०२ सत्त्व-रजस्-तमांसि

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. तत्र प्रकाश-सुख-लाघवादि-निदानम्
+++(शब्दादेर् व्यावृत्तम् इति)+++ अतीन्द्रियं शक्त्य्-आद्य्-अतिरिक्तम् अद्रव्यं सत्त्वम्
तद् द्वि-विधम् – शुद्ध-सत्त्वम् मिश्र-सत्त्वं चेति ।
रजस्-तमः-शून्य–द्रव्य-वर्ति सत्त्वं शुद्ध-सत्त्वम्
तन् नित्य-विभूतौ,
उपचारात् तत्-प्रवर्तकेश्वरे च ।
रजस्-तमः-सह-वर्ति सत्त्वम् मिश्र-सत्त्वम्
तत् त्रि-गुणे,
तत्-सम्बन्धिनि जीवे चोपचाराद्
इति ज्ञेयम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

सत्त्वगुणस्य लक्षणमाह **‘तत्र प्रकाशे’**ति । दशाद्रव्यघटकसत्वं प्रकाशादिहेतुभूतं शक्त्यादिभिन्नमतीन्द्रियं कार्यानुमेयमद्रव्यमित्यर्थः । ‘सत्त्वं लघु प्रकाशकम्’ (सा-का) ‘तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्’ (गीता) इत्यादिसत्त्वस्य प्रकाशादिहेतुत्वे मानम् । कार्यसामान्यहेतुकारणगतशक्त्यदृष्टयो रतिव्याप्तिवारणाय शक्त्याद्यतिरिक्तमित्युक्तम् । कालेऽतिव्याप्तिर्नैव, अद्रव्यमित्युक्तत्वात् । अतीन्द्रियमिति तु गुणानां स्वरूपकथनं न तु लक्षणे प्रविष्टम् । एते च गुणा उद्भूताः शरीरे कार्यैरनुमेयाः । यथोक्तं गीतायां ‘सर्वद्वारेषु कौन्तेय’ इत्यादि (अ० १४) श्लोकत्रयेण । नित्यसन्तानानि - प्रवाहतो नित्यानि । विषमाणि - उद्भवाभिभवाभ्याम् । सृष्ट्युपयुक्तं रजः, रक्षणोपयुक्तं सत्त्वम्, सहारोपयुक्तं तम इति च विवेकः । ईश्वरसङ्कल्पादीत्यत्रादिपदेन तत्तत्कालो गृह्यते ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद — उन दशों द्रव्यों में जो प्रकाश, सुख एवं लाघव का कारण हो, अतीन्द्रिय हो तथा शक्ति से भिन्न हो, उस अद्रव्य को सत्त्व कहते हैं । वह दो प्रकार का होता है – शुद्धसत्त्व एवं मिश्रसत्त्व । रजोगुण एवं तमोगुण से रहित द्रव्य में रहने वाला सत्त्व शुद्धसत्त्व है । वह नित्यविभूति में रहता है । औपचारिक रूप से यह नित्यविभूति के प्रवर्तक ईश्वर में भी पाया जाता है । रजोगुण एवं तमोगुण के साथ रहने वाला सत्त्व मिश्रसत्त्व कहलाता है । यह मिश्रसत्त्व प्रकृति में तथा प्रकृति- विशिष्ट जीव में भी उपचार के कारण पाया जाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

सत्त्वगुण का लक्षण [[२६१]]

भा० प्र० - इससे पहले के अनुच्छेद में कहा गया है कि अद्रव्यों की संख्या दश हैं । उनमें सर्वप्रथम अद्रव्य सत्त्व को बतलाया गया है । उस सत्त्व का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि सत्त्व वह अद्रव्य है, जो प्रकाश, सुख एवं लाघव का कारण होता है । यह शक्ति से भिन्न होते हुए भी अतीन्द्रिय अद्रव्य है ।
सत्त्वगुण को प्रकाश, सुख एवं लाघव का निदान बतलाकर
उसका रजोगुण एवं तमोगुण से भेद सूचित किया गया है ।
शब्दादि से उसकी भिन्नता बतलाने के लिए अतीन्द्रिय विशेषण दिया गया है ।
शक्ति तथा अतीन्द्रिय संयोग से
उसकी भिन्नता बतलाने के लिए सत्त्व को शक्ति से अतिरिक्त बतलाया गया है ।

