विश्वास-प्रस्तुतिः
२ अयम् ईश्वरः
सूक्ष्म–चिद्–अ-चिद्–विशिष्ट-वेषेण
जगद्-उपादान-कारणम् भवति;
सङ्कल्प-विशिष्ट-वेषेण निमित्त-कारणम् भवति;
कालाद्य्-अन्तर्यामि-वेषेण सहकारि-कारणं च ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - यह ईश्वर सूक्ष्मचिदचिद्वस्तु विशिष्ट रूप से जगत् का उपादानकारण होता है । वह संकल्पविशिष्ट रूप से जगत् का निमित्तकारण होता है । ईश्वर काल आदि के अन्तर्यामी रूप से जगत् का सहकारीकारण होता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
ईश्वर जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण है
मा० प्र० – इस अनुच्छेद में ब्रह्म के जगत्- जन्मादिकारणत्व का प्रतिपादन किया जा रहा है । विशिष्टाद्वैत दर्शन में माना जाता है कि ब्रह्म ही जगत् का उपादान- कारण, निमित्तकारण और सहकारीकारण, इन तीनों प्रकार का कारण है । प्रश्न उठता है कि संसार में कोई भी ऐसा कार्य नहीं देखा जाता है, जिसका उपादान, सहकारी और निमित्त, इन तीनों प्रकार का कारण एक ही पदार्थ हो । ऐसी स्थिति जगत् रूपी कार्य का तीनों प्रकार का कारण एक ही ब्रह्म कैसे हो सकता है ? तो इसका उत्तर है कि संसार के किसी भी कारण में तीनों प्रकार का कारण बनने का सामर्थ्य नहीं है । किन्तु ब्रह्म तो ऐसा पदार्थ है, जिसमें तीनों प्रकार का कारण बनने का सामर्थ्य है । ‘सदेव सोम्येदमग्रासीदेकमेवाद्वितीयम्’ यह कारणवादिनी श्रुति बतलाती है कि - हे सोमरसपानार्ह सच्छिष्य श्वेतकेतो ! यह विभक्त नाम-रूप में [[२२०]] वाला बहुत्वावस्थावस्थित जगत् सृष्टि से पूर्व अविभक्त नाम-रूप वाला होने के कारण एकत्वावस्थापन्न ही था । वह अधिष्ठानान्तरशून्य सद्रूप ही था । इस श्रुति का शब्द नामसंबन्धयोग्यत्व रूप सत्त्व को प्रवृत्तिनिमित्त बनाकर परमात्मा रूप अर्थ को बतलाता है । यह सत् शब्द यद्यपि विशेष्यभूत परमात्मा का वाचक है, फिर भी कारणविषयत्व के सामर्थ्य से कारण बनने के योग्य गुणविशिष्ट प्रकृति-पुरुष एवं कालशरीरक परमात्मा को ही बतलाता है ।
नैयायिक विद्वान् असत्कार्यवादी हैं । वे कहते हैं कि उत्पत्ति से पूर्व कार्य असत् रहता है । कारण-कलाप के द्वारा नवीन नवीन कार्य उत्पन्न होते हैं । विशिष्टाद्वैती सत्कार्यवादी हैं । वे मानते हैं कि उत्पत्ति से पूर्व भी कार्य कारण में विद्यमान रहता है । किन्तु उस समय उसका नाम एवं रूप विभक्त नहीं रहता है । कारण-कलाप के द्वारा उस कार्य का नामरूप विभक्त हो जाता है । अतएव ‘उत्पत्तेः प्राक् अविभक्त- नामरूपं कार्यं कारणकलापेन द्वारा विभक्तनामरूपतया उत्पद्यते ।’ यह विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की मान्यता है । ‘सदेव’ श्रुति का एवकार नैयायिकाभिमत असत्कार्यवाद का निवर्तक है । वह कहता है कि सृष्टि से पूर्व भी कार्य था ही । ‘एकमेव ’ श्रुति एवकार के द्वारा ‘बहु स्याम’ इस वक्ष्यमाण श्रुति के द्वारा प्रतिपादित स्रक्ष्यमाण जगत् रूपी कार्य की बहुत्वावस्था का व्यावर्तन करता है । ‘एकम् ’ पद के द्वारा ब्रह्म की जगत् के प्रति उपादानकारणता का प्रतिपादन करता है । ‘अद्वितीयम्’ पद बतलाता है कि ब्रह्म व्यतिरिक्त जगत् का कोई दूसरा निमित्तकारण भी नहीं है । ‘तदैक्षत ’ ‘तत्तेजोऽसृजत’ इत्यादि श्रुतियों के तत् शब्द का परामर्श करके उस सत् शब्दवाच्य परमब्रह्म को ही जगत् का निमित्तकारण बतलाया गया है । इस प्रकार श्रुति के ‘एकम्’ तथा ‘अद्वितीयम्’ इन दो पदों के द्वारा ब्रह्म को जगत् का अभिन्ननिमित्तो- पादानकारण बतलाया गया है ।
इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि सूक्ष्म चिद्-अचिद्वस्तुशरीरक रूप से ब्रह्म जगत् का उपादानकारण होता है । ब्रह्म की सूक्ष्मचिद- चिद्वस्तुशरीरकता ही ब्रह्म की अविभक्त नामरूपत्वावस्था है । वह सूक्ष्मचिदचिद्- वस्तुशरीरक ब्रह्म संकल्पविशिष्ट रूप से जगत् का निमित्तकारण होता है । अर्थात् वही ब्रह्म ‘एकोऽहं बहु स्याम’ अर्थात् मैं इस अपने अविभक्त नामरूपत्वावस्था को __छोड़कर बहुत्वावस्था को प्राप्त करूँ, इस प्रकार से जब ब्रह्म सत्यसंकल्प करता है तो वह जगत् का निमित्तकारण बनता है । किञ्च वह ब्रह्म काल आदि का अन्तर्यामी, बनकर जगत् रूपी कार्य के प्रति सहकारीकारण होता है ।
मूलम्
२ अयमीश्वरः सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्टवेषेण जगदुपादानकारणम् भवति; सङ्कल्प-विशिष्टवेषेण निमित्तकारणम् भवति; कालाद्यन्तर्यामिवेषेण सहकारिकारणं च ।
वासुदेवः
अयम् इति । अयम् एवेत्य् अर्थः । ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत्’ (छां० ६.२.१) ‘ब्रह्म वा इदम् एकम् एवाग्र आसीत्’ (बृ० १.४.१०) ‘आत्मा वा इदम् एक एवाग्र आसीत्’ (ऐ० १.१) इत्यादि श्रुतिषु तथैवाभिधानात् । विशिष्ट-वेषेण । विशिष्ट-स्वरूपेण । ननु बौद्धा आर्हताश् च परमाणूनाम् एव जगत्-कारणत्वं वदन्ति । वैशेषिकाश् च परमाणूनाम् उपादान-कारणत्वम् ईश्वरस्य निमित्त-कारणत्वं वदन्ति । तत्र बौद्धा वैशेषिकाश् च पार्थिवाप्य-तैजस-वायवीयांश् चतुर्विधाम् परमाणुन् अभ्युपगच्छन्ति, आर्हताः पुनर् एक-रूपान् एवेत्य् अन्यत् । तत् कथम् अत्रेश्वरस्यैव कारणत्वम् उच्यत इति चेन् न । परमाणौ प्रमाणाभावात् । तथा हि — न तावत् प्रत्यक्षम् । महत्त्वाभावात् । नाप्य् अनुमानम् । सदेवेत्य् आद्य् उक्त-श्रुति-विरोधात् । न चा ऽऽगमः । अनुपलम्भात् । प्रत्युता ऽगमाद् ईश्वरस्यैव जगत्-कारणत्वं सिध्यति । अन्येषां च प्रमाणानां त्रिष्व् एवान्तर्भावः । यत् तु ‘सांख्याः प्रधानम् एव जगत्-कारणम् । यथा मेघ-विमुक्तस्यैक-रसस्य जलस्य नारिकेल-ताल-चूत-कपित्थादि-विचित्र-रस-रूपेण