०६ मतान्तरनिरासः

विश्वास-प्रस्तुतिः

८. एतेन ज्ञानस्य क्षणिकत्वात् क्षणिक-सन्तान-रूप आत्मेति बौद्ध-पक्षः,
भूत-चतुष्टयात्मकत्वात् देहस्य देहावधिक आत्मेति चार्वाक-पक्षः,
गजदेहे गज-परिमाणः पिपीलिका-देहे तत्-परिमाणः, अतो देहपरिमाण आत्मेति जैन-पक्षः,
कर्तृत्व-भोक्तृत्वादिकम् प्रकृतेर् एव न तु पुरुषस्येति साङ्ख्य-पक्षः,
ब्रह्मांशो जीव इति यादव-पक्षः,
सोपाधि-ब्रह्म-खण्डो जीव इति भास्कर-पक्षः,
अविद्या-कल्पितैक-जीव-वाद-पक्षः,
अन्तःकरणावच्छिन्नानेक-जीव-वाद-पक्ष
इत्य्-एवम्-आदयो विरुद्ध-पक्षा निरस्ताः,
विभुत्व-वाद-पक्षोऽपि ।

शिवप्रसादः (हिं)

[[१८०]]

अनुवाद - उपर्युक्त प्रतिपादन से ही
ज्ञान के क्षणिक होने के कारण ज्ञान-सन्तान ही आत्मा है, यह बौद्धों का पक्ष;

शरीर के पृथिवी, जल, तेज एवं वायु इन चार भूतों का संघात रूप होने के कारण जब तक देह रहता है तब तक आत्मा रहती है, यह चार्वाकों का पक्ष

हाथी के शरीर में हाथी के परिमाण वाली
तथा चींटी के शरीर में चींटी के परिमाण वाली आत्मा रहती है,
यह जैनों का पक्ष;

कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि प्रकृति के ही धर्म हैं, पुरुष के नहीं,
यह सांख्यों का पक्ष

जीव ब्रह्म का एक अंश ( टुकड़ा ) है, यह यादवप्रकाशाचार्य का मत;

सोपाधिक ब्रह्म का एक खण्ड ही जीव कहलाता है,
यह भास्कराचार्य का पक्ष

जीव अविद्या-परिकल्पित है तथा एक है,
यह अद्वैती विद्वानों का पक्ष

अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य के अनेक होने के कारण
जीव अनेक हैं,
यह वाचस्पति मिश्र का पक्ष;

इत्यादि सभी विरुद्ध पक्षों का खण्डन हो गया ।
आत्मा को विभु मानने वालों का भी पक्ष खण्डित हो गया ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - आत्मा के स्वरूप आदि के विषय में भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के विचार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । बौद्ध क्षणिक विज्ञान को आत्मा मानते हैं । इस क्षणिक विज्ञानात्मवाद की समालोचना पीछे की जा चुकी है । चार्वाक देह को ही आत्मा मानते हैं । वे कहते हैं कि पृथिवी, जल, तेज एवं वायु, ये चार ही तत्त्व हैं । इनका ही संघात रूप शरीर है । शरीर ही आत्मा है । शरीर - पर्यन्त ही आत्मा स्थायी है । देहात्मवादी की भी समालोचना हम पीछे कर चुके हैं ।

देहसमपरिमाणात्मवाद – जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो शरीर जितना ही बड़ा होता है, उस शरीर में उतनी ही बड़ी आत्मा होती है । हाथी के शरीर में आत्मा हाथी के आकार की होती है तथा चींटी के शरीर में आत्मा चींटी के आकार की होती है । देहसमपरिमाणात्मवाद का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि- ‘मैं स्थूल हूँ’ ‘मैं कृश हूँ’ इत्यादि प्रतीतियों से सिद्ध होता है कि देह का जैसा परिमाण होता है, वैसा ही परिमाण आत्मा का भी होता है । देह जितना ही स्थूल एवं कृश होता है उतना ही स्थूल एवं कृश बनकर शरीर के भीतर आत्मा भी रहती है । इस प्रकार कर्मानुसार विविध शरीरों को धारण करने वाली आत्मा भी तत् तत् शरीरों के अनुसार परिमाण वाली बन जाती है ।

