०५ निर्विशेषे ब्रह्मणि न वेदान्त-तात्पर्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

१०. ननु, अद्वैत-श्रुत्या ब्रह्मैकम् एव सत्यं निर्गुणं च ।
तद्-अन्यज् ज्ञातृ-ज्ञेयादिकं,
तस्मिन्न् एव परिकल्पितं सर्वम्
मिथ्या
ब्रहौव अविद्यया संसरति
“तत् त्वम् असी"त्य् अ-भेद-ज्ञानं तन्-निवर्तकम् ।
तस्मान् निर्विशेष-चिन्-मात्रे ब्रह्माणि
वेदान्तानां तात्पर्यम्

इति मतान्तरस्थैः प्रतिपादनात्,
कथं नारायणे तात्पर्यं तस्य समस्त-कल्याण-गुणाकरत्वादि-कथनं च?

इति चेत्, उच्यते ।
कारणत्व-प्रतिपादक-श्रुतिभिर् नारायणस्य कारणत्वे सिद्धे,
भेदाभेद-श्रुत्योर् घटक-श्रुत्या विषय-भेदेन विरोधे परिहृते,
निर्गुण-प्रतिपादक-श्रुतीनां हेय-गुण-निषेधकत्वात्,
ज्ञातृ-ज्ञेयादि-कल्पकाविद्याया एवाप्रामाणिकत्वाद्,
ब्रह्मकार्यस्य सत्यत्वात्,
अविद्यया संसारे जीव-गत-दोषाणाम् ब्रह्मण्यपि सम्भवात्,
तन्-निवर्तकान्तरस्य वक्तुम् अशक्यत्वात् ।

अतो ऽद्वैत-वादस्यासम्भवात्
न निर्विशेष-चिन्-मात्र-ब्रह्म-सिद्धिः ।
अतो नारायणस्यैव जगत्-कारणत्व–मोक्ष-प्रदत्वादि-गुण-योगः सम्भवतीति
सविशेषमेव ब्रह्म ।

अण्णङ्गराचार्यः

अद्वैतमतप्रक्रियां शङ्कते ‘ननु’ इति ।
विशिष्टाद्वैतिनां मते सर्व‍श्रुतिसमन्वयं स्वरससिद्धं प्रदर्शयन् अनूदिते शाङ्करपक्षेऽसामञ्जस्यं प्रपञ्चयति ‘उच्यते’ इत्यादिना । घटकश्रुत्या शरीरात्मभावं प्रतिपादिकया भेदाभेदश्रुत्योरविरोधेन सङ्घटयित्र्या श्रुत्या ।
**‘विषयभेदेने’**ति । प्रकारप्रकारिणोः प्रकाराणां च मिथो भेदपराः भेदश्रुतयः । अभेदश्रुतयः ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ इत्यादयो विशिष्टैक्यपराः । एवमुपगमेन भेदाभेदश्रुत्योः परस्परं विरोधो नास्त्येव । अभेदश्रुतेर्जगद्ब्रह्मणो स्वरूपैक्यपरत्वे ब्रह्मभिन्नजगद्बाधपरत्वे वा स्वीक्रियमाणे तु ब्रह्मणः सदोषत्वापत्तिर्भेदश्रुतिबाधापत्तिश्चेति भावः । सगुणनिर्गुणश्रुत्योर्विरोधपरिहार उत्सर्गापवादन्यायेन विहितशुभगुणव्यतिरिक्तं प्राकृतगुणनिषेधपरत्वोपगमान्निर्गुणश्रुतेरुपपादितः ।
‘अविद्यायाः’ इति । प्रकृतिकर्मज्ञानाभावव्यतिरिक्ताया अद्वैतिभिरुपगताया अप्रामाणिकत्वादित्यर्थः ।
‘संसारे’ इति । ब्रह्मण इत्यादिः ।
**‘तन्निवर्तके’**ति । ब्रह्मस्वरूपाच्छादिकायाम् अविद्यायाम् अतिबलीयस्त्वाद्दुर्निवारत्वमेव स्यात् । अविद्याकार्यवाक्यजन्यं ज्ञानमेवाविद्यानिर्तकं भविष्यतीति च मतमाशामोदकायितमिति भावः । व्यापकत्वम् - सर्वद्रव्यसंयोगित्वम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - प्रश्न उठता है कि अद्वैतश्रुति के द्वारा सिद्ध होता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और वह निर्गुण है । उससे भिन्न प्रतीत होने वाले ज्ञाता, ज्ञेय आदि उस निर्गुण ब्रह्म में ही आरोपित हैं, अतएव मिथ्या हैं । ब्रह्म ही अविद्या के कारण संसरण करता है । ‘तत्त्वमसि’ इत्यादि वाक्यजन्य अभेद ज्ञान उस अविद्या ( अज्ञान ) निवर्तक हैं । इस प्रकार सिद्ध होता है कि निर्विशेष ज्ञानमात्र ब्रह्म के ही प्रतिपादन में सभी वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य है, यह अद्वैती विद्वान् प्रतिपादन करते हैं, अतएव यह कैसे कहा जा सकता है कि समस्त कल्याणकारी गुण- गणात्मक नारायण के प्रतिपादन में ही वेदान्तों का तात्पर्य है ? तो इस शंका का समाधान यह है कि जगत् के कारण-तत्त्व का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियाँ भगवान् नारायण को ही जगत् का कारण बतलाती हैं, यह सिद्ध हो जाने पर घटक-श्रुतियों के द्वारा भेद-श्रुतियों तथा अभेद- श्रुतियों के प्रतीयमान विरोध का विषय भेद के द्वारा विरोध को दूर कर दिये जाने पर सिद्ध होता है कि ब्रह्म के निर्गुणत्व के प्रतिपादक श्रुतियों का तात्पर्य ब्रह्म में त्याज्य गुणों का निषेध करना है । ज्ञाता, ज्ञेय आदि की कल्पना करने वाली अविद्या है, इस कथन में कोई भी प्रमाण नहीं है । ब्रह्म का कार्यभूत जगत् सत्य है । अविद्या के द्वारा ब्रह्म का संसरण मानने पर जीव में जो दोष होते हैं, उन सभी दोषों का संक्रमण ब्रह्म में भी होगा । उस आविद्या का निवर्तक तत्त्वमस्यादि वाक्यजन्य अभेद- ज्ञान है; यह नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार अद्वैतवाद की सिद्धि न हो सकने के कारण अद्वैत्यभिमत निर्विशेष चिन्मात्र ब्रह्म की सिद्धि नहीं हो सकती है ।

