०३ शब्द-निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

७. अस्मद्-आदि-श्रोत्र-ग्राह्यः पञ्च-भूत-वर्ती शब्दः
स च द्वि-विधः –
वर्णात्मकः अ-वर्णात्मकश् चेति ।
अकचटतपयादि-पञ्चाशद्-अक्षरात्मको वर्णात्मकः
स देव-मनुष्यादीनां ताल्व्-आदि-व्यङ्ग्यः।
भेर्यादि-जन्यो ऽवर्णात्मकः
एवम्-भूतः शब्दः श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते ।
श्रोत्रेन्द्रिय-गमनाद् वा व्यञ्जक-वाय्व्-आगमनात् वा शब्द-ग्रहः ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘पञ्चाशदक्षरात्मक’ इति । अका ह्रस्वदीर्घभेदेन दशविधत्वम् । दीर्घलृकारोऽपिवर्णमातृकाया पठितः । एचश्वत्वारः । अनुस्वारो विसर्गश्चेत्याहत्याचः षोडश । स्पर्शा पञ्चविंशतिः । यणश्वत्वारः । ऊष्माणश्चत्वारः । क्ष इत्येकम् । इत्यक्षरमातृका पञ्चाशदक्षरात्मिका कथिता ।
**‘व्यञ्जके’**ति । शब्दाश्रयावयवसहितवाय्वभिघाततः श्रोत्रेण शब्दोपलब्धिरित्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - हम लोगों के श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा जिसका ग्रहण होता है, उसको शब्द कहते हैं । यह पांचो भूतों में धर्मरूप से पाया जाता है । शब्द दो प्रकार का होता है- १. वर्णात्मक और अवर्णात्मक । अ-क-च-ट-त-प-य आदि पचास अक्षरों में से कोई अक्षर जिसमें पाया जाता है, वह वर्णात्मक शब्द है । वर्णात्मक शब्द की देवताओं तथा मनुष्यों के तालु आदि स्थानों से अभिव्यक्ति होती है । भेरी आदि से उत्पन्न होने वाला शब्द अवर्णात्मक होता है। इन दोनों प्रकार के शब्दों का ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है ।
शब्द के ग्रहण में
या तो श्रोत्रेन्द्रिय शब्द तक जाती है
अथवा वाय्वात्मंक शब्द श्रोत्रेन्द्रिय तक जाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

शब्द का निरूपण

भा० प्र०— शब्द नामक अद्रव्य को लक्षित करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि हम लोगों की श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा जिसका ग्रहण होता है, वह शब्द नामक अद्रव्य है । यह शब्द पांचों भूतों में पाया जाता है । शब्द दो प्रकार का होता है- वर्णात्मक और अवर्णात्मक । इनमें वर्णात्मक शब्द वह होता है, जिसमें अ, क, च, त, प, य आदि वर्णों का समुदाय पाया जाये । वर्णात्मक शब्द उपर्युक्त प्रकार के वर्णों में से कुछ वर्णों का समुदाय रूप होता है । वर्णात्मक शब्दों मे पाए जाने वाले वर्णों की संख्या पचास हैं । वर्णों की संख्या के विषय में विवाद है, कुछ लोग तिरपन बर्णं मानते हैं, कुछ लोग बावन कुछ उनचास और कुछ पचास । वर्णों का रूप इस प्रकार है-

वर्णों की संख्या-
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ, । इस प्रकार वर्णों की संख्या तिरपन होती है । कुछ लोग कहते है कि क्ष, त्र, और ज्ञ ये तीन वर्ण स्वतंत्र नहीं है, अपितु दो-दो वर्णों के मोल से बनते हैं । अतएव वर्णों की संख्या पचास हो जाती है । कुछ लोग ऌ तथा ल को नहीं मानते हैं, अतएव वर्णों की संख्या एक्यावन हो जाती हैं । कुछ लोग उपर्युक्त वर्णों में से केवल ल वर्ण को नहीं मानते हैं । अतएव वर्णों की संख्या बावन हो जाती है । यतीन्द्रमतदीपिकाकार वर्णों की संख्या पचास मानते हैं ।

वर्णात्मक शब्द देवता एवं मनुष्यों आदि के ताल आदि उच्चारण स्थानों से अभिव्यक्त होते हैं ।

अवर्णात्मक शब्द भेरी आदि से उत्पन्न होते हैं ।

[[२६५]]

