आनन्द-भाष्य-परिचयः

(श्री-वैष्णव-मताब्ज-भास्कर-प्रस्तावात्)

卐 श्रीआनन्दभाष्य 卐

अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के प्रथम व्याख्याता भगवान् श्रीबोधायन श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी जो श्रीसम्प्रदाय के नववें आचार्य हैं के वृत्ति ग्रन्थ में प्रतिपादित सत् सिद्धान्त श्रौतविशिष्टाद्वैतमंत का भाष्य ग्रन्थ द्वारा विशिष्ट प्रचारक एवं प्रसारक प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का समय १३५६-१५३२ है जो भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लिये विशिष्ट संकटापन्न काल था। जिसकी झांकी श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का इतिहास, देशिकपरिचर्या, श्रीसम्प्रदाय दिग्दर्शन, आचार्यपरिचर्या आचार्यमङ्गलध्वज महामहोपाध्याय जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी का स्मृतिग्रन्थ, श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय एवं जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी तथा विजयपताका श्रीशेषमठ-शींगडा, श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की पूर्व परम्परा का सांस्कृति कपक्ष, प्रभृति में झांकी जा सकती है। जगदाचार्यजी ने भारतीय सद्धर्म के स्वरूप को स्थायित्व प्रदान करने के लिये [[P23]] प्रस्थानत्रयां ब्रह्मसूत्र उपनिषदों एवं गीता में प्रसन्न प्रसाद गम्भीर भाष्यों की रचना की। ‘तद्गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेशप्राज्ञवत् ब्र.सू. २/३/३०।’ इस शास्त्र के निर्देशानुसार ‘आनन्दभाष्य’ नाम रखा। इस नामाभिधानानुसार ही ‘आनन्दो ब्रह्म व्यजानात् ‘आनन्दा ह्येवखल्विमानि भूतानि जायन्ते’ आनन्देन जातानि जीवन्ति आनन्दं प्रत्यभिसंविशन्ति’ इत्यादि श्रुतियाँ संगत होतीं हैं। अतः भगवान् भाष्यकारजी ने अपने व्याख्यानों का नाम आनन्दभाष्य के रूपमें प्रसिद्ध कर सर्वसाधकजनों को परमपद पथिक बनने के लिये सुगममार्ग का प्रदर्शन श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर द्वारा किये जो आनन्दभाष्यों का सारतत्व हैं। जिसमें मानव मात्र के लिए श्रीरामप्रपत्ति स्वीकार कर परमपद श्रीसाकेताधीशजी का कैङ्कर्य प्राप्त करने की आज्ञा प्रदान की गई है।

‘सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ताः पदयोर्जगत्प्रभोः ।
अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापिकालो न च शुद्धातापि वै ॥’

श्रीवै.म.भा. ४।५० भास्कर के पूर्णरहस्यों को जानने के लिये मेरी प्रभा एवं किरण टीका का स्वाध्याय करें।

भगवान् बादरायण व्यास प्रणीत ब्रह्मसूत्रों की संख्या एवं अधिकरणों के विषयों में भी भाष्यकार आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। श्रीशङ्कराचार्यजी के मत में सूत्र संख्या ५५५ एवं अधिकरण संख्या १९९ है। श्रीरामानुजाचार्यजी के मत में सूत्र संख्या ५४५ तथा अधिकरण संख्या १६० है। श्रीमाध्वाचार्यजी के मत में सूत्र संख्या ५६४ और अधिकरण संख्या २२३ है। श्रीनिम्बार्काचार्यजी के मत में सूत्र संख्या ५४९ तथा अधिकरण संख्या १६१ है। श्रीविष्णु स्वामी आचार्यजी के मत में सूत्र संख्या ५५४ और अधिकरण संख्या १७१ है। पर श्रीबोधायनीयवृत्ति के अनुयायी जगदाचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी के सर्वशास्त्र सामञ्जस्य मतानुसार सूत्र संख्या ५५१ है जैसा कि अध्याय १-३२+३३+४३+२९=१३७। अध्याय २-३६+४५+५३+२१=१५५। अध्याय ३-२७+४१+६४+५१=१८३। अध्याय ४-१९+२०+१५+२२=७६। तथैव अधिकरण संख्या १६० है जैसे कि अ. १-११+७+१२+८=३८। अ. २-१०+८+९+९=३६। अ. ३-६+८+२५+१५=५४। अ. ४-११+१०+५+६=३२।