सत्व के दो भेद — को बतलाते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा कि उसके शुद्धसत्त्व और मिश्रसत्त्व ये दो भेद होते हैं ।

( १ ) शुद्धसत्त्व - वह है, जो रजोगुण एवं तमोगुण रहित द्रव्य में पाया जाता है । यह शुद्धसत्त्व नित्यविभूति में पाया जाता है, क्योंकि नित्यविभूति रजोगुण एवं तमोगुण रहित द्रव्य है । उस नित्यविभूति के प्रवर्तक ईश्वर हैं, अतएव ईश्वर में भी शुद्धसत्त्व पाया जाता है ।

(२) मिश्रसत्त्व - रजोगुण एवं तमोगुण का सहवर्ती होता है । प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थों में मिश्रसत्त्व पाया जाता है । प्रकृति एवं प्राकृतिक द्रव्य रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण, इन तीनों गुणों से युक्त रहते हैं । यह सत्त्व प्रकृति से संबन्ध रखनेवाले बद्ध जीवों में भी पाया जाता है । जीव का गुण सत्त्व नहीं है, किन्तु प्रकृति से संबन्ध होने के कारण मिश्रसत्त्व का सांसारिक जीवों से संबन्ध है । अतएव जीव के साथ मिश्रसत्त्व का संबन्ध औपचारिक है ।

मूलम्

२. तत्र प्रकाशसुखलाघवादिनिदानमतीन्द्रियं शक्त्याद्यतिरिक्तम् अद्रव्यं सत्त्वम्। तत् द्विविधम् – शुद्धसत्त्वम् मिश्रसत्त्वं चेति । रजस्तमशून्यद्रव्यवर्ति सत्त्वं शुद्धसत्त्वम् । तन्नित्यविभूतौ उपचारात् तत्प्रवर्तकेश्वरे च । रजस्तमः- सहवर्ति सत्त्वम् मिश्रसत्त्वम् । तत् त्रिगुणे तत्सम्बन्धिनि जीवे च उपचारात् इति ज्ञेयम् ।

वासुदेवः

प्रकाश-सुखेति । अनेन रजस्-तमसोर् व्यावृत्तिः । अतीन्द्रियम् इत्य् अनेन शब्दादीनां व्यावृत्तिः । शक्त्याद्यतिरिक्तम् इत्य् अनेन शक्त्यादि-व्यावृत्तिः । प्रकाशश् च वस्तु-याथात्म्यावबोधः । आदि-पदेन ज्ञान-सुख-सङ्ग-संग्रहः । तद् उक्तं गीता-भाष्ये- (१४।६) ज्ञान-सुख-जननं सत्त्वं पुनरपि तयोः सङ्ग-जननं चेति । मिश्र-सत्त्वम् इति । इदम् एवाशुद्ध-सत्त्वम् इति व्यवह्रियते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३. राग-तृष्णा-लोभ-प्रवृत्त्य्-आदि-निदानम्
+++(शब्दादेर् व्यावृत्तम् इति)+++ अतीन्द्रियं
शक्त्य्-आद्य्-अतिरिक्तम् अ-द्रव्यं रजः

शिवप्रसादः (हिं)

राग, तृष्णा, लोभ तथा प्रवृत्ति आदि का कारणभूत, अतीन्द्रिय तथा शक्ति से जो भिन्न अद्रव्य होता है, वह रजस् कहलाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