परिणाम-प्रवृत्तिर् दृश्यते तथा परिणाम-स्वभावस्य प्रधानस्यानन्याधिष्ठितस्यैव गुण-वैषम्य-निमित्तो विचित्र-परिणामः संभवति’ इत्य् आहुः । तन् न । प्रधानस्याचेतनत्वात् । चेतनम् एव हि ‘एवं विचित्र-जगद्-आकारेण परिणामः’ इति सङ्कल्प-हेतुः । यदि स्वभावत एव प्रवृत्तिस् तर्हि प्रलयानुपपत्तिः । जीव-विशेषो ऽपि न कारणम् । तस्य कर्म-परतन्त्रत्वात् । ब्रह्म-रुद्रादयो ऽपि सृज्यत्व-संहार्यत्व-रूप-कर्म-वश्यत्व-श्रवणाज् जीव-विशेषा एव । उपादान-कारणम् इति । कारणं त्रिविधम् — उपादानं निमित्तं सहकारि च । तत्र कार्य-रूपेण परिणाम-योग्यं वस्तूपादान-कारणम् । यथा घटं प्रति मृत्तिका । उपादान-वस्तुनः कार्य-रूपेण परिणामं यः करोति स कर्तैव निमित्त-कारणम् उच्यते । यथा कुलालः । कार्योत्पत्त्य्-उपकरणं वस्तु सहकारि-कारणम् । यथा दण्ड-चक्रादयः । जगतस् तु त्रिविधम् अपि कारणम् ईश्वर एव । सूक्ष्म-चिद्-अचिद्-विशिष्ट उपादानम् । बहु स्याम् इति सङ्कल्प-विशिष्टो निमित्तम् । ज्ञान-शक्त्यादि-विशिष्टः सहकारीत्य् आशयः । नन्व् ईश्वरस्यैवोपादानत्वे तस्य सविकारत्वात् ‘अविकाराय शुद्धाय’ (वि० पु० १.२.१) इत्य् उक्तं निर्विकारत्वं विरुध्यत इति चेन् न । चिद्-अचिद्-रूप-विशेषण-विशिष्टस्येश्वरस्य जगद्-रूपेण परिणामे ऽपि विशेष्यस्य स्वरूपस्य विकाराभावात् । परिणामस् तु विशेषण-द्वारैव । यथोर्णनाभिः स्वरूप-विकाराभावे ऽपि स्व-शरीर-भूत-विशेषण-द्वारा तन्तु-जाल-रूपकार्थं प्रत्य् उपादानं तद्वत् । विशिष्ट-स्वरूपेण विकाराश्रयत्वम् ईश्वरस्येष्टम् एव । मनुष्यादि-शरीराविशिष्टे स्वरूपतो निर्विकारे पुंसि बाल्य-युवत्व-स्थविरत्व-स्थूलत्वादिवत् । निमित्त-कारणम् इति । एकस्यैवोपादानत्वं निमित्तत्वं च न विरोधावहम् । यथैक एव जीवात्मा तैस् तैर् उपायैः स्व-सुखादीन् उत्पादयति स्वयम् एव च तेषां समवायि-कारणं भवति तद्वत् । कालादीति । तद् उक्तं तत्त्व-त्रय-भाष्ये — '
सृष्टौ प्रसक्तायां चतुर्दश भुवन-स्रष्टुः समष्टि-पुरुषस्य ब्रह्मणः, तेन सृष्टानां नित्य-सृष्टि-कर्तॄणां चतुर्दश भुवन-स्रष्टुः दशानां प्रजापतीनां सृष्ट्य्-अपेक्षितस्य कालस्य परस्परम् उत्पादकानां सर्व-जन्तूनां च तत्तत्-प्रवृत्तयः सर्वाः स्वस्मिन् यथा पर्यवस्यन्ति तथा ऽन्तरात्मा सन् प्रवृत्ति-हेतु-रजो-गुण-विशिष्टः सन् सृजति ।
इति ।
[[२१९]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
३. कार्यरूपेण विकार-योग्यं वस्तु उपादान-कारणम् ।
कार्यतया परिणामयितृ निमित्त-कारणम् ।
कार्योत्पत्त्य्-उपकरणं वस्तु सहकारि ।
यद्वा -
उत्तरोत्तरावस्था-विशिष्ट–स्व-रूपापेक्षया
तद्-अनुगुण-नियत-पूर्वभाव्य्-अवस्था-विशिष्टम् उपादानम् -
यथा घटत्वावस्था-विशिष्ट-मृद्-द्रव्यापेक्षया
पिण्डत्वावस्था-विशिष्टं तद् एव द्रव्यम् ।
परिणामौन्मुख्यातिरेकेनाकारेण +अपेक्षितं कारणं निमित्तम् ।
