विश्वास-प्रस्तुतिः
२३. मुक्तो नाम
उपाय-परिग्रहणानन्तरं
नित्य-नैमित्तिक-भगवद्-आज्ञा-कैङ्कर्य-रूपाणि स्वयम्-प्रयोजनतया कुर्वन्,
भगवद्-भागवतापराधांश् च वर्जयन्,
देहावसान-काले सुकृत-दुष्कृते मित्रामित्रयोर् निक्षिपन्,
“वाङ् मनासि” इत्य्-आदि-प्रकारेण हार्दे परमात्मनि विश्रम्य
मुक्ति-द्वार-भूत-सुषुम्नाख्य-नाड्याम् प्रविश्य
ब्रह्मरन्ध्रान् निष्क्रम्य
हार्देन साकं सूर्य-किरण-द्वारा अग्नि-लोकं गत्वा
दिन–पूर्व-पक्षोत्तरायण-संवत्सराभिमानि-देवताभिर् वायुना च पथि सत्कृतः,
सूर्य-मण्डलम् भित्वा
नभो-रन्ध्र-द्वारा सूर्य-लोकं गत्वा
अनन्तरं चन्द्र-विद्युद्-वरुणेन्द्र-प्रजापतिभिर् मार्ग-दर्शिभिः आतिवाहिक-गणैः सोपचारैः सह
तत्-तल्-लोकान् अतीत्य
प्रकृति-वैकुण्ठ-सीम-परिच्छेदिकां विरजां तीर्त्वा
सूक्ष्मशरीरं विहाय
अ-मानव-कर-स्पर्शात् अ-प्राकृत-दिव्य-विग्रह-युक्तः,
चतुर्-भुजो ब्रह्मालङ्कारेणालङ्कृतः,
इन्द्र-प्रजापति-सञ्ज्ञक-नगर-द्वार-पालकाभ्यनुज्ञया श्री-वैकुण्ठाख्यं दिव्य-नगरम् प्रविश्य
गरुडानन्त-युक्त-पताकालङ्कृत-दीर्घ-प्राकार-सहित-गोपुरम् अतीत्य
ऐरम्मदाख्यामृत-सरः सोम-सवनाख्याश्वत्थं च दृष्ट्वा
“शतम् मालाहस्ता” इत्य्-उक्त-पञ्च-शत-दिव्याप्सरो-गणैर् उपचरितः,
ब्रह्म-गन्धादिभिर् अलङ्कृतः,
तत्र-स्थानन्त-गरुड-विष्वक्सेनादीन् प्रणम्य
तैर् बहु-मतः,
महा-मणि-मण्डपम् आसाद्य
पर्यङ्क-सामीपे स्वाचार्यान् प्रणम्य
पर्यङ्क-समीपं गत्वा
तत्र धर्मादि-पीठोपरि कमले ऽनन्ते
विमलादिभिश् चामरहस्ताभिः सेव्यमानं
श्री-भू-नीला-समेतं शङ्ख-चक्रादि-दिव्यायुधोपेतं
जाज्वल्यमान-किरीट–मकर-कुण्डल-ग्रैवेय-हार-केयूर-कटक–
श्री-वत्स–कौस्तुभ-मुक्ता-दामोदर-बन्धन–
पीताम्बर-काञ्ची-गुण–नूपुराद्य्-
अपरिमित-दिव्य-भूषण-भूषितम्
अपरिमितोदार-कल्याण-गुण-सागरम् भगवन्तं दृष्ट्वा
तत्-पादारविन्द-युगले शिरसा प्रणम्य
पादेन पर्यङ्कम् आरुष्य तेन स्वाङ्के स्थापितः,
“कोऽसि” इति पृष्टः,
“ब्रह्म-प्रकारोऽस्मि” इत्य्-उक्त्वा
तेन कटाक्षितः,
तद्-अनुभव-जनित-हर्ष-प्रकर्षात् सर्व-देश–सर्व-काल–सर्वावस्थोचित–सर्व-विध-कैङ्कर्य-रतिः,
आविर्भूत-गुणाष्टकः,
उत्तरावधि-रहित-ब्रह्मानुभववान्।
अण्णङ्गराचार्यः
‘आविर्भूतगुणाष्टक’ इति । अनादेः कालात् कर्मकृतप्रकृतिसम्बन्धतस्तिरोभूतं प्रजापतिवाक्योदितमपहतपाप्मत्वविजरत्वविमृत्युत्वविशोकत्वविजिघत्सत्वापिपासत्वं सत्यकामत्वं सत्यसङ्कल्पत्वलक्षणं गुणाष्टकं जीवात्मनो नैजं रूपमुपासनादिप्रसन्नभगवत्सङ्कल्पेनाविर्भवति आत्यन्तिकं बन्धनिवृत्तिलक्षणेमोक्षे । तथा च श्रूयते
एष सम्प्रमादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरूपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते
(छान्दो) इति । ब्रह्ममीमांसाचतुर्थाध्यायचतुर्थपादे च मुक्तभोगादिर्निरूपितः ।
**‘उत्तरावधिरहिते’**ति । विनाशरहितेत्यर्थः । ब्रह्मानुभवेऽस्यान्वयः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - मुक्त जीव वे हैं, जो प्रपत्ति नामक उपाय के स्वीकार करने के पश्चात् नित्य नैमित्तिक कर्मों को भगवान् की आज्ञा एवं अनुज्ञा का कैंकर्य रूप कर्मों का स्वयं प्रयोजन रूप से अनुष्ठान करते हुए तथा भगवदापचार, भागवतापचार का परित्याग करते हुए, देहपात के समय में अपने पाप एवं पुण्यों को क्रमशः शत्रुओं तथा मित्रों को प्रदान कर देते हैं । ’ वाणी में मन का लय होता है’ इत्यादि श्रौतवाक्यानुसार हृदयस्थ परमात्मा में लीन होकर मुक्ति के द्वारभूत सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश करके, उसके द्वारा ब्रह्मरंध्र से निकलकर जीव हृदयस्थ परमात्मा के साथ सूर्यकिरणों के द्वारा अग्निलोक में जाता है । मार्ग में दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण तथा संवत्सर आदि के अभिमानी देवताओं तथा वायु के द्वारा समादृत होता हुआ वह सूर्य मण्डल का भेदन करके रथचक्ररन्ध्र के द्वारा सूर्यलोक में जाने के पश्चात् मार्ग का प्रदर्शन करने वाले चन्द्रमा, विद्युत्, वरुण, इन्द्र तथा प्रजापति, इन आतिवाहिक - गणों के साथ सम्पूजित होते हुए तत् तत् लोकों को पारकर प्रकृति तथा वैकुण्ठ की सीमा को विभाजित करने वाली विरजा नदी को पार करके अपने सूक्ष्म शरीर को त्याग देता है । वहाँ अमानव-कर से स्पर्श होते ही वह चतुर्भुज दिव्यमङ्गलविग्रह को प्राप्त कर ब्रह्म के अलङ्कारों से अलङ्कृत होता हैं । इन्द्र, प्रजापति नामक नगर के द्वारपालों से आज्ञा प्राप्त कर मुक्तजीव श्रीवैकुण्ठ नामक दिव्य नगर में प्रवेश करता है । उस नगर के पता- काओं से समलङ्कृत दीर्घं प्राकार ( लम्बी चहारदिवारी ) युक्त गोपुर को पार करके ऐरम्मद नामक अमृतसरोवर तथा सोमसबन नामक अश्वत्थवृक्ष का दर्शन करता है ।
१६ य०
