०९ बद्धः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र बद्धा नाम +अ-निवृत्त-संसाराः ।
ते चतुर्-दश-भुवनात्मकाण्ड-कटाह-वर्तिनो ब्रह्मादि-कीट-पर्यन्ताश् चेतन-विशेषाः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद – बद्धजीव वे चेतन- विशेष हैं, जिनका संसार अनुवर्तित होता रहता है । ये जीव चौदह भुवनात्मक अण्डकटाह के अन्तर्गत निवास करते हैं । ऐसे जीव ब्रह्मा से लेकर एक कीट- पर्यन्त हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

बद्धजीव – बद्धजीव वे हैं, जिनका प्रकृति से संसर्ग बना हुआ है ।
प्रकृति से सम्बन्ध होने पर ही जीव संसार में संसरण करते हैं ।
प्रकृति से सम्बन्ध होने के कारण ही वह पाप-पुण्यं रूप कर्मों को करता है ।
इन पाप-पुण्य रूप कर्मों को करने के कारण ही उन जीवों का – ‘एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सो- ऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः ’ ( छा० उ० ८।१।५ तथा मैत्रायणी उ० ७।७ ) ( अर्थात् यह आत्मा स्वभावतः कर्मबन्ध विनिर्मुक्त, जरा, मृत्यु, शोक, बुभुक्षा तथा पिपासा रहित एवं सत्यकाम तथा सत्यसंकल्पों वाला है ।) इस श्रुति में वर्णित स्वाभाविक स्वरूप तिरोहित हो जाता है । इसीलिए वह संकुचित ज्ञान वाला होकर संसार के आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक नामक तापत्रय रूपी क्लेश, कर्म, कर्मों के परिणाम तथा उनकी वासना से दूषित अन्तःकरण वाला बनकर, अपने किये हुए कर्मों के परिणामस्वरूप सुख, दुःख आदि का अनुभव करता है । प्रकृति के सम्बन्ध के ही कारण वह अनात्मा देहादि को आत्मा समझने लगता है । अनात्मीय वस्तुओं को भी अपना लेना चाहता है । यह संसार चक्राकार है । प्रकृति के सम्बन्ध से संसार होता है । संसार जन्य कर्मों से देह का सम्बन्ध होता है । देह के सम्बन्ध से मिथ्याज्ञान होता है । मिथ्याज्ञान से कर्म होते हैं । उस कर्म से पुनः देह सम्बन्ध होता है । इस प्रकार का संसार-चक्र अनादि है । बद्धजीवों का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है- ‘समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ’ ( मु० उ० ३।१।२ तथा श्वे० ४।७ ) । अर्थात् शरीररूपी एक ही वृक्ष में विद्यमान जीव नियाम्या माया के द्वारा ग्रस्त होकर, अप्रिय संयोग तथा प्रियजन विप्रयोग रूप शोकों का अनुभव करता है । ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्यनशनन् चान्यः अभिचाकशीति’ ( ऋ० अ० २।३।१७; मु० ३।१।१; श्वे० ४।६; ना० उ० ता० १।१; भव सं० २२ ) । अर्थात् सदा साथ-साथ रहने वाले, परस्पर में सुहृद् आत्मा एवं परमात्मा रूपी दो सुपर्ण (पक्षी) एक ही इस शरीर रूपी वृक्ष पर निवास करते हैं । उनमें एक ( जीवात्मा ) उस कर्मजन्य शरीरं रूपी वृक्ष के फलों का भोग करता है और दूसरा परमात्मा उन कर्मों से सदा असंपृक्त रहकर सदा हृष्ट-पुष्ट एवं देदीप्यमान रहता है ।

बद्धजीव अपने पूर्वकृत पुण्य-पाप रूपी कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार की विचित्र अच्छी-बुरी योनियों को प्राप्त करता है। श्रुति भी कहती है- ‘साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन’ (बृ० उ० ४।४।५) । अर्थात् [[१८९]] अच्छे कर्मों को करने वाला ब्राह्मणादि अच्छे शरीरों को प्राप्त करता है और पापकर्मों को करने वाला जीव चाण्डालादि कुत्सित योनियों को प्राप्त करता है । श्रुति कहती कि पवित्र कर्मों को करने वाला जीव पुण्यात्मा होता है तथा वेद निषिद्ध पापकर्मों की करने वाला जीव पापी होता है । तथा हि- ‘तद् य इह रमणीयाचरणा अभ्याशो यत्ते रमणीयाँ योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनि वा क्षत्रिययोनि वा वैश्ययोनि वा, अथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन्, श्वयोनि वा सूकरयोनि वा चाण्डालयोनि वा’ ( छा० उ० ५।१०।७ ) । अर्थात् उन अनुशयी जीवों में परलोक से इस लोक में आने के लिए उपयोगी भुक्तशिष्ट परिपक्व सुकृत कर्मयुक्त होता है तो वह जीव, ब्राह्मणयोनि, या क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि को प्राप्त करता है । जो . परलोक से इस लोक में आने वाला अनुशयी भुक्तशिष्ट परिपक्व कुत्सित कर्मयुक्त होता है तो वह कुत्ते की योनि को अथवा शूकर की योनि को अथवा चाण्डाल की योनि को प्राप्त करता है । बद्धजीवों के अन्तर्गत ब्रह्मा से लेकर एक तृण- पर्यन्त आते हैं ।

मूलम्

तत्र बद्धा नाम अनिवृत्तसंसाराः । ते चतुर्दशभुवनात्मकाण्डकटाहवर्तिनो ब्रह्मादिकीटपर्यन्ताश्चेतनविशेषाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

११. श्रीमन्-नारायण-नाभि-कमलाद् उत्पन्नो ब्रह्मा
ब्रह्मणो रुद्रः
पुनर् ब्रह्मणः सनकादि-योगिनो
नारदादि-देव-ऋषयो
वसिष्ठ-भृग्व्-आदि–ब्रह्म-ऋषयः
पुलस्त्य-मरीचि-दक्ष-कश्यपादि-नव-प्रजापतयो बभूवुः।
तेभ्यो देवा, दिक्-पालाश्,
चतुर्दशेन्द्राश्, चतुर्दश मनवः
असुराः, पितरः, सिद्ध-गन्धर्व–किन्-नर–किम्-पुरुष–विद्याधरादयो वसवो
रुद्रा आदित्या अश्विनौ च
दानव-यक्ष-राक्षस-पिशाच-गुह्यकादयः॥
एवं देव-योनयो बहुविधाः ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘ब्रह्मणो रुद्र’ इति । ‘ब्रह्मणः पुत्राय ज्येष्ठाय’ इत्यादिश्रुतेः,

धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात् प्रजापतेः ।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥ (भाग ३ स्क० १२ अ०) इत्यादिस्मृतेश्च ब्रह्मपुत्रत्वं महादेवस्य सिद्धम् । पश्वादयो जरायुजा । तापत्रयाभितप्ताः - इति । आध्यात्मिकमाधिभौतिकमाधिदेविकं चेति तापत्रयं दुःखहेतुः । रोगादिसर्पदंशादिवज्रपातादि चेति यथाक्रमम् । तैरभितप्ता इत्यर्थः । वद्धानां दुर्दशा श्रीभागवतेषु रञ्जनोपाख्याने, श्रीमल्लोकाचार्यप्रणीते संसारसाम्राज्ये रहस्यग्रन्थे च सम्यङ् निरूपिताऽस्ति ।

शास्त्रवश्याः करणायत्तज्ञानां मनुष्यादयः । शास्त्रावश्या तिर्यगादयः । कैवल्यपरा - प्रकृतिवियुक्तज्ञाननन्दस्वरूपस्वात्मानुभवकामा । मोक्षपराः - अनधिकातिशयानन्द, परब्रह्मानुभवकामाः । जीवात्मानन्दस्त्वल्पः । शिष्टं स्पष्टम् । हार्दे - हृदि स्थितेऽन्तर्यामिणि परमपुरुषे । आतिवाहिका - गन्तॄणां गमयितारं देवा । अर्चिरादिमार्गगतातिवाहकाः सङ्गृहीताः वात्स्यवरदगुरुभिस्तत्त्वसारे

अर्चिरहः सितपक्षानुदगयनाब्दमरुदर्केन्दून् ।
अपि वैद्युतवरुणेन्द्रप्रजापतीनातिवाहिकानाहुः ॥

इति । अत्र प्रकरणे वर्णितः ब्रह्मविदुषः शरीरादुत्क्रमणादिप्रकार अर्चिरादिमार्गेण गमनप्रकारश्च, ब्रह्ममीमांसायाश्चतुर्थाध्यायद्वितीयतृतीयपादयोर्विचार्य निर्णीतोऽस्ति । कौषीतक्यादौ समासतः श्रुतो मुक्तभोगप्रकारः प्रमेयशेखरार्चिरादिरहस्यत्रयसारादिरहस्यगन्थेषु विस्तरशोऽवगन्तव्यः ।

शिवप्रसादः (हिं)

श्रीमन्नारायण के नाभिकमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए । ब्रह्मा से रुद्र उत्पन्न हुए । पुनः ब्रह्मा से सनकादि योगीगण, नारदादि देवर्षिगण, वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षिगण तथा पुलस्त्य, मरीचि, दक्ष एवं कश्यप आदि नव प्रजापतिगण उत्पन्न हुए। उन सबों से देवता, दिक्पाल, चौदह इन्द्र, चौदह मनु, असुर, पितृगण, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर, किम्पुरुष तथा विद्याधर आदि वसुगण, रुद्रगण, आदित्यगण, दोनों अश्विनीकुमार, दानव, यक्ष, राक्षस तथा गुह्यक आदि उत्पन्न हुए । इस प्रकार देवताओं की योनियाँ अनेक प्रकार की होती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

बद्धजीव जिन शरीरों को प्राप्त करते हैं, उन शरीरों को चार भागों में विभक्त किया जाता है - १. देव शरीर, २. मनुष्य शरीर, ३. तिर्यक् शरीर तथा ४. स्थावर शरीर ।

देवसृष्टि का वर्णन - भगवान् नारायण के नाभिकमल से सर्वप्रथम ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है । ब्रह्मा से रुद्र की उत्पत्ति होती है । पुनः ब्रह्मा से सनक आदि योनियों की उत्पत्ति होती है । सनकादि योगी चार हैं- सनक, सनन्दन, सनत् तथा कुमार । ब्रह्मा से ही नारद आदि देवर्षि तथा वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए तथा ब्रह्मा से ही नव प्रजापतियों की भी उत्पत्ति हुई ।