अस्मिन् पक्षे सहकारि-कारणस्य निमित्ते ऽन्तर्भावः ।
अण्णङ्गराचार्यः
कार्यरूपेण परिणममानं कारणं वस्तूपादानमित्युक्तौ ब्रह्मणोऽपि जगदुपादानतयाऽभिमतस्य विकारित्वं प्रसज्येतेति अन्यथोपादानत्वं निर्वक्ति **‘यद्वे’**ति । उत्तरावस्थावतस्तदव्यवहिततदनुगुणं पूर्वावस्थं तदेव द्रव्यमुपादानम् इत्यर्थः । अवस्थाविशिष्टावस्थावत्त्वमुपादानत्वम् ।
वैशिष्ट्यं च स्वाव्यवहितपूर्वत्वस्वसामानाधिकरण्यो भयसम्बन्धेन । आगन्तुकापृथक्सिद्धधर्मोऽवस्था । भगवतश्च स्थूलचिदचिन्नियन्तृत्वविशिष्टस्य कार्यावस्थावतः सूक्ष्मचिदचिन्नियन्तृत्वविशिष्टत्वरूपपूर्वावस्थायोगादुपादानत्वंं सम्भवत्येव स्वरूपपरिणामाभावेऽपीति भावः । कारणलक्षणलक्षितत्वात् — उपादानादिकारणलक्षणयुक्तत्वात् । जगत्कारणत्वं जगदेककारणत्वम् । नारायणस्यैवेत्येवकारेण तदन्यस्य निखिलजगत्कारणत्वं व्यवच्छिद्यते ब्रह्मरुद्रादेस्तत्सृज्य[[??]]कोटिघटितस्य । ‘यतोवे’त्यादिवाक्योक्तेन जगत्कारणत्वेन लक्षणेन लक्षितं परब्रह्मत्वम् ‘एकोह वै नारायण आसीन्नब्रह्मा नेशानः’ (महो०) इति वाक्यप्रतिपन्नस्य नारायणस्यैवेति च विवक्षितमत्र ।
शिवप्रसादः (हिं)
कार्य का उपादान- कारण वह वस्तु होती है, जिस वस्तु में कार्य रूप में परिणत होने की योग्यता होती है । जो उपादानकारण को कार्य रूप में परिणत करता है, वह कार्य का निमित्तकारण होता है । जो वस्तु कार्य की उत्पत्ति की सामग्री होती है, वह उस कार्य का सहकारी- कारण कहलाती है । अथवा उस द्रव्य को उपादानकारण कहते हैं, जो द्रव्य उत्तरोत्तर अवस्था विशिष्ट स्वरूप के लिए अपेक्षित उसके अनुकूल नियतपूर्वभावी अवस्था से विशिष्ट होता है । जैसे उत्तरभावी घटत्वावस्था विशिष्ट मृद्रव्य के लिए अपेक्षित उसके अनुकूल नियतपूर्वभावी अवस्था पिण्डत्वावस्था से विशिष्ट मृद्रव्य उपादान- कारण है । निमित्तकारण उसे कहते हैं, जो कारण परिणामोन्मुख्य से भिन्न आकार से अपेक्षित होता है । इस पक्ष में सहकारीकारण का निमित्तकारण में ही अन्तर्भाव हो जाता है ।
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उपादानकारण का लक्षण - कार्यरूप से परिणत होने के योग्य जो वस्तु होती है, वही उपादानकारण कहलाती है । किन्तु इस लक्षण को स्वीकार करने में भी दोष है कि ब्रह्म को ही जगत् का उपादानकारण माना जाता है, अतएव उसको भी विकारी द्रव्य मानना होगा । अतएव उपादानकारण का दूसरा लक्षण ग्रन्थकार [[२२१]] यदवा० इत्यादि वाक्य से कहते हैं - अर्थात् वही द्रव्य उपादानकारण होता है, जो अपनी उत्तरावस्था से अव्यवहित तथा उस कार्य के अनुकूल अवस्था से युक्त द्रव्य होता है । जैसे घट का उपादानकारण मृद्रव्य है । वह पिण्डत्वावस्थावस्थित रूप से घट का इसलिए उपादानकारण होता है कि उसकी पिण्डत्वावस्था उत्तरभाविनी घटत्वा- वस्था