विश्वास-प्रस्तुतिः
१७. ननु चतुर्-विंशति-प्रकारा गुणा
इत्युक्तत्वात् कथं दशैवेति निर्दिश्यते ?
इति चेत्, उच्यते।
- जीवात्म-विशेष-गुणानाम्
बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्नानां षण्णां
ज्ञान-वितति-रूपत्वेन ज्ञानान्तर्भावस्य उक्तत्वात् - धर्माधर्मयोर् अपि ईश्वर-प्रीत्य्–अ-प्रीति–रूपत्वेन
ईश्वर-ज्ञाने अन्तर्भावात् - भावनाख्य-संस्कारस्य ज्ञान-विशेष-रूपत्वात्
- वेगोत्पादक-हेतोर् एव वेगाख्य-संस्कारोपपत्तेः
- संयोगम् आदाय स्थिति-स्थापकस्यापि+++(=elasticity)+++ सम्भवात्
- शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धानाम् पञ्चानाम् प्रत्यक्ष-सिद्धत्वेन अङ्गीकारात्
- विभाग-पृथक्त्वयोर् अपि संयोगाभावम् आदाय उपपत्तेः
- परत्वापरत्वयोः देश-काल-संयोग-विशेषम् आदाय उपपत्तेः
- सङ्ख्या-परिमाण-द्रवत्व-स्नेहानां तत्-तद्-द्रव्य–स्व-रूपम् आदाय उपपत्तेः
- गुरुत्वस्य शक्त्य्-अन्तर्भावस्य वक्तुम् उचितत्वाच् च
दशैवेति सुष्ठूक्तम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
वैशेषिकमतमनूद्य निरस्यति ‘ननु’ इत्यादिना । ज्ञानविशेषरूपत्वात् — सूक्ष्मज्ञानांशरूपत्वात् ।
**‘वेगे’**ति । प्रेरणाविशेषेणैव वेगकार्यस्य दूरपतनस्य सम्भवात् वेगो नामनातिरिक्त, संस्कारः कल्प्य इत्यर्थः ।
संयोगमिति । अवयवसंस्थानविशेषमित्यर्थः ।
**‘विभागे’**ति । असंयोगेन स्थितयोः पृथक् स्थः, विभक्तौ स्थः इति प्रतीतिव्यवहारतः संयोगाभावलक्षणावेव पृथक्त्वविभागौ । नातिरिक्तौ गुणौ ।
**‘देशकाले’**ति । विप्रकृष्टसन्निकृष्टदेशकालसंयोगावेव परत्वापरत्वे इत्यर्थः ।
**‘सङ्ख्ये’**त्यादि । एकत्वं – तत्तद्वस्तुस्वरूपमेव, तत्तद्व्यक्तित्वमिति यावत् । द्वित्वादिः त्वपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वमेव । तत्तद्द्रव्यनिष्ठासाधारणं संस्थानविशेषौ द्रवत्वस्नेहौ ।
**‘गुरुत्वस्ये’**ति । पतनशक्तिरेव गुरुत्वमित्यर्थः । परिमाणं च न्यूनाधिकावयवसंयोगविशेषलक्षणमेवेति भावः । अत्रेदं बोध्यम् — यद्यपि परमार्थः नानाभेदवादिना सगुणवादिना च सिद्धान्तिना नानागुणाभ्युपगमे नापत्तिः कापि सम्भवति । अथापि - काणादैः प्रामाणिकानां गुणानां सत्त्वादीनां परित्यागात् अप्रमाणिकानामन्यथासिद्धानां गुणानामतिरिक्तत्ववर्णनात्तदीयगुणपरिगणना न प्रामाणिकसज्जनहृदयङ्गमेति ज्ञापयितुमत्र तन्मतसमालोचना कृतेति ॥
॥ इति दशमावतारव्याख्या ॥
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रश्न उठता है कि चौबीस प्रकार के गुण कहे जाते हैं तो फिर विशिष्टाद्वैती दश प्रकार के ही गुण कैसे कहते हैं ? तो इसका उत्तर है कि जीवात्मा के गुण - विशेष - बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न – ये छहों ज्ञान के विस्तृत रूप हैं, अतएव उनका ज्ञान में अन्तर्भाव होता है । धर्म एवं अधर्म भी ईश्वर की प्रसन्नता और अप्रसन्नता - रूप हैं, अतएव उनका ईश्वर के ज्ञान में अन्तर्भाव होता है । भावना नामक संस्कार भी ज्ञान विशेष रूप है । वेग को उत्पन्न करने का जो कारण है, उसे ही वेग नामक संस्कार कहते हैं; संयोग को ही लेकर स्थितस्थापक भी होता है । हम प्रत्यक्षसिद्ध - शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध को स्वीकार करते ही हैं। विभाग और पृथक्त्व संयोगाभाव रूप हैं । परत्व एवं अपरत्व की सिद्धि देश और काल को लेकर होती है । संख्या, परिमाण, द्रव्यत्व और स्नेह तत् तत् द्रव्य स्वरूप हैं । गुरुत्व का शक्ति में ही अन्तर्भाव हो जाता है । अतएव दश ही गुणों को मानना समीचीन है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुण बतलाए गये हैं- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ।
विशिष्टाद्वैती दस गुण बतलाते हैं ।
इन दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ?
