०१ अद्रव्य-लक्षणं तद्-भेदाश् च

वासुदेवः

अथ दशमो ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१. एवं द्रव्य-निरूपणानन्तरं
क्रम-प्राप्तम् अ-द्रव्यं निरूप्यते ।
संयोग-रहितम्+++(=??)+++ अ-द्रव्यम्
तद् अद्रव्यं च
+++(बुद्धौ प्रत्यक्षत्व-अनुमितित्व-शब्दत्वादिवद् अवस्थारूपाण्य् अनन्तान्य् अन्तरा)+++
सत्त्व-रजस्-तमांसि शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धाः संयोगः शक्तिर्
इति दश-प्रकारम् एव ।

अण्णङ्गराचार्यः

॥ अथ दशमावतारव्याख्या ॥

**‘संयोगे’**ति । अद्रव्यम् - द्रव्यभिन्नं सद्वस्तु । संयोगरहितपदार्थत्वं तल्लक्षणम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - उपर्युक्त प्रकार से द्रव्य के निरूपण के पश्चात् अद्रव्य का निरूपण किया जा रहा है । संयोगरहित पदार्थ अद्रव्य कहलाता है । वह अद्रव्य दश प्रकार का होता है— सत्त्व, रजस्, तमस्, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग एवं शक्ति ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - ऊपर के चतुर्थ अवतार से लेकर नवम अवतार - पर्यन्त द्रव्यों का निरूपण किया जा चुका है । इस दशवें अवतार में अद्रव्य का निरूपण किया जा रहा है । अद्रव्य - सामान्य का लक्षण करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं-

अद्रव्य - सामान्य का लक्षण - ‘संयोगरहितमद्रव्यम्’ अर्थात् जो पदार्थं संयोग से रहित होता है, उसे अद्रव्य कहते हैं ।
कहने का अभिप्राय यह है कि
जो पदार्थं किसी दूसरे पदार्थ से संयुक्त नहीं होता
तथा जिससे किसी दूसरे पदार्थ का संयोग नहीं होता है,
वह अद्रव्य कहलाता है ।

अद्रव्यों की संख्या -
इस प्रकार के अद्रव्य अनन्त हैं ।

प्रलयकाल में प्रतिक्षण सदृश अवस्थाओं की सन्तति होती रहती है
तथा सृष्टिकाल में प्रतिक्षण उसमें विसदृश अवस्थाओं की संतति होती रहती है ।
इस प्रकार काल में भी क्षणत्व, लवत्व से लेकर परार्ध-पर्यन्त प्रतिक्षण अवस्थाएँ होती रहती हैं ।
बुद्धि में भी प्रत्यक्षत्व, अनुमितित्व, शब्दत्व आदि अवस्थाएँ होती रहती हैं,
इसी प्रकार शुद्धसत्त्व में भी अवस्थाएँ होती रहती हैं।
ये सभी अवस्थाएँ अद्रव्य हैं । इनके प्रकारों और भेदों की गणना बिलकुल असंभव है ।
इन अवस्था रूपी अद्रव्यों को ही दृष्टिपथ में रखकर
श्रीवरदविष्णु मिश्र ने कहा – ‘गुणाश् चानन्ताः’ अर्थात् गुण अनन्त होते हैं ।
इस प्रकार अवस्था-रूप अद्रव्य अनन्त हैं ।
इनमें परस्पर भेद भी अनन्त हैं ।
उन सबों का निरूपण असंभव है ।
अतएव जिन अद्रव्यों का परिगणन किया जा सकता है,
उनकी संख्या बतलाते हुए
यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा कि
अद्रव्य दश प्रकार के होते हैं-
सत्त्व, रजस्, तमस्, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग और शक्ति —ये दश अद्रव्यों के नाम हैं ।

मूलम्

१. एवं द्रव्यनिरूपणानन्तरं क्रमप्राप्तम् अद्रव्यं निरूप्यते । संयोगरहितम् अद्रव्यम् । तत् अद्रव्यं च सत्त्वरजस्तमांसि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः संयोगः शक्तिरिति दशप्रकारमेव ।

वासुदेवः

संयोगरहितम् इति । द्रव्ययोर् एव संयोग इति नियमात् । सत्त्वेति । ननु सत्त्व-रजस्-तमसां द्रव्याभेदेन द्रव्यत्वम् एव इति चेन् न । ‘रचनानुपपत्तेश् च’ (ब्र० सू० २।२।१) इति सूत्रस्थ-भाष्य-विरोधात् । तत्र हि चकाराद् अन्वयस्यानैकान्त्यं समुच्चिनोतीत्य् उपक्रम्य सत्त्वादयो द्रव्य-धर्मा न तु द्रव्य-स्वरूपम् । सत्त्वादयो हि पृथिव्यादि-द्रव्य-गत-लघुत्व-प्रकाशादि-हेतुभूतास् तत्-स्वभाव-विशेषा एव न तु मृद्-धिरण्यादि-वद् द्रव्यतया कार्यान्विता उपलभ्यन्ते । गुणा इत्य् एव च सत्त्वादीनां प्रसिद्धिर् इत्य् उक्तम् । सत्त्वादीनां द्रव्यत्वस्याप्रामाणिकतया गुण-शब्दस्यास्वारस्यम् अयुक्तम् इति श्रुतप्रकाशिकायाम् उक्तम् । वेदान्त-दीपे ऽपि चकारात् सत्त्वादीनां द्रव्य-गुणत्वेन शौक्ल्यादेर् इवोपादान-कारणत्वासंभवं समुच्चिनोति । सत्त्वादयो हि कार्य-गत-लाघव-प्रकाशादि-हेतुभूताः कारण-भूत-पृथिव्यादि-गतास् तत्-तत्-स्वभाव-विशेषा इत्य् उक्तम् । सत्त्व-रजस्-तमसां शब्दादि-पञ्चानां च भूताद्यनुपादानानां गुणत्वम् । तद्-उपादानानां तन्मात्रत्वाद् द्रव्यत्वम् इति तु कृष्णावधूत-पण्डितैर् उक्तम् ।