देहसमपरिमाणात्मवाद का खण्डन - किन्तु जैनों का आत्मपरिमाण विषयक विचार समीचीन नहीं है । जैनों का यह वाद चार्वाकों के देहात्मवाद का अनुसरण करता है । यह दूसरी बात है कि चार्वाक ‘मैं स्थूल हूँ’ ‘मैं कृश हूँ’ इत्यादि प्रतीतियों के आधार पर देह को ही आत्मा मानते हैं,
किन्तु जैन भी उन्हीं प्रतीतियों के आधार पर
देहसमपरिमाणात्मवाद का समर्थन
देह से भिन्न आत्मा को मानकर भी करते ही हैं ।
इस प्रकार वे भी चार्वाकों के ही समान
देहात्माभिमानी हैं ।
इस देहात्माभिमान के ही कारण
वे देहगत परिमाण का आरोप
आत्मा में करते हैं,
अतएव देहात्माभिमानमूलक देहसमपरिमाणात्मवाद अमान्य है;
क्योंकि देह के परिमाण के अनुसार [[१८१]]
यदि आत्मा का परिमाण माना जाय
तो देह के ही रंग-रूप के समान
आत्मा का रंग-रूप भी मानना चाहिए ।
उन्हें काले शरीर में काली आत्मा तथा गोरे शरीर में गोरी आत्मा स्वीकारना चाहिए।
किन्तु जैन विद्वान् ऐसा नहीं मानते हैं; क्यों ?

ब्रह्म- सूत्रकार ने ‘एवं चात्मा कार्त्स्यम्’ इत्यादि तीन सूत्रों में देहसमपरिमाणात्मवाद का खण्डन किया है । उन सूत्रों का अर्थ है कि - आत्मा को देह के समान परिमाण वाला मानने पर यह दोष उपस्थित होता है कि हाथी इत्यादि के उतने स्थूल शरीरों में रहने वाली तथा उनके समान परिमाण वाली आत्माओं का उनसे छोटे पिपीलिका इत्यादि शरीर में प्रवेश होने पर वे आत्माएँ पूर्ण रूप से उन शरीरों में अँट नहीं पायेगी, अतएव उन शरीरों में वे आत्माएँ अधूरी ही रहेगी । यदि यह कहें कि गज- शरीर में रहने वाली आत्मा को जब पिपीलिका शरीर में प्रवेश करना होता है तो वह संकुरित होकर पिपीलिका के ही आकार की हो जाती है । किन्तु ऐसा मानना इस- लिए उचित नहीं है कि आत्मा में संकोच विकास रूप अवस्थाओं को मानने पर आत्मा को विकार तथा अनित्य मानना होगा । जीवात्मा को अन्त में मोक्षावस्था में जो परिमाण प्राप्त होता है, वही स्थायी परिमाण है, क्योंकि मुक्त होने पर आत्मा को पुनः शरीरान्तर नहीं धारण करना पड़ता है । मुक्त होने पर आत्मा तथा उसका परिमाण सदा एकरूप रहते हैं । ऐसी स्थिति में यही मानना चाहिए कि जीवात्मा का जो परिमाण मोक्षावस्था में होता है, वही परिमाण स्वाभाविक है । संसार में भी जीव का वही परिमाण होना चाहिए, उसमें कोई भी अन्तर नहीं हो सकता है । अत एव जीवात्मा को संसार में देह के समान परिमाण वाली मानना ठीक नहीं है ।