इस शंका का समाधान करते हुए विशिष्टाद्वैती कहते हैं कि जीवों के जो बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष तथा प्रयत्न ये छह गुण माने गये हैं, वे ज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं ।
इस बात की चर्चा धर्मभूत ज्ञान के निरूपण के प्रसंग में की गयी है, अतएव उनका ज्ञान में ही अन्तर्भाव हो जाता है, उनको अलग गुण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
इसी प्रकार ईश्वर की प्रसन्नता को ही धर्म कहते हैं और ईश्वर की अप्रसन्नता को अधर्म कहते हैं ।
अतएव धर्माधर्म का ईश्वर के ज्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है ।
संस्कार का संयोग में अन्तर्भाव -
संस्कार का निरूपण करते हुए
वैशेषिकों ने कहा है कि
संस्कार तीन प्रकार का होता है –
वेग, भावना और स्थित-स्थापक ।
क्योंकि वेग तो कर्मविशेष है ।
वेग की उत्पति का जो हेतु है,
उसे वेग नामक संस्कार कहते हैं ।
भावना नामक संस्कार
ज्ञान विशेष रूप है ।
किञ्च स्थितस्थापक नामक जो संस्कार हैं,
वह संयोग को लेकर उपपन्न होता है ।
इस संस्कार के विषय में वैशेषिक कहते हैं कि
किसी शाखा को पकड़कर खींचने
तथा खींचकर छोड़ देने पर
शाखा पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाती है ।
जिसके कारण वह शाखा पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाती है,
वह स्थितस्थापक नामक संस्कार कहलाता है ।
वैशेषिकों की इस मान्यता के विषय में
सिद्धान्तियों का कहना है कि
शाखा इत्यादि में विद्यमान जो संस्थान-विशेष है,
वह अवयव - रचना-विशेष है, वही स्थितस्थापक है । [[२८०]]
उसी के प्रभाव से
शाखा पुनः अपने स्थान में पहुँच जाती है ।
वैशेषिक दार्शनिक यादृश-संस्थान विशेष-विशिष्ट में स्थितस्थापक मानते हैं,
हम उस संस्थान-विशेष को ही स्थित-स्थापक मानते हैं ।
संस्थानविशेष के तारतम्य के अनुसार ही
शाखा इत्यादि का लौटकर स्वस्थान में पहुँचने में तारतम्य होता है ।
अतः संस्थानविशेष को स्थित-स्थापक मानना ही उचित है ।
अतएव स्थितस्थापक संयोगविशेष रूप ही है ।
इस प्रकार संस्कार नामक गुण को अतिरिक्त गुण नहीं माना जा सकता है ।
पृथक्त्व एवं विभाग की संयोगाभावरूपता - का प्रतिपादन करते हुए यतीन्द्रमत- दीपिकाकार कहते हैं - ‘विभाग पृथक्त्वयोरपि इत्यादि - अर्थात् विभाग और पृथक् की सिद्धि तो संयोग का अभाव रूप उन्हें मान लेने से हो जाती है । कहने का अभिप्राय यह है कि वैशेषिक पृथक्त्व को एक अलग गुण मानकर उसका लक्षण करते हैं कि ‘यह पदार्थ इस पदार्थ से पृथक् है’ इस प्रकार के व्यवहार का जो कारण है, वह पृथक्त्व नामक गुण है । इसके विषय में विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि पृथक्त्व भी भेद ही है, उससे भिन्न पदार्थ नहीं है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से भिन्न है, इस भेद को ही लेकर पृथक्त्व की प्रतीति होती है । यह इससे भिन्न है तथा यह इससे पृथक् है; इन दोनों कथनों का भाव एक ही है । इस प्रकार पृथक्त्व के भेद से अतिरिक्त पदार्थ सिद्ध नहीं होता । वह भेद संयोग का अभाव रूप ही है । इसीलिए न्यायतत्त्व में कहा गया है कि—‘अतिरेकव्यतिरेकभेदेन द्विविधो भेदः ।’ अर्थात् भेद दो प्रकार का होता है- अतिरेक और व्यतिरेक । दूसरे धर्मी में न पाए जाने वाला धर्म अतिरेक कहलाता है । धर्म और धर्मी आदि के स्वरूप को व्यतिरेक कहते हैं । उसी ग्रन्थ में भेद को लक्षित करते हुए कहा गया है - ‘ऐक्यं साकल्येन संयोगः, तदभावो भेदः ।’ अर्थात् पूर्णरूप से होने वाले संयोग को ऐक्य कहते हैं तथा उस संयोग का अभाव भेद है ।
इसी प्रकार विभाग भी संयोग का अभाव रूप अथवा भेद रूप ही होता है । उस विभाग को लक्षित करते हुए वैशेषिक कहते हैं कि संयोग का विरोधी गुण विभाग है, किन्तु उनका यह कथन इसलिए उचित नहीं है कि जिन नोदन और पाटन इत्यादि से विभाग की उत्पत्ति और उस विभाग से संयोग का नाश वैशेषिक दार्शनिक मानते हैं, उन नोदनादि क्रियाओं से संयोग का ध्वंस ही उत्पन्न हो सकता है, उसके बीच में विभाग नामक गुण को मानने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विभाग भी संयोग का अभाव रूप ही है । अत एव उसको एक अलग गुण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
परत्व एवं अपरत्व देश तथा काल के संयोग-विशेष रूप हैं - यतीन्द्र मतदीपिका- कार यही मानते हैं । उनका अभिप्राय यह है कि वैशेषिक दार्शनिक कहते हैं कि-पर एवं अपर ये दो पदार्थ हैं, इस प्रकार की प्रतीति का जो असाधारण कारण है, उस गुण को ही परत्व एवं अपरत्व शब्द से अभिहित किया जाता है । परत्व एवं अपरत्व दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं दिक्कृत एवं कालकृत । दूरस्थ वस्तु में दिक्कृत [[२८१]]
परत्व तथा सन्निकटस्थ वस्तु में दिक्कृत अपरत्व रहते हैं । इसी प्रकार वृद्ध पुरुष में कालकृत परत्व तथा युवा पुरुष में कालकृत अपरत्व रहता है । यही वैशेषिक विद्वानों की परत्वापरत्व की व्याख्या है। इसके विषय में विशिष्टाद्वैती विद्वानों का कहना है कि दिक्काल का संबन्ध-विशेष ही परत्वापरत्व कहलाते हैं । वे दिक्काल के संबन्ध- विशेष से अतिरिक्त नहीं हैं और इसे मानने में लाघव भी है । अतएव परत्वापरत्व को अतिरिक्त गुण मानना अनुचित है ।
वैशेषिकाभिमत गुण, संख्या, परिमाण, द्रवत्व एवं स्नेह की तत्-तत् द्रव्यस्व- रूपता - का प्रतिपादन करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार का कहना है कि ये सभी तत् तत् द्रव्यस्वरूप ही हैं ।
[[1]]
संख्या का स्वरूप यह है कि एक, दो, तीन इत्यादि रूप से ज्ञान और व्यवहार के विषय को संख्या कहते हैं । वैशेषिक इत्यादि संख्या को द्रव्यमात्रनिष्ठ मानते हैं । अन्य दार्शनिक इसे द्रव्य एवं गुण इत्यादि सबों का धर्म मानते हैं । वे कहते हैं कि तीन गुण हैं, छह रस होते हैं इत्यादि प्रकार की प्रतीति और व्यवहार होते देखा ही जाता है । वैशेषिक दार्शनिक कहते हैं कि नित्यद्रव्यों में रहने वाला एकत्व नित्य है और अनित्य अवयवी द्रव्यों में रहने वाला एकत्व अनित्य है, क्योंकि वह अवयवों में विद्यमान एक- त्वों