इस प्रकार सिद्ध होता है कि नारायण में ही जगत्कारणत्व तथा मोक्षप्रदत्व आदि गुणों का योग है । सविशेष ब्रह्म की सिद्धि होती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

निविशेष ब्रह्म जगत् का कारण नहीं

भा० प्र० - ऊपर के अनुच्छेद में सिद्ध किया गया है कि समस्त कल्याणारी गुण- गणात्मक भगवान् नारायण ही जगत् के कारण हैं । सभी वेदान्त - वाक्य उनका ही प्रतिपादन करते हैं ।

निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म की सिद्धि – इस अनुच्छेद में पूर्वपक्षी अद्वैत मत को उप- स्थापित करते हुए कहते हैं कि सगुण ब्रह्म नारायण के प्रतिपादन में वेदान्तों का तात्पर्यं नहीं माना जा सकता है; क्योंकि अद्वैत-श्रुतियाँ बतलाती हैं कि एकमात्र निर्गुण ब्रह्म ही सत्य है, उससे भिन्न प्रतीयमान ज्ञाता, ज्ञेय आदि समस्त भेद मिथ्या हैं तथा उस निर्गुण ब्रह्म में ही आरोपित हैं । ब्रह्म को निर्गुण प्रतिपादित करने वाली निर्गुण श्रुतियाँ निम्न हैं-

‘साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।’ अर्थात् ब्रह्म साक्षी है, चेता है, केवल है तथा निर्गुण है । दूसरी श्रुति कहती है कि - निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्’ अर्थात् ब्रह्म कला एवं क्रिया से रहित शान्त ( षडूमिरहित), निरवद्य ( निर्दोष ) तथा निरञ्जन है । ये श्रुतियाँ ब्रह्म में गुणों का निषेध करती है । ‘सदेव सोम्ये- दमग्रासीदेकमेवाद्वितीयम्’ श्रुति ब्रह्म में सजातीय, विसजातीय एवं स्वगतभेद का निरास करती हैं । श्रुति ‘सदेव’ पद के द्वारा विजातीय भेदों का, ‘एकमेव ’ पद के द्वारा सजातीय भेद का तथा ‘अद्वितीयम्’ पद के द्वारा स्वगत भेद के अभाव का प्रतिपादन करती है । ‘यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुश्श्रोत्रं तदपाणिपादं नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनि परिपश्यन्ति धीराः’ ( मु० उ० १।१६ ) श्रुति बतलाती है कि ब्रह्म अद्रेश्य अर्थात् अदृश्य ( ऐन्द्रियिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता ) है । अग्राह्य अर्थात् अनुमान के द्वारा दुर्ग्राह्य है, अगोत्र अर्थात् नामरहित है, सद् ब्रह्म आदि शब्द भी उसे लक्षणा के द्वारा ही प्रदर्शित करते हैं । अवर्णं अर्थात् रूप तथा जाति से रहित है । वह अचक्षुः श्रोत्र अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से रहित तथा अपाणि- पाद अर्थात् कमेन्द्रियों से रहित है। वह नित्य तथा व्यापक है अर्थात् देश एवं काल की सीमा से रहित है । वह सर्वगत अर्थात् सभी वस्तुओं का अधिष्ठान होने के कारण वस्तु- परिच्छेद से रहित है । वह अत्यन्त सूक्ष्म है, अतएव वह अदृश्य कहा जाता है, [[२३२]] न कि तुच्छ होने के कारण अदृश्य है । वह अव्यय अर्थात् सदा एकसमान रहने बाला है । उसे ही तत्त्ववेत्ता पुरुष सभी भूतों के कारण रूप से साक्षात्कार करते हैं। श्रुति ब्रह्म में सभी गुणों का अभाव बतलाकर ब्रह्म को निर्विशेष, निर्विकार एवं सम बतलाती है । ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ ( तै० उ० आनंदवल्ली १1१) श्रुति कहती है कि ब्रह्म सत्यस्वरूप अर्थात् अलोकव्यावृत्त, ज्ञानस्वरूप अर्थात् जड़व्यावृत्त तथा अनन्त अर्थात् परिच्छिन्नप्रत्यनीक है। यह वाक्य ब्रह्म को निर्विशेष सिद्ध करता है । ‘इदं सर्वं यदयमात्मा’ ( बृ० उ० ४।४।६ ) श्रुति बतलाती है कि यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म में आरोपित है । ‘नेह नानास्ति किञ्चन’ ( वृ० उ० ६ ।४। १९ ) श्रुति बतलाती है कि इस जगत् में दृश्यमान नाना प्रकार के भेद ब्रह्म में आरोपित होने के कारण मिथ्या- भूत हैं । ‘मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति’ ( वृ० उ० ६।४।१९ ) श्रुति बतलाती है कि जो इन भेदों को सत्यरूप से देखता है, उसको बार-बार संसार में आना-जाना पड़ता है ।

