विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मद्-आदि-चक्षुर्-इन्द्रियैक-ग्राह्य–विजातीय-व्यावृत्तम् अद्रव्यं रूपम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - हम लोगों की केवल चक्षुरिन्द्रिय से गृहीत होने वाले पदार्थों से भिन्न जितने पदार्थ हैं, उनसे भिन्न बना हुआ जो अद्रव्य है, वही रूप है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
रूप का निरूपण
भा० प्र०—रूप का निरूपण करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं— ‘अस्मदाविचक्षुरिन्द्रियैक० इत्यादि - अर्थात् हम लोगों की चक्षुरिन्द्रिय मात्र से जिनका ग्रहण होता है, उन पदार्थों से जो भिन्न पदार्थ होते हैं, उनसे भिन्न जो अद्रव्य है, वह रूप ही है । यद्यपि हम लोगों की चक्षुरिन्द्रिय से सभी रूपों का ग्रहण नहीं होता है, फिर भी उनसे कई रूपों का ग्रहण होता ही है । हम लोगों की चक्षुरिन्द्रिय मात्र से गृहीत होने वाले जितने भी रूप हैं, उनसे भिन्न हैं रसादि, उन रसादि से भिन्न जितने भी अद्रव्य हैं, वे सभी अद्रव्य रूप हैं ।
मूलम्
अस्मदादिचक्षुरिन्द्रियैकप्राह्यविजातीयव्यावृत्तमद्रव्यं रूपम् ।
वासुदेवः
चक्षुर्-इन्द्रियैक-ग्राह्येति । चक्षुर्-इन्द्रिय-मात्र-ग्राह्यम् इत्य् अर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्-चतुर्धा – श्वेत-रक्त-पीत-कृष्ण-भेदात् ।
तत्र सलिल-कल-धौत-शङ्ख-शुक्ति-शशाङ्कादीनां रूप-विशेषाः श्वेत-भेदाः ।
हुत-वह–जपा-दाडिम–बन्धु-जीव+++(-पुष्प)+++–विद्रुम+++(=Coral tree)+++–पद्म-रागादीनां तु रूप-विशेषाः रक्त-भेदाः ।
काञ्चन-हरिताल-हरिद्रादीनां रूप-विशेषाः पीत-भेदाः ।
मरकत-मधुकर–जल-धर–तिमिर–तमाल-दूर्वादीनां रूप-विशेषाः कृष्ण-भेदाः ।
पीतम् अपि रक्तावान्तर-भेदं केचिद् इच्छन्ति, श्रुत्य्-अनुसारात् ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘श्रुत्यनुसारा’**दिति । ‘यदग्ने रोहितं रूपं तेजसस्तद्रूपं, यच्छुक्लं तदपां, यत् कृष्णं तदन्नस्य’ (छान्दो०) इति श्रुतौ रूपत्रयस्यैव कीर्तनादित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
रूप चार प्रकार का होता है – श्वेत, रक्त, कृष्ण ( काला ) और पीत (पीला) । उन में भी जल, चांदी, शंख, शुक्ति ( सीपी ) तथा चन्द्रमा आदि के रूप श्वेत के अवान्तर भेद हैं ।
अग्नि, ओडहुल, दाडिम ( अनार ) बन्धुजीव ( दुपहरिया का फूल ), मूंगा तथा पद्मराग आदि के रूप- विशेष रक्त रूप के अवान्तर भेद हैं । सुवर्ण, हरिताल, हल्दी आदि के रूप-विशेष पीत रूप के अवान्तर भेद हैं । मरकतमणि, भ्रमर, बादल, अन्धकार, तमाल तथा दूब आदि के रूप-विशेष कृष्ण रूप के अवान्तर भेद हैं। श्रुति के अनुसार कुछ लोग पीतिमा को भी रक्तता का अवान्तर भेद मानते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
रूपों के भेद - रूप चार प्रकार के होते हैं - श्वेत, रक्त, कृष्ण और पीत । इन चारों, रूपों के भी कई-कई अवान्तर भेद होते हैं । निदर्शनार्थं यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने इन चारों रूपों के कुछ अवान्तर भेदों का निर्देश किया है । कुछ लोग कहते हैं कि रूप तीन ही होते हैं— श्वेत, रक्त और कृष्ण । पीत भी रक्त का ही अवान्तर भेद है। श्रुतियाँ इन तीन रूपों का ही वर्णन करती हैं। छान्दोग्यश्रुति पृथिवी, जल एवं तेज, इन तीन भूतों का तीन ही रूप बतलाती हैं। किन्तु यतीन्द्रमतदीपिकाकार उपर्युक्त चार रूपों को ही मानते हैं ।
मूलम्