से उत्पन्न होता है । उनके अनुसार द्वित्व एवं त्रित्व इत्यादि संख्याएँ अनित्य हैं, क्योंकि वे – यह एक है, यह भी एक है इत्यादि प्रकार की अपेक्षाबुद्धि रूप निमित्त- कारण से युक्त प्रत्येक में विद्यमान एकत्वों से उत्पन्न होती हैं । वैशेषिकों की इस प्रकार की मान्यता के विषय में विशिष्टाद्वैती विद्वान् कहते हैं कि वैशेषिक बाह्य पदार्थों में द्वित्वादि की उत्पत्ति के लिए जिस अपेक्षाबुद्धि को सहकारीकारण मानते हैं उसी अपेक्षाबुद्धि को हम संख्या मानते हैं । उससे ( अपेक्षाबुद्धि से ) बाह्य पदार्थों में द्वित्वादि की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि ज्ञान बाह्य पदार्थ को केवल प्रकाशित करता है, उसमें किसी को उत्पन्न नहीं करता है । वह अपेक्षाबुद्धि द्वित्वादि है, वह स्वयम्प्रकाश होने के कारण ज्ञान भी बन जाती है । अपेक्षाबुद्धि से ही व्यवहार की उत्पत्ति और व्यवहारनियम दोनों सम्पन्न हो जाते हैं । हम व्यवहार और नियम दोनों का हेतु एक ही मानते हैं, भिन्न नहीं । अपेक्षा बुद्धि को ही द्वित्वादि होने के कारण, उसके विनष्ट होने पर द्वित्वादि व्यवहार नहीं होता है । ज्ञान के न होने पर व्यवहार भी नहीं होता है । यह सभी दार्शनिक मानते हैं, अतएव विशिष्टाद्वैतियों की मान्यता लाघवयुक्त है। अतएव सभी वस्तुओं के तत् तत् स्वरूप को ही संख्या मानना चाहिए । उस संख्या का संयोग में ही अन्तर्भाव होता है ।
परिमाण - को निरूपित करते हुए कहा जाता है कि ‘यह वस्तु परिमित है’ इस प्रकार की प्रतीति का जो विषय होता है, उसे परिमाण कहते हैं । परिमाण चार प्रकार का होता है – अणु, महत्, ह्रस्व और दीर्घ । इन चारों प्रकार के परिमाणों के स्वरूप का निरूपक प्रतियोगी के द्वारा होता है । यह पदार्थ इस पदार्थ से अणु है; [[२८२]] यह पदार्थ इस पदार्थ से महत् है; यह पदार्थ इस पदार्थ से ह्रस्व है; यह पदार्थ इस पदार्थ से दीर्घ है; इसी प्रकार से परिमाणों का निरूपण किया जाता है । यहाँ पर अपादानकारक के चिह्न के द्वारा प्रतियोगी का ही निर्देश किया गया है। इस परिमाण की चर्चा करते हुए श्रीमन्नाथमुनि ने कहा है कि - ’ अनेकव्याप्तिर्महत्तरं तदभावो मन्दत्वम्’ अनेक देशों में व्याप्ति ही महत्ता है, उस व्याप्ति का अभाव ही मन्दत्व है । क्रोश इत्यादि जो देश- परिमाण है; मास, संवत्सर इत्यादि जो काल-परि- माण है; बीस-तीस इत्यादि जो संख्या - परिमाण हैं तथा पुरुष, हस्त इत्यादि जो ऊर्ध्व- मान ( उन्मान ) - परिमाण है, ये सभी प्रकार के परिमाण पदार्थों के तत् तत् स्वरूप हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि तत् तत् स्वरूप - विशेष ही परिमाण हैं ।
द्रवत्व - को भी वैशेषिक अलग गुण मानते हैं । द्रवत्व की प्रतीति का विषयभूत पदार्थ द्रवत्व कहलाता है । वह द्रवत्व ही जल के बहने का कारण है । वैशेषिक मानते हैं कि द्रवत्व केवल जल में ही रहता है, किन्तु वह केवल जल में ही नहीं पाया जाता है, अपितु वह पार्थिव दुग्ध तथा तेजस सुवर्ण में भी पाया जाता है । द्रवत्व दो प्रकार का होता है - स्वाभाविक और पाकज । जल में पाया जाने वाला द्रवत्व स्वाभाविक द्रवत्व है, पाकज द्रवत्व सुवर्णादि पदार्थों में पाया जाता है । इस द्रवत्व का अन्तर्भाव जलत्व में अथवा संयोग-विशेष में या स्पर्श - विशेष में हो सकता है ।
