विश्वास-प्रस्तुतिः
१४. संयुक्त-प्रत्यय-निमित्तं संयोगः ।
स च सामान्य-गुणः षड्-द्रव्य-वृत्तिः।
+++(वृक्ष-मर्कट-संयोगे सति, तद्-अङ्गान्तरे संयोगाभावो ऽपि भवतीति)+++
अस्य +++(संयोगस्य)+++ च स्वाभाव-सादेश्यम् उपलभ्यमानम्
अंश-भेद-प्रयुक्ततया न विरोधावहम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘स चे’**ति । संयोगशक्तिश्च सामान्यगुणौ । यावद्द्रव्यवृत्तिगुणत्वं सामान्यगुणत्वम् । द्रव्यत्वव्यापकतावच्छेदकाद्रव्यविभाजकोपाधिमत्त्वमिति यावत् । संयोगत्वं शक्तित्वं च तादृशोपाधिः । अंशभेदान् – मूलशाखादिरूपावच्छेदकभेदात् । अग्रे वृक्षः कपिसंयोगी न मले इति हि प्रतीतिः । उभयप्रेरणात् - उभयनिष्ठक्रियातः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनु० - ‘ये पदार्थ संयुक्त हैं। इस प्रकार की प्रतीति जिसके कारण होती है, उसे संयोग कहते हैं । संयोग एक सामान्य गुण है तथा छह द्रव्यों में पाया जाता है । संयोग का वृक्षादि एक ही देश में जो अभाव भी उपलब्ध होता है, वह एक ही वस्तु के अंश की भिन्नता के कारण होता है, अतएव उसमें कोई भी विरोध नहीं है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
संयोग का निरूपण
भा० प्र० - संयोग नामक अद्रव्य को लक्षित करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि - जिस अद्रव्य के कारण ये दोनों पदार्थं संयुक्त हैं, इस प्रकार की प्रतीति होती है, उस अद्रव्य ( गुण ) को संयोग कहते हैं।
संयोग का यह स्वभाव है कि
वह अपने अभाव के साथ एकदेश में रहता है ।
जैसे जिस वृक्ष पर वानर बैठा है,
उसके अग्रभाग में तो वृक्षी-वानर-संयोग का सद्भाव है,
किन्तु वृक्ष के मूलभाग में वृक्षी-वानरसंयोग का अभाव है ।
अतएव समान देश में उसके सद्भाव और अभाव की उपलब्धि जो होती है,
वह देश के अंशभेद को लेकर है;
जैसे—एक ही वृक्ष के एक [[२७६]] अंश में कपिसंयोग का सद्भाव तथा दूसरे अंश में उसका अभाव दृष्टिगोचर होता है ।
अतएव उसमें कोई विरोध नहीं है ।
‘अस्य च स्वाभाव-सादेश्यम्’ नियम के विषय में
यह भी शंका की जा सकती है कि
सावयव पदार्थों के विषय में तो
संयोग का समान देश में अंशभेद के कारण
अपने अभाव के साथ रहने का नियम उपपन्न हो सकता है,
किन्तु निरवयव पदार्थों के विषय में
संयोग के उस स्वभाव का
कैसे निर्वाह हो सकता है ?