ब्रह्मसूत्रों में चार अध्याय है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। उन पादों में वर्णित अतिसूक्ष्म विषय इसप्रकार है—१-१ पाद में अस्पष्टतर जीवों के स्वरूप का विचार है। २-पाद में पुनः अस्पष्ट जीवों के विषय में चर्चा है। ३-पाद में स्पष्ट जीवादि के स्वरूप की चर्चा है। ४-पाद में स्पष्टतर जीवादि विषय में चर्चा है। २-१ पाद में सांख्यादि स्मृति विरोध एवं न्यायशास्त्र विरोध का परिहार है। २-पाद में सांख्यादि अनुकूल तर्कों का वेदवेदान्तानुसारि सत् [[P24]] तर्कों द्वारा निराकरण है। ३-पाद में वियदादिकों का कार्यत्व का समर्थन है। ४-पाद में इन्द्रियादिकों का कार्यत्व निरूपण है। ३-१ पाद में ब्रह्म की उपासना विषयक इच्छा निरूपण के लिए जागर आदि अवस्थाश्रय जीव के दोषों का निरूपण है। २-पाद में परम पुरुष श्रीरामजी का उभयलिङ्गत्व का निरूपण है। ३ पाद में ब्रह्म के उपासनात्मक भेदों का निरूपण है। ४-पाद में उपासना का वर्णाश्रम धर्म के साथ सामञ्जस्य का प्रतिपादन है। ४-१ पाद में श्रीरामोपासना के फल प्रतिपादन के लिए उपासना के फल निरूपणपूर्वक ब्रह्मोपासना का प्रकार एवं विद्या के माहात्म्य का भी विवेचन किया गया है। २-पाद में श्रीरामोपासकों का परधाम श्रीसाकेत में जाने के प्रकार का निरूपण है। ३-पाद में अचिरादिमार्ग का साङ्गोपाङ्ग वर्णन कर अचिरा दिमार्ग से ही श्रीरामोपासकों का श्रीरामधाम प्राप्ति का वर्णन है। ४-पाद में अचिरादिमार्ग से श्रीसाकेत-ब्रह्मलोक गये मुक्त जीवों का श्रीरामसायुज्य प्राप्तिरूप मोक्ष का प्रतिपादन है।

तो भगवान् भाष्यकारजी के मत का स्वरूप को संक्षेप में यों समझा जा सकता है जगद्‌गुरुजी ने श्रीरामशरणागति-प्रपत्ति एवं अनन्याभक्ति को मोक्ष-सायुज्य मुक्ति का कारण माना है। परब्रह्म श्रीरामजी को जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण माना है। जीवों का परस्पर भेद एवं नानात्व स्वीकारा है। एवं जीवों का स्वरूपतः अणुत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व और नित्यत्व माना है तथा जीवों का ब्रह्म से भेद माना है। विद्या में उपकारिका वर्णाश्रम व्यवस्था स्वीकार किया है। विवर्त वाद मायावाद प्रतिबिम्बवादों का असकृत् प्रत्याख्यान किया है। नारदपञ्चरात्र आदि आगम शास्त्र का सम्पूर्णतया प्रमाण माना है। निविशेष ब्रह्मवाद का श्रुति-स्मृति प्रामाण्य पुरस्सर अनेकवार अनेक स्थलों पर निराकरण कर सर्वशास्त्र सम्मत सविशेषवाद का घटाटोप के साथ प्रतिपादन किया है। जगत् के मिथ्यात्व एवं भावरूप अनिर्वचनीय अविद्या का सर्वशस्त्रानुकूलतया खण्डन किया है। तथा सत्ख्यातिवाद को स्वीकार किया है।

