विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मद्-आदि-स्पर्शनेन्द्रिय-ग्राह्य–विजातीय-व्यावृत्तो ऽद्रव्यं स्पर्शः ।
स च त्रिविधः- शीतोष्णानुभयात्मक-भेदात् ।
अप्सु शीत-स्पर्शः ।
तेजस्य् उष्ण-स्पर्शः ।
क्षिति-पवनयोर् अनुष्णाशीत-स्पर्शः ।
अण्णङ्गराचार्यः
स्पर्शलक्षणमाह **‘अस्मदादिस्पर्शने’**ति । घटादावतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलम् । अनुद्भूतस्पर्शादावव्याप्तिवारणाय विजातीयव्यावृत्तत्वपर्यन्तानुधावनम् । संयोगेऽतिव्याप्तिवारणाय स्पर्शनैकेन्द्रियग्राह्येति वक्तव्यम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - हम लोगों के स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य जितने पदार्थ है, उन सबों से विस- जातीय जितने पदार्थ हैं, उन सबों से भिन्न जो अद्रव्य है, वह स्पर्श तीन प्रकार का होता है - शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, समशीतोष्णस्पर्श । जलों में शीतस्पर्श होता है । तेज में उष्णस्पर्श होता है । पृथिवी तथा वायु में समशीतोष्णस्पर्श होता है ।
शिवप्रसादः (हिं)
स्पर्श का निरूपण
भा० प्र० – स्पर्श का लक्षण करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा- ‘अस्मदीय- स्पर्शनेन्द्रियग्राह्य० इत्यादि । अर्थात् जिनका ग्रहण हम लोगों की स्पर्शनेन्द्रिय से होता है, उन पदार्थों से जो विसजातीय पदार्थ हैं, उनसे भिन्न जो अद्रव्य है, वह स्पर्श है ।
हम लोगों की त्वगिन्द्रिय से कई स्पर्श तथा उनके आश्रय द्रव्यग्राह्य होते हैं,
शब्दादि उनसे विसजातीय हैं ।
उन शब्दादिकों से सभी स्पर्श तथा उनके आश्रय द्रव्य भिन्न हैं! ऐसा भिन्न बना हुआ अद्रव्य स्पर्श ही है ।
लक्षण में अद्रव्य पद का प्रयोग घटादि में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए हुआ है ।
अनुद्भूत स्पर्शादि में अव्याप्ति का [[२६८]] वारण करने के लिए ‘अस्मदादि स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यविजातीयव्यावृतः’ पद का प्रयोग लक्षण में किया गया है ।
स्पर्श के भेद - स्पर्श तीन प्रकार के होते हैं—– १. शीतस्पर्श, २. उष्णस्पर्श, ३. इन दोनों से भिन्न अनुष्णाशीतस्पर्श । जल में शीतस्पर्श रहता है । तेज में उष्ण- स्पर्श रहता है तथा पृथिवी और वायु में अनुष्णाशीतस्पर्शं रहता है । जल का सम्बन्ध होने पर पृथिवी तथा वायु में शीतस्पर्श प्रतीत होता है । वस्तुतः वह शीतस्पर्श जल का होता है, वायु अथवा पृथिवी का नहीं । इसी प्रकार तेज का सम्बन्ध होने पर पृथिवी, जल एवं वायु उष्ण प्रतीत होते हैं । यह उष्णस्पर्श भी तेज का ही धर्म है, क्योंकि तेज का सम्बन्ध होने पर ही पृथिवी, जल एवं वायु उष्ण प्रतीत होते हैं, अन्यथा नहीं । इस प्रकार जल और वायु में उष्णता का अनुभव होते समय वायु के स्वाभाविक अनुष्णाशीतस्पर्श एवं जल के स्वाभाविक शीतस्पर्श का जो अनुभव नहीं होता है, उसका कारण जल और वायु में तेज का अनुप्रवेश ही है । रत्न की प्रभा इत्यादि स्पर्श वाले होने पर भी जो त्वगिन्द्रिय से गृहीत नहीं होते हैं, उसका कारण यही है कि उसका स्पर्श अनुभूत है । त्वगिन्द्रिय से स्पर्श का ग्रहण होने पर ही वह उसके आश्रय द्रव्य का ग्रहण कर सकती है । रत्न की प्रभा के स्पर्श का ग्रहण त्वगिन्द्रिय से न होने के कारण ही त्वगिन्द्रिय रत्नप्रभा का ग्रहण नहीं करती है । सिद्धान्त में यह भी माना जाता है कि वायु तथा पृथिवी न उष्ण हैं और न शीत, अपितु ये दोनों भूत अनुष्णाशीत हैं ।
