विश्वास-प्रस्तुतिः
१४. स च ईश्वरो विभु–स्व-रूपः ।
विभुत्वं नाम व्यापकत्वम् ।
तच् च त्रिधा -
स्व-रूपतो धर्म-भूत-ज्ञानतो विग्रहतश् च ।
स चानन्त इत्युच्यते ।
अनन्तो नाम त्रि-विध-परिच्छेद-रहितः ।
त्रिविधः परिच्छेदस् तु -
देशतः कालतो वस्तुतः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘विग्रहत’ इति । विराड्रूपतः ।
**‘त्रिविधे’**ति । सर्वदेशकालवस्तुव्यापित्वं सर्वान्तरात्मत्वलक्षणम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - वह ईश्वर स्वरूपतः विभु है । विभु व्यापक को कहते हैं । वह ईश्वर जगत् में तीन प्रकार से व्यापक हैं - स्वरूप द्वारा, धर्मभूत ज्ञान के द्वारा तथा अपने विग्रह (शरीर ) के द्वारा । ईश्वर को अनन्त कहा जाता है । अनन्त उसे कहते हैं, जो तीन प्रकार के परिच्छेद ( सीमाओं ) से रहित हो । देशपरिच्छेद, कालपरिच्छेद और वस्तुपरिच्छेद ये तीन प्रकार के परिच्छेद हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
ईश्वर की त्रिविध व्यापकता
भा० प्र० - इस परिच्छेद में ईश्वर की व्यापकता का वर्णन करते हुए यतीन्द्र- मतदीपिकाकार कहते हैं - स चेश्वरः इत्यादि - अर्थात् उपर्युक्त ईश्वर विभुस्वरूप वाला है । विभुत्व व्यापकता को कहते हैं । ईश्वर तीन प्रकार से व्यापक है—१. स्व- रूप द्वारा २. धर्मभूतज्ञान द्वारा तथा ३. शरीर द्वारा ।
( १ ) ईश्वर की स्वरूपतः व्यापकता - सभी व्याप्य द्रव्यों का संयोग जिससे हो, उसे व्यापक कहते हैं । ईश्वर जगत् का व्यापक है, जगत् उसका व्याप्य है । उसकी स्वरूपतः व्यापकता का वर्णन करती हुई श्रुति कहती हैं- ‘ईशा वास्यमिदं सर्वम्’ ( ईशोपनिषद् १ ) । अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर का व्याप्य है और ईश्वर जगत् में व्यापक है । ‘यच्च किञ्च जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा । अन्तर्बहिश्च तत् सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ।’ अर्थात् जो कुछ भी जगत् में देखा अथवा सुना जाता है, उन सभी के भीतर व्यापक रूप से भगवान् नारायण विद्यमान हैं । ईशावास्योपनिषद् की ‘तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।’ अर्थात् वह ईश्वर इस सम्पूर्ण जगत् के भीतर तथा बाहर दोनों प्रकार से व्यापक है । भगवान् से अर्जुन कहते हैं— ‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।’ अर्थात् श्रीभगवान् आप सभी वस्तुओं में पूर्णरूप से व्याप्त हैं, अत एव आपको सर्वं शब्द से अभिहित किया जाता है । संसार की सभी वस्तुओं से स्वरूपतः महान् होने के कारण ही श्रीभगवान् के विषय में श्रुति कहती है- ‘महतो महीयान्’ महान् वस्तुओं से भी महान् श्रीभगवान् । विष्णु नाम की निरुक्ति करते हुए कहा गया है—’ चराचरेषु सर्वेषु वेशनाद्विष्णुरुच्यते ।’ अर्थात् ईश्वर को विष्णु नाम से इसलिए अभिहित किया जाता है क्योंकि वे सम्पूर्ण चराचर जगत् के भीतर व्याप्त हैं । चेतनाचेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् में व्यापक होने के कारण ही ‘अप्रमेयात्मा’[[२४३]] शब्द से भी ईश्वर को अभिहित किया जाता है। ईश्वर के ब्रह्म नाम की व्याख्या करते हुए महर्षि यास्क कहते हैं - ‘ब्रह्म परिवृढं सर्वतः’ अर्थात् ब्रह्म सभी प्रकार से सभी वस्तुओं से बढकर हैं । इस प्रकार ईश्वर की स्वरूपतः व्यापकता सिद्ध होती है ।