तो इस शंका का समाधान है कि
निरवय पदार्थों में भी
संयोग के इस नियम की उपपत्ति उपाधि के द्वारा होती है ।
निरवयव पदार्थों का भी
औपाधिक अंश तो रहता ही है ।
अतएव उसके एक औपाधिक अंश में
संयोग रहता है
तथा दूसरे औपाधिक अंश में
संयोग का अभाव रहता है ।+++(5)+++
जैसे - मठाकाश में पुरुष-संयोग रहता है
तथा घटाकाश में उस संयोग का अभाव रहता है ।
मूलम्
१४. संयुक्तप्रत्ययनिमित्तं संयोगः । स च सामान्यगुणः षड्द्रव्यवृत्तिः अस्य च स्वाभावसादेश्यम् उपलभ्यमानम् अंशभेदप्रयुक्ततया न विरोधावहम् ।
वासुदेवः
संयुक्तेति । यत् तु द्रव्य-स्वरूपम् एव संयोगो न पदार्थान्तरम् इत्य् आहुः । तन् न । तथा सति वियुक्तयोर् अपि स्वरूपानपायात् संयुक्त-प्रत्ययः स्यात् । बौद्धाश् च नैरन्तर्य-मात्रम् एव संयोग इत्य् आहुः । तत्र नैरन्तर्यं नामान्तरालाभावः । स चा ऽऽसन्न-देश-संयोग एव । अभावस्य भावान्तर-रूपत्वात् । तथा च संयोगो ऽवश्यं स्वीकार्य एव । किञ्च संयोगस्य सार्वत्रिकोपजीवनेन सर्वैर् अनपवाद्यत्वम् एव । यतः प्रकृति-पुरुष-संयोगाद् विश्व-सृष्टिः । तादृशैर् एव संयोग-विशेषैर् ब्रह्मादि-स्तम्ब-पर्यन्तं जगद्-वैषम्यम् । इन्द्रियार्थ-संयोगाद् विविधा मतिः । जलादि-संयोगाद् बीजे ऽङ्कुरोत्पत्तिः । पवित्र-वस्तु-संयोगात् सुखम् । अपवित्र-वस्तु-संयोगाद् दुःखम् इति संयोग-कार्याणि सर्वत्रानुभूयन्ते । स्वाभावेति । स्वस्य संयोगस्य यो ऽभावस् तेन सह संयोगस्य सादेश्यम् । समानो देशो यस्य स सदेशस् तस्य भावः सादेश्यम् । सामानाधिकरण्यम् इति यावत् । यस्मिन् वृक्षे कपि-संयोगस् तस्मिन्न् एव वृक्षे तद्-अभावो यद्यप्य् उपलभ्यते तथा ऽपि न विरोधः । संयोगस्याग्रावच्छेदेन तद्-अभावस्य च मूलावच्छेदेन सत्त्वात् । एक-देशावच्छेदेन द्वयोर् युगपत्-प्रतीतौ हि विरोधः । नात्र तथेति भावः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कार्याकार्य-भेदाद् द्वि-विधः ।
पूर्वः परिमितानाम् उभय-प्रेरणात् - यथा मेषयोर् मल्लयोर् वा ।
क्वचिद् +++(स एव)+++ अन्यतर-प्रेरणात् - यथा स्थाणु-श्येनयोः संयोगः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘अकार्ये’**ति । अजसंयोगः विभ्वोः कालेश्वरयोः । नित्यद्रव्ययोरीश्वरतद्विग्रहयोरपि नित्यसंयोगोऽस्त्येव ।
शिवप्रसादः (हिं)
संयोग दो प्रकार का होता है-कार्यसंयोग तथा कार्यभिन्न संयोग । कार्यसंयोग सीमित वस्तुओं में होता है तथा दोनों के प्रेरित होने पर होता है । जैसे- दो मेषों अथवा दो मल्लों का संयोग । कहीं पर दोनों में से एक के भी प्रेरित होने से होता है; जैसे– श्येन पक्षी तथा ठूंठे वृक्ष का संयोग ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
संयोग के दो भेदों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि संयोग दो प्रकार का होता है - कार्यसंयोग तथा अकार्यसंयोग ।