सांख्यमत का प्रत्याख्यान
सांख्यमतावलम्बी आत्मा के गुण कर्तृत्व, भोक्तृत्व इत्यादि नहीं मानते हैं ।
वे कहते हैं कि पुरुष असंग है,
अतएव वह निर्विकार एवं कूटस्थ है ।
कर्तृत्व इत्यादि तो प्रकृति के गुण हैं ।
आत्मा तो साक्षी मात्र है ।
जिस प्रकार साक्षी पुरुष उदासीन होने के कारण
किसी कार्य को नहीं करता है,
वह द्रष्टा-मात्र होता है ।
उसी प्रकार पुरुष भी द्रष्टा मात्र है ।
सारे बन्ध एवं मोक्ष तो प्रकृति के होते हैं ।
अतएव कर्तृत्व इत्यादि प्रकृति के गुण हैं,
आत्मा के नहीं ।
किन्तु सांख्यों का यह मत इसलिए उचित नहीं है कि
महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के द्वितीय अध्याय के तृतीय पाद के ‘कर्ता शास्त्रार्थवत्वात्’ सूत्र में
जीव के कर्तृत्व गुण की स्वाभाविकता बतलाया है !
यदि जीवों को कर्ता न माना जाय तो
स्वर्गादि के साधन रूप से
तत्-तत् साधनों के अनुष्ठान का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र
व्यर्थ हो जायेंगे ।+++(5)+++
यही उक्त सूत्र का अभिप्राय है ।
कर्तृत्व ही भोक्तृत्व का प्रयोजन है ।
कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व दोनों परस्पर सम्बद्ध गुण हैं
और ये दोनों जीवों के स्वरूप- निरूपक धर्म के अन्तर्गत आते हैं ।

यादवाभिमत ब्रह्मांश-जीववाद की समालोचना -
यादवप्रकाशाचार्य के मत में जीव ब्रह्म का अंश है ।
जीव और ब्रह्म में स्वाभाविक रूप से
भेद तथा अभेद दोनों [[१८२]] स्वीकार किया जाता है ।
उनके मत में
ब्रह्म अंशी है
और जीव उसका अंश है ।
किन्तु यह मत इसलिए समीचीन नहीं है कि
इस मत के अनुसार
ब्रह्म ही जीवभाव को प्राप्त हुआ है ।
किन्तु ईश्वर सर्वज्ञ है,
इसलिए उनके मतानुसार ईश्वर को सदा यह अनुभव होगा कि
मैं ही अनन्त जीवभाव को प्राप्त हुआ हूँ ।
जीवों को होने वाले दुःख आदि दोष
मुझे ही हो रहे हैं ।+++(5)+++
यहाँ पर यह नहीं कहा जा सकता है कि

जीवों के शरीर भिन्न-भिन्न हैं,
शरीर-भेद के कारण
दूसरे शरीरों में होने वाले सुखादि का पता
ईश्वर को नहीं रहता है ।
अतएव ईश्वर में दोष नहीं लगते हैं;

क्योंकि यदि समझने वाला आत्मा एक है
तो शरीर का भेद
उस ज्ञान को रोक नहीं सकता है ।
किसी भी शरीर में रहकर
आत्मा उससे भिन्न शरीरों में होने वाले अनुभव करेगा ही ।
सौभरी ने पचास शरीर को धारण करके
तत् तत् शरीरों से होने वाले सुखादि का अनुभव किया ।
शरीर-भेद
उनके सुखादि अनुसन्धान को
रोक नहीं सका ।
किञ्च ईश्वर भी तत् तत् अवतारों में
तत् तत् शरीरों को धारण करके भी
उससे भिन्न अवतारों में
अपने किये हुए कार्यों का अनुसंधान करता ही रहा ।
अतएव इस द्वैताद्वैतवाद में यह दोष है कि
सर्वज्ञ ईश्वर को यह सर्वदा अनुसन्धान बना रहेगा कि
हम ही विविध शरीरों में
विविध प्रकार के सुखादि का अनुभव कर रहे हैं
तथा इस संसार में
संसरण कर रहे हैं ।
इस प्रकार ईश्वर में जीव के सभी दोषों के लग जाने के कारण
यादवाभिमत ब्रह्मांश-जीव-वाद ठीक नहीं है ।