स्नेह - नामक गुण को भी वैशेषिकों ने स्वीकार किया है । स्नेह-प्रतीति का विषय ही स्नेह कहलाता है । वह केवल जल में रहता है । घृत इत्यादि में पाया जाने वाला स्नेह जल के संसर्ग से होता है । वह स्नेह द्रवत्व से भिन्न है, क्योंकि सुवर्ण में पाया जाने वाला द्रव धूल नहीं इकट्ठा करता है, किन्तु स्नेह ही धूल को इकट्ठा करने का कारण बनता है । जलत्व मात्र को स्नेह इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘जल स्निग्ध है’ इत्यादि प्रतीतियों में स्नेह जल का धर्म प्रतीत होता है । किञ्च जल से भिन्न पार्थिव शहद आदि में भी स्नेह देखा जाता है । इस प्रकार केवल जल में पाया जाने वाला, पांसु के ग्रहण करने का कारणभूत स्नेह नामक गुण है; यह वैशेषिक तथा एक प्रकार के विशिष्टाद्वैती विद्वान् मानते हैं ।
दूसरे प्रकार के विशिष्टाद्वैती विद्वान् मानते हैं कि ‘यह स्निग्ध है’ इस प्रकार की प्रतीति अवश्य होती है। रूप-विशेष एवं स्पर्श - विशेष इत्यादि के विषय में वह स्निग्धत्व प्रतीति होती है । जल की मसृणता को लेकर उसके स्निग्धत्व की प्रतीति होती है । मसृणता ऐसे स्पर्श को कहते हैं कि उससे संयुक्त होने वाले पदार्थ को पृथक नहीं किया जा सके । इस प्रकार का स्नेह स्वर्ण में भी रहता है ।
तीसरे प्रकार के लोग कहते हैं कि जल में स्नेह नहीं होता, अपितु स्नेह मृत्तिका में रहता है । जल में विद्यमान जलत्व अथवा जल में विद्यमान एक प्रकार की शक्ति- विशेष के द्वारा जल धूलियों को विटोरता है। उनका कहना है कि यदि धूलि - संग्राहक [[२८३]] होने के कारण जल में स्निग्धत्व की कल्पना की जाती है तो फिर विश्लेषक होने के कारण अग्नि में रूक्षता नामक गुण की भी कल्पना करनी चाहिए ।
वास्तविकता यह है कि जल का स्वरूप ही तत् तत् सहकारियों को प्राप्त कर संग्राहक और विभेदक होता है, उससे अतिरिक्त स्नेह नामक एक गुण की कल्पना करना अनावश्यक है । अतएव स्नेह भी जल के स्वरूप से अतिरिक्त पदार्थ नहीं है । इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि संख्या, परिमाण, द्रवत्व तथा स्नेह तत्-तत् वस्तुओं के स्वरूप रूप ही हैं, इनको अलग-अलग गुण मानना असंगत है ।
गुरुत्व का शक्ति में अन्तर्भाव - बतलाते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा कि गुरुत्व का शक्ति में ही अन्तर्भाव मानना चाहिए। क्योंकि स्वतः गिरने का हेतु जो स्वभाव है, वही गुरुत्व है । वह गुरुत्व जल और पृथिवी में रहता है । यह गुरुत्व पृथिवी और जल के स्वरूप से अतिरिक्त नहीं होता । प्रतिबन्धक रहित पृथिवी और जल स्वरूपतः गिरते हैं । शिक्यों से दधिभाण्ड के नहीं गिरने का प्रतिबन्धक शिक्य ही है । अतिरिक्त गुरुत्ववादियों के मत में पतन का कारण जो अतिरिक्त गुरुत्व है, उसके पतन का जो कारण है, उस पतन