शब्द के श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व के प्रकार का निरूपण - दोनों प्रकार के शब्दों का ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होता है । शब्द के श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व के विषय में दो प्रकार के मत हैं -

१. वायु आदि से अभिव्यक्त होकर श्रोत्रप्रदेश में पहुँचा हुआ शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा गृहीत होता है । श्रोत्रेन्द्रिय शब्दस्थान में पहुँचकर शब्द का ग्रहण नहीं करती है, क्योंकि वह बाहर जाती ही नहीं है । शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेश तक आता है, तब श्रोत्रेन्द्रिय उसका ग्रहण करती है। इस पक्ष के अनुसार शब्द आकाश में ही रहता है, इसी का ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है । इस पक्ष में यह दोष है कि भेरी इत्यादि के अवयवों के शब्दगुण को लेकर श्रोत्र के समीप में आना असंभव है । अतः आकाशस्थ शब्द का ही ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा हो सकता है ।

शब्द के श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व के विषय में इसके प्रकार के विचारक कहते हैं कि-
वाद्य इत्यादि में विद्यमान शब्द वहाँ रहते समय,
वहाँ पहुँची हुई श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा गृहीत होते हैं ।
इस पक्ष में पञ्चभूतों में विद्यमान होने पर भी शब्द श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा गृहीत होता है ।
दूरस्थ शब्द के ग्रहण में श्रोत्रेन्द्रिय का उस शब्द के सन्निकट में पहुँचना कारण है ।

विशिष्टाद्वैतवादियों को दूसरे प्रकार का ही श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा शब्द का ग्रहण अभिप्रेत है ।

मूलम्

७. अस्मदादिश्रोत्रग्राह्यः पञ्चभूतवर्ती शब्दः । स च द्विविधः – वर्णात्मकः अवर्णात्मकश्चेति । अकचटतपयादिपञ्चाशदक्षरात्मको वर्णात्मकः । स देवमनुष्यादीनां ताल्वादिव्यङ्ग्यः। भेर्यादिजन्योऽवर्णात्मकः । एवम्भूतः शब्दः श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते । श्रोत्रेन्द्रियगमनाद्वा व्यञ्जकवाय्वागमनात्वा शब्दग्रहः ।

वासुदेवः

पञ्चभूतवर्तीति । मेघो गर्जति शङ्खो नदति भेरी ध्वनतीत्यादि-व्यवहार-दर्शनात् । ‘नमस्ते वायो त्वम् एव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वाम् एव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि’ (तै० १।१।१) इति श्रुतौ च वायोर् एव वेद-आत्मना परिणतिर् उपलभ्यते । तत् तु वायोः शब्दाधारत्वम् अन्तरेण न संजाघटीति । ‘तस्य ह वा एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितम् एतद् यद् ऋग्वेदः’ (बृ० २।१४।३२) इत्यादि-श्रुतिर् अप्य् अत्र प्रमाणम् । विष्णु-पुराणे च (२।१४।३२) -

वेणु-रन्ध्र-विभेदेन भेदः षड्जादि-संज्ञितः । अभेद-व्यापिनो वायोस् तथा ऽसौ परमात्मनः ॥

इत्य् उक्तम् ।

एवं नाभि-देशाद् एव निर्गतस्य वायोस् ताल्वादि-स्थान-संबन्धेन तत्-तच्-शब्द-परिणति-हेतुत्वं प्रसिद्धम् एव । अत्रेदं बोध्यम् - लीला-विभूताव् इव नित्य-विभूताव् अपि

शब्दादयो वर्तन्त एव । ते च सर्वोत्कृष्टाः सर्वातिशायिनश् च । यथा कस्तूरी-चम्पक-प्रभृतिषु गन्ध-साम्ये सत्य् अपि सौरभ-विशेषस् तत्र तत्रोपलभ्यते, तथा लीला-विभूतौ नित्य-विभूतौ च शब्दादि-सद्भावे ऽपि प्रमाण-सिद्धं वैषम्यम् अनतिलङ्घनीयम् एव । न हि वीणा-वेणु-प्रभृतीनाम् ऐकरूप्येण स्वर-नियम इति ।

