसादयेत्। गुरुः कारुणिको देवि? सुहृद् वै सर्व-देहिनाम्। वदान्यः सानुरागो हि ब्राह्मणश् च सदीक्षितः। मद्-गतं हि मनो यस्य शान्तो दान्तस् ततैव च। निरहङ्कारः क्षमा-शक्तो गुरुर् भागवतस् तथा। मद्-वेत्ता मत्-कथासक्तः शृणोति कथयत्य् अपि। नित्योत्सव-प्रमुदितो जन्म-कर्मादिभिस् तथा॥ इति। तथा भागवते एकादश-स्कन्धे कथितम् ‘मदभिज्ञं गुरुं शान्तम् उपासीत मद्-आत्मकम्। अमान्य् अमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढ-सौहृदः॥ नृ-देहम् आद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरु-कर्णधारम्। मयानुक्लेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्म-हा’, इति। अन्यत्रापि ‘प्राकृतैः संस्कृतैश् चैव गद्य-पद्याक्षरैस् तथा। देश-कालादिभिः शिष्यं बोधयेत् स गुरु-स्मृतः। वामन-कल्पादाव् अपि—यो मन्त्रः स गुरुः साक्षाद् यो गुरुः स हरि-स्मृतः। गुरुर् यस्य भवेत् तुष्टस् तस्य तुष्टो हरिः स्वयम्।’ इत्यादि गुरु-लक्षणं विशेषतो यथा-शास्त्रम् अवगन्तव्यम्।

यतेन्द्रियः शुचिः शुद्ध-वेश-धृक् सुकुलोद्भवः।
सदाचार-परो नम्रः शास्त्रज्ञो देशना-पटुः॥
विरक्त-धर्म-निरतो ध्यानाभ्यासी सु-बुद्धिमान्।
निग्रहेऽनुग्रहे चैव समर्थो देशिको मतः॥

एतादृशं गुरु-लक्षणोपपन्नं जगद्-गुरु-श्रीरामानन्दाचार्यं शिष्यः श्रीसुरसुरानन्दाचार्यो यथावत् प्रश्न-दशकं पप्रच्छ। शिष्य-लक्षणम् अपि श्रुति-स्मृत्यादि-ग्रन्थे प्रतिपादितम्। तथा च श्रुतिः—परीक्ष्य लोकान् कर्म-चितान् ब्राह्मणो निर्वेदम् आयात् नास्त्य् अकृतः कृतेन, तद्-विज्ञानार्थं स गुरुम् एवाभिगच्छेत् समित्-पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्म-निष्ठं, तस्मै स विद्वान् उपसन्नाय सम्यक् प्रशान्त-चित्ताय शमान्विताय येनाक्षरं पुरुषं वेद [[P68]] सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्म-विद्याम्’ इत्यादि। अत्रार्थे स्मृतिर् अपि भवति—‘प्रशान्त-चित्ताय जितेन्द्रियाय प्रहीण-दोषाय यथोक्त-कारिणे। गुणान्वितायानुगताय सर्वदा प्रदेयम् एतत् सततं मुमुक्षवे।’ यस्य व्यक्ति-विशेषस्यान्तःकरणं मनः स्वाधीनम्, इन्द्रिये बाह्ये जयो भवेत् सर्व-दोष-रहितः, स यथा-शास्त्रं कर्म करोति, तद् अन्यत् त्यजति, गुण-युक्तस् तथा गुरु-सेवा-सु सदोद्यतः, एतादृश-गुण-युक्ताय मोक्षाभिलाषिणे एतत् शास्त्र-प्रतिपाद्यं तत्त्वत्रयम् उपदेष्टव्यम्। गुरु-सेवा-परायणस्यैव विद्या प्राप्ता भवति। यथोक्तं मनु-स्मृतौ—‘यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्य् अधिगच्छति। तथा गुरु-गतां विद्यां शुश्रूषुर् अधिगच्छति।’ ततश् चैतादृश-लक्षण-विशिष्टं श्रीसुरसुरानन्दाचार्य-शिष्यम् आचार्येण यथोपदिष्टं तद् अग्रे प्रतिपाद्यते ॥५॥

पूर्वोक्त-रीति से श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी का दशों प्रश्नों को सुन करके भगवान् श्रीरामानन्दाचार्यजी कहते हैं—‘इत्थं पृष्टस्त्वया यः’ इत्यादि। हे सुरसुरानन्द? तुमने पूर्वोक्त प्रकार से सकल लोगों के हितकारक सर्व-श्रुति द्वारा प्रतिपादित अति-गूढ प्रश्न-समुदाय को पूछा है। उनका उत्तर—श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी, बोधायनं प्रभृति पूर्वाचार्य-सहित प्राचीनाचार्यों एवं स्वाचार्य श्रीराघवानन्दाचार्यजी को नमस्कार करके शास्त्र के अनुकूल अथवा सर्व-शास्त्र-प्रतिपाद्य उन सब प्रश्नों का यथावत् मैं उत्तर देता हूँ, सावधान होकर के उसको सुनो? और उनका समीचीन रूप से मनन करके लोक में प्रचार करो। जिससे अज्ञानान्ध-संसार-कूप-पतित पुरुषों का उद्धार हो ॥५॥

(अथ प्रकृति-जीवेश्वर-तत्त्व-निरूपणे प्रकृति-निरूपणम्)

पृष्टानाम् एकम् आद्यं त्रिकम् अपि शृणु तद्-भेदतो नाम-भेदैर्
नित्याज्ञाचेतना सा प्रकृतिर् अविकृतिर् विश्व-योनिः शुभैका ।
नाना-वर्णात्मिकाजा त्रिगुण-सुनिलयाव्यक्त-शब्दाभिधेया
निर्व्यापारा परार्था महद्-अहम् इति सूश् चोच्यते तत्त्व-विद्भिः ॥६॥

पृष्टानाम् एकम् इत्यादि। तत्त्व-विद्भिः श्रीव्यास-बोधायनादिभिः, पृष्टानां प्रश्नानां मध्ये’ आद्यं प्रथम-प्रश्नम् ‘तत्त्वं किम्’ इत्याकारकम् स्वरूपत एकम् अपि चिद्-अचिद्-आत्मक-विशेषणेन विशिष्टतया केवलान्वयि-संख्यां प्राप्तम् अपि तद्-भेदतस् तयोश् चिद्-अचितोः परमेश्वरस्य च परस्परं भेदतो नाम-भेदैश् चित्-परमेश्वर-बोधक-तत् [[P69]] शब्द-विशेषैः त्रिकम् शब्दापेक्षयार्थापेक्षया च भिन्नं सत् त्रिविधं त्रिप्रकारकं तत् तत्त्वम् उच्यते, इति तत् तत्त्वं शृणु’ सावधान-मनसेति शेषः। तत्र या एकाचित् प्रकृतिः सा नाम-भेदैर् नाम्नां पर्याय-वाचि-शब्दानां भेदेनानेकेति कथ्यते, यथा नित्या उत्पाद-विनाश-रहिता, अज्ञा ज्ञान-भिन्ना, अचेतना चैतन्य-वर्जिता, प्रकृतिः सर्वस्य विकार-जातस्य कारणम्। अविकृतिर् न भवति सा कस्यापि विकार-रूपा। विश्वस्य महद्-आदि-सर्व-कार्यस्य योनिर् निदानम्। शुभा शोभमाना, नाना-वर्णात्मिका, अजा, त्रिगुण-सुनिलया, अव्यक्त-शब्द-वाच्या, निर्व्यापारा, परार्था पर-प्रयोजनायैव प्रवर्तमाना, महद्-अहम् इति सूः, महत्तत्त्वादेर् जनितेत्य् उच्यते सा प्रकृतिर् इति। तद् एतद् आहुः श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायाः प्रकृति-परिच्छेदे जगद्-गुरवः श्रीश्रियानन्दाचार्य-सिद्धान्त-विजयिनः—‘सत्त्व-रजस्-तमः-शालि-द्रव्यं प्रकृति-संज्ञकम्। रामस्य शक्ति-रूपं च त्रिगुणं च स-विक्रियम्’ इति। शब्द-स्पर्श-विहीना च रूपादि-रहिता तथा त्रिगुणैषा जगद्-योनिर् अनाद्य्-अन्तवती मता। प्रकृति राम-शक्तिश् च रामाधीना हि सम्मता। रामेणाहित-वीर्या सा सर्जने प्रभवेत् खलु। अव्यक्ताख्य-प्रधानस्य परिणामो महान्’ इति च।

विशेषः—श्रीसुरसुरानन्दाचार्यः चतुर्थ-श्लोकेन प्रश्न-दशकं तत्त्वादि-कं पृष्टवान्। तस्योत्तरम्, उद्देश-क्रमेण प्रथमं तत्त्वं किम् इति तत्त्वस्योत्तरं दातुम् आह ‘पृष्टानाम् एकम् आद्यम्’ इत्यादि।

तत्त्व-विद्भिः—तत्त्वं विदन्ति जानन्ति ये ते तत्त्व-विदः, श्रीपराशर-व्यास-बोधायनादि-महर्षयः प्राचीनाः सम्प्रदाय-प्रवर्धका आचार्याः, तैः। पृष्टानां प्रश्न-विषयीकृतानां तत्त्वादि-दश-संख्यक-वस्तूनां मध्ये यत् प्रथमम् आदिमं तत्त्वं, तत् स्वासाधारण-रूपेणैकम् अपि, भेदतोऽवान्तर-भेदेन अचेतन-चेतन-परमेश्वर-भेदात्, त्रिकं त्रि-प्रकारकं भवति, जड-तत्त्वं चेतन-तत्त्वम् ईश्वर-तत्त्वं चेति। त्रयोऽवयवा अचेतन-चेतनादि-कावान्तर-भेद-प्रकारा यस्य तत्त्व-समुदायस्य तत् त्रिकम् उच्यते। तथा तद् अचेतनादि-तत्त्वं नाम-भेदेन त्रिधा भवतीति शृणु। यथा घट इति नाम अर्थात् घट इति शब्दो भिन्नः, पट इति शब्दोऽपि भिन्न इति नाम-भेदेन शब्द-भेदात्, घट-पटयोर् भेदः। यथा वा घटस्य कार्यं जल-आहरणं, पटस्य च कार्यं प्रावरणादिकम् इति कार्य-भेदाद् घट-पटयोर् भेदस् तथैव प्रकृतेऽचेतनम् इति, चेतनम् इति, ईश्वर इति च [[P70]] शब्द-भेदाद् अचिच्-चिद्-ईश्वराः परस्परं विभिन्ना एव। यथा च घट-पटयोः स्वरूपाद् इतो भेदेऽपि द्रव्यत्वेनाभेदः, तथैव चिदादीनां नामादि-भेदेन भिन्नत्वेऽपि असाधारण-धर्मेणैकत्वम् एव। तत्त्वम् इत्य् अत्रैक-वचन-बलेनैकत्वं निश्चीयते, तथाचेतनादि-शब्द-भेदात् त्रित्वं प्राप्यते। तत्राचेतन-पदेन प्रकृतेश्, चेतन-पदेन जीव-राशेर्, ईश्वर-पदेन च सर्व-शेषिणो जगत्-कारणस्य सर्व-नियामक-पर-ब्रह्मणः श्रीरामस्य ग्रहणं भवति। ‘ब्रह्म-शब्दश् च महा-पुरुषादि-पद-वेदनीय-निरस्ताखिल-दोषम् अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणं भगवन्तं श्रीरामम् एवाह सामान्य-वाचकानां पदानां विशेषार्थे पर्यवसानात्’ (आनन्दभाष्य १.१.१) इति जगद्-गुरु-श्रीरामानन्दाचार्योक्तेः। तद् एतन् मिलितं सत् तत्त्व-पद-वाच्यं भवति, एतादृश-तत्त्वस्य ज्ञानम् एव मोक्ष-साधनम् इति भावस्, तत् ‘तम् एव विदित्वाति-मृत्युम् एति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’, ‘तरति शोकम् आत्मवित्’, ‘तद् एवं विद्वान् अमृत इह भवति’ इत्यादि-स्थले प्रदर्शितम्।

ननु कुत्रचित् पञ्चविंशति-तत्त्वम् उदाहृतम्—‘पञ्चविंशति-तत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत्। जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः’। तत्र मूल-प्रकृतिर् एका, महद्-अहङ्कार-पञ्च-तन्मात्राणीति सप्त-प्रकृति-विकृतयः, षोडशक-विकारः (पञ्च-ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि, इति दश, उभयात्मकं मनः, पञ्च-महा-भूतानीति मिलित्वा षोडशः), पुरुषश् चेति सर्व-संकलनया पञ्चविंशतिर् एव तत्त्वम्। क्वचिद् एतत् ‘क्लेश-कर्म-विपाकाशयैर् अपरामृष्ट ईश्वरः’ इति लक्षण-लक्षितेश्वरेण सह षड्विंशति-तत्त्वम्, क्वचित् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाभावात् सप्तैव तत्त्वम्, क्वचिच् च प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तादिकाः षोडश-पदार्था व्याख्याताः, येषां ज्ञानेन मोक्षम् इच्छन्ति वादिन इति, तेषां मतं खण्डयितुम् आह आचार्यः ‘त्रिकम्’ इति, अर्थात् न तत्त्वं पञ्चविंशति-प्रकारकं न वा सप्त-षोडशात्मकम्, किन्तु त्रिकम् एव। ननु अचिच्-चिद्-ईश्वर इत्य् एवं गणनयापि त्रित्व-संख्या-लाभ-सम्भवेन संख्या-वाचक-पद-कथनं निरर्थकम् इवाभाति? सत्यं, न्यूनाधिक-संख्या-व्यवच्छेदाय तत् सार्थक्यात्। अर्थात् न तत्त्वम् एकम् एव केवलाद्वैत-मतवत्, न वा ततोऽधिकं, किन्तु त्रिकम् एवेति द्योतनाय त्रिक-पदं। ‘अद्वैत-श्रुति-वृन्दस्य विशिष्टाद्वैत-बोधिता। देहात्मनोर् विभिन्नत्वे देहिनश् चैकता यथा। भेदे चिद्-अचिद्-ईशानां विशिष्टस्यैकता तथा।’ इत्यादि-रूपेणाचार्य-सार्वभौम-श्रीश्रियानन्दाचार्योक्तेः। ‘प्रधान-क्षेत्रज्ञ-पतिर् गुणेश’ इति च श्रुतौ। ‘प्रधान-जीव-ब्रह्मेति तत्त्वत्रयं समीरितम्’ इति च प्रमिताक्षरावृत्ति-साराख्य-श्रीबोधायन-मतादर्श-जगद्-गुरु-श्रीपूर्णानन्दाचार्योक्तस् तत्त्वत्रयम् एवैतत् तत्त्वम्। एतेनेदं ग्रन्थ-रत्नं पूर्वाचार्य-सिद्धान्तान्वितम् इति सूचितम्। अथवा स्पष्ट-प्रतिपत्त्यर्थम् इति केचन। अथवा तत्त्व-त्रितयान्यतम-व्याप्तम् इति व्याप्ति-लाभायैव, अर्थात् यदि तत्त्वं तदा अचिदाद्य्-अन्यतमम् एव, न न्यूनं नाप्य् अधिकम् इति। तत्त्व-विषये न्यूनाधिक-संख्या-वादिनां मतम् उपरिष्टान् निराकरिष्यते।