का प्रयोजक स्वभाव ही है । वह स्वभाव पृथिवी स्वरूप तथा जलस्वरूप दोनों का ही है, यही मानना चाहिए । न्यायतत्त्व के प्रणेता नाथमुनि तीन प्रकार का गुरुत्व मानते हैं – ऊर्ध्वगुरुत्व, अधोगुरुत्व तथा तिर्यग्गुरुत्व । तिर्यग्गुरुत्व के कारण वायु तिर्यग्गमन करता है । ऊर्ध्वगुरुत्व के कारण अग्नि में ऊर्ध्वज्ज्वलन होता है । अधोगुरुत्व के कारण ही जल और पृथिवी का अधःपतन होता है । न्यायतत्त्वकार के अनुसार गुरुत्व का स्वभाव अथवा अदृष्ट अथवा ईश्वरसंकल्प में अन्तर्भाव होता है । वेदान्तदेशिक का कहना है कि शक्ति में ही गुरुत्व का अन्तर्भाव होना चाहिए, वह शक्ति ही सर्वत्र करणत्व की निर्वाहिका होती है । वह पतनादि का कारण है । शक्ति से अतिरिक्त गुरुत्व नामक पदार्थ नहीं है ।
इस विस्तृत विवेचन से स्पष्ट हो गया कि
दश ही गुणों को स्वीकार करना चाहिए ।
मूलम्
१७. ननु चतुर्विंशतिप्रकारा गुणा इत्युक्तत्वात् कथं दशैवेति निर्दिश्यते ? इति चेत्, उच्यते ।
जीवात्मविशेषगुणानाम् बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नानां षण्णां ज्ञानविततिरूपत्वेन ज्ञानान्तर्भावस्य उक्तत्वात् । धर्माधर्मयोरपि ईश्वरप्रीत्यप्रीति-रूपत्वेन ईश्वरज्ञाने अन्तर्भावात् । भावनाख्यसंस्कारस्य ज्ञानविशेषरूपत्वात् । वेगोत्पादक( त्पतन )हेतोरेव वेगाख्यसंस्कारोपपत्तेः । संयोगमादाय स्थितिस्थापकस्यापि सम्भवात् । शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानाम् पञ्चानाम् प्रत्यक्षसिद्धत्वेन अङ्गीकारात्। विभागपृथक्त्वयोरपि संयोगाभावमादाय उपपत्तेः । परत्वापरत्वयोः देशकाल-संयोगविशेषमादाय उपपत्तेः । सङ्ख्यापरिमाणद्रवत्वस्नेहानां तत्तद्द्रव्यस्व-रूपमादाय उपपत्तेः । गुरुत्वस्य शक्त्यन्तर्भावस्य वक्तुमुचितत्वाच्च दशैवेति सुष्ठूक्तम् ।
वासुदेवः
चतुर्विंशतिप्रकारा इति । यद्यपि ‘रूप १ रस २ गन्ध ३ स्पर्शाः ४ संख्या ५ परिमाणानि ६ पृथक्त्वं ७ संयोग ८ विभागौ ९ परत्वा १० परत्वं ११ बुद्धयः १२ सुख १३ दुःखे १४ इच्छा १५ द्वेषौ १६ प्रयत्नाश् १७ च गुणाः’ ( क० सू. १।१६ ) इति सूत्रे सप्तदश गुणा उक्तास् तथा ऽपि तत्-सूत्रस्थ-चकारेणानुक्त-समुच्चयार्थकेन गुरुत्व १८ द्रवत्व १९ स्नेह २० संस्कार २१ धर्मा २२ धर्म २३ शब्दा २४ नां संग्रह इत्य् उपस्कारविवृत्योर् उक्तत्वाच् चतुर्विंशतिप्रकारा इत्य् उक्तम् । ज्ञानान्तर्भावस्येति । अत एवा ऽऽहुः–
इच्छाद्वेषप्रयत्नादि शब्दैर् धीर् अभिधीयते । अर्थभेदानुविद्धास् ते धीविशेषाः प्रकीर्तिताः ॥
इति ।
इच्छादि हेतुभूतानुकूलादि विषया बुद्धिर् एवेच्छादिव्यवहारम् आतनोति । तद् अतिरिक्तकल्पने न को ऽपि लाभः । गौरवदोष एव लभ्यते । न च ज्ञानेच्छादीनां पर्यायत्वं स्याद् इति वाच्यम् । यथा ज्ञानत्वाविशेषे ऽपि प्रत्यभिज्ञा-स्मृत्यनुमित्यनुभवादि-भेदेषु न पर्यायत्वं तद्वद् अत्रापि वक्तुं शक्यत्वात् । अन्यथेर्षाभ्यसूया-भय-धृति-करुणा-शान्ति-तुष्टयादि-व्यवहाराणाम् अपि विषयलाभार्थम् अर्थान्तरं कल्प्यं स्यात् । यद्यपि पादयोर् मे दुःखम् इत्य् आदि व्यवहारात् सुखदुःखयोः