विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं तत्त्वम् इति प्रतिपादयन्ति सूरयः ।
आत्मानात्मेति द्वेधा विभज्य निरूपयन्ति ऋषयः ।
श्रुत्य्-अनुसाराद् भोग्य-भोक्तृ-नियन्तृ-रूपं तत्त्व-त्रयम्
इति प्रतिपादयन्त्य् आचार्याः ।
हेयम्, तस्य निवर्तकम्, उपादेयम्; तस्योपाय
इति चतुर्धा विभज्यानुसन्दधते केचिद् आचार्याः ।
प्राप्यम्, प्राप्ता, उपायः, फलम्, विरोधीति पञ्चधा कथयन्त्य् अपरे देशिकाः ।
अर्थ-पञ्चकम् एव सम्बन्धेन साकं
षोढा परिगणय्य वर्णयन्त्य् अन्ये गुरवः ।
तेषां तत्-तद्-विभाजक-धर्म-पुरस्कारेण
तथोपन्यासो नार्थ-भेदक
इति सर्वम् अवदातम् ।
अण्णरङ्गाचार्यः
सर्वमपि न्याय्यमेवेत्यभिप्रयन् बहुधा विभजनं प्रदर्शयति **‘एकं तत्त्व’**मित्यादिना । तत्त्वेष्ववान्तरविशेषप्रतिपादनार्थं हेयोपादेयविवेकार्थव्युत्पादनार्थं च शिष्याणां च तथा तथा विभज्य निरूपणं तत्तदाचार्यैः कृतम् । सर्वमेतत् सिद्धान्ता[[??]] मतप्रतितन्त्रार्थाविरोधेनोपादेयमित्याशयः । उक्तं च भगवतैवोद्वा[[??]] प्रति
इति नानाप्रसङ्ख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम् ।
सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम् ॥ (भा-११-२२)
इति, तत्वेष्वन्तर्भावबहिर्भावविवक्षया सङ्ख्यानभेद इति । **‘सम्बन्धेन साक’**मिति । श्रीमदष्टाक्षरप्रतिपाद्यनवविधसम्बन्धेन सहेत्यर्थः ।
पिता च रक्षतु शेषी भर्ता ज्ञेयो रमापतिः ।
स्वाम्याधारो ममात्मा च भोक्ता [[??]] ॥
इति च सम्बन्धनवकं सङ्ग्रहीतं पूर्वाचार्यैरनुसन्धेयम् ।
‘नार्थभेदक’ इति । न सिद्धान्तितार्थोपमर्दक इत्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – एक ही तत्त्व है; यह सूरिगण प्रतिपादित करते हैं। ऋषिगण दो प्रकार से तत्त्व का विभाग करते हैं - आत्मा एवं अनात्मा । श्रुतियों के अनुसार आचार्यगण प्रतिपादन करते हैं कि तीन ही तत्त्व हैं - भोक्ता ( जीव ), भोज्य ( जड़तत्त्व) तथा नियन्ता ( प्रेरक तत्त्व ईश्वर ) । कुछ आचार्य तत्त्व के चार प्रकार का विभाग करके अनुसन्धान करते हैं । वे तत्त्व हैं - हेय ( त्याज्य ), हेय के निवर्तक तत्त्व, उपादेय तत्त्व तथा उपादेय तत्त्वों के उपाय । दूसरे आचार्य तत्त्वों का पांच भेद करते हैं – प्राप्य, प्रापक, उपाय, फल तथा विरोधी । दूसरे आचार्य उपर्युक्त पाँच तत्त्वों के साथ संबन्ध नामक छठे तत्त्व को मिलाकर छह तत्त्व मानते हैं । तत्त्वों के विभिन्न विभाजक धर्मों को पुरस्कृत करके तत् तत् प्रकार से भेद किया जाता है, अत एव उनके अर्थ में किसी प्रकार का भेद नहीं है । इस प्रकार ये सभी मत निर्दोष हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
यतीन्द्रमतदीपिका की तत्त्वापादकता
भा० प्र०—तत्त्वों के विषय में आचार्यों का मतभेद है । सूरिगण एक ही तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं । उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण जगत्शरीरक परमात्मा ही एकमात्र तत्त्व हैं। ऋषियों का मत है कि तत्त्व दो प्रकार के हैं- आत्मा और अनात्मा । आत्मा के अन्तर्गत जीवात्मा और परमात्मा आते हैं, अनात्मा के अन्तर्गत सभी जीवेश्वर - व्यतिरिक्त आते हैं । प्रकृति, काल, नित्यविभूति आदि अनात्मतत्त्व ही है । आचार्यों का कहना है कि ‘भोक्ता भोग्यं प्रेरितारञ्च मत्त्वा’ यह श्रुति बतलाती है कि तत्त्व तीन है - भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता । जीव ही भोक्ता तत्त्व है, वही क्षरणशीला प्रकृति का भोग करता है । भोग्य अर्थात् जड़तत्त्वं । भोग्यों में प्रकृति, काल, धर्मभूत ज्ञान और शुद्धसत्त्व आदि आते हैं । भोक्तृतत्त्व और भोग्यतत्त्व दोनों के स्वरूप, स्थिति एवं प्रवृत्ति का नियामक परमात्मा है । इसी अर्थ को ‘क्षरं प्रधानममृताक्षरो हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः’ यह श्वेताश्वतर श्रुति बतलाती है । कुछ आचार्य तत्त्वों का चार विभाग करते हैं
- १. हेयतत्त्व - प्रकृति एवं प्राकृ- तिक पदार्थं ।
- २. हेय के निवर्तक- मोक्ष के साधनभूत भक्ति आदि ।
- ३. उपादेय- तत्त्व - परमात्मतत्त्व तथा
- ४. परमात्मा की प्राप्ति के साधनभूत तत्त्व ।
‘प्राप्यस्य ब्रह्मणो रूपं
प्राप्तुश्च प्रत्यगात्मनः ।
प्राप्त्युपायं फलं प्राप्तेः
तथा प्राप्तिविरोधि च ।
वदन्ति सकला वेदाः
सेतिहासपुराणकाः ।’
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अर्थात्
सभी वेद, इतिहास और पुराण इन पाँच तत्वों का प्रतिपादन करते. हैं - १. सभी जीवों द्वारा प्राप्य परमात्मा का स्वरूप क्या है ? २. परमात्मा को प्राप्त करने वाले जीवात्मा का स्वरूप क्या है ? ३. परमात्मा की प्राप्ति के साधन क्या है ? ४. परमात्मा की प्राप्ति का फल क्या है ? तथा ५. परमात्मा की प्राप्ति के विरोधी तत्त्व कौन हैं ?