卐 श्रीआनन्दभाष्य का मत 卐

भाष्यकार श्री ने विशिष्टाद्वैतमत को ही उपनिषद् तथा ब्रह्ममीमांसा शास्त्र का अभिमत माना है ‘अत्र जगत्पदेन भोक्तृभोग्ययोः ईशेत्यनेन ईश्वरस्य च कथनात् चिदचिदीश्वररूपं तत्त्वत्रयमीशेशितव्यभेदश्च उक्तो भवति—ईशावास्योपनिषदानन्द भाष्यम् १’ ‘एवञ्चाखिल श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणसामञ्जस्यादुपपत्तिबलाच्च विशिष्टाद्वैतमेवास्य ब्रह्ममीमांसाशास्त्रस्यविषयो न तु केवलाद्वैतम्’ आनन्दभाष्यम् १।१।१। यानी विशिष्टाद्वैत मत ही श्रुति स्मृति इतिहास एवं पुराण से सामञ्जस्य होता है तथा युक्ति युक्त भी यह सिद्धान्त है केवलाद्वैत नहीं। विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ इसप्रकार से होता है-विशिष्टं च विशिष्टं च विशिष्टे विशिष्टयोरद्वैतं विशिष्टाद्वैतं। प्रथम विशिष्ट शब्द से सूक्ष्म चिदचिद् विशिष्ट ब्रह्म यानी कारण ब्रह्म का ग्रहण होता है एवं द्वितीय विशिष्ट शब्द से स्थूल चिदचिद् विशिष्ट ब्रह्म यानी कार्य ब्रह्म का ग्रहण होता है। अतः विशिष्टाद्वैत का अर्थ हुआ कार्य ब्रह्म एवं कारण ब्रह्म की एकता यानी कार्य एवं कारण दोनों में एकता इस तत्व को आचार्यश्री ने ‘तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः’ ब्र.सू. २।१।१४ के भाष्य में अच्छी प्रकार से समझाया है। इस विषय का विस्तृत विवेचन [[P25]] श्रीरामानन्दसम्प्रदाय के ३९वें आचार्य महामहोपाध्याय जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी श्रीरघुवराचार्यजी ने ‘विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त’ एवं ‘विशिष्टाद्वैतसिद्धान्तसार’ में किया है तथैव श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के ४०वें आचार्य जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजी ने तत्त्वत्रय सिद्धि एवं वेदार्थचन्द्रिका में तथा मैंने तत्त्वदीप एवं प्रकाश-किरण में किया है एवं श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर व्याख्या प्रभा-किरण चिदात्ममीमांसा प्रभृति दिव्य प्रबन्धों में विशेष चर्चा किया हूँ अतः विशेषार्थी वहीं देखें विस्तारभय से अन्य उदाहरण नहीं दे रहे हैं।

卐 श्रीआनन्दभाष्य में ब्रह्मपदवाच्य श्रीरामजी हैं 卐

जगत्सृष्टौ परमेश्वरः श्रीरामः साधारणं कारणमसाधारणं कारणन्तु तत्तज्जीवानां तादृशं कर्मैव यस्य यादृशं कर्म तस्य तादृशीमेव योनिंप्रयच्छति तदीयकर्म साहाय्यमवाप्येश्वरः बृ. उ. १ ब्रा. २ म. १’

‘यद्यप्यन्यत्रात्मशब्दस्य जीवपरकत्वं दृष्टं तथापि ‘आत्मैव वेदमग्रे’ इति वाक्यं कारणवाक्यतया श्रीसाकेताधिपतिद्योतकत्वमेव…बहुषु स्थलेषु पुरुषशब्दस्य परमेश्वरे श्रीरामे प्रयोगदर्शनात् बृ. उ. अ. १ ब्रा. ४ मं. १’

‘…परमेश्वर श्रीरामस्य सर्वान्तर्यामित्वाद् भोक्तृत्वस्य प्रतिषेधात्…बृ. उ. अ. १ ब्रा. ४ मं. ७’

‘अथ तथापि सर्वशक्तिसम्पन्नः सर्वसर्जकश्रीसाकेताधिपतिस्तान् तान् सर्वानेव बाह्यार्थान् सृजते समुत्पादयति बृ. उ. अ. ४ ब्रा. ३ मं. १०’