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वहाँ ’ शतम् मालाहस्ताः’ इत्यादि छान्दोग्य श्रुति के अनुसार पाँच सौ दिव्य अप्सराएँ उसका पूजन करके ब्रह्मगन्ध आदि से समलंकृत करती हैं । तदनन्तर मुक्तजीव वहाँ पर विद्यमान अनन्त, गरुड, विष्वक्सेन आदि नित्यसूरियों को प्रणाम करके, उनके द्वारा समादृत होकर महामणिमण्डप में प्रवेश करता है । वहाँ पर शय्या के समीप में विद्यमान अपने आचार्यों को प्रणाम करके पर्यङ्क के पास जाकर वहाँ पर धर्मादि पीठों के ऊपर विद्यमान, कमल के ऊपर विद्यमान, शेष के ऊपर विमला आदि चामरग्राहि- णियों के द्वारा सुसेवित श्रीदेवी, भूदेवी एवं नीलादेवी के साथ विद्यमान, शङ्ख-चक्रादि दिव्य आयुधों से समलङ्कृत, चमकते हुए किरीट, मकुट, चूडामणि, मकराकृत कुण्डल, गले का हार, केयूर, कंकण, श्रीवत्सचिह्न, कौस्तुभमणि, दामोदरबन्ध, पीताम्बर, करधनी तथा नूपुर आदि असीमित दिव्य आभूषणों से विभूषित, अनन्त उदार कल्याण आदि गुणों के आश्रय श्रीभगवान् का दर्शन करता है । श्रीभगवान् के दोनों चरण-कमलों में शिर से प्रणाम करके, पैरों से दिव्य पर्यङ्क पर चढ़कर श्रीभगवान् के द्वारा अपनी गोद में बैठाया जाता है । ‘तुम कौन हो’ इस तरह से श्रीभगवान् के द्वारा पूछे जाने पर ‘मैं ब्रह्म का प्राकार हूँ’ यह कहकर, श्रीभगवान् के द्वारा प्रेमपूर्वक देखा जाता है । उस सप्रेमवीक्षण के अनुभवजनित हर्षातिरेक के कारण उसमें श्रीभगवान् के सभी देशों, सभी कालों, सभी अवस्थाओं के लिए उचित सभी कैङ्कय को सम्पादित करने का स्नेह उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार का वह आविर्भूत गुणाष्टक जीव अनन्त काल तक ब्रह्म का अनुभव करता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मुक्त जीव का वर्णन
भा० प्र० - जीवों के तीन भेद बतलाए गये हैं- बद्ध, मुक्त एवं नित्य । बद्धों के स्वरूप तथा भेद का निरूपण किया जा चुका है । अब मुक्तजीवों के स्वरूप का निरूपण किया जा रहा है । मुक्तजीव वे हैं, जो प्रपत्ति करने के पश्चात् भी संसारा- वस्था में आजीवन नित्य एवं नैमित्तिक कृत्यों का अनुष्ठान यह समझकर किया करते हैं कि श्रौतस्मार्त नित्य नैमित्तिक कर्म श्रीभगवान् की आज्ञा रूप हैं। श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे ।’
भगवान् कहते हैं - श्रुतियों एवं स्मृतियों में प्रोक्त अनुष्ठेय कर्म मेरी आज्ञा रूप है । ‘आज्ञाच्छेदी मम द्रोही ।’ श्रौतस्मार्त कर्मों का न पालन करना मेरी आज्ञा का उल्लंघन रूप द्रोह हैं । यही समझकर मुमुक्षु अधिकारी नित्य नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान किया करते हैं कि इन कर्मों का अनुष्ठान श्रीभगवान् की आज्ञा का अनुपालन रूप है । श्रीभगवान् की आज्ञा का पालन ही भगवान् का कैंकर्य करना है । अतएव भगवान् का कैंकर्य सम्पादन रूप प्रयोजन की दृष्टि से मुमुक्षु अधिकारी यज्ञ, दान, तपस्या आदि कर्मों को किया करते हैं ।
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भगवद्भाग० इत्यादि - मुमुक्षु जीव तीन प्रकार के अपराधों से बचा करते हैं । वे अपचार हैं- भगवदपचार, भागवतापचार तथा असह्यापचार ।
वाराहपुराण में बत्तीस प्रकार के अपचार वर्णित हैं । उनमें अनेक प्रकार के भगवदपचारों का वर्णन हैं । भगवान् की वस्तु को अपना समझना, अर्चावतार की मूर्तियों में प्राकृतत्व बुद्धि करना, ये सब भी भगवदापचार के अन्तर्गत हैं ।
भगवान् के भक्तों का अपचार ही भागवतापचार है । अथवा शास्त्रप्रतिकूल प्रक्रिया - विरुद्ध, जो भागवतों के विरुद्ध है, उससे धनादि का उपार्जन भी भागवतापचार है ।
भगवान् तथा भगवान् के भक्तों से द्वेष करना, उनका उपहास करना, अपमान करना, आचार्य का अपमान करना इत्यादि असह्यापचार हैं ।
भागवतापचार से भी अधिक पापप्रद असह्यापचार है,
इसे तो भगवान् कभी भी सहन नहीं करते हैं ।
देहावसान० इत्यादि - जब मुक्तजीव इस शरीर का त्याग करके उत्क्रमण करने लगता है तो उसके जो प्रारब्धकर्म के भुक्तावशिष्ट पुण्य एवं पाप होते हैं, उनमें से अवशिष्ट पाप उसके शत्रुओं को मिल जाते हैं और भुक्तावशिष्ट पुण्य उसके मित्रों को मिल जाते हैं । विद्या को अग्नि के समान शास्त्रों में बतलाया गया है तथा कर्मों को ईषिकातूल ( सरपत के भूआ ) के समान बतलाया गया है । जिस प्रकार आग लगने पर ईषीकातूल विनष्ट हो जाते हैं तथा कितना ही पानी पड़ने पर भी उसमें पुनः इषीकतूल नहीं निकलते हैं, उसी प्रकार से न्यासादि विद्याओं का सम्पर्क होते ही विद्याप्राप्त मुमुक्षु के पूर्वाघ का विनाश हो जाता है और उत्तराघ का पुनः कभी संश्लेष नहीं होता है । यही विद्या की प्राप्ति का माहात्म्य है । श्रुति कहती है- ‘तद्यथेषीकातूलमग्नी प्रोतं प्रदूयेतैवं हास्य सर्वे पाप्मान प्रदूयन्ते’ ( छा० उ० ५।२४।३ ) । अर्थात् जिस प्रकार अग्नि में डाला गया ईषीकातूल जल जाता है, उसी प्रकार विद्याप्राप्त मुमुक्षु जीव के सभी पुण्य-पाप रूप कर्म विनष्ट हो जाते हैं । तथा - ’ तद्यथा पुष्कर पलाश आपो न श्लिष्यन्ते एवमेवं विदि पापं कर्म न श्लिष्यते ।’ यह छान्दोग्य श्रुति कहती है कि जिस प्रकार कमल के पत्ते से जल का संश्लेष नहीं होता, उसी प्रकार इस आत्मवेत्ता पुरुष से पापकर्मों का संपर्क नहीं होता है । इसी बात को महर्षि बादरायण ने कहा है- तदधिगम उत्तरपूर्वाघयो रश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्’ ( ब्र० सू० ४।१।१३ ) । अर्थात् श्रुतियाँ बतलाती हैं कि विद्या की प्राप्ति हो जाने पर पूर्वाघ का विनाश तथा उत्तराघ का अश्लेष हो जाता है । अर्थात् विद्यारम्भ से पूर्व किये गये सचित कर्मों का विद्या से विनाश होता है, अर्थात् उन कर्मों की शक्ति नष्ट हो जाती है, वह शक्ति श्रीभगवान् की प्रीतिविशेष और कोपविशेष रूप है । भाव यह है कि प्राचीन पुण्य-पाप रूप कर्मों के अनुसार कर्ता को अनुकूल तथा प्रतिकूल फल भोगने के लिए श्रीभगवान् के प्रीतिविशेष रूप तथा कोषविशेष रूप जो संकल्प होते हैं, ये संकल्प ही कर्मों की शक्ति हैं । विद्या के द्वारा यही शक्ति नष्ट होती है तथा विद्या-निष्पत्ति के पश्चात् प्रमादादि जन्य कर्मों में वह शक्ति उत्पन्न ही नहीं होती है । अर्थात् यह शक्ति प्रतिबद्ध हो जाती है। शरीर- [[२०८]] पात के समय जब साधक के पुत्रादि उसके दायभाग को लेने लगते हैं तो उसी समय साधक के जो प्रतिबद्ध कर्म रहते हैं, उनमें से पापकर्म साधक के शत्रुओं को मिल जाते हैं और पुण्यकर्म साधक के मित्रों को मिल जाते हैं । श्रुति भी कहती है- ‘तस्य पुत्रा दायमुपयन्ति सुहृदस्साधुकृत्यां द्विषन्तः पापकृत्याम् ।’
विद्या प्राप्त जीव का सुषुम्णा नाडी में प्रवेश - वाङ्मनसी० इत्यादि - विद्याप्राप्त जीव जब प्रयाण करते हैं तो उस समय भी उसकी सत्सम्पत्ति ( परमात्मा में लय ) होती है; इस बात को बतलाती हुई श्रुति कहती है- ‘सोम्यपुरुषस्य प्रयतो वाङ्मनसि सम्पद्यते मनः प्राणे प्राणस्तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम् ’ ( छा० उ० ६।८।६ ) । अर्थात् ‘शरीर त्याग काल में वाणी का मन में लय होता है, मन का प्राण में, प्राणों का तेज में तथा तेज का परमात्मा में।’ इस श्रुति के अनुसार जीव का देहत्याग काल में परमात्मा में लय हो जाता है । पुनः वह जीव सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश कर जाता है । यह सुषुम्णा नाड़ी ही मुक्ति का द्वार है । श्रुति कहती है कि -‘शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका । तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति । विष्वङ्- ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति’ ( कठो० २।३।१६ ) । अर्थात् हृदयप्रदेश से निकलने वाली एक सौ एक नाडियाँ है । उसमें एक नाड़ी मूर्धाप्रदेश- पर्यन्त आती है । उसके द्वारा इस शरीर से निकलने वाला जीव मोक्ष को प्राप्त करता है । अन्य नाड़ियों से उत्क्र- मण करने वाले जीव इधर-उधर जाते हैं । इस श्रुति में वर्णित मूर्धन्य नाड़ी ही सुषुम्णा नाड़ी है । परमपुरुष की आराधनाजन्य प्रसन्नता से विद्याप्राप्त जीव श्रीभगवान् का प्रियतम हो जाता है । प्रसन्न होकर परमात्मा उस जीव के लिए उस नाड़ी का द्वार प्रकाशित कर देते हैं । उस मुक्ति के द्वारभूत नाड़ी के द्वारा ही विद्या- प्राप्त जीव उत्क्रमण करता है । महर्षि बादरायण कहते हैं - ‘तदोकोऽग्रज्वलनं तत्प्रका- शितद्वारो विद्यासामर्थ्यात् तच्छेषगत्य नुस्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतशताधिकया’ ( ब्र० सू० ४।२।१६ ) । अर्थात् विद्याप्राप्त पुरुष एक सौ एकवीं मूर्धन्य नाड़ी से ही उत्क्रमण करता है । क्योंकि परमपुरुष परमात्मा के आराधनस्वरूप वह विद्या परमात्मा को अत्यन्त प्रिय है । किञ्च वह विद्याओं की शेषभूत विद्या है, उसी के सामर्थ्य से वह आत्मा के अत्यन्त प्रिय मार्ग का स्मरण भी करता है । उस विद्या के ही सामर्थ्य से प्रसन्न होकर भगवान् उसके हृदय को प्रकाशित कर देते हैं, जिससे कि उस नाड़ी का द्वार प्रकाशित हो जाता है । उसमें प्रवेश करके जीव ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकलता माध्यम से अग्निलोक में जाता है । ब्रह्मरन्ध्र से निकलकर जीव सूर्य की किरणों के है । पुनः वह मार्ग में दिन, पूर्वपक्ष उत्तरायण तथा संवत्सर के अभिमानी देवताओं एवं वायु के द्वारा सत्कृत होकर सूर्यमण्डल को पार कर जाता है । पुनः सूर्यलोक में जाकर उसके बाद चन्द्रमा, विद्युत्, वरुण, इन्द्र तथा प्रजापति नामक आतिवाहिकों- जो मुक्तजीव के मार्ग का प्रदर्शन करते हैं— के द्वारा सम्पूजित होकर मुक्तजीव विरजा नदी को पार करता है। यह विरजा नदी प्रकृतिमण्डल तथा बैकुण्ठ की [[२०९]] सीमा को विभाजित करती है। इस विरजा नदी को पार करके जीव अपने सूक्ष्म शरीर का भी त्याग कर देता है ।