नव प्रजापति - १. भृगु, २. पुलस्त्य, ३. पुलह, ४. क्रतु, ५. अंगिरा, ६. मरीचि, ७. दक्ष, ८. अत्रि तथा ९. वसिष्ठ – ये नव प्रजापति हैं । पुराणों में इनको नव ब्रह्मा कहा गया है—

‘भृगुं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुमङ्गिरसं तथा ।
मरीचि दक्षमत्रिश्च वसिष्ठं चैव मानसान् ॥
नव ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ।’
(वि० पु० १।७।५-६ )

दश दिक्पाल – उन्हीं से देवताओं और दश दिक्पालों की उत्पत्ति हुई – १. इन्द्र, २. अग्नि, ३. यम, ४. निर्ऋति, ५. वरुण, ६. वायु, ७. कुबेर, ८. शङ्कर ( ईशान ), ९ अनन्त और १० ब्रह्मा – ये दश दिक्पाल हैं ।

चौदह मनु-
चौदह मनु और चौदह इन्द्र भी इन प्रजापतियों से ही उत्पन्न होते हैं - १. स्वायम्भुव मनु, २. स्वारोचिष् मनु, ३. उत्तम मनु, ४. तामस मनु, ५. रैवत मनु, ६. चाक्षुष मनु, ७. वैवस्वत मनु ८. सार्वाणि मनु, ९. दक्षसावर्णि मनु १०. ब्रह्मसावणि मनु, ११. धर्मसावणि मनु, १२. रुद्रपुत्र सार्वाणि मनु, १३. रुचि मनु तथा १४. भौम मनु—ये चौदह मनु हैं ।

[[१९०]]

चौदह इन्द्र — प्रत्येक मनुओं के काल में भिन्न इन्द्र भी होते हैं । इस प्रकार मन्वन्तर भेद से इन्द्रों की संख्या भी चौदह हो जाती है । वे इन्द्र ये हैं – १. इन्द्र, २. विपश्चित् इन्द्र, ३. सुशान्ति इन्द्र, ४. शिव इन्द्र, ५ विभु इन्द्र, ६. मनोजव इन्द्र, ७. पुरन्दर इन्द्र, ८. बलि इन्द्र, ९. अद्भुत इन्द्र, १०. शान्ति इन्द्र, ११. वृष इन्द्र, १२. ऋतुधामा इन्द्र, १३. दिवस्पति इन्द्र और १४. शुचि इन्द्र ।

असुर, पितृगण, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर, किम्पुरुष, विद्याधर आदि देवयोनियाँ ब्रह्मा के मानस पुत्रों से उत्पन्न होती हैं। उनसे ही वसुगण उत्पन्न होते हैं ।

एकादश रुद्र - एकादश रुद्रों की भी उत्पत्ति ब्रह्मा के मानस पुत्रों से ही होती है – १. मन्यु, २. मनु, ३. महिम्नस् ४. महाशिव, ५. क्रतुध्वज, ६. उग्ररेता, ७. भव, ८, काल, ९. वामदेव तथा १० धृतव्रत, ११. रुद्र – ये एकादश रुद्र हैं ।

द्वादशादित्य - आदित्यों की संख्या बारह हैं– १. धाता, २. अर्यमा, ३. मित्र, ४. वरुण, ५. इन्द्र, ६. विवस्वान्, ७. पूषा, ८. पर्जन्य, ९. अंश, १०. भग, ११. त्वष्टा और १२. विष्णु — ये द्वादशादित्य अथवा सूर्य कहलाते हैं ।

अश्विनीकुमार दो है, इन्हें देवताओं का वैद्य कहा जाता है । दानव, यक्ष, राक्षस, पिशाच एवं गुह्यकों की भी उत्पत्ति ब्रह्मा के मानसपुत्रों से होती है । इस प्रकार देवताओं की अनेक प्रकार की योनियाँ हैं ।

मूलम्

११. श्रीमन्नारायणनाभिकमलात् उत्पन्नो ब्रह्मा। ब्रह्मणो रुद्रः। पुनर्ब्रह्मणः सनकादि- योगिनो नारदादिदेवऋषयो वसिष्ठभृग्वादिब्रह्मऋषयः पुलस्त्यमरीचिदक्षकश्यपादि- नवप्रजापतयो बभूवुः। तेभ्यो देवा दिक्पालाश्चतुर्दशेन्द्राश्चतुर्दशमनवः असुराः पितरः सिद्धगन्धर्वकिन्नरकिम्पुरुषविद्याधरादयो वसवो रुद्रा आदित्या अश्विनौ च दानव-यक्षराक्षसपिशाचगुह्यकादयः एवं देवयोनयश् च । एवं देवयोनयो बहुविधाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१२. मनुष्या अपि ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रादि-जाति-भेदात् बहु-विधाः ।
तिर्यञ्चो ऽपि पशु-मृग-पक्षि-सरीसृप-पतङ्ग-कीटादि-भेदात् बहु-विधाः ।
स्थावरा अपि वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुध-तृणादि-भेदात् बहु-विधाः ।
वृक्षादीनां जलाहरणोपयुक्त-किञ्चिज्-ज्ञान-सम्बन्धो ऽस्त्य् एव ।+++(4)+++
“अ-प्राणवत्सु स्वल्पा सा” इत्य् उक्तत्वात् ।
अतो देव-मनुष्य-तिर्यक्-स्थावर-भेद-भिन्ना बद्धाः ।

शिवप्रसादः (हिं)

मनुष्य भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि जाति के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं । तिर्यक्योनि के जीव भी पशु, मृग, पक्षि, सरीसृप ( सरक कर चलने वाले जीव सर्प इत्यादि ), पतङ्ग ( उड़ने वाले कीड़े ), कीट आदि के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं । स्थावर जीव भी वृक्ष, गुल्म, लता, वीरुध तथा तृण आदि के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं । वृक्ष आदि में भी जल सोखने आदि के अनुकूल कुछ ज्ञान का सम्बन्ध है ही; क्योंकि कहा गया है कि प्राणरहित जीव में अत्यन्त अल्पज्ञान रहता है । इस प्रकार बद्धजीवों के चार भेद हैं- देव, मनुष्य, तिर्यक् एवं स्थावर ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

मनुष्ययोनि के जीवों को सामान्यतया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, इन चार भागों में विभक्त किया गया है । तिर्यक योनि के भी जीवों के पशु, मृग, पक्षी, सरी- सृप, पतंग, कीट आदि अनेक भेद हैं । स्थावर जीवों के भी वृक्ष, गुल्म, लता, विरुध, तृण आदि अनेक भेद हैं ।

प्रश्न उठता है कि वृक्ष इत्यादि को जीव कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि वे चैतन्य शून्य हैं और जीव के लक्षण में चेतनत्व धर्म भी अन्तः प्रविष्ट है । अतएव अचेतन वृक्षादि को जीव नहीं कहना चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए यतीन्द्रमत- दीपिकाकार कहते हैं कि स्थावर वृक्षादि को जीव मानने में कोई भी आपत्ति इसलिए नहीं है कि वे भी चेतन हैं । चैतन्याश्रय होना ही चेतनत्व कहलाता है । वृक्षादि में भी ज्ञान है, उसी के द्वारा वे जल इत्यादि का शोषण किया करते हैं । यह दूसरी बात है कि स्थावरों में ज्ञान अत्यल्प मात्रा में रहता है । कहा भी गया है कि- ‘अप्राणवत्सु स्वल्पा सा’ अर्थात् प्राणरहित स्थावर जीवों में ज्ञान की मात्रा अत्यन्त अल्प हुआ करती है ।

मूलम्

१२. मनुष्या अपि ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रादिजातिभेदात् बहुविधाः । तिर्यञ्चोऽपि पशुमृगपक्षिसरीसृपपतङ्गकीटादिभेदात् बहुविधाः । स्थावरा अपि वृक्षगुल्मलता-वीरुधतृणादिभेदात् बहुविधाः । वृक्षादीनां जलाहरणोपयुक्तकिञ्चिज्ज्ञान-सम्बन्धोऽस्त्येव । “अप्राणवत्सु स्वल्पा से”त्युक्तत्वात् । अतो देवमनुष्य-तिर्यक्स्थावरभेदभिन्ना बद्धाः ।

[[१८७]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

१३. एते पुनः जरायुजाण्डजोद्भिज्ज-स्वेदजाश् च भवन्ति ।
देव-मनुष्या जरायु-जाः
तेषु ब्रह्म-रुद्रादयः सनकादयश् च
सीता-द्रौपदी–धृष्ट-द्युम्न-प्रभृतयोः भूत-वेतालादयश् च अ-योनिजाः
तिर्यग्-आदयश् च जरायु-जा,
अण्ड-जाः स्वेद-जाश् च भवन्ति ।
स्थावरादय उद्भिज्-जाः

शिवप्रसादः (हिं)

बद्धजीवों के दूसरे प्रकार से भी चार भेद किये जाते हैं— जरायुज, अण्डज, उद्भिज एवं स्वेदज । इनमें देवता एवं मनुष्य जरायुज हैं । उनमें भी ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता, सनकादि योगिगण, सीता- द्रोपदी तथा धृष्टद्युम्न आदि मनुष्य तथा भूत, वेताल आदि देवयोनियाँ अयोनिज हैं । तिर्यग् आदि तो जरायुज, अण्डज तथा स्वेदज भी होते हैं । स्थावर आदि उद्भिज्ज होते हैं ।

[[१८८]]

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जीवों का प्रकारान्तर से भी चार भेद किये जाते हैं— जरायुज, अण्डज, उद्भिज एवं स्वेदज । जरायु से उत्पन्न होने वाले जीव जरायुज कहलाते हैं । गर्भ के ऊपर अत्यन्त पतले चमड़े की जो एक झिल्ली पड़ी रहती है, उसे जरायुज कहते हैं । अतएव वे सभी जीव, जो गर्भ से उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं । देवता एवं मनुष्य जरायुज जीवों के अन्तर्गत हैं । इनमें भी कुछ ऐसे जीव हैं, जो माँ की योनि से नहीं [[१९१]] उत्पन्न हैं । जैसे – देवताओं में ब्रह्मा, रुद्र तथा सनकादि अयोनिज हैं । मनुष्यों में भी सीता, द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न इत्यादि अयोनिज हैं । भूत - वेताल आदि भी अयोनिज होते हैं । इनकी उत्पत्ति किसी माँ के गर्भ से नहीं हुई है ।

तिर्यग् जीवों में कुछ तो जरायुज होते हैं, जैसे – पशु, मृग आदि तथा कुछ अण्डज होते हैं, जैसे- पक्षी, सरीसृप आदि । कुछ स्वेदज भी होते हैं, जैसे– यूका आदि ।