पञ्चाशद् इति । स्वराः षोडश । कादयः स्पर्शाः पञ्चविंशतिः, यरलवशषसह इत्य् एते ऽष्टौ । क्ष-वर्णश् चैकः । तस्य संयुक्तत्वे ऽपि मातृका-पाठे पृथग्-गणनात् । ळ-कारस् तु न पृथग्-गणितः । मातृका-पाठे लळयोर् अभेदात् । ननु दूरस्थ-शब्दस्य कथं श्रोत्रेन्द्रिय-संनिकर्ष इति चेत् तत्रा ऽऽह — श्रोत्रेन्द्रियेति । तद् उक्तं वरद-नारायण-भट्टारकैः -

दूरे शब्दः समीपे च प्राच्यां च इत्य् आदि-दर्शनात् । गत्वा श्रोत्रेन्द्रियं तत्र ततः शब्द-ग्रह-क्षमम् ॥

इति ।

व्यञ्जकेति । शब्दाधार-भेर्याद्यवयवागमेन शब्दाधार-वाय्वागमनेन वा दूरस्थ-शब्द-ग्रह इत्य् अपि केचित् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

८. ननु श्रुत्या +++(ॐ-)+++शब्दस्य द्रव्यत्वम् प्रतीयते ।
अ-द्रव्यत्वं कथम् ?

इति चेत्, न।
अकारादेः प्रणवोत्पादकत्वं वाच्य-द्वारा सम्भवतीति परिहाराद्
अद्रव्यत्वम् उपपद्यते।

इति शब्दः ।

अण्णङ्गराचार्यः

अकारस्य ‘तस्य प्रकृतिलीनस्य’ (तै० उ० ना०) इति प्रणवोपादानत्वश्रवणात् ‘यस्य वेदाः शरीर’मिति शरीरत्वश्रवणाच्च वेदानां, द्रव्यस्यैव शरीरत्वोपादानत्वयोः सम्भवात् शब्दस्य द्रव्यत्वं स्यादित्याशङ्कां परिहरति **‘अकारादेरि’**ति । अकारस्य प्रणवकारणत्वं सहकारिहेतुत्वमेव । उपादानं त्वकारवाच्यो नारायण एव । परमात्मशरीरत्ववचनं तु वेदानां वेदाभिमानिदिव्यपुरुषविषयम् । शरीरवद्वेदानां नित्येश्वरच्छन्दानुवर्तित्वनिबन्धनं वेति बोध्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

प्रश्न उठता है कि श्रुति के अनुसार शब्द द्रव्य प्रतीत होता है,
अतएव उसको अद्रव्य कैसे कहा जा सकता है ?
तो यह नहीं कहा जा सकता है,
क्योंकि अकार आदि प्रणव के उत्पादक वाच्य द्वारा होते हैं,
इस समाधान के द्वारा शब्द के अद्रव्यत्व की सिद्धि होती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

[[२६४]] शब्द के अद्रव्यत्व का प्रतिपादन - पूर्वपक्षी की शंका का अनुवाद करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं - ननु श्रुत्या० इत्यादि । अर्थात् विशिष्टाद्वैती शब्द को ताल्वादिव्यंग्य तथा अद्रव्य मानते हैं । उनकी इस मान्यता का विरोध करते हुए पूर्व- पक्षी कहते हैं कि श्रुत्यादि प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शब्द द्रव्य है तथा कार्य है । क्योंकि—

‘यो वेदादौ स्वरः +++(ॐ)+++ प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ।
तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥’