जीवों के दो प्रकार के शरीर होते हैं - स्थूलशरीर और सूक्ष्मशरीर । स्थूल शरीर हम लोगों का यह पाञ्चभौतिक शरीर है । सूक्ष्मशरीर इस शरीर के त्यागने के पश्चात् भी बना रहता है । उसी शरीर के द्वारा जीव तत् तत् लोकों में जाकर सुख-दुःखादि का अनुभव करता है । यह सूक्ष्मशरीर सप्तादशावयवक होता है । विरजा नदी का अवगाहन होते ही वह सूक्ष्मशरीर भी छूट जाता है । इसके पश्चात् दिव्य पुरुष मुक्तजीव का स्पर्श करता है । उसके स्पर्श करते ही मुक्तजीव दिव्य शरीर को प्राप्त कर लेता है । वह चतुर्भुज शरीर वाला हो जाता है । वहाँ वह ब्रह्म के अलङ्कारों से अलङ्कृत होकर इन्द्र और प्रजापति नामक द्वारपालों की आज्ञा पाकर प्रवेश करता है । श्रीवैकुण्ठ नामक दिव्य नगर का प्रकार की पताकाओं से समलङ्कृत है । मुक्तजीव नामक दिव्य अमृतसरोवर और सोमसवन नामक श्रीवैकुण्ठ नामक दिव्य नगर में गोपुर दीर्घप्राकार तथा अनेक उसको पार करके पुनः ऐरम्मद अश्वत्थ का दर्शन करता है ।
वैकुण्ठ की नदी आदि का वर्णन - श्रीवैकुण्ठलोक की नदी इत्यादि का वर्णन उप- निषदों में भी मिलता है । ‘तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मलोकस्यारोहदो मुहूर्ता येष्टहा, विरजा नदी, तिल्यो वृक्षः सायुज्यं संस्थानमपराजितमायतनम् इन्द्रप्रजापती द्वारगोपी, विभुं प्रमितं विचक्षणासन्ध्यमितौजाः पर्यङ्कः’ ( कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् १।२ - ३ ) । अर्थात् उस ब्रह्मलोक में आर नामक एक प्रसिद्ध सरोवर है, जो अमृतमय है । छान्दोग्योपनिषद् में यहाँ पर तीन सरोवरों का वर्णन है— अर, ण्य और ऐर- म्मदीय । छान्दोग्य श्रुति है - ’ अरव ह वै ण्यश्वार्णवी ब्रह्मलोके तृतीयस्यमितो दिवि तदैरम्मदीयं सरः । ’ ( छा० उ० अध्याय ८1५) । उसके पश्चात् मुहूर्त नामक यष्टिहा हैं। ये अब्रह्मज्ञों को यष्टि प्रहार करते है । वहाँ पर विरजा अथवा विजरा नामक नदी है । उसी के सन्निकट तिल्य नामक वृक्ष है । छान्दोग्योपनिषद् में इसे ही सोम- सवन नामक अश्वत्थ वृक्ष कहा गया है । छान्दोग्य श्रुति है – ‘तदश्वत्थः सोमसवनः ’ ( छा० उ० ८1५ ) । वहाँ सालज्य नामक संस्थान है । अपराजित नामक नगर है । इन्द्र एवं प्रजापति नामवाले दो द्वारपाल हैं । वहाँ स्वर्णमय अत्यन्त विस्तृत मण्डप है। छान्दोग्योपनिषद् श्रुति कहती है- ‘प्रभुविमितं हिरण्मयम्’ ( छा० ८1५) । विचक्षण नामक वहाँ धर्मादि पीठ है । अमितौजा नामक योगपीठ है ।
मुक्तजीव का पांच सौ दिव्य अप्सराओं द्वारा ब्रह्मालंकार - उपर्युक्त वस्तुओं का दर्शन कर लेने के बाद वहाँ की पाँच सौ दिव्य अप्सराएँ आकर उस मुक्त पुरुष की समर्चा तथा ब्रह्मालंकार करती हैं । कौषीतकि श्रुति कहती है- ‘तं पञ्चशतान्यप्सरस प्रतिधावन्ति शतं मालाहस्ताः शतमाञ्जनहस्ताः शतं चूर्णहस्ताः, सतं वासोहस्ताः, शतं कणाहस्ताः, तं ब्रह्मालङ्कारेणालङ्कुर्वन्ति’ (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् १।४ ) । अर्थात् उस मुक्तजीव का समादर करने के लिए पाँच सौ अप्सराएँ दौड़कर आगे [[२१०]] आती हैं । सौ अप्सराएँ माला लिए रहती हैं, सौ अप्सराएँ अञ्जन लिए रहती हैं। सौ अप्सराएँ चूर्ण लिए रहती हैं । सौ अप्सराएँ वस्त्र लिए रहती हैं तथा सौ अप्स - राएँ भूषण लिए रहती हैं । वे आकर मुक्तजीव को ब्रह्म के अलङ्कारों से अलङ्कृत करती हैं ।
ब्रह्मगन्ध से समलङ्कृत मुक्तजीव वहाँ पर विद्यमान अनन्त, गरुड एवं विष्वक्सेन आदि को प्रणाम करता है । अनन्त, गरुड एवं विष्वक्सेन, ये तीन श्रीभगवान् के दिव्य पार्षद हैं । यामुनाचार्य स्वामी ने इन तीनों का क्रमशः वैकुण्ठलोक में निम्न प्रकार से वर्णन किया है ।
अनन्त का वर्णन - श्रीशेष का दूसरा नाम अनन्त है । श्रीयामुनाचार्य कहते हैं-
’ तया सहासीनमनन्तभोगिनि प्रकृष्टविज्ञानबलैकधामनि । फणामणिव्रातमयूखमण्डप्रकाशमानोदरदिव्यधामनि निवासशय्यासनपादुकांशुकोपधानवर्षातपवारणादिभिः
शरीरभेदैस्तव शेषतां गतैः यथोचितं शेष इतीरिते जनैः ॥’
( स्तो० २०३९ - ४० )
अर्थात् श्रीवैकुण्ठलोक में प्रकृष्ट विज्ञान एवं बल के आश्रय फणाओं की मणिसमूह से प्रकाशमान उदर वाले अनन्त की शय्या पर श्रीलक्ष्मीजी के साथ श्रीभगवान् बैठते हैं । निवास ( दिव्यायतन ), शय्या ( योगनिद्रावस्था में ), ( पर्यङ्क विद्या आदि में आनात ) दिव्यसिंहासन, पादुका, पीताम्बर, उपधान आदि विविध शरीरों को धारण करके श्रीभगवान् की वर्षा, आतप आदि से सुरक्षा करने के कारण अनन्त को शेष शब्द से अभिहित किया जाता है, यह उचित ही है ।
अनन्त को अनन्त इसलिए कहा जाता है कि कोई उनके गुणों का अन्त नहीं पा सकता है । विष्णुपुराणकार कहते हैं-
‘गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः
सकिन्नरमहोरगाः ।
नान्तं गुणानां गच्छन्ति
तेनानन्तः प्रचक्षते ॥’
(वि० पु० 919419५७)
अर्थात् गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, किन्नर एवं महोरग ये सभी चूंकि शेष के गुणों का पार नहीं पा सकते हैं; अतएव वे अनन्त कहे जाते हैं । ये प्रकृष्ट विज्ञान के आश्रय इसलिए हैं कि उन्हें सूर्यसिद्धान्त आदि में पञ्चविध ज्योतिष - सिद्धान्त का प्रवर्तक बतलाया गया है ।
[[1]]