स्थावर जीवों को उद्भिज इसलिए कहा जाता है कि ये पृथिवी को फाड़कर उत्पन्न होते हैं ।

मूलम्

१३. एते पुनः जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदजाश्च भवन्ति । देवमनुष्या जरायुजाः । तेषु ब्रह्मरुद्रादयः सनकादयश्च सीताद्रौपदीधृष्टद्युम्नप्रभृतयोः भूतवेतालादयश्च अयोनिजाः । तिर्यगादयश्च जरायुजा अण्डजाः स्वेदजाश्च भवन्ति । स्थावरादय उद्भिज्जाः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१४. एवम्-भूता बद्धा
बीजाङ्कुर-न्यायेन विषम-प्रवाहतया
अनादिकाल-प्रवृत्ताविद्या–कर्म-वासना-रुचि-प्रकृति-सम्बन्धैः
चक्रवत् परिवर्तमानैः
गर्भ-जन्म-बाल्य-यौवन-
जागर-स्वप्न-सुषुप्ति-मूर्छा-
जरा-मरण-स्वर्ग-नरक-गमनादि-विविध-विचिन्नावस्थावन्तः
अनाद्य्-अनन्त-प्रकारातिदुःसह-तापत्रयाभितप्ताः
स्वतः प्राप्त-भगवद्-अनुभव-विच्छेदवन्तश् च।

शिवप्रसादः (हिं)

इस प्रकार के बद्धजीव बीजाकुर न्याय से विषम प्रवाह के रूप में अनादि काल से प्रवृत्त अविद्या जन्य सदा परिवर्तित होते रहने वाले कर्म-वासना तथा रुचि, प्रकृति तथा सम्बन्धों के द्वारा गर्भ, जन्म, बाल्य, यौवन, जागर, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा, जरा, मरण, स्वर्गगमन, नर्कगमन आदि अनेक प्रकार की विचित्र अवस्थाओं से युक्त होकर, अनादि काल से अनन्त प्रकार के अत्यन्त दुःसह तापत्रय से संतप्त रहते हैं तथा स्वभावतः प्राप्त भगवदनुभव से पराङ्मुख रहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ये सभी जीव बद्ध कोटि में हैं । इनका संसार सदा अनुवर्तित होता रहता है । अनादिकाल से प्रवृत्त अविद्या के वशवर्ती बनकर ये तापत्रय का अनुभव करते रहते हैं । तापत्रय तीन प्रकार के दुःख हैं, जिन्हें सभी संसारी जीवों को अभनुव करना पड़ता है । ये तापत्रय निम्न हैं-

( १ ) आध्यात्मिक दुःख - शरीर में होने वाले दुःखों को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं । ये दुःख दो प्रकार के होते हैं - शारीरिक और मानसिक ।

वात, पित्त एवं कफ की विषमता के कारण होने वाले ज्वर, व्रण, कफ आदि रोगजन्य दुःख शारीरिक दुःख हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा ईर्ष्या जन्य एवं अभिलषित रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द की अप्राप्ति जन्य दुःख मानस दुःख हैं ।

( २ ) आधिभौतिक दुःख – वे हैं, जो दूसरे मनुष्यों, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि से प्राप्त होते हैं ।

( ३ ) आधिदैविक दुःख – वे हैं, जो यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि का आवेश हो जाने के कारण प्राप्त होते हैं ।

संसार में कोई ऐसा जीव नहीं है, जो इनमें से किसी न किसी प्रकार के दुःख से ग्रस्त न हो । बद्धजीव स्वभावतः प्राप्त परमात्मानुभव से प्रायः पराङ्मुख रहा करते हैं ।

मूलम्

१४. एवम्भूता बद्धा बीजाङ्कुरन्यायेन विषमप्रवाहतया अनादिकालप्रवृत्ताविद्या- कर्मवासनारुचिप्रकृतिसम्बन्धैः चक्रवत्परिवर्तमानैः गर्भजन्मबाल्ययौवनजागर- स्वप्नसुषुप्तिमूर्छाजरामरणस्वर्गनरकगमनादिविविधविचिन्नावस्थावन्तः अनाद्यनन्तप्रकारातिदुःसहतापत्रयाभितप्ताः स्वतः प्राप्तभगवदनुभवविच्छेदवन्तश्च।

शास्त्र-वश्य-जीवानां विभागः

विश्वास-प्रस्तुतिः

१५. ते द्विविधाः – शास्त्रवश्याः, तद्-अ-वश्याश्चेति ।
तयोर् मध्ये कारणायत्त-ज्ञानानाम् बद्धानां शास्त्र-वश्यता ऽस्ति ।
तिर्यक्-स्थावरादीनां तन् नास्ति।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद – बद्धजीवों के दो भेद होते हैं— शास्त्रपरतन्त्र तथा शास्त्र - अपरतन्त्र । जिन जीवों को इन्द्रियों के अधीन ज्ञान होते हैं, वे जीव शास्त्रवश्य कहलाते हैं । तिर्यक् एवं स्थावर जीवों को इन्द्रियाधीन ज्ञान नहीं होते हैं, अतएव वे शास्त्रवश्य नहीं है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र०— इस अनुच्छेद में यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि बद्धजीवों का भेद प्रकारान्तर से भी दो प्रकार का होता है- ( १ ) शास्त्रवश्य जीव तथा ( २ ) शास्त्रा- वश्य जीव । शास्त्रवश्य जीव वे हैं, जिनके कल्याण के लिए शास्त्र अनेक प्रकार के कर्मों का विधान करता है । शास्त्र उन्हीं लोगों के जीवनोन्नयन के साधनों का विधान करता है, जिन जीवों को इन्द्रियों के माध्यम से रूप- रसादि तत् तत् विषयों का ज्ञान होता है । ऐसे जीवों में देव एवं मनुष्य आते हैं । वास्तविकता यह है कि शास्त्र मनुष्यों के लिए ही उनके जीवनोन्नयन के विभिन्न साधनों का विधान करता है । अतएव शास्त्रवश्य जीवों की कोटि में मुख्य रूप से मनुष्य ही आते हैं । तिर्यक् कोटि अथवा स्थावर कोटि के जीव शास्त्रवश्य नहीं हैं ? उनके लिए शास्त्र किसी भी प्रकार का विधान नहीं करता है । वे तो भोगयोनियाँ हैं ।

मूलम्

१५. ते द्विविधाः – शास्त्रवश्याः, तद्-अ-वश्याश्चेति । तयोर्मध्ये कारणायत्तज्ञानानाम् बद्धानां शास्त्रवश्यतास्ति । तिर्यक्स्थावरादीनां तन्नास्ति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शास्त्रवश्या द्विविधाः – बुभुक्षवो मुमुक्षवश् चेति ।
तत्र बुभुक्षवस् त्रैवर्गिक-पुरुषार्थ-निष्ठाः पुरुषाः ।
ते द्वि-विधाः – अर्थ-काम-परा धर्म-पराश् चेति ।
केवलार्थ-काम-परा देहात्माभिमानवन्तः ।
धर्मपराश् च –
“अलौकिक-श्रेयः-साधनं धर्मः, चोदना-लक्षणोऽर्थो धर्म”
इति लक्षण-लक्षित-यज्ञ-दान-तपस्-तीर्थ-यात्रादि-निष्ठाः ।
ते च देहातिरिक्तात्मनः पर-लोको ऽस्तीति ज्ञानवन्तः।

शिवप्रसादः (हिं)

शास्त्रपरतन्त्र जीव दो प्रकार के होते हैं - बुभुक्षु एवं मुमुक्षु । बुभुक्षु जीवों की त्रिवर्ग पुरुषार्थ में निष्ठा रहती है । बुभुक्षु जीव भी दो प्रकार के होते हैं - १. अर्थ एवं कामपरायण तथा २. धर्मपरायण । जो बुभुक्षु जीव केवल अर्थ एवं काम को चाहते हैं, वे देहात्माभिमानी होते हैं । धर्मपरायण बुभुक्षु जीव मानते हैं कि- धर्म के द्वारा अलौकिक कल्याण की प्राप्ति होती है । जिन कार्यों को करने के लिए वैदिक वाक्य प्रेरणा देते हैं, वे ही कर्म धर्म कहलाते हैं । यह जानकर वे यज्ञ, दान, तपस्या तथा तीर्थयात्रा किया करते हैं । वे देह को आत्मा न मानकर यह मानते हैं कि देह से भिन्न पदार्थ ही आत्मा है । उनको यह ज्ञान रहता है कि परलोक है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

शास्त्रवश्य जीवों के दो भेद हैं- बुभुक्षु तथा मुमुक्षु ।
बुभुक्षु जीवों का स्वरूप तथा भेद - वुभुक्षु जीव वे हैं, जो भोगों को चाहते हैं । ‘भोक्तुमिच्छु : ’ यह बुभुक्षु शब्द की व्युत्पत्ति है । मुमुक्षु जीव वे हैं, जो मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैं । पुरुषार्थं चार हैं— अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष । इनमें धर्म, अर्थ एवं काम, इन तीन पुरुषार्थों का समुदित नाम त्रिवर्ग है । ’ त्रयाणाम् - धर्मार्थकामानां वर्गः - समुदाय : त्रिवर्गः ’ है । वुभुक्षु जीवों की निष्ठा इस त्रिवर्ग की ही प्राप्ति में रहती है । वे इनको ही प्राप्त करना चाहते हैं । ये बुभुक्षु जीव भी दो प्रकार के होते हैं- १. काम एवं अर्थ परायण —— ऐसे लोग किसी न किसी प्रकार सम्पत्ति प्राप्त करके अपनी कामनाओं को पूर्ण करना चाहते हैं । काम एवं अर्थ की प्राप्ति के लिए धर्मा- धर्म का विचार नहीं रखते हैं । उनका एकमात्र लक्ष्य होता है धन कमाना और अपनी अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति करना । ऐसे लोग देहात्माभिमानी होते हैं । देह ही आत्मा है । इस शरीर से जितना आराम कर लो, उतनी ही जीवन की सफलता है । देह को छोड़कर कोई न तो आत्मा नामक पदार्थ है और न कोई लोक- परलोक है । धर्माधर्म कुछ भी नहीं होता, इस प्रकार की ही धारणा ऐसे लोगों की होती है । २. दूसरे प्रकार के बुभुक्षु जीव वे हैं, जो धर्मपरायण होते हैं । वे भी धन एवं काम का सेवन करते हैं, किन्तु शास्त्र - विहित मार्ग से ही सम्पत्ति का अर्जन करके शास्त्र - विहित मर्यादा का पालन करते हुए वे काम का सेवन करते हैं । उनको हर कार्य को करने के पूर्व धार्मिक मर्यादा का सर्वप्रथम ध्यान रहता है । शास्त्रों में तत् तत् पुरुषों के लिए वर्ण एवं आश्रम के अनुसार जीवन-यापनार्थ तत् तत् कर्तव्य कर्मों का निर्देश किया गया है । वे निर्दिष्ट कर्तव्य ही धर्म हैं । उनका पालन करना प्रत्येक मनुष्य के लोक एवं परलोक दोनों में कल्याणकारी होता है । यतीन्द्रमत- दीपिकाकार कहते हैं कि पारलौकिक कल्याण का साधन ही धर्म कहलाता है । धर्म का लक्षण करते हुए महर्षि जैमिनि कहते हैं कि शास्त्र जिन कार्यों को कर्तव्य रूप से करने के लिए प्रेरित करते हैं, उन कार्यों का अनुष्ठान ही धर्म है । शास्त्र यज्ञ, दान, तपस्या तथा तीर्थयात्रा को करने का विधान करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं–