तत्र तत्त्वत्रय-विषये—चिद्-अचिद्-ईश्वरश् चेति केचित्, अचिच्-चिद्-ईश्वरश् चेति अन्ये। तत्र कश्चिच् चित्-तत्त्वम् अधिकृत्य प्रथमं वक्ति स्वाभिप्रायम्, अपरश् चाचित्-तत्त्वम् इति का प्राथमिकी-व्यवस्थेति चेत् तेषाम् अयम् आशयः—यद् अचित्-तत्त्वं तस्य हेयतया ज्ञातव्यत्वम्, ईश्वरस्य चोपादेयतया ज्ञातव्यत्वम्। एवम् उभयोस् तत्त्वयोर् अधिकारिणश् चेतन-जीवस्य स्वरूपं प्रथमं ज्ञातव्यम्, जीव-ज्ञानाभावे को हि अधिकारी स्यात्? ज्ञाता वा कथम् इति जीव-तत्त्वस्यैव प्राथम्यं कृतवान् इति। आचार्याशयस् तु—यावत् पर्यन्तं प्रकृतेर् ज्ञानं न स्यात् तावत् प्रकृत्य्-अपेक्षया जीवात्मा पर इति जीवस्य प्रकृत्य्-अपेक्षया परत्वं न सम्भवेद् अतः प्रथमतः प्रकृतेर् जडाया एवोपक्रमः कृतः। अर्थात् प्रथमतः प्रकृतिं ज्ञात्वा तद्-अनन्तरं प्रकृत्य्-अन्तर्वर्तिनं जीवात्मानं सम्यग् विज्ञाय तद्-अन्तर्यामिणः शरीरस्यात्मवद् उभयाभिमानिन ईश्वरस्य स्वरूप-ज्ञानं सम्पादनीयम्। अचिद्-आरभ्य कथनम्, अन्नमय-कोशाद् आरभ्यानन्दमय-पर्यन्तस्य प्रतिपादनं कुर्वन्त्याः श्रुति-मर्यादानुकूलम् इति, अत आचार्येणाचिद्-आरभ्येश्वर-पर्यन्त-तत्त्वत्रयस्य प्रतिपादनं कृतम्। येन जीवम् उपक्रम्य चिद्-अचिद्-ईश्वर-रूप-तत्त्वत्रयस्य परिगणनं कृतं तन्-मते ‘भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा’, ‘पृथग् आत्मानं प्रेरितारं च मत्वा’, ‘ज्ञाज्ञौ जीवेशाव् ईशानीशौ’ इत्यादि-श्रुतेर् आनुकूल्यम् इति तस्मात् क्रम-द्वयम् अपि वेदान्तानुकूलम् एव। वस्तुतस् तु चेतनो हि यज्ञाधिकारी, यदा शरीरादि-भिन्नं पर-लोक-गामिनं विजानीयात् तदैव पर-लोक-साधक-यागादि-कर्मणि प्रवर्तेत इति पूर्वम् अचितो ज्ञानम् आवश्यकं, तत एव प्रवृत्तिर् वेद-विहित-जीव-कर्मणि, अत आचार्येण प्रथमम् अचिद् एवोद्देश-क्रमेणाभिधानं कृतम् इति सिद्धान्तानुयायिनाम् उद्गारः। अत्रैव ‘प्रधान-क्षेत्रज्ञ-पतिर् गुणेशः’ इति च श्रुतिः, ‘प्रधान-जीव-ब्रह्मेति तत्त्वत्रयं समीरितम्’ इति वदन्तः श्रीबोधायन-मतादर्श-कारा अपि अनुकूलाः।

[[P72]]

प्रकार-त्रयेण तत्त्व-विनिर्णयो भवति, उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति। तत्र नाम्ना पदार्थ-संकीर्तनम् उद्देशः, यथा—द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्यम् इत्यादि, तेषाम् उद्देशः। इहापि ‘अचिच्-चिद्-ईश्वरः’ इति। उद्दिष्टस्यासाधारण-धर्मो लक्षणम्, यथा गन्धवत्त्वं पृथिव्या लक्षणम्। लक्षणं तद् एव भवति यद् अव्याप्त्य्-अतिव्याप्त्य्-असंभव-रूप-दोष-त्रय-शून्यं भवेत्। यथा केनचिन् नील-रूपवत्त्वं गोर् लक्षणं क्रियेत तदा नील-रूपात्मक-लक्षणस्य श्वेत-गवि विरहेण लक्ष्य-व्यापकत्वाभावेनाव्याप्तिः स्यात्। एवं यदि शृङ्गवत्त्वं गोर् लक्षणं कुर्यात् तदा शृङ्गित्व-लक्षणस्य लक्ष्य-भिन्न-महिषादाव् अपि विद्यमानत्वेनालक्ष्य-गतत्वाद् अतिव्याप्तिः स्यात्। तथा यदि कश्चिद् एक-शफवत्त्वं गोर् लक्षणं कुर्यात् तदा गो-मात्रस्य द्वि-शफवत्त्वेन लक्ष्य-मात्रेऽसत्त्वाद् असंभवः। तस्माद् एते नील-रूपवत्त्वादयो न गोर् लक्षणम्, अव्याप्त्यादि-दोष-ग्रस्तत्वात्, किन्तु सास्नावत्त्वम् एव सकल-दोष-रहितं सल्-लक्ष्य-गवादि-सकल-व्यक्तिष्व् अनुगतत्वात् तद् एव लक्षणम्। अर्थात् यस्य योऽसाधारण-धर्मः स एव तस्य लक्षणम्। ननु अव्याप्त्यादि-दोष-दुष्टस्य लक्षणत्वे को दोष इति चेत्—शृणु तत्र दोषम्। तथाहि लक्षणं यद् भवति तद् इतर-भेदानुमाने साधन-हेतुर् भवति, तेन लक्षण-रूप-हेतुना पक्षे लक्ष्ये इतर-भेदः साधितो भवति। यथा पृथिव्यादौ गन्धवत्त्व-हेतुना पृथिवीतर-जलादि-भेदः साध्यते—पृथिवी स्वेतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्त्वात्। यदि लक्षणेऽव्याप्त्यादि-रूप-कश्चिद् दोषो भवेत् तदा दोषवता हेतुना साध्यं साधितं न स्यात्, प्रत्युत तादृश-हेतोर् हेत्वाभासतयाऽसाधकत्वम् एव जलादि-हेतुना ह्रदे वह्न्य्-अनुमानवत्। तत्र यदि अव्याप्ति-दोष-दुष्टं नील-रूपवत्त्वम् एव हेतुर् गोः स्वीक्रियेत तदा तद् एवेतर-भेदानुमापकं स्यात्—गौः स्वेतरेभ्यो भिद्यते नील-रूपवत्त्वात्, यल् लक्षणं स एव हेतुः स्यात्, ततश् च पक्षतावच्छेदक-गोत्वाक्रान्ते श्वेत-गवि नील-रूपवत्त्वस्याभावेन पक्षैकदेशे श्वेत-गवि नील-रूपवत्त्व-हेतोर् अभावेन पक्षैकदेशे हेतोर् अभावरूप-भागासिद्धिर् दोषः स्याद् इति तादृश-हेतुना गो-मात्रे इतर-भेदानुमानं न स्याद् इत्य् अयम् एव दोषोऽव्याप्ति-दोष-दुष्ट-लक्षणस्य हेतु-करणे स्यात्।

एवं यदि अतिव्याप्ति-दोष-दुष्ट-लक्षण-हेतु-करणेन तेन इतर-भेदानुमानं कुर्यात् तदा इतर-भेदानुमाने व्यभिचार-दोषः स्यात्। तथा हि यथा शृङ्गित्वम् अतिव्याप्ति-दोष-दुष्टं गोर् लक्षणं, तादृश-लक्षण-रूप-हेतुना यदि गौः स्वेतरेभ्यो भिद्येत शृङ्गत्वात्, [[P73]] अत्र शृङ्गित्वस्य विपक्षे अर्थात् साध्याभाववति महिषादौ सत्त्वेन तत्र गवेतर-भेदात्मक-साध्यं न विद्यते किन्तु गो-भेद एव विद्यते इति साध्याभाववति हेतोर् विद्यमानतया हेतोर् व्यभिचरितत्वम्। वह्नि-साध्यक-पर्वत-पक्षक-प्रमेयत्व-हेतुवत् साध्य-साधकत्वं न स्याद् इति न व्यभिचरितत्वाद् इतर-भेदानुमानम् अतिव्याप्त-लक्षण-हेतुना सम्भवेत् तस्माद् अतिव्याप्त-हेतोर् न साध्य-साधकतेति, अयम् एव दोषोऽतिव्याप्ति-दोष-दुष्टस्य भवति, तस्माल् लक्षणेऽतिव्याप्तिः परिहरणीयेति।

असंभव-दोष-दुष्ट-लक्षणस्य हेतुतयोपादानं कुर्यात् तदा इतर-भेदानुमाने स्वरूपासिद्धिर् आयाति, तथाहि—एक-शफवत्त्वं लक्षणं क्रियते, तच् च हेतुं कृत्वा यदि स्वेतर-भेदानुमानं करिष्यति तदा एक-शफवत्त्व-हेतोर् गो-रूप-पक्षे कुत्राप्य् असत्त्वेन पक्ष-मात्रे हेतोर् अभावः स्वरूपासिद्धिर् इति स्वरूपासिद्धिर् दोषः। अयं च पक्षता-ज्ञान-प्रतिबन्धकः, ततश् च साध्य-व्याप्य-हेतुमान् पक्ष इत्याकारक-परामर्शो न स्यात्, परामर्शाभावे च कारणाभावाद् अनुमित्यात्मक-कार्यं न स्याद् इति। अर्थात् हेत्व्-अभाववान् पक्ष इति विरोधि-निश्चय-सत्त्वे हेतुमान् पक्ष इति पक्ष-धर्मता-ज्ञानं न स्यात्, तदभावे तद्-घटित-साध्य-व्याप्य-हेतुमान् पक्ष इति परामर्शो न स्यात्, तदभावेऽनुमिति-रूपं कार्यं न स्यात्, कारणाभावस्य कार्याभाव-व्याप्तत्वात्। ततश् च यत्रासंभवो दोषो लक्षणस्य तत्र तादृश-लक्षणात्मक-हेतुना नेतर-भेदानुमितिः स्याद् इत्य् एवम् अव्याप्त्यादि-दोष-दुष्ट-लक्षणस्य न कार्य-क्षमतेत्यतोऽव्याप्त्यादि-रहितम् एव निर्वचनीयम्। तद्-अनन्तरम्—अर्थाद् उद्देशानन्तरं लक्षणं, लक्षणानन्तरं परीक्षा, लक्षितस्य यथावल्-लक्षणं संभवति न वेति विचार एव परीक्षा, इत्य् एवम् उद्देश-लक्षण-परीक्षेति त्रिविधा शास्त्र-मर्यादेति स्थितिः।

अत्र च अचिच्-चिद्-ईश्वरस् तत्त्वत्रयम् इत्य् उद्देशो दर्शितः। तदनन्तरम् उद्दिष्टस्य लक्षणं कर्तव्यं, ततः परीक्षेति क्रमे प्रथमोद्दिष्टाचित् प्रकृतेर् लक्षणादिकं कर्तुम् आचार्यः प्राह—‘नित्याज्ञाऽचेतना सा प्रकृतिर्’ इत्यादि। सेयं प्रकृतिः सर्वस्य महद्-आदि-महा-भूतान्त-जड-वर्गस्योत्पादनं प्रकरोति, सर्वं कार्य-जातम् उत्पादयतीति तद्-व्युत्पत्तेः। सा च स्वयम् अविकृतिर् न कस्यापि कार्य-रूपा, किन्तु कारणम् एव सर्वस्य। यदि कुतश्चिद् इयम् उत्पद्येत तदा महा-भूतादिवत् विकार-रूपा स्यान् न त्व् एवं, तथात्वेऽनवस्था स्यात्, ‘मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते स-चराचरम्’ इति गीतोक्त-दिशा सर्व-[[P74]]विकार-जातस्य कारणं प्रकृतिस्, तस्या अपि कारणान्तरं स्यात्, कारणान्तरस्याविकृतत्वे प्रकृतेर् एव तथात्वं मन्तव्यम्। कारणान्तरस्य कार्यत्वेऽर्थात् जन्यत्वे तस्यापि कारणान्तर-जन्यत्वम्। एवं कारणान्तरस्यापि जन्यत्वे तस्यापि किम् अपि कारणान्तरं वक्तव्यम् इत्य् एवम् अनादि-प्रवाह-कल्पनेऽनवस्था दुरवस्था स्यात्। ततः मूल-प्रकृतिर् अविकृतिर् एव, न कस्यापि सा विकार-रूपा, किन्तु सर्वस्य जनयित्री स्वयं विकार-रहितैव। तद् उक्तम्—ईश्वर-कृष्णेन—‘मूल-प्रकृतिर् अविकृतिर्, महद्-आद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त। षोडशकस् तु विकारो, न प्रकृतिर् न विकृतिः पुरुषः’ इति। प्रकृति-प्रधानक-शास्त्रस्य संक्षेपतश् चत्वारोऽर्थाः प्रतिपाद्या भवन्ति। तत्र कश्चिद् अर्थः सर्वस्य मूल-कारणं प्रकृतिः, कश्चिद् अर्थः प्रकृति-विकृतिः यथा महत्तत्त्वम् अहंकारः पञ्च-सूक्ष्म-भूतानि गगन-वायु-तेजो-जल-पृथिव्याः, तन्-मात्र-पद-प्रतिपाद्याः। कश्चिद् अर्थो विकृतिर् विकार-रूपैव यथा पञ्च-ज्ञानेन्द्रियाणि चक्षुस्-त्वक्-रसना-श्रोत्र-कर्णाख्यानि, पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि। कश्चिद् अर्थः पुरुषो न प्रकृति-रूपो न वा विकृति-रूपः, किन्तु अनुभव-रूप एव। तत्र प्राथमिको विभागः—प्रकृतिर् एव सर्वस्य मूल-भूता, न त्व् अस्याः कारणान्तरम् अस्ति, तथात्वेऽनवस्था-प्रसङ्गात्। द्वितीयो विभागः—प्रकृति-विकृत्यात्मको महत्तत्त्वं प्रकृत्योत्पद्यते इति विकृतिः कार्य-रूपम्, तथा तन् महत्तत्त्वम् अहंकारादिकम् उत्पादयतीति प्रकृति-रूपत्वम्, अर्थात् प्रकृत्य्-अपेक्षया विकृतित्वं तथाऽहंकारापेक्षया प्रकृतित्वम् अहंकारोत्पादकत्वात्। एवम् अहंकारो महत्-तत्त्वाज् जायमानो विकृतिः कार्य-रूपस् तथा आकाशादि-सूक्ष्म-पञ्च-भूत-जनकत्वात् प्रकृतिर् आकाशाद्य्-उत्पादक-तया कारणत्वाद् इति। एवम् आकाश-तन्-मात्रम् अहंकार-जन्यत्वाद् विकार-रूपं कार्यम्, तथा वायु-तन्-मात्राया उत्पादकत्वात् प्रकृतिः कारणम्। वायु-तन्-मात्रं चाकाश-तन्-मात्र-जन्यत्वाद् विकृतिः कार्यं, तथा तेजो-मात्रा-जनकत्वात् प्रकृतिः। तथा तेजस्-तन्-मात्रा वायुस्-तन्-मात्रा-जन्यात्वात् विकृतिः कार्यं, तथा जल-तन्-मात्र-जनकत्वात् प्रकृतिः कारणम्, तथा जल-तन्-मात्रं तेजस्-तन्-मात्रा-जन्यत्वाद् विकृतिः कार्यं, पृथिवी-तन्-मात्राया जनकत्वात् प्रकृतिः कारणम्। एवं पृथिवी-तन्-मात्रा जल-तन्-मात्रा-जन्यात्वाद् विकृतिः कार्यं महा-भूत-पृथिवी-जनकत्वात् प्रकृतिः कारणम् इति। तथा कश्चिद् अर्थो विकृतिर् एव यथा षोडशको विकारः, कार्यम् एव न कदाचिद् अपि कारणम्। यथा श्रोत्र-त्वक्-चक्षू-रसना-घ्राणात्मकानि पञ्च [[P75]] बाह्येन्द्रियाणि। तत्र शब्द-ग्रहण-प्रवणं श्रोत्रं शब्द-ग्राहकम्। स्पर्श-ग्रहणं त्वक्, स्पर्श-ग्राहके वायवीयं तद् अपि बाह्येन्द्रियम् एव। रूप-ग्रहण-प्रवणं रूप-ग्राहकं चक्षुस् तैजसम्। एतत् रूपं, रूपत्वं, रूपाभावं, रूपाधिकरणम् अपि गृह्णाति। त्वक् तु स्पर्शत्वं, स्पर्श-स्पर्शवद्-द्रव्यम् अपि गृह्णाति। श्रोत्रं शब्द-शब्दत्व-शब्दाभावं च गृह्णाति, न तस्याधिकरणं द्रव्यं गृह्णाति, द्रव्य-ग्रहणे श्रोत्र-घ्राण-रसनानाम् असामर्थ्यात्। अर्थात् चक्षुरिन्द्रियेण त्वगिन्द्रियेण च गुणं, गुणाधिकरणं द्रव्यम् अपि गृह्यते, तद् अन्यैस् तु गुण-गुणाभावादिम् एव, न तु द्रव्यम्। रसनेन्द्रियं रसं, रसत्वं, तद्-अभावं च गृह्णाति। घ्राणेन्द्रियं गन्धं, गन्धत्वं, तद्-अभावं च गृह्णाति। एवं वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि। तत्र वाचा वदति, पाणिभ्यां गृह्णाति, पद्भ्यां चलति, पायु-नाम-लादिकं विसर्जयति, उपस्थेनानन्दयति, एतानि बाह्येन्द्रियाणि। आभ्यन्तरं करणं मनः, उभयोर् अधिष्ठापकम् आन्तर-सुखादिकं गृह्णाति। बाह्येन्द्रिय-सहकाराद् बाह्यम् अपि गृह्णाति। तद् उक्तम्—‘उभयात्मकम् अत्र मनः प्रवर्तकम् इन्द्रियं च साधर्म्यात्’ अन्यत्रापि कथितम्—‘मनो दशेन्द्रियाध्यक्षं हृत्-पद्म-गोलके स्थितम्। तच् चान्तः-करणं बाह्ये ह्य् अस्वतन्त्रं विनेन्द्रियैः’ इति। एकम् अपि मनो-वृत्ति-भेदात्, बुद्धि-मनोऽहंकार-चित्तम् इत्याख्यायते। तद् उक्तम्—‘मनो-बुद्धिर् अहंकारश् चित्तं करणम् अन्तरम्। संशयो निश्चयो गर्वः स्मरण-विषया इमे’। तत्र संशय-वृत्तिकं मनो, निश्चय-वृत्तिका बुद्धिर्, अभिमान-वृत्तिकोऽहंकारः, स्मरण-वृत्तिकं चित्तम्। तद् उक्तम्—