यह श्रुति बतलाती है कि वेद के प्रारम्भ में जो प्रणव-रूप स्वर कहा गया है, जो प्रणव वेदान्तों में भी प्रतिष्ठित है, वह वेद कारण प्रणव अपनी प्रकृति अकार में लीन हो जाता है । उस प्रणव की प्रकृतिभूत अकार का वाच्य जो अर्थ है, वही महेश्वर है । इस श्रुति से स्पष्ट है कि एक वर्ण दूसरे वर्ण का उपादान कारण होता है । शब्द को यदि अद्रव्य माना जाय तो फिर वह उपादान कारण नहीं बन सकता है । यदि उक्त श्रुति का तात्पर्य यह माना जाय कि एक वर्ण दूसरे वर्ण का निमित्त कारण होता है, उपादानकारण नहीं तो फिर श्रुति के उपादान का वाचक प्रकृति शब्द तथा लय के प्रतिपादक लीन शब्द में अस्वारस्य होगा; क्योंकि निमित्तकारण को न तो प्रकृति कहा जा सकता है और न तो कार्य का निमित्तकारण में संभव है । यहाँ पर निमित्तकारण के अर्थ में प्रकृति शब्द को तथा सम्बन्ध - सामान्य के अर्थ में लीन शब्द को लाक्षणिक भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मुख्यार्थ क बाध हुए बिना किसी शब्द की लक्षणा किसी अर्थ में हो नहीं सकती है । वेदार्थसंग्रह [[२६६]] में श्रीभाष्यकार भी कहते हैं— ‘सर्वस्य वेदजातस्य प्रकृतिः प्रणवः । प्रणवस्य प्रकृति- कारः । प्रणवविकारो वेदः स्वप्रकृतिभूते प्रणवे लीनः । प्रणवोऽप्यकारविकारः स्वप्रकृतावकारे लीनः । तस्य प्रणव प्रकृतिभूताकारस्य यः परोवाच्यः स एव महेश्वर इति । सर्ववाचकजातप्रकृतिभूताकारवाच्यः सर्ववाच्यजातप्रकृतिभूतो नारायणो यः स महेश्वर इत्यर्थः ।’ अर्थात् सम्पूर्ण वेद का उपादानकारण प्रणव है । प्रणव का उपादानकारण अकार है । प्रणव का विकार वेद अपनी प्रकृति अर्थात् उपादान- कारण अकार में लीन हो जाता है । प्रणव भी प्रकार का विकार होने से अपनी प्रकृति अकार में लीन हो जाता है । प्रणव के प्रकृतिभूत उस अकार का जो वाच्य अर्थ है, वह महेश्वर है । यह इस मन्त्र का अर्थ है कि सम्पूर्ण वाचक शब्दों के समूह का कारण बनने वाले अकार का वाच्य अर्थ वही नारायण है, जो सम्पूर्ण वाच्य अर्थों के समूह का कारण है । यह नारायण ही महेश्वर है । किञ्च ‘यस्य वेदाः शरीरम्’ अर्थात् वेद जिस परमात्मा के शरीर हैं; इत्यादि वचनों से भी शब्द के द्रव्यत्व की सिद्धि होती है, क्योंकि शरीर के लक्षण से स्पष्ट है कि द्रव्य ही शरीर होता है ।

किञ्च आत्मसिद्धि नामक ग्रन्थ में यह कहा गया है कि शब्द आकाश का गुण नहीं, किन्तु वायु का धर्म है । शब्द उच्चारण के अनन्तर उत्पन्न होता है । वायु आदि को शब्द का व्यञ्जक मानना दोषग्रस्त है ।+++(5)+++

इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि शब्द को अद्रव्य तथा व्यङ्ग्य मानना ठीक नहीं है ।

इस पूर्वपक्ष का समाधान करते हुए विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि श्रीभाष्य- कार ने जिन युक्तियों से सत्त्व, रजस् एवं तमस् को अद्रव्य सिद्ध किया है, उन्हीं युक्तियों से शब्द भी अद्रव्य सिद्ध हो जाता है । शब्द अद्रव्य तथा आगन्तुक धर्म है । वह काल- विशेष में उत्पन्न होने वाला धर्म है । आगन्तुक होने के कारण शब्द को परिणाम कहा गया है । आगन्तुक परिणामत्व को दृष्टिपथ में रखकर शब्द परिणाम कहा जा सकता है । परिणाम कहने मात्र से शब्द का द्रव्यत्व नहीं सिद्ध हो सकता है । पराशर भट्टर ने वाक्य के निरूपण के प्रसङ्ग में ‘गगन गुणशब्दादि स्वरूपस्थितीः ’ इत्यादि वाक्य से शब्द को आकाश का गुण कहा है। उक्त वचन का अर्थ है कि आकाश का गुण जो शब्द है, उसके स्वरूप एवं स्थिति को प्रवृत्त कराने वाले भगवान् ने शब्द-प्रवाह के विषय में यही संकल्प कर रखा है कि प्रत्यक्ष से अबाधित अर्थों के प्रति- पादन में शब्दों का सामर्थ्य स्वाभाविक है । इस भगवत्संकल्प के अनुसार शब्द स्वभावतः सामर्थ्य से युक्त रहते हैं । शब्द अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता है । इस पंक्ति में पराशर भट्ट ने शब्द को स्पष्ट रूप से आकाश का गुण कहा है । किञ्च – ‘यस्य वेदाः शरीरम्’ श्रुति में वेद शब्द से वेदाभिमानी देवता को ईश्वर का शरीर कहा गया है और देवता द्रव्य ही है । किञ्च – ‘तस्य प्रकृतिलीनस्य’ श्रुति में अकार को प्रणव का उपादानकारण बतलाने का अभिप्राय यह है कि [[२६७]] अकाराभिमानी देवता प्रणव का उपादानकारण है । इस प्रकार शब्द को अद्रव्य मानने में कोई आपत्ति नहीं है ।

