विश्वास-प्रस्तुतिः
इति विविध-विचित्र-मान-मेय-प्रकाशं
घन-गुरु-वर-दासेनोक्तम् आदाय शास्त्रात् ।
यति-पति-मत-दीपं वेद-वेदान्त-सारं
स भवति मतिमान् यस् सत्-कटाक्षैक-लक्ष्यः ॥
अण्णङ्गराचार्यः
ग्रन्थकारस्तत्त्वज्ञानसम्पादनमेव स्वग्रन्थस्य प्रयोजनमिति वदन् मतिसिद्धिमाशासानो निगमयति **‘इती’**ति । शास्त्रादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी । शास्त्रमनुसृत्य । यः सता कटाक्षस्यैकलक्ष्यो वर्तते, सोऽधिकारी शास्त्रमनुसृत्य श्रीमन्महाचार्यशिष्येण मया श्रीनिवासदासेनोक्त — प्रोक्त, विविधानि विचित्राणि मानमेययोरवान्तरभिदारूपाणि यत्रैव भूतम्, मानमेययोः प्रकाशः - यथार्थावबोधो यस्मादेवभूतं च सन्तः, वेदवेदान्तसारार्थप्रतिपादकत्वास्तत्साररूपं यतिपतिमतदीपमेनमादाय गृहीत्वा, अभ्यस्य, मतिमान् भवति । वर्तमानसामीप्ये वर्तमानव्यपदेशो निश्चितत्वद्योतकः । लकारव्यत्ययो वा । भूयादित्याशंसतेऽयं दयालुर्महामना । यथा गाढान्धकारे स्थितं समीचीनं दीपमादाय पदार्थान् सम्यक् दृष्ट्वा स्वाभिमतसाधनमर्थमुपादाय स्वार्थं साधयेत् प्रेक्षावान्, तथा गाढाज्ञानान्धकारमध्ये स्थितोऽयं चेतनोपि एतद्दीपसाहाय्येन सम्यक् पदार्थान् दृष्ट्वा स्वार्थसाधनमर्थविशेषमुपादाय – अनुष्ठायेति यावत्, स्वाभिमतं पुरुषार्थं सम्पादयेदिति भावः । सत्कटाक्षैकलक्ष्यम् इति पदेन शास्त्रग्रन्थात्तत्त्वज्ञानं महापुरुषकृपाकटाक्षपात्रभूतानामेव भवति, नान्येषामिति ज्ञाप्यते ॥ इति श्रीः ॥
॥ इत्युपसंहारभागव्याख्या सम्पूर्णा ॥
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - इस प्रकार से अनेक प्रकार के अद्भुत प्रमाणों तथा प्रमेयों का प्रकाश करने वाला, शास्त्रानुसारी, साङ्ग, सशिरस्क वेदों के सार-स्वरूप तथा यतिराज श्री रामानुजाचार्य के सिद्धान्त के प्रकाशक श्रीमन्महाचार्य के प्रधान शिष्य द्वारा प्रोक्त इस यतीन्द्रमतदीपिका का अभ्यास करके सदाचार्य का कृपापात्रभूत अधिकारी वेदान्तज्ञान से सम्पन्न हो जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
ग्रन्थ का उपसंहार [[२९१]]
भा० प्र० - ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा है कि मेरे आचार्य महाचार्यजी मेघ के सदृश हैं । यद्यपि महाचार्य की दूसरी संज्ञा ही घनगुरु है, फिर भी घन शब्द मेघ का भी वाचक है। आचार्य और मेघ में अनेक प्रकार की समता है - १. मेघ समुद्र के क्षार जल को पेय बनाकर वर्षा करता है । आचार्य भी दुःखावगाह्य शास्त्रार्थी को सर्वोपभोग्य बनाकर जन-सामान्य के जीव- नोज्जीवन के उपायों को प्रदान करते हैं । २. मेघ अपनी वृष्टि से निम्न स्थल को जल से पूर्ण कर देता है, आचार्य भी अपने सदुपदेश से नम्र शिष्यों के जीवन को सद्गुण से परिपूर्ण बना देते हैं । ३. मेघमाला अत्यधिक वर्षा करके न तो तृप्त होती है और न तो प्रत्युपकार ही चाहती है, उसी प्रकार आचार्य भी अत्यधिक उपदेश देकर भी न तो तृप्त होते हैं और न तो शिष्य से प्रत्युपकार की ही भावना रखते हैं । इस प्रकार आचार्य और मेघ में अनेक प्रकार की समता देखकर श्रीनिवासाचार्य उन्हें मेघ के सदृश कहते हैं ।
