०३ नारायणे पर्यवसानम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

५. ननु कथं नारायणे कारणत्व-पर्यवसानम् ?

इति चेद्, उच्यते ।
न्याय-सहित-वेदान्त-वाक्य-विचारेण एवम् पर्यवस्यति।
तद् यथा –
आदौ तावत् प्रकृतेर् जगत्-कारणत्वं नोपपद्यते -
ईक्षितृत्वाद्य्-अ-भावात्।

छान्दोग्ये तावत्
सद्-आकाश-प्राण–शब्द-वाच्यानां जगत्-कारणत्वम् प्रतीयते ।

वाजसनेयके ब्रह्म-शब्द-वाच्यस्य कारणत्वम् प्रतीयते ।

सर्व-शाखा-प्रत्यय-न्यायेन
कारण-वाक्यानाम् एक-विषयत्वे प्रतिपादयितव्ये
छाग-पशु-न्यायेन सामान्य-वाचकानां सद्-आदि-शब्दानां
विशेषे ब्रह्मणि पर्यवसानं वक्तव्यम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

एवं पर्यवस्यति - नारायण एव जगत्कारणमिति पर्यवस्यति । **‘न्यायसहकृते’**ति । सर्वशाखाप्रत्ययसामान्यविशेषन्यायसहकृतेन वेदान्तवाक्यपरामर्शेन ब्रह्ममीमांसात्मकेनेत्यर्थः ।
**‘सर्वशाखे’**ति । सर्वशाखागतकारणवाक्यानामेकार्थविषयकत्वं सर्वशाखाप्रत्ययन्यायेन लभ्यते । सामान्यविशेषन्यायेन च सदादिशब्दानां ब्रह्मणि, ब्रह्मशब्दस्य चात्मनि चेतने, आत्मशब्दस्य च शिवे, शिवशब्दस्य च सामान्यशब्दत्वाद्धिरण्यगर्भे पर्यवसानं भवति । हिरण्यगर्भशब्दस्य च नानार्थस्य महोपनिषदादिप्रतिपाद्ये नारायण एव पर्यवसानं फलति । इति पिण्डितार्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद – प्रश्न उठता है कि नारायण में ही जगत्कारणत्व का पर्यवसान कैसे होता है ? तो इसका उत्तर है कि न्यायसहकृत वेदान्त-वाक्यों का विचार करने से ही नारायण में जगत्कारणत्व का पर्यवसान होता है । तथाहि - सर्वप्रथम प्रकृति जगत् का कारण नहीं हो सकती है, क्योंकि जड़ प्रकृति में ईक्षण करना रूप क्रिया असंभव है । छान्दोग्योपनिषद् में सत्, आकाश तथा प्राण की जगत्कारणता प्रतीत होती है । वाजसनेयक - संहिता में आदि शब्दों के वाच्यार्थ ब्रह्म शब्द के वाच्यार्थ सिद्ध होता है कि सभी की जगत्कारणता प्रतीत होती है । सर्वशाखाप्रत्यय न्याय से कारण-वाक्यों के द्वारा एक ही जगत् के कारण को बतलाया गया है । अतएव छाग़- पशुन्याय से सामान्य अर्थ के वाचक सद् आदि शब्दों का विशेष अर्थ ब्रह्म में पर्यवसान होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

नारायण में ही जगत्कारणत्व का पर्यवसान

भा० प्र० – पहले के अनुच्छेद का उपसंहार करते हुए कहा गया है कि भगवान् श्रीमन्नारायण ही सम्पूर्ण जगत् के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण हैं । इस पर पूर्व - पक्षी का कहना है कि विभिन्न दार्शनिक विभिन्न तत्त्वों को जगत् का कारण बतलाते हैं । सांख्य प्रकृति को जगत् का कारण बतलाते हुए कहते हैं कि ‘सदेव’ श्रुति सत् शब्द से प्रकृति को ही जगत् का कारण बतलाती है । इसीलिए मृत्पिण्ड, लौहपिण्ड आदि प्राकृतिक पदार्थों का दृष्टान्त भी दिया गया है । इसी प्रकार वेदान्तों के अनेक वाक्य आकाश, प्राण आदि को तथा अनेक वाक्य शिव, ब्रह्मा, रुद्र, वरुण, कुबेर, नारायण आदि को जगत् का कारण बतलाते हैं । इन सबों की प्रतीति होते रहने पर भी केवल नारायण को जगत् का कारण बतलाना कहाँ तक उचित है ?