‘ब्रह्मैवेत्यत्र ब्रह्म+आ+इव इतिच्छेदः। सादृश्यार्थक इवशब्दस्ततश्च ब्रह्म सदृशसनाविर्भूतगुणाष्टकत्वादाविर्भूतब्रह्मस्वरूपसन् जीवो ब्रह्मणि परब्रह्मणि श्रीरामे लीनोजायते बृ. उ. अ. ४ ब्रा. ४ मं. ६’

‘एतादृशं विज्ञानानन्दरूपं ब्रह्मसाकेताधिपतिर्भगवान् राम एव ‘बीजं हि सर्वभूतानां सीतानाथः परेश्वरः। रामं विना न किञ्चिद्धि वर्तते हि चराचरम्’ इत्याचार्योक्तेः बृ. उ. अ. ३ ब्रा. ९ मं. ७/२८’

‘ब्रह्मपदाभिधेयं भगवन्तं श्रीरामं प्रोवाचोक्तवान् श्वे. उ. ६।२१’

‘ज्ञानयोगकर्मयोगविज्ञेयं देवं देवपदाभिधेयं भगवन्तं श्रीरामं ज्ञात्वा सर्वे च ते पाशाः सर्वपाशास्तैरखिलैः पाशवद्वन्धनकारकैः कर्मभिर्मुक्तोभवति श्वे. उ. ६।१३’

‘ईशं सर्वेश्वरं भगवन्तं श्रीरामस्य महिमानमखिलजगन्नियमनरूपं यदा पश्यत्यवलोकयति तदा बीतशोक…श्वे. उ. ४।२०’

इत्यादि श्रुतियों के व्याख्यान सामञ्जस्य से यह अतिस्पष्ट हो जाता है कि आनन्दभाष्यकारजी के मतानुसार सर्जक पालक तथा संहारक सर्वेश्वर श्रीरामजी ही परात्पर ब्रह्म हैं एवं ध्येय ज्ञेय और उपास्य भी वे ही हैं अन्य नहीं। एवमेव—

‘ब्रह्म शब्दश्च महापुरुषादिपदवेदनीयनिरस्तनिखिलदोषमनवधिकातिशयासंख्येय कल्याणगुणग्रप्यं भगवन्तं श्रीराममाह सामान्यवाचकानां पदानां विशेषेपर्यवसानात्’ आनन्दभाष्य (१।१।१) यानी सामान्य वाचक पदों का विशेष अर्थ में समाप्ति होने से इस ब्रह्ममीमांसा सूत्र में ब्रह्म शब्द महापुरुष एवं उत्तमपुरुष आदि पद से वाच्य समस्त दोषों से रहित निरवधिक तथा [[P26]] अतिशय से रहित असंख्य कल्याण गुणों के आश्रय भगवान् श्रीरामजी को ही कहता है, अर्थात् इस शरीरक मीमांसा शास्त्र के विषय में ब्रह्मशब्द उक्त विशेषण विशिष्ट सर्वेश्वर श्रीरामजी का ही वाचक है। क्योंकि व्यापकत्व के योग से ब्रह्म शब्द सामान्य वाचक पद है और श्रीरामजी विशेषार्थ हैं। इसप्रकार भाष्यकारजी ने ब्रह्म शब्द का वाचक सर्वेश्वर श्रीरामजी का प्रतिपादन किया है।

तथैव ‘एवञ्च सर्वज्ञसर्वशक्तिमज्जगत्कारणनिर्गुणसगुणादिपदवाच्यं श्री रामतत्त्वं तदेव जगत्कारणं ब्रह्मेत्युच्यतेऽनेन सूत्रेण’ ऑ.भा. (१।१।२) यानी इसप्रकार सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् जगत्कारण निर्गुण एवं सगुण आदि पदों का वाच्य श्रीरामतत्त्व है वही जगत्कारण ब्रह्म है जो जन्माद्यस्ययतः सूत्र द्वारा कहा गया है। इसीप्रकार आगे १।१।४ प्रभृति अनेक सूत्रों द्वारा श्रीरामतत्त्व का ही विवेचन किया गया है विशेषार्थी वहीं देखें।