शरीरधर्मत्वं प्रतीयते तथा ऽपि तद् औपचारिकम् । मृतशरीरे ऽनुपलम्भात् । तथा च तयोर् आत्मधर्मत्वेन धीविशेषत्वम् उपपन्नम् । धर्माधर्मयोरिति । चिरध्वस् तस्य कर्मणः कालान्तरभाविफलानुगुणं किमपि द्वारम् अदृष्टाख्यम् उपादेयम् । तच् चान्तःकरणपरिणतिर् इति सांख्याः । चेतसो वासनेति सौगताः । पुंधर्म इति न्यायवादिनः । विभुरूपं किमपि तत्त्वान्तरम् इति जैनैकदेशिनः । पुद्गलरूपम् इति तत् सयूथ्याः । एतच् चिन्त्यम् । प्रमाणाभावात् । गौरवाच् च । किंतु तत्तत्कर्माचरणपरिणतेश्वर-बुद्धिविशेष एवादृष्टम् । अत एव ‘स एवैनं भूतिं गमयति’ (तै० सं० २।१।१) ‘स एनं प्रीतः प्रीणाति’ (तै० सं० ५।७।४) ‘एष ह्य् एव साधु कर्म कारयति तम्’ (कौ.३।८) ‘क्षिपाम्य् अजस्रम् अशुभान्’ (गी० १६।१९ ) इत्यादिष्व् ईश्वर-प्रीतिकोपाभ्यां फलप्राप्तिर् अभिधीयते । एतेन शरीरादिकं भोक्तृ-विशेष-गुणप्रेरित-भूतपूर्वकं तद् भोगसाधनत्वात् स्त्रगादिवद् इति सिद्धे ज्ञानाद्य् अनुपपत्तेः परिशेषाज् जीव समवेतादृष्टसिद्धिर् इति वैशेषिकाद्य् उक्तम् अपास्तम् । अस्मद् उक्तादृष्टाद् एव नियमोपपत्तेर् विपक्षे बाधकाभावात् । ज्ञानविशेषेति । संस्कारो हि धर्मभूतज्ञानस्यावस्थाविशेषः । स्मृत्यादिवत् । ज्ञानस्य द्रव्यत्वेन तस्यावस्थावत्त्वम् उपपद्यते । तत्रा ऽऽत्मा निर्विकारः । धर्मभूतज्ञानं तु सविकारम् । तच् चा ऽऽत्मनो नित्यासाधारणधर्मः । तेन धर्मभूतज्ञानगताः सर्वे विकारा ज्ञानद्वारा ज्ञानाश्रयात्मपर्यन्तं व्यवह्रियन्त इत्य् आहुः । वेगोत्पादकेति । शीघ्रं गच्छतीत्य् आदिषु कर्मातिशय-विशेषाद् इतरो वेगो नाम कश्चिद् गुणो नोपलभ्यते । अतिरिक्तवेगवाद्य् अपि कर्मभेदाद् वेगभेदं कथयति । तथा च यादृशकर्मभेदाद् वेगभेदः परिकल्प्यते स एव कर्मभेदो वेग इत्य् उच्यताम् इति भावः । संयोगमिति । ननु शाखाकोदण्ड-चर्म-प्रभृतिष्व् आकर्षणादौ सति कुतश्चित् कारणविशेषाद् भूयः स्वस्थानावस्थानं भवति स कारणविशेषः स्थिति-स्थापक इत्य् अङ्गीकर्तव्य इति चेन् न । नियत-संस्थान-विशेषस्यैव तत्र कारणत्वात् । न च स्थितिस्थापक विशेषाभावे परावर्तने द्रौत्यविलम्बादिकं कथम् इति वाच्यम् । तत् तत् स्थिति-स्थापक-विशेष-नियामकेन तत् तत् संस्थानविशेषेण तत्संभवात् । सर्वदा क्रियोत्पत्ति-प्रसङ्गः । कर्षण मोक्षणादि सहकारि-साहित्येन परिहारश् चोभयोस् तुल्य एव । विभागेति । उपपादितम् एतत् संयोग निरूपणे । पृथक्त्वेति । सर्वार्थसिद्धिकारास् तु ‘व्यवहार एव खल्व् अर्थतत्त्वविभागे निदानम् । यद् भिन्नम् इति व्यवह्रियते तद् एव पृथग् इति । यत् पृथग् इति व्यवह्रियते तद् एवेतरद् इति । अत एषां शब्दानां पर्यायत्वाद् भेदातिरेकेण पृथक्त्वं नाम न कश्चिद् धर्मः कल्पनीयः । भेदश् च नीलपीतादिर् असाधारणो धर्म एव । तथा च सर्व-वस्तूनां परस्पर-व्यावर्तकासाधारण-धर्म एव पृथक्त्वं स एव च भेदः’ इत्य् आहुः । परत्वापरत्वयोर् इति । न च परत्वापरत्वयोर् दिक्काल-संयोग-विशेष स्वरूपत्वे तयोः प्रत्यक्षविषयत्वं न स्याद् दिक् कालयोर् अप्रत्यक्षत्वाद् इति वाच्यम् । आकाश-स्वरूपाया दिशः कालस्य