तो इस शङ्का के समाधान का उत्तर है कि भगवान् नारायण को जगत् का कारण न्यायसहकृत वेदान्त-वाक्यों के विचार के आधार पर माना जाता है । सम्पूर्ण मीमांसा न्यायात्मिका है । पूर्वमीमांसा को न्यायसाहस्री शब्द से अभिहित किया जाता है । पूर्वमीमांसा में वर्णित न्यायों के सहारे वेदान्तवाक्यों का जब विचार किया जाता है तो निश्चित होता है कि भगवान् श्रीमन्नारायण ही जगत् के कारण हैं । तथाहि-

प्रकृति के जगत्कारणत्व का खण्डन — सांख्यों द्वारा निर्दिष्ट प्रकृति को कारण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि प्रकृति जड़ है और सत्शब्दवाच्य को जगत् का [[२२५]] कारण बतलाकर छान्दोग्य श्रुति कहती है कि सच्छन्दवाच्य ने नामरूपविभागानर्ह एकत्वावस्था का त्याग कर नामरूपविभागार्ह अनेकत्वावस्था में आने का सत्यसंकल्प किया । ‘तदैक्षत, एकोऽहं बहु स्याम’ ( छा० उ० ६ ५1१ ) यह सत्य संकल्प रूप गुण जड़ प्रकृति का नहीं हो सकता है, ईक्षण तो कोई चेतन ही कर सकता है । जो ईक्षण कर सकने में समर्थ होगा, वही जगत् का कारण हो सकता है । अतएव ‘सदेव सोम्ये- दमग्रासीत्’ श्रुति सत् शब्द के द्वारा जड़ प्रकृति का अभिधान नहीं करता है । इसी बात को बतलाते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं - ‘ईक्षतेन शब्दम् ’ ( शा० मी० 91914 ) । अर्थात् अशब्द अर्थात् शब्दप्रमाण रहित आनुमानिक प्रधान ( प्रकृति ) जगत् का कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि ‘सदेव’ श्रुति सत्शब्दवाच्य में ईक्षण क्रिया बतलाती है ।

सर्वशाखा प्रत्ययन्याय - छान्दोग्योपनिषद् में सत् शब्द, आकाश शब्द तथा प्राण शब्द के वाच्यार्थ को तथा वाजसनेयियों के श्वेताश्वतरोपनिषद् में ब्रह्मशब्दवाच्य को जगत् का कारण बतलाया गया है । अब प्रश्न उठता है कि किसको जगत् का कारण माना जाय ? इस शंका के समाधानार्थ यहाँ पर सर्वशाखाप्रत्ययन्याय की प्रवृत्ति होती है । ‘एकं वा संयोग-रूप-चोदना-आख्याविशेषात्’ इस पूर्वमीमांसा के सूत्र से सर्व- शाखाप्रत्ययन्याय की सिद्धि होती है । इस सूत्र का अर्थ है कि यदि विभिन्न शाखाओं में वर्णित याग आदि कर्मों के संयोग, रूप, चोदना तथा आख्या ये चार चीजें एक हों तो विभिन्न शाखाओं में वर्णित उस कर्म को एक ही मानना चाहिए । शाखाभेद के अनुसार उस कर्म को भिन्न-भिन्न नहीं मानना चाहिए । यहाँ पर ‘संयोग’ शब्द से फलसंबन्ध विवक्षित है । रूप शब्द से द्रव्य एवं देवता विवक्षित हैं, क्योंकि द्रव्य एवं देवता ही याग के रूप माने जाते हैं । चोदना शब्द से ‘जुहुयात्’ ‘यजेत’ इत्यादि विधायक शब्द विवक्षित हैं । आख्या शब्द से ‘अग्निहोत्र’ ‘अग्निष्टोम’ इत्यादि नाम विवक्षित हैं । यदि विभिन्न शाखाओं में वर्णित किसी कर्म के विषय में ये चारों एक समान रूप से वर्णित हों तो विभिन्न शाखाओं में वर्णित उस कर्म को एक ही मानना चाहिए । एक मानने का फल यह है कि एक शाखा में जो उस कर्म के अंग कहे गये हैं, दूसरी शाखा में उन अंगों का यदि वर्णन न हो तो उस शाखा के अनुष्ठान- कर्ताओं को चाहिए कि उन कर्मों को करने में उन अंगों को भी अपनाएँ ।