उन्हें प्रकृष्ट बल का आश्रय इसलिए माना जाता है कि वे सम्पूर्ण पृथिवी को अपने सिर पर धारण करते हैं ( वि० पु० २।५ ) ।
गरुड़ का वर्णन—वैकुण्ठलोकस्थ श्रीभगवान् के दिव्य पार्षद गरुड का वर्णन करते हुए कहा गया है-
‘दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः । उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता त्वदङ्घ्रिसम्मर्दकिणाङ्कुशोभिना ।
[[२११]]
अर्थात् हे भगवन् ! त्रयीस्वरूप गरुड़जी ही आपके दास, सखा, वाहन, दिव्य सिंहासन, ध्वजा, चंदोवा तथा व्यजन का कार्य करते हैं । आपके चरणचिह्नों से सुशोभित वे गरुड़जी आपके समक्ष सेवा करने हेतु सदा खड़े रहते हैं ।
विष्वक्सेन का वर्णन - श्रीवैकुण्ठस्थ श्रीभगवान् के सेनापति का वर्णन करते हुए श्रीवेदान्तदेशिक कहते हैं-
‘वन्दे वैकुण्ठसेनान्यं देवं सूत्रवतीसखम् । यद् वेत्रशिखरस्पन्दे विश्वमेतद् व्यवस्थितम् ॥’ ( यतिराजसप्तति ३ )
अर्थात् दिव्यगुणसम्पन्न वेत्रवती के स्वामी तथा श्रीभगवान् के सेनापति श्रीविष्वक्सेन सूरि की मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके वेत्र के अग्रभाग के संचालन मात्र से यह सम्पूर्ण जगत् व्यवस्थित हो जाता है ।
त बहुमत० इत्यादि-श्रीविष्वक्सेन गरुड़ तथा अनन्त को प्रणाम करके तथा उनका स्नेहभाजन बनकर मुक्तजीव महामणिमण्डप में प्रवेश करता है । वहाँ योग- पर्यङ्क के समीप विद्यमान अपने पूर्वाचार्यों तथा आचार्यों को प्रणाम करके मुक्तजीव योग-पर्यङ्क के समीप जाता है । वहाँ पर धर्मादि पीठ के ऊपर विद्यमान कमल के ऊपर श्रीअनन्त के ऊपर श्रीभगवान् का वह दर्शन करता है । उन श्रीभगवान् की विमला आदि चामरग्राहिणियाँ चमर सेवा किया करती हैं । श्रीभगवान् श्रीदेवी, भूदेवी तथा नीलादेवी से सेवित हैं ।
श्रीभगवान् की तीन पत्नियाँ - ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’ इत्यादि उत्तरानुवाक् आदि के मन्त्रों द्वारा श्रीभगवान् की श्रीदेवी एवं भूदेवी, इन दो पत्नियों का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है । विष्णुपुराण आदि में श्रीभगवान् की पत्नी लक्ष्मीजी तथा भूदेवी का वर्णन उपलब्ध होता है । श्रीमद्यामुनाचार्य ने स्तोत्ररत्न के ‘चकर्थ यस्या भवनं भुजान्तरम्’ तथा ‘स्ववैश्वरूपेण सदाऽनुभूतया ०’ इत्यादि पर्यन्त दो श्लोकों में श्रीभगवान् की पत्नी श्रीदेवी का विशद वर्णन किया है। किन्तु विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय में श्रीभगवान् की श्रीदेवी एवं भूदेवी, इन दो पत्नियों से भिन्न एक तीसरी पत्नी श्रीनीला देवी का भी वर्णन स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है ।
स्वयं भगवत्पाद - श्रीरामानुजाचार्य शरणागति गद्य में कहते हैं - ‘स्वाभिमत नित्य - निरवद्यानुरूप स्वरूप- एवम्भूत रूपगुणविभवैश्वर्यशीलाद्यनवधिकातिशया संख्येय कल्याणगुणगण श्रीवल्लभ ! भूमिनीलानायक ।’ अर्थात् हे स्वानुकूल, नित्य, निरवद्य तथा अनुरूप, स्वरूप, रूप, गुण, वैभव, ऐश्वर्यं तथा शील आदि सीमातीत सर्वोत्कृष्ट असंख्य कल्याणकारी गुणों से युक्त श्रीपति ! तथा इसी प्रकार के भूदेवि तथा नीलादेवी के स्वामिन् !’ इससे स्पष्ट है कि भगवत्पाद श्रीरामानुजाचार्य भी श्रीभगवान् की सर्वप्रधान पत्नी श्रीदेवी को तथा भूमिदेवी एवं नीलादेवी को भी उनकी पत्नी मानते हैं । श्रीगुण- रत्नकोश में श्रीपराशर भट्ट कहते हैं कि ‘हे श्रीदेवि ! नीलादेवी तथा भूदेवि के साथ अनेक देवियाँ आपकी सेवा करती हैं’ । ‘देवि ! त्वामनुनीलया सह महीदेव्यः
[[२१२]]
सहस्रं तथा’ ( श्रीगुणरत्नकोश २६ ) । बलपौष्कर में कहा गया है कि - ’ सेव्य : श्रीभूमिनीलाभिः पादुर्भावैस्तु चाखिलैः’ अर्थात् सभी अवतारों में श्रीदेवी, भूदेवी तथा नीलादेवी से विशिष्ट तथा अनन्त शय्या पर उपविष्ट श्रीवैकुण्ठनाथ भगवान् की सेवा करनी चाहिए । श्रीमद्वेदान्तदेशिक यादवाभ्युदय महाकाव्य के चतुर्थ सर्ग में श्रीकृष्ण भगवान् का नीलादेवी के साथ पाणिग्रहण की कथा का निबन्धन करते हुए कहते हैं-
‘दिशागजानामिव शाक्क्वराणां शृङ्गाग्रनिभिन्न शिलोच्चयानाम् । स तादृशा बाहुबलेन कण्ठान् निपीड्य लेभे पणितेन नीलाम् ॥’
( यादवाभ्युदय महाकाव्य ४।९८ )
अर्थात्
दिग्गजों के समान बलवान्, अपने शृङ्गों के अग्रभाग से शिलासमूह को विदारित करने वाले, वृषभों के गले को अपने प्रख्यात बाहुबल से दबाकर मार डालने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने वीर्यशुल्का नीलादेवी को प्राप्त किया ।