‘अध्यवसायो बुद्धिर् धर्मो ज्ञानं विराग ऐश्वर्यम्।
सात्त्विकम् एतद् रूपं तामसम् अस्माद् विपर्यस्तम्’।

धर्मो, धर्म-विरागाविराग-ज्ञानाज्ञानैश्वर्यानैश्वर्याख्या अष्टौ धर्मा बुद्धि-तत्त्वस्य। अत्र वृत्ति-वृत्ति-मतोर् अभेदम् आश्रित्य, अध्यवसायो बुद्धिर् इति कथितम्। ‘अभिमानोऽहंकारस् तस्माद् गणश् च षोडशकः। तस्माद् अपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च-भूतानि’। एतावत् प्रकरणेन प्रकृति-प्रकृति-विकृति-विकाराणां संग्रहः कृतः। शास्त्र-प्रतिपाद्यश् चतुर्थोऽर्थः पुरुषः, स न प्रकृति-रूपोऽर्थात् कस्यापि कारणं न भवति। कूटस्थ-नित्यत्वात्, नापि विकृति-रूपो नित्यतयाऽजायमानत्वात्, किन्त्व् अनुभय-रूपः कार्यत्व-कारणत्व-धर्म-रहितः, कूटस्थः सर्वस्य साक्षी द्रष्टा च, केवलं प्रकृति-संपर्कात् तद्-गतं सुख-दुःखादिकम् अनुभवति! तद् उक्तम्—‘तस्मात् तत्-संयोगाद् अचेतनं चेतनावद् इव लिङ्गम्। गुण-कर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्य् उदासीनः’ तस्मिंश् चिद्-दर्पणे स्फारे समस्ता वस्तु-दृष्टयः, इमास् ताः प्रतिबिम्बन्ति सरसीव तट-द्रुमाः’ इति, प्रकृति-पुरुषयोः परस्पर-प्रतिबिम्ब-मूलकः संसार इति साङ्ख्यानुयायिनः, परं चात्र श्रौत-विशिष्टाद्वैत-वाद-वेदान्तिनः—‘सिद्धान्ते कापिलानां च कार्याभिव्यक्ति-वादिनाम्। मृत्तिका-घटयोर् न स्याद् अन्वयस् तिल-तैलवत्। रचनानुपपत्तेश् च माया-रामम् अधिष्ठिता। जडा हि जगतो हेतुर् मन्यते न मनीषिभिः। प्रधानस्य प्रवृत्तिर् हि स्वभावान् ननु सम्मता। चित्र-सृष्टिस् ततो जाता नारिकेलादि-नीरवत्। मैवं यतः प्रवर्तेत स्वभावात् प्रकृतिर् यदि। प्रलयो नोपपद्येत सृष्टिर् एव भवेत् सदा’ इत्यादि-रूपेण जगद्-गुरु-श्रीश्रियानन्दाचार्येण श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायां प्रतिपादित-दिशा कार्याभिव्यक्ति-वादम् अनादृत्य कार्योत्पत्ति-वादं स्वीकुर्वन्तीति संक्षेपः। प्रकृत-विषयेऽन्यत्र विचारयिष्यामः। येयम् अनेक-रूपेण व्याख्याता प्रकृतिः सा पुनर् नित्या उत्पाद-विनाश-रहिता, अन्यथा विकारान्तर्भावेनानित्यत्वापातात्। दर्शनादर्शनं तु तस्या आविर्भाव-तिरोभावाभ्यां भवति। यथा—तिले विद्यमानं तैलं निष्पीडनेन तेभ्य आविर्भवति। तथा सृष्ट्यादौ परमेश्वराद् आविर्भूता प्रलये तत्रैव तिरोभवति, यथा हि पक्षिणी सायं काले नीडे विशन् तिरोभूत इव भवति, सति सूर्योदये नीडेभ्यो निष्क्रामन् आविर्भूतो भवति, तथैवेयं प्रलये परमेश्वरे प्रलीयते सूक्ष्म-रूपेण तद्-विशेषणतयावतिष्ठते, सर्ग-काले च ततो निःसरति। तथेयं प्रकृतिः ‘अज्ञा’—ज्ञान-रहिता जडेत्यर्थः। ‘अचेतना’—चेतनाज् जीवाद् विभिद्यते, इत्थं भूताऽपि प्रकृतिः ‘विश्व-योनिः’—विश्वस्य सर्वस्य कार्य-जातस्य योनिर् उपादान-कारणम् घटादेर् मृत्तिकावद् इति। अतः शुभा—शोभमाना कारण-रूपतया एक-रूपापि शोभते, कार्य-रूपतयाऽनेकापि शोभते। तथा ‘नाना-वर्णात्मिका’—लोहित-शुक्ल-कृष्ण-रूपादि-भेदेनानेक-रूपा प्रकृतेः सत्त्वादि-गुण-समन्विताया अनेकरूपत्वात्। अर्थात् रूप-भेदेनानेक-वर्णवतीति, तद् उक्तम्—‘अजाम् एकां लोहित-शुक्ल-कृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्य् एको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्य् एनां भुक्त-भोगाम् अजोऽन्यः’ इति। अजाम्—न जायते नोत्पद्यते या सा अजा नित्येत्यर्थः, ताम्, ‘एकाम्’ इति—तत्रैकां सजातीय-सहायक-रहितां सजातीय-द्वितीय-रहितां वा, ‘लोहित-शुक्ल-कृष्णाम्’ इति सत्त्व-रजस्-तमो-गुणात्मिकाम् अनेक-वर्णाम् इत्यर्थः। सरूपाः—समान-रूप-वत्यः सदृशीर् बह्वीः प्रजाः सृजमानां जनयन्तीं समुत्पादयन्तीम्। ‘अजो ह्य् एकः’ इत्यादि। एको बद्धो [[P77]] जीवः संसारासक्तोऽजः उत्पाद-विनाश-रहितः। यद्य् अपि सिद्धान्ते चेतनाचेतनयोर् ईश्वर-जन्यत्वेन स्वभावतोऽजन्यत्व-रूपाजत्वं जीवस्य न घटते तथापि प्रकृति-संबद्धस्य जायमानतया विशेषणांशे एव जीवस्य जन्यत्वं न तु स्वरूपेण जन्यता, ‘आत्माज्ञानमयोऽमलः, न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ इत्यादिना जीवस्य नित्यत्व-स्वीकारात्। तद् अत्र जगद्-गुरु-श्रीपूर्णानन्दाचार्याः श्रीबोधायन-मतादर्शे—‘स्वरूपे च स्वभावे च विकारः प्रकृतेः खलु। स्वभाव एव जीवस्य विकारः स्वीकृतो बुधैः॥ ब्रह्मणस् तु विकारोऽयं न स्वरूप-स्वभावयोः। तथा त्रिधाऽपि श्रुतौ सर्व-वित् सर्व-शक्तिर् जगत्-कारणं जानकीनाथ एव। ततः कापिलं गौतमीयं च शैवं च शाक्तं तथाऽन्यन् मतं नानवद्यम्॥’ (श्रौत-सिद्धान्त-विन्दुः) इत्यादि-आचार्य-दिव्य-प्रबन्धानुसन्धेयाः। यथा खलु स्वभावतो निर्मलोऽपि स्फटिक-मणिर् जपा-कुसुमाद्य्-उपाधि-संपर्केण रक्तो वा नीलो वानुभूयते, स्वभावतस् तु सर्वथा स्वच्छतैव। तथा प्रकृते प्रकृति-प्राकृतिक-कर्म-योगो यावद् भवति तावद् एव नाना-योनिषु जायते म्रियते वा भगवच्-छ्रीराम-प्रपत्या कर्मादि-निखिलोपाधि-सम्पर्क-रहितः सन् आपाततः कृत-कृत्यो भवन् जन्म-मरणादि-षड्-विधाभाव-विकार-परित्यक्तः परम-पदम् अवाप्य परमेश्वरस्य कैङ्कर्यं कर्तव्य-बुद्ध्या कुर्वन् (न तु स्वार्थ-प्रेरितः सन्) भगवद्-दास्यताम् अनुभवन् कृतार्थो भवति। तस्मात् स्वरूपतो जीवोऽज एव। परन्तु कर्म-वशात् प्रकृतिम् आसेवमानः संसार-भाग् भवति। अर्थात् प्रकृत्य्-अधीनो जीवः संसार-सुखम् एव बहु-जन्म-मान-संसारे परिभ्रमतीव। तथा एतद्-अतिरिक्तोऽर्थात् विषयेभ्यो विरक्तो भगवत्-प्रपत्तौ कृत-मनाः भुक्त-भोगां तां प्रकृतिं जहाति, अर्थात् तत्रासक्तिं त्यजति। तद् उक्तम्—‘दृष्टामयेत्य् उपेक्षक एको दृष्टाहम् इत्य् उपरमत्य् अन्येति। सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य’ इति। त इमे चत्वारोऽप्य् अर्थाः प्रत्यक्षानुमानाप्त-वचन-रूप-प्रमाणेण सिद्ध्यन्ति। यद्य् अपि वादिन उपमानादीन्य् अपि प्रमाणान्तराणि कथयन्ति तथापि तेषां प्रमाणान्तरेषु त्रिषु यथायथम् अन्तर्भावो भवति। एतत् स्पष्टीकरणम् उपरिष्टात् करिष्ये। त्रिगुण-सुनिलयेति—तत्र त्रयो गुणाः सत्त्व-रजस्-तमांसि समीचीन-रूपेण निलीयन्ते प्रविशन्त्य् अस्याम् इति त्रिगुण-सुनिलया प्रकृतिः। ‘सत्त्व-रजस्-तमः-शालि-द्रव्यं प्रकृति-संज्ञकम्’ इति श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायाम् आचार्योक्तेः। तत्र गुणास् त्रयः सत्त्व-रजस्-तमो-गुण-रूपाः। तत्र सत्त्वादीनां स्वरूपं [[P78]] सत्त्वं लघु-प्रकाशकम् इष्टम्, उपष्टम्भकं चलं च रजः। गुरु-वरणकम् एव तमः, प्रदीपवच् चार्थतो वृत्तिर् इति। यदिदं सत्त्वं तल् लघु, अतिशयेन लघुत्व-युक्तं भवति। इदम् एव लाघवं वह्न्य-आदेर् ऊर्ध्व-ज्वलने कारणम्, तथा प्रकाशकं च सत्त्वम्, तथा रज उपष्टम्भकं चलं च, रजसः प्रभावाद् एव सत्त्वम् इतस्ततः प्रसरण-शीलं भवति, तथा तमः गुरुत्ववत् वरणकम् आच्छादकं च। यद् धि तमो न भवेत् तदा रजसा नीयमानं तमः क्वचिद् अपि व्यवस्थितं न स्यात्, तमसा नीयमानम् इति तु क्वचिद् एव प्रवर्तते, सर्वत्र नेति, अथैवम् इमे परस्पर-विरोध-शीला गुणादयः परस्परं वाधिता एव भवेयुः शुम्भोपशुम्भवत्। ततश् च भोगापवर्ग-रूपः पुरुषः कथं साधितः स्यात्? तत्राह—‘प्रदीपवच् चार्थतो वृत्तिः’। परस्पर-विरुद्धानाम् अपि गुणानां वृत्तिः कार्योन्मुखता व्यापारः अर्थतः पुरुषार्थम् अपेक्ष्य प्रदीपवद् भवति। अर्थात् वर्ति-तैलानल-समुदाय-रूप एव प्रदीपः, तत्र सर्वे परस्परं विरुद्धा एव वर्ति-तैलयोर् विरुद्धोऽनलः, परन्तु मिलिताः सन्तः प्रदीप-संज्ञाम् आशाद्य प्रकाश-लक्षणम् एकं कार्यं कुर्वन्ति, न तु परस्परं विनष्टा भवन्ति। अयम् आशयः—विरुद्धोऽप्य् अनलादिः प्रकाशकम् एकं कार्यम् उद्दिश्य मिलिताः सन्तः प्रकाशकं कार्यं सम्पादयन्ति, तथैव सत्त्वादयो गुणाः स्वरूपतः विरुद्धाः सन्तोऽपि भोगापवर्ग-लक्षण-पुरुषस्यैकं कार्यम् उद्दिश्य स्व-स्व-कार्यं कुर्वन्तीति। पुनः सा प्रकृतिः कीदृशी तत्राह—‘अव्यक्त-शब्दाभिधेया’। अव्यक्त-शब्द-वाच्या भवति, यथा कम्बु-ग्रीवादिमान् पदार्थो घट-पद-वाच्यो भवति, तथाऽव्यक्त-शब्द-वाच्या प्रधानादि-शब्द-वाच्या च प्रकृतिर् इति कथ्यते। तद् उक्तम्—‘हेतुमद् अनित्यम् अव्यापि सक्रियम् अनेकम् आश्रितं लिङ्गम्, सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं, विपरीतम् अव्यक्तम्’। व्यक्तं पृथिव्यादि-महत्तत्त्वान्तं वस्तु हेतुमत् कारणवत्, अर्थात् कारण-जन्यम्। तत्र महत्तत्त्वं प्रति प्रकृतिः कारणम्, अहंकारं प्रति महत्तत्त्वं कारणम्, पञ्च-तन्मात्रं प्रति तथेन्द्रियं प्रत्य् अहंकारः कारणम्, पञ्च-महा-भूतं प्रति पञ्च-तन्-मात्राणि। तद् इदं यन् महा-भूताद् आरभ्य महत्तत्त्वान्तं व्यक्तं तत् हेतुमद् भवतीति भावः। तथा यदिदं व्यक्तं तद् अनित्यं तिरोभावि, न तु विनाश-प्रतियोगि। व्यक्तम् अव्यापि न सर्वं व्याप्नोति। व्यक्तं सक्रियं परिस्पन्दादि-लक्षण-क्रियया युक्तम्। यद् व्यक्तं तत् सर्वम् अनेकं न त्व् एकम्। व्यक्तं यत् तद् आश्रितं स्व-कारणम् आश्रित्य तिष्ठतीति। व्यक्तं लिङ्गं लयं गच्छति प्रलय-काले, अर्थात् कारणे लीनं भवति। व्यक्तं सावयम् अवयवेन युक्तं तथा [[P79]] व्यक्तं परतन्त्रं पराधीनं स्व-कारणाधीनम् इति। एतत् सर्वं व्यक्त-साधर्म्यम्। एतद्-विपरीतम् अव्यक्तम्। तथेयं प्रकृतिर् निर्व्यापारा जडत्वात् स्वातन्त्र्येण व्यापार-रहिता रथादिवत्। यथा रथ-वाह-चालिताश्व-क्रियया रथादयो व्यापारवान् इति व्यवहारो न तु रथादेर् व्यापारः स्वातन्त्र्येण, तथैव पुरुष-प्रेरित-प्रकृतेः क्रिया जायते न तु स्वातन्त्र्येण तस्य व्यापारः, तथेयं प्रकृतिः ‘परार्था’ पराधीना परमेश्वराधीना। अथवा परस्य स्व-व्यतिरिक्त-पुरुषस्य प्रयोजनाय प्रवर्तमाना भवति, प्रकृतेः प्रवृत्त्या पुरुषस्य भोगापवर्गौ भवतो नान्यथा निष्क्रियत्वात्। ‘महद्-अहम् इति सूः’—तत्र महत् महत्तत्त्वम्, अहम् अहंकारः, ‘अथ’ इति शब्द आद्य्-अर्थकः, तथा महत्तत्त्व्-अहंकारादि-तत्त्वं सूते समुत्पादयतीति महद्-अहम् इति सूः। यदा खलु गुण-त्रयस्य साम्यावस्थायां भवति प्रकृतिस् तस्मिन् समये सजातीयम् एव गुण-प्रवाहान् सूते। यदा तु विषमावस्थाम् आपद्यते तदा विजातीयान् महद्-अहंकारादिकान् महा-भूतान्तां सृष्टिं करोति। प्रतिक्षण-परिणामिनो हि भावा ऋते चिति-शक्तेः इति नियमेन प्रलयावस्थायां सत्त्व-गुणः सजातीयम् एव सत्त्व-गुण-धारां जनयन्ती भवति, रजसा रजो-गुण-धारां जनयन्ती भवति तथैव तमसोऽपि भवति। तद् एवं प्रकृतिर् उभय-रूपेण परिणमन्ती सर्वदावतिष्ठते। यद्य् अपि ‘विश्व-योनिः’ इति विशेषणेनैव सर्वोपादानत्वस्य प्रकृतौ सिद्धिर् जायते एव तदा ‘महद्-अहम् इति सूः’ इति विशेषणम् अनर्थकम् इवाभाति, तथापि विश्व-योनिर् इति विशेषणेन सामान्यत उभय-प्रकारक-परिणामम् आदाय सर्व-जगत्-कारणत्वं कथितम्, महद्-अहम् इति विशेषणेन तु विषय-परिणामम् आश्रित्याभिव्यक्त-स्थूल-जगत्-कारणत्वं दर्शितम्। एकेन विशेषणेन योऽर्थः प्रतिपादितः स एवार्थो यदि विशेषणान्तरेण प्रतिपादितो भवेत् तदा पौनरुक्त्यम् आशङ्क्येतापि, परन्तु प्रकृते तु नैवम्, अत्र तु प्रथम-विशेषणेन गुणानां सजातीय-सृष्टिर् दर्शिता। द्वितीय-विशेषणेन तु विषम-स्थूल-सर्गं प्रति तस्याः महद्-आदि-क-सर्व-पदार्थ-कारणत्वं प्रदर्शितम् इति नात्र कोऽपि शङ्कावसरः समुन्मीषतीति दिक्। एतद् एव स्पष्टीकृतं भागवते—‘यत् तत् त्रिगुणं अव्यक्तं नित्यं सद्-असद्-आत्मकम्। प्रधानं प्रकृतिं प्राहुर् अविशेषं विशेषवत्’ इति। अर्थात् यद् एतत् प्रधानं त्रिगुणं अव्यक्तं तद् एव प्रकृतिः सर्व-जगत् उपादान-कारणम्। तत्र प्रधानम् एव किम् इत्य् आशङ्कायाम् आह—अविशेषं विशेषवद् इति। स्वरूपेण न विशेषवत् प्रधानम्, अपि त्व् अपेक्षया विशेषवत्, विशेषा महदादिका विद्यन्ते [[P80]] यस्मिन्न् इति विशेषवत्। अर्थात् सर्व-विशेषाणाम् आश्रय-भूतम्। न चैतादृश-लक्षण-लक्षितस् तु परमात्मा? नैवं वक्तव्यम्, इदं तु त्रिगुणम्, तत् किम् प्रधान-पदेन महत्तत्त्वं गृह्यते तस्यापि त्रिगुणत्वात्, नैवं वक्तव्यं किन्तु अव्यक्तम्। अर्थात् अकार्यम्, महत्तत्त्वं तु प्रधानस्य कार्यम् एव न तत्, प्रधान-पदेन महत्तत्त्वस्य संग्रहः। न च तर्हि अव्यक्तं तु कालोऽपि, तस्यापि प्रधान-पद-वाच्यता स्यात्, तत्राह—सद्-असद्-आत्मकम् अर्थात् कार्य-कारण-रूपम् इति। तद् अत्र सांख्यादि-दर्शने चतुर्विंशति-तत्त्वं, पातञ्जले पञ्चविंशति, कणादे सप्त, न्याये षोडश इति कथं तत्त्वानां त्रिकम् एवेति चेद् अत्रोच्यते—पृथिव्यादि-भूतानाम् इन्द्रियादीनां च साक्षात् परम्परया वा प्रकृताव् एवान्तर्भावान् न कोऽपि विरोधः। तथाहि—