इस सर्वशाखाप्रत्ययन्याय के अनुसार स्पष्ट है कि ये सभी कारण वाक्य किसी एक ही व्यक्ति को जगत् का कारण तत् तत् नामों से बतलाते हैं । जिस व्यक्ति को वे बतलाते हैं, वही व्यक्ति जगत् का कारण है ।

अब प्रश्न उठता है कि ये सभी कारण वाक्य किस तत्त्व को जगत् का कारण बतलाते हैं ? इस बात का निश्चय कैसे हो ? तो उस कारण तत्त्व को निश्चित करने के लिए छागपशुन्याय की प्रवृत्ति होती हैं ।

छागपशुन्याय - पूर्वमीमांसा में ‘छागो वा मन्त्रवर्णात्’ सूत्र आया है । इस सूत्र से सामान्य विशेषन्याय सिद्ध होता है । इस सूत्र के अधिकरण में कहा गया है कि [[२२६]] ‘पशुना यजेत’ इस वाक्य से कहा गया है कि पशु से याग करना चाहिए । चतुष्पाद प्राणी को पशु कहा जाता है । उस पशु से याग करना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि क्या सभी पशुओं से याग करना चाहिये अथवा किसी विशेष पशु से याग करना चाहिए ? यदि पशु शब्द को पशु-सामान्य का वाचक मानें तो फिर सभी श्वा-शूक- रादि पशुओं से भी याग- सम्पादन का प्रसंग होगा ? किन्तु श्वा शूकरादि को अमेध्य माना जाता है । अतएव सभी पशुओं को यज्ञीय नहीं माना जा सकता है, फलतः पशु- विशेष को ही यज्ञीय मानना होगा । वह यज्ञीय पशु कौन है ? इसी शंका का समाधान होता है - ‘छागो वा मन्त्रवर्णात्’ इस पूर्वमीमांसा के सूत्र से । अर्थात् ‘छागस्य वपायाः’ इस मन्त्र में पशु- विशेष छाग अर्थात् अज का उल्लेख है । पशु शब्द सामान्य का वाचक है, छाग शब्द विशेष का वाचक है । सामान्य शब्द का विशेष में पर्यवसान न्याय प्राप्त है, अतः छाग नामक पशु से ही याग करना चाहिए; दूसरे पशुओं से नहीं ।

इस सामान्यविशेष न्याय रूप छागपशुन्याय के द्वारा सत्, आकाश, प्राण इत्यादि सामान्यवाचक शब्दों का विशेष शब्द ब्रह्म में पर्यवसान होता है । अर्थात् सत् आदि शब्दों से ब्रह्म का ही अभिधान होता है ।

मूलम्

५. ननु कथं नारायणे कारणत्वपर्यवसानम् ? इति चेत्, उच्यते । न्यायसहित-वेदान्तवाक्यविचारेण एवम् पर्यवस्यति। तद्यथा – आदौ तावत् प्रकृतेः जगत्कारणत्वं नोपपद्यते । ईक्षितृत्वाद्यभावात् /ईक्षत्याद्यभावात्। छान्दोग्ये तावत्सदाकाशप्राणशब्दवाच्यानां जगत्कारणत्वम्प्रतीयते । वाजसनेयके ब्रह्मशब्दवाच्यस्य कारणत्वम् प्रतीयते । सर्वशाखाप्रत्ययन्यायेन कारणवाक्यानाम् एकविषयत्वे प्रतिपादयितव्ये छागपशुन्यायेन सामान्यवाचकानां सदादिशब्दानां विशेषे ब्रह्मणि पर्यवसानं वक्तव्यम् ।

वासुदेवः

सर्व-शाखेति । सर्व-शाखासु प्रत्ययो ज्ञानम् एक-रूपम् इति न्याय-शरीरम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. एवम् उक्तन्यायेन
ब्रह्म-शब्द-वाच्यस्य तैत्तिरीयोक्त+आत्म-शब्द-वाच्ये पर्यवसानम्