[[१९४]]

‘यज्ञदानतपः कार्यं न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।’ अर्थात् यज्ञ, दान एवं तपस्या, इन कार्यों का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए, इनको कभी भी नहीं त्यागना चाहिए । ये कर्म मनुष्यों को पवित्र बना देते हैं । ‘पावनानि मनीषिणाम् ।’ धर्मपरायण जीव इन कर्मों का अनुष्ठान पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति की कामना से करते हैं । ये लोग मानते हैं कि इन शरीरादि से भिन्न आत्मा है । अतएव इन शरीरादि के विनष्ट हो जाने पर वह आत्मा बनी रहती है, जो स्वर्गादि सुखों को अथवा नारकीय दुःखों को भोगती है । हम जो यज्ञ, दान आदि करते हैं, उन कर्मों का फल हम इस जन्म में अथवा जन्मान्तर में अथवा स्वर्गादि लोकों में प्राप्त करते हैं । किये हुए कर्मों का फल अवश्य भोगता पड़ता है । अतएव जीवनोन्नयनकामियों को शास्त्रनिषिद्ध कर्मों का आचारण कभी भी नहीं करना चाहिए ।

मूलम्

शास्त्रवश्या द्विविधाः – बुभुक्षवो मुमुक्षवश्चेति । तत्र बुभुक्षवस्त्रैवर्गिकपुरुषार्थनिष्ठाः पुरुषाः । ते द्विविधाः – अर्थकामपरा धर्मपराश्चेति । केवलार्थकामपरा देहात्माभिमानवन्तः । धर्मपराश्च – “अलौकिकश्रेयःसाधनं धर्मः, चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म” इति लक्षणलक्षितयज्ञ-दानतदस्तीर्थयात्रादिनिष्ठाः । ते च देहातिरिक्तात्मनः परलोकोऽस्तीति ज्ञानवन्तः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म-परा द्वि-विधाः –
देवतान्तर-परा भगवत्-पराश् चेति ।
देवतान्तर-परा ब्रह्म-रुद्रेन्द्राग्न्य्-आद्य्-आराधन-पराः ।
भगवत्-पराश् च – “आर्तो जिज्ञासुर् अर्थार्थी" इत्य्-उक्ताधिकारिणः ।
आर्तो भ्रष्टैश्वर्य-कामः, अर्थार्थी तु अ-पूर्वैश्वर्य-कामः ।

शिवप्रसादः (हिं)

धर्मपरायण बुभुक्षु जीव भी दो प्रकार के होते हैं — देवतान्तंर में श्रद्धा रखने वाले तथा श्रीभगवान् में श्रद्धा रखने वाले । देवतान्तरपरायण जीव ब्रह्मा, रुद्र, अग्नि तथा इन्द्र आदि की आराधना करते हैं ।

भगवत्परायण जीव तो-आर्त, जिज्ञासु तथा अर्थार्थी हुआ करते हैं । अपने विनष्ट ऐश्वर्य को पुनः प्राप्त करने की इच्छा वाले जीव आते हैं । अपूर्व ऐश्वर्य को चाहने वाले जीव अर्थार्थी कहलाते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

धर्मपरायण जीवों के भी दो भेद किये जाते हैं - १. देवतान्तर की आराधना करने वाले तथा २. भगवान् की आराधना करने वाले । देवातान्तरपरायण जीव ब्रह्मा, रुद्र, अग्नि तथा इन्द्र आदि देवताओं की आराधना करके अपना पारलौकिक कल्याण करना चाहते हैं तथा लौकिक काम्य वस्तुओं को प्राप्त करना चाहते हैं । किन्तु भगवत्परायण जीव तो सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति श्रीभगवान् की ही आराधना से प्राप्त करना चाहते हैं । वे जानते हैं कि देवतान्तरों की आराधना करने पर भी श्रीभगवान् ही उन-उन देवताओं के माध्यम से तत् तत् फलों को प्रदान किया करते हैं । श्रीभगवान् ही सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं । श्रीभगवान् की ही आराधना से सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति की जा सकती है ।

भगवत्परायणं जीव तीन प्रकार के होते हैं—– आर्त, जिज्ञासु तथा अर्थार्थी । आर्त जीव वे हैं, जो अपने पूर्व के विनष्ट ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए श्रीभगवान् की आराधना करते हैं । अर्थार्थी जीव वे हैं, जिनको पहले से कोई भी ऐश्वर्य प्राप्त नहीं था, किन्तु श्रीभगवान् की आराधना करके वे पूर्व में अप्राप्त ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहते हैं । आर्तं तथा अर्थार्थी, इन दोनों प्रकार के अधिकारियों में नाममात्र का भेद है। दोनों अधिकारी ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, अतएव दोनों में समानता है । जिज्ञासु जीव वे हैं, जो श्रीभगवान् की आराधना करके प्रकृति से वियुक्त अर्थात् परिशुद्ध आत्मा के स्वरूप को जानना चाहते हैं ।

मूलम्

धर्मपरा द्विविधाः – देवतान्तरपरा भगवत्पराश्चेति । देवतान्तरपरा ब्रह्मरुद्रेन्द्राग्न्याद्याराधनपराः । भगवत्पराश्च – “आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी" इत्युक्ताधिकारिणः । आर्तो भ्रष्टैश्वर्यकामः अर्थार्थी तु अपूर्वैश्वर्यकामः ।

[[१९२]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

१६. मुमुक्षवो द्विविधाः – कैवल्य-परा मोक्ष-पराश् चेति ।
कैवल्यं नाम ज्ञान-योगात् प्रकृति-वियुक्त-स्वात्मानुभव-रूपम् ।
सोऽनुभवः अर्चिर्-आदि-मार्गेण
परमम् पदं गत-वत एव
क्वचित् कोणे पति-त्यक्त-पत्नी-न्यायेन
भगवद्-अनुभव-व्यतिरिक्त-स्वात्मानुभव
इत्य् आहुः।
केचित् अर्चिर्-आदि-मार्गेण गतस्य
पुनर् आवृत्त्य्-अ-श्रवणात्
प्रकृति-मण्डल एव क्वचिद् देशे स्वात्मानुभव इत्य्-अप्य् आहुः ।

शिवप्रसादः (हिं)

मुमुक्षु जीव दो प्रकार के होते हैं- १. कैवल्य को चाहने वाले और २. मोक्ष को चाहने वाले । ज्ञानयोग के द्वारा प्रकृति-वियुक्त अपनी आत्मा का अनुभव करना ही कैवल्य कहलाता है । इस प्रकार का आत्मानुभव उसी पुरुष को होता है, जो अचिरादि मार्ग से परमपद को जाता है । अपने पति से अलग होकर किसी कोने में बैठकर अपने सौन्दर्य को देखकर प्रसन्न होने वाली पत्नी के समान ही भगवान् के अनुभव से रहित वह स्वात्मानुभव नीरस है, ऐसा आचार्यों का कहना है । कुछ लोगों का कहना है कि कैवल्यार्थी पुरुष प्रकृतिमण्डल में ही रहकर अपनी आत्मा का अनु- भव करता है, क्योंकि श्रुतियाँ बतलाती हैं कि अचिरादि मार्ग से गया हुआ जीव पुनः इस संसार में नहीं आता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

[[१९३]]

मुमुक्षु जीवों का स्वरूप तथा भेद – शास्त्रवश्य जीवों का दूसरा भेद मुमुक्षु है । मुमुक्षु जीव वे हैं, जो त्रिवर्ग से पराङ्मुख रहकर मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थ को प्राप्त करना चाहते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए तत् तत् साधनों का अनुष्ठान करते हैं । मुमुक्षु जीवों के दो भेद हैं— कैवल्य को चाहने वाले तथा मोक्ष को चाहने वाले ।

कैवल्यपरायण जीव-ज्ञानयोग के उत्पन्न हो जाने से प्राकृतिक सम्बन्ध से रहित जो ज्ञानस्वरूप तथा आनन्दस्वरूप आत्मा का स्वरूप है, उसका अनुभव करना ही कैवल्य है । ‘केवलस्य भावः कैवल्यम्’ यह कैवल्य शब्द की व्युत्पत्ति है । [[१९५]] कैवल्य को प्राप्त करने की इच्छा वाले जीव अपने उसी परिशुद्ध रूप का अनुभव करने की कामना से तत् तत् साधनों का अनुष्ठान करते हैं ।

कैवल्यानुभव के मार्ग — इस कैवल्यानुभव के मार्ग के विषय में विचारकों के दो प्रकार के विचार हैं- प्रथम प्रकार के विचारकों का कहना है कि कैवल्यपरायण जीव भी अचिरादि मार्ग से ही परमपद में जाकर अपने ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा का स्वयम् अनुभव करता है । किन्तु यह स्वात्मानन्दानुभव उसी प्रकार से नीरस माना जाता है, जिस प्रकार कोई अत्यन्त कमनीया सुन्दरी पति से बिल्कुल दूर रहकर घर के किसी कोने में एकान्त में बैठकर अपने सौन्दर्य का अवलोकन करके प्रसन्नता का अनुभव करे । किन्तु उसकी यह प्रसन्नता का अनुभव सीमित है । पत्नी अपने अनिन्द्य सौन्दर्यातिशय के सर्वातिशायी आनन्द का अनुभव तो तब कर सकती है; जब कि उसके साथ उसका पति भी विद्यमान हो । पति-संश्लिष्ट पत्नी को अपने सौख्य का सर्वातिशायी आनन्द प्राप्त होता है । सभी जीवों के परमप्राप्य श्रीभगवान् ही है, अतएव सभी जीवों के एकमात्र पति श्रीभगवान् ही हैं । महर्षि बादरायण भी ‘अत एव चानन्याधिपतिः ’ ( ब्र० सू० ४।४।९ ) सूत्र में इस भाव को अभिव्यक्त करते हैं । इस सूत्र का यह भी अभिप्राय है कि मुक्तावस्था में जीवों के श्रीभगवान् को छोड़- कर कोई भी पति नही रह जाता है । ‘नास्ति अन्यः - -परमात्मव्यतिरिक्तः अधिपति- यस्यासी’ यही अनन्याधिपति शब्द की व्युत्पत्ति है । ‘नास्ति अधिपतिर्यस्य’ ऐसा विग्रह करने पर तो ‘अनधिपतिः’ शब्द बनेगा । अतएव जीवों के स्वाभाविक अधिपति श्रीभगवान् ही हैं । अपने अधिपति के अनुभव के साथ ही अपने स्वरूप का अनुभव सर्वातिशायी सुखावह होता है । कैवल्यानुभव में भगवदनुभव नहीं होता है, अतएव यह आत्मा का अनुभव नीरस-सा है ।