रजोगुण का लक्षण - बतलाते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि यह राग, तृष्णा, लोभ तथा प्रवृत्ति का कारण होता है तथा शक्ति आदि से भिन्न होते हुए भी अतीन्द्रिय अद्रव्य है । लक्षण में प्रथम वृत्ति विशेषण का प्रयोग तमोगुण तथा सत्त्व- गुण में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए किया गया है । अतीन्द्रिय विशेषण का प्रयोजन शब्दादि में अतिव्याप्ति के वारण के लिए है । शक्त्याद्यतिरिक्तत्व विशेषण का प्रयोजन शक्ति तथा अतीन्द्रिय-संयोग में लक्षण की अतिव्याप्ति के वारण के लिए है । यहाँ पर आदि पद से अतीन्द्रिय संयोग का ही कथन अभिप्रेत है ।

मूलम्

३. रागतृष्णालोभप्रवृत्त्यादिनिदानमतीन्द्रियं शक्त्याद्यतिरिक्तम् अद्रव्यं रजः ।

वासुदेवः

लोभ-प्रवृत्त्यादीति । लोभः स्वकीय-द्रव्यस्यात्याग-शीलता । प्रवृत्तिस् तु प्रयोजनम् अनुद्दिश्यापि चल-स्वभावता । आदि-पदेन ऽऽरम्भाशम-स्पृहा संग्रहः । आरम्भश् च फल-साधन-भूत-कर्मारम्भः । इन्द्रियानुपरतिर् अशमः । विषयेच्छा स्पृहा ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४. प्रमाद-मोहादि-निमित्तम्
+++(शब्दादेर् व्यावृत्तम् इति)+++ अतीन्द्रियं
शक्त्य्-आद्य्-अतिरिक्तम् अ-द्रव्यं तमः

शिवप्रसादः (हिं)

प्रमाद, मोह आदि का जो कारण हो, उस शक्ति आदि से अतिरिक्त अतीन्द्रिय अद्रव्य को तमस् कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

तमोगुण का लक्षण - बतलाते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि जो प्रमाद तथा मोह आदि का हेतु तथा शक्ति आदि ( संयोग ) से भिन्न होते हुए अतीन्द्रिय हो, उस अद्रव्य को तमस कहते हैं । यहाँ भी लक्षण के प्रथम विशेषण का प्रयोजन रजोगुण तथा सत्त्वगुण में लक्षण की अतिव्याप्ति का वारण, द्वितीय अतिन्द्रिय विशेषण का प्रयोजन शब्दादि में अतिव्याप्ति का वारण तथा तृतीय शक्त्याद्यतिरिक्तत्व विशेषण का प्रयोजन संयोग एवं शक्ति में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए हैं ।

मूलम्

४. प्रमादमोहादिनिमित्तमतीन्द्रियं शक्त्याद्यतिरिक्तम् अद्रव्यं तमः ।

वासुदेवः

प्रमाद-मोहादीति । अकार्य-प्रवृत्ति-फलम् अनवधानं प्रमादः । विपरीत-ज्ञानं मोहः । आदि-पदेनाप्रकाशाप्रवृत्ति संग्रहः । ज्ञानानुदयो ऽप्रकाशः । अप्रवृत्तिश् च स्तब्धता ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५. त्रीण्य् अप्य् एतानि यावत्-प्रकृति-व्याप्तानि,
प्रकृति-वश्य-पुरुष-सम्बद्धानि,
अनित्यानि, नित्य-सन्तानानि,
प्रलय-दशायां समानि, सृष्ट्य्-आदौ विषमाणि,
सृष्टि-स्थिति-संहारोपयुक्तानि,
ईश्वर-सङ्कल्पादि-सहकारि-भेदात्
परस्पराभिभवोद्भव-कराणि इत्य् एतानि साधारणानि ।

शिवप्रसादः (हिं)

ये तीनों ( सत्त्व, रजस् एवं तमस् ) सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त हैं । प्रकृति परतन्त्र पुरुष से ये संबद्ध रहते हैं तथा अनित्य हैं । इनका सन्तान हमेशा उत्पन्न होता रहता है । इनका प्रलयकाल में सदृश सन्तान उत्पन्न होता रहता है, सृष्टि आदि कालों में इनके विस- दृश सन्तान होते हैं । ये सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय के लिए उपयोगी होते हैं । ये ईश्वर- संकल्प आदि सहकारियों को प्राप्त करके परस्पर में प्रत्येक अपने से भिन्नों को अभि- भूत करके उद्रिक्त हुआ करते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

