विश्वास-प्रस्तुतिः
१६. अयम् ईश्वरो ऽण्ड-सृष्ट्यनन्तरं
चतुर्-मुख–दक्ष–कालादिष्व् अन्तर्यामितया स्थित्वा
सृष्टिं करोति ।
विष्ण्व्-अवतार-रूपेण मनु-कालाद्य्-अन्तर्यामि-रूपेण च स्थित्वा
रक्षको भवति ।
रुद्र-कालान्तकादीनाम् अन्तर्यामितया
संहारम् अपि करोति ।
अतः सृष्टि-स्थिति-संहार-कर्ता च भवति ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘अयमीश्वर’ इति । अण्डसृष्टिपर्यन्तसमष्टिसृष्टिं स्वयं करेति । तदनन्तरं चतुर्भुखाद्यन्तर्यामितया व्यष्टिसृष्टिं करोतीत्यर्थः । अत्र
ब्रह्मादक्षादयः कालस्तथैवाखिलजन्तवः ।
विभूतयो हरेरेता जगतस्सृष्टिहेतवः ॥
विष्णुर्मन्वादयः कालः सर्वभूतानि च द्विज ।
स्थितेर्निमित्तभूतस्य विष्णोरेता विभूतयः ॥
रुद्रः कालान्तकाद्याश्च समस्ताश्चैव जन्तवः ।
चतुर्धा प्रलये ह्येते जनार्दनविभूतयः ॥
इति विष्णुपुराणवचनान्युदाहर्तव्यानि प्रमाणतया ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनु० - यह ईश्वर ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पश्चात् चतुर्मुख (ब्रह्मा), दक्ष तथा काल आदि के अन्तर्यामी रूप से रहकर सृष्टि करता है। विष्णु के अवतार रूप से मनु तथा काल आदि के अन्तर्याभी रूप से रहकर जगत् की रक्षा करता है । रुद्र, [[२४५]] काल तथा यमराज आदि के अन्तर्यामी रूप से रहकर जगत् का संहार भी करता है । इस प्रकार ईश्वर जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करनेवाला है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० – परमात्मा को - ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति’ यह श्रुति ब्रह्म को ही जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार का कर्ता बतलाती है । जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने की क्रिया को ही श्रीभगवान् का जगद्व्यापार कहा जाता है । यह जगद्व्यापार परमात्मा दो प्रकार से किया करता है - साक्षात् ( अद्वारक ) तथा माध्यम से ( सद्वारक ) ।
परमात्म-सृष्टि का स्वरूप - परमात्मा के द्वारा की जानेवाली सृष्टि का अर्थ है कि परमात्मा अपने सत्यसंकल्प के द्वारा उचित वस्तुओं का स्वरूपतः परिणाम करता है तथा चेतन जीवों को शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्रदान करके उनके धर्मभूत ज्ञान को विकसित कर देता है । लोकाचार्य कहते हैं - ‘ईश्वरेण क्रियमाणा सृष्टि- नम — अचितः परिणामनं चेतनस्य शरीरेन्द्रियप्रदानपुरस्सरं ज्ञानस्य विकासन व ’ ( तत्त्वत्रयम् ३।२४ ) ।
ईश्वर ब्रह्मा एवं ब्रह्माण्ड की साक्षात् सृष्टि करते हैं । यह ईश्वर की अद्वारक सृष्टि है । इसके पश्चात् की जानेवाली सृष्टि सद्वारक सृष्टि कहलाती है ।