सुखादि का भास्कराभिमत सोपाधिक-ब्रह्म-खण्ड-जीव-वाद की समालोचना -
भास्कराचार्य के मत में
उपाधि और ब्रह्म को छोड़कर
तीसरी कोई वस्तु स्वीकार नहीं की जाती है ।
जिस प्रकार महाकाश घट, पट आदि उपाधियों का संबन्ध पाकर
घटाकाश, पटाकाश आदि बन जाता है,
उसी प्रकार ब्रह्म अन्तःकरण इत्यादि
जड़ उपाधियों का सम्बन्ध पाकर
विविध जीव बन जाता है ।
इस मत में प्रपञ्च और संसार इत्यादि सत्य हैं ।
यद्यपि इस मत में शाङ्कर-मत में होने वाले दोष नहीं लगते हैं,
किन्तु इस मत में भी जीव और ब्रह्म में
स्वरूप की एकता स्वीकारी जाती है ।
अतएव जीव-ब्रह्मैक्य मानने वालों के मत में होने वाले
सभी दोष इस मत में संक्रान्त हो जाते हैं ।

इस मत के अनुसार उपाधि का सम्बन्ध पाकर
ब्रह्म ही जीव बन जाता है ।
उपाधि - सम्बन्ध कारण
जीव में होने वाले दुःख इत्यादि दोषों के विषय में मानना पड़ेगा कि
ये दोष ब्रह्म में भी होते हैं।
ऐसी स्थिति में
ब्रह्म में अपहत-पाप्मत्वादि गुणों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों का बाध होगा,
यह इस मत का सबसे बड़ा दोष है ।

उक्त दोष का निराकरण करते हुए
यदि द्वैताद्वैतवादी यह कहें कि

जिस प्रकार लोक में घटाकाश, मठाकाश आदि परिच्छिन्न होते हैं,
किन्तु इन उपाधियों से असंबद्ध महाकाश अपरिच्छिन्न रहता है ,
घटाकाश और महाकाश में जिस प्रकार का भेद है
उसी प्रकार का भेद जीव और ब्रह्म में है ।

जिस प्रकार घटाकाश, भी परस्पर में भिन्न होते हैं,
उसी प्रकार जीव भी परस्पर में भिन्न हैं । [[१८३]]
जिस प्रकार मठाकाश आदि घटाकाश, मठाकाश आदि के
दोष, गुण आदि का संबन्ध महाकाश से नहीं होता,
उसी प्रकार जीवों के दोष इत्यादि से ब्रह्म का सम्बन्ध नहीं होता ।
जीव कहे जाने वाले उपाधि-सम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश
पाप एवं दुःख इत्यादि दोषों का भाजन है,
उपाधि- संबन्ध रहित ब्रह्मप्रदेश निर्दोष है ।
उसी ब्रह्म का निर्दोषत्व श्रुति प्रतिपादित करती है -
अतः इस मत में श्रुति-विरोध का प्रसंग नहीं है ।