कार्य संयोग - परिमित मूर्त पदार्थों का संयोग कार्य है, क्योंकि वह उत्पन्न होता है । परिमित मूर्त पदार्थ एवं अपरिमित विभु पदार्थों में भी होनेवाला संयोग कार्य होता है । यह कार्यरूप संयोग तब होता है, जब कि उन दोनों पदार्थों में क्रिया हो । जैसे दो भेड़ों का संयोग तब होता है जब कि दोनों में क्रिया होती है । अथवा दो पहलवानों में संयोग तब होता है, जब कि उन दोनों में क्रिया हो । कहीं-कहीं पर संयुक्त होनेवाले दोनों पदार्थों में से एक पदार्थ में भी होनेवाली क्रिया से संयोग होता है; जैसे - बाज पक्षी तथा स्थाणु ( ठूंठा पेड़ ) का संयोग । इस संयोग में केवल बाज में क्रिया होती है ।
संयोगज संयोग का खण्डन - वैशेषिक दार्शनिक एक तीसरे प्रकार का भी संयोग मानते हैं-संयोगज संयोग । जैसे - हाथ और पुस्तक के संयोग से सम्पन्न होनेवाला कार्य पुस्तक संयोग । हाथ शरीर का अवयव है और शरीर उसका अवयवी । अवयव- भूत हाथ से पुस्तक का संयोग होने से अवयवी शरीर से पुस्तक का संयोग संपन्न हो जाता है । परन्तु वैशेषिकों द्वारा स्वीकृत यह संयोग समीचीन नहीं है, क्योंकि अवयव- समुदाय से अतिरिक्त अवयवी नामक कोई पदार्थ ही नहीं है । अवयवभूत हाथ का पुस्तक से जो संयोग होता है, वही अवयव समुदाय शरीर का पुस्तक के साथ संयोग है । अतएव संयोगजसंयोग की मान्यता ठीक नहीं है ।
मूलम्
स कार्याकार्यभेदात् द्विविधः ।
पूर्वः परिमितानाम् उभयप्रेरणात् - यथा मेषयोर्मल्ल-योर्वा ।
क्वचित् अन्यतरप्रेरणात् - यथा स्थाणुश्येनयोः संयोगः ।
वासुदेवः
कार्याकार्येति । कार्यो ऽनित्यः । अकार्यो नित्यः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित् संयोग-ज-संयोगम् अपि वदन्ति -
हस्त-पुस्तक-संयोगात् काय-पुस्तकसंयोग इति ।
तन् न - हस्त-संयोगाद् एव काय-संयोगस्य जातत्वात् ।
एतेन विभागज-विभागो निराकृतः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘एतेन’ इति । नानावर्णतन्तुभिराब्धे पटे चित्रं नाम अतिरिक्तं रूपमुपगतम् तार्किकैः । सिद्धान्ते त्वतिरिक्तावयव्यनङ्गीकारात् ओतप्रोतभावेन संयुतानां तन्तूनामेव नाना वर्णाचित्रपटे भासन्ते इति नातिरिक्तचित्ररूपकल्पनावसर इति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
कुछ लोग संयोगजन्य संयोग को भी स्वीकार करते हैं; जैसे - हस्तपुस्तक-संयोग से उत्पन्न कार्य (शरीर ) पुस्तक का संयोग । किन्तु यह संयोग नहीं माना जा सकता है, क्योंकि हस्तपुस्तक-संयोग से ही संयोग उपपन्न हो जाता है ।
अतएव विभागजन्य विभाग की भी उपपत्ति नहीं हो सकती है ।
मूलम्
केचित् संयोगजसंयोगमपि वदन्ति -
हस्तपुस्तकसंयोगात् कायपुस्तकसंयोग इति ।
तन्न - हस्तसंयोगादेव कायसंयोगस्य जातत्वात् ।
एतेन विभागज-विभागो निराकृतः ।
वासुदेवः
हस्त-संयोगादेवेति । हस्त-संयोग एव काय-संयोगः । हस्तादि-व्यतिरिक्तस्यावयविनो ऽभावात् । किञ्च व्यतिरिक्तावयवि-स्वीकारे ऽपि हस्त-संयोगाद् भिन्नः काय-संयोगो न सिध्यति । येन हेतुना यदैवावयवः संयुज्यते तेनैव हेतुना तदैवावयव्य् अपि संयुज्यताम् । न हि हस्त-पुस्तक-संयोगानन्तर्यं देवदत्त-पुस्तक-संयोगस्योपलभ्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभागोऽपि संयोगाभाव एव, न पृथग्गुणः ।
शिवप्रसादः (हिं)
विभाग भी संयोग का अभावरूप होने के कारण अतिरिक्त गुण नहीं हो सकता है।
मूलम्
विभागोऽपि संयोगाभाव एव, न पृथग्गुणः ।
वासुदेवः