इन सभी श्रुतियों के द्वारा स्पष्ट हो गया कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, वह निर्गुण एवं निर्विकार है; ज्ञाता, ज्ञेय इत्यादि सभी पदार्थ उस ब्रह्म में ही कल्पित हैं, अतएव मिथ्या हैं ।

अविद्याग्रस्त ब्रह्म का संसार में संसरण - अद्वैती विद्वानों का कहना है कि पर- ब्रह्म अविद्या से उपहित ( आच्छन्न ) होकर विविध भेद दर्शन रूपी अनेक भ्रमों में फँस जाता है । उसके फलस्वरूप वह जन्म, जरा, मरण इत्यादि सांसारिक दुःखो को भोगा करता है । अद्वैती विद्वानों की मान्यता है कि ‘तत्त्वमसि’ इत्यादि वाक्यों से जो अभेद ज्ञान होता है, उसी ज्ञान से उस अविद्या की निवृत्ति होती है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य ज्ञानमात्र ब्रह्म के प्रतिपादन में है । अतएव समस्त कल्याणगुणात्मक सगुण नारायण के प्रतिपादन में वेदान्त-वाक्यों का तात्पर्य नहीं माना जा सकता है । पूर्वपक्षियों की उपर्युक्त शङ्का का समाधान करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार का कहना है कि - यह निश्चय हो चुका है कि सभी कारणवादी वाक्य भगवान् श्रीमन्नारायण का ही प्रतिपादन करते हैं । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वह कारणतत्त्व सगुण है कि निर्गुण ? इसके विषय में अद्वैती विद्वान् कहते हैं कि ब्रह्म निर्गुण है । क्योंकि श्रुतियाँ उसके निर्गुणत्व का प्रति- पादन करती हैं ।

अपने पक्ष के समर्थन में अद्वैती विद्वान् कहते हैं कि ब्रह्म-विषयिणी दो प्रकार को की श्रुतियाँ पायी जाती हैं - सगुण श्रुति एवं निर्गुण श्रुति । सगुण श्रुति ब्रह्म सगुण बतलाती हैं और निर्गुण श्रुति ब्रह्म को निर्गुण बतलाती हैं । अकेला ब्रह्म सगुण एवं निर्गुण दोनों नहीं हो सकता है। या तो वह गुण ही होगा अथवा वह निर्गुण होगा । अतएव दोनों प्रकार की जो श्रुतियाँ हैं, उनमें से एक प्रकार की श्रुति के अर्थ का बाध मानना होगा । किस प्रकार की श्रुति के अर्थ का बाध माना जाय ? इस अर्थ [[२३३]] का निर्णय करने के लिए अपच्छेदन्याय की प्रवृत्ति होती है । उस अपच्छेदन्याय के द्वारा सगुणत्व शास्त्र का बाध होता है ।

अपच्छेदन्याय - पूर्वमीमांसा के छठे अध्याय के पश्चम पाद का उन्नीसवाँ अधि- करण अपच्छेदाधिकरण है । इस अधिकरण में कहा गया है कि ज्योतिष्टोम के प्रातः- सवन में बहिष्पवमानस्तोम पाठ करने वाले ऋत्विजों को एक-दूसरे का कक्ष पकड़ कर पिपीलिका-पंक्ति ( चींटी की पंक्ति ) की तरह चलना चाहिए । इस कार्य में यदि कोई ऋत्विज प्रमादवश कक्ष छोड़ देता है तो उसका प्रायश्चित्त बतलाया गया है कि ‘यद्युद्गाताऽपच्छिद्येत, अदक्षिणो यज्ञः संस्थाप्य तेन पुनर्यजेत, तत्र तद् दद्याद् यत् पूर्वस्मिन् दास्यत् स्यात् । यदि प्रतिहर्ताऽपच्छिद्येत सर्ववेदसं दद्यात् ।’ अर्थात् यदि उद्गाता गृहीत कक्ष को प्रमादवश छोड़ दे तो प्रारब्ध यज्ञ को दक्षिणा दिये बिना समाप्त करना चाहिए, बाद में पुनः उसी यज्ञ को करना चाहिए तथा प्रथम प्रयोग में जो दक्षिणा देने के लिए बाकी रह गयी थी, उसी दक्षिणा को इंस द्वितीय याग में देना चाहिए । यदि प्रमादवश प्रतिहर्ता गृहीत कक्ष को छोड़ दे तो उसी याग में दक्षिणा के रूप में सर्वस्व दे देना चाहिए ।