प्रश्न उठता है कि दूरस्थ अद्रव्य शब्द का श्रवण कैसे होता है ? तो इस शंका का समाधान अनेक प्रकार से होता है - १. जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय की वृत्ति दूर देश तक पहुँच कर दूरदेशस्थ शब्द का ग्रहण करती है, उसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय की वृत्ति दूरदेश तक पहुँच कर दूरदेशस्थ शब्द का ग्रहण करती है । २. शब्दव्यञ्जक वायु श्रोत्रदेश तक चली आती है, उस व्यञ्जक वायु के सम्बन्ध से श्रोत्रेन्द्रिय दूरदेशस्थ शब्द का ग्रहण करती है । ३. अथवा भेरी आदि के शब्दगुणविशिष्ट अवयव श्रोत्र तक आ जाते हैं । अतः दूरदेशोत्पन्न शब्द श्रोत्र के समीप तक आ जाने के कारण श्रोत्रेन्द्रिय से गृहीत होता है । ४. अथवा शब्दगुणयुक्त वायु ही श्रोत्रेन्द्रिय तक आ जाता है, अतएव दूरस्थ शब्द का ग्रहण होता है । इन पांच पक्षों में से कोई भी अभिप्रेत पक्ष स्वीकारा जा सकता है ।

मूलम्

८. ननु श्रुत्या शब्दस्य द्रव्यत्वम् प्रतीयते । अद्रव्यत्वं कथम् ? इति चेत्, न। अकारादेः प्रणवोत्पादकत्वं वाच्यद्वारा सम्भवतीति परिहारात् अद्रव्यत्वमुप-पद्यते। इति शब्दः ।

वासुदेवः

ननु श्रुत्येति । ‘भूरित्य् एव ऋग्वेदाद् अजायत भुव इति यजुर्वेदात् स्वरिति सामवेदात् तानि शुक्राण्य् अभ्यतपत् तेभ्यो ऽभितप्तेभ्यस् त्रयो वर्णा अजायन्त, अकार उकारो मकार इति तान् एकधा समभरत् एतद् ओम् इति’ (ऐ० ब्रा० अ० २५ ख० ७) इति हि श्रुतिः । स्मृतिर् अपि -

अकारं चाप्य् अकारं च मकारं च प्रजापतिः । वेद-त्रयान् निरदुहद् भूर्-भुवः स्वर् इतीति च ।

इति ।

अत्राकारादि-वर्णानां प्रणवोपादान-कारणत्व-प्रतिपादनेन द्रव्यत्वम् अन्तरेणोपादान-कारणत्वासंभवेन द्रव्यत्वं सिध्यति । यस्य वेदाः शरीरम् इति श्रुतौ च शब्दात्मक-वेदस्य शरीरत्व-प्रतिपादनेन शरीरत्वस्य च द्रव्यत्व-व्याप्यत्वेन शब्दस्य द्रव्यत्वं सिध्यतीत्याशयः । प्रयोगश् च – शब्दो द्रव्यम्, साक्षाद् इन्द्रिय-संबन्धेन गृह्यमाणत्वाद् घटवद् इति । वाच्य-द्वारेति । तथा च वाच्यस्योपादान-कारणत्वेन द्रव्यत्वे ऽपि वाचकस्य शब्दस्य द्रव्यत्वे मानाभावः । ‘यस्य वेदाः शरीरम्’ (बृ० ३।७।३) इति तु देवता-विशेष-विषयत्वेनोपपद्यते । साक्षाद् इन्द्रिय-संबन्धेन गृह्यमाणत्वम् इति हेतुस् तु स्वरूपासिद्धः शब्दस्या ऽऽश्रय-द्वारैवेन्द्रिय-संनिकर्षात् । न च श्रोत्रेन्द्रियस्या ऽऽकाश-स्वरूपत्वात् तेन साक्षाद् एव शब्दस्य संनिकर्ष इति वाच्यम् । श्रोत्रेन्द्रियस्या ऽऽकाशत्वायोगात् ।