०७ अदृष्ट-जनित-देशान्तर-फलोपलब्धिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

९. ननु जीवस्य विभुत्वानङ्गीकारे
अदृष्ट-जनित-देशान्तर-फलोपलब्धिः कथम्?

इति चेत्, न ।
जीवस्य सम्बन्धाभावेऽपि
अदृष्टवशाद् एव +उपपद्यते ।
अदृष्टं नाम भगवत्-प्रीत्य्–अ-प्रीति-जनक–जीव-कर्तृक–कर्म-विशेष-जन्यो ज्ञान-विशेषः ।
स विशेषो भगवत्-सङ्कल्प एव विभु-स्वरूपम् भगवन्तम् आश्रितः ।
अतः फलोपलब्धिर् एवेति
न विरोधः ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘ननु जीवस्ये’**ति । एकत्र स्थितस्य जीवस्यादृष्टाद्देशान्तरे भोग्यादेरुत्पत्तिरस्ति । तददृष्टसम्बन्धश्च स्वाश्रयजीवमयोगलक्षणः तदुपादानद्रव्ये जीवविभुत्वे सत्येव घटते इति शङ्कितुराशयः ।
शङ्कां परिहरति **‘ने’**ति । परिहर्तुराशयस्तु अदृष्टं पुण्यपापलक्षणम् । तच्च भगवत्प्रीत्यप्रीतिजनकः जीवकृतविहितनिषिद्धः क्रियानुष्ठानजनितः तत्तज्जीवविषये भगवतो निग्रहानुग्रहसङ्कल्परूपमेव । तत एवं तत्र तत्र तस्य तस्य नियतं भोग्यादेर्जनिः सम्भवतीति कृतं जीवविभुत्वेनेति ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनु० - प्रश्न उठता है कि यदि जीव को विभु स्वीकार न किया जाय तो अदृष्ट- जन्य देशान्तर में होनेवाले फल की उपलब्धि कैसे होगी ? तो यह शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि जीवों का उस देश से संबन्ध नहीं होने पर अदृष्ट के कारण उन फलों की उपलब्धि हो जाती है । जीवों द्वारा किये गये कर्म- विशेष से उत्पन्न उस ज्ञान- विशेष को अदृष्ट कहते हैं, जिससे भगवान् प्रसन्न होते हैं । वह ज्ञान - विशेष भगवान् के सत्यसंकल्प रूप है और वह व्यापक स्वरूप वाले श्रीभगवान् के अधीन हैं । अत एव देशान्तर में होनेवाले फल की उपलब्धि होती है, इसमें कोई भी विरोध नहीं है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अणुपरिमाणक जीवों की देशान्तर में भी फलोपलब्धि का प्रतिपादन

भा० प्र० – नैयायिक एवं वैशेषिक आत्मा को विभु मानते हैं, किन्तु सिद्धान्त में आत्मा को अणुपरिमाण वाला माना जाता है । श्रुतियाँ भी आत्मा को अणुपरि- माणक बतलाती हैं। यहाँ नैयायिक आदि प्रश्न उठाते हैं कि यदि आत्मा अणुस्वरूप [[१८६]] में ही रहेगा । ऐसी स्थिति में देशान्तर में किये गये तत्-तत् फलों की उपलब्धि उसे कैसे उसी देश में है तो वह किसी देश - विशेष कर्मों के फलस्वरूप जो अदृष्ट होता है, उससे होगी ? क्योंकि जीव जिस देश में कर्म करेगा, अदृष्ट उत्पन्न होगा । यदि उस देश से जीब का सम्बन्ध नहीं होगा तो फिर उस जीव को उस कर्मजन्य फल की उपलब्धि कैसे होगी ? तो इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि अणु- परिमाणक जीव का उस देश से सम्बन्ध नहीं होता है, फिर भी उस जीव को देशान्तर में किये गये कर्मजन्य अदुष्टजन्य फल की उपलब्धि होगी ही। क्योंकि जीवों को फलं की उपलब्धि साक्षात् कर्म से तो होती नहीं है । सम्पादित करने के अनन्तर क्षण में ही कर्म समाप्त हो जाते हैं । उन कर्मों को करने से एक अदृष्ट पैदा होता है, जो तब तक स्थायी होता है जब तक कि वह उस किये गये कर्म का फल जीव को प्रदान न कर दें । उस अदृष्ट के द्वारा जीव को उसी प्रदेश में फल की उपलब्धि हो जाती है, जिस प्रदेश में जीव रहता है । यदि यह कहें कि देशान्तर में किये गये कर्म से जन्य अदृष्ट देशान्तर स्थित जीव को कैसे फल प्रदान कर सकता है ? तो इसका उत्तर है कि अदृष्ट एक प्रकार का ज्ञान विशेष होता है, जो जीवों द्वारा किये गये कर्मों से उत्पन्न होता है तथा श्रीभगवान् की प्रसन्नता को उत्पन्न करता है । वह ज्ञान- विशेष भगवत् संकल्प रूप है । श्रीभगवान् स्वरूपतः सर्वव्यापक हैं । सर्वत्र व्यापक श्रीभगवान् सत्यसंकल्प करते हैं कि अमुक जीव को अमुक प्रकार का फल प्राप्त हो जाय । श्रीभगवान् का इस प्रकार का सत्यसंकल्प होते ही उस जीव को वह फल प्राप्त हो जाता है । फल की प्राप्ति के लिए उस जीव का उस देश से सम्बन्ध होना अन्यथासिद्ध है । अतः जीव के अणुत्व का फलोपलब्धि में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है ।

मूलम्

९. ननु जीवस्य विभुत्वानङ्गीकारे अदृष्टजनितदेशान्तरफलोपलब्धिः कथम्? इति चेत्, न । जीवस्य सम्बन्धाभावेऽपि अदृष्टवशादेव उपपद्यते । अदृष्टं नाम भगवत्प्रीत्यप्रीतिजनकजीवकर्तृककर्मविशेषजन्यो ज्ञानविशेषः । स विशेषो भगवत्सङ्कल्प एव विभुस्वरूपम् भगवन्तमाश्रितः । अतः फलोपलब्धिरेवेति न विरोधः ।

वासुदेवः

नन्विति। एतच् चोपपादितं प्राग् अणुत्व-समर्थने (पृ० ६९ पं० १२)।

गुल्मेति। गुल्मा अनतिदीर्घ-निबिड-लता मालत्य्-आदयः। लता दीर्घयायिन्यो द्राक्षातिमुक्ता-प्रभृतयः। वीरुधश् छिन्ना अपि या विविधं प्ररोहन्ति ता गुडूची-प्रभृतयः।

अथवा वृक्षेभ्यो न्यून-परिमाणा उद्भिज्जा गुल्माः कुरबकादयः। लता वल्लयः। बीजकाण्ड-प्ररोहिण्यो वीरुधः। स्वल्पा सेति। अत्र सेत्य् अनेन संवित् परामृश्यते।