यदि कोई एक कक्ष को छोड़ दे तो उसके लिए जो प्रायश्चित्त विहित है, उसे करना चाहिए । यदि दो ऋत्विक् एक साथ ही कक्ष छोड़ दे तो उस समय दोनों में से किसी एक को प्रायश्चित्त करना चाहिए, क्योंकि उन प्रायश्चित्तों में विकल्प माना जाता है । यदि एक ऋत्विक् पहले छोड़ दे और दूसरा उत्तर काल में छोड़ दे तो इस प्रकार क्रम से दो अपच्छेद जहाँ हो जाय तो वहाँ क्या करना चाहिए ? पूर्वापच्छेद- निमित्तक प्रायश्चित्त कर्तव्य है अथवा उत्तरापच्छेद- निमित्तक प्रायश्चित्त कर्तव्य है ? इस शंका का समाधान करते हुए सूत्र कहता है – ‘पौर्वापर्ये पूर्वदौर्बल्यं प्रकृतिवत्’ अर्थात् पूर्वापच्छेदनिमित्त उपस्थित होते ही पूर्वापच्छेद निमित्तक प्रायश्चित्तशास्त्र उपस्थित होकर ज्ञान कराता है । उस समय उत्तरापच्छेद तथा तन्निमित्तक प्रायश्चित्तशास्त्र उप- स्थित ही नहीं रहता है । अनुपस्थित उत्तर प्रायश्चित्तशास्त्र का बाध नहीं हो सकता है । उत्तरापच्छेद सम्पन्न होने पर उस निमित्त के बल से उत्तर प्रायश्चित्तशास्त्र को उपस्थित होकर यह ज्ञान कराना पड़ता है, उस समय पूर्व प्रायश्चित्त रूपी प्रतिद्वन्द्वी पहले ही उपस्थित रहता है । अतः पूर्व प्रायश्चित्तशास्त्रजन्य ज्ञान को बाधित किये बिना उत्तर प्रायश्चित्तशास्त्रजन्य ज्ञान उत्पन्न हो ही नहीं सकता है । निमित्त के उपस्थित हो जाने से उत्तर प्रायश्चित्तशास्त्र को उपस्थित होकर ज्ञान कराना ही पड़ता है । अतः उत्तर प्रायश्चितशास्त्र से पूर्व प्रायश्चित्तशास्त्र बाधित हो जाता है । इस प्रकार का सिद्धान्त अपच्छेदाधिकरण में निश्चित किया गया है ।

इसी अधिकरणन्याय के अनुसार उत्तरोपस्थित निर्गुणशास्त्र से पूर्वोपस्थित सगुण शास्त्र का बाध होता है । सगुणशास्त्र के द्वारा गुणों के प्रतिपादित होने पर ही निर्गुणशास्त्र से गुणाभाव प्रतिपादित हो सकता है, क्योंकि अभावज्ञान में प्रतियोगी [[२३४]] का ज्ञान कारण होता है। निर्गुणशास्त्र से सगुणशास्त्र का बाध हो जाने पर ब्रह्म निर्गुण ही सिद्ध होता है। अतएव पूर्वप्रवृत्तिशील सगुणशास्त्र को त्यागना चाहिए। तथा उत्तरप्रवृत्तिशील निर्गुणशास्त्र को अपनाना चाहिए ।

अपच्छेदन्याय का प्रवृत्ति स्थल - किन्तु अद्वैती विद्वानों का यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि अपच्छेदन्याय ऐसे ही शास्त्रों के विषय में प्रवृत्त होता है, जहाँ पर विरोध अनियत हो, कभी विरोध होता हो, कभी नहीं होता हो तथा जिन शास्त्रों में पौर्वापर्य भी अनियत हो । इस प्रकार अनियत विरोध पौर्वापर्य वाले शास्त्रों के विषय में ही अपच्छेदन्याय की प्रवृत्ति होती है । प्रकृत सगुणशास्त्र एवं निर्गुणशास्त्र में विरोध निश्चित है तथा पौर्वापर्य भी निश्चित है । सगुणशास्त्र के प्रवृत्त होने के पश्चात् ही निर्गुणशास्त्र प्रवृत्त हो सकता है, क्योंकि अभावज्ञान के प्रति प्रतियोगी का ज्ञान ही कारण होता है । अतः नियत विरोध एवं नियत पौर्वापर्य वाले सगुण एवं निर्गुण शास्त्र के विषय में अपच्छेदन्याय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । किन्तु नियत विरोध वाले इस सगुण एवं निर्गुण शास्त्र के विषय में विरोधाधिकरणन्याय ही प्रवृत्त होगा ।