इन पाँच भागों में विभक्त करके कुछ आचार्य तत्त्वों का अनुभव करते हैं । इसी अनुभव के प्रकार को अर्थपञ्चक- विज्ञान कहते हैं ।
कुछ आचार्य इन पाँच तत्त्वों के साथ छठे तत्त्व संबन्ध को भी मिला लेते हैं और तत्त्वों की संख्या छह मानते हैं । अष्टाक्षरमन्त्र का पर्यालोचन करने से पता चलता है कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच नवविध संबन्ध हैं । वे संबन्ध हैं-
- १. पिता-पुत्रभाव - जीवात्मा परमात्मा का पुत्र है, परमात्मा जीवात्मा का पिता है, क्योंकि वह सभी जीवों की सब प्रकार से रक्षा करता है ।
- २. रक्ष्यरक्षकभावसम्बन्ध - परमात्मा ही जीवों का रक्षक है और जीव परमात्मा का रक्ष्य है ।
- ३. शेषीशेषभावसम्बन्ध - परमात्मा जीवात्मा का शेषी अर्थात् यथेष्ट उपभोक्ता है और जीवात्मा उसका शेष अर्थात् यथेच्छविनियोगार्ह है ।
- ४. भर्तृ भृत्यभावसम्बन्ध - परमात्मा जीवों का स्वामी है तथा जीवात्मा पर- मात्मा का सेवक है ।
- ५. ज्ञातृज्ञेयभावसम्बन्ध - परमात्मा ज्ञेय है तथा जीवात्मा उस परमात्मा को जानने वाला है ।
- ६. सेव्यसेवक भावसम्बन्ध - परमात्मा सेव्य है तथा जीवात्मा सेवक है ।
- ७. आधाराधेयभावसम्बन्ध - परमात्मा जीवों की आत्मा होने से उनका आधार है और जीवात्मा उसका आधेय है ।
- ८. शरीरात्मभावसम्बन्ध — जीव परमात्मा का शरीर है और परमात्मा जीवों की आत्मा है ।
- ९. भोक्तृभोग्यभावसम्बन्ध - परमात्मा का जीवात्मा भोज्य है और जीवात्मा परमात्मा का भोग्य है । इसी बात को स्पष्ट करती है मुक्तजीव के सामाम्नान को बतलाने वाली ‘अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्’ यह श्रुति । अर्थात् मैं परमात्मा का भोग्यभूत हूँ ।
इस प्रकार से अचिरादिमार्ग से उत्क्रमण करने वाली मुक्तजीव- विषयिणी श्रुति से इन संबन्धों के ज्ञान के बिना वेदान्तज्ञान की पूर्ति नहीं होती है । अतएव अर्थ-पञ्चक ज्ञान के साथ-साथ संबन्धज्ञान का होना अनिवार्य हो जाता है । इसी बात का प्रतिपादन कुछ विशिष्टाद्वैती आचार्य करते हैं । ये सभी तत्व के भेद प्रकारभेद के कारण हैं । वास्तविकता यह है कि सभी विभाजनों का तात्पर्य एक ही अर्थ में है । अतएव मे सभी विभाग प्रकार- निर्देश निरवद्य हैं ।
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मूलम्
एकं तत्त्वमिति प्रतिपादयन्ति सूरयः । आत्मानात्मेति द्वेधा विभज्य निरूपयन्ति ऋषयः । श्रुत्यनुसाराद् भोग्यभोक्तृनियन्तृरूपं तत्त्वत्रयमिति प्रतिपादयन्त्याचार्याः । हेयम्, तस्य निवर्तकम्, उपादेयम्; तस्योपाय इति फलम्, चतुर्धा विभज्यानुसन्दधते केचिदाचार्याः । प्राप्यम्, प्राप्ता, उपायः, विरोधीति पञ्चधा कथयन्त्यपरे देशिकाः । अर्थपञ्चकमेव सम्बन्धेन साकं षोढा परिगणय्य वर्णयन्त्यन्ये गुरवः ।
तेषां तत्तद्विभाजकधर्मपुरस्कारेण तथोपन्यासो नार्थभेदक इति सर्वमवदातम् । (एतेषां तत्तद्विभाजकधर्ममादाय अनुसन्धानम् उपपद्यते ।)