तच्चतुर्धा – श्वेतरक्तपीतकृष्णभेदात् । तत्र सलिलकलधौतशङ्खशुक्तिशशाङ्कादीनां रूप-विशेषाः श्वेतभेदाः । हुतवहजपादाडिमबन्धुजीवविद्रुमपद्मरागादीनां तु रूपविशेषाः रक्तभेदाः । काञ्चनहरितालहरिद्रादीनां रूपविशेषाः पीतभेदाः । मरकतमधुकर-जलधरतिमिरतमालदूर्वादीनां रूपविशेषाः कृष्णभेदाः । पीतमपि रक्तावान्तर-भेदं केचिदिच्छन्ति, श्रुत्यनुसारात् ।
वासुदेवः
श्रुत्य्-अनुसाराद् इति ।
यद् अग्ने रोहितं रूपं तेजसस् तद् रूपं यच् छुल्कं तद् अपां यत् कृष्णं तद् अन्नस्य ’ (छा० ६।४।१)
इति श्रुतौ त्रयाणाम् एव रूपाणां प्रतिपादनाद् इति भावः ।
[[२६९]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकारान्तरेण रूपं द्वि-विधम् –
भास्वराभास्वर-भेदात् ।
तेजो-गतम् भास्वरम् ।
क्षिति-सलिल-गतम् अ-भास्वरम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
दूसरे प्रकार से रूप के दो भेद किये जाते हैं— भास्वर तथा अभास्वर । तेज में रहने वाला रूप भास्वर होता है । पृथिवी तथा जल में अभास्वर रूप रहता है।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
रूपों के दूसरे प्रकार से भी दो भेद होते हैं- भास्वर तथा अभास्वर । भास्वर रूप चमकदार होता है, अभास्वर रूप चमकदार [[२७०]] नहीं होता है । तेज में विद्यमान रूप भास्वर होता है, किन्तु पृथिवी और जल में रहने वाला तेज अभास्वर होता है । तेज में रक्तभास्वर रूप होता है । जल में अभा- स्वर शुक्ल रहता है तथा पृथिवी में अनेक प्रकार के अभास्वर रूप होते हैं । यद्यपि जल में अभास्वरशुक्ल रहता है, किन्तु पृथिवी के संसर्ग के ही कारण यमुना का जल नीला प्रतीत होता है ।
मूलम्
प्रकारान्तरेण रूपं द्विविधम् – भास्वराभास्वरभेदात् । तेजोगतम् भास्वरम् । क्षितिसलिलगतम् अभास्वरम् ।
वासुदेवः
तेजोगतम् इति । तेजसि रूपं रक्त-भास्वरम् । सलिले तु शुक्ल-भास्वरम् । पृथिव्यां बहु-विधम् अभास्वरम् । यद्यपि मन्त्र-शास्त्रे पीता भूमिः श्वेतम् अम्भो वह्नि-पवनौ रक्त-धूम्रौ द्यौर् नीलेति पञ्चानाम् अपि भूतानां रूपवत्त्वं दृश्यते तथा ऽपि तत् केवलं ध्यानार्थम् एव । यथा तत्र मन्त्र-वर्णानाम् अपि रूपं ध्यानार्थं वर्णितं तद्वत् । अन्यथा ’ यद् अग्ने ’ इत्य् उक्त-श्रुति-विरोधः । अनुभव-विरोधश् च । चतुर्-विधस्यापि रूपस्य पृथिव्याम् उपलम्भात् । श्रुतौ पृथिव्याः कृष्ण-रूपोक्तिस् तु न रूपान्तर-विरह-परा । कलुष-जलादौ वर्ण-भेदस् तु पृथिवी-संसर्ग-विशेषाद् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चत्वार्य् एव रूपाणि ।
तेन चित्रं नाम पञ्चमं रूपम् इति मत-निरासः ।
अत एव चित्र-गन्ध-स्पर्श-रसानाम् अपि निरासः ।
इति रूपम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार से चार ही रूप होते हैं । अतएव चित्र नामक पाञ्चवें रूप को मानने वालों के मत का खण्डन हो गया । अतएव चित्ररस, चित्रगन्ध तथा चित्रस्पर्श को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
चित्र-रूप का खण्डन - - वैशेषिक आदि विद्वान् चित्र नामक पाँचवें प्रकार के रूप को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनका यह मत समीचीन नहीं है । जिस प्रकार वैशेषिक आदि को यह अर्थ मान्य है कि पृथिवी पर बनाई गयी रंगबल्ली में, जो अनेक रूपों की प्रतीति होती है, वह उस रंगबल्ली के अवयवों के नाना रूपों की ही प्रतीति है, उससे अतिरिक्त उसमें चित्र नामक रूप नहीं है । इसी प्रकार उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि नाना वर्णवाले तन्तुओं से निर्मित वस्त्र में भी उन तन्तुगत नाना रूपों की ही प्रतीति होती है, उनसे भिन्न कोई पट में नया चित्र नामक वर्ण उत्पन्न नहीं होता