विभागो ऽपीति । परस्पर-संयुक्ते द्रव्यद्वये विद्यमाने सति समुपनतो यः संयोगनाशः स एव विभाग-व्यवहार-विषयः । न तु नैयायिकाभ्युपगतो विभागो नाम कर्श्विद्गुणो ऽस्ति । न च संयोगविनाशकत्वेन विभागः स्वीकार्य इति वाच्यम् । विभागकारणत्वेन कल्पितात् कर्मण एव संयोगनाशोपपत्तेः । न च संयोगनाशे जातस्य संयोगनाशस्याविनाशित्वेन पुनः संयोगे ऽपि विभक्तप्रत्ययः स्याद् इति वाच्यम् । त्वन्मते विभागाभावेन विभक्तप्रत्ययाभावे ऽपि संयोगनाशस्य सत्त्वेनासंयुक्त-प्रत्ययप्रसङ्गात् । अथ पुनर्जातः संयोगो ऽसंयुक्त-प्रत्यय-प्रतिबन्धक इति चेत् स एव विभक्तप्रत्ययस्यापि प्रतिबन्धको ऽस्तु । न च संयोगजनकस्य कर्मणः संयोगनाशजनकत्वमनुपपन्नम् इति वाच्यम् । रूपादिजनकतया ऽभ्युपगतस्याग्नि-संयोगस्य रूपादिनाशकत्वाभ्युपगमात् । ननु सिद्धान्ते ऽभावस्य भावान्तररूपत्वेन संयोगनाशः किं स्वरूप इति चेद् उच्यते — उत्तरदेश-संयोग एव पूर्वदेश-संयोगनाशः । उत्तरदेश-संयोगस्य पूर्वदेश-संयोगेन सह विरोधाद् उत्तरदेश-संयोग एव पूर्वदेश-संयोगविरुद्धत्वेना ऽऽलोचितः पूर्वदेश-संयोगनाश इति परिस्फुरति । न चोत्तरदेश-संयोगस्य भावरूपेण प्रतीतिः कथम् इति वाच्यम् । द्विविधा ह्युत्तरदेश-संयोगप्रतीतिः । ज्ञातपूर्वदेश-संयोगस्य तद्-विरुद्धत्वेनैका । स्वरूपेण चापरा । तत्र ये स्वरूपेण प्रतिपद्यन्ते ते भावरूपेणाभिमन्वते । ये पुनः पूर्वदेश-संयोगविरुद्धत्वेन प्रतिपद्यन्ते ते त्वभावरूपेण इति बोध्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१५. अकार्यसंयोगस् तु विभु-द्रव्ययोः ।
अ-ज–द्रव्य-संयोगः श्रुत्या अङ्गीक्रियते ।
अनुमानाद् अपि अज-द्रव्य-संयोग-सिद्धिः ।
यथा – “विभु-द्रव्यं विभु-द्रव्य-संयोगवत्, द्रव्यत्वात्, घटवत्” ।
“विभुद्रव्यम् ईश्वर-संयुक्तम्, द्रव्यत्वात्, घटवत्” ।
“ईश्वर, कालादि-संयुक्तः, द्रव्यत्वात्, घटवत्”
इत्यादिभिर् विभु-संयोग-सिद्धिः ।
अण्णङ्गराचार्यः
अजद्रव्यं नित्यद्रव्यम् **‘श्रुत्ये’**ति । अन्तर्यामिब्राह्मणादिश्रुतित ईश्वरस्य प्रकृतिपुरुषादिषु संयोगस्यान्तर्बहिर्व्यापित्वप्रतिपादनात् सिद्धेरित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
दो विभु द्रव्यों में होनेवाला संयोग अकार्यसंयोग है । नित्य द्रव्यों के संयोग का प्रतिपादन श्रुतियाँ ही करती हैं। अनुमान के द्वारा भी अज ( नित्य ) द्रव्यों के संयोग की सिद्धि होती है । उदाहरणार्थ - विभुद्रव्य से विभुद्रव्य का संयोग होता है, क्योंकि वह घट के समान द्रव्य है । किञ्च - विभुद्रव्य ईश्वर से संयुक्त होता है, क्योंकि वह घट के समान द्रव्य है । ईश्वर का काल आदि से संयोग होता है, क्योंकि वह घट के समान द्रव्य है । इत्यादि अनुमान के द्वारा विभुद्रव्यों के संयोग की सिद्धि होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