के अव्यवहित पूर्वावस्था है तथा घटत्वावस्था के अनुकूल अवस्था है । क्योंकि बिना पिण्डत्वावस्था में आए मृद्रव्य घटत्वावस्था में आ ही नहीं सकता है । ऐसे ही विभक्तनामरूपार्ह रूप कार्यत्वावस्था के अव्यवहितपूर्व तथा अनुकूल जो ब्रह्म की अवि- भक्त नामरूपत्वावस्था है, इस अवस्था से विशिष्ट द्रव्य ब्रह्म ही जगत् का उपादान- कारण है । इस प्रकार अवस्थाविशिष्ट अवस्थावत्व ही उपादान का लक्षण है । यह वैशिष्ट्य स्वाव्यहितपूर्वत्व तथा स्वसामानाधिकरण्य रूप उभय सम्बन्ध से है । आग- न्तुक तथा अपृथसिद्ध धर्म को अवस्था कहते हैं । इस प्रकार स्थूलचिदचिद्विशिष्ट कार्यावस्थावस्थित श्रीभगवान् में सूक्ष्मचिदचिद् नियन्तृत्वविशिष्टत्व रूप पूर्वावस्था का योग होने से स्वरूपतः परिणाम न होने पर भी उनका जगत् के प्रति उपादान- कारणत्व सिद्ध होता है ।
निमित्तकारण का लक्षण - बतलाते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा है कि उपादान को कार्य रूप से परिणत करनेवाला ही कार्य का निमित्तकारण होता है । जैसे संकल्पविशिष्ट सूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरक ब्रह्म ही जगत् रूपी परिणाम का कर्ता है । अतएव वह जगत् का निमित्तकारण है । प्रकारान्तर से निमित्तकारण को परिभाषित करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं- ‘परिणामौन्मुख्यातिरिक्ताका रेणापेक्षितं निमितकारणम्’ अर्थात् परिणत होने के लिए उन्मुख जो कारण है, उससे भिन्नाकार से जो कार्य की उत्पत्ति के लिए अपेक्षित कारण होता है, उसे निमित्तकारण कहते हैं। जैसे घट रूपी कार्य के रूप में परिणत होने के लिए उन्मुख जो पिण्डत्वावस्था- विशिष्ट मृत्तिका द्रव्य है, उससे भिन्न आकारवाला तथा कार्य की उत्पत्ति के लिए अपेक्षित कारण कुम्भकार, चक्र, चीवर आदि है, क्योंकि इनके बिना पिण्डत्वावस्था - विशिष्ट मृद्रव्य घट रूप में परिणत हो ही नहीं सकता है, अतएव ये सभी घट के निमित्तकारण हैं । इस निमित्तकारण के अनुसार निमित्तकारण में ही सहकारीकारण भी है । अतएव इस लक्षण को मानने वाले कार्य के प्रति कारणद्वयवादी हैं । प्रकृत में कार्य रूपी जगत् के रूप में परिणत होने के लिए उन्मुख सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म रूप उपादानकारण से भिन्न आकार वाले तथा जगत् की उत्पत्ति के लिए कारण रूप से अपेक्षित कारण — संकल्पविशिष्ट ब्रह्म तथा कालाद्य- अन्तर्यामी ब्रह्म है, अतएव दोनों रूप से ब्रह्म जगत् के निमित्तकारण हैं । इसीलिए विशि ष्टाद्वैतदर्शन में कहा जाता है कि ब्रह्म जगत् के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण हैं । इस उक्ति के पीछे कार्य के प्रति कारणद्वयवाद की मान्यता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है ।
[[२२२]]