तीनों गुणों की प्रकृति में व्यापकता

त्रीण्यप्येतानि० इत्यादि - ये तीनों-सत्त्व, रजस् एवं तमस् सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त है, इन सबों का प्रकृतिवश्य अर्थात् सांसारिक पुरुष से संबन्ध बना रहता है तथा ये तीनों अनित्य हैं, किन्तु इनका सन्तान धारा के समान सदा प्रवाहित होता रहता है ।

इन सबों के सन्तान दो प्रकार से प्रवाहित होते हैं— सदृश सन्तान तथा विसदृश सन्तान ।

प्रलयदशा में इन सबों के सदृश सन्तान प्रवाहित होते हैं और सृष्टि आदि के समय इनके विसदृश सन्तान प्रवाहित होते हैं ।

इन तीनों अद्रव्यों में से सृष्टि में रजोगुण उपयुक्त होता है,
स्थितिकाल में सत्त्वगुण उपयुक्त होता है
तथा तमोगुण संहारकाल में उपयुक्त होता है ।

ईश्वरसङ्कल्प० इत्यादि —
ये गुण ईश्वर के संकल्प आदि सहकारी कारणों को पाकर परस्पर में एक-दूसरे को अभिभूत करनेवाले, बढानेवाले तथा उत्पन्न करनेवाले बन जाते हैं,
क्योंकि विभिन्न अदृष्टों से संपन्न, विभिन्न पुरुषों में
किसी में किसी गुण का आविर्भाव तथा साम्यावस्था में अवस्था नहीं दिखती है ।

मूलम्

५. त्रीण्यपि एतानि यावत्प्रकृतिव्याप्तानि, प्रकृतिवश्यपुरुषसम्बद्धानि, अनित्यानि, नित्यसन्तानानि, प्रलयदशायां समानि, सृष्ट्यादौ विषमाणि, सृष्टिस्थितिसंहारोप-युक्तानि, ईश्वरसङ्कल्पादिसहकारिभेदात् परस्पराभिभवोद्भवकराणि इत्येतानि साधारणानि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. सत्त्व-गुणस् तु सम्यज्-ज्ञान-रूप-सुखादि-हेतुर् मोक्ष-प्रदश् च ।

रजो-गुणस् तु रागाद्य्-आत्मकः कर्म-सङ्ग-दुःखादि-हेतुः स्वर्गाद्य्-आमुष्मिक-प्रदः ।

तमो-गुणस् तु अज्ञान-रूप आलस्यादि-हेतुर् नरक-प्रदश् च ।

अतः सत्त्वादयो गुणा न द्रव्य-रूपाः ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘सम्यग् ज्ञाने’**ति । ‘सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम्’ इत्यादिवचनात् ।
‘न द्रव्यरूपा’ इति । कापिलास्तु साम्यावस्थ[[स्था??]] गुणत्रयमेव प्रकृतिरिति वदन्ति । तन्न युक्तम् । ‘त्रिगुणं तज्जगद्योनिः’ ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः’ इत्यादिश्रुतिस्मृतिवचनतस्तस्य प्रकृतिगुणत्वस्य सिद्धत्वादिति भावः । सत्त्वादीनां गुणत्वं रज्जुवत् बन्धकत्वं निबन्धनम् । तदभावादेव भगवतो निर्गुणत्वं व्यपदेशः । अध्यात्मशास्त्रे गुणा इति सत्त्वादीनां प्राकृतानां प्रसिद्धिः । नित्यमुक्तेश्वराणां सर्वेणापीन्द्रियेण सर्वार्थग्रहणात् तच्छ्रोत्रग्राह्यत्वं स्पर्शादेरप्यस्तीति अतिव्याप्तिरिति अस्मदादीति श्रोत्रविशेषणं कृतम् । अस्मदादि श्रोत्रग्राह्यत्वस्य नित्यविभूतिस्थशब्देऽभावादव्याप्तिः स्यादिति तद्वारणाय अस्मदादि श्रोत्रग्राह्यविजातीयव्यावृत्तत्वपर्यन्तानुधावनं कृतम् । अस्मदादि श्रोत्रग्राह्यविजातीयस्पर्शादि, तद्व्यावृत्तत्वं नित्यविभूतिस्थे शब्देऽप्यस्तीति बोध्यम् । एवं स्पर्शादिलक्षणेष्वपि ज्ञेयम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

