०८ पञ्चीकरणम् पाकश् च

विश्वास-प्रस्तुतिः

१३. पञ्चीकरण-प्रक्रियया सर्व-भूतेषु सर्व-गुणानां विद्यमानत्वेऽपि
प्राधान्याभिप्रायेण +उक्तम् इति
न विरोधः ।

शिवप्रसादः (हिं)

पञ्चीकरण - प्रक्रिया के द्वारा सभी भूतों में
सभी भूतों के गुणों के विद्यमान रहने पर भी,
यहाँ पर तत् तत् भूतों में ही
तत् तत् गुणों की स्थिति प्राधान्याभिप्राय से बतलायी गयी है,
अतएव इसका कोई विरोध नहीं है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

प्रश्न उठता है कि विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में माना जाता है कि पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार सभी भूतों में सभी भूतों के गुण विद्यमान रहते हैं, अतएव यह कैसे कहा जा सकता है कि गन्ध केवल पृथिवी में ही रहता है ? तो इस शंका का समाधान है कि यद्यपि पञ्चीकरण - प्रक्रिया के अनुसार सभी भूतों में सभी भूत विद्यमान रहते हैं, फिर भी प्रधान रूप से पृथिवी में गन्ध नामक गुण ही विद्यमान रहता है । रस जल और पृथिवी में रहता है । अतएव इस कथन से पञ्चीकरण प्रक्रिया का कोई भी विरोध नहीं होता है ।

पाकजगुणान्तरोत्पत्ति-विषयक विचार -
औपनिषद् मतावलम्बी मानते हैं कि उत्पन्न होते समय पृथिवी का कृष्ण रूप ही था;
इस अर्थ का प्रतिपादन ‘यत्कृष्णं तदन्नस्य’ यह श्रुति करती है ।
आकाश में नील रूप की विद्यमानता का समर्थन करते हुए श्रीभाष्यकार ने कहा है कि
पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार आकाश में
पृथिवी का नील-रूप मिश्रित हो गया है,
अतएव आकाश में नील रूप की प्रतीति होती है ।
अतः सिद्ध होता है कि पृथिवी का नील रूप स्वाभाविक है,
पाकज नहीं है,
क्योंकि पञ्चीकरण से पूर्व तेजस्तत्त्व कार्य करने में असमर्थ था ।
यहाँ पर नैयायिक एवं वैशेषिक यह प्रश्न उठाते हैं कि
उत्पन्न होते समय सभी कार्य निधर्मक होते हैं,
तदनन्तर क्षण में उनमें पाकजन्य रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है,
अतएव यह कैसे कहा जा सकता है कि पृथिवी उत्पत्ति-काल में नीली थी, उसका नील रूप स्वाभाविक है, पाकज नहीं ? तो इसका उत्तर है कि जिस प्रकार उत्पन्न होते समय में जल अभास्वर- शुक्ल नामक गुण से तथा शीतस्पर्श से युक्त रहता है, उसी प्रकार यह मानना चाहिए कि उत्पन्न होते समय पृथिवी नील रूप से युक्त होती है ।

मूलम्

पञ्चीकरणप्रक्रियया सर्वभूतेषु सर्वगुणानां विद्यमानत्वेऽपि प्राधान्याभिप्रायेणोक्तमिति न विरोधः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाकाद् गुणान्तरोत्पत्तिः स्वाश्रये+++(=??)+++।
स्वाश्रय-नाशाभावाद् एव++++(गुणान्तरोत्पत्ति-)+++उपपत्तेः
पीलु-पाकादि-मत-निरासः ।

इति गन्धः ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘पीलुपाके’**ति । पीलुः परमाणुः । तत्र पाक इति काणादानां मतम् । सच्छिद्रे पिण्डे अग्न्यवयवसम्पर्कादेव पूर्वरूपनाशरूपान्तरोत्पत्त्युपपत्तेः पूर्वपिण्डनाशो नाभ्युपेय इत्याशयः । आश्रयः पिण्डः, (घटादिः) ।

शिवप्रसादः (हिं)

पाक के द्वारा अपने आश्रय में ही गुणान्तर की ‘उत्पत्ति होती है ।
पाक के द्वारा स्वाश्रय का नाश हुए बिना ही
गुणान्तरों की उत्पत्ति उपपन्न हो जाने के कारण,
पिलुपाक, पिठरपाक आदि को मानने वालों के मत का निरास हो जाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अब प्रश्न उठता है कि

पाक के द्वारा द्रव्यों में जो पाकजन्य गुणान्तर की उत्पत्ति देखी जाती है,
वह पाक किसका होता है ?
पीलु (परमाणु) का, या पिठर (अवयवी ) का, या आश्रय का ?