परमात्मा की चार प्रकार की सद्वारक सृष्टियां - परमात्मा की सद्वारक सृष्टि चार प्रकार से होती है— ब्रह्माकृत, नित्यसृष्टिकर्ता प्रजापतिकृत, कालकृत तथा माता-पिता आदि रूप से जीवकृत । परमात्मा इन चारों के भीतर अन्तर्यामी रूप से रहकर चारों प्रकार की सृष्टियों को सम्पादित करते हैं । श्रीभगवान् रजोगुण से युक्त होकर इन चारों प्रकार की सृष्टियों को सम्पादित करते हैं, इस बात को बतलाते हुए महर्षि पराशर कहते हैं-
‘एकेनांशेन ब्रह्मासी भवत्यव्यक्तमूर्तिमान् ।
मरीचिंमिश्राः पतयः प्रजानां चान्यभागशः ॥ ’ ( वि० पु० १।२२।२४ ) अर्थात् – वे अव्यक्तस्वरूप भगवान् अपने एक अंश से ब्रह्मा होते हैं, दूसरे अंश से मरीचि आदि प्रजापति होते हैं, तीसरे अंश से कालं होते हैं और चौथे अंश से सभी भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होते हैं ।
परमात्मा के द्वारा जगत् की स्थिति ( पालन ) का स्वरूप - जिस प्रकार जल क्षेत्र के एकदेश में रहनेवाले सस्यादि के भीतर प्रवेश करके, उनका जीवनाधार बन जाता है, उसी प्रकार परमात्मा भी ‘सच्चत्यच्चाभवत्’ इस श्रुति के अनुसार जड़- चेतनात्मक जगत् की सृष्टि करके - ‘हन्ताहम् इमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनाऽनु- प्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’ ( छा० उ० ६ । ३ । २ ) । ‘अरे ! मैं इन पृथिवी, जल एवं तेज रूपी तीनों देवताओं के भीतर इस जीवात्मा के साथ स्वयम् अन्तर्यामी रूप से प्रवेश करके इनके नाम एवं रूप का विभाग करूं।’ इस श्रुति के अनुसार अपने सत्य- संकल्प के द्वारा सम्पूर्ण जगत् के भीतर अन्तर्यामी रूप से प्रवेश करके उन सृष्ट सभी वस्तुओं की सभी प्रकार से रक्षा करता है, यह परमात्मा का जगत्पालनकर्तृत्व है ।
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परमात्मा द्वारा जगत् का चार प्रकार से पालन – ‘येन जातानि जीवन्ति इस श्रुति के अनुसार परमात्मा सृष्ट जगत् का पालन करते हैं । पालन का कार्य परमात्मा चार प्रकार से करते हैं - १. स्वयं विष्णु रूप से अवस्थित रहकर, २. मनु, वाल्मीकि, पराशर तथा शौनक आदि महर्षियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर, उनके द्वारा सन्मार्ग पर प्रवर्तित करने वाले शास्त्रों का निर्माण करवाकर श्रीभगवान् जीवों का पालन करने का कार्य करते हैं; ३. काल के अन्तर्यामी रूप से रहकर भी पर- मात्मा जीवों की रक्षा करते हैं तथा ४. विभिन्न माता-पिता, मित्र आदि रक्षकों के अन्तर्यामी रूप से विद्यमान रहकर परमात्मा तत् तत् जीवों की रक्षा करने का कार्य उनके माध्यम से सम्पादित करवाते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी प्रकार से होने वाली रक्षाओं के कारण श्रीभगवान् ही हैं । महर्षि पराशर भी कहते हैं-
‘एकांशेन स्थितो विष्णुः करोति परिपालनम् । मन्वादिरूपश्वान्येन कालरूपोऽपरेण च ॥ सर्वभूतेषु चान्येन संस्थितः कुरुते स्थितिम् । सत्त्वगुणं समाश्रित्य जगतः पुरुषोत्तमः ॥’ ( वि० पु० १।२२।२६-२७ )