विरोधाधिकरणन्याय – पूर्वमीमांसा के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में विरोधाधि- करणन्याय उपवर्णित है । इस अधिकरण का प्रधान सूत्र है - ‘विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्याद- सति हि अनुमानम् ।’ इस सूत्र में विचार किया गया है कि - ‘औदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्- गायेत् ।’ यह श्रुति कहती है कि उद्गाता, औदुम्बरी का स्पर्श करके उद्गान करे । ‘औदुम्बरी सर्वा वेष्टयितव्यो ।’ यह स्मृति कहती है कि औदुम्बरी को पूर्ण रूप से ढँक देना चाहिए । यहाँ विरोध होता है कि यदि औदुम्बरी को पूर्ण रूप से ढँक दिया जाय तो उसका स्पर्श कैसे होगा ? अतः प्रश्न होता है कि इस प्रत्यक्ष श्रुति के विरुद्ध स्मृति - वचन प्रमाण है कि नहीं ? पूर्वपक्षी स्मृतिवचन को प्रमाण मानता है । वह कहता है कि जिस प्रकार अन्य स्मृतिवचनों की प्रामाणिकता श्रुतिमूलक होने के कारण स्वीकार की जाती है, उसी प्रकार इस स्मृतिवचन को भी प्रामाणिक मानना चाहिए, क्योंकि इसके पीछे भी कोई न कोई श्रुति अवश्य होगी । इस स्मृतिवचन लिङ्ग के ही द्वारा इस स्मृति के मूलभूत श्रुति का अनुमान किया जा सकता है । इस पूर्वपक्ष का खण्डन करते हुए यह सिद्धान्त स्थिर किया जाता है कि श्रुतिवचन शीघ्र ही यथार्थज्ञान को उत्पन्न करा देता है, क्योंकि श्रुतिवचन निरपेक्ष प्रमाण है। स्मृति- वचन विलम्ब से ही यथार्थज्ञान को उत्पन्न करता है; क्योंकि वह अपने मूलभूत श्रुतिवचन के अनुमान की अपेक्षा रखता है । यहाँ पर ‘औदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्गायेत्’ इस प्रत्यक्ष वेदवाक्य से औदुम्बरी का स्पर्श विहित है। यदि सम्पूर्ण औदुम्बरशास्त्र को वस्त्र से आवेष्टित किया जाय तो स्पर्श करना असम्भव हो जायेगा । इस प्रकार सिद्ध होता है कि वेष्टन स्मृति प्रत्यक्ष श्रुति के विरुद्ध है, अतएव अप्रमाण है । प्रत्यक्ष श्रुति से विरोध न होने पर ही स्मृति से श्रुति का अनुमान हो सकता है। इस प्रकार इस अधिकरण में प्रत्यक्ष श्रुति के विरुद्ध स्मृति को अप्रामाणिक सिद्ध किया गया है। इस प्रकार [[२३५]] यहाँ पर यह अर्थ ध्यान देने योग्य है कि श्रुति पहले ही अर्थबोध करा देती है; क्योंकि वह निरपेक्ष प्रमाण है । वह अर्थ प्रमिति को उत्पन्न करने में किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखती है । जब कि स्मृति ऐसी नहीं है; वह विलम्ब से ही अर्थबोध करा सकती है, क्योंकि वह अपने मूलभूत श्रुतिवचन के अनुमान की अपेक्षा रखती है । श्रुतिवचन और स्मृतिवचन को अर्थबोध कराने में पौर्वापर्य भी रहता है । इनमें पहले श्रुतिवचन के अनुसार यथार्थज्ञान उत्पन्न होने पर उससे विरुद्ध अर्थ, जो स्मृतिवचन से बोधित होते हैं, बाधित हो जाते हैं । इससे यह फलित होता है कि शीघ्रज्ञान को उत्पन्न करने वाला प्रमाण विलम्ब से ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले प्रमाण की अपेक्षा बलवान् होता है। इस न्याय के अनुसार पहले ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली श्रुति स्मृति से बलवती होती है । ऐसी स्थिति में विरोधी परशास्त्रस्मृति का उदय अर्थात् ज्ञानोत्पादकत्व हो ही नहीं सकता है । अतएव श्रुतिविरुद्ध स्मृति अप्रमाण सिद्ध होती है ।

इस विरोधाधिकरण के अनुसार यह निश्चित होता है कि सगुणशास्त्र एवं निर्गुण- शास्त्र में विरोध नियत है तथा पौर्वापर्य भी नियत है । इनमें सगुणशास्त्र पहले बोध कराने वाला और निर्गुणशास्त्र बाद में बोध कराने वाला है, क्योंकि गुणनिषेधों के पूर्वप्रतियोगी गुणों का ज्ञान आवश्यक है । ऐसी स्थिति में प्रथम प्रवृत्त होने वाले सगुण- शास्त्र से गुणों की प्रमिति होने पर गुणों से विरोध रखनेवाले निर्गुणशास्त्र का उदय अर्थात् प्रमोत्पादकत्व नहीं हो सकता है । अतएव निर्गुणशास्त्र उसी प्रकार बाधित होंगे, जिस प्रकार श्रुति - विरुद्ध स्मृति बाधित हो जाती है ।