सहकारीकारण का लक्षण - करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि- ‘कार्योत्पत्त्युपकरणं वस्तु सहकारी’ अर्थात् कार्य की उत्पत्ति की जो उपादान एवं निमित्त से भिन्न सामग्री होती है, उसे सहकारीकारण कहते हैं । जैसे घट रूपी कार्य की उत्पत्ति के लिए, उसके उपादानकारण तथा निमित्तकारण से भिन्न जो सामग्री चक्र, चीवर, काल, देश आदि हैं, वे सभी घट के प्रति सहकारीकारण हैं । इसी प्रकार जगत् रूपी कार्य के प्रति उसके उपादान एवं निमित्तकारण से भिन्न जो कालादि के अन्तर्यामीत्वविशिष्ट ब्रह्म आदि उपकरण हैं, वे ही जगत् के सहकारी- कारण हैं ।
मूलम्
३. कार्यरूपेण विकारयोग्यं वस्तु उपादानकारणम् । कार्यतया परिणामयितृ निमित्तकारणम् । कार्योत्पत्त्युपकरणं वस्तु सहकारि । यद्वा उत्तरोत्तरावस्था-विशिष्टस्वरूपापेक्षया तदनुगुणनियतपूर्वभाव्यवस्थाविशिष्टम् उपादानम् । यथा घटत्वावस्थाविशिष्टमृद्द्रव्यापेक्षया पिण्डत्वावस्थाविशिष्टं तदेव द्रव्यम् ।
परिणामौन्मुख्यातिरिक्ताकारेणापेक्षितं कारणं निमित्तम् । अस्मिन् पक्षे सहकारिकारणस्य निमित्ते अन्तर्भावः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४. एवं त्रिविध-कारण-पक्षे
कारण-द्वय-पक्षे च
कारण-लक्षण-लक्षितत्वाद्
अखिल-जगत्-कारणत्वं
भगवतो नारायणस्यैव सम्भवति ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार तीन प्रकार के कारण मानने वालों के पक्ष में अथवा दो प्रकार के कारण मानने वालों के पक्ष में कारण के लक्षण से युक्त होने के कारण सम्पूर्ण जगत् के कारण नारायण ही सिद्ध होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
एवं त्रिविधकारणपक्षे० इत्यादि - इस प्रकार कारण के प्रति तीन प्रकार का कारण माना जाय अथवा दो प्रकार का कारण स्वीकार किया जाय, दोनों ही पक्षों में जगत् के प्रति एकमात्र कारण भगवान् नारायण ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि जगत् रूपी कार्य के लिए अपेक्षित उनमें सभी प्रकार के उपादानादि कारणों के लक्षण मिलते हैं। श्रुति भी कहती है ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व, तद्ब्रह्म ।’ अर्थात् जिससे ये सभी भूत उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न हुए भूत जीवित रहते हैं, जिसमें प्रलयकाल में सभी भूत लीन हो जाते हैं तथा अन्त में जिससे मोक्ष को प्राप्त करते हैं, वही ब्रह्म है, उसे ही जानो । यहाँ पर जगत्-कारण रूप से कथित ब्रह्म नारायण ही हैं । महोपनिषद् की श्रुति भी कहती है- ‘एको ह वै नारायण आसीत्, न ब्रह्मा नेशानः ।’ अर्थात् सृष्टि से पूर्व एकमात्र नारायण ही थे न तो ब्रह्मा थे और न तो ईशान ( रुद्र ) ही ।
मूलम्
४. एवं त्रिविधकारणपक्षे कारणद्वयपक्षे च कारणलक्षणलक्षितत्वादखिलजगत्कारणत्वं भगवतो नारायणस्यैव सम्भवति ।