卐 श्रीआनन्दभाष्य एवं सगुण निर्गुण ब्रह्म 卐

जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने ब्रह्म को निर्गुण तथा सगुण दोनों ही माना है। आचार्यजी ने निर्गुण शब्द का—

‘सत्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृतागुणाः। स शुद्धः सर्वशुद्धेभ्यः पुमानाद्य प्रसीदतु’ वि. पुराण ‘योऽसौनिर्गुणप्रोक्तः शास्त्रेषु जगदीश्वरः। प्राकृतैर्हय सत्वाद्यैर्गुणैर्हीनत्त्वमुच्यते’ प. पुराण। यानी जिसमें सत्वादि प्रकृति के गुण नहीं हैं। एवं सर्व शुद्ध पदार्थों से शुद्ध वह आदि पुरुष है। जो जगदीश्वर शास्त्रों में निर्गुण रूपसे कहा गया है वह त्याग करने योग्य प्रकृति के सत्वादि गुणों से हीन कहा गया है। इत्यादि शास्त्र सम्मत ‘निर्गता निकृष्टा सत्वादयः प्राकृता गुणा यस्मात्तन्निर्गुणमिति व्युत्पत्तेर्नि कृष्टगुणराहित्यमेव निर्गुणत्वम्’, आ.भा/१।१।२ अर्थात् निर्गत है निकृष्ट सत्वादि प्राकृतिक गुण जिससे वह निर्गुण है इसप्रकार गूढ रहस्यमय अर्थों का प्रतिपादन कर श्रुति का समन्वयपूर्वक एक ही ब्रह्म तत्त्व को निर्गुण एवं सगुण माना है। यदि निर्गुण तथा सगुण को एक ही नहीं मानते तो ‘परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। एवं निर्गुणं निष्क्रियम्’ आदि श्रुतियों का सामञ्जस्य नहीं हो पाता अतः दिव्यगुणसत्वेन च सगुणत्वमित्युभयमेकस्य ब्रह्मणोनिर्देश इति न किञ्चिद् अनुपपन्नम् आ.भा. १।१।२ लिखा है। इसी तत्त्व को स्फुट करते हुये आगे लिखते हैं किञ्च श्रीरामस्य जगत्कारणत्ववादिन्यः काश्चनश्रुतयः स्फुटकारणस्वरूपस्य तस्य साकारत्वं सगुणत्वमक्षरब्रह्मणो जगत्कारणत्ववादिन्यश्च काश्चनश्रुतयस्तस्य निराकारत्वं निर्गुणत्वञ्चाहुरित्युभयत्राविरोधार्थं स एवार्थस्तान्त्रिकैरङ्गीकर्तव्यः। अन्यथा परस्पर विरोधे व्याहतत्वादप्रामाण्यमेवनिष्पद्येत। एवं-श्रीरामादिविशेषपदवाच्यस्यदिव्य गुणवत्वेन प्राकृतहेयगुणरहितत्वेन च सगुणत्वनिर्गुणत्वज्ञापनादिति न क्वापि ब्रह्मणोगुणशून्यत्वं निर्विशेषत्वञ्चेति मन्तव्यम् आ.भा. १।१।१२ इत्यादि रूपसे समस्त वेदान्त दर्शन को सगुणरूप श्रीरामजी का प्रतिपादकरूपतयो निरूपण किया है।