इस श्लोक की व्याख्या में सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र - श्रीमद् अप्पय दीक्षित लिखते हैं कि- हरिवंशपुराण में यह कथा आयी है कि विदेह की नगरी में यशोदा के अनुज कुम्भक नामक गोपाल रहते थे । पूर्वजन्म में भगवान् राम के द्वारा पराजय के वैर को स्मरण करके कालनेमि राक्षस के सात पुत्र कृष्ण का अपकार करने की इच्छा से वृषभ का रूप बनाकर उनके गोष्ठ में रहते थे। ये अत्यन्त भयङ्कर बैल उनके गोष्ठ में उत्पात किया करते थे , किन्तु कुम्भक स्वयं उन सबों का दमन करने में असमर्थ थे । उन्होंने घोषणा की कि जो इन वृषभों का दमन करेगा, उसको मैं अपनी पुत्री नीला को वीर्य शुल्क के रूप में प्रदान करूँगा । श्रीभगवान् यह सुनकर विदेह की नगरी गये और अपनी भुजाओं से उन बैलों का गला दबाकर मार डाले और नीला देवी के साथ अपनी शादी किये। नीला देवी के साथ परिणय की कथा वेदान्तदेशिक ने यादवाभ्युदय ४।९८ से ४। १०३ श्लोक - पर्यन्त वर्णन किया है ।
शंखचक्रादिदिव्यायुधोपेतामित्यादि - श्रीभगवान् शंख-चक्र आदि दिव्य आयुधों को धारण करते हैं तथा अनेक दिव्य अलङ्कारों से अलङ्कृत रहते हैं । श्रीभगवान् के अनेक दिव्य आयुध हैं, किन्तु उनमें शंख, चक्र, गदा ( कौमोदकी ), कृपाण ( नन्दक ) तथा धनुष (शा), ये पाँच आयुध प्रधान हैं । भगवान् के अनेक दिव्य अलङ्कारों का वर्णन अनेकत्र उपलब्ध होता है ।
अपरिमितोवार कल्याणगुणसागरमित्यादि - श्रीभगवान् के अनेक कल्याणकारी गुणों का वर्णन उपलब्ध होता है। श्रुतियाँ श्रीभगवान् को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् इत्यादि रूप से बतलाती हैं । ’ यः सर्वज्ञः सर्ववित्’ ‘परास्य शक्तिविविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ।’ श्रुति कहती है कि श्रीभगवान् सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, अनेक प्रकार की पराशक्तियों से सम्पन्न हैं तथा उनमें ज्ञान एवं बल की क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से सुनी जाती हैं । यामुनाचार्य कहते हैं-
‘वशी वदान्यो गुणवान् ऋजुः शुचिः
मृदुर् दयालुर्मधुरः स्थिरः समः ।
कृती कृतज्ञस्त्वमसि स्वभावतः
समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः ॥ ’
( स्तो० २०१८ )
[[२१३]]
अर्थात् हे श्रीभगवन् ! आप स्वाभाविक रूप से, वशी, वदान्य, शीलगुणवान्, ऋजु, मृदु, दयालु, मधुर, स्थिर, सम, कृती तथा कृतज्ञ आदि सारे कल्याणकारी गुण- समूह रूपी अमृत के सागर हैं । भगवत्पाद रामानुजाचार्यं तो श्रीभगवान् के कल्याण- कारी गुणों का वर्णन करते हुए अघाते नहीं हैं ।
तत्पादारविन्दयुगलमित्यादि - मुक्तजीव उपर्युक्त श्रीभगवान् के चरणकमलद्वय को शिर से प्रणाम करके भगवान् के योगपर्यङ्क पर चढ़ता है तथा श्रीभगवान् उस मुक्तजीव को अपनी गोद में बैठाकर पूछते हैं कि तुम कौन हो ? श्रीभगवान् के प्रश्न के उत्तर में स्व-स्वरूपज्ञ जीव कहता है कि हे भगवन् ! मैं आपका प्रकार हूँ ।
श्रीभगवान् जीवों के प्रकारी हैं और जीव श्रीभगवान् का प्रकार है । जीव और ब्रह्म में यह प्रकार - प्रकारीभाव उसके शरीरात्म निबन्धन को लेकर होता है । श्रुति बतलाती है कि यह आत्मा श्रीभगवान् का शरीर है और श्रीभगवान् परमात्मा की आत्मा है । ‘य आत्मानमन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम् ।’ अर्थात् जो परमात्मा इस शरीर के भीतर रहकर उस आत्मा की अपेक्षा अन्तरङ्ग है, जिसे आत्मा नहीं जानती तथा आत्मा जिसका शरीर है । जिस प्रकार शरीर आत्मा का अपृथक्- सिद्ध प्रकार होता है, उसी प्रकार जीव भी परमात्मा का अपृथसिद्ध प्रकार है ।
तेन कटाक्षितः इत्यादि - मुक्तजीव के उपर्युक्त उत्तर को सुनकर श्रीभगवान् प्रेमपूर्वक उसे देखते हैं और श्रीभगवान् के उस सप्रेम प्रेक्षणजन्य आनन्द का अनुभव करके जीव के भीतर यह अभिलाषा पैदा होती है कि मैं श्रीभगवान् की प्रत्येक अवस्था में सभी प्रकार की सेवाओं का अन्तरङ्ग कैंकर्य करता हूँ ।
अर्थात् ऐसा महात्मा मुझे अत्यन्त मानता है । उस दुर्लभ जीव को प्राप्त और उसको सप्रेम वीक्षण करते हैं । इस
श्रीभगवान् को स्वरूपज्ञ जीव अत्यन्त प्रिय होता है। गीता में श्रीभगवान् कहते हैं— ‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।’ दुर्लभ है, जो सम्पूर्ण जगत् को परमात्मात्मक कर श्रीभगवान् अपनी गोद में बैठा लेते हैं भगवत्कृत स्नेहातिशय्य का अनुभव करके मुक्तजीव के मन में यह अभिलाषा पैदा होती है कि मैं सभी देशों, कालों एवं अवस्थाओं में श्रीभगवान् की सभी प्रकार की सेवा करता रहूँ । श्रीयामुनाचार्य भी स्तोत्ररत्न में कहते हैंः
‘कदा पुनः शङ्ख-रथाङ्ग-कल्पक-
ध्वजारविन्दाङ्कुश-वज्रलाञ्छनम् ।
त्रिविक्रम ! त्वच्चरणाम्बुजद्वयं
मदीयमूर्धानमलङ्करिष्यति ॥ ’
( स्तो० २०३१ )
अर्थात् हे भगवन् ! आपके शंख, चक्र, कल्पवृक्ष, ध्वजा, कमल, अंकुश तथा वज्र के चिह्नों से चिह्नित दोनों चरणकमल मेरे शिर को पुनः कब पवित्र करेंगे ? वे मुक्तावस्था में होने वाले नित्यान्तरङ्ग कैंकर्य की कामना करते हुए कहते हैं-
[[२१४]]
‘भवन्तमेवानुचरन्निरन्तरं
प्रशान्त निःशेषमनोरथान्तरः ।
कदाऽहमैकान्तिक नित्य किङ्करः
प्रहर्षयिष्यामि सनाथजीवितः ॥’
अर्थात् सर्वदा आपकी ही सेवा में संलग्न सभी अन्य मनोरथों से रहित आपका अन्तरङ्ग सेवक बनकर अपने सनाथित जीवन वाला मैं आपको कव प्रहर्षित करूँगा ?