अचिरादि मार्ग - अचिरादि मार्ग का वर्णन करते हुए श्रीवात्स्य वरदाचार्य कहते हैं-

‘मुक्तोऽर्चिर्-दिन–पूर्व-पक्ष-षड्-उदङ्-मासाब्द-वातांशुमान्
ग्लौर्-विद्युद्-वरुणेन्द्र-धातृ-महितः सीमान्त-सिन्ध्व्-आप्लुतः ।
श्रीवैकुण्ठम् उपेत्य नित्यम् अजडस् तस्मिन् परब्रह्मणः,
सायुज्यं समवाप्य नन्दति चिरं तेनैव धन्यः पुमान् ॥’

अर्थात् इस शरीर से उत्क्रमण करने वाला मुक्तजीव चन्द्रलोक के बाद श्रीवैकुण्ठ- लोक के मार्ग में विरजा नदी के पार करने से पूर्व द्वादश आतिवाहिकों के द्वारा समा- दूत होता है । वे आतिवाहिक गण क्रमशः ये हैं - १. अच्यंभिमानी देवता, २. दिना- भिमानी देवता, ३. पूर्वपक्ष ( शुक्लपक्ष ) के अभिमानी देवता, ४ . उत्तरायणा- भिमानी देवता, ५. वर्षाभिमानी देवता, ६. वायु के अभिमानी देवता, ७. सूर्या-भिमानी देवता, ८. चन्द्राभिमानी देवता, ९. विद्युत् के अभिमानी देवता, १०. वरुणाभिमानी देवता, ११. इन्द्राभिमानी देवता तथा १२. ब्रह्माभिमानी देवता ।

[[१९६]]

बारह पर्वों वाले वैकुण्ठमार्ग में तत्-तत् लोकों के अभिमानी देवता ही अतिवाहिक रूप में उस मुक्तजीव का सम्मान करते हैं । इसके पश्चात् प्रकृतिमण्डल की सीमा- भूमि पर विद्यमान दिव्य विरजा नदी को पार करके जीव अमानव-कर से स्पृष्ट होकर आविर्भूत गुणाष्टक अपने परिशुद्ध रूप से सामाम्नान करता हुआ श्रीवैकुण्ठलोक में पहुँचकर श्रीभगवान् का सान्निध्य प्राप्त करके तथा उनके द्वारा अभिनंदित होकर कृतकृत्य हो जाता है ।

गीता में इस अर्चिरादि मार्ग का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-

‘अग्निर्-ज्योतिर्-अहश्-शुक्लः
षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति
ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ ’ ( गी० ८।२४ )

अर्थात् अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छह महीने में गये हुए ( शरीरपात किये हुए ) ब्रह्मवेत्ता जन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं । यहाँ अग्नि रूप ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष तथा उत्तरायण के छह महीने श्रुति प्रोक्त संवत्सर आदि के प्रदर्शक हैं । छान्दोग्योपनिषद् की ‘तेऽचिषमभिसम्भवन्ति अर्चिषोऽरहरह्न आपूर्यमाण- पक्षमापूर्यमाणपक्षाद् यान् षडुदङ्गेति मासास्तान् मासेभ्यस्संवत्सरम् ’ ( छा० ५। १०1१ ) इत्यादि श्रुति में भी अर्चिरादि मार्ग का स्पष्ट रूप से वर्णन है ।

आतिवाहिकों का निर्देश करते हुए वरदाचार्य ने भी कहा है-

‘अचिर्-अहस्-सित-पक्षान्
उदग्-अयनाब्द-मरुद्-अर्केन्दून् ।
अपि वैद्युद्-वरुणेन्द्र-
प्रजापतीन् आतिवाहिकान् प्राहुः ॥’

कैवल्यमार्ग के विषय में कुछ एकदेशी विचारकों का मत है कि कैवल्यार्थी जीव प्रकृतिमण्डल के ही किसी एकदेश में रहकर अपने परिशुद्धस्वरूप का अनुभव करता है, क्योंकि अचिरादि मार्ग से जाकर श्रीवैकुण्ठ में पहुँचने वाले जीव का स्वभाव होता है कि वह श्रीभगवान् के साथ ही सभी काम्य पदार्थों का अनुभव करता है ।

मूलम्

१६. मुमुक्षवो द्विविधाः – कैवल्यपरा मोक्षपराश्चेति । कैवल्यं नाम ज्ञानयोगात् प्रकृतिवियुक्तस्वात्मानुभवरूपम् । सोऽनुभवः अर्चिरादिमार्गेण परमम् पदं गत-वत एव क्वचित् कोणे पतित्यक्त(वियुक्त)पत्नीन्यायेन भगवदनुभवव्यतिरिक्तस्वात्मानुभव इत्याहुः। केचित् अर्चिरादिमार्गेण गतस्य पुनरावृत्त्यश्रवणात् प्रकृतिमण्डल एव क्वचिद्देशे स्वात्मानुभव इत्यप्याहुः ।

मोक्ष-पराणां मुमुक्षूणां भेदाः

विश्वास-प्रस्तुतिः

१७. मोक्षपराश्च द्विविधाः – भक्ता प्रपन्नाश् चेति ।
भक्ताः पुनर्-अधीत-साङ्ग–स-शिरस्क-वेदाः
पूर्वोत्तर-मीमांसा-परिचयात्
चिद्–अ-चिद्-विलक्षणम् अनवधिकातिशयानन्द-स्वरूपं
निखिल-हेय-प्रत्यनीकं समस्त-कल्याण-गुणात्मकम् ब्रह्म अवधार्य
तत्-प्राप्त्य्-उपाय-भूतां साङ्ग-भक्तिं स्वीकृत्य
तया मोक्षम् प्राप्तुकामाः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - मोक्ष-परायण जीव दो प्रकार के होते हैं-भक्तं एवं प्रपन्न । साङ्ग एवं सशिरस्क वेदों का अध्ययन करके पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा का ज्ञान प्राप्त कर लेने के कारण जिनको यह निश्चय हो गया है कि श्रीभगवान् त्रिविध चेतनों तथा त्रिविध अचेतनों से विलक्षण स्वभाव वाले हैं । वे समस्त त्याज्य दोषों के विरोधी हैं तथा सभी कल्याणकारी गुणों से युक्त हैं। उन श्रीभगवान् की प्राप्ति के साधन रूप भक्ति को अपनाकर वे मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

मोक्ष-परायण जीव के दो भेद किये जाते हैं-भक्त एवं प्रपन्न । भक्त जीव वे हैं, जो साङ्ग एवं सशिरस्क वेदों का अध्ययन करके दोनों मीमांसाओं का अध्ययन करते हैं तथा उस अध्ययन के पश्चात् यह निश्चय करते हैं कि श्रीभगवान् ही प्राप्य हैं । वेदों के छह अङ्ग बतलाए गये हैं- १. छन्दःशास्त्र, २. कल्प, ३. शिक्षा, ४. निरुक्त, ५. ज्योतिष् और ६. व्याकरण । इनका परिचय द्वितीयावतार की भावप्रकाशिका में दिया जा चुका है । वेदों का शिरोभाग वेदान्त ही है । वेदान्त और अङ्गों के साथ वेदों का अध्ययन करने के पश्चात् अधिकारी वेदार्थों का श्रवण करने में प्रवृत्त होता है । वेदों के अर्थों का निर्णय मीमांसाशास्त्र में किया गया है । पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा के श्रवण करने के पश्चात् अधिकारी को इस अर्थ का निर्णय हो जाता है कि श्रीभगवान् ही जीवों के लिए प्राप्य हैं । श्रीभगवान् की प्राप्ति ही मोक्ष का फल है । संसार में दो प्रकार के तत्त्व पाये जाते हैं – चेतन तत्त्व एवं अचेतन तत्त्व । चेतन तत्त्व तीन प्रकार के होते हैं - बद्ध, मुक्त एवं नित्य । इसी प्रकार अचेतन भी तीन प्रकार के होते हैं- शुद्धसत्त्व, मिश्रसत्त्व और सत्त्वशून्य या काल । श्रीभगवान् इन तीनों प्रकार के चेतनों तथा तीनों प्रकार के अचेतनों से विलक्षण हैं । वे सीमातीत आनन्दस्वरूप हैं । वे सभी त्याज्य दोषों के प्रतिभट हैं तथा सभी कल्याणकारी गुणों के आश्रय हैं । उन भगवान् की प्राप्ति भक्तियोग के द्वारा होती है । उपनिषदों में ब्रह्मप्राप्ति के साधनभूत बत्तीस प्रकार की साङ्ग भक्ति-विद्याओं का वर्णन है । भक्ति के अङ्ग अष्टाङ्गयोग तथा विवेकादि साधन - सप्तक हैं । इन सबों की चर्चा पीछे धर्मभूत - ज्ञान - प्रकरण में की जा चुकी है । इनमें से किसी भी विद्या को अपनाकर वह श्रीभगवान् की प्राप्ति रूप मोक्ष को प्राप्त करना चाहता है ।

मूलम्

१७. मोक्षपराश्च द्विविधाः – भक्ता प्रपन्नाश्चेति । भक्ताः पुनरधीतसाङ्गसशिरस्क-वेदाः पूर्वोत्तरमीमांसापरिचयात् चिदचिद्विलक्षणम् अनवधिकातिशयानन्दस्वरूपं निखिलहेयप्रत्यनीकं समस्तकल्याणगुणात्मकम् ब्रह्म अवधार्य तत्प्रारप्त्युपायभूतां साङ्गभक्ति स्वीकृत्य तया मोक्षम् प्राप्तुकामाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१८. भक्ताव् अधिकारस् त्रैवर्णिकानाम् एव ।
देवादीनाम् अप्य् अस्ति -
अर्थित्व-सामर्थ्ययोः सम्भवात् ।