“आत्म-शब्द-वाच्यः क” इत्य् आङ्काक्षायां

श्रुति-प्रसिद्ध इन्द्रो वा,
तथा प्रसिद्धो ऽग्निर् वा,
उपास्यत्वेन प्रसिद्धः सूर्यो वा,
कारणत्वेन उक्तः सोमो वा,
अभीष्ट-फल-प्रदत्वेन उक्तः कुबेरो वा,
यमो वा,
वरुणो वा

इति विषये,

एतेषां कर्म-वश्यत्व-परिच्छिन्नैश्वर्यवत्त्व-संहार्यत्व-श्रवणात्
नैते जगत्-कारण-भूताः

शिवप्रसादः (हिं)

छागपशुन्याय से ही ब्रह्म शब्द का तैत्तिरीयोपनिषद् में उक्त आत्मा शब्द के वाच्य अर्थ में पर्यवसान होता है । अब प्रश्न उठता है कि आत्मा शब्द से श्रुतियों में प्रसिद्ध इन्द्र को कहा गया है ? या अग्नि को कहा गया है ? या उपास्य रूप से प्रसिद्ध सूर्य को कहा गया है ? या कारण रूप से कहे गये सोम को कहा गया है। अथवा अभीष्ट अर्थ के प्रदाता कुबेर को कहा गया है ? - या यम को कहा गया गया है ? या वरुण को कहा गया है ? इस प्रकार की शङ्का होने पर निश्चय होता है कि ये सभी जगत् के कारण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि ये कर्मों के परतन्त्र, सीमित ऐश्वर्य - वाले तथा संहार्य हैं, यह श्रुतियाँ बतलाती हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अब प्रश्न उठता है कि ब्रह्मशब्द अनेकार्थक है । ब्रह्मशब्द के प्रवृत्तिनिमित्त का निर्देश करते हुए महर्षियों ने कहा है कि —- बृहत्वाद् बृंहणत्वाच्च तद्ब्रह्मेत्यभिधीयते ।’ अर्थात् ब्रह्म को ब्रह्म इसलिए कहा जाता है कि वह स्वरूपतः एवं गुणतः बृहत् है तथा स्वेतर समस्त वस्तुओं को बढाता है । इसलिए कहीं पर ब्रह्मशब्द से प्रकृति, कहीं पर जीव तथा कहीं पर परमात्मा को ब्रह्म शब्द का वाच्य कहा गया है । प्रकृत में ब्रह्मशब्दवाच्य कौन है ? इस अर्थ का निर्णय करने के लिए भी छागपशुन्याय प्रवृत्ति होती है और निश्चित होता है कि यहाँ पर ब्रह्म शब्द से कोई चेतन ही कहा की गया है । वही आत्मा है । उसी का वर्णन कारण रूप से तैत्तिरीयोपनिषद् में किया गया है ।

इन्द्रादि के जगत् कारणत्व का प्रत्याख्यान - अब प्रश्न उठता है कि वह आत्मा, जो जगत् का कारण है, कौन है ? वेदों में सर्वाधिक प्रसिद्ध इन्द्र अथवा इन्द्र के ही समान प्रसिद्ध अग्नि ? क्योकि संहिता - भाग में सर्वाधिक सूक्त इन्द्र-विषयक पाए जाते हैं तथा इन्द्र से कुछ कम अग्नि-विषयक सूक्त पाए जाते हैं । अथवा उपास्य रूप से प्रसिद्ध सूर्य आत्मा शब्द से कहे गये हैं ? अथवा कारण रूप से वेदों में प्रख्यात सोम ( चन्द्रमा ) कहे गये हैं ? अथवा अभीष्ट वर प्रदान करने वाले कुबेर आत्मा शब्द वाच्य हैं ? या यम या वरुण आत्मा शब्द के वाच्यार्थ हैं ?