ये प्रकृति तथा सभी प्राकृत द्रव्यों में पाए जाते हैं ।

सत्त्वगुण तो सम्यग् ज्ञान रूप सुख आदि का कारण तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है ।

किन्तु रजोगुण रागादि-रूप कर्मों में प्रवृत्त करने वाला दुःख आदि का कारण तथा स्वर्ग आदि परलोकों को प्रदान करने वाला होता है ।

तमोगुण तो अज्ञान-रूप आलस्य आदि का कारण तथा नरक प्रदान करने वाला होता है।

इस प्रकार सत्त्व आदि गुण हैं, द्रव्य नहीं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

लोक में भी देखा जाता है कि
एक ही सुन्दरी अपने पति को सुख देती है,
अपने सपत्नीजनों ( सौतों ) को दुःख देती है
तथा अन्य कामुक पुरुषों में अज्ञान को उत्पन्न करती है ।
क्योंकि उस सुन्दरी को देखकर
उसके पति में सत्त्वगुण उद्रिक्त होता है
तथा रजोगुण एवं तमो-गुण अभिभूत हो जाते हैं ।
उस सुन्दरी को देखने से उसके सपत्नीजनों में
रजोगुण उद्रिक्त हो जाता है
तथा तमोगुण एवं सत्त्वगुण अभिभूत हो जाते हैं ।
इसी प्रकार उस सुन्दरी को देखकर
अन्य कामुक जनों में
तमोगुण का उद्रेक होता है
तथा उनके सत्त्व- गुण एवं रजोगुण अभिभूत हो जाते हैं ।
उस सुन्दरी को देखकर भी जितेन्द्रिय पुरुष में
किसी भी प्रकार का भाव उत्पन्न नहीं होता है ।
इसी बात को स्पष्ट करते हुए महर्षि पराशर कहते हैं-

‘वस्त्व् एकम् एव दुःखाय
सुखायेर्ष्याऽऽगमाय च ।
कोपाय च यतस् तस्माद्
वस्तु वस्त्व्-आत्मकं कुतः ॥ '

अर्थात्

एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न पुरुषों में,
दुःख, सुख एवं ईर्ष्या के उत्पन्न होने का कारण बन जाती है,
अतएव कैसे कहा जा सकता हैं कि
अमुक वस्तु दुःखात्मक, सुखात्मक अथवा मोहात्मक है ।

वे आगे कहते हैं कि-

‘तद् एव प्रीतये भूत्वा
पुनर् दुःखाय जायते ।
तद् एव कोपाय च यतः
प्रसादाय च जायते ।
तस्माद् दुःखात्मकं नास्ति
न च किञ्चित् सुखात्मकम् ॥’

अर्थात्

यह भी देखा जाता है कि एक ही वस्तु
किसी समय में सुख देती है
और किसी समय में दुःख ।
उसी से कभी क्रोध होता है तो कभी प्रसन्नता होती है ।
अतएव कोई भी वस्तु न तो दुःखद हैं और न तो सुखद ।

[[२६३]]

गीता के चौदहवें अध्याय से स्पष्ट है कि
सत्त्वगुण सम्यग् ज्ञान रूप सुख का कारण है तथा मोक्षप्रद है ।
रजोगुण रागात्मक होता है
तथा कर्मों में प्रवृत्त करके स्वाश्रय जीव में दुःखादि को उत्पन्न करता है ।
तमोगुण अज्ञान रूप आलस्य को उत्पन्न करता है
तथा नरकप्रद होता है ।
इस प्रकार सिद्ध होता है कि सत्त्व आदि गुण हैं, द्रव्य नहीं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