है । अवयवगत उन नाना रूपों को वैशेषिक आदि ने माना ही है, क्योंकि वे अवयवगत नाना रूपों से ही अवयवी में चित्र रूप की उत्पत्ति मानते हैं । यदि कहें कि अव- यवगत रूपों से भिन्न अवयवी का रूप नहीं माना जाय तो फिर अवयवी का प्रत्यक्ष नहीं मानना होगा, क्योंकि रूपी द्रव्य का ही प्रत्यक्ष होता है ? तो यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सिद्धान्त में अवयवी द्रव्य स्वीकारा ही नहीं जाता है । तुष्यतु- न्याय से अवयवी द्रव्य को स्वीकारा भी जाय फिर भी यही कहा जा सकता है कि वह अवयवी नाना रूपों का आश्रय होता है ।
यदि यह कहा जाय कि परस्पर विरुद्ध अनेक सकते है ? तो इसका उत्तर है कि जिस प्रकार अग्रभाग में कपिसंयोग का अभाव, ये दोनों एक जाते हैं । उसी प्रकार एक ही अवयवी में विभिन्न परस्पर विरुद्ध, अनेक रूप भी रह सकते हैं ।
रूप एक ही अवयवी में कैसे रह मूलभाग में कपिसंयोग का अभाव, ही वृक्ष में अवच्छेदक भेद से पाये अवयव रूपी अवच्छेदक भेद से यदि यह कहें कि कई रूप ऐसे होते हैं, जो अपने आश्रय में सर्वावयवावच्छेदेन रहते हैं, अतएव वे व्याप्यवृत्ति कहलाते हैं । अवयवों में विद्यमान रूप अवयवी में व्यापकत्व से रहते हैं, अतएव वे व्याप्यवृत्ति रूपों के उत्पादक ही देखे जाते हैं; ऐसी स्थिति में विभिन्न तन्तु रूपी अवयवों में विद्यमान विभिन्न रूपों से अवयवी में ऐसा ही रूप उत्पन्न होना चाहिए, जो अवयवी में व्याप्यवृत्ति हो, अर्थात् सम्पूर्ण अवयवी में व्यापक होकर रहे । उपर्युक्त रूपों से अवयवी में अव्याप्य वृत्ति अर्थात् एकदेशावच्छेद से रहने वाले रूपों की उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती है ? अतएव अवयवी में अनेक रूपाश्रयत्व का बाध ही होगा ? तो इस शंका का समाधान यह है कि विभिन्न रूप वाले तन्तुओं से उत्पन्न वस्त्र में अनेक रूप देखने में आते हैं, वे रूप भी अवयवी में विभिन्न अवयवों के अवच्छेद से ही रहते हैं । यह अर्थ प्रत्यक्ष सिद्ध है । इस प्रत्यक्ष के विरुद्ध रूप में यदि यह माना जाय कि अवयव रूप अवयवी में व्याप्यवृत्ति रूपों के ही उत्पादक [[२७१]] होंगे तो क्रिया से उत्पन्न होने वाले संयोग के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि वह संयोग भी अन्यान्य गुणों के समान ही गुण होने के कारण व्याप्यवृत्ति होगा ! यदि यह कहें कि यह प्रत्यक्ष से सिद्ध अर्थ है कि संयोग अपने आश्रय के कुछ हिस्से में रहता है, कुछ अंश में नहीं रहता है, अतएव संयोग को व्याप्यवृत्ति नहीं माना जा सकता है तो उसी प्रकार चित्र अवयवी के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि चित्र अवयवी में विभिन्न अवयवों में विद्यमान रूपों से उत्पन्न होने वाले अनेक रूप भी विभिन्न अवयवों के अवच्छेद से विद्यमान रहता है, यह प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है । विभिन्नरूपाश्रय तन्तुओं से उत्पन्न होने वाले वस्त्र में उत्पन्न होने वाले रूप को व्याप्यवृत्ति मानना उपर्युक्त प्रत्यक्ष के सर्वथा विरुद्ध है । इसी प्रकार चित्ररस तथा चित्रगन्ध को भी मानना असमीचीन है ।
मूलम्
एवं चत्वार्येव रूपाणि । तेन चित्रं नाम पञ्चमं रूपमिति मतनिरासः । अत एव चित्रगन्धस्पर्शरसानामपि निरासः । इति रूपम् ।
वासुदेवः
चित्रम् इति । यत् तु नैयायिकाश् चित्रम् इति किमपि रूपान्तरम् अस्ति । अन्यथा श्वेत-पीताद्यनेक-तन्त्व्-आरब्ध-पटस्य नीरूपत्वेनाप्रत्यक्ष-प्रसङ्गाद् इत्य् आहुः । तन् न । अवयवातिरिक्तस्यावयविनो ऽभावात् । अवयवेषु च श्वेतादेर् एकैकस्यैवोपलम्भात् ।