इस प्रकार की शंका होने पर निर्णय होता है कि ये कोई भी जगत् के कारण नहीं हो सकते हैं,
क्योंकि इनके जगत्कारणत्व के बाधक तीन हेतु हैं -

१. ये सभी कर्मपरतन्त्र हैं, २. इन सबों का ऐश्वर्य सीमित हैं और ३. इन सबों का प्रलय-काल [[२२७]] में संहार होता है, यह श्रुतियाँ बतलाती हैं । इन तीन दोषों से सबों के ग्रस्त होने के कारण उपर्युक्तों में से कोई भी जगत् का कारण नहीं हो सकता है । उपर्युक्त तीनों दोष ऐसे हैं, जो उन्हें जीव सामान्य की कोटि में लाकर बैठा देते हैं । सभी संसारी जीव कर्मपरतन्त्र, सीमित ऐश्वर्य वाले तथा प्रलयकाल में संहार्य हैं । उन्हीं जीवों के समान ये भी जीव हैं । गीता में भगवान् ने इसीलिए कहा है - ’ आब्रह्मभुव- नाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन !’ अर्थात हे अर्जुन ! ब्रह्मा से लेकर उनके नीचे के सभी कीट-पतंग तक इस संसार में आवर्तित होते रहते हैं और इन सभी देवताओं के संसा- रान्तर्गत होने के कारण ये कार्य-कोटि में आते है, ये कारण- कैसे हो सकते हैं ? किञ्च जीवों के जगद्व्यापारयुक्तत्व का निषेध महर्षि बादरायण ने ‘जगद्व्यापारवजं प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च ।’ ( शा० मी सू० ४।४।१७ ) सूत्र में किया है । किञ्च जगत् के कारण तत्त्व को श्रुति ‘अपहतपाप्मा’ शब्द से कर्मपारतन्त्र्य रहित, ‘अनन्तम्’ शब्द से त्रिविध परिच्छेद रहित तथा नित्य बतलाती है । ‘न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते’ श्रुति उसके अपरिच्छिन्न ऐश्वर्य को बतलाती है । अतएव इन्द्रादि देवता जगत्-कारणत्व से अभिमत ‘आत्म’ शब्दवाच्य नहीं है ।

मूलम्

६. एवम् उक्तन्यायेन ब्रह्मशब्दवाच्यस्य तैत्तिरीयोक्तात्मशब्दवाच्ये पर्यवसानम्। आत्मशब्दवाच्यः क इत्याङ्काक्षायां श्रुतिप्रसिद्ध इन्द्रो वा, तथा प्रसिद्धोऽग्निर्वा, उपास्यत्वेन प्रसिद्धः सूर्यो वा, कारणत्वेन उक्तः सोमो वा, अभीष्टफलप्रदत्वेन उक्तः कुबेरो वा, यमो वा, वरुणो वेति विषये, एतेषां कर्मवश्यत्वपरिच्छिन्नैश्वर्यवत्त्वसंहार्यत्वश्रवणात् नैते जगत्कारणभूताः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्तु श्वेताश्वतरे शिवस्य कारणत्वम् भासत
इति भाति ।
एवम् अथर्वण-शाखायां
शम्भु-शब्द-वाच्यस्य ध्येयत्वं कारणत्वम् भासते ।
तथैव अथर्व-शिरसि रुद्र-शब्द-वाच्यस्य सर्वात्मकतोच्यते ।
तैत्तिरीये हिरण्यगर्भस्य जगत्-कारणत्वम् प्रतीयते ।

अत्रापि सामान्य-विशेष-न्यायात्
शिव-शम्भु-रुद्रादि-शब्दानां हिरण्य-गर्भ-शब्द-वाच्य-विशेषे पर्यवसानं युज्यते ।

शिव-शब्दस्य
“शिवम् अस्तु सर्व-जगताम्”, “शिवं कर्मास्तु”, “पन्थानः सन्तु ते शिवाः” इत्य्-आदिभिर् मङ्गल-वाचकत्वम् ।
रुद्र-शब्दस्य अग्नि-वाचकत्वम् ।
एवम् महेश्वर-शम्भ्व्-आदि-सामान्य-शब्दा अपि
अवयव-शक्त्या चतुर्-मुखे पर्यवस्यन्ति

शिवप्रसादः (हिं)

