०६ पर-मत-निरासः

विश्वास-प्रस्तुतिः

१२. एवम् ईश्वराङ्गीकारात्
निरीश्वर-साङ्ख्य-मीमांसकादि-मत-निरासः ।

तस्यैवोपादानत्व-स्वीकरात्
योग-पाशुपत-नैयायिक-मत-निरासः -
तैः निमित्त-मात्रेश्वराङ्गीकारात् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - इस प्रकार से जगत् के कारण रूप से ईश्वर को स्वीकार करने से निरीश्वरवादी सांख्यों एवं मीमांसकों के मत का खण्डन हो जाता है । ईश्वर को ही जगत् का उपादानकारण स्वीकार करने से योगियों, पाशुपतों तथा नैयायिकों के मत का प्रत्याख्यान हो जाता है, क्योंकि वे ईश्वर को जगत् का निमित्तकारण ही मानते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ईश्वर - सिद्धि ।

भा० प्र० - ऊपर के अनुच्छेद में सिद्ध किया गया है कि ईश्वर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानकारण है । किन्तु सांख्यमतावलम्बी तथा मीमांसक ईश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि यदि ईश्वर होता तो उसकी भी उपलब्धि होती, चूंकि नहीं होती है, अत एव सिद्ध होता है कि ईश्वर नहीं है । किन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि योग्यानुपलब्धि ही किसी भी वस्तु के अभाव को सिद्ध कर सकती है, अयोग्यानुपलब्धि के द्वारा किसी भी पदार्थ के अभाव को सिद्ध नहीं किया जा सकता है । अनुपलब्धिप्रमाण का योग्य विषय वही होता है, जो उद्भूत रूप वाला तथा उद्भूत महत्त्व गुण वाला हो । ईश्वर इन दोनों प्रकार की विशेषताओं से रहित होने के कारण अनुपलब्धिप्रमाण का योग्य विषय नहीं है । यदि अयोग्य विषयों को भी अभाव प्रमाण अपना विषय बनाए तो फिर स्वात्म-परात्म का भेद भी आप सिद्ध नहीं कर सकते हैं । परात्मा प्रत्यक्ष का योग्य विषय नहीं है । अतएव उसका साक्षात्कार नहीं होता, एतावता उसका अनुपलब्धिप्रमाण के द्वारा अभाव भी सिद्ध नहीं किया जा सकता है ।

इस पर चार्वाक मतानुयायी कह सकते हैं कि हम तो शरीर को ही आत्मा मानते हैं । अत एव परात्मा का साक्षात्कार होता ही है ? तो इसका उत्तर है कि आप शरीर का साक्षात्कार कर सकते हैं, किन्तु उसके ज्ञान का तो आप साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं । यदि कहें कि दूसरे शरीरात्मा के ज्ञान को हम प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण के द्वारा जान लेते हैं । जहाँ-जहाँ शरीरात्मा रहता है, वहां-वहाँ ज्ञान रहता है, मेरे शरीरात्मा के समान । यह भी शरीरात्मा है, अत एव इसमें भी ज्ञान है । इस अनु- मान के द्वारा परात्मज्ञान के सद्भाव की सिद्धि होती है ? तो इसका उत्तर है कि- ईश्वर को जगत् के कर्ता रूप में अनुमान किया जाता है । उस अनुमान का स्वरूप है कि—जो-जो कार्य होता है, उस उस कार्य का कोई न कोई कर्ता अवश्य होता है । मही, महीधर, महार्णव इत्यादि भी कार्य हैं, अतएव इनका भी कोई न कोई कर्ता होगा । इन सबों का जो कर्ता है, वही ईश्वर है। मही, महीधर, महार्णवादि के कार्यत्व की सिद्धि इसलिए होती है कि वे सावयव हैं । जो-जो सावयव होता है, वह वह घट के समान कार्य होता है । इस प्रकार मही, महीधर, महार्णवादि के कर्ता रूप में ईश्वर की सिद्धि होती है ।

यहीं पर पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि ईश्वर यदि जगत् का कर्ता होता तो, वह भी शरीरधारी होता । जो-जो कर्ता होता है, वह वह शरीरधारी होता है । जैसे - घटादि कर्ता के कुम्भकार आदि । ईश्वरवादियों को ईश्वर का शरीरी होना अभिप्रेत नहीं [[२४०]] है ? तो इस शंका का समाधान है कि हम कर्ता ईश्वर को मानते हैं, शरीर तो कर्ता है ही नहीं। शरीर तो कर्ता का एक साधनमात्र होता है । लोक में देखा जाता है कि समर्थ कर्ता सर्वत्र देखे जाने वाले साधनों के अभाव में भी तत् तत् कार्यों को कर डालते हैं । ईश्वर को तो श्रुतियाँ सर्वसमर्थ बतलाती हैं । अतएव वह शरीरादि साधन-सामग्री के बिना भी अपने सत्यसंकल्पादि के द्वारा ही जगद्-व्यापार को सम्पादित करता है । विश्व श्रुतियाँ जगत् की सृष्टि के लिए उपयोगी परमात्मा के चेतनाचेतनशरीरकत्व का प्रतिपादन करती ही हैं । किञ्च श्रुतियाँ स्पष्ट रूप से कहती हैं कि ब्रह्म ही जगत् का स्रष्टा, पालक, संहारक तथा मोक्षप्रद है । ‘जन्माद्यस्य यतः ’ ( शा० मी० ११12 ) सूत्र में महर्षि बादरायण इस अर्थ का अच्छी तरह से प्रतिपादन किये हैं ।