शिवप्रसादः (हिं)

ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य, इन तीन वर्णों का ही भक्ति में अधिकार हैं, देवताओं का भी भक्तियोग में अधिकार है । क्योंकि देवताओं में भगवत्प्राप्ति का अर्थित्व तथा भक्ति का सामर्थ्य है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

उपनिषदो में वर्णित जो भक्ति रूप बत्तीस विद्याएँ है, उनमें त्रैवणिकों का ही अधिकार है, क्योंकि वे सभी विद्याएँ वैदिक हैं । वेदाध्ययन में त्रिवर्ण का ही अधिकार [[१९८]] महर्षियों ने बतलाया है । अतएव औपनिषद् भक्ति-विद्याओं में शूद्रों का अधिकार निषेध किया गया है । महर्षि बादरायण ने ब्रह्मसूत्रों के अपशूद्राधिकरण में निर्णीत किया है कि वेदाध्ययन में त्रिवर्ण का ही अधिकार है । वेदाध्ययन में अधिकार न होने के कारण शूद्रों का वैदिक भक्ति-विद्याओं को अपनाने का अधिकार नहीं है ।

ब्रह्मविद्या में देवताओं का अधिकार - प्रतिपादन - प्रश्न है कि भक्तियोग का अनुष्ठान करने में देवताओं का अधिकार है कि नहीं ? पूर्वमीमांसकों का कहना है कि देवताओं का ब्रह्मविद्या रूपी भक्तियों में अधिकार नहीं है, क्योंकि देवताओं के विग्रहादि में कोई भी प्रमाण नहीं है । ब्रह्मोपासना शरीरधारियों के लिए ही साध्य है । यह उपासना संस्कृत मन से ही साध्य है । मन, विवेक आदि साधन - सप्तक से संस्कृत होता है । ये सात साधन शरीरधारी जीवों के द्वारा ही अनुष्ठित हो सकते हैं । अतएव ब्रह्मोपासना के लिए करण - कलेवरधारी जीव होना अनिवार्य है । करण- कलेवर रहित देवताओं का इस उपासना के करने में कोई भी अधिकार नहीं है ।

इस शंका का समाधान करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं— ‘तदुपर्यपि बादरायणः सम्भवात्’ ( ब्र० सू० १।३।२५ ) । अर्थात् मनुष्यों से ऊपर रहने वाले देवताओं का भी ब्रह्मोपासना में अधिकार है, क्योंकि देवताओं में भी ब्रह्मोपासना के लिए अथित्व एवं सामर्थ्य देखा जाता है । ब्रह्मोपासना के लिए तीन प्रकार के सामर्थ्य अपेक्षित हैं – जन्म - सामर्थ्य, कर्म - सामर्थ्य और बुद्धि-सामर्थ्यं । इन तीनों प्रकार के सामर्थ्यो का सद्भाव देवताओं में पाया जाता हैं । सृष्टि के प्रारम्भ में सुना जाता है कि परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में जगत् की सृष्टि करके नाम-रूप का व्याकरण करता है । परमात्मा के द्वारा देवताओं के नाम-रूप के व्याकरण का अर्थ है- -उनको करण - कलेवरादि का प्रदान । करण-कलेवर धारण करने मात्र से ही देवताओं का जन्म -सामर्थ्यं सिद्ध होता है । किञ्च पटुतर शरीरेन्द्रिय धारणमात्र से ही इन्द्रादि देवताओं का कर्म - सामर्थ्य तथा बुद्धि-सामर्थ्य भी सिद्ध होता है । छान्दोग्यो- पनिषद् के आठवें अध्याय में सुना जाता है कि प्रजापति ने इन्द्र को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया । ‘वज्रहस्तः पुरन्दरः’ ( तै० आ० २।६।७ ) अर्थात् इन्द्र अपने हाथ में वज्र धारण करते हैं । ‘तेन इन्द्रो वज्रमुदयच्छत्’ ( तै० आ० २।४।१२ ) अर्थात् इसलिए इन्द्र ने अपना वज्र ऊपर की ओर उठाया । ये श्रुतियाँ भी देवताओं के कर्म - सामर्थ्य तथा बुद्धि-सामर्थ्य का प्रतिपादन करती हैं ।

देवताओं में ब्रह्मोपासना के लिए अपेक्षित अर्थित्व सामर्थ्य भी पाया जाता है । ब्रह्मा के वेदापहार के कारण तापानुभव, शंकर का ब्रह्म-शिरोच्छेदन जन्य ब्रह्महत्या से आध्यात्मिकादि दुःखों को प्राप्त करना, इन्द्र का असुरों से पराजित होकर अपने राज्य से निर्वासित होना आदि सुना जाता है । ये दुःखी देवता अपने दुःखापनोदन के लिए ब्रह्मोपासना करें, इसमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार अथित्व एवं सामर्थ्य सम्पन्न होने के कारण देवताओं का ब्रह्मविद्या में अधिकार है ।

[[१९९]]

किञ्च ब्रह्म की उपासना करके ही जीव देवता बनते हैं । देवता बन जाने पर भी वे ब्रह्मोपासना के प्रकार एवं फल को भूलते नहीं हैं, अतएव उनका ब्रह्मविद्या में अधिकार है ।

मूलम्

१८. भक्तावधिकारस्त्रैवर्णिकानामेव । देवादीनामप्यस्ति । अर्थित्वसामर्थ्ययोः सम्भवात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१९. न शूद्राधिकारः - अपशूद्राधिकरण-विरोधात् ।

शिवप्रसादः (हिं)

भक्तियोग में शूद्रों का अधिकार इसलिए नहीं है कि उनका अधिकार मानने पर अपशूद्राधिकरण से विरोध होगा ।

मूलम्

१९. न शूद्राधिकारः । अपशूद्राधिकरणविरोधात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२०. भक्ति-स्वरूपं तु बुद्धिपरिच्छेदे प्रतिपादितम् ।
भक्ता द्विविधाः – साधन-भक्ति-निष्ठाः साध्य-भक्ति-निष्ठाश् च ।
व्यासादयः साधन-भक्ति-निष्ठाः
श्रीपराङ्कुशादयः साध्य-भक्ति-निष्ठाः

शिवप्रसादः (हिं)

भक्ति के स्वरूप का निरूपण धर्मभूत ज्ञान के परिच्छेद में किया जा चुका है। भक्त जीव दो प्रकार के होते हैं- १. साधनभक्ति में निष्ठा रखने वाले तथा २. साध्यभक्ति में निष्ठा रखने वाले । व्यास आदि साधनभक्तिनिष्ठ हैं । नाथमुनि आदि साध्यभक्तिनिष्ठ हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

साध्यभक्ति तथा साधनभक्ति की चर्चा धर्मभूतज्ञान - प्रकरण में की गयी है ।

मूलम्

२०. भक्तिस्वरूपं तु बुद्धिपरिच्छेदे प्रतिपादितम् । भक्ता द्विविधाः – साधनभक्ति- निष्ठाः साध्यभक्तिनिष्ठाश्च । व्यासादयः साधनभक्तिनिष्ठाः । श्रीपराङ्कुशादयः /नाथादयः साध्यभक्तिनिष्ठाः ।

प्रपन्नानां स्वरूपं भेदाश्च

विश्वास-प्रस्तुतिः

२१. आकिञ्चन्यानन्य-गतिकत्व-धर्म-विशिष्टो भगवन्तम् आश्रितः प्रपन्नः
सोऽपि द्वि-विधः –
त्रैवर्गिक-परो मोक्ष-परश् चेति ।
त्रैवर्गिक-परो नाम भगवत एव धर्मार्थ-कामाभिलाषी।
मोक्ष-परस् तु सत्-सङ्गान् नित्यानित्य-विवेके सति
संसारे निर्वेदात्
वैराग्ये उत्पन्ने
मोक्षेच्छायां जातायां
तत्-सिद्ध्य्-अर्थम्
“आचार्यो वेद-सम्पन्न” इत्य्-आद्य्-आचार्य-लक्षण-लक्षितं गुरुं संश्रित्य
तद्-द्वारा पुरुष-कार-भूतां श्रियम् प्रतिपद्य
भक्त्याद्य्-उपायान्तरे अशक्तः,
अत एवाकिञ्चनानन्यगतिः,
श्रीमन्-नारायण-चरणाव् एव उपायत्वेन यः स्वीकरोतिप्रपन्नः
प्रपत्तिः सर्वाधिकारा।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - अकिञ्चन तथा अनन्यगति होकर श्रीभगवान् की शरणागति करने वाले जीव प्रपन्न कहलाते हैं ।
प्रपन्न दो प्रकार के होते हैं - १. त्रिवर्गैकपरायण तथा २. मोक्षपरायण । जो जीव श्रीभगवान् की ही उपासना करके उनसे ही धर्म, अर्थ एवं काम, इन तीनों पुरुषार्थों को चाहते हैं, वे त्रिवर्गपरायण हैं । मोक्ष- परायण प्रपन्न जीव तो सत्संग के द्वारा नित्यानित्य वस्तु-विवेक को प्राप्त कर संसार से निर्विण्ण हो जाता है । फलतः वैराग्य के उत्पन्न हो जाने से उनमें मोक्ष को प्राप्त करने की जब इच्छा उत्पन्न हो जाती है तो उस मोक्ष को प्राप्त करने के लिए वैदिक आचार्य का संश्रयण करके, उसके द्वारा पुरुषकारस्वरूपा श्रीदेवीजी की शरणागति करके, वेदों में वर्णित भक्ति आदि विभिन्न उपायों में असमर्थ होने के कारण अकि- ञ्चन तथा अनन्यगति होकर भगवान् श्रीमन्नारायण के चरणों को ही मोक्ष प्राप्त करने के साधन रूप से अपनाता है । प्रपत्ति करने में सभी जीवों का अधिकार है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