किञ्च श्वेताश्वतरोपनिषद् में शिव को जगत् का कारण बतलाया गया है । इसी प्रकार अथर्वशिखोपनिषत् में शम्भु शब्द के वाच्य ं का ध्येयत्व तथा कारणत्व प्रतीत होता है । इसी प्रकार अथर्वशिरः रुद्रशब्द के वाच्य को सर्वात्मा बतलाया गया है । तैत्तिरीयोपनिषद् में हिरण्यगर्भ की जगत् की कारणता प्रतीत होती है । यहाँ भी सामान्यविशेषन्याय से शिव, शम्भु [[२२४]] एवं रुद्र शब्द के वाच्यों का हिरण्यगर्भ के वाच्यभूत विशेष अर्थ में पर्यवसान उचित सिद्ध होता है। क्योंकि – ‘शिवमस्तु सर्वजगताम् ’ सभी प्राणियों का मङ्गल हो, ‘शिवं कर्मास्तु’ कर्म मङ्गलकारी हो, ‘शिवास्ते सन्तु पन्थानः ’ तुम्हारे मार्ग मङ्गलमय हो, इत्यादि वाक्यों के देखने से शिव शब्द मङ्गल का वाचक तथा रुद्र शब्द अग्नि का वाचक सिद्ध होता है । इसी प्रकार महेश्वर तथा शम्भु आदि शब्द का उसकी अवयव- शक्ति से चतुर्मुख में पर्यवसान होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

यहाँ पर पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि - ‘घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः । ’ ( खे० उ० ४। १६ ) श्रुति में शिव को ही सर्वोत्तम तत्त्व बतलाकर उनकी ही सर्वत्र व्यापकता तथा ज्ञेयता बतलायी गयी है, अतः इस श्रुति के अनुसार शिव ही जगत् के कारण प्रतीत होते हैं । अथर्वशिखोपनिषद् की — ‘कारणं तु ध्येयः सर्वैश्वर्यसम्पन्नः सर्वेश्वरः शम्भु- राकाशमध्ये’ ( अथर्वशिखोपनिषत् २।१७ ) इस श्रुति में शम्भु को ही सम्पूर्ण जगत् का कारण तथा ध्येय बतलाया गया है । इसी प्रकार अथर्वशिर्ष में रुद्र कहते हैं - ’ अह- मेकः प्रथममासं वतीमि च भविष्याभि च । नान्यकश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति ।’ अर्थात् सृष्टि से पूर्व मैं अकेला था, वर्तमान में भी हूँ, आगे भी रहूँगा । मुझ से भिन्न कुछ नहीं है । सम्पूर्ण जगत् रुद्रात्मक है । ’ तैत्तिरीयनारायण की - हिरण्यगर्भः सम- वर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । सदाधार पृथिवीं द्यामुते माम् ।’ ( अर्थात् सृष्टि से पूर्व हिरण्यगर्भ ही अकेले थे, वे ही सम्पूर्ण भूतों में व्यापक रहने के कारण उनके नियन्ता भी थे । उन्होंने ही इस पृथिवी तथा द्युलोक को धारण किया । ) इस श्रुति में हिरण्यगर्भ जगत् के कारण रूप से प्रतीत होते हैं । यहाँ पर भी शंका होती है कि इन सबों में कौन-सा कारण है ? शिव अथवा शम्भु, या रुद्र ? इस शंका का भी समाधान सामान्यविशेषन्याय से ही होता है ।

शिव शब्द भी सामान्यार्थक है । शिव शब्द मङ्गल का वाचक है । ‘शिवं कर्मास्तु’ ‘शिवास्ते सन्तु पन्थानः’ इत्यादि वाक्यों में शिव शब्द मङ्गल के अर्थ में आया है । इस प्रकार रुद्र शब्द भयंकर तथा अग्नि का भी वाचक है । इसी प्रकार शम्भु शब्द भी ‘शं भवत्यस्मात् अथवा शं भावयति’ अर्थात् जिससे कल्याण हो अथवा जो कल्याण करे, [[२२८]] उसे शम्भु कहते हैं।’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार शम्भु शब्द कल्याणप्रदाता को कहते हैं । हिरण्यगर्भ शब्द का भी अर्थ है कि ‘हिरण्यस्य — हिरण्यमयस्य, परमव्योम्नो गर्भ- भूतः तत्र स्थितः ।’ अर्थात् जो स्वर्ण के समान चमकने वाले परमपद में विद्यमान रहते हैं, उन्हें हिरण्यगर्भ कहते हैं । इस प्रकार महेश्वर, शिव, रुद्र, हिरण्यगर्भ आदि सामान्य शब्दों का अवयव-शक्ति के द्वारा सभी जीवों के कल्याणकारी चतुर्मुख ब्रह्मा में पर्यवसान होता है । ब्रह्मा ही शिवादि की सृष्टि करके उनको नामादि प्रदान करते हैं; यह पुराणादि में स्पष्ट है ।