( २ ) धर्मभूत ज्ञान के द्वारा ईश्वर की व्यापकता यह है कि वह अपने ज्ञान के द्वारा सभी वस्तुओं को राहे वे वर्तमानकालिक हों, या अतीतकालिक अथवा अनागतकालिक - सर्वदा विषय बनाता है। कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका परमात्मा अपरोक्ष नहीं करता हो । देश एवं काल की सीमा परमात्मा के ज्ञान की प्रतिबन्धक नहीं बनती है । श्रुति कहती है - यः सर्वज्ञः सर्ववित्’ अर्थात् जो पर- मात्मा सभी वस्तुओं को सामान्य रूप से तथा विशेष रूप से जानता है । अतएव सभी वस्तुओं को अपने ज्ञान का विषय बनाने के कारण परमात्मा धर्मभूत ज्ञान के द्वारा व्यापक सिद्ध होता है ।
( ३ ) शरीर के द्वारा व्यापकता - परमात्मा अपने विराट् रूप के द्वारा जगत् में व्यापक है । इसीलिए - ‘यस्यात्मा शरीरम्’ अर्थात् आत्मा जिसका शरीर है । ‘यस्य पृथिवी शरीरम्’ अर्थात् पृथिवी जिसका शरीर है । ‘यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरम्’ अर्थात् सम्पूर्ण भूत जिसका शरीर है; इत्यादि श्रुतियाँ परमात्मा को सम्पूर्ण जगत्शरीरक बतलाती हैं ।
ईश्वर का आनन्त्य
ईश्वर को ‘सत्यं ज्ञानमनन्तम्’ श्रुति अनन्त बतलाती है । अनन्त उस वस्तु को कहा जाता है, जो किसी देश - विशेष, काल-विशेष तथा वस्तु- विशेष में व्यापक न रहकर सभी देशों, सभी कालों तथा सभी वस्तुओं में व्यापक हो । ‘स भूमि सर्वतः स्पृत्वाऽत्य- तिष्ठद् दशाङ्गुलम्’ ( पुरुषसूक्त १ ) । अर्थात् वह परमात्मा सम्पूर्ण जगत् में सब प्रकार से व्यापक रहकर उसके बाहर भी अनन्त प्रदेश तक व्याप्त है । यह श्रुति पर- मात्मा को सर्वदेश व्यापक बतलाकर उसे देश की सीमा से रहित बतलाती है । ‘तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः’ अर्थात् परमात्मा इस सम्पूर्ण जगत् के बाहर एवं भीतर व्याप्त है, यह श्रुति तथा ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ श्रुति परमात्मा को सभी वस्तुओं में व्यापक बतलाकर उसे वस्तु की सीमा से रहित बतलाती हैं । जो पदार्थ परिच्छिन्न गुणवाला तथा परिच्छिन्न विभूतिवाला हो, उसमें वस्तुपरिच्छेद विद्यमान रहता है; ब्रह्म में वस्तुपरिच्छेद नहीं है । भाव यह है कि स्वरूप, गुण, विभूति तथा अन्य किसी आकार की दृष्टि से जो पदार्थ दूसरे पदार्थ में निम्न कोटि से रहता है, उसमें वस्तुपरिच्छेद माना जाता है । इन दृष्टियों से विचार करने पर भी ब्रह्म किसी वस्तु से निम्न कोटि का नहीं है; अतएव वह वस्तुपरिच्छेद से रहित है । श्रीभगवान् नित्य हैं । सर्वकालविद्यमानत्व को नित्यता कहते हैं । ‘नित्यो नित्या- नाम्’ अर्थात् परमात्मा नित्य जीवों से भी बढ़कर नित्य है । यह श्रुति परमात्मा को काल की सीमा से रहित बतलाती है । देश; काल एवं वस्तु की सीमा से रहित होने के कारण ही श्रीभगवान् अनन्त शब्द से अभिहित किये जाते हैं ।
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मूलम्
१४. स च ईश्वरो विभुस्वरूपः । विभुत्वं नाम व्यापकत्वम् । तच्च त्रिधा -स्वरूपतो धर्मभूतज्ञानतो विग्रहतश्च । स चानन्त इत्युच्यते । अनन्तो नाम त्रिविधपरिच्छेदरहितः । त्रिविधः परिच्छेदस्तु देशतः कालतो वस्तुतः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१५. सत्यत्व-ज्ञानत्वानन्दत्वामलत्वादय
इश्वरस्य स्व-रूप–निरूपक-धर्माः ।
ज्ञान-शक्त्य्-आदयो निरूपित–स्व-रूप-धर्माः ।+++(5)+++
सर्व-ज्ञत्व–सर्व-शक्तित्वादयः सृष्ट्य्-उपयुक्ता धर्माः।
वात्सल्य-सौशील्य-सौलभ्यादय आश्रयणोपयुक्ता धर्माः ।
कारुण्यादयो रक्षणोपयुक्त-धर्माः ।
एतेषां स्व-रूपम् बुद्धि-परिच्छेदे निरूपितम् इति नेह प्रपञ्च्यते ।