‘स्वरूपे च स्वभावे च विकारः प्रकृते खलु’ ॥४॥
(श्रीबोधायन-मतादर्श-श्रीपूर्णानन्दाचार्याः)
‘अव्यक्तत्व-दशातो या दशाऽव्यवहितोत्तरा ।
तदाश्रयो महत्तत्त्वं मन्यते वेद-वेदिभिः ॥९६॥
सात्त्विकं राजसं चाथ तामसं चेति भेदतः ।
प्रकृतेश् च विकारो हि महत्तत्त्वं त्रिधा मतम् ॥९७॥
महतश् च समुद्भूतोऽहङ्कारस् त्रिविधो मतः ।
सात्विको राजसश् चाथ तामसश् चेति भेदतः ॥९८॥

इत्यादि-रूपेण श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायां षण्णवति-संख्यातः सार्ध-शत-संख्याक-श्लोकं यावत् प्रतिपादित-दिशा सर्गादि-काले प्रकृतौ गुण-साम्यावस्थायाम् एकैकस्याधिक्यात् तद्-अन्यस्य च तिरोभावे सति गुण-वैषम्य-मूलको महत्तत्त्वस्य प्रकृतेः प्राथमिक-कार्यस्योत्पत्तिर् भवति। तन्-महत्तत्त्वम् अध्यवसाय-लक्षणकम्—अध्यवसायो बुद्धिर् इति वचनात्। तस्य ज्ञानाज्ञान-वैराग्यावैराग्यैश्वर्यानैश्वर्य-धर्माधर्म-प्रमुखा धर्मा अष्टौ सात्त्विकास् तामसाश् च जायन्ते। ततः महत्तत्त्वाद् अहङ्कारस्योत्पत्तिर् भवति। स च ‘अभिमान-लक्षणकः’—अभिमानोऽहङ्कारस् तस्माद् गणश् च षोडशकः’ इति वचनात्। अहङ्कारात् पञ्च-सूक्ष्म-तन्-मात्र-पद-वाच्यानि जायन्ते। तथा सात्त्विकाहङ्काराद् एव श्रोत्र-त्वक्-रूप-ग्राहक-चक्षू-रसना-घ्राणेन्द्रियाणि पञ्च-ज्ञान-जनकानीन्द्रियाणि जायन्ते। तथा तादृशाद् अहङ्काराद् एव वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि [[P81]] जायन्ते, तथोभयात्मकं मनो जायते। तथा सूक्ष्माकाशादि-पञ्च-तन्-मात्रेभ्यः क्रमशः शब्द-गुणक आकाशो जायते। तथा शब्द-तन्-मात्रा-सहकृत-स्पर्श-तन्-मात्रेण स्पर्श-गुणको वायुर् भवति, वायु-सहकृत-तेजस्-तन्-मात्रेण बह्वी-रूपादि-गुणको जायते, तत्-सहकृत-रस-तन्-मात्रेण गन्धादि-गुणा पृथिवी जायते। पृथिवी-तस्-तद्-इतर-सर्व-पदार्थानाम् उत्पत्तिर् भवति। तद् इत्थं ये केचन पदार्थास् तेऽचित्-प्रकृत्यैव साक्षात् परम्परया वा जायन्ते। अतश् चैकेनैवाचित्-प्रकृत्या सर्वस्य संग्रहो भवतीति न तत्त्वान्तर-शङ्का कर्तव्येति संक्षेपः।

तद् अत्र ‘प्रधान-क्षेत्रज्ञ-पतिर् गुणेशः’ इति श्रुत्या, ‘प्रधान-जीव-ब्रह्मेति तत्त्वत्रयं समीरितम्’ इति चाचार्य-श्रीपूर्णानन्दाचार्य-सिद्धान्त-सार्वभौम-वर्णित-क्रमेण अचिच्-चिद्-ईश्वर-रूप-तत्त्वत्रयम् उद्देश-क्रमम् इति स्थितम्। तत्र तत्त्वत्रयान्तर्गतम् अचिद्-वस्तूद्देश-क्रमेण प्रथमं निरूपयितुम् अचिद्-वस्तुनः स्वरूप-स्वभावादि-विशेषान् इत्थं वर्णयति। तथाहि—तत्राचिद् ज्ञान-रहितं विकारी च। तद् आहुर् जगद्-गुरवः श्रीश्रुतानन्दाचार्याः—‘अचिन् नाम तत्त्वं द्विधा, ज्ञान-शून्यं जडं चाजडं नैव मिथ्या कदाचित्। जडं मिश्र-सत्त्वं तथा काल-तत्त्वं, मनीषाऽजडं शुद्ध-रूपं च सत्त्वम्’ इति। तथैव जगद्-गुरु-श्री-अनुभवानन्दाचार्या अपि श्रौतार्थ-संग्रहे—‘अचिन् नाम ज्ञान-रहितं तत्त्वम्’ इति। अचिद् इत्यस्य चेतनाया अनाश्रयी-भूतं वस्तु। चैतन्यानाधारत्वम् एव तस्य ज्ञान-रहितेति विशेषणेन स्पष्टीकृतम्। इदम् अचित् शुद्ध-सत्त्व-मिश्र-सत्त्व-सत्त्व-शून्यत्व-भेदेन त्रिप्रकारत्वं जायते। तत्र प्रथमं शुद्ध-सत्त्वं रजस्-तमोभ्याम् अस्पृष्टम् अनादि-निधनात्मकं नित्यं ज्ञानानन्दयोर् उत्पादकं कर्मणः सहकारम् अन्तरेणैव केवलम् ईश्वरेच्छयैवातिविलक्षण-लोकोत्तर-विमानादि-रूपेण परिणामिनम् अतिशयित-प्रकाशात्मकं नित्य-सूरिणा परमेश्वरेणापि ज्ञातुम् अशक्यम् इव प्रतिभासमानम् अत्याश्चर्य-जनकं तत्। एतादृशाति-शुद्ध-सत्त्वे ‘क्षयन्तम् अस्य रजसः पराके’, ‘तमसस् तु पारे’, ‘आदित्य-वर्णं तमसः परस्तात्’, ‘पञ्च-शक्तिमये दिव्ये शुद्ध-सत्त्वे सुखाकरे’, ‘तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः’ इत्यादि-श्रुति-स्मृत्यादय एव प्रमाणम्। तद् अत्र वचनान्तरम् अपि प्रमाणं भवति, तथा हि—‘कालातीतम् अनाद्यन्तम् अप्राकृतम् अचञ्चलम्। प्राप्य अर्चिम् अयात् सद्भिर् मयि संन्यस्त-मानसैः॥’ ‘यत् तत् पुराणं आकाशं सर्वस्मात् परमं ध्रुवम्। यत् पदं प्राप्य तत्त्वज्ञा मुच्यन्ते सर्व-किल्बिषैः॥’ तथा ‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र-तारकं नेमा विद्युतो [[P82]] भान्ति कुतोऽयम् अग्निः। तम् एव भान्तम् अनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वम् इदं विभाति’, ‘अतर्क्यान् अनल-दीप्तं तत् स्थानं विष्णोर् महात्मनः। स्वयैव प्रभया राजन् दुष्प्रेक्ष्यं देव-दानवैः।’ इत्यादि-श्रुतिभिर् लोकोत्तरम् अति-विलक्षणम् अकृतात्मभिर् द्रष्टुम् अयोग्यम् अपीति सूचितं भवति।

नित्य-सूरि-परमेश्वरेणापि चास्याः शुद्ध-सत्त्व-रूपायाः स्वरूपेयत्ता-परिमाणादयोऽशक्य-प्राया एव ज्ञातुम्, तस्य परिमाणादीनाम् अनन्तत्वेन ज्ञातुं निर्वचितुं चाशक्यत्वात्। ननु यदि मुक्तादयः शुद्ध-सत्त्व-रूप-प्रकृतेः स्वरूपादिकं न जानन्ति तदा तेषां सर्व-विषयक-ज्ञान-वत्त्व-रूप-सर्वज्ञत्वं न स्यात्, यतः सर्वान्तर्गत-शुद्ध-सत्त्वात्मकं प्रकृतेः स्वरूपस्य मुक्त-परमेश्वरादिनापि न ज्ञायते इति स्वयम् एव प्रतिपादनात्। न चेश्वरस्यासार्वज्ञम् इष्टम्—‘यः सर्वज्ञः स सर्व-वित्’ इत्यादि-श्रुति-व्याकोप-प्रसङ्गात्। किञ्च परमेश्वरोऽपि यदि तां न जानीयात् तदा सर्वान्तर्यामितया सर्वस्य नियामकत्वम् अन्तर्यामि-ब्राह्मणादौ प्रतिपादितं तद् अप्य् उन्मत्त-प्रलपनम् एव स्याद् इति चेद् उच्यते, यद् वस्तु यादृशं यथा-स्वभाव-परिमाण-संख्यादि-विशिष्टं तस्य तथा-भूतस्य ज्ञानं यत्, तादृश-ज्ञान-वत्त्वम् एव सर्वज्ञत्वं परमेश्वरस्य। यत् प्रकृत्यादिकं यादृशं तस्य तथा-भूतं ज्ञानम् एव परमेश्वरस्य भवति। यथा प्रकृतेर् अनन्त-स्वभावाकारादि-मत्त्वं तादृशीं प्रकृतिं तेन रूपेण यदि परमेश्वरो जानाति तदा तस्य सार्वज्ञत्वं नापयाति, अपि तु तादृश-रूपेण तज्-ज्ञानं सर्वज्ञताया अनुकूलम् एव। अर्थात् परिच्छेद्यत्वेन परिच्छेद्यस्य ज्ञानं तथाऽपरिच्छेद्यस्य वस्तुनोऽपरिच्छेद्यतया ज्ञानम् ईश्वरस्य सार्वज्ञम्। परमेश्वरस्य तादृशं सार्वज्ञं प्रकृतेर् अपरिच्छेद्यत्व-रूपेण ज्ञाने जाते न किञ्चित् क्षतिकरं भवति। न हि घटं घटत्वेन जानन् भ्रान्तो भवति, अपि तु यथावज् ज्ञाता भवति। प्रत्युत घट-पटत्वेन जानन्न् एव भ्रान्तो भवति। तथैव प्रकृते परमेश्वरः शुद्ध-सत्त्व-रूपां प्रकृतिम् अनन्ताकारतयाऽपरिच्छेद्यां जानन् न भ्रान्तो नाप्य् असर्वज्ञो भवति। तद् उक्तं केनापि भक्तेन—‘देवि त्वन्-महिमावधिर् न हरिणा नापि त्वया ज्ञायते—यद्य् अप्य् एवं तथापि नैव युवयोः सर्वज्ञता हीयते। यन् नास्त्य् एव तद्-अज्ञताम् अनुगुणां सर्वज्ञताया विदुर् व्योमाम्भोजम् इदं तया कि ल विदन् भ्रान्तोऽयम् इत्य् उच्यते’।