卐 श्रीआनन्दभाष्य के अनुसार सद्य मुक्ति नहीं 卐

‘तदोको ऽग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारोविद्यासामर्थ्यात्-तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्च-हार्दानुगृहीतः शताधिकया’ ४।२।१६ के प्रसङ्ग में भाष्य कारजी लिखते हैं—विद्या सामर्थ्य से यानी [[P27]] परमात्मोपासनरूप विद्या सामर्थ्य से एवं परमात्मा के शेषत्व के अनुसन्धान से साधक जीवात्मा ईश्वर से अनुगृहीत होता है। इसी विषय का निर्देश पहले जन्माद्यधिकरण में भी किया गया है इसी सगुण ब्रह्म श्रीरामजी के निरवच्छिन्न ध्यान एवं अभ्यास वाले साधक एक सौ एकवी सुषुम्ना नाडी द्वारा शरीर से निकलकर अचिरादिमार्ग से ब्रह्मलोक-श्रीसाकेतलोक को प्राप्त हुए। अनन्य भक्त की मुक्ति प्रतिपादित की गई। विद्या सामर्थ्यात् यहां पर विद्यापद से जिसकी मरण से पूर्व आवृत्ति की गई है उसी ब्रह्म का निदिध्यासनरूप परमात्मा श्रीराम चिन्तन पदवाच्य विद्या का ग्रहण है यही सूत्रकार श्रीव्यासजी का मार्ग है। अतः जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के मत में सद्यमुक्ति नहीं है अचिरादिमार्ग से क्रममुक्ति ही है। पुनः आपने लिखा है—एतेन सद्योमुक्तेरभावोऽपि व्यक्तो भवति यानी इससे ज्ञानी को सद्यमुक्ति का अभाव है अर्थात् सद्योमुक्ति नहीं होती है यह व्यक्त होता है। पुनः आगे अचिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकगमनत्व ज्ञापनात् सद्यो न मुक्तिब्रह्मविदामपितु देवयानक्रमेणैवेति सिद्धान्तः लिखकर प्रकृत प्रसङ्ग को पुष्ट किया गया है। अतः अचिरादिमार्ग से क्रममुक्ति शास्त्र सम्मत है सद्यमुक्ति नहीं यह भाष्यकारजी का सिद्धान्त है।

अथ ‘मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्मसमश्नुते’ प्रभृति श्रुति का आश्रय लेकर सद्यमुक्ति का जो समर्थन किया जाता है इसका निराकरण ‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति’ प्रभृति माध्यन्दिनीय श्रुति के द्वारा निराकरण कर निगमन रूपसे ‘इति न केनापि प्रमाणेन सद्योमुक्तिः सिद्ध्यतीति मनीषिभिर्विभावनीयम्’ आ.भा. ४।४।१३ यानी किसी भी प्रमाण से सद्योमुक्ति सिद्ध नहीं हो सकती है यह बुद्धिमानों को विचार करना चाहिये। यह अतिसंक्षेप में बताया गया है। विशेष भाष्य एवं भाष्यदीप, दीप-प्रकाश टीका आदि ग्रन्थों से अवगत कर लें।

भाष्यनिर्माणक्रमे-उपनिषद्भाष्यम्

  1. विशेषत एतद्विवरणं ब्रह्मसूत्रीयज्योतिरधिकरणे द्रष्टव्यम् (बृ.उ. १.५.१३)
  2. विशेषत एतत्तत्त्वं ‘पञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते (२.४.१२)’ ब्रह्मसूत्रे विचारयिष्यते तत एव द्रष्टव्यमिति संक्षेपः (बृ.उ. १.५.३)
  3. एतत्तत्त्वम् ‘अक्षरमम्बरान्तधृतेरिति’ ब्रह्मसूत्रे यथावद्व्यवस्थाप्यते तत एव द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ३.८.४)
  4. विशेषतश्च ‘सा च प्रशासनादिति’ ब्रह्मसूत्रव्याख्यायां स्पष्टीकरिष्यते तत एव द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ३.८.९)
  5. इदं च ब्राह्मणं परमात्मपरकमेव न तु जीवपरकमित्यादि समन्वयाध्याये विवरणेविचारयिष्यते तत एव द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ३.७.२३)
  6. विशेषत एतत्तत्त्वं तत्रैव द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ४.४.६)
  7. विशेषत एतत्तत्त्वं ब्रह्मसूत्र एवावलोकनीयम् (बृ.उ. ४.४.१९)
  8. एतत्तत्त्वं विशेषतो ब्रह्मसूत्रीयतृतीयाध्याये विचारयिष्यतेऽतस्तत एव द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ४.४.२२)
  9. एतद्विषये ‘परं जैमिनिर्मुख्यत्वात्’ इतिसूत्रविचारणायां द्रष्टव्यम् (बृ.उ. ६.२.१५)
  10. विशेषतोऽयमर्थः स्वाप्ययादितिसूत्रे विचारयिष्यते (छा. ६.८.१) [[P28]]