किन्तु भास्करमतावलम्बियों द्वारा निर्दिष्ट यह समाधान
उसी वस्तु में संगत हो सकता है,
जो पदार्थ सावयव हो;
निरवयव पदार्थ में यह समाधान
संगत नहीं हो सकता है ।
ब्रह्म निरवयव पदार्थ है ।+++(5 आकाशवत्)+++
शरीर सावयव पदार्थ है ।
सभी अंग इसके अवयव हैं
अथवा अवयव कहे जा सकते हैं ।
अंगुलि में सर्पदंश होने पर
यदि अंगुलि को काटकर फेंक दिया जाय
तो दोष अंगुलि में ही रह जायेगा ।
अवशिष्ट शरीर उस दोष से बच जायेगा ।
इसी प्रकार यदि उपाधियुक्त प्रदेश ब्रह्म से अलग किया जा सके
तो उपर्युक्त व्यवस्था बन सकती है,
किन्तु उपाधियुक्त ब्रह्म-प्रदेश को
ब्रह्म से अलग नहीं किया जा सकता है ।+++(5)+++
क्योंकि ब्रह्म निरवयव पदार्थ है ।
जिस प्रकार आकाश निरवयव पदार्थ हैं,
घट एवं पट आदि उपाधियों द्वारा
आकाश को काटकर टुकड़ा नहीं किया जाता है,
किन्तु वे उपाधि अच्छेद्य आकाश से संयुक्त होते हैं ।
काटने योग्य अवयव न होने से
आकाश सदा निरवयव होकर रहता है ।
उपाधि-संबन्ध से होने वाले दोष-गुण
आकाश में माने जाते हैं ।
इसी प्रकार प्रकृत में भी समझना चाहिए ।
ब्रह्म निरवयव पदार्थ है ।
उसमें कटने योग्य कोई भी अवयव नहीं हैं,
अतएव उपाधि उसे काटकर टुकड़े-टुकड़े नहीं कर सकती है,
अपितु उपाधि उस अच्छेद्य निरवयव ब्रह्म से बद्ध रहती हैं ।
उपाधि - संबन्ध से होनेवाले गुण-दोष
ब्रह्म में होते हैं ।
अतएव औपाधिक भेदाभेदवादियों का मत
समीचीन नहीं है ।

+++(वर्तते तु परिहारान्तरम्।)+++

शाङ्कराभिमत अविद्या-कल्पित जीवैक्यवाद की समालोचना
अद्वैती विद्वान् मानते हैं कि
एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है ।
ब्रह्म व्यतिरिक्त सम्पूर्ण जगत् अविद्या-परि-कल्पित है ।
अविद्योपहित चैतन्य को
जीव कहा जाता है;
यह इस सिद्धान्त की मान्यता है ।

स्वप्नकाल में दिखलायी देनेवाले जीव
जिस प्रकार मिथ्या होते हैं,
क्योंकि जगने के बाद उनका बोध हो जाता है,
उसी प्रकार “तत्-त्वम्-अस्य्”-आदि जन्य
अपरोक्ष ज्ञान हो जाने पर
इस प्रपञ्च भ्रम का बाध हो जाता है ।

जिस प्रकार स्वाप-काल में
सोनेवाला पुरुष जो स्वप्न देखता है,
वही सत्य होता है;
उसके अतिरिक्त दिखलायी देनेवाली सभी वस्तुएँ मिथ्या होती हैं,
उसी प्रकार वह अविद्योपहित चैतन्य
जिस शरीर के भीतर रहकर
यह स्वप्न-जगत् देख रहा है
वही वास्तविक जीव है,
उसके अतिरिक्त सम्पूर्ण दृश्यमान प्रपञ्च मिथ्या है ।

एक वही आत्मा है,
वह निर्विशेष है,
किन्तु अद्वैती विद्वानों के मत में यह दोष है कि
उनके मत में बन्ध और मोक्ष में
कोई अन्तर ही नहीं है ।+++(4)+++

उनसे कहा जाय कि मोक्ष किसे कहते हैं ?
इसके उत्तर में यदि वे यह कहें कि,
वस्तुतः अविद्या का न होना ही मोक्ष है;
तब तो उनके मत में बन्धावस्था में भी मोक्ष होगा, [[१८४]]
क्योंकि उनके मत में ब्रह्म- व्यंतिरिक्त होने के कारण
अविद्या भी मिथ्या है ।

यदि वे यह कहें कि अविद्या का व्यवहार न होना ही मोक्ष है
और बन्धदशा मे ही अविद्या का व्यवहार होता है,
मोक्ष में अविद्या का व्यवहार नहीं होता है ?
तो उनका यह कथन भी समीचीन नहीं है,
क्योंकि बन्धदशा में होनेवाला अविद्या का व्यवहार भी
उनके मत में अतात्त्विक है ।
उनके मत में अविद्या का अतात्त्विक व्यवहार
मोक्षदशा में भी होता है ।
इसीलिए तो शुक, वामदेव आदि के मुक्त होने पर भी
जगत् में संसार का व्यवहार चलता ही रहता है ।
उनके मुक्त होने पर भी
संसार का व्यवहार बन्द हो गया हो,
ऐसी बात तो नहीं है ।
इस प्रकार अविद्योपकल्पित जीवात्मैक्यवाद में बन्ध - मोक्ष की व्यवस्था
उपपन्न नहीं हो पाती है ।

