०१ स्व-रूपम्

वासुदेवः

अथ नवमो ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१. अथेश्वरो निरूप्यते ।
सर्वेश्वरत्वं सर्व-शेषित्वं
सर्व-कर्माराध्यत्वं सर्व-फल-प्रदत्वं
सर्वाधारत्वं सर्व-कार्योत्पादकत्वं
सर्व-शब्द-वाच्यत्वं, स्व-स्व-ज्ञानेतर-समस्त-द्रव्य-शरीरत्वम् इत्य्-आदीनीश्वर-लक्षणानि ।

अण्णरङ्गाचार्यः

॥ अथ नवमावतारव्याख्या ॥

**‘सर्वेश्वरत्व’**मित्यादि । सर्वेश्वरत्वादिकं प्रत्येकमीश्वरलक्षणं भवति । ‘प्रशासितारं सर्वेषाम्’ (मनु) इति सर्वनियन्तृत्वलक्षणं सर्वेश्वरत्वं, ‘पतिर्विश्वस्य’ (तै० ना) इति सर्वशेषित्वम्, ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च’ (गीता) इति सर्वकर्मसमाराध्यत्वसर्वकर्मफलप्रदत्वे, ‘मत्स्थानि सर्वभूतानि’ (गीता) इति सर्वाधारत्वम्’ ‘द्यावाभूमी जनयन् देव एकः’ (तै० उ०) इति सर्वकार्योत्पादकत्वं, च प्रतिपादितम् । उक्तार्थेषु प्रमाणवचनानि बहूनि सन्ति ।
**‘इत्यादीनी’**ति । आदिपदेन सर्वान्तरात्मत्वं सर्वशब्दवाच्यत्वं निरूपाधिकविपश्चित्त्वादीनि ग्राह्याणि । लघुलक्षणं चेश्वरस्य विभुचेतनत्वम् । जीवात्मनामणुत्वात् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - जीवों का निरूपण करने के पश्चात् अब ईश्वर का निरूपण किया जा रहा है । सबों का नियामक होना, सबों का शेषी होना, सभी कर्मों द्वारा समाराध्य होना, सभी कर्मों का फल प्रदान करने वाला होना, सबों का आधार होना, सभी कार्यों का कर्ता होना, सभी शब्दों का वाच्य होना, अपने ज्ञान को छोड़कर सर्वद्रव्य- शरीरक होना इत्यादि ईश्वर के लक्षण हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० – आठवें अवतार में जीव के स्वरूपादि का विस्तृत विचार किया जा चुका है । इस नवें परिच्छेद में ईश्वर के स्वरूपादि का निरूपण किया जा रहा है । सर्वप्रथम ईश्वर के लक्षण पर विचार किया जा रहा है । लक्षण भी दो प्रकार के होते हैं- स्वरूपलक्षण और तटस्थलक्षण । स्वरूपलक्षण वह होता है, जिसका संबन्ध लक्ष्य के स्वरूप से होता है । तटस्थलक्षण वह होता है, जिसका संबन्ध लक्ष्य के स्वरूप से न होकर तटस्थ से होता है । सर्वप्रथम ईश्वर के स्वरूपलक्षण का निरूपण किया जाता है ।

(१) सर्वेश्वरत्व - इन लक्षणों में सर्वप्रथम लक्षण है सर्वेश्वरत्व । अर्थात् ईश्वर सबों का नियामक है । ‘ईश ऐश्वर्ये’ धातु से वरट् प्रत्यय करके ईश्वर शब्द सिद्ध होता है तथा ‘अशु व्याप्तौ’ धातु से वरट् प्रत्यय तथा चकारात् ईत्व करके ईश्वर शब्द सिद्ध होता है । इस प्रकार सर्वेश्वर शब्द का अर्थ होता है - जो सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो, उसको सर्वेश्वर कहते हैं । ‘ईशा वास्यमिदं सर्वम्’ श्रुति भी बतलाती है कि यह सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का व्याप्य है और परमात्मा जगत् में व्यापक है । ईश्वर शब्द का दूसरा अर्थ है - सम्पूर्ण जगत् जिसका ऐश्वर्य हो, उसे सर्वेश्वर कहते हैं । ‘विष्णोरेता विभूतयः’ यह विष्णुपुराण का वाक्य बतलाता है कि सम्पूर्ण जगत् भगवान् की विभूति अर्थात् ऐश्वर्य है ।

( २ ) सर्वशेषित्व - ईश्वर का दूसरा लक्षण बतलाया गया है । अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थ जिसका शेष हो, उसे सर्वशेषी कहेंगे । ‘यथेष्टविनियोगार्हत्वं शेषत्वम्’ अर्थात् स्वामी जिस प्रकार से विनियोग करना चाहे, यानी अपने उपयोग में लाना चाहे, उस तरह से विनियुक्त हो जाने की योग्यता जिसमें हो, उसे शेष कहते हैं । श्रीभगवान् सम्पूर्ण जगत् से लीलारस तथा भोगरस प्राप्त करते हैं, अतएव भगवान् जगत् के शेषी हैं । [[२१८]]