अकार्यसंयोग — उन दो वस्तुओं में होता है, जो निश्चल रहते हुए अन्तरालरहित होते हैं । काल तथा ईश्वर इत्यादि विभुद्रव्य निश्चल हैं। इनमें क्रिया नही होती है । ये सभी मूर्तं द्रव्यों से संयुक्त होकर रहते हैं । दोनों विभुद्रव्यों के बीच में कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है, जो उनसे संयुक्त न हो । अतएव वे अन्तरालरहित हैं । अन्तराल वही पदार्थ होता है, जो उनसे असंयुक्त रहता है। दोनों विभुद्रव्यों में क्रिया न होने के कारण इनका संयोग अकार्य है, कार्य नहीं है । वैशेषिक अकार्यसंयोग को नहीं [[२७७]] मानते हैं, किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि अनुमानप्रमाण के द्वारा अकार्यसंयोग की सिद्धि होती है । तथाहि - १. दो विभुद्रव्यों में संयोग होता है, क्योंकि वे अन्तराल-शून्य होकर रहते हैं । जैसे अन्तराल-शून्य होकर रहनेवाले दो मनुष्यों में संयोग देखा जाता है । यदि दोनों विभुद्रव्य संयुक्त नहीं होते तो उनमें अन्त- राल अवश्य रहता, किन्तु उनमें अन्तराल नहीं होता है, इससे सिद्ध होता है कि उनमें संयोग होता है । २. किञ्च विभुद्रव्य ईश्वर से संयुक्त होकर रहता है, क्योंकि वह द्रव्य है, जिसने द्रव्य हैं, वे सब घट के समान ईश्वर से संयुक्त होकर रहते हैं । ३. विभुद्रव्य ईश्वर, काल आदि से संयुक्त होकर रहता है; क्योंकि वह द्रव्य है । जितने भी द्रव्य हैं, वे घट के समान काल से संयुक्त होकर ही रहते हैं ।
किञ्च श्रुतियाँ भी विभुद्रव्य ईश्वर को स्वेतर समस्त वस्तुओं से संयुक्त होकर रहने का प्रतिपादन करती हैं । ‘सर्वव्यापी च भगवान्’ अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापक है । इससे ईश्वर की सभी वस्तुओं से संयुक्त होकर रहने की सिद्धि होती है । ‘अन्त- र्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः’ श्रुति बतलाती है कि भगवान् नारायण संसार की सभी वस्तुओं के बाहर-भीतर व्याप्त होकर रहते हैं । यह श्रुति भी परमात्मा का सभी वस्तुओं से संयोग बतलाती है ।
मूलम्
१५. अकार्यसंयोगस्तु विभुद्रव्ययोः ।
अजद्रव्यसंयोगः श्रुत्या अङ्गीक्रियते ।
अनुमानादपि अजद्रव्यसंयोगसिद्धिः ।
यथा – “विभुद्रव्यं विभुद्रव्यसंयोगवत्, द्रव्यत्वात्, घटवत्” ।
“विभुद्रव्यम् ईश्वरसंयुक्तम्, द्रव्यत्वात्, घटवत्” ।
“ईश्वर, कालादिसंयुक्तः, द्रव्यत्वात्, घटवत्”
इत्यादिभिः विभुसंयोगसिद्धिः ।
वासुदेवः
विभुद्रव्ययोर् इति । तयोर् असंयुक्तत्वे तु सान्तरत्वप्रसङ्गः । न च निरवयवस्य विभुद्रव्यस्य कथं संयोगः । संयोगस्यैकदेश-वर्तित्व-सामर्थ्यादिति वाच्यम् । औपाधिकांश-भेद-क्लृप्त्या तन्निर्वाहात् । ननु संयोगस्यान्यतर-कर्मोभय-कर्म वा हेतुः । तदभावेन विभु-द्रव्ययोर् न संयोग इति चेन् न । विभु-द्रव्य-संयोगस्य नित्यत्वेन कारण-सापेक्षत्वाभावात् ।
श्रुत्येति । ‘सर्वव्यापी च भगवान्’ ( श्वे० ३।११ ) ‘अन्तर् बहिश् च तत् सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः’ (ना० ११।६) इत्यादिश्रुतयो द्रष्टव्याः । कालादिसंयुक्त इति । न च काल-संयोगे काल-कार्यत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् । तस्यापि तदधीन-विकारत्वात् । तद् उक्तम् -
कालः संपच्यते तत्र न कालस् तत्र वै प्रभुः ।
इति ।
किंच यथा मूर्तगत-विकार-विशेष-सिद्धयर्थं विभु-संयोग उक्तस् तथैव कालादिगत-विकार-सिद्धयर्थमपीश्वर-संयोगो ऽवश्याभ्युपेयः । अन्यथेश्वर-शरीरत्वमपि कालादेर् न स्यात् ।