च प्रत्यक्षत्वस्य प्राग् उपपादित्वात् । संख्येति । तार्किकास् तु - एकद्व्यादि-प्रतीति-व्यवहार-विषयो यो गुणः सा संख्या । सा पुनः परमाण्व् आदौ नित्या । द्व्यणुकत्र्यणुकादौ तु तत्तत् कारणगतैर् एकत्वेर् जन्यते । द्वित्वत्रित्वादिकं त्व् अनेकावगति-सहकृतैकैकनिष्ठैकत्व-जन्यम् । सा चावगतिर् अपेक्षा-बुद्धिर् इत्य् उच्यते । सा च अपेक्षा बुद्धिस् तत्तत् पुरुषमात्रनिष्ठा इति तज्जन्यद्वित्वत्रित्यादिकं तत्तत् पुरुषैर् एव अनुभूयते । क्षणिकं च तत् । तत्कालमात्रभावित्वाद् इत्य् आहुः । तत्रेदम् उच्यते - यादृशापेक्षा-बुद्धिविषयाद् द्वित्वाद्य् उत्पत्तिस् तादृशापेक्षा-बुद्धिविषय-वस्तुविशेषोपलम्भ एव द्वित्वादि-व्यवहारम् आतनोतु । किम् अतिरिक्त-द्वित्वादि-कल्पनेन । न ह्य् अपेक्षा बुद्धिर् निर्विषया । अज्ञानत्वप्रसङ्गात् । नापि प्रकृतानुपयोगिवस्तुविषया । प्रकृतासंगतिप्रसङ्गात् । तथा च सविषयत्वे प्रकृत-संगतत्वे च सिद्धे यो ऽयं विषय-विशेषः स एव द्वित्वादि-व्यवहारम् आतनोतु । अवश्यं चैतद् एवं विज्ञेयम् । इतरथा ऽतिरिक्त-संख्या-कल्पने ऽपि संख्याया गुणत्वेन गुणस्य च द्रव्यमात्रवृत्तित्वेन गुणगतायाश् चतुर्विंशति-संख्यायाः कर्मगतायाः पञ्चत्व-संख्यायाश्चानुपपत्तेः । तत्रा ऽऽश्रयद्वारा संख्याकल्पने ऽपि गुणाश्रयाणां चतुर्विंशतित्वमेव कर्माश्रयाणां पञ्चत्वमेवेत्यत्र नियामकाभावः । पृथिव्यप्तेजोवायुमनसां पञ्चानाम् एव कर्माश्रयत्वे ऽपि न तत्पञ्चत्वमुत्क्षेपणादिभेदेन पञ्च कर्माणीति वदद्भिः कटाक्षीकृतम् । एकत्वं च कार्यभूतं नास्त्येव । अवयवातिरिक्तस्यावयविनः कार्यस्याभावात् । संघातैक्यं तु राशिवद् औपचारिकम् एव । नित्यम् अपि एकत्वं भेदाभावरूपं नातिरिक्तम् इति केचित् । अत एव एकत्वविवरणे प्रवृत्ता भेदाभावरूपतयैवैकत्वं विवृण्वन्ति । एकत्वभ्रमो भेदादर्शनाद् अभूद् इति च भ्रान्ति-विषये व्यवहरन्ति । स्वसत्त्वमेवैकत्वं तच् चेतरसद्भावे ऽपि वर्तत इत्य् अन्ये । परिमाणम् अपि नातिरिक्तम् । किंतु देश-व्याप्ति-विशेष एव तत् तत् प्रतिसंबन्धिनिरूपित-स्वरूपेण तत् तत् परिमाणम् इति वदन्ति । द्रवत्वम् अपि तत् तद् वस्तु संस्थान-विशेष-स्वरूपम् एव नातिरिक्तम् । तावतैव स्यन्दनोपपत्तेः । स्नेहो ऽपि नातिरिक्तः । किंतु सलिल-स्वरूपम् एव चूर्णादिपिण्डीभावम् आतनोति । यदि पिण्डीभावसाधनत्वात् सलिले स्नेहाख्यो गुणः स्वीक्रियते तर्हि विश्लेष-साधनत्वाद् आतपादौ रौक्ष्याख्यं गुणान्तरं किं न कल्प्यते । औष्ण्यादिभिर् एव विश्लेषश् चेत् पिण्डीभावो ऽपि शैत्यादिभिर् एव स्यात् । किंच सलिलस्यापि क्वचित् पिण्डीभावासाधनत्वं दृश्यते । शुष्कमृत्पिण्डादीनां सलिलसेकेन विलयदर्शनात् । तस्मात् सलिल-स्वरूपम् एव सहकारि-विशेषम् आसाद्य पिण्डी-भावसाधनं विश्लेष-साधनं च भवतीति यथोपलम्भम् अङ्गीकार्यम् । चेतननिष्ठः स्नेहस् तु बुद्धि-विशेषस्वरूप एवेति दिक् । गुरुत्वस्येति । गुरुत्वं हि पतनहेतुतया नयायिकैः कल्प्यते । तद् असत् । सर्वत्र हेतुत्व-निर्वाहकतया ऽभ्युपगतायाः शक्तेर् एवात्रापि स्वीकर्तुम् उचितत्वात् ॥