नैयायिक तथा वैशेषिक पीलु (परमाणु) एवं पिठर ( अवयवी ) के पाक को लेकर विवाद करते हैं ।

सिद्धान्त में इन दोनों में से कोई भी पक्ष मान्य नहीं है ।
अतएव विचारणीय विषय है कि

घटादि के अवयव जब संयुक्त रहते हैं,
तब उनमें पाक होता है,
अथवा जब वे अलग-अलग होते हैं,
तब उनमें पाक होता है ?

विचार करने पर ये दोनों पक्ष उत्पन्न होते हैं ।

अवयवों के संयुक्त रहने पर ही [[२७४]] घटादि में पाक होता है,

यह प्रथम पक्ष है ।

इस पक्ष की उपपत्ति यह है कि

अशिथिल रहने वाले घटादि में पाकभेद होने के कारण
रूपभेद दृष्टिगोचर होता है ।
वैशेषिक भी देखते हैं कि घट अशिथिल ही रहता है,
किन्तु पाक के द्वारा उनमें रूपभेद हो जाता है ।
इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि
जब घटादि के अवयव संयुक्त रहते हैं
तभी उनमें पाक होता है ।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि
यदि इस प्रकार का उपपादन होता है
तो फिर वैशेषिकों ने पाकज-प्रक्रिया में यह क्यों माना है कि
पाक में द्व्यणुक-पर्यन्त अवयवियों का नाश होता है
तथा परमाणुओं में पाक से रूपान्तर होने पर
उन परमाणुओं द्वारा द्व्यणुक से लेकर महान् अवयवी-पर्यन्त निर्माण होता है ?

तो इसका उत्तर है कि
वैशेषिकों ने ऐसे कई नियम मान रखें हैं कि
उनको द्व्यणुक-पर्यन्त पूर्वावयवियों का नाश
तथा पक्व परमाणुओं से नवीन द्व्यणुक से लेकर
महान् अवयवी तक का निर्माण मानना पड़ता है ।
यहाँ उनके दो नियमों की चर्चा की जा रही है ।

१. अवयवी में विद्यमान रूपादि गुण
तब तक बने रहेंगे
जब तक उनका आश्रय बना रहेगा,
वे अवयवी के नष्ट होने पर ही नष्ट हो सकते हैं,
उससे पहले नहीं ।

२. अवयवों में विद्यमान विशेष गुणों से
अवयवी में विशेष गुण उत्पन्न होते हैं ।

ये दोनों नियम अनुपपन्न हैं ।
इन्हीं नियमों का निर्वाह करने के लिए
उन्हे द्व्यणुक- पर्यन्त पूर्वावयवी का विनाश मानना पड़ता है,
क्योंकि पूर्वावयवियों के नष्ट हुए बिना
उनके पूर्व गुण रूपादि भी विनष्ट नहीं हो सकते,
फलतः उनमें रूपान्तर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।
अतएव पूर्वावयवियों के विनष्ट हो जाने पर
बचे हुए परमाणुओं के पूर्वरूप
पाक से पहले विनष्ट हो जाते हैं ।
पाक के पश्चात् रूपान्तर प्राप्त परमाणुओं द्वारा
द्व्य्-अणुक से लेकर महान् अवयवी-पर्यन्त तक की
नवीनतया उत्पत्ति होती है ।
इन अनुपपन्न नियमों का निर्वाह करने के लिए ही
उन्हें पीलुपाकवाद अथवा पिठरपाक- वाद स्वीकार करना पड़ता है ।

किञ्च यह भी पक्ष उपपन्न होता है कि
जब अवयव विभक्त रहते हैं,
तब उनके आश्रय में पाक होता है ।
इसके अनुसार
मधु के छत्ते का पाक
लोक में देखा जाता है ।
देखा जाता है कि
अग्नि का संसर्ग होते ही
मधु के छत्ते के अवयव विशीर्ण
और विलीन होने लग जाते हैं ।
अतएव यथावसर अवयवों के संयुक्त रहने पर
अथवा वियुक्त रहने पर,
दोनों प्रकार का पाक स्वीकारा जा सकता है।

इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए
यतीन्द्र-मत-दीपिका-कार कहते हैं -
‘पाकाद् गुणान्तरोत्पत्तिः स्वाश्रये’ इत्यादि ।

मूलम्

पाकाद्गुणान्तरोत्पत्तिः स्वाश्रये ।
स्वाश्रयनाशाभावादेवोपपत्तेः पीलु (पाकवादि) पाकादिमतनिरासः ।