अर्थात् अपने एक अंश से विष्णु रहकर ही वे जीवों का पालन करते हैं, दूसरे अंश से वे मनु आदि का रूप धारण करते हैं, तीसरे अंश से वे काल रूप होकर जगत् की रक्षा करते हैं तथा चौथे अंश से सभी भूतों में अवस्थित रहकर सत्त्वगुण को आश्रित करके श्रीपुरुषोत्तम जगत् की रक्षा करते हैं ।
परमात्मकृत जगत् के संहार का अभिप्राय -
‘विचित्रा देहसम्पत्तिरीश्वराय निवेदितुम् ।
पूर्वमेव कृता राजन् ! हस्तपादादि संयुता ॥’
अर्थात् हे राजन् ! परमात्मा को निवेदित करने के लिए मैंने पहले ही हाथ, पैर आदि अवयवों वाली विचित्र देह रूपी सम्पत्ति जीवों को प्रदान की है। इस सूक्ति के अनुसार परमात्मा का समाश्रयण करके अपने जीवन का उन्नयन करने के लिए परमात्मा के द्वारा प्रदत्त इन्द्रियों को परमात्मा की उपासना में विनियुक्त न करके देहादि में आत्माभिमान के कारण, जीवों के विषय प्रावण्य को देखकर परमात्मा उनकी इन्द्रियों का उसी प्रकार निग्रह करता है, जिस प्रकार किसी उन्मार्गगामी पुत्र का सुधार करने के लिए पिता उसे बेड़ियों में जकड़ देता है । परमात्मा के द्वारा जीवों के इन्द्रियादि के निग्रह को ही संहार कहते हैं ।
परमात्मा द्वारा किये जाने वाले संहार के चार प्रकार — जब परमात्मा संहार- कर्म में प्रवृत्त होते हैं तो वे उस प्रकार के निर्दय कर्म करने के लिए उपयोगी तमोगुण से युक्त होकर संहारकर्त्ताओं में प्रधान रुद्र के अन्तर्यामी रूप से, रुद्र के पश्चात् अवा- न्तर संहारकर्ता यम तथा अग्नि आदि के अन्तर्यामी रूप से, संहार-कर्म के सहकारी काल के अन्तर्यामी रूप से तथा परस्पर में नाशक जीवों के अन्तर्यामी रूप से संहार-[[२४७]] कार्य को सम्पादित करते हैं । इस प्रकार रुद्र, अग्नि, यम, काल तथा परस्पर में एक- दुसरे के नाशक जीवों के अन्तर्यामी होकर परमात्मा ही जगत् के संहार का कार्य सम्पादित करते हैं। महर्षि पराशर कहते हैं-
‘आश्रित्य तमसोवृत्तिमन्तकाले तथा प्रभुः ।
रुद्रस्वरूपो भगवानेकांशेन भवत्यजः ॥
अग्न्यन्तकादिरूपेण भागेनान्येन वर्तते ।
कालस्वरूपो भागोऽन्यः सर्वभूतानि चापरः ।
विनाशं कुर्वतस्तस्य चतुर्खेव महात्मनः ।
विभागकल्पना ब्रह्मन् ! कथ्यते सार्वकालिकी ॥
( वि० पु० १।२२।२८-३० )
अर्थात् अन्तकाल में अजन्मा वे परमात्मा तमोगुण की वृत्ति को अपना कर एक अंश से रुद्र रूप, दूसरे अंश से अग्नि- अन्तकादि-रूप, तीसरे अंश से काल-रूप और चौथे अंश से सम्पूर्ण भूत-स्वरूप हो जाते हैं । हे ब्रह्मन् ! विनाश करने के लिए उन महात्मा की यह चार प्रकार की सार्वकालिकी विभाग कल्पना कही जाती है ।
मूलम्
१६. अयमीश्वरः अण्डसृष्ट्यनन्तरं चतुर्मुखदक्षकालादिष्वन्तर्यामितया स्थित्वा सृष्टिं करोति । विष्ण्ववताररूपेण मनुकालाद्यन्तर्यामिरूपेण च स्थित्वा रक्षको भवति । रुद्रकालान्तकादीनाम् अन्तर्यामितया संहारमपि करोति । अतः सृष्टिस्थितिसंहारकर्ता च भवति/चेति ।