अन्तःकरणावच्छिन्न अनेकजीववाद की समालोचना
श्रीवाचस्पति मिश्र का कहना है कि
अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित चैतन्य ही जीव कहलाता है ।
अतएव अनन्तानन्त अन्तःकरणों में प्रतिबिम्बित होने के कारण
अनन्तानन्त जीवों की उपपत्ति होती है ।
जीवों की अनन्तता के ही कारण
बन्धमोक्ष की व्यवस्था भी अद्वैतवाद में उत्पन्न हो जाती है ।
वे कहते हैं—
ब्रह्म अकेला है ।
उस अकेले ही ब्रह्म के
सभी जीव प्रतिबिम्बभूत हैं ।
ब्रह्म उन सबों का बिम्बस्थानी है ।
सुख-दुःखादि जीवों में ही होते हैं,
भिन्न-भिन्न जीवों के सुखित्व, दुःखित्व इत्यादि की व्यवस्था
उसी प्रकार होती है,
जिस प्रकार एक ही मुख के
मणि, कृपाण और दर्पण आदि उपाधियों में जब प्रतिबिम्ब पड़ते हैं
तो उन प्रतिबिम्बों में महत्त्व, अल्पत्व, मलिनत्व आदि दोष आते हैं,
किन्तु मुख में कोई भी विकार नहीं आता,
वह ज्यों का त्यों रहता है ,
इसी प्रकार सुखित्व, दुःखित्व प्रतिबिम्बभूत जीवों के ही धर्म हैं,
ब्रह्म में ऐसा कोई भी धर्म नहीं होता है ।
यद्य् अपि जीव और ब्रह्म में
कोई भी भेद वास्तविक नहीं है,
किन्तु यह जो बिम्ब–प्रतिबिम्ब-भाव की व्यवस्था है,
वह काल्पनिक है ।

इस पर प्रश्न उठता है कि
इस व्यवस्था का कल्पक कौन है ?
ब्रह्म को इसलिए नही माना जा सकता कि
वह निर्विशेष एवं निर्विकार है ।
जीवों को कल्पक इस - लिए नहीं माना जा सकता है कि
जीवभाव की प्राप्ति होने पर ही कल्पना होगी
और कल्पना के होने पर ही
जीवभाव की प्राप्ति हो सकती है ।
इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष होगा ।

किञ्च जीवाज्ञानवाद का समाश्रयण
बन्धमोक्ष की व्यवस्था के कारण ही स्वीकार की जाती है,
किन्तु इस मत में भी बन्धमोक्ष की व्यवस्था उपपन्न नहीं हो सकती है;
क्योंकि अविद्या का विनाश ही मोक्ष कहलाता है ।
यदि एक जीव भी मुक्त हो गया
तो उसी के साथ अविद्या का विनाश हो जाने से
सभी जीव समकाल में ही मुक्त हो जायेंगे ।
यदि यह कहें कि चूंकि सबों की मुक्ति समकाल में ही नहीं देखी जाती है,
अतएव पता चलता है कि अविद्या विनष्ट नहीं होती है ?
तो फिर मानना होगा कि आपके मत में
किसी की भी मुक्ति नहीं होती;
क्योंकि अविद्या का विनाश हुए बिना
किसी की भी मुक्ति कैसे होगी ?