अर्थात्—यथा गगन-कुसुम-कूर्म-रोमादिकं प्रत्यक्षतयाऽजानन् पुरुष ईश्वरो वा भ्रान्तोऽसर्वज्ञो वेति कथ्यते। कुतः! तस्य प्रत्यक्षाऽयोग्यत्वात्, ‘संवद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिनेति’ नियमात्। गगन-कुसुमादिकम् अहं प्रत्यक्षयामीति मन्वानो वितथ-वचनो भवति। एवं प्रकृतेऽनियतानेकाकारतया प्रकृत्यादिकं जानन्न् अपि नित्य-मुक्त-परमेश्वरादिको नासर्वज्ञो भ्रान्तो वा भवति। प्रत्युत् एतत् कथनेन परमेश्वर-वैभव एव प्रतिपादितो भवतीत्य् एतत्।

एनां शुद्ध-सत्त्व-रूपां प्रकृतिं केचन जडां स्वयं प्रकाश-रहितां ज्ञान-भिन्नाम् इति प्रतिपादयन्ति। अन्ये केचन शुद्ध-सत्त्व-लक्षणाम् अजडां स्वयं प्रकाश-रूपां कथयन्ति। तद् आहुर् आचार्याः—‘तन् नित्यम् अजडम् अधः प्रदेशे परिच्छिन्नम् ऊर्ध्व-प्रदेशे चान्तरहितम्,’ (श्रौतार्थ-संग्रहः) द्वितीय-पक्षे नित्य-मुक्त-जीवानाम् ईश्वरस्य च ज्ञानं विनापि स्वयम् एव प्रकाशते, न च यदि शुद्धं ज्ञान-रूपं सत् स्वयं प्रकाशत इतीश्वरस्य ज्ञानम् अन्तरेणापि प्रकाशमाना भवति तदा जीवोऽपि ज्ञानम् अन्तरेणैव प्रकाशितो भवतु, ततश् च संसारि-जीव-परमेश्वरयोर् न कोऽपि भेद इति वाच्यम्, ‘एष द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः’ इति श्रुति-प्रामाण्याज् ज्ञानाश्रयोऽपि जीवः सिद्धान्ते ज्ञान-रूपतयाऽङ्गीकृतोऽत एव स ईश्वरवत् प्रत्यक्-पद-वाच्यः। ‘यः स्वस्मै स्वयम् एव प्रकाशते स प्रत्यक्’ इति श्रौतार्थ-सङ्ग्रहोक्त-दिशा यद्य् अपि प्रकाश-रूपं तथापि ईश्वरस्यैव सा भासते न तु जीवस्य संसारिणः कर्म-प्रतिरुद्धतया तस्य तादृश-सामर्थ्याभावात्।

ननु शुद्ध-सत्त्वम् अजडम् आत्माप्य् अजडस्, ततश् चैतयोर् द्वयोर् लक्षण-भेदाभावाद् उभयोर् एकत्वम् आपद्यते इति चेन् न, विषय-व्यवस्थानाद् उभयोर् भेदात्। तथाहि—अहम् इत्याकारक-ज्ञाने कर्तृत्वेनात्मन एव भानं न तु शुद्ध-सत्त्व-भानम् इति द्वयोर् भेदः। तथा ‘स्वरूपे च स्वभावे च विकारः प्रकृतेः खलु। स्वभाव एव जीवस्य विकारः स्वीकृतो बुधैः’, इत्यादि-रूपेण जगद्-गुरु-श्रीद्वारानन्दाचार्येण परिणाम-विमर्शे प्रदर्शित-दिशा प्रकृतेः शरीर-रूपेण परिणामो भवति, जीवात्मनस् तु परिणामो न तद्-रूपेण। आत्मनः कूटस्थ-नित्यतया सर्वथा तद्-रूप-परिणामाभावात्। अर्थाद् एक-रूपत्वाद् आत्मनो न परिणामः। स्वभावस्य परिणामित्वेऽपि शरीरादि-रूपेण परिणामो न, विषय-निरपेक्ष-प्रकाश-मानत्वात्। शब्दार्थ्यादीनाम् अनाश्रयत्वात् शब्दादि-ग्राहक-ज्ञानाद् भेदः सिद्ध्यतीति तद्वद् एव शुद्ध-सत्त्वेऽपीति दिक्।

शुद्ध-सत्त्वस्य निर्वचनं कृत्वाऽवसर-प्राप्तं मिश्र-सत्त्वं दिङ्-मात्रतो निरूपयामि—तत्र सत्त्व-रजस्-तमो-गुण-त्रयैः परिवृतास् तथा ये बद्ध-जीवाः सन्ति तेषां सम्बन्धि-ज्ञानानन्दयोर् आच्छादको, [[मृसाज्ञानस्योत्पादक|मृषा-ज्ञानस्योत्पादक]]-नित्य-परमेश्वरस्य क्रीडोपकरण-रूपस् तथा देश-काल-भेदेन सम-विषम-विकारि-कार्य-जनकः प्रकृति-प्रधान-अविद्या-मायाद्य्-अपर-नामकोऽचिद्-विशेष-लक्षण एव। अर्थात् इदं सत्त्वं जीवस्य संसार-बद्धस्यैव ज्ञानानन्दयोस् तिरोधानं करोति न तु स्वेच्छया प्राकृत-शरीर-ग्रहणं कुर्वतो नित्य-मुक्तस्य ज्ञानानन्दयोः। न केवलं बद्ध-जीव-ज्ञानादीनां तिरोधानं करोति किन्तु ‘अतस्-तिस्-तद्-बुद्धिर्’ इति मिथ्या-प्रत्ययम् अपि तेषां जनयति। यथाऽनात्मन्य् आत्म-बुद्धिम्, अस्वतन्त्रे जीवे स्वातन्त्र्य-बुद्ध्यादिकं चेति। अर्थात् ‘अनीशया शोचति मुह्यमानः’, ‘अनादि-मायया सुप्तः’, ‘भगवन्-मायया तिरोहित-स्वभावः’ इत्यादि-विलक्षणं विपरीत-प्रत्ययं जनयतीत्यर्थः। सोऽयम् अचिद्-विशेषो नित्य उत्पाद-विनाश-रहितः। तद् उक्तम्—‘अजाम् एकां लोहित-शुक्ल-कृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्य् एको जुषमाणोऽनुशेते जहात्य् एनां भुक्त-भोगाम् अजोऽन्यः’, ‘गौर् अनाद्य्-अन्तवती सा जनित्री भूत-भाविनी’, ‘अचेतना परार्था च नित्या सतत-विक्रिया। विकार-जननीम् अज्ञाम् अष्ट-रूपाम् अजां ध्रुवाम्’। तद् अयम् अचिद्-विशेषः सर्वेश्वरस्य प्राकृतिक-जगत्-सर्गादि-लीलायाः परिकर उपकरण-भूतः। तद् उक्तम्—

‘क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ।
अप्रमेयोऽनियोज्यश् च यत्र-काम-गमोगी’ ॥
‘मोदते भगवान् भूतैर् बालः क्रीडनकैर् इव।’
त्व् अन्यच् चद्भिर् उदञ्चद्भिः कर्म-सूत्रोपपादितैः,
हरे विहरसि क्रीडां कन्दुकैर् इव जन्तुभिः।

इत्यादिना सर्व-नियामकस्य या क्रीडा कथिता, तादृश-क्रीडायां प्रकृतिः प्रधानम् उपकरणम्, तद् ‘सितासिताच रक्ता च सर्व-काम-दुघा विभोः’, ‘दैवी ह्य् एषा गुण-मयी मम माया दुरत्यया’ इत्यादि स्वयम् एवावोचत्। तथा देश-काल-भेदेन सम-विषम’ इत्यादि। अयम् आशयः—सोऽयम् अचिद्-विशेषः प्रदेश-भेदेन काल-विशेष-भेदात् समान-समान-विकार-जनकः। तत्र प्रदेश-भेद इत्यस्य गुण-वैषम्य-शून्य-प्रदेशः। स चैतस्य कार्योन्मुखे स्थूल-गुणानां वैषम्यम्, तद् अन्यत्र सर्व-स्थले समान-गुणवद् एव भवति। तत्र गुण-विषम-रहितो देशः सदृश-विकारवान् नैव भवति। गुण-वैषम्यवान् [[P85]] प्रदेशस् तु विसदृश-विकारवान् एव, नाना-रूप-विभाग-कथनायोग्यः सूक्ष्म-विकार एव सदृश-विकारस् तथा नाम-रूप-विभाग-निर्देश-योग्यः स्थूल-विकार एव विसदृश-विकारो नामेति। एवं साम्यावस्थायां यो यो विकारः स सर्वोऽपि सदृश-विकार एव, यथा सत्त्वस्य सत्त्वम् एव विकारो, रजसो रजस्, तमसश् च तद् एवेति। प्रतिक्षण-परिणामिनो भावाद् ऋते चिति-शक्तेर् महद्-अहंकारादि-विसदृशो विकारस् तत्र कस्यचिद् गुणस्याधिक्यं न्यूनता च कस्यचित्, अत एव महदादि-विकारो विषम इति कथ्यते। तथा काल-भेदः—तत्र काल-भेदः काल-विशेषोऽर्थात् सर्व-संहार-काल-प्रलय इत्यर्थः। तत्र सर्ग-कालश् च, तत्र प्रलय-कालेऽस्याचिद्-विशेषस्याविभक्त-रूपेणावस्थानेन न कुत्रापि गुणा वैषम्यानि, सर्वत्र समान-रूपेण सदृश एव विकारो जायते। यथा सत्त्व-गुणस्य सत्त्व-गुण-रूपेण, रजसो रजो-रूपेण, तमसस् तमो-रूपेणेति। सर्ग-काले परमेश्वराधिष्ठान-विशेषेण परस्परं विभक्ततया कार्योन्मुखस्यार्थात् कार्योत्पादनाय प्रयतमानस्यावश्यकतया गुण-वैषम्ये सति कारणापेक्षया विसदृश-विकाराः कार्याणि भवन्ति। गुण-त्रयात्मकाचिद्-विशेषस्य सर्वदा विकार-रूपतया सत्ता-प्रयुक्त एव। विकाराद् अर्थात् यावत् सत्त्वं तावत् पर्यन्तं विकारः स्याद् एव। ‘प्रलयः प्रोच्यते प्राज्ञैर् अव्यक्तत्वेन संस्थितिः। विद्वद्भिर् उच्यते व्यक्तं स्थूल-भावेन तूद्गमः॥’ इति प्रमिताक्षरावृत्ति-सारोक्तेः सर्ग-प्रलयादि-विभाग-निर्देशस् तु—सूक्ष्मत्व-स्थूलत्व-प्रयुक्त एव, न तु स्वरूप-प्रयुक्तो निर्विकार-रूपेण प्रकृत्य्-अवस्थाया एवाभावात्। सोऽयम् अचिद्-विशेषः प्रकृति-प्रधानम् अविद्या माया मूल-कारणम् अव्यक्तम् इत्यादि-पर्यायवान्। सोऽस्य नाम-भेदः स्वभाव-बलाद् एव भवति, तथाहि—यस्मिन् समये महदादि-विकारान् नोत्पादयति तदा प्रकृतिर् इति तस्य नाम भवति, प्र-करोति कार्यं करोति—इति प्रकृति-पद-व्युत्पत्तेः। यदा सर्ग-काले महदादि-सर्व-विकारान् उत्पाद्यावतिष्ठते तदा स्व-विकारापेक्षया श्रेष्ठ-रूपेण जनकतया च प्रधानम् इति गीयते। चक्षुरादीन्द्रियावेद्यत्वात् प्रलये भगवति लीनत्वाद् अव्यक्तम् इति कथ्यते। ज्ञान-विरोधित्वाद् अविद्येति। अत्र न विद्या अविद्येति समासे नञर्थो विरोधः, न सुरोऽसुरः सुर-विरोधीतिवत्। अर्थात् समासान्तर्गतस्य नञः षड्-अर्था भवन्ति, तद् उक्तम्—‘तत्-सादृश्यम् अभावत्वं तद्-अन्यत्वं तद्-अल्पता। अप्राशस्त्यं विरोधश् च नञ्-अर्थाः षट् प्रकीर्तिताः’ इति। सादृश्यम् अभाव-भेदाल्पत्वाप्राशस्त्य-विरोधाः षड् इमेऽर्थाः समासान्तर्गत-नञो [[P86]] भवन्तीति। तत्र यथा—न इक्षुर् अनिक्षुः सरः, अत्र इक्षुवत् लम्बायमानत्वम् इष्टत्वादि-सादृश्यम् आदाय अनिक्षुः सरः इति प्रयोगो भवति, तत्र यथा इक्षौ मिष्टाधिकं तथैव यस्य सरसो जलं मिष्टं तथेक्षु-काण्डवद् एव लम्बायमानं तादृश-सरसि सादृश्य-बोधको नञर्थः। न घटोऽघटस् तादृशं भूतलम् इत्यत्रात्यन्ताभावो नञर्थस्, तेन घटात्यन्ताभाववद्-भूतलम् इत्यर्थो भवति। अघटः पट इत्यत्र न घट इत्य् अघटोऽर्थात् घट-भिन्नः पट इति बोधो जायते इति प्रकृते भेदार्थको नञः। अलवणकं शाकम्—न विद्यते लवणं यस्मिन् तद् अलवणकम्, ईषल्-लवण-विशिष्टम् इति, अल्पार्थकोऽत्र नञः। यथा वा—‘अनुदरा कन्या’ इत्यत्राल्पोदरवतीत्य् अर्थो भवति। ‘अब्राह्मणो बाधुषिकः’—न ब्राह्मण इति अब्राह्मणोऽर्थाद् अप्रशस्तो ब्राह्मणो बाधुषिकः, अत्राप्राशस्त्यम् अर्थो नञः। एवं न सुरोऽसुर इत्यत्र विरोध एवार्थो नञः। अर्थात् सुराणां विरोधी योऽसुरः। भेदार्थकत्वे सुर-भिन्नत्वस्य मनुष्यादाव् अपि सत्त्वान् मनुष्यादीनाम् अप्य् असुरत्वापत्तिर् इति भावः। तद् एवं प्रकृते अविद्येत्यत्र नञः विरोधार्थकतया विद्यायाः यथार्थ-ज्ञानस्य विरोधित्वम् एवार्थः। अत इयम् अविद्या ‘तद्वति तत्-प्रकारक-ज्ञानम्’ अर्थात् तद्वन्-निष्ठ-विशेष्यता-निरूपित-तन्-निष्ठ-प्रकारता-शालि-ज्ञानं विद्या, तथा तद्-अभाववन्-निष्ठ-विशेष्यता-निरूपित-तन्-निष्ठ-प्रकारता-शाली भ्रमोऽविद्या वा। इत्य् एवं विद्या-विरोधाद् भवत्य् अयम् अचिद्-विशेषो विद्या-विरोधीत्य् अतोऽविद्या-पद-वाच्यत्वम् इति। तथा यम् अचिद्-विशेषो विचित्र-विलक्षणात्याश्चर्य-जनक-सृष्टि-सम्पादकतया माया-पद-वाच्योऽपि भवति। तद् उक्तम्—‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्, मायिनं तु महेश्वरम्। तस्यावयव-भूतैस् तु व्याप्तं सर्वम् इदं जगत्’, ‘माया चाविद्या च स्वयम् एव भवति’, ‘मायाख्यायाः काम-धेनोः’ इत्यादौ विचित्राश्चर्य-जनके माया-पद-प्रयोगात्। लोकेऽपि कश्चिन् मायावी (मदारी) विचित्रम् आश्चर्य-जनकं कार्यं दर्शयति, तत्र लौकिकोऽपि वदति यद् अयं मायया सर्वं दर्शितम् इति। विशेषस् त्व् अन्यत्रावधातव्यम् इति दिक्।