आविर्भूतगुणाष्टकः इत्यादि - मुक्तावस्था में जीव के आठों दिव्य गुण, जो ‘एष आत्मापहतपाप्मा०’ इत्यादि प्रजापति - वाक्य में कहे गये हैं, आविर्भूत हो जाते हैं । मुक्तजीव को अनन्त काल तक श्रीभगवान् का अनुभव होता रहता है ।
मूलम्
२३. मुक्तो नाम उपायपरिग्रहणानन्तरं नित्यनैमित्तिकभगवदाज्ञाकैङ्कर्यरूपाणि स्वयम्प्रयोजनतया कुर्वन्, भगवद्भागवतापराधांश्च वर्जयन्, देहावसानकाले सुकृत-दुष्कृते मित्रामित्रयोर्निक्षिपन्, “वाङ् मनासि” इत्यादिप्रकारेण हार्दे परमात्मनि विश्रम्य मुक्तिद्वारभूतसुषुम्नाख्यनाड्याम् प्रविश्य ब्रह्मरन्ध्रान्निष्क्रम्य हार्देन साकं सूर्यकिरणद्वारा अग्निलोकं गत्वा दिनपूर्वपक्षोत्तरायणसंवत्सराभिमानि-देवताभिर्वायुना च पथि सत्कृतः, सूर्यमण्डलम् भित्वा नभोरन्ध्रद्वारा /रथचक्ररन्ध्रद्वारा सूर्यलोकं गत्वा अनन्तरं चन्द्रविद्युद्वरुणेन्द्रप्रजापतिभिर्मार्गदर्शिभिः आतिवाहिकगणैः सोपचारैः सह तत्तल्लोकानतीत्य प्रकृतिवैकुण्ठसीमपरिच्छेदिकां विरजां तीर्त्वा सूक्ष्मशरीरं विहाय अमानवकरस्पर्शात् अप्राकृतदिव्यविग्रहयुक्तः, चतुर्भुजो ब्रह्मा-लङ्कारेणालङ्कृतः, इन्द्रप्रजापतिसञ्ज्ञकनगरद्वारपालकाभ्यनुज्ञया श्रीवैकुण्ठाख्यं दिव्यनगरम् प्रविश्य गरुडानन्तयुक्तपताकालङ्कृतदीर्घप्राकारसहितगोपुरमतीत्य ऐरम्मदाख्यामृतसरः सोमसवनाख्याश्वत्थं च दृष्ट्वा “शतम् मालाहस्ता” इत्युक्तपञ्चशतदिव्याप्सरोगणैरुपचरितः, ब्रह्मगन्धादिभिरलङ्कृतः, तत्रस्थानन्त-गरुडविष्वक्सेनादीन् प्रणम्य तैर्बहुमतः, महामणिमण्डपमासाद्य पर्यङ्कसामीपे स्वाचार्यान् प्रणम्य पर्यङ्कसमीपं गत्वा तत्र धर्मादिपीठोपरिकमले अनन्ते विमलादिभिश्चामरहस्ताभिः सेव्यमानं श्रीभूनीलासमेतं शङ्खचक्रादिदिव्या-युधोपेतं जाज्वल्यमानकिरीटमकरकुण्डलग्रैवेयहारकेयूरकटकश्रीवत्सकौस्तुभ-मुक्तादामोदरबन्धनपीताम्बरकाञ्चीगुणनूपुराद्यपरिमितदिव्यभूषणभूषितम् अपरिमि-तोदारकल्याणगुणसागरम् भगवन्तं दृष्ट्वा तत्पादारविन्दयुगले शिरसा प्रणम्य पादेन पर्यङ्कमारुष्य तेन स्वाङ्के स्थापितः, “कोऽसि” इति पृष्टः, “ब्रह्मप्र- कारोऽस्मि” इत्युक्त्वा तेन कटाक्षितः, तदनुभवजनितहर्षप्रकर्षात् सर्वदेशसर्वकाल-सर्वावस्थोचितसर्वविधकैङ्कर्यरतिः, आविर्भूतगुणाष्टकः,उत्तरावधिरहितब्रह्मानुभववान्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२४. मुक्तस्य ब्रह्मसाम्यापत्ति-श्रुतिस् तु
भोग-साम्यम् आह -
जगद्-व्यापार-वर्जनस्य प्रतिपादनात् ।
तस्य नानात्वं सर्व-लोक-सञ्चरणं च सम्भवति ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘मुक्तस्ये’**ति । ‘निरञ्जनः परमसाम्यमुपैति’ इति श्रुतं मुक्तस्य परब्रह्मणा साम्यं भोगसाम्यम् । ‘भोगमात्रसाम्यलिङ्गाच्च’ (ब्र० मो०) इति सूत्रात् । न तु सर्वप्रकारतः । ‘जगद्व्यापारवर्ज’मित्युक्तत्वात् । तस्य नानात्वं मुक्तात्मनो बहुत्वं ‘मम साधर्म्यमागताः । ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ ‘मुक्तानां लक्षणं ह्येतत्’ ‘मुक्तानां परमा गति’रित्यादिप्रमाणप्रतिपन्नम् । ‘तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः’ इति च श्रुतम् । सर्वलोकसञ्चरणं च मुक्तानां भगवद्विभूतिविस्तारानुभवेच्छया, भगवदनुयात्रारूपं च भवति ।
शिवप्रसादः (हिं)
मुक्तजीव की ब्रह्म की साम्यापत्ति बतलाने वाली श्रुति का अभिप्राय यह है कि वह ब्रह्म के सदृश भोगों को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि श्रुतियाँ मुक्तजीव के जगद् - व्यापार का वर्णन करती हैं । मुक्तजीव स्वेच्छानुसार अनेक शरीरों को धारण करके नाना लोकों में स्वेच्छानुसार संचरण करता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मुक्तस्य ब्रह्मसाम्यापत्तिस्तु० इत्यादि - ‘निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति’ ( मु० उ० ३।१।३ ) श्रुति बतलाती है कि
प्राकृतिक दोषों से रहित मुक्तजीव
परमात्मा की अत्यन्त समता को प्राप्त कर लेता है ।
किञ्च जिस प्रकार पुरुष विद्या में जीवात्मा को
‘सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः’ श्रुति बतलाती है,
उसी प्रकार वह दहरविद्या में भी
परमात्मा को सत्यकाम और सत्यसंकल्प बतलाती है ।
इस प्रकार भी सिद्ध होता है कि मुक्ता- वस्था में
जीव ब्रह्म की सभी प्रकार की समता को प्राप्त कर लेता है ।