[[२६२]]

सत्त्वादि के अद्रव्यत्व की सिद्धि -
सत्त्व, रजस् एवं तमस् के अद्रव्यत्व का स्पष्ट वर्णन
श्रीभाष्य में उपलब्ध होता है ।
‘रचनानुपपत्तेश्व’ ( शा० मी० २।२1१ ) इत्यादि सूत्र में
चकार का अर्थ करते समय कहा गया है कि
सूत्रकार चकार से सांख्योक्त प्रधान के साधक अन्वय हेतु को लेकर प्रवृत्त होनेवाले अनुमान में
व्यभिचार-दोष का समुच्चय करते हैं ।

सांख्यमतावलम्बी अन्वयहेतु के द्वारा
प्रधान का अनुमान करते हुए कहते हैं कि,

जिस प्रकार कार्य घटादि में अनुवृत्त होनेवाली मृत्तिका घटादि कार्य का कारण है,
उसी प्रकार कार्य जगत् में सत्त्व-रजस्-तमोमय सुख, दुःख, मोह आदि भी अनुवृत्त होते हैं ।
अतएव अनुवर्तित होनेवाले सुख-दुःख-मोहात्मक सत्त्वरजस्तमस् जगत् के कारण हैं ।
सत्त्व, रजस् एवं तमस् का संघात ही प्रकृति है ।

इस प्रकार सांख्य अन्वित पदार्थ को हेतु मानकर,
अन्वय हेतु से प्रधान का अनुमान करते हैं ।
उनका यह अन्वय
हेतु व्यभिचार - दोष से दूषित होने के कारण
हेत्वाभास हैं, क्योंकि
गो-व्यक्तियों में अनुवृत्त गोत्व
गो-व्यक्तियों का कारण नहीं होता है ।
गोव्यक्तियों के प्रति कारण न बनने वाली गोत्व जाति में
अन्वयहेतु के विद्यमान रहने से
व्यभिचार-दोष होता है ।

गोत्व अनुवर्तमान होने पर भी
द्रव्य न होने से
कारण नहीं बनते हैं,
किन्तु सत्त्व, रजस् एवं तमस् अनुवर्तमान होते हुए द्रव्य हैं,
अतएव इनको कारण मानने में कोई भी दोष नहीं है ।

सांख्यों के इस कथन का खण्डन करते हुए
उक्त सूत्र के श्रीभाष्य में कहा गया है कि
सत्त्व, रजस् एवं तमस् द्रव्य के धर्म हैं,
स्वयं द्रव्य नहीं हैं ।
सत्त्व इत्यादि गुण
पृथिवी इत्यादि में होनेवाले लघुत्व एवं प्रकाश इत्यादि के कारण हैं
तथा पृथिवी इत्यादि के स्वाभाविक धर्म हैं ।
जिस प्रकार मृत्तिका एवं सुवर्ण इत्यादि द्रव्य होकर
कार्यभूत घट-कुण्डलादि में अनुवर्तमान प्रतीत होते हैं,
उसी प्रकार सत्त्वादि गुण
द्रव्य होकर कार्य में अनुवर्तमान प्रतीत नहीं होते,
किञ्च सत्त्वादि के गुणत्व की ही प्रसिद्धि है ।

मूलम्

६. सत्त्वगुणस्तु सम्यज्ज्ञानरूपसुखादिहेतु-मोक्षप्रदश्च । रजोगुणस्तु रागाद्यात्मकः कर्मसङ्गदुःखादिहेतुः स्वर्गाद्यामुष्मिकप्रदः । तमोगुणस्तु अज्ञानरूप आलस्यादि-हेतुर्नरकप्रदश्च । अतः सत्त्वादयो गुणा न द्रव्यरूपाः ।