यद्य् अपीदम् अचिद्-द्रव्यं स्वरूपत एक-विधं तथापि कार्य-कारण-रूपेणानेक-विधतां भजते। इदम् एव वर्धमानं शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धात्मक-पञ्च-विषयः, श्रोत्र-त्वक्-चक्षू-रसना-घ्राणेन्द्रियात्मक-पञ्च-ज्ञानेन्द्रिय-भाक्, तथा वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि, आकाशादि-पञ्च-भूत-प्राणागमा प्रकृतिर् महत्तत्त्वम् अहङ्कारो मनांसि चतुर्विंशति-तत्त्व-रूपं जायते। तत्र प्रथमं तत्त्वं प्रकृतिः। अस्य प्रकृतिः [[P87]] प्रधानम् अव्यक्तम् अविभक्त-तमो, विभक्त-तमोऽक्षरम् इत्य् अवस्था-विशेषा भवन्ति। ‘अव्यक्तम् अक्षरे लीयते’, ‘अक्षरं तमसि लीयते’, ‘तमः परे देव एकी भवति’ इति पूर्व-कथित-प्रकारेण सर्ग-कालेऽव्यक्तावस्था-निवृत्तिर् अवस्था, ततस् तन्-निवृत्तिः। ततोऽति-सूक्ष्मतया तमः-पद-बोध्यता भवति, ततोऽपि नाम-रूप-विभागाనర్हतया परेण ब्रह्मणा एकी-भवतीत्य् अस्माद् एव कारणात् विभक्ततम इति नाम-भागीति। ‘सर्ग-काले तु संप्राप्ते प्रादुरासीत् तमो-नुद’ इत्य् उक्तेः ‘ब्रह्मणा प्रेरितं सत् नाम-रूप-विभाग-योग्यं यथा भवति तथा तस्मात् विभक्तं कार्योन्मुखं भवतीति विभक्त-तम इति नाम-भागीति च। तद्-अनन्तरं भगवतः श्रीरामस्य संकल्प-विशेषेण पुरुष-समष्टि-गर्भत्वं यथा ज्ञायते तथाऽवस्थां प्राप्यावस्थितत्वाद् अक्षरम् इति नाम। अत्रापि केचनावस्था-विशेषा भवन्त्य् एव। तस्माद् अस्याविभक्त-तमस्त्वं नामाक्षरावस्था-निवृत्तौ सत्यां तमः-शब्द-वाच्यतया नाम-रूप-विभागायोग्यतया च सर्व-शरीरक-परमेश्वर-विषये, एकीभवनम्। विभक्त-तमस्त्वं तु नाम-रूप-विभाग-योग्यता यथा स्यात् तथा विभक्ततया कार्योन्मुख-रूपत्वम् अक्षर-नामकम् इदम् अचित्। अत्र पुरुष-समष्टिर् इति विवेचना-योग्यम् अति-सूक्ष्मायास् तमोऽवस्थाया निवृत्तौ सत्यां पुरुष-समष्टि-गर्भत्वं यथा ज्ञायते तथा-विधावस्था-प्राप्तिर् एव। गुण-त्रय-वैषम्याद् अनन्तर-पूर्वावस्था गुण-समत्व-लक्षणकम् अव्यक्तं, यस्याम् अवस्थायां गुण-समत्व-विषयत्वं नो स्फुटं, तद्-अवस्थ-चेतन-समष्टि-गर्भत्वम् एवाक्षर-शब्देन कथ्यते, न तु चेतन-मात्रं, तस्याव्यक्त-प्रकृतित्व-तमो-विकृतित्वा-योगात्। अतः सर्वं तत्त्व-जातं चिद्-अचिदात्मकम् एव मन्तव्यम्। ‘प्रधानादि-विशेषान्तं चेतनाचेतनात्मकम्’ इति श्रीपराशर-वचनाद् इति संक्षेपः।

यथोक्त-वर्णित-प्रकारायाः प्रकृतेर् गुण-वैषम्यान् महत्तत्त्वादि-विकाराः समुत्पद्यन्ते। तत्र गुणाः सत्त्व-रजस्-तमो-गुण-रूपाः। एते सत्त्वादयो गुणाः प्रकृतेः स्व-स्वरूप-भूता न तु आगन्तुकास्, ते प्रकृति-दशायाम् अनुद्धृता अवतिष्ठन्ते, कार्य-दशायां तूद्धृता भवन्ति। ‘सत्त्वं रजस् तम इति गुणाः प्रकृति-सम्भवाः’, ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ इति भगवद्-उक्तेः। तद् उक्तं प्रकृत-श्लोकेऽर्थ-चन्द्रिकायाम् अस्मद्-परम-गुरुभिर् महामहोपाध्याय-जगद्-गुरु-श्रीरामानन्दाचार्य-श्रीरघुवराचार्य-वेदान्त-केसरिभिर् अपि—‘सत्त्वं रजस् तम इति संज्ञामादधाना गुणा इति च सामस्त्येन त्रयोऽपि गुण-पद-व्यपदेश्यास्, ते च प्रकृति-सम्भवाः प्रकृतिः सम्भवो येषान्तो तथा भूताः स्वरूप-[[P88]]निरूपक-धर्माणां धर्मि-स्वरूपं यावत्-स्थायित्व-नियमाद् एतेऽपि शश्वत् प्रकृताव् अवस्थितास्, तथापि महत्तत्त्वादि-रूपेण कार्य-दशायाम् एतेषां व्यक्ततया प्रकृति-सम्भवता युज्यत इति न विरोधः’ (गीतार्थ-चन्द्रिका १४.५), ‘प्रकृतेर् अचित्-पद-वाच्याया अनादि-भूताया गुणैः करण-कलेवरत्वेन परिणतैः सत्त्व-रजस्-तमोभिः सर्वशः सर्व-प्रकारेण क्रियमाणानि’ (गी. अ. ३.२७) इति।

तत्र यदा विषमावस्थायां गुणस्योद्रेको भवति, तदा तादृश-सत्त्व-गुणात् सुखं ज्ञानं चोत्पद्यते, तथा ज्ञान-सुखयोर् आत्मनि सङ्गश् च जायते। रजो-गुणस् तु राग-तृष्णा-सङ्गात् तथा कर्म-सङ्गं च जनयति, तमो-गुणस् तु भ्रम-ज्ञानं प्रमादम् आलस्यं निद्रां च समुत्पादयति।

‘तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुख-सङ्गेन बध्नाति ज्ञान-सङ्गेन चानघ ॥’
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णा-सङ्ग-समुद्भवम् ।
तन् निबध्नाति कौन्तेय ? कर्म-सङ्गेन देहिनम् ॥

इति। अत्र वनिता-दयितयोः परस्परं स्पृहैव राग-पद-बोधितो भवति, अर्थात् स्त्री-पुरुषयोर् आन्तरोऽनुराग-विशेष एव रागः। बाह्य-शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धादि-सर्व-विषयकोऽनुराग-विशेष एव तृष्णा। पुत्र-कलत्र-धन-धान्यादि-बाह्य-विषयक-प्राप्तीच्छैव सङ्गः। याग-पर्यटन-तीर्थादि-भ्रमण-विषयकेच्छा-विशेष एव कर्म-सङ्गः। अर्थात् राग-तृष्णा-सङ्ग-विक्रयादि-विषयकानुराग-रूपं सर्वं रजो-गुणस्य कार्यं रजसो रागात्मकत्वेन स्वानुरूप-कार्ये एव प्रेरकत्वात् तस्य। तथा ‘तमस् त्व् अज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्व-देहिनाम्, प्रमादालस्य-निद्राभिस् तन् निबध्नाति भारत ?’ तमो-गुणोऽज्ञान-जनितः, आज्ञानं नाम विपरीत-ज्ञानम्। यथा घटे ज्ञातव्ये कर्तव्ये वा पटं जानाति करोति वा, प्रमादो नाम—अभिलषित-वस्तुनि संपाद्यमानेऽनभिमतस्य सम्पादनम् एव, कर्तव्य-वस्तुनि अनारम्भ-रूपम् एव तन्द्रा-विशेष-लक्षणम्। पुरुषादेर् इन्द्रियादि-प्रवर्तन-श्रमानुभव-मूलकेन्द्रिय-मात्रस्योपरति-रूपैव इति। तथा ‘सत्त्वात् संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च। प्रमाद-मोहौ तमसौ भवतोऽज्ञानम् एव चेति’। तद् अत्राहुः श्री-आनन्द-भाष्यकार-जगद्-गुरवः श्रीरामानन्दाचार्याः—‘सत्त्व-रजस्-तमोभ्यः क्रमेण ज्ञान-लोभ-प्रमाद-मोहादयः समुत्पद्यन्ते’ (गीतानन्द-भाष्यम्)। [[P89]] तद् उक्तम् ईश्वर-कृष्णेनापि—‘सत्त्वं लघु-प्रकाशकम् इष्टम् उपष्टम्भकं चलं च रजः। गुरु-वरणकम् एव तमः, प्रदीपवच् चार्थतो वृत्तिः’ इति। यद्य् अपि सत्त्वादयो गुणाः परस्परं विरुद्धा ‘विवदमाना विनश्यन्त्य् एव न तु महदादि-विकारान् मिलित्वोत्पादयिष्यन्ति’, तथापि यथा अनल-वर्ति-तैल-सङ्घात-रूपः प्रदीपः परस्पर-विरुद्ध-पदार्थ-घटितोऽपि भविष्यत्-कालिकार्थ-प्रकाशन-लक्षण-पुरुषार्थम् अपेक्ष्य मिलित्वाऽर्थ-प्रकाशन-लक्षण-कार्यं करोति, तथैव परस्परं विरोध-शीला अपि गुणा भोगापवर्ग-लक्षण-पुरुषार्थम् अपेक्ष्य मिलिताः सन्तोऽभिलषित-पुरुषार्थ-भोगापवर्ग-रूपं कुर्वन्तीति सारः।

प्रकृतिर् महदादि-विकार-रूपेण स्व-विषयेण विकार-रूपेण परिणमते इति स्थितम्। तत्र वस्तु-मात्रस्य जागतिक-जडस्य प्रकृति-विकारत्वेऽपि प्रकृत्याः प्रथमो विकारः कः? इति जिज्ञासा-निवृत्तये प्राचीनैः कथितम्, प्रकृतेर् विकारेषु मध्ये प्रथमो विकारो महत्तत्त्वम्, तद् अध्यवसाय-लक्षणकम्, ‘अध्यवसायो बुद्धिर्’ इति वचनात्। तत् सात्त्विक-राजस-तामस-भेदेन त्रिविधम्। तद् उक्तम्—‘गुण-साम्यात् ततस् तस्मात् क्षेत्रज्ञाधिष्ठितान् मुने। गुण-व्यञ्जन-संभूति-सर्ग-कालं द्विजोत्तम ?’ इति। अयम् आशयः—गुणानां समवस्थातः क्षेत्रज्ञेन बद्ध-चेतनाधिष्ठितात्, अव्यक्ताद् गुणोन्मेष-कारणतया गुणाभिव्यक्ति-जननात्मकं महत्तत्त्वं समुत्पद्यते। तन् महत्तत्त्वं त्रिविधम्, सात्त्विको राजसश् चैव तामसश् च त्रिधा मतम् इति वचनात्। प्रकाश-प्रवृत्ति-मोहात्मक-कार्यानुमेय-सत्त्व-रजस्-तमो-गुण-सम्बन्धेन सात्त्विक-राजस-तामसं चेत्य् एवं तन् महत्तत्त्वं त्रिविधं भवति। तत्र ‘अध्यवसायो बुद्धिर् धर्मो ज्ञान-विराग ऐश्वर्यम्’ इति वचनात् अध्यवसायात्मक-व्यापारवत्त्वम् एव महत्तत्त्वस्य लक्षणम्। अर्थात्—सात्त्विक-राजस-तामस-बुद्धि-भेदेन त्रैविध्यम् अर्जुनाय प्राह श्रीकृष्णः—‘प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ राजसी’ अर्थात् धर्माधर्मादीनां ज्ञानं न साकल्येन किन्तु अंश-रूपेणैतेषां ज्ञानम् एव राजस-ज्ञानम् इति। तथा ‘अधर्मं धर्मम् इति या मन्यते तमसावृता। सर्वार्थान् विपरीतांश् च बुद्धिः सा पार्थ तामसी’ति सर्वत्र तद्-अभाववति तत्-प्रकारकं ज्ञानं तामसम्, यथा धर्मादिकम् अधर्मादिकम् अकर्तव्यं कर्तव्यम् इत्यादि। न केवलं महत्तत्त्वम् एव प्रकृतेर् विकारः, किन्तु महत्तत्त्वान्तरम् अहंकारो जायते, स च वैकारिक-तैजस-भूतादि-भेदेन त्रिविधः, स चाभिमान-लक्षणः। तद् उक्तम्—‘वैकारिकस् तैजसश् च भूतादिश् चैव तामसः। त्रिविधोऽयम् अहङ्कारो महत्तत्त्वाद् अजायत’ इति। अर्थात् प्रकृति-जनित-महत्तत्त्वात् वैकारिकः सात्त्विक इत्यर्थः, तैजसो भूतादिश् चेति। अत्र त्रिविधाहङ्कारेषु वैकारिकात् सात्त्विकाहङ्कारात् सत्त्व-लघु-प्रकाश-युक्तानि श्रोत्र-त्वक्-चक्षुर्-जिह्वा-घ्राणात्मकानि शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-ग्राहकाणि पञ्च-ज्ञानेन्द्रियाणि, वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि वचनादान-विहरणोत्सर्गानन्दाख्य-विषयाणि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि, तथोभयात्मकम् आन्तरं मनश् च समुत्पद्यमानानि भवन्ति। तद् उक्तम्—‘तैजसानीन्द्रियाण्य् आहुर् देवा वैकारिकाद् दश। एकादशं मनश् चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः’ इति। ‘अग्निर् वाग् भूत्वा मुखं प्राविशत्’, वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत्’, ‘आदित्यश् चक्षुर् भूत्वाऽक्षिणी प्राविशत्’, ‘दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशत्’, ‘ओषधि-वनस्पतयो लोमानि भूत्वा नाभिं प्राविशत्’, ‘चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्’, ‘मृत्युर् अपानो भूत्वा नाभिं प्राविशत्’, ‘आपो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशत्’ इत्यादि श्रुत्या इन्द्रियाणां तत्तद्-देवाधिष्ठितत्व-श्रवणेन देव-शब्द-प्रतिपाद्यान्य् एकादशेन्द्रियाणि मनः-सहितानि सात्त्विकाहङ्काराज् जातानि, राजसाहङ्कारेणेन्द्रियाणाम् उत्पत्तिर् भवति प्रवृत्ति-शीलत्वाद् इन्द्रियाणाम् इति कस्यचिन्मतम्, तन् न युक्तम्, श्रीपराशरादिभिर् इन्द्रियाणां सात्त्विकाहङ्कार-जन्यत्वस्यैव प्रतिपादनात्। तथैव श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायां जगद्-गुरु-श्रीश्रियानन्दाचार्य-निर्वचनाच् च। तथाहि—‘इन्द्रियाणि हि जातानि चाहङ्कारात् तु सात्त्विकात्। अनुग्राहकता चाथ राजसाहंकृतेर् इह। इन्द्रियाणि तन्-मात्रेषु’ इत्य् एतच्-छ्रुति-वाक्यतः। विरुद्धैवेन्द्रियाणां नन्व् अहङ्कारिकता खलुः। मैवं, लय-पदाभावाल् लयो नात्रानुसज्यते। तन्-मात्रेष्व् इन्द्रियाणां च किन्तु संसर्गितैव हि। ‘इन्द्रियाणि मनश् चापि लीयन्तेऽहंकृतौ ततः। पुराणेऽपीन्द्रियाणां हि हेतुताहङ्कृताव् इति’ (१०३) इति। इन्द्रियाणाम् एकादशत्व-कथनं समष्ट्य्-अभिप्रायेण, तद् उक्तम् आचार्य-श्रीपराशरेण—

तेषां त्व् अवयवान् सूक्ष्मान् षण्णाम् अप्य् अमितौजसाम् ।
संनिवेश्यात्म-मात्रासु सर्व-भूतानि निर्ममे’ इति ॥