प्रपन्न जीव

भा० प्र०

मोक्षपरायण अधिकारियों के दो भेद उद्दिष्ट किये जा चुके हैं - भक्त एवं प्रपन्न । भक्तों के स्वरूप तथा भेद निरूपित किये जा चुके हैं । इस अनुच्छेद में प्रपन्नों के स्वरूप तथा भेद निरूपित किये जा रहें हैं । प्रपन्न जीव श्रीभगवान् को अपना एकमात्र शरण मानते हैं । भगवान् से भिन्न वे अपना न तो किसी को प्राप्य मानते हैं और न तो रक्षक । मेरा जो कुछ भी होगा भगवान् से ही होगा, अन्य किसी दूसरे से कुछ भी नहीं होगा, इस प्रकार की भावना ही भगवान् के प्रति अनन्य - गतित्व की भावना है । ऐसे जीव भगवान् के प्रति सदा दीन बने रहते हैं । वे मानते हैं कि मेरा इतना सुकृत नहीं हो सकता है कि मैं अपने कर्तव्यों के बल पर श्रीभगवान् का कृपापात्र बन सकूं । भगवान् स्वभावतः निर्हेतुक करुणासागर हैं, अतएव वे अपनी कृपा से ही मुझे भी अपना लेंगे । इस प्रकार की भावना ही श्रीभगवान् के प्रति अकिञ्चनता की भावना है । ‘हे भगवन् ! मेरे पास कोई भी साधन तथा सामर्थ्य नही है, आप मुझे अपना लें’ यही भावना आकिञ्चन्य की भावना है । इस आकिञ्चन्य तथा अनन्यगतित्व की भावना से भावित होकर श्रीभगवान् को एक- मात्र अपना रक्षक मानना ही प्रपन्नों का लक्षण है ।

प्रपन्न जीवों के भी दो भेद किये जाते हैं—त्रिवर्गपरायण और मोक्षपरायण । त्रिवर्गपरायण जीव श्रीभगवान् की ही आराधना करके उनसे ही धर्म, अर्थ और काम को भी प्राप्त करना चाहते हैं । वे अपनी आराधना का विषय किसी दूसरे देवता को नहीं बनाते हैं ।

मोक्षपरक जीव वे हैं, जो सत्संग को प्राप्त कर नित्यानित्य वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । संसार की अनित्यता को जानकर वे संसार तथा संसार के साधनों से उदासीन हो जाते हैं । ऐसा करने के कारण उनके भीतर संसार के प्रति वैराग्य हो जाता है। वे निश्चय कर लेते हैं कि धर्म, अर्थ, एवं काम, ये तीनों पुरुषार्थ अनित्य हैं । मोक्ष ही एकमात्र नित्य पुरुषार्थ है । अतएव धर्मार्थकाम - जन्य संसार अवश्य विनष्ट होगा । इस नश्वर संसार के पीछे अमूल्य मानव जीवन को बर्बाद करना, इस मानव जीवन की प्राप्ति के लक्ष्य से पराङ्मुख होना है । इस तरह से जानकर अधि- कारी के मन में इस नश्वर संसार से वैराग्य हो जाता है और नित्य मोक्ष को प्राप्त करने की इच्छा उन अधिकारियों के मन में उत्पन्न हो जाती है ।

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मोक्ष प्राप्ति के साधन क्या है ? इस बात को जानने के लिए वह सदाचार्य की शरणागति करता है । श्रुति भी कहती है- ‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेद- मायात् नास्त्यकृतः कृतेन । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्, समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ’ ( मु० उ० १।२1११ ) । अर्थात् कर्मार्जित लोकों की भली-भाँति परीक्षा करके वेदज्ञ को चाहिए कि वह संसार से उदासीन हो जाय। क्योंकि मीमांसा श्रवण के समय वह जान लेता है कि नित्य मोक्ष नामक पुरुषार्थं की प्राप्ति किये जाने वाले इन साधनानुष्ठानों से कभी भी संभव नहीं है । अतएव उस मोक्षविद्या का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिकारी को चाहिए कि वह आचार्य के शरण में उपहार- पाणि होकर जाय । आचार्य के गुणों को बतलाते हुए श्रुति कहती है कि आचार्य वही हो सकता है, जो वेदज्ञ तथा ब्रह्मज्ञानी हो । आचार्य के स्वरूप को निरूपित करते हुए श्रीरामानुजाचार्य कहते हैं कि उच्च वंश में उत्पन्न, सदाचारपरायण तथा वेदों का ज्ञाता आचार्य को होना चाहिए - ‘सत्सन्तानप्रसूत सदाचारनिष्ठवेदविदाचार्यः’ ( ब्र० सू० १।१।१ श्रीभाष्य ) । आचार्य के लक्षणों का निर्देश करते हुए श्रीमद्वेदान्तदेशिक कहते हैं-

‘सिद्धं सत्सम्प्रदाये स्थिरधियमनघं श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्,
सत्त्वस्थं सत्यवाचं समयनियतया साधुवृत्त्या समेतम् ।
दम्भासूयादिमुक्तं जितविषयगणं दीर्घबन्धुं दयालुम्,
स्खालित्ये शासितारं स्वपरहितपरं देशिकं भूष्णुरीप्सेत् ॥’

अर्थात् आत्मोज्जीवन चाहने वाले को चाहिए कि वह सत्सम्प्रदाय में दीक्षित, स्थिर बुद्धि वाले, निष्पाप, वेदज्ञ, ब्रह्मवेत्ता, सात्त्विक, सत्यवक्ता, निश्चित समय से साधु कार्यों को सम्पादित करने वाले, दम्भ तथा असूया से रहित, विषयों से पराङ्मुख, लम्बी शिष्य परम्परा वाले; दयालु, उन्मार्गगामी होने पर प्रशासन करने वाले तथा अपना एवं अपने शिष्यों का कल्याण करने वाले पुरुष को आचार्य बनाए ।

आचार्यवरण के पश्चात् आचार्य के माध्यम से अधिकारी श्रीदेवीजी की शरणागति करता है तथा श्रीभगवान् के चरणकमलों को ही अपनी मोक्षप्राप्ति का उपाय मानता है । श्रीदेवी भगवान् की प्राप्ति में पुरुषकारस्वरूपा है । अग्रसारित करने वाले को पुरुषकार कहते हैं । श्रीलक्ष्मीजी आचार्य के द्वारा शरणागति करनेवाले जीवों का पुरुषकार कर देती हैं, जिससे बिना किसी रोक-टोक के जीव श्रीभगवान् की कृपा का पात्र बन जाता है । श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं—

‘मत्प्राप्तिं प्रति जन्तूनां
संसारे पततामधः ।
लक्ष्मीः पुरुषकारत्वे
निर्दिष्टा परमर्षिभिः ॥
ममापि च मतं ह्येतत्
नान्यथा लक्षणं भवेत् ।
अहं मत्प्राप्त्युपायौ वै
साक्षाल्लक्ष्मीपतिः स्वयम् ॥
लक्ष्मीः पुरुषकारेण वल्लभाप्राप्तियोगिनी । एतस्याश्च विशेषोऽयं
निगमान्तेषु शब्द्यते ॥

[[२०२]]

आकिञ्चन्यैकशरणाः
केचिद् भाग्याधिकाः पुनः ।
मत्पादाम्भोरुहद्वन्द्वं
प्रपद्य प्रीतमानसः ॥
लक्ष्मीं पुरुषकारेण वृतवन्तो वरानन । मत्क्षमां प्राप्य सेनेश
प्राप्य प्रापकमेव माम् । लब्ध्वा कृतार्थाः प्राप्यन्ते
माम् एवानन्यमानसाः ॥ '

संसार में अधःपतित जीवों को मेरी प्राप्ति के लिए महर्षिगण श्रीलक्ष्मीजी को पुरुषकार कहते हैं । स्वयं मेरा भी यही मत है, मेरी प्राप्ति का दूसरा कोई मार्ग नहीं है । मैं स्वयं लक्ष्मीपति अपनी प्राप्ति का साधन स्वयं हूँ । मेरी प्रिया लक्ष्मी- जी मेरी प्राप्ति करानेवाली है । लक्ष्मीजी का विशेष वैभव वेदान्तों में वर्णित है । कुछ ही ऐसे भाग्यशाली हैं, जो आकिञ्चन्यविशिष्ट हैं तथा हे सेनेश ! लक्ष्मी की पुरुषकार प्राप्ति-पुरस्सर प्रसन्नमना होकर मेरे दोनों चरणकमलों को ही अपना एकमात्र शरण मान लेते हैं, वे मेरी क्षमा का विषय बन जाते हैं तथा जीवों को प्राप्त करने वाले मुझे ही प्राप्त करके तथा मुझे नमस्कार करके कृतकृत्य हो जाते हैं ।

श्रीलक्ष्मीजी में पुरुषकार की पूर्णता - श्रीवचनभूषणकार लोकाचार्य का कहना है कि पुरुषकार के लिए तीन गुण अपेक्षित हैं - ( १ ) कृपा, ( २ ) पारतन्त्र्य तथा (३) अनन्यार्हत्व । ‘पुरुषकारभवनसमये कृपापारतन्त्र्यमनन्यार्हत्वे चापेक्षितम्’ ( श्रीवचनभूषण ८ ) । श्रीलक्ष्मीजी में ये तीनों गुण पाये जाते हैं । वे अपने आश्रित जीवों पर कृपा का प्रदर्शन करती हैं । वे श्रीभगवान् के परमपरतन्त्र हैं तथा वे श्रीभगवान् के ही योग्य हैं । ‘राघवत्वेऽभवत् सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि ।’ इस विष्णुपुराण की सूक्ति के अनुसार श्रीलक्ष्मीजी जब सीताजी का अवतार ग्रहण कीं तो उनमें ये तीनों गुण स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुए । श्रीरामायण में लक्ष्मीजी के तीन विश्लेष श्रीभगवान् से देखे जाते हैं । लोकाचार्य कहते हैं कि - ‘लक्ष्म्याः प्रथमविश्लेषः स्वकृपाप्रकाशनार्थम् ’ ( श्रीवचनभूषण ९ ) । अर्थात् श्रीभगवान् से प्रथम बार विश्लिष्ट होकर सीताजी ने अपनी कृपा का प्रकाशन किया। रावण के मारे जाने के पश्चात् राक्षसियों का चित्रवध करने के लिए उद्यत हनुमान्जी से राक्षसियों की रक्षा करते हुए सीताजी ने कहा-

‘पापानां वाऽशुभानां वा
वधार्हाणामथापि वा ।
कार्यं कारुण्यमार्येण
न कश्चिन्नापराध्यति ॥ ’
( वा० रा० यु० का ० ११५।४३ )

अर्थात् हे हनुमन् ! आर्य व्यक्ति को चाहिए कि वह पापी, वधार्ह तथा अशुभ जीवों पर भी कृपा करे, क्योंकि संसार में कोई भी ऐसा जीव नहीं, जिससे अपराध न होता हो ।