किन्तु उपर्युक्त न्याय का वर्णन केवल अद्वैती विद्वानों के उत्तर में करना पड़ता क्योंकि वे सगुणशास्त्र और निर्गुणशास्त्र में परस्पर विरोध मानते हैं । वास्तविकता यह है कि विशिष्टाद्वैत दर्शन में सगुणशास्त्र और निर्गुणशास्त्र में विरोध ही नहीं है । उत्सर्गापवादन्याय के अनुसार दोनों प्रकार की श्रुतियों के विषय भिन्न- भिन्न हैं । विरोध वहाँ होता है, जहां दो प्रकार के परस्पर विरोधी वस्तुओं का विषय एक हो । किन्तु यहाँ तो विरोध है ही नहीं । प्रतीयमान विरोध का उपशमन उत्सर्गापवादन्याय कर देता है ।

उत्सर्गापवादन्याय - पूर्वमीमांसा में एक वचन आया है – ‘न हिस्यात् सर्वभूतानि ।’ अर्थात् किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। एक दूसरा वाक्य कहता है कि ‘अग्निषोमीयं पशुमालभेत ।’ अर्थात् अग्निीषोमीय पशु का आलम्बन करना चाहिए । इन दोनों परस्पर विरोधी वाक्यों को देखकर उत्सर्गापवादन्याय कहता है कि ‘न हिंस्यात् सर्वभूतानि’ । इस वाक्य का तात्पर्य यज्ञीय हिंसा से व्यतिरिक्त हिंसा के निषेध में है । इस प्रकार इस न्याय के अनुसार निर्णय होता है कि निर्गुणवाक्य सगुणवाक्यों द्वारा विहित कल्याणकारी गुणों को छोड़कर ब्रह्म में हेय गुणों का निषेध करते हैं ।

किञ्च जिस प्रकार सामान्यविशेषन्याय के द्वारा ‘पशुमालभेत’ इस वाक्य के पशु-सामान्य के वाचक पशु शब्द का ‘छागस्य वपायाः’ इन मन्त्र वर्णों में वर्णित छाग [[२३६]] नामक पशुविशेष में पर्यवसान हो जाता है, उसी प्रकार निर्गुणवाक्य का भी, जोसामान्य रूप से गुणों का निषेध करते हैं ‘अपहतपाप्मा’ इत्यादि वाक् द्वारा प्रतिपादित पापादि दुर्गुणों के निषेध में पर्यवसान हो जाता है ।

तत्त्वसार नामक ग्रन्थ में कहा भी गया हैं कि, उपनिषद् इत्यादि शास्त्रों में ब्रह्म के विषय में कई वचन गुण, शरीर, विकार जन्म और कर्म इत्यादि का विधान करते हैं तथा कई वचन इनका निषेध भी करते हैं । इस प्रकार परस्पर विरोधी इन वचनों के विषय भिन्न-भिन्न हैं । ब्रह्म में गुणादि का विधान करने वाले वचन मंगलगुणादि के विधान में तात्पर्य रखते हैं तथा गुणादि के निषेधक वचन दुर्गुण इत्यादि के निषेध में तात्पर्यं रखते हैं । अतएव विषय की भिन्नता के कारण इन वचनों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है ।

भेदाभेदवादिनी श्रुतियों का तात्पर्य-निरूपण - भेदाभेद - विषयक विरोध का भी उपशम घटक-श्रुतियों द्वारा होता है। भेदश्रुतियाँ प्रकारभूत चेतनाचेतन, प्रकारी ईश्वर तथा ईश्वर के प्रकारभूत चेतनाचेतनों का परस्पर में भेद का प्रतिपादन करती हैं । अभेद-श्रुतियाँ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ इत्यादि चेतनाचेतन विशिष्ट ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करती हैं। इस अर्थ का प्रतिपादन घटक श्रुतियाँ करती हैं । घटक-श्रुतियों को ही अन्तर्यामी श्रुति भी कहा जाता है । घटक-श्रुतियाँ बतलाती है कि सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का शरीर है और परमात्मा जगत् का प्रकारी है । जगत् और परमब्रह्म में प्रकार एवं प्रकारीभाव की सिद्धि उसके शरीरात्मभाव को लेकर होती है । जिस प्रकार शरीर आत्मा का प्रकार होता है तथा आत्मा शरीर का प्रकारी होता है, उसी प्रकार ‘ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्’ अर्थात् सम्पूर्ण जगत् परमात्मा की आत्मा है तथा परमात्मा का शरीर है जगत् । ‘यस्यात्मा शरीरम्’ अर्थात् आत्मा जिस परमात्मा का शरीर है । ‘जगत् सर्वं शरीरं ते ।’ हे भगवन् ! यह सम्पूर्ण जगत् आपका शरीर है । इत्यादि श्रुतियों एवं स्मृतियों में वर्णित सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का शरीर होने के कारण उसका प्रकार है और परमात्मा जगत् की आत्मा होने के कारण प्रकारी है ।