卐 ब्रह्मसूत्रभाष्यम् 卐

  1. एतच्च तत्तदुपनिषद्विवेचनायां स्पष्टीकृतमस्माभिरिति तत एवावगन्तव्यं विशेषार्थिभिरतो विरम्यते (ब्र.सू. १.१.२)
  2. इत्येतद्विस्तरेण तत्प्रकरण एवोपपादितम् (ब्र.सू. १.१.४)

卐 गीताभाष्यम् 卐

  1. ‘अविद्यायां प्रमाणानुपपत्तिस्तु यदपिचाज्ञानमनादिभावरूपं पदार्थान्तरमागम-प्रत्यक्षानुमानबलेन प्रसाध्य तच्छलितस्य ब्रह्मणो जगदुपादानत्वमिति कथनं तदपि महाम्भसि निमज्जतः कुशकाशावलम्बनमनुकरोति’ इत्यादिना ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ (ब्र.सू. १.१.१) इति प्रथमसूत्रस्यानन्दभाष्ये विस्तरेणास्माभिः प्रपञ्चिता तत्रैवावलोकनीया (गी.आ.भा. २.१२)
  2. ‘प्रपञ्चितश्चायमर्थोऽस्माभिर्ब्रह्ममीमांसाया दहराधिकरणीयानन्दभाष्ये’ (गी.आ.भा. ७.५)

卐 श्रीवैष्णवमताब्जभास्करः 卐

प्रातर्-मध्याह्न-सायं-कृत-शुचि-कृतिभिः रामम् अभ्यर्च्य सम्यक्
श्रीमद्-रामायणेन प्रतिदिनम् अखिलैर् भारतेन प्रपन्नैः ।
शक्तैर् आनन्द-भाष्यैर् अथ च शुभतमाचार्य-दिव्य-प्रबन्धैः
काल-क्षेपो विधेयः सुविजित-करणैः स्वाकृतेर् यावद् अन्तम् ॥ ८.२ ॥

卐 श्रीरामानन्दाचार्यजी के मतानुसार पदार्थ-विभाग 卐

पदार्थ

  • प्रमाण
  • प्रत्यक्ष
  • अनुमान
  • शब्द
  • प्रमेय
  • द्रव्य * जड
    • प्रकृति
    • प्रकृति
    • महत्
    • अहंकार
    • मनः
    • पञ्चज्ञानेन्द्रिय
    • पञ्चकर्मेन्द्रिय
    • पञ्चतन्मात्रा
    • पञ्चमहाभूत
    • काल
    • भूत
    • भविष्यत्
    • वर्तमान
    • पराक्
    • नित्यविभूति
    • धर्मभूत ज्ञान * अजड
    • सत्व
    • रजः
    • तमः
  • प्रत्यक् * जीव
    • बद्ध
    • मुक्त
    • नित्य * ईश्वर
    • पर
    • श्रीरामजी
    • व्यूह
    • वासुदेवादि
    • वासुदेव
    • सङ्कर्षण
    • प्रद्युम्न
    • अनिरुद्ध
    • विभव
    • मत्स्यादि
    • अनन्त
    • अन्तर्यामी
    • प्रतिशरीरवर्ती
    • अर्चावतार
    • बहु, यथा श्रीकनकविहारी, वेङ्कटनाथ मानव नयनगत मूर्ति-विशेष
  • अद्रव्य * शब्द * स्पर्श * रूप * रस * गन्ध * संयोग * शक्ति

(Additional details from diagram)

  • बद्ध जीव:
  • बुभुक्षु
  • मुमुक्षु * अर्थकामपर * धर्मकामपर * कैवल्यपर * मोक्षपर
  • मुमुक्षु:
  • देवतान्तरपर
  • श्रीरामपर
  • श्रीरामपर:
  • भक्त
  • प्रपन्न * एकान्ती * परमैकान्ती
    • दृप्त
    • आर्त

[[P42]]

ॐ सर्वेश्वर श्रीसीतारामाभ्यां नमः
卐 श्रीहनुमते नमः 卐