शिवप्रसादः (हिं)
सत्यत्व, ज्ञानत्व, आनन्दत्व तथा अमलत्व आदि ईश्वर के स्वरूप - निरूपक धर्म हैं । ज्ञान-शक्ति आदि स्वरूप-निरूपक धर्मो के द्वारा निरूपित धर्म हैं । सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि परमात्मा की सृष्टि के लिए उपयोगी धर्म हैं । वात्सल्य, सौशील्य, सौलभ्य आदि ईश्वर के आश्रयणोपयुक्त धर्म हैं । कारुण्य आदि ईश्वर के रक्षणोपयुक्त धर्म हैं । इन गुणों के स्वरूप का निरूपण बुद्धि-परिच्छेद में किया जा चुका हैं, अतएव यहाँ पर उनके स्वरूप को निरूपित नहीं किया जा रहा है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
[[२४२]]
श्रीभगवान् को समस्त कल्याणगुणगणाकर कहा जाता है। ये सभी गुण श्रीभगवान् के धर्म हैं तथा श्रीभगवान् धर्मी हैं । ये गुण श्रीभगवान् में कई प्रकार के धर्मरूप में विद्यमान हैं । सत्यत्व, ज्ञानत्व, आनन्दत्व एवं अमलत्व आदि श्रीभगवान् के स्वरूप- निरूपक धर्म हैं । अर्थात् इन गुणों से श्रीभगवान् के स्वरूप को निरूपित किया जाता है । ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ श्रुति बतलाती है कि ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप तथा अनन्तस्वरूप है । ‘आनन्दं ब्रह्म’ यह श्रुति ब्रह्म को आनन्दस्वरूप बतलाती है। ‘अपहतपाप्मा’ श्रुति ब्रह्म को कर्मबन्ध रूप मल से रहित स्वरूपवाला बतलाती है। ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य एवं तेज ये षाड्गुण्य भी स्वरूप-धर्म हैं, किन्तु ये ज्ञान- त्वादि स्वरूप निरूपक धर्मों के द्वारा निरूपित होते हैं । ईश्वर में विद्यमान सर्वज्ञत्व तथा सर्वशक्तिमत्त्व ये दोनों धर्म सृष्टि करने के किए उपयोगी हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर सब कुछ करने में समर्थ है, अतएव वह जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण होने के कारण पूर्वकल्पानुसारी सभी सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि की सृष्टि करके उनका नामरूप विभाग करता है ।
श्रीभगवान् के वात्सल्य, सौशील्य, सौलभ्य आदि गुणों का ही अनुसन्धान करके जीव श्रीभगवान् की शरणागति प्राप्त करते हैं । अतएव ये गुण श्रीभगवान् के आश्रयणोप- युक्त हैं । श्रीभगवान् करुणा के द्वारा ही प्रेरित होकर इन अनादि काल से पराङ्मुख जीवों की रक्षा किया करते हैं । ’ हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’ इस नामरूप व्याकरण श्रुति के ‘हन्त’ इस अव्यय पद के द्वारा भी ‘हन्त हर्षे कृपायाञ्च’ इस कोशवाक्य के अनुसार श्रीभगवान् की कृपा सूचित होती है । ‘क्रीडा कारुण्यतन्त्रः सृजति समतया जीवकर्मानुरूपम् ’ ( तत्त्वमुक्ताकलाप ३।१ ) इस कारिका में वेदान्तदेशिक बतलाते हैं कि जीवों के प्राचीन कर्मों को देखते हुए परमात्मा सभी को समानरूप से अपनी करुणा के आधीन होकर तथा लीलारस का अनुभव करने के लिए सृष्टि करते हैं । दयाशतक नामक स्तोत्र - ग्रन्थ में श्रीमद् वेदान्तदेशिक श्रीभगवान् की सर्वकार्यनिर्वाहिका शक्ति करुणा नामक गुण को बतलाते हैं ।
मूलम्
१५. सत्यत्वज्ञानत्वानन्दत्वामलत्वादय इश्वरस्य स्वरूपनिरूपकधर्माः । ज्ञान- शक्त्यादयो निरूपितस्वरूपधर्माः । सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वादयः सृष्ट्युपयुक्ता धर्माः। वात्सल्यसौशील्यसौलभ्यादय आश्रयणोपयुक्ता धर्माः । कारुण्यादयो रक्षणोपयुक्त-धर्माः । एतेषां स्वरूपम् बुद्धिपरिच्छेदे निरूपितमिति नेह प्रपञ्च्यते ।