ज्ञातृज्ञेयादिकल्पिका० इत्यादि - यतीन्द्रमतदीपिकाकार का कहना है कि ज्ञाता, ज्ञेय इत्यादि भेदों की कल्पना करने वाली अविद्या है; यह अद्वैती विद्वानों का कथन इसलिए अयुक्त है कि उस प्रकार की ब्रह्म में ज्ञातृत्वादि की कल्पना करनेवाली अविद्या की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है ।

जगत् के सत्यत्व की सिद्धि

ब्रह्मकार्यस्य सत्यत्वात्० इत्यादि - अर्थात् ‘सदेव’ श्रुति बतलाती है कि ब्रह्म जगत् का कारण है तथा जगत् ब्रह्म का कार्य है । जिस प्रकार सत्य मृत्तिका से सत्य घट ही उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सत्य ब्रह्म का कार्य जगत् भी सत्य ही है । जगत् की सत्यता की सिद्धि इसलिए भी होती है कि यह प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा भी सत्य रूप [[२३७]] से अनुभूत होता है । अतएव अद्वैती विद्वानों को अभिप्रेत जगत् के मिथ्यात्वानुमान की सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण स्वेतर समस्त प्रमाणों का उप- जीव्य है । उपजीव्य प्रमाण का उपजीवक अनुमानप्रमाण के द्वारा बाध नहीं हो सकता है। ज्वालाभेदानुमान के द्वारा जो ज्वालैक्य प्रत्यक्ष का बाध होता है, वह भी कारणदोष तथा बाधप्रतीति के कारण होता है । देखा जाता है कि भिन्न-भिन्न ज्वालाओं की सामग्री तैलवर्तिकादि भिन्न होती है, अतः उनसे उत्पन्न होने वाली ज्वाला भी भिन्न ही होगी, अतएव ज्वालैक्य प्रतीति का बाघ भी होता है । निर्दोष- प्रत्यक्ष का बाध कहीं भी अनुमान के द्वारा नहीं होता है । अतएव निर्दोषप्रत्यक्ष के विषयभूत जगत् के सत्यत्व का अपलाप नहीं किया जा सकता है । अतएव ज्ञातृज्ञेय- त्वादि विविधभेदविशिष्ट विचित्र जगत् ब्रह्म का कार्य है तथा सत्य है ।

अविद्यया संसारे० इत्यादि - किञ्च अविद्योपहित ब्रह्म का संसरण मानने पर जीव में पाये जाने वाले सभी दोषों का संक्रमण ब्रह्म में होने लग जायेगा । ऐसी स्थिति में ब्रह्म को निर्दोष एवं कल्याणगुणात्मक बतलाने वाले शास्त्रों का विरोध होगा । श्रुतियाँ ब्रह्म को स्वेतर समस्तवस्तुविलक्षण, सबों का आश्रय तथा आश्रित जीवों के पापताप का विनाशक बतलाती है । परब्रह्म ही यदि अज्ञान में फँस जाय तो फिर जीवों का रक्षक कौन होगा ?

निवर्तकानुपपत्ति-तन्निवर्तकान्तरस्य इत्यादि - अद्वैती विद्वान् मानते हैं कि तत्त्व- मस्यादि वाक्यजन्य ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति होती है, किन्तु उनका यह कथन इस- लिए अनुचित है कि उस अविद्या विनाशक ज्ञान की उत्पत्ति श्रुति से उत्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि वह ब्रह्म-व्यतिरिक्त होने के कारण मिथ्या है; अविद्या- कल्पित है; यह अद्वैती विद्वान् भी मानते हैं । अविद्या- कल्पित होने के कारण श्रुति दोषजन्य है, फलतः उससे उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी दूषित ही होगा, अतएव उसके द्वारा रा अविद्या एवं उसके कार्यभूत प्रपञ्च का बाध नहीं हो सकता है ।

जैसे परस्पर में परिचित एक इन्द्रिय दोष वाले व्यक्ति को रस्सी देखकर यदि उसमें सर्पज्ञान हो जाता है, तो उसके उस भ्रम की निवृत्ति दूसरे दोषों से दूषित चक्षुरिन्द्रिय वाले व्यक्ति के यह कहने से नहीं हो सकती है कि यह सर्प नहीं, रस्सी है । क्योंकि प्रथम मनुष्य यह जानता है कि इसकी भी चक्षुरिन्द्रिय उसी प्रकार से दोष- दूषित है, जिस प्रकार हमारी चक्षुरिन्द्रिय । अत एव वह उसकी बातों पर विश्वास ही नहीं करेगा ।

इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए कि अद्वैती साधक शास्त्र श्रवण करते समय यह जान लेता है कि ब्रह्म व्यतिरिक्त सम्पूर्ण प्रतीयमान पदार्थ अविद्या- कल्पित हैं, इनकी प्रतीति भ्रम के कारण होती है । ये सब मिथ्या हैं। ऐसी स्थिति में उस साधक में शास्त्र - प्रपञ्च बाधक ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं । अतएव आवि- द्यिक शास्त्रजन्य ज्ञान आविद्यिक प्रपख का निवर्तक नहीं हो सकता है ।