श्रीजानकीजी ने द्वितीय विश्लेष में अपना भगवत्पारतंत्र्य प्रकाशित किया । ‘मध्यमविश्लेषः पारतन्त्र्यप्रकाशनार्थम् ’ ( श्रीवचनभूषण १० ) । जिस समय भगवान् [[२०३]] श्रीराम की आज्ञा से अन्तर्वत्नी सीता को जंगलों में छोड़कर श्रीलक्ष्मणजी चलने लगे तो सीताजी ने कहा-

‘न खल्वद्यैव सौमित्रे
जीवितं जाह्नवीजले ।
त्यजेयं राजवंशस्तु
भर्तुर्मे परिहास्यते ॥’
( वा० रा० उ० का० ४८१८ )

अर्थात् लक्ष्मण मैं आज ही इस गंगा में डूबकर अपनी जान दे देती, किन्तु मेरे गर्भ में मेरे स्वामी का वंश है । मेरे मरने से उनका राजवंश विनष्ट हो जायेगा, इसीलिए मैं अपनी जान नहीं दे रही हूँ। मैं श्रीराम के अत्यन्त परतन्त्र हूँ ।

श्रीसीताजी केवल श्रीराम के ही योग्य थीं । वे सदा श्रीभगवान् से अनन्य थीं । सुन्दरकाण्ड में सीताजी ने स्वयं कहा – ‘अनन्या राघवेणाहं भास्करेण यथा प्रभा’ ( वा० रा० ५।२१।१५ ) । जिस प्रकार सूर्य से उसकी प्रभा अभिन्न होकर रहती है, उसी प्रकार मैं श्रीराम से अनन्य हूँ । श्रीसीताजी ने अन्तिम विश्लेष में अपने अन- न्यार्हत्व को प्रकाशित किया- ‘अनन्तरं विश्लेषोऽनन्यार्हत्व प्रकाशनार्थम्’ ( श्रीवचन- भूषण ११ ) । रामाश्वमेध के पश्चात् समागत ऋषियों के समक्ष भगवान् राम का मनोभाव जानकर महर्षि वाल्मीकि के आदेश से अपनी अनन्यार्हता को प्रमाणित करते हुए श्रीसीताजी ने कहा-

‘यथाहं राघवादन्यं
मनसाऽपि न चिन्तये ।
तथा मे माधवी देवी
विवरं दातुमर्हति ॥
मनसा कर्मणा वाचा
यथा रामं समर्चये ।
तथा मे माधवी देवी
विवरं दातुमर्हति ॥
यथैतत् सत्यमुक्तं मे
वेद्मि रामात्परं न च ।
तथा मे माधवी देवी
विवरं दातुमर्हति ॥’
( वा० रा० उ० का० ९७।१४-१६ )

अर्थात्

यदि मैंने राम से भिन्न पुरुष का मन से भी चिन्तन नहीं किया है तो हे पृथिवी देवी ! मुझे प्रवेशार्थ विवर दे दे ।

यदि मैं मन, वाणी और कर्म से श्रीराम की समर्चा करती हूँ
तो हे पृथिवी देवी मुझे प्रवेशार्थ विवर प्रदान करे!

यदि मैं सत्य कहती हूँ कि श्रीराम से भिन्न
किसी पुरुष को नहीं जानती हूँ
तो हे पृथिवी देवी ! मुझे विवरमार्ग प्रदान करे ।

और सीताजी की इन बातों को सुनकर
पृथिवी ने ससम्मान दिव्यसिंहासन पर बैठाकर
उन्हें प्रवेशार्थं विवरमार्ग प्रदान करके सम्मानित किया ।

इस प्रकार पूर्णरूप से लक्ष्मीजी में पुरुषकाररूपता सिद्ध होती है ।

प्रपत्ति की सुगमता - प्रपन्न जीव औपनिषद् द्वात्रिंशत् ब्राह्मविद्याओं को अपनाने में असमर्थ होता है । वह अकिञ्चन तथा अनन्यगति होकर भगवान् के दोनों चरण- कमलों को ही श्रीभगवान् की प्राप्ति रूप मोक्ष का उपाय मानता है । इस प्रपत्ति में सभी का अधिकार है। इसमें अधिकारी का नियम नहीं है, सब लोग प्रपत्ति कर

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सकते हैं । प्रपत्ति की सुगमता का वर्णन करते हुए लोकाचार्य कहते हैं - ‘प्रपत्तेर्देश- नियमः कालनियमोऽधिकारिनियमः फलनियमश्च नास्ति’ ( श्री० व० भू० २७ ) । अर्थात् प्रपत्ति में देश, काल, अधिकारी तथा फल का नियम नहीं है । प्रपत्ति में एकमात्र विषय का नियम है । ‘विषय नियम एवास्ति’ ( श्री व० भू० २८ ) ।

मूलम्

२१. आकिञ्चन्यानन्यगतिकत्वधर्मविशिष्टो भगवन्तमाश्रितः प्रपन्नः । सोऽपि द्विविधः – त्रैवर्गिकपरो मोक्षपरश्चेति । त्रैवर्गिकपरो नाम भगवत एव धर्मार्थकामाभिलाषी। मोक्षपरस्तु सत्सङ्गान्नित्यानित्यविवेके सति संसारे निर्वेदात् वैराग्ये उत्पन्ने मोक्षेच्छायां जातायां तत्सिद्ध्यर्थम् “आचार्यो वेद- सम्पन्न” इत्याद्याचार्यलक्षणलक्षितं गुरुं संश्रित्य तद्द्वारा पुरुषकारभूतां श्रियम् प्रतिपद्य भक्त्याद्युपायान्तरे अशक्तः, अत एवाकिञ्चनानन्यगतिः, श्रीमन्ना- रायणचरणावेव उपायत्वेन यः स्वीकरोति स प्रपन्नः । प्रपत्तिः सर्वाधिकारा।

वासुदेवः

सर्वाधिकारेति। अत्र शूद्रादीनाम् अप्य् अधिकारः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२२. स च प्रपन्नो द्वि-विधः – एकान्ती परमैकान्ती चेति ।
यो मोक्ष-फलेन साकम् फलान्तराण्य् अपि
भगवत एवेच्छति स एकान्ती
देवतान्तर-शून्य इत्य् अर्थः ।

भक्ति-ज्ञानाभ्याम् अन्यत् फलम्
भगवतोऽपि यो नेच्छति
परमैकान्ती
स द्विविधः – दृप्त आर्तश् चेति भेदात् ।
“अवश्यम् अनुभोक्तव्यम्”
इति प्रारब्ध-कर्म अनुभवन्
एतद्-देहावसान-समये मोक्षम् अपेक्षमाणो दृप्तः
जाज्वल्यमानाग्नि-मध्य-स्थितेर् इव संसारावस्थितेर्
अतिदुःसहत्वात् प्रपत्त्य्-उत्तर-क्षण-मोक्ष-काम आर्तः

शिवप्रसादः (हिं)

ये प्रपन्न जीव दो प्रकार के होते हैं— एकान्ती और परमैकान्ती । जो मोक्षरूपी फल के साथ ही अन्य फलों को भी श्रीभगवान् से ही प्राप्त करना चाहता है, वह एकान्ती प्रपन्न जीव है । वह किसी भी फल के लिए दूसरे देवता की उपासना नहीं करता है ।

[[२००]] परमैकान्ती प्रपन्न जीव वह है, जो भगवान् से भी भक्ति तथा ज्ञान से भिन्न फलों को नहीं प्राप्त करता है । परमैकान्ती प्रपन्न दो प्रकार के होते हैं- दृप्त एवं आर्त । प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यह जानकर प्रारब्ध कर्मों का फल भोगते हुए इस देह की समाप्ति के समय मोक्ष प्राप्ति को चाहने वाले जीव दृप्त प्रपन्न कहलाते हैं । आर्त-प्रपन्न जीव वे होते हैं, जो संसार में रहना उसी प्रकार से दुःख दसमझते हैं, जिस प्रकार धधकती हुई अग्नि के बीच में रहना कष्टप्रद होता है, अतएव इस असह्य संसार से प्रपत्ति के पश्चात् ही मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

प्रपन्न जीवों के भेद - प्रपन्न जीवों के दो भेद किये गए हैं- एकान्ती और पर मै- कान्ती । एकान्ती प्रपन्न जीव श्रीभगवान् से ही मोक्ष तथा मोक्ष के साथ-साथ अन्य फलों को प्राप्त करना चाहता है । किन्तु परमैकान्ती जीव भगवान् से भी ज्ञान और भक्ति ही चाहता है । वह ज्ञान और भक्ति से भिन्न वस्तुओं को भगवान् से भी नहीं चाहता है । उसे एकमात्र मोक्ष को प्राप्त करने की इच्छा रहती है । मोक्ष-व्यतिरिक्त उसे कुछ भी नहीं चाहिए । उसे मोक्ष की प्राप्ति परमज्ञान और परमभक्ति से ही सम्भव है, अतएव वह भगवान् से भी केवल परमज्ञान और परमभक्ति को ही प्राप्त करना चाहता है ।

परमैकान्ती प्रपन्न जीवों के दो भेद होते हैं- दृप्त और आर्त । दृप्त प्रपन्न वे होते हैं, जो यह जानकर कि प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, अतएव वर्तमान शरीर के पातकाल में मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, क्योंकि शरणागति का यह प्रभाव होता है कि उससे इस शरीर के अन्त में ही मोक्ष प्रदान कर देती है । प्रपत्ति करने वाले जीवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्तिमप्रत्यय अनपेक्षित होता है ।

आर्त प्रपन्न जीव चाहते हैं कि प्रपत्ति करने के पश्चात् ही मेरा यह शरीर छूट जाय । क्योंकि संसार धधकती हुई आग के समान अत्यन्त दुःख देता है । आग भी जीवों को सन्तप्त करने का काम करती है । संसार तो तीन प्रकार के तापों से जीवों को सन्तप्त करता है । वे सन्ताप - आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक हैं ।

मूलम्

२२. स च प्रपन्नो द्विविधः – एकान्ती परमैकान्ती चेति । यो मोक्षफलेन साकम् फलान्तराण्यपि भगवत एवेच्छति स एकान्ती । देवतान्तरशून्य इत्यर्थः । भक्ति-ज्ञानाभ्यामन्यत्फलम् भगवतोऽपि यो नेच्छति स परमैकान्ती । स द्विविधः – दृप्त आर्तश्चेति भेदात् । अवश्यमनुभोक्तव्यमिति प्रारब्धकर्म अनुभवन् एतद्देहावसान-समये मोक्षमपेक्षमाणो दृप्तः । जाज्वल्यमानाग्निमध्यस्थितेरिव संसारावस्थिते- रतिदुःसहत्वात् प्रपत्त्युत्तरक्षणमोक्षकाम आर्तः ।