अत्रेन्द्रियाणां सूक्ष्मत्व-कथनेन ‘अणवश् चेति’ सूत्र-प्रतिपादितम् अणुत्वम् इन्द्रियस्याविष्कृतम्, तथैवाहुः भाष्यकारा अपि प्रकृत-सूत्रे—‘ते हीन्द्रिय-शब्दाभिलप्याः प्राणा विभव आहोस्वित् अणव इति पूर्वः पक्षः। कुतः! ‘त एते सर्व एव समाः सर्वेऽनन्ताः’ (बृ. १.५.१३) इति श्रुतेः, इति प्राप्तेऽभिधीयते—अणवश् चेति। अणव एव प्राणाः। ‘प्राणम् अनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनुत्क्रामन्ति’ (बृ. ४.४.२) इति तेषाम् उत्क्रान्ति-श्रवणाद् अणुत्वम् एव, विभुत्वे तूत्क्रान्त्य्-असम्भवात्। प्राणानां गताव् अपि पार्श्वस्थैर् अदृश्यमानत्वाद् अणव एव प्राणाः। इन्द्रियाणां प्राप्य-कारित्वाच् चक्षुरादेर् गतिमत्त्वम् अप्य् अत्र मानम् (आनन्दभाष्यम् २.४.७)। तथा ‘आत्ममात्मासु संनिवेश्य’ इति कथनात् सर्गादौ यानीन्द्रियाणि यस्मै प्रदत्तानि तान्य् एवैन्द्रियाणि यावत् प्रलयं भवन्ति, न तु षाट्-कौशिक-शरीरवत् प्रतिजन्मनि विभिन्नानि भवन्तीति। तथोक्तं भगवता—

शरीरं यद् अवाप्नोति यच् चाप्य् उत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर् गन्धान् इवाशयात् ॥ इति ।

सात्त्विकाहङ्कारेणेन्द्रियाणां सर्गो भवति, तदनन्तरं तामसाहङ्कारेण भूतादि-पद-वाच्येन आकाशः-तन्-मात्रं जायते, शब्द-तन्-मात्रेण महाकाशः स्पर्श-तन्-मात्रं च जायते, स्पर्श-तन्-मात्रेण महा-वायु-तेजस्-तन्-मात्रम् उत्पद्यते, तेजस्-तन्-मात्रेण महत्-तेजो-रस-तन्-मात्रं च समुत्पद्यते, रस-तन्-मात्रेण महज्-जलं पृथिवी-तन्-मात्रं चोत्पद्यते, पृथिवी-तन्-मात्रेण सर्वाधार-भूता महा-पृथिवी भवति, पृथिव्यां चतुर्दश-लोका ओषधि-वनस्पतयश् च समुत्पद्यन्ते। इत्थम् अत्रोत्पत्ति-क्रमः। भूतादेस् तामसाहङ्कारात्, शब्द-तन्-मात्रं समुत्पद्यते, तं भूतादिर् अहंकार आवृणोति, ततो महाकाशस्योत्पत्तिर् भवति, ततोऽस्मात् स्पर्श-तन्-मात्रम् उत्पद्यते, शब्द-तन्-मात्रम् आवृणोति। एवं शब्द-तन्-मात्रावृताकाश-सहायकात् स्पर्श-तन्-मात्राद् वायोर् उत्पत्तिर् भवति, ततोऽस्माद् रूप-तन्-मात्रं जायते, रूप-तन्-मात्रं स्पर्श-तन्-मात्रम् आवृणोति, एवं स्पर्श-तन्-मात्रावृताद् वायु-सहायकात् रूप-तन्-मात्रात् तेजो जायते, तस्माद् रस-तन्-मात्रं तं रूप-तन्-मात्रम् आवृणोति। रस-तन्-मात्रं रूप-तन्-मात्राद् गन्ध-तन्-मात्रं जायते, रस-तन्-मात्रम् आवृणोति, रस-तन्-मात्रावृत-जल-सहायकाद् गन्ध-तन्-मात्रात् पृथिवी जायते इति प्रक्रमः।

नन्व् अवगतोऽभिमान-लक्षणको गगनादि-जनकोऽहङ्कारः। अवगतश् च भूताकाशादिः, परन् त्व् अनयोर् मध्ये समागतम् इदं तन्-मात्र-नामकं वस्तु किम् इति चेद् अत्रोच्यते—‘तामसाहंक्रिया-कार्यं भूतोपादान-कारणम्। द्रव्यं तन्-मात्र-संज्ञं तद् अनुद्भूत-गुणाश्रयः’ इत्याचार्योक्तेर् अनुद्भूत-गुणाश्रयत्व-रूपा भूतानाम् आकाशादीनां येयं सूक्ष्मावस्था सैवाकाशादि-तन्-मात्र-पद-वाच्येति विजानीहि। सूक्ष्मावस्थं भूतम् एव तन्-मात्र-पद-वाच्यं, तत [[P92]] एव व्यवहार-प्रवर्तकाकाशादि-पृथिव्य्-अन्त-महा-भूतस्योत्पत्तिर् भवतीति महा-भूत-जनकाहङ्कार-व्यतिरिक्त-वस्तु-विशेष एव तन्-मात्र-पद-वाच्यो भवतीति संक्षेपः।

यद्य् अपि यथा सात्त्विकाहङ्कारस्येन्द्रिय-सर्गः स्वतन्त्रं कार्यं, यथा वा तामसाहङ्कारस्य स्वतन्त्रं कार्यं भूत-सर्गस्, तथा राजसाहङ्कारस्य स्वतन्त्रं कार्यान्तरं नास्ति, तथापि सात्त्विक-तामसाहङ्काराभ्यां स्व-स्व-कार्ये समुत्पादनीये राजसाहङ्कारः सहकारी भवति। रजसो हि प्रवर्तकत्वेन प्रसिद्धिर् अत इन्द्रिय-कारण-सत्त्वांशस्य भूत-कारण-तमोंशस्य च सदा-चलन-स्वभावकेन रजो-गुणेन प्रेरकेन प्रवर्तनं भवति। अर्थात् गुणान्तरस्य प्रवृत्ति-रहिततया रजसा प्रवर्तितं सत् स्वस्य कार्यं करोति। यथा घटोत्पादने मृदः सहकारि-जलादिकं भवति। तथैव ताभ्यां तत्-तत्-कार्योत्पादयितव्ये रजो-गुणः सहकारी भवन् सार्थको भवति स्वतन्त्र-कार्याभावेऽपीति ध्येयम्।

सात्त्विकोऽहङ्कारः शब्द-तन्-मात्रादि-पञ्चकं सहकारिणं प्राप्य श्रोत्र-त्वक्-चक्षू-रसना-घ्राणाख्यानि पञ्च-ज्ञानेन्द्रियाणि तथा वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थाख्यानि पञ्च-कर्मेन्द्रियाणि च जनयति। तथा स स्वयम् एवान्तःकरणं मनो-बुद्धि-चित्त-रूपं सृजतीति केचन, अन्ये तु आकाशादि-भूतानाम् एव कार्याणि इन्द्रियाणि। अर्थात् न्याय-विद् एवं कथयन्ति यत् घ्राणादिकानीन्द्रियाणि पृथिव्यादि-भूत-कार्याणि, अत एव तानीन्द्रियाणि भौतिकानीत्य् उच्यन्ते, तत्र श्रुतिर् एव प्रमाणम्, तथाहि—‘अन्नमयं हि सौम्य मन, आपोमयः प्राणस्, तेजोमयी वाग्’ इति। अतो नाहङ्कार-प्रभवाणीन्द्रियाणीति। मोक्ष-धर्मेऽपि—

‘शब्दः श्रोत्रं तथा खादि-त्रयम् आकाश-संभवम् ।
वायोः स्पर्शस् तथा चेष्टा त्वक् चैव त्रितयं स्मृतम् ॥
रूपं चक्षुस् तथा व्यक्तिस् त्रितयं तेज उच्यते ।
रसः क्लेदश् च जिह्वा च त्रयो जल-गुणाः स्मृताः ॥
घ्राणं घ्रेयं शरीरं च ते तु भूमि-गुणाः स्मृताः’ इति ।

इत्य् उपर्युक्त-प्रकारेणेन्द्रियादिनां भूत-कार्यतया प्रतिपादनेनाहङ्कार-कार्यत्व-कथनं विरुद्धम् इवाभातीति चेन् न, भावानवबोधात्। अयम् आशयः—इन्द्रियाणि तु अनेक-प्रमाण-युक्ति-तर्कादि-बलेन सात्त्विकाहङ्कार-कार्यम् इति व्यवस्थापितम्। यत्र [[P93]] क्वचन भूत-कार्यत्व-कथनं न तत्-कार्यत्वाभिप्रायेण किन्तु पोषकत्वाभिप्रायेण। अर्थात् इन्द्रियोत्पत्तिस् त्व् अहङ्कारात्, उत्पन्नं सत् भूतेनाप्यायितं पुष्टं भवति, ततश् चेन्द्रिय-पोषकत्वं भूतानां न तूत्पादकत्वम्। अत एव छान्दोग्यस्य षष्ठाध्याये उद्दालकेन कथितम्—पञ्च-दशाहानि उपोषणं कुरु, ततस् ते ब्रह्मोपदेक्ष्यामि। तथा कृत्वा यदा श्वेतकेतुर् आगतस् तदा पित्रोक्तं—‘वेदान् पठ’। ततः श्वेतकेतुर् उवाच—नेमे वेदाः प्रतिभान्ति। ततः पित्रोक्तम्—‘अन्नमयं सोम्य मनः’ इत्यादि। अर्थात् हे पुत्र? यदिदं मनस् तद् अन्न-भक्षणेन पुष्टं सत् विचारादि-करणे प्रभवति, तद्-अभावे दुर्बलं सत् किम् अपि कर्तुं न शक्नोति। इति छान्दोग्यीय-प्रकरण-पर्यालोचनेनेदम् आयाति यद् उत्पद्यते इन्द्रियम् अन्यस्मात्, उत्पन्नं सद् अन्नादिना आप्यायितं भवन् कार्याय पर्याप्तं भवति। आप्यायकत्वं नाम पोषकत्वम् एव, ततश् च पृथिव्यादीनि पोषकाणि न तु इन्द्रियाणाम् उत्पादकानीति संक्षेपः। विस्तरस् तु पूर्वाचार्यादि-दिव्य-प्रबन्धेभ्य आकर-ग्रन्थेभ्यश् चानुसन्धेयो विशेषार्थिभिः। अनेनोपर्युक्त-प्रकारेण महदादि-भौतिकान्त-पदार्थानां सृष्टि-प्रकारः प्रदर्शितः, परन्तु यावत् पर्यन्तम् एते मिलिताः परस्परं सापेक्षा न भवेयुस् तावत् पर्यन्तं न किम् अपि स्यात्, तद् उक्तम्—‘नाना-वीर्याः पृथग्-भूतास् ततस् ते संहतिं विना। नाशक्नुवन् प्रजाः स्रष्टुम् असमागम्य कृत्स्नशः॥’ इतीश्वरः परस्परासंहतान् तान् सर्वान् मेलयित्वा ब्रह्माण्डम् उत्पादयति। यथा कश्चिद् गृह-निर्माता यतस् ततः शुष्क-मृत्तिकां बालुका-जलादिकं समाहृत्य सर्वान् मेलयित्वा तद् एकं कृत्वा भित्यादिकं निर्माय प्रासादं करोति, तथैव सर्व-शक्तिमान् परमेश्वरो महदादिकान् सर्वान् मेलयित्वा मिलितैर् महदादिभिर् एकं ब्रह्माण्डम् उत्पादयति।

‘समेत्यान्योन्य-संयोगं परस्पर-समाश्रया ।
एक-संघात-लक्षाश् च संप्राप्यैकम् अशेषतः ॥
महद्-आदि-विशेषान्ता ह्य् अण्डम् उत्पादयन्ति ते ।’

इति वचनेनैतत् सर्वं महदादिकं परस्परम् एकी-कृत्य तैर् ब्रह्माण्ड-सर्गं करोति परेशः श्रीरामः। कुतः? अण्ड-मध्ये महदादि-सर्व-तत्त्वानां समावेश-दर्शनेन महदादि-सर्व-पदार्थान् एकी-कृत्याण्ड-सृष्टिम् अकरोद् इत्यर्थः। अत एवोक्तम्—‘भूतेभ्योऽण्डं महा-बुद्धे बृहत् तद् उदके शयम्’ इति। भूतेभ्यो जातम् अण्डं कियत् कालं जलेऽवतिष्ठते इत्यर्थः। मनुरप्य् आह—[[P94]]

‘ततः स्वयंभूर् भगवान् सिसृक्षुर् विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्ज् आदौ तासु बीजम् अवासृजत् ॥
तद् अण्डम् अभवद् धैमं सहस्रांशु-सम-प्रभम्’ इति ।

इत्य् एवं सर्वप्रथमं जलेभ्यो ब्रह्माण्डस्योत्पत्तिर् अभवद् इति मनोर् वचनम्। अर्थात् भूतान्तर-संसृष्ट-पृथिवी-भागाज् जलाद् अण्डस्योत्पत्तिस् तथा तस्मिन्न् एव जले कियत्-काल-पर्यन्तं तद् अवस्थानम् इति।

पूर्वोक्त-क्रमेण परमेश्वर-निर्मित-ब्रह्माण्ड-सर्ग-प्रकारं प्रदर्श्य तेषां बाह्य-भूतानाम् आकाशादीनाम् आन्तर्-आकाश-समीरणादि-स्वरूपेणान्तर-लोकादि-विभागं तथा तेषु चतुर्दश-लोकेषु मध्ये देव-मनुष्यादि-विभागं च दर्शयितुम् अण्डान्तर्गत-बद्ध-जीव-समष्टि-स्वरूपं चतुर्मुख-ब्रह्मणः सर्गो भवति। अर्थात् ब्रह्माण्ड-सर्गानन्तरं तद्-अधिष्ठायकं जीव-घनात्मकं चतुर्मुखं सृजति परमेश्वरः स्वयम् एव, अर्थात् महदादि-समुदाय-रूपम् अण्डात्मक-कार्यं तत्-करणानि महदादि-पदार्थान् सत्य-सङ्कल्पवान् परमेश्वर-सङ्कल्पाव्यवहितोत्तर-काले एव सृजति। तद् उक्तम्—

‘सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर् विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्ज् आदौ तासु बीजम् अवासृजत् ॥
तद् अण्डम् अभवद् धैमं सहस्रांशु-सम-प्रभम्’ इति ।

ईश्वर-सृष्टान्तर्गत-पदार्थात् चतुर्मुखस्यान्तर्यामी भवन् अर्थात् चतुर्मुख-हृदये स्थित्वा ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर् ज्ञानम् अपोहनं च’ इति सङ्कल्प-ज्ञानादीन् समुत्पाद्य तद्-अण्डान्तर्गत-सकल-पदार्थान् समुत्पादयति, तथोक्तम्—‘यत् किञ्चित् सृज्यते येन सत्त्व-जातेन वै द्विज? तस्य सृज्यस्य संभूतौ तत् सर्वं वै हरेस् तनुः’। तत्र अण्ड-तत्-कारण-महदादिकं चतुर्मुखं च स्वयम् उत्पादयति, तद्-अन्तर्गत-पदार्थास् तु चतुर्मुखान्तर्यामी भूत्वा सत्य-सङ्कल्पेन सृजति। तत्र चतुर्मुखान्तः-सृष्टौ साक्षात् कारणम् ईश्वरः, अण्डान्तर्गत-पदार्थोत्पादने च चतुर्मुख-द्वारा कारणम् इति भावः।

‘पञ्चीकृतैश् च भूतैश् च रामश् चाण्डं ससर्ज हि ।
अण्डोत्पादनतः पूर्वा सृष्टिः समष्टि-नामिका ॥
श्रीरामेण कृता पश्चात् सृष्टिस् तु व्यष्टि-संज्ञका ।
अद्वारिका समष्टिश् च व्यष्टिः सद्वारिका मता ॥’ [[P95]]