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अतो द्वैतवादस्यासम्भवात् इत्यादि – उपर्युक्त प्रतिपादन से स्पष्ट है कि अद्वैतवाद की सारी मान्यताएँ अनुपपन्न हैं । फलतः अद्वैताभिमत निर्विशेषचिन्मात्र ब्रह्म की भी सिद्धि नहीं हो सकती है । अद्वैती विद्वानों को अत्यन्त अभिप्रेत सदेव श्रुति के द्वारा भी ब्रह्म की अनेक विशेषताओं की ही सिद्धि होती है, उसको निर्विशेषता की सिद्धि उसके द्वारा नहीं होती है । जगत् और ब्रह्म में कार्यकारणभाव को सिद्ध करने के लिए प्रवृत्त इस वाक्य के ’ अग्रे’ पद से सृष्टि के पूर्व में विद्यमान प्रलयकाल रूप कालविशेष का सद्भाव सिद्ध होता है । ‘आसीत्’ पद से क्रिया-विशेष की सिद्धि होती है । ‘एक- मेव’ पद से ब्रह्म में जगदुपादानत्व की सिद्धि तथा ‘अद्वितीयम्’ पद से ब्रह्म में जगन्नि- मित्तत्व की सिद्धि होती है । इस प्रकार यह श्रुति ब्रह्म के अभिन्ननिमित्तोपादान- कारणत्व रूपी विशेषता की ही सिद्धि करती है । अतएव यह श्रुति भी सविशेष ब्रह्म को ही अपना विषय बनाती है, न कि निर्विशेष ब्रह्म को ।

अतो नारायणस्यैव० इत्यादि - अत एव सिद्ध होता है कि नारायण ही जगत् के कारण तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं । वे ही ब्रह्म हैं । ब्रह्म सविशेष ही होता है, निर्विशेष नहीं । सूक्ष्म चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्म का कारण है तथा स्थूल चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्म का कार्य है । इस प्रकार विशिष्टाद्वैतियों को अभिमत कारण से कार्य की अनन्यता सिद्ध होती है । यही विशिष्टाद्वैती वेदान्तियों का सम्प्रदाय है ।

मूलम्

१०. ननु अद्वैतश्रुत्या ब्रह्मैकमेव सत्यं निर्गुणं च । तदन्यत् ज्ञातृज्ञेया- दिकं तस्मिन्नेव परिकल्पितं सर्वम् मिथ्या । ब्रहौव अविद्यया संसरति । तत्त्वम-सीत्यभेदज्ञानं तन्निवर्तकम् । तस्मान्निर्विशेषचिन्मात्रे ब्रह्माणि वेदान्तानां तात्पर्यमिति मतान्तरस्थैः प्रतिपादनात्, कथं नारायणे तात्पर्यं तस्य समस्त- कल्याणगुणाकरत्वादिकथनं च? इति चेत्, उच्यते । कारणत्वप्रतिपादकश्रुतिभि-र्नारायणस्य कारणत्वे सिद्धे, भेदाभेदश्रुत्योर्घटकश्रुत्या विषयभेदेन विरोधे परिहृते, निर्गुणप्रतिपादकश्रुतीनां हेयगुणनिषेध-कत्वात्, ज्ञातृज्ञेयादिकल्पकाविद्याया एवाप्रामाणिकत्वाद् ब्रह्मकार्यस्य सत्यत्वात्, अविद्यया संसारे जीवगतदोषाणाम् ब्रह्म-ण्यपि सम्भवात्, तन्निवर्तकान्तरस्य वक्तुमशक्यत्वात् । अतोऽद्वैतवादस्या-सम्भवात् न निर्विशेषचिन्मात्रब्रह्मसिद्धिः । अतो नारायणस्यैव जगत्कारणत्व-मोक्षप्रदत्वादिगुणयोगः सम्भबतीति सम्भवतीति ब्रह्म।

वासुदेवः

नन्व् अद्वैत-श्रुत्येति । मायावादिनां मतम् एतत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

११. सूक्ष्म–चिद्–अ-चिद्–विशिष्टम् ब्रह्म कारणम्,
स्थूल–चिद्–अ-चिद्-विशिष्टम् ब्रह्म कार्यम्
इति कारणाद् अनन्यत् कार्यम्
इति विशिष्टाद्वैत-वेदान्तिनां सम्प्रदायः ।

शिवप्रसादः (हिं)

सूक्ष्म चेतनाचेतन विशिष्ट ब्रह्म कारण हैं तथा स्थूल चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्म कार्य हैं, इस प्रकार कारण से कार्य के अभेद की सिद्धि होती है, यह विशिष्टाद्वैतियों का सम्प्रदाय है ।

मूलम्

११. सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्टम् ब्रह्म कारणम्, स्थूलचिदचिद्विशिष्टम् ब्रह्म कार्यमिति कारणादनन्यत् कार्यमिति विशिष्टाद्वैतवेदान्तिनां सम्प्रदायः ।