मूलम्

किन्तु श्वेताश्वतरे शिवस्य कारणत्वम् भासत इति भाति । एवमथर्वणशाखायां शम्भुशब्दवाच्यस्य ध्येयत्वं कारणत्वम् भासते । तथैव अथर्वशिरसि रुद्रशब्दवाच्यस्य सर्वात्मकतोच्यते । तैत्तिरीये हिरण्यगर्भस्य जगत्कारणत्वम् प्रतीयते । अत्रापि सामान्यविशेषन्यायात् शिवशम्भुरुद्रादिशब्दानां हिरण्यगर्भशब्दवाच्यविशेषे पर्यवसानं युज्यते । शिव-शब्दस्य “शिवमस्तु सर्वजगताम्”, “शिवं कर्मास्तु”, “पन्थानः सन्तु ते शिवाः” इत्यादिभिर्मङ्गलवाचकत्वम् । रुद्रशब्दस्य अग्निवाचकत्वम् । एवम् महेश्वर-शम्भ्वादिसामान्यशब्दा अपि अवयवशक्त्या चतुर्मुखे पर्यवस्यन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

७. कारण-वाचि-शिवादि-शब्दानाम्
मुख्य-वृत्त्या रुद्र-परत्वं किन् न स्यात्

इति न शङ्कनीयम् -
रुद्रस्य चतुर्-मुखाद् उत्पत्ति-श्रवणात्,
अनपहत-पाप्मत्व-श्रवणाच् च न रुद्रस्य कारणत्वम्

अतो हिरण्य-गर्भ–प्रजा-पति–स्वयम्-भ्व्–आदि-शब्द-वाच्य–चतुर्मुखे
शिवादि-शब्दाः पर्यवस्यन्ति ।

शिवप्रसादः (हिं)

यहाँ पर यह शङ्का नहीं की जा सकती है कि कारणवाची शिव आदि शब्दों का उनकी मुख्यावृत्ति से रुद्र आदि में पर्यवसान क्यों नहीं होता है ? क्योंकि रुद्र की चतुर्मुख से उत्पत्ति सुनी जाती है तथा रुद्र का कर्म - परतन्त्र सुना जाता है, अतएव रुद्र जगत् के कारण नहीं हो सकते हैं । अतएव हिरण्यगर्भ, प्रजापति तथा स्वयम्भू आदि के वाच्यभूत चतुर्मुख ( ब्रह्मा ) में शिव आदि शब्दों का पर्यवसान होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

यहाँ पर यह शङ्का नहीं की जा सकती है कि कारणवाची शिव आदि शम्भु, हिरण्यगर्भ, महेश्वर, रुद्र ) शब्दों का रुद्र में पर्यवसान क्यों नहीं माना जाता है ? क्योंकि श्रुतियाँ रुद्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से बतलाती हैं तथा उत्पन्न रुद्र ने कहा – ‘अन- पहतपाप्माहमस्मि, नामानि मे देहि ।’ अर्थात् मैं कर्मपरतन्त्र हूँ, आप मेरा नामकरण करें । अतएव रुद्र जगत् के कारण नहीं हो सकते हैं । इसीलिए हिरण्यगर्भ, प्रजापति तथा स्वयम्भु आदि शब्दों के वाच्यभूत हिरण्यगर्भ में शिव आदि शब्दों का पर्यवसान होता है ।

हिरण्यगर्भ नानार्थक हैं । स्वर्ण के सदृश चमकने वाले परमपद वैकुण्ठ में रहने के कारण श्रीभगवान् नारायण ही हिरण्यगर्भ शब्द से ‘हिरण्यगर्भः’ इत्यादि तैत्तिरीय मन्त्रों में कहे गये हैं । फलतः सभी कारणवाची शब्दों के द्वारा भगवान् नारायण ही कहे जाते हैं ।

