०७ गन्ध-निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मद्-आदि-घ्राण-ग्राह्य-विजातीयेतरो गन्धः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - हम लोगों की घ्राणेन्द्रिय मात्र से जिनका ग्रहण होता है, उनसे जो विजातीय पदार्थ, उन विजातीय पदार्थों से भिन्न जो अद्रव्य होता है, वह गन्ध है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

गन्ध-निरूपण

मा० प्र०— गन्ध को लक्षित करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार का कहना है कि जिन पदार्थों का ग्रहण केवल हमारी घ्राणेन्द्रिय के द्वारा होता हैं, उन पदार्थों से विसजातीय जो पदार्थ, उनसे भिन्न जो अद्रव्य, वे सबके सब गन्ध हैं । संसार में अनेक प्रकार के गन्ध हैं, उन सभी का ग्रहण हमारी घ्राणेन्द्रिय से नहीं हो सकता है, किन्तु जितने का ग्रहण हमारी घ्राणेन्द्रिय से होता है, उससे विसजातीय शब्दादि हैं, उन सबों से भिन्न जो अद्रव्य हैं, वे सबके सब गन्ध हैं । इस प्रकार से लक्षण का समन्वय हो जाता है ।

मूलम्

अस्मदादिघ्राणग्राह्यविजातीयेतरो गन्धः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स द्विविधः – सुरभिर् असुरभिश् चेति ।
पाटीर+++(=चन्दन)+++–मृग-मद–घुसृण+++(=कुङ्कुम)+++-चम्पकादि-गन्धाः सुरभि-भेदाः ।
तद्-अन्येष्व् अ-सुरभि-गन्धाः ।

शिवप्रसादः (हिं)

गन्ध दो प्रकार का होता है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । खस, कस्तूरी, कुंकुम और चम्पक आदि के रस सुगन्ध के अवान्तर भेद हैं ।
पूति ( सड़े हुए मांस की दुर्गन्ध ) और विस्रगन्ध दुर्गन्ध के अवान्तर भेद हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

गन्ध दो प्रकार का होता है— सुगन्ध और दुर्गन्ध । ‘यह सुगन्ध है’ इस प्रकार की प्रतीति और व्यवहार का जो विषय बनता है, उसे सुगन्ध कहते हैं तथा ‘यह दुर्गन्ध है’ इस प्रकार की प्रतीति और व्यवहार का जो विषय बनता है, उसे दुर्गन्ध कहते है ।

मूलम्

स द्विविधः – सुरभिरसुरभिश्चेति ।
पाटीरमृगमदघुसृणचम्पकादिगन्धाः सुरभिभेदाः ।
तदन्येष्वसुरभिगन्धाः ।

वासुदेवः

सुरभि-भेदा इति
एतद्-उत्तरं “पूति-विस्रादि-गन्धा असुरभि-भेदा” इति पाठः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं च गन्धः पृथिव्येकवर्ती
पाक-भेदाद् भिन्नः पवन-सलिलादिषु गन्धोपलब्धिः -
पार्थिवसंसर्गाद् अयो दहतीतिवत् औपचारिकी ।

शिवप्रसादः (हिं)

गन्ध केवल पृथिवी नामक भूत में रहता है और पाक के भेद से इसके भेद होते हैं । वायु, जल आदि में गन्ध की उपलब्धि पार्थिव वस्तुओं के संसर्ग से होती है। वायु के गन्धवत्त्व की प्रतीति औपचारिकी उसी प्रकार से हैं, जिस प्रकार से लोहे में दाहकत्व की प्रतीति औपचारिकी है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

गन्ध केवल पृथिवी में रहता है। यह सुगन्धित जल है, यह सुगन्धित वायु हैं, [[२७३]] इत्यादि प्रकार से जो वायु, जल आदि के सुगन्धित अथवा दुर्गन्धित होने की जो प्रतीति होती है, उसका कारण है— उन वायुओं अथवा जलों से सुगन्धित अथवा दुर्गन्धित पार्थिव पदार्थ का संसर्ग हो जाता है । जिस प्रकार लौहपिण्ड का स्वभाव जलाने का नहीं होता है, किन्तु जब लौहपिण्ड का अग्नि से संसर्ग हो जाता है, तब वह लौहपिण्ड जलाने का कार्य करने लगता है तथा ‘लौहपिण्ड जला रहा है’ इस प्रकार का औपचारिक प्रयोग भी होने लगता है । इसी प्रकार सुगन्धित वायु चल रही है, इत्यादि औपचारिक प्रयोग हैं ।

मूलम्

अयं च गन्धः पृथिव्येकवर्ती
पाकभेदाद्भिन्नः पवनसलिलादिषु गन्धोपलब्धिः
पार्थिवसंसर्गादयो दहतीतिवतौपचारिकी ।

वासुदेवः

पीलु-पाकेति । पीलवः परमाणवस् तेष्व् एव पाको न त्व् अवयविनीति वैशेषिकाः । अवयविन्य् अपि पाक इति पिठर-पाक-वादिनो नैयायिकाः । तद् उभयम् अपि नास्माकं संमतम् । परमाणूनां प्राग् एव निरस्तत्वाद् अवयवातिरिक्तावयविनो ऽसत्त्वाच् च । किन्तु विभक्तेष्व् एव अवयवेषु पाक उत संयुक्तेष्व् अपीत्य् एव चिन्ता । तत्र चास्माभिर् यथा-संभवम् उभयम् अपि स्वी-क्रियते इति बोध्यम् ।