यदि यह कहें कि ईश्वर यदि होता तो तत्त्ववेताओं में अग्रगण्य महर्षि कपिल उसका प्रतिपादन अवश्य करते ? चूंकि वे ऐसा नहीं करते हैं, अतएव पता चलता है कि ईश्वर नहीं है । महर्षि कपिल तो स्वतन्त्र प्रकृति को ही जगत् का कारण बतलाते हैं ? तो ऐसी बात नहीं है । योगियों को भी जीव-स्वभाव के कारण भ्रम हो जाता है । भ्रमपूर्ण होने के ही कारण महर्षि बादरायण स्मृतिविरोधाधिकरण में ’ स्मृत्य - नवकाशदोषप्रसङ्ग इति चेन्नान्यस्मृति अनवकाशदोषप्रसङ्गात् ’ ( शा० मी० २1१1१ ) सूत्र के द्वारा कापिलस्मृति को अनुपादेय बतलाते हैं ।

ईश्वर को नहीं मानने वाले कर्ममीमांसक भी महर्षि जैमिनि के अभिप्राय को नहीं समझ पाते हैं । ‘परं जैमिनिर्मुख्यत्वात्’ इस शारीरक सूत्र से स्पष्ट है कि महर्षि जैमिनि को भी ईश्वर का सद्भावाभ्युपगम स्वीकार है ।

पाशुपत मतावलम्बी तथा योगमतावलम्बी मानते हैं कि ईश्वर का सद्भाव तो स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु उसे जगत् का उपादान और निमित्त, दोनों प्रकार का कारण नहीं माना जा सकता है । क्योंकि कार्य का उपादानकारण कोई जड़ ही हो सकता है, उपादानकारण का कार्य के रूप में परिणाम होता है । ईश्वर चेतन है, सर्वज्ञ है । ज्ञाता ईश्वर का कार्य के रूप में परिणाम स्वीकार करना उचित नहीं है । अतएव ईश्वर को जगत् का निमित्तकारण मानना ही उचित है। ‘यतो वा’ इत्यादि श्रुति ईश्वर को जगत् का निमित्तकारण ही बतलाती है । वह जगत् का अधिष्ठाता होने के कारण भी जगत् का निमित्तकारण उसी प्रकार सिद्ध होता है, जिस प्रकार घट का अधिष्ठाता कुलाल जगत् का निमित्तकारण है ।

किन्तु ईश्वर को जगत् का निमित्तकारणवादी विचारकों का विचार
इसलिए ठीक नहीं है कि
ईश्वर को सिद्ध करने में समर्थ प्रमाण श्रुतियाँ ही
ईश्वर को जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बतलाती हैं ।
किञ्च ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है ।
जिस प्रकार वह जगत् का निमित्तकारण होने में समर्थ है, उसी प्रकार वह जगत् का उपादानकारण भी हो सकता है । अपने सूक्ष्म चेतनाचेतन रूप प्रकारांश को छोड़कर स्थूल [[२४१]] चेतनाचेतन रूप प्रकारांश को ग्रहण करके कार्य के रूप में परिणत होता है । नामरूप विभागानहावस्था को छोड़कर नामरूप विभागार्हावस्था को प्राप्त हो जाना ही उपादानभूत ईश्वर का कार्य जगत् के रूप में परिणाम होना है । अतएव ईश्वर को जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण मानने में कोई भी आपत्ति नहीं है ।

मूलम्

१२. एवम् ईश्वराङ्गीकारात् निरीश्वरसाङ्ख्यमीमांसकादिमतनिरासः । तस्यैव उपादानत्वस्वीकरात् योगपाशुपतनैयायिकमतनिरासः - तैः निमित्त- मात्रेश्वराङ्गीकारात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरस्य कार्यम् प्रत्य् उपादानत्व-निमित्तत्ववत्
कर्तृत्व-प्रेरकत्व-नियन्तृत्व-प्रकाशयितृत्व+अनुमन्तृत्व-सहकारित्वोदासीनत्वादिकम् अप्य्
उपपद्यते ।

शिवप्रसादः (हिं)