मूलम्

७. कारणवाचिशिवादिशब्दानाम् मुख्यवृत्त्या रुद्रपरत्वं किन्न स्यात् इति न शङ्कनीयम्। रुद्रस्य चतुर्मुखादुत्पत्तिश्रवणात् अनपहतपाप्मत्वश्रवणाच्च न रुद्रस्य कारणत्वम् । अतो हिरण्यगर्भप्रजापतिस्वयम्भ्वादिशब्दवाच्य चतुर्मुखे शिवादिशब्दाः पर्यवस्यन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् अपि
महोपनिषन्-नारायणोपनिषत्-सुबालोपनिषन्-मैत्रायणीय–पुरुष-सूक्त–नारायणानुवाकान्तर्यामि-ब्राह्मणादिषु
नारायणस्यैव परम-कारणत्व–सर्व-शब्द-वाच्यत्व–मोक्ष-प्रदत्व–जगच्-छरीरित्वादेः प्रतिपादनात्
स्वयम्-भू–हिरण्य-गर्भ-प्रजापति-शब्दानां नारायणे पर्यवसानं युक्तम्,
इति नारायण एवाखिल-जगत्-कारणं सर्व-विद्या-वेद्यश् च ।

शिवप्रसादः (हिं)

इस प्रकार महोपनिषत्, नारायणोपनिषत्, सुबालोपनिषत्, मैत्रायणीयोपनिषत्, पुरुषसूक्त, नारायणानुवाक् तथा अन्तर्यामीब्राह्मण आदि में नारायण का ही परमकारणत्व, सर्वशब्दवाच्यत्व, मोक्षप्रदत्व तथा जगत्- शरीरकत्व आदि का प्रतिपादन किये जाने के कारण उचित है कि स्वयम्भू, हिरण्य- गर्भ, प्रजापति आदि शब्दों का नारायण में पर्यवसान माना जाय । इस प्रकार सिद्ध होता है कि नारायण ही सम्पूर्ण जगत् के कारण तथा सभी विद्याओं के प्रतिपाद्य हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

किञ्च महोपनिषत्, नारायणोपनिषत्, सुबालोपनिषत्, मैत्रायणीयोपनिषत्, पुरुषसूक्त, नारायणानुवाक् तथा अन्तर्यामिब्राह्मण आदि में भगवान् नारायण को ही परमकारण बतलाया गया है । उन्हें ही सर्वशब्दवाच्य बतलाया गया है । श्रीभगवान् सभी जीवों को मोक्ष प्रदान करते हैं तथा सम्पूर्ण जगत् उनका शरीर है । इस प्रकार स्वयम्भु, हिरण्यगर्भ तथा प्रजापति शब्द का नारायण में ही पर्यवसान मानना उचित है । ‘स्वयं स्वेच्छया लोककल्याणकामनया भवति रामकृष्णादिरूपेणावतरति ।’ इस विग्रह के अनुसार संसारी जीवों का कल्याण करने के लिए श्रीभगवान् वैकुण्ठलोक को त्याग कर श्रीराम कृष्णादि के रूप में इस भूलोक में अवतीर्ण हो जाते हैं, अतएव वे स्वयम्भु कहे जाते हैं । ‘प्रजाः पाति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार संसार की सारी प्रजाओं का साक्षात् अथवा सद्वारक पालन करने के कारण श्रीभगवान् प्रजापति कहे जाते हैं, अतः ‘स्वयम्भु, शभुः, हिरण्यगर्भः, प्रजापतिः’ इत्यादि नामों से पुरोवादिनी ( कारण तत्त्व का प्रतिपादन करनेवाली) श्रुतियाँ श्रीभगवान् का ही अभिधान करती हैं । अत एव भगवान् नारायण ही सम्पूर्ण जगत् के कारण तथा सर्वविद्यावेद्य हैं । अर्थात् औप- निषद् सभी ब्रह्मविद्याएँ भगवान् नारायण का ही प्रतिपादन करती हैं ।

मूलम्

एवमपि महोपनिषन्नारायणोपनिषत्सुबालोपनिषन्मैत्रायणीयपुरुष-सूक्तनारायणानुवाकान्तर्यामिब्राह्मणादिषु नारायणस्यैव परमकारणत्वसर्वशब्द-वाच्यत्वमोक्षप्रदत्वजगच्छरीरित्वादेः, प्रतिपादनात् स्वयम्भूहिरण्यगर्भप्रजापति-शब्दानां नारायणे पर्यवसानं युक्तम्, इति नारायण एवाखिलजगत्कारणं सर्वविद्यावेद्यश्च ।