इति श्रौत-प्रमेय-चन्द्रिकायाम् आचार्योक्तः।

अथ यद् इदम् अण्डं परमेश्वरेणोत्पादितं तद् एकम् अनेकं वेति संशयेऽनेकान्य् एव तान्य् अण्डानि भूरादि-चतुर्दश-लोक-संस्थान-रूपाणि यथोत्तरं दश-गुणोत्तरैर् आवरणैः सप्त-संख्याकैर् आवृतानि, तस्य लीलोपकरणानि जल-बुद्बुदवद् भगवज्-जातानि। ‘अण्डानां तु सहस्राणां सहस्राण्य् अयुतानि च। ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि-शतानि च।’ इति वचनात् चतुर्दश-लोक-युक्तानि, तत्र चतुर्दश-लोकाश् चाण्ड-कपालस्योर्ध्व-देशेऽशीति-लक्ष-योजनोच्छ्राय-वन्तः, गर्तोदकस्योपरितु—

‘सप्ततिस् तु सहस्राणि द्विजोच्छ्रायोऽपि कथ्यते ।
दश-साहस्रम् एकैक-पातालं मुनि-सत्तम ॥
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत् ।
महाश् च सुतलं चाग्र्यं पाताले चैव सप्तमः’ इति ।

इत्य् एवं तत्-प्रत्येकं दश-सहस्र-योजनोच्छ्राय-वन्तो दैत्यादीनां निवेश-देशः। तथा—‘शुक्ल-कृष्णार्णाः पीताः शर्कराः शैल-काञ्चनाः। भूमयो यत्र मैत्रेय? वर-प्रसाद-शोभिताः।’ इति वचनेन शुक्लादि-वालुका-प्रायाविलक्षणा-देव-नगरेभ्योऽप्य् उत्कृष्टा दैत्य-भोग-भोग्यातलादिकाधोऽधो-विद्यमानाः सप्त-लोकाः। तेषाम् उपरि नव-सहस्र-योजन-विस्तृतः सप्त-द्वीप-पर्वत-सागर-विशिष्टः पद्भ्यां चरण-शील-मनुष्य-प्रभृतिभिर् युक्तो कमल-कोरक-सदृशो भूर्-लोकः, ततो भूर्-लोकस्योपरि सूर्यस्यार्ध-लक्ष-योजन-परिमितो गन्धर्व-प्रभृतिर् आकुलो देश-विशेषो भुवर्-लोकः। ततः सूर्य-संचरण-देशाद् उपरि ध्रुव-लोकस्य नीचैश् चतुर्दश-लक्ष-योजन-विस्तृतः स्वकीयाधिकारे विनियुक्त-शुक्रादि-ग्रह-रोहिण्यादि-नक्षत्र-प्रभृतिभिर् आराधिते देश-विशेषः स्वर्-लोकः, ततो ध्रुव-लोकस्योपरिष्टात् कोटि-योजनोच्छ्रायः। ‘विनिवृत्ताधिकारास तु महर्-लोक-निवासिनः’ इति वचनात् विनिवृत्ताधिकारवद्भिः परन्तु स्वकीयाधिकारापेक्षा-शालिभिर् इन्द्रियम् आदिभिर् देवैः संकुलितो देश-विशेषो नाम महर्-लोकः। महर्-लोकाद् उपरिष्टात् कोटि-द्वय-योजनोच्छ्रितश् च तुर्मुख-ब्रह्म-पुत्र-सनक-सनन्दन-सनातनादिभिर् बाल्याद् एव परम-योगिभिः सदा पञ्च-वार्षिकावस्थावद्भिर् अध्यासितो देश-विशेषो जन-लोकेति नामतः प्रथितो भवति, ततो जन-लोकाद् उपरि देशेऽष्ट-कोटि-योजन-विस्तृतो वैराज-नामक-प्रजापतिभिर् अधिष्ठितो लोक-विशेषस् तपो-लोकः, ततस् तपो-लोकाद् उपरि भागेऽष्ट-चत्वारिंशत् कोटि-योजन्-नोच्छ्रितः सत्य-लोकः—

‘तेषाम् एषां केचन ब्रह्म-लोकाः। रुद्रस्यान्ये सन्ति तत्रैव लोकाः॥ तांस् तांल्-लोकान् तान् उपास्य व्रजन्ति’ इति वचन-प्रामाण्येन ब्रह्म-विष्णु-शिवानुपास्य प्राप्तैर् अध्यासितो देश-विशेष एव सत्य-लोकः। एवम् ऊर्ध्वाधः कटाहयोर् अन्तरालेऽष्ट-षष्टि-योजनोच्छ्रितः पञ्चाशत्-कोटि-योजनोऽण्डस्योच्छ्राय इत्य् अपि वदन्ति। तत्र ‘सूर्याण्ड-गोलयोर् मध्ये कोसः स्युः पञ्च-विंशतिर्’ इति वचनात् सूर्यस्योपरि देशे पञ्च-विंशति-कोटि-योजनान्य्, अधस्तात् पञ्च-विंशति-कोटि-योजनानि च भवन्तीति। एवं प्रकारेणोपर्युक्तैश् चतुर्दश-भूरादि-लोकैर् युक्तानि, उत्तरोत्तरं दश-गुणितैः सप्तभिर् आवृतानीति।

पूर्वोक्त-चतुर्दश-लोकान् ‘एतद् अण्ड-कटाहेन तिरश्चोर्ध्वम् अधस् तथा। कपित्थस्य यथा बीजं सर्वतो वै समावृतम्’ इत्य् उक्त-प्रकारेण यथा कपित्थस्य फल-विशेषस्य बिल्व-फलस्य वा बीजादिकं कपित्थादि-त्वचा यथा सर्वत आवृतं भवति तथा ‘कोटि-योजन-मानस् तु कटाहः संव्यवस्थित’ इति कोटि-योजन-प्रमाणवत्तया स एवोक्तोऽण्ड-कटाह आवृणोति चतुर्दश-भुवनम्। साण्ड-कटाहं चेदं ब्रह्माण्डम् ‘दशोत्तरेण पयसा मैत्रेयाण्डं च तद् वृतम्’ इति वचन-प्रकारेण स्वापेक्षया दश-गुणित-विस्तार-युक्त-जल-त्वेनावृतं समास्ति।

पञ्चाशत्-कोटि-विस्तीर्णा सेयम् उर्वी महामुने। सहैवाण्ड-कपालेन स-द्वीपाब्धि-महीधरा। इति वचनेन साण्ड-कटाहम् अण्डं पञ्चाशत्-कोटि-विस्तीर्णम् इति केचन वदन्ति। भूमण्डलं शत-कोटि-विस्तारं साण्ड-कटाहम् इति वराह-पुराणे। एवं शिव-पुराणे स्कन्द-पुराणे स-विस्तरं दर्शितं, तत एव द्रष्टव्यं विशेष-जिज्ञासुभिः। कनकाचलस्य मेरु-पर्वतश् चतुर्दिक्षु पञ्चाशत्-कोटि-विस्तारं स्वीकृत्य भूमिं शत-कोटि-विस्तृतां वदन्ति। अत्र यां काम् अपि मर्यादां अवलम्व्य ततो दश-गुणेन जल-तत्त्वेनावृतम् इति केचित्। एवं दशाधिकेन तेजस्-तत्त्वेन जल-तत्त्वम् आवृतं भवति, तथा दशाधिकं वायु-तत्त्वं तेजस्-तत्त्वम् आवृणोति, तथा दशाधिकं वायु-तत्त्वम् आकाशम् आवृणोति, आकाश-तत्त्वं दशाधिकोऽहङ्कार आवृणोति, अहङ्कारं दशाधिकं महत्तत्त्वम् आवृणोति, तादृशं महत्तत्त्वं दशाधिकम् अव्यक्तम् आवृणोति, यद्य् अपि तद्-अनन्तरम् असंख्यात-प्रमाणम्, अर्थात् असंख्यात-प्रमाणकम् अव्यक्तम् इति दशोत्तर-कथनम् अयुक्तम् इवाभाति, अपरिमित-प्रमाणस्याव्यक्तस्यावरणत्व-प्रयुक्तं दशोत्तरत्वं न संभवति, तथापि सहस्रे दशवत् [[P97]] अपरिमित-संख्यायां तस्यापिसत्वे नोपपत्ति-संभवात्।

वारि-वह्न्य्-अनिलाकाशैस् ततो भूतादिना बहिः ।
वृत्तं दश-गुणैर् अण्डं भूतादिर् महता तथा ॥
अव्यक्तेनावृतो ब्रह्मन् तैः सर्वैः सहितो महान् ।
एभिर् आवरणैर् अण्डं सप्तभिः प्राकृतैर् वृतम् ॥

इति वचन-प्रमाणेण दशोत्तर-सप्तावरणैर् एवावृतं ब्रह्माण्ड-गोलकम् इति भावः।

एतज् जगत् परमेश्वर-श्रीरामस्य लीलोपकरणम् इवोपकरणं यथा कश्चिद् बालको लीला-सक्तस् तस्य कन्दुकादीनि क्रीडोपकरणानि तथा इदं सर्वं भू-मण्डलं परमेश्वर-श्रीरामस्य लीलोपकरणम्। तद् उक्तम्—‘हरे विहरसि क्रीडां कन्दुकैर् इव जन्तुभिः’ इति। तथा ‘मोदते भगवान् भूतैर् बालः क्रीडनकैर् इवेति’। तानि ब्रह्माण्डान्य् अनेकान्य् एक-काले एव जल-बुद्बुदवत् सम्पादितानि, न त्व् एकं न वा क्रमेणोत्पादितानि। अपि त्व् एक-काल एवानेकान्य् उत्पादितानि, तथोक्तम्—‘न क्रमेण विवृद्धं तज्-जल-बुद्बुदवत् सम्मिति’। यथा वर्षा-समये जल-राशि-महा-तडागादौ युगपद् अनेकानि बुद्बुदानि जायन्ते न तेषां क्रमः, किन्तु समान-कालिकत्वं, तथैव युगपद् एव सहस्रोऽण्डानि ब्रह्मणा निर्मितानीति। तद् उक्तम् उदयनाचार्येण—‘अलावूल-तावत् परमेश्वर-शक्ति-लतायां सहस्रशोऽण्डानि अनुस्यूतानि’ इति। उक्त-प्रकारेण ब्रह्माण्डस्य महद्-आदि-तत्त्वेनोत्पत्तिर् भवतीति वर्णितम्, एवं यथा एकः कुलालो दश वा शतं वा घटम् उत्पादयति तथैव परमेश्वरोऽपि द्वित्राण्य् एव तान्य् अण्डानि स्रक्ष्यतीति न वक्तव्यम्, परमेश्वरस्यापरिमित-शक्तितया सत्य-सङ्कल्पेन सर्व-संभवात्। तद् इदं ‘पादोऽस्येहाभवत् पुनः’ (ऋग्वेदः) इत्य् उक्त-दिशा प्रकृति-मण्डल-निदर्शनम् इति दिक्।

‘त्रिपाद् ऊर्ध्व उदैत् पुरुषः’ इति निर्देश-दिशा परेश-श्रीरामाभिन्न-त्रिपाद्-विभूतिस् तु—

‘पुरं तो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ।
यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनावृतां पुरम् ।
तस्मै ब्रह्म च ब्रह्माश् च चक्षुः प्राणं प्रजां ददुः ।
नवै तं चक्षुर् जहाति न प्राणो जरसः पुरा ।
(पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते।) [[P98]] अष्टा-चक्रा नव-द्वारा देवानां पूर् अयोध्या ।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ॥
तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रि-प्रतिष्ठिते ।
तस्मिन् यद् यक्षम् आत्मन्वत् तद् वै ब्रह्म-विदो विदुः ॥
प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा सम्परीवृताम् ।
पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजितम्।’

(अथर्ववेदे १०.२.२८ तः ३३) तथा

‘अयोध्या नन्दिनी सत्या नामा साकेत इत्य् अपि ।
कोसला राजधानी च ब्रह्म-पूर् अपराजिता ॥
अष्ट-चक्रा नव-द्वारा नगरी धर्म-सम्पदाम् ।
दृष्ट्वा ज्ञान-नेत्रेण ध्यातव्या सरयूस् तथा ॥’ (शिव-संहिता ५.२०.१५-१६)
भोग-स्थानं पराऽयोध्या लीला-स्थानं त्व् इयं भुवि ।
भोग-लीलावती राम्रो निरङ्कुश-विभूतिकः ॥ (शि.सं. ५.२.८)
‘ब्रह्म-ज्योतिर् अयोध्यायाः प्रथमावरणे शुभम् ।
यत्र गच्छन्ति कैवल्याः सोऽहम् अस्मीति वादिनः ॥’ (वशिष्ठ-संहिता २६.१)
‘अयोध्या-नगरी नित्या सच्चिदानन्द-रूपिणी ।
यस्यांशांशेन वैकुण्ठो गोलोकादिः प्रतिष्ठितः ॥
यत्र श्री-सरयूर् नित्या प्रेम-वारि-प्रवाहिणी ।
यस्या अंशेन सम्भूता विरजादि-सरिद्-द्वाराः ॥’ (व.सं.)
‘साकेतके पुर-द्वारे सरयूः केलि-कारिणी’ (बृहद्-ब्रह्म-संहिता ३.१.८९)
‘अयोध्या-नगरे रम्ये रत्न-मण्डप-मध्यगे ।
स्मरेत् कल्प-तरोर् मूले रत्न-सिंहासनं शुभम् ॥
तन्-मध्येऽष्ट-दलं पद्मं नाना-रत्नैश् च वेष्टितम् ।
रामं रघु-वरं वीरं धनुर्-वेद-विशारदम् ।
मङ्गलायतनं देवं रामं राजीव-लोचनम् ॥’
(सनत्कुमार-संहितास्थः श्रीराम-स्तवराजः)

[[P99]]

‘यायोध्या पूः सा सर्व-वैकुण्ठानाम् एव मूलाधारा मूल-प्रकृतेः परा, तत् सद्-ब्रह्ममयी विरजोत्तरा दिव्य-रत्न-कोशाढ्या, तस्यां नित्यम् एव सीतारामयोर् विहार-स्थलम् अस्ति’ (श्रुतिः) ‘तद् विष्णोः परमं धाम यान्ति ब्रह्म-सुख-प्रदम् ।
नाना-जनपदाकीर्णं वैकुण्ठं तद् धरेः पदम् ॥
प्राकारैश् च विमानैश् च सौधै रत्न-मयैर् वृतम् ।
तन्-मध्ये नगरी दिव्या सायोध्येति प्रकीर्तिता ॥
मणि-काञ्चन-चित्राढ्य-प्राकारैस् तोरणैर् वृता ।
मध्ये तु मण्डपं दिव्यं राजस्थानं महोच्छ्रयम् ॥
मध्ये सिंहासनं रम्यं सर्व-वेद-मयं शुभम् ।
धर्माद्यैर् देवतैर् नित्यैर् वृतं पादमयात्मकैः ॥
धर्म-ज्ञान-महैश्वर्य-वैराग्यैः पाद-विग्रहैः ।
ऋग्-यजुः-सामाथर्वाख्य-रूपैर् नित्यं वृतं क्रमात् ॥
शक्तिर् आधार-शक्तिश् च चिच्-छक्तिश् च सदाशिवा ।
धर्मादि-देवतानां च शक्तयः परिकीर्तिताः ॥
तन्-मध्येऽष्ट-दलं पद्मम् उदयार्क-सम-प्रभम् ।
तन्-मध्ये कणिकायां तु सावित्र्यां शुभ-दर्शने ॥
ईश्वर्या सह देवेशस् तत्रासीनः परः पुमान् ।
इन्दीवर-दल-श्यामः कोटि-सूर्य-प्रकाशवान् ॥
युवा कुमारः स्निग्धश् च कोमलावयवैर् वृतः ।
फुल्ल-रक्ताम्बुज-निभः कोमलाङ्घ्रि-सरोजवान्।’

(पद्म-पुराणोत्तर-खण्डे २२८.१०-तः १२ तथा १९ तः २३, २६ तः २८) इत्यादि-श्रुति-स्मृति-पुराण-संहितादि-ग्रन्थतस् तथा जगद्-गुरु-श्रीरामेश्वरानन्दाचार्य-सारस्वत-सार्वभौम-प्रसादितः श्रीराम-प्राप्ति-पद्धतिस्थः—

श्रीमद्-रामस्य सङ्कल्पाद् दिव्य-देहो भवत्य् असौ ।
काल-काल्येतरे दिव्ये देशे प्राप्तो भवत्य् अथ ॥
सरस्य् ऐरमदीयेऽथ दिव्ये स्नानं करोति सः ।

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