मूलम्
अस्मदादिस्पर्शनेन्द्रियग्राह्यविजातीयव्यावृत्तोऽद्रव्यं स्पर्शः । स च त्रिविधः- शीतोष्णानुभयात्मकभेदात् । अप्सु शीतस्पर्शः । तेजस्युष्णस्पर्शः । क्षितिपवनयोरनुष्णाशीतस्पर्शः ।
वासुदेवः
अस्मदादीति । अस्मदादि-स्पर्शनेन्द्रिय-ग्राह्यो यः स्पर्शस् तद्-विजातीयाः शब्दादयस् तद्-व्यावृत्तं तद्-भिन्नम् इत्य् अर्थः । विजातीय-व्यावृत्त-पदानुपादाने ऽनुद्भूत-स्पर्शे ऽव्याप्तिः स्यात् । तस्यास्मदादि-स्पर्शनेन्द्रिय-ग्राह्यत्वाभावात् । घटादि-व्यावृत्तये ऽद्रव्यम् इति । एवम् अग्रे ऽप्य् ऊह्यम् । तेजस्य् उष्ण इति ।
सुतं पतन्तं प्रसभीक्ष्य पावके न बोधायामास पतिं पतिव्रता । पतिव्रता-शाप-भयेन पीडितो हुताशनश् चन्दन-बिन्दु-शीतलः ॥
इत्य् अस्य त्व् अयम् आशयः - हुताशनस्य न शीतलत्वं जायते । अपि तु पतिव्रता-संकल्प-विशेषेण तस्य दाहकत्वम् एवोपरुध्यत इति । अनुष्णाशीत इति । अनुष्णाशीतो ऽपि स्पर्श एव । न तु शीतोष्ण-विरह-मात्रम् । आकाशादाव् अपि तथोपलम्भ-प्रसङ्गात् । वायु-पृथिव्योः स्पर्शवत्त्वस्य श्रुत्यादि-सिद्धत्वाच् च । न च स्पर्श-सामान्यं तद् इति वाच्यम् । निर्विशेषं न सामान्यम् इति न्यायात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर् द्वि-विधः -
पाकजो+++(=तेजस्सम्पर्कादिजः)+++ ऽपाकजश् चेति ।
पृथिव्यां पूर्वः ।
इतरेषु त्रिषु परः ।
तत्रामृत-गरल–तूलोपल–गो-ब्राह्मण-चण्डालादि–स्पर्श-विशेषाः पाकज-भेदाः ।
इति स्पर्शः ।
शिवप्रसादः (हिं)
पुनः स्पर्श के दो भेद किये जाते हैं- पाकज एवं अपाकज । पृथिवी में पाकजस्पर्श होता है । उससे भिन्न जल, तेज और वायु इन तीन द्रव्यों में अपाकजस्पर्श होता है । इनमें अमृत, गरल (विष), तूल, उपल, गौ, ब्राह्मण तथा चाण्डाल आदि के स्पर्श पाकज- स्पर्श के भेद हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
स्पर्श के पुनः दो भेद स्वीकार किये जाते हैं - प्राकज तथा अपाकज ।
विजातीय- तेजःसंयोग रूप पाक से उत्पन्न होने वाले स्पर्श को पाकजस्पर्श कहते हैं ।
जो स्पर्श पाक से उत्पन्न नहीं होता है, उसे अपाकजस्पर्श कहते हैं ।
पृथिवी में रहने वाला स्पर्श पाकजस्पर्श है और जल, तेज और वायु में रहने वाला स्पर्श अपाकजस्पर्श है ।
पाकजस्पर्श के ये अवान्तर भेद हैं-
१. अमृत का स्पर्श, जो जीवन को प्रदान करने वाला होता है ।
२. विष का स्पर्श, जो मरण का हेतु बनता है ।
३. तुल का स्पर्श, जो मृदु होता है ।
४. पत्थर का स्पर्श, जो कठोर होता है ।
५. गौ और ब्राह्मण का स्पर्श, जो पवित्रकारक होता है ।
६. चाण्डाल का स्पर्श, जो अपवित्र है। पद से संग्रहीत –
७. कपिकच्छु का स्पर्श, जिससे शरीर में खुजली पैदा हो जाती है ।
मूलम्
पुनर्द्विविधः - पाकजोऽपाकजश्चेति । पृथिव्यां पूर्वः । इतरेषु त्रिषु परः । तत्रामृतगरलतूलो पल गोब्राह्मणचण्डालादि- स्पर्शविशेषाः पाकजभेदाः ।
इति स्पर्शः ।
वासुदेवः
चाण्डालादीति । आदिना कपि-कच्छू-संग्रहः । गो-ब्राह्मण-चाण्डालादिषु स्पर्श-भेदस् तु तत्-तत्-स्पर्शाधीन-शुद्ध्यशुद्धि-भेदेन बोध्यः । मृदुत्व-कठिनत्वादयो ऽपि स्पर्श-विशेषा एव । स्पर्शनेनैव तद्-उपलब्धेः । चक्षुषा तु न तद्-उपलब्धिः । किन्तु तत्र मृदुत्वादि-व्याप्तरूप-विशेष-ग्रहणेन तद्-अनुमानम् एव । केचित् तु मृदुत्वादयः संयोग-विशेषा एवेत्य् आहुः ।