कार्य जगत् के प्रति ईश्वर के उपादानत्व तथा निमित्तत्व के ही समान उसके कर्तृत्व, प्रेरकत्व, नियन्तृत्व, प्रकाशकत्व, अनुमतिप्रदत्व, सहकारित्व, उदासीनत्व आदि गुणों की भी उपपत्ति हो जाती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जिस प्रकार ब्रह्म में उपादानत्व एवं निमित्तत्व आदि विशेषताओं की सिद्धि होती है, उसी प्रकार ब्रह्म में कर्तृत्व आदि गुणों की भी सिद्धि हो जाती है । ‘हन्ताऽहमिमा- तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि श्रुति ब्रह्म में जगत् के नामरूप व्याकर्तृत्व का प्रतिपादन करती है । ‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर क्षरात्मानावीशते देव एकः’ यह श्रुति कहती है कि विकारवती प्रकृति का उपभोग करने के लिए जीव अमृत हरण करता है तथा प्रकृति और जीव इन दोनों को परमात्मा अकेले नियमन करता है । यह श्रुति ईश्वर के नियन्तृत्व का प्रतिपादन करती है । ‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ श्रुति बतलाती है कि परमात्मा से प्रकाश को पाकर यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है ।

मूलम्

ईश्वरस्य कार्यम् प्रत्युपादानत्वनिमित्तत्ववत् कर्तृत्वप्रेरकत्वनियन्तृत्वप्रकाशयितृत्व(+अनुमन्तृत्व)सहकारित्वोदासीनत्वादिकम् अप्युपपद्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१३. बाल्ययौवनावस्थादयो दोषा
यथा शरीरगताः,
न तु शरीरिणि जीवे;
एवं चिद्–अ-चिच्-छरीरिणः परमात्मनोऽपीति
न निर्विकार-श्रुति-विरोधः।

शिवप्रसादः (हिं)

जिस प्रकार बालत्व, यौवनत्व आदि विकार शरीर में होते हैं, उसके अधिष्ठाता आत्मा में नहीं, उसी प्रकार चेतनाचेतनशरीरक परमात्मा [[२३९]] का भी उसके निर्विकारत्व प्रतिपादिका श्रुतियों से कोई विरोध नहीं होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जिस प्रकार बालत्व, युवत्व आदि अवस्थाएँ शरीर में होती हैं, किन्तु शरीरी आत्मा निर्विकार बना रहता है, उसी प्रकार परमात्मा के शरीरभूत चेतनाचेतनों में जो दोष होते हैं, उन दोषों से उनके आत्माभूत परमात्मा से सम्पर्क नहीं होता है । अतएव चेतनाचेतनों में विकार होने पर भी उनके आत्मभूत परमात्मा में कोई भी विकार नहीं होता है । अतएव परमात्मा को निर्विकार बतलाने वाली श्रुतियों से चेतनाचेतनात्मा परमात्मा को मानने में कोई भी विरोध नहीं होता है ।

मूलम्

१३. बाल्ययौवनावस्थादयो दोषा यथा शरीरगताः, न तु शरीरिणि जीवे; एवं चिदचिच्छरीरिणः परमात्मनोऽपीति न निर्विकारश्रुतिविरोधः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियमेन तद्-आधेयत्व-विधेयत्व-शेषत्वादेः शरीर-लक्षणस्य
जगति विद्यमानत्वात्
जगच्-छरीर ईश्वरस्
तद्-गत-दोषैर् असंस्पृष्टश् च ।

शिवप्रसादः (हिं)

परमात्मा के शरीरभूत जगत् में नियमतः परमात्माधेयत्व, परमात्मविधेयत्व तथा परमात्मशेषत्व नामक धर्म रहता है, जगत्-शरीरक ईश्वर की सिद्धि होती है तथा परमात्मा में जगत् के दोषों का संस्पर्श भी नहीं होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

चेतनाचेतनात्मक जगत् को
परमात्मा का शरीर इसलिए माना जाता है कि
शरीर के जो लक्षण हैं,
वे सभी लक्षण जगत् में मिलते हैं ।
जो जिसका शरीर होता है,
वह अपने आश्रयभूत चेतन का
नियमतः आधेय, विधेय और शेष होता है ।
जगत् भी परमात्मा का
नियमतः आधेय, विधेय और शेष हैं ।
परमात्माश्रित होने के कारण
जगत् परमात्मा का आधेय है ।
परमात्मा के द्वारा प्रेरित एवं नियन्त्रित होने के कारण
यह परमात्मा का नियमतः विधेय है ।
परमात्मा जिस प्रकार से चाहता है,
उसी प्रकार जगत् से लीलादि रस का अनुभव करते हुए
उसका उपभोग करता है,
अतएव जगत् परमात्मा का शेष है ।

मूलम्

नियमेन तदाधेयत्वविधेयत्वशेषत्वादेः शरीरलक्षणस्य जगति विद्यमानत्वात् जगच्छरीरी/जगच्छरीर ईश्वरस् तद्गतदोषैरसंस्पृष्टश्च ।