अपने आचार्यश्री के द्वारा उपदिष्ट अर्थों का ही संग्रह करके श्रीनिवासाचार्यजी इस यतीन्द्रमतदीपिका नामक ग्रन्थ का प्रणयन करते हैं । यह ग्रन्थ अत्यन्त लघुकाय होकर भी प्रमाण एवं प्रमेय का प्रकाशक है । ये प्रमाण अनेक प्रकार के हैं तथा अद्भुत हैं । किन्तु सब कुछ होने के साथ-साथ अप्रामाणिक नहीं हैं । इस ग्रन्थ में जितनी भी बातें कहीं गयी हैं, वे सब शास्त्रानुकूल हैं, शास्त्र के प्रतिकूल कुछ भी नहीं कहा गया है । विशिष्टाद्वैतियों का स्वभाव है कि वे कभी भी शास्त्र के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहते हैं और न तो शास्त्र में मिथ्यार्थ के आपादकत्व इत्यादि दोषों की वे कल्पना ही करते हैं । सम्पूर्ण वेद भूतार्थं का आपादक है; यह विशिष्टा- द्वैतियों की सर्वप्रधान मान्यता है । विशिष्टाद्वैती पूर्ण वैदिक हैं ।
यह यतीन्द्रमतदीपिका वेदों तथा वेदान्तों का सारस्वरूप है । जो आचार्य का कृपापात्र बनकर इस ग्रन्थ का अभ्यास करता है, वह वेदान्त के ज्ञानों से परिपूर्ण हो जाता है ।
मूलम्
इति विविधविचित्रमानमेयप्रकाशं
घनगुरुवरदासेनोक्तमादाय शास्त्रात् ।
यतिपतिमतदीपं वेदवेदान्तसारं
स भवति मतिमान्यस्सत्कटाक्षैकलक्ष्यः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन
श्रीमद्वेङ्कट-गिरि-नाथ-पद-कमल-सेवा-परायण-
स्वामि-पुष्करिणी-गोविन्दाचार्य-सूनुना
श्रीनिवासदासेन विरचिता
यतीन्द्रमतदीपिकाख्या शारीरकपरिभाषा समाप्ता ॥
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार श्रीवाधूलकुलतिलक श्रीमन्महाचार्य के प्रधान शिष्य श्रीवेङ्कटाचल के स्वामी श्रीवेङ्कटेश भगवान् के श्रीचरणकमलों की सेवा में संलग्न, स्वामी पुष्करिणी श्रीगोविन्दाचार्य के पुत्र श्रीनिवासाचार्य द्वारा प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका नाम की विशिष्टाद्वैत शारीरक परिभाषा पूर्ण हुई ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
इस प्रकार श्रीमन्महाचार्य के प्रधान शिष्य श्रीनिवासाचार्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका नामक शारीरक- परिभाग की शिवप्रसादद्विवेदी ( श्रीधराचार्य ) प्रणीत ‘भावप्रकाशिका’ व्याख्या पूर्ण हुई ।
मूलम्
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन
श्रीमद्वेङ्कट-गिरिनाथपदकमलसेवापरायणस्वामिपुष्करिणीगोविन्दाचार्य-सूनुना
श्रीनिवासदासेन विरचिता यतीन्द्रमतदीपिकाख्या शारीरकपरिभाषा समाप्ता ॥