( ३ ) सर्वकर्मसमाराध्यत्व - ईश्वर का तीसरा लक्षण बतलाया गया है। जितने भी तत् तत् देवता आदि की आराधना के लिए कर्म किये जाते हैं, उन सभी कर्मों से तत्-तत् देव- शरीरक श्रीभगवान् की ही आराधना होती है, क्योंकि सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का शरीर है। ‘जगत् सर्व शरीरं ते’ यह श्रीरामायण की सूक्ति जगत् को परमात्मा का शरीर बतलाती है । जिस प्रकार शरीर की पूजा के द्वारा शरीरधारी आत्मा की समाराधना होती है, उसी प्रकार परमात्मा के शरीरभूत तत्- तत् देवताओं की पूजा से उन सबों की आत्माभूत परमात्मा की ही समर्चा हो जाती है । अतएव परमात्मा सर्वकर्मसमाराध्य सिद्ध होते हैं । पूजा से श्रीभगवान् की फल भी श्रीभगवान् ही सर्वकर्मफलप्रद हैं ।

( ४ ) सर्वकर्मफलप्रदत्व - चूंकि सभी देवताओं की ही आराधना सम्पन्न होती है, अतएव उन सभी कर्मों का तत् तत् देवताओं के माध्यम से प्रदान करते हैं । अतएव वे

( ५ ) सर्वाधारत्व - श्रीभगवान् सम्पूर्ण जगत् के आधार हैं और जगत् श्रीभगवान् का आधेय है ।

( ६ ) सर्वकार्योत्पादकत्वम् - जितने भी कार्य हैं, उन सबों के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उत्पन्न करने वाले श्रीभगवान् ही है । ब्रह्मा पर्यन्त श्रीभगवान् की अद्वारक सृष्टि होती है । ब्रह्मा के पश्चात् सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि सद्वारक सृष्टि है ।

( ७ ) स्वज्ञानस्वेतरसमस्तद्रव्यशरीरकत्व — ईश्वर का अन्तिम लक्षण बतलाया गया है । जो अपने धर्मभूत ज्ञान तथा अपने स्वरूप को छोड़कर इतर सम्पूर्ण द्रव्य रूपी शरीरों में आत्मा रूप से विराजने वाला हो, उसे ईश्वर कहते हैं; यह उक्त लक्षण का अर्थ है । इस लक्षण में अपने धर्मभूत ज्ञान तथा अपने स्वरूप को छोड़ने की जो बात कही गयी है, उसका अभिप्राय यह है कि, यद्यपि ईश्वर समस्त द्रव्यों को शरीर बनाकर उनकी आत्मा रूप से उनके भीतर विद्यमान है, तथापि उन द्रव्यों के अन्तर्गत ईश्वर के धर्मभूत ज्ञान तथा अपना स्वरूप नहीं आते हैं, क्योंकि ईश्वर के स्वरूप का ईश्वर आत्मा नहीं हो सकता है । क्योंकि आत्मा और शरीर में भेद होना चाहिए, किन्तु आत्मा और स्वरूप एक ही पदार्थ हैं । ईश्वर अपने धर्मभूत ज्ञान की भी आत्मा नहीं हो सकता है । चेतन अपने धर्मभूत ज्ञान के द्वारा जिस पर अधिष्ठित होता है, वह उसका शरीर होता है । ईश्वर अपने धर्मभूत ज्ञान के द्वारा अपने धर्मभूत ज्ञान को अधिष्ठित नहीं करता है, अतएव धर्मभूत ज्ञान उसका शरीर नहीं हो सकता है । क्योंकि ईश्वर के दो धर्मभूत ज्ञान नहीं है।
यदि दो धर्मभूत ज्ञान होते तभी वह उसको अधिष्ठित करता;
इसी अनुपपत्ति को दृष्टिपथ में रखकर कहते हैं-
स्वधर्मभूत-ज्ञानस्वेतर० इत्यादि ।

मूलम्

१. अथेश्वरो निरूप्यते ।
सर्वेश्वरत्वं सर्वशेषित्वं सर्वकर्माराध्यत्वं सर्वफलप्रदत्वं सर्वाधारत्वं सर्वकार्योत्पादकत्वं सर्वशब्दवाच्यत्वं स्वस्वज्ञानेतरसमस्तद्रव्यशरीरत्वमित्यादीनि ईश्वरलक्षणानि ।

वासुदेवः

स्वज्ञानेति । स्वज्ञानात् स्वस्माच् चेतरद् यत् समस्तं द्रव्यं तच्-शरीरकत्वम् इत्य् अर्थः । ज्ञानस्य द्रव्यत्वे ऽपि शरीरत्वाभावात् स्वज्ञानपदम् उपात्तम् । अत एवेश्वर-तज्-ज्ञान-व्यतीरिक्तं द्रव्यं शरीरम् इति शरीरलक्षणम् उक्तं न्यायसिद्धाञ्जने । इत्यादीनीति । आदिपदेन व्यापकत्वे सति चेतनत्वं सत्य-सङ्कल्पत्वं च ग्राह्यम् ।