‘मम साधर्म्य - मागताः’ ( गी० १४ ) इस गीता - वाक्य में भी भगवान् मुक्तजीवों की ब्रह्मसाम्या- पत्ति का प्रतिपादन करते हैं । इसके विषय में विशिष्टाद्वैती विद्वान् महर्षि बादरायण के सूत्रों का पर्यालोचन करते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में जीव की जो ब्रह्मसाम्यापत्ति बतलायी गयी है, उसका अभिप्राय जीवों को ब्रह्म के सदृश भोगमात्र की समता के प्रतिपादन में है, न कि सभी प्रकार की समता में । महर्षि बादरायण का कहना है कि ‘भोगमात्रसाम्यलिङ्गाच्च’ अर्थात् जीव और ब्रह्म की भोगमात्र की समता मुक्तावस्था में होती है । इस अर्थ में प्रमाण है – ‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता ।’ अर्थात् मुक्तजीव सर्वज्ञ ब्रह्म के साथ सभी काम्यपदार्थों को प्राप्त कर लेता है । जिस प्रकार एक सेर लोहे और एक सेर सोने में भार की समानता होने पर भी उन दोनों के मूल्य में महान् अन्तर होता है, उसी प्रकार ब्रह्म और मुक्तजीव में भोग की समता होने पर भी दोनों में नियाम्य-नियामकत्व, जगद्व्यापाररहितत्व तथा जगद्व्यापार- सहितत्व आदि धर्मों को लेकर महान् अन्तर है । महर्षि बादरायण कहते हैं कि- ‘जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च ।’ अर्थात् मुक्त का लक्षण जगद्व्यापार- रहित होना है, क्योंकि यदि जगद्व्यापार रूप सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि, स्थिति एवं प्रवृत्ति का नियमन मुक्त का लक्षण होता तो ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्ति, अभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्म’ ( तै० उ० भृ० व० १ ) श्रुति को अपना विषय बनाकर प्रवृत्त होने वाले ‘जन्माद्यस्य यतः’ ( ब्र० सू० १।१।२ ) सूत्र में ब्रह्म का लक्षण नहीं कहा जाता । चूंकि इस सूत्र से ब्रह्म का लक्षण कहा गया है तथा यह ‘यतो वा’ श्रुति ब्रह्म के लक्षण के प्रकरण में पढी गयी है, अतएव जगद्व्यापार मुक्तजीव का लक्षण नहीं हो सकता है । अतएव जीव और ब्रह्म [[२१५]] में भोगमात्र की समता है, सभी प्रकार की नहीं । मुक्तजीव नाना हैं तथा उनका सभी लोकों में संचरण होता है ।
मूलम्
२४. मुक्तस्य ब्रह्मसाम्यापत्तिश्रुतिस्तु भोगसाम्यमाह - जगद्व्यापारवर्जनस्य प्रतिपादनात् । तस्य नानात्वं सर्वलोकसञ्चरणं च सम्भवति ।
वासुदेवः
साम्यापत्ति-श्रुतिर् इति। ‘निरञ्जनः परमं साम्यम् उपैति (मुं० ३।१।३) इति श्रुतिर् इत्य् अर्थः । मम साधर्म्यम् आगताः (गी० १४।२) इत्यत्राप्य् एवम् एव। मोक्षो हि सायुज्यम् एव। न तु सालोक्यं सामीप्यं सारूप्यं वा। तेषां स्वर्गादिवत् फलान्तरत्वात्। सयुग्-भावः हि सायुज्यं भोग-साम्यम् इति यावत्। सयुक्-शब्दश् च भिन्नयोर् एकत्र साधारण-योगं दर्शयति। ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मुं० ३।२।९) इति श्रुतेर् अपि साम्यं एव तात्पर्यम्। तद् उक्तम् -
लोकेषु विष्णोर् निवसन्ति केचित् समीपमृच्छन्ति च केचिद् अन्ये। अन्ये तु रूपं सदृशं भजन्ते सायुज्यम् अन्ये स तु मोक्ष उक्तः ॥
इति।
मोक्षं सालोक्य-सारूप्यं प्रार्थये न कदाचन। इच्छाम्य् अहं महाबाहो सायुज्यं तव सुव्रत।
इत्यत्र मोक्षम् इत्यस्य मोक्षत्वेन भासमानं सालोक्यं सारूप्यं च न प्रार्थये किंतु वस्तुतः मोक्ष-रूपं सायुज्यम् एवेच्छामीत्य् अर्थः। एतेन सालोक्यादि-भेदेन मोक्षे तारतम्यम् अस्तीत्य् अपास्तम्। सालोक्यादिषु क्वचिन् मुक्ति-शब्द-प्रयोगस् तु भाक्तः। मुक्ति-तारतम्यं वदद्भिस् तु मुक्तिर् एव शिक्षणीया। सर्व-कर्म-निवृत्तौ स्वतः-प्राप्त-ब्रह्मानुभवे तारतम्यायोगात् ॥
सर्व-लोक-सञ्चरणत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
२५. ननु मुक्तस्य अनावृत्तित्व-प्रतिपादनात्
अस्मिन् लोके सञ्चारः कथम्
इति चेत् न;
कर्म-कर्तृत्वस्यैव निषेधात्
स्वेच्छया सञ्चरणोपपत्तेः ।
अतो मुक्तो भगवत्-सङ्कल्पायत्त-स्वेच्छया
सर्वत्र सञ्चरति ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘स्वेच्छया चे’**ति । चकाराद्भगवदिच्छयेत्यपि लभ्यते ॥
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रश्न उठता है कि मुक्तजीव की अनावृत्ति का प्रतिपादन श्रुतियाँ करती हैं, अतएव उसका इस लोक में संचरण कैसे संभव है ? तो यह शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि श्रुतियाँ मुक्तजीव का इस लोक में कर्मजन्य आगमन का ही निषेध करती हैं; किन्तु स्वेच्छा से तो उनका संचरण संभव ही है । अतएव मुक्तजीव भगवान् के संकल्प के अधीन होकर तथा स्वेच्छा से भी सर्वत्र संचरण करता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० – न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’ ( छा० उ० ८।१५।१ ) श्रुति बतलाती है कि मुक्तजीव पुनः इस संसार में नहीं आता है । भगवान् स्वयं कहते हैं- ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।’ अर्थात् मुक्तजीव न तो सृष्टिकाल में उत्पन्न होते हैं और न तो प्रलयकाल में उनका लय होता है । अतः यह कहना कि मुक्तजीव का सभी लोकों में सञ्चरण है; यह उचित नहीं है, क्योंकि मुक्तजीव पुनः इस लोक में नहीं आता है । तो यह शंका करना इसलिए उचित नहीं है कि मुक्तजीव का इस लोक में कर्मकृत सञ्चरण नहीं होता है । वह अपनी इच्छा से तो इस लोक में आ ही सकता है । अथवा मुक्तजीव श्रीभगवान् के संकल्पाधीन होता है, अतएव श्रीभगवान् के सत्यसंकल्प से वह मर्त्यलोक में संचरण कर सकता है । अतएव मुक्त- जीवों का सर्वलोकों में सञ्चरण उपपन्न ही है ।
मूलम्
२५. ननु मुक्तस्य अनावृत्तित्वप्रतिपादनात् अस्मिन् लोके सञ्चारः कथमिति चेत् न; कर्मकर्तृत्वस्यैव निषेधात् स्वेच्छया सञ्चरणोपपत्तेः । अतो मुक्तोभगवत्सङ्कल्पायत्तस्वेच्छया सर्वत्र सञ्चरति ।
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