[[१८५]]

यदि यह कहें कि

सभी जीवों की अविद्या अलग-अलग होती है
तो यहाँ प्रश्न उठता है कि
जिस जीव-भेद को स्वीकार करके
आप कहते हैं कि
प्रत्येक जीव की अविद्या पृथक्-पृथक् होती है;

वह जीवों का भेद स्वाभाविक है
अथवा अविद्या के द्वारा कल्पित है ?
उसे अद्वैती विद्वान् स्वाभाविक नहीं मानते हैं,
क्योंकि भेद की सिद्धि के लिए
अविद्या की कल्पना करना व्यर्थ होगा ।

  • यदि जीवभेद को अविद्या- कल्पित मानें
    तो प्रश्न उठता है कि
    यह अविद्या किसकी है ?
    ब्रह्म की अथवा जीव की ?
    यदि ब्रह्म को मानें
    तो फिर जीवाज्ञानवादी भी ब्रह्माज्ञान को स्वीकार कर ही लिए ।
    फलतः जिस प्रकार ब्रह्माज्ञानवाद में बन्धमोक्ष की व्यवस्था अनुपपन्न है,
    उसी प्रकार इस वाद में भी बन्धमोक्ष की व्यवस्था अनुपपन्न है ।
  • भेदकल्पिका अविद्या जीवों की इसलिए नहीं मानी जा सकती है कि
    वे अविद्या को जीवभेद की सिद्धि के लिए ही स्वीकार करते हैं ।
    जीवभेद की कल्पिका अविद्या
    जीवों की कल्पना करने से पूर्व जीवों की कैसे हो सकती है ?

अतएव जीवाज्ञानवाद में भी बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था
अनुपपन्न होने के कारण
जीवाज्ञानवाद असमीचीन है ।

किञ्च पहले कहा जा चुका है कि
जीव का अणुत्व ही श्रुतिप्रमाण-सम्मत है,
अतएव जीवों को विभु मानने वाले नैयायिक एवं वैशेषिकों का मत
समीचीन नहीं है ।

मूलम्

८. एतेन ज्ञानस्य क्षणिकत्वात् क्षणिकसन्तानरूप आत्मेति बौद्धपक्षः, भूतचतुष्टयात्मकत्वात् देहस्य देहावधिक आत्मेति चार्वाकपक्षः, गजदेहे गजपरिमाणः पिपीलिकादेहे तत्परिमाणः अतो देहपरिमाण आत्मेति जैनपक्षः, कर्तृत्वभोक्तृत्वादिकम् प्रकृतेरेव न तु पुरुषस्येति साङ्ख्यपक्षः, ब्रह्मांशो जीव इति यादव-पक्षः, सोपाधिब्रह्मखण्डो जीव इति भास्करपक्षः, अविद्याकल्पितैकजीववादपक्षः, अन्तःकरणावच्छिन्नानेकजीववादपक्ष इत्येवमादयो विरुद्धपक्षा निरस्ताः । विभुत्ववादपक्षोऽपि ।

वासुदेवः

ज्ञानस्येति । इत्थं हि बौद्ध-मतम् — संविदः स्वयं-प्रकाशत्वात् तस्या एवा ऽऽत्मत्वम् । किं च यः संविदो ऽन्यं संवेदितारम् अभ्युपगच्छति, अभ्युपगच्छत्य् एवासौ संविदम् । न ह्य् असत्याम् एव संविदि संवेत्तीत्य् उपपद्यते । एवं चेद् उभय-वादि-संप्रतिपन्नतया सैव परं वेदित्री लाघवाद् भवतु किम् अन्येन कल्पितेन । तस्माद् अनाद्य्-अविद्या-वशात् समारोपितावास्तव-ग्राह्य-ग्राहक-विकल्पोल्लेखिनी स्वयं-प्रकाशा संविद् एव परमार्थ-सती सैव चा ऽऽत्मेति । परं त्वेतद् अयुक्तम् । स्वयं-प्रकाशत्वं हि ना ऽत्मत्वस्य व्याप्यम् । किं तु व्यापकम् । लाघवम् अप्य् अप्रयोजकम् । ‘न विज्ञातुर् विज्ञातेर् विपरिलोपो विद्यते’ [बृ० ४।३।१०] इति श्रुतौ संवित्-तद्वतोः पृथग्-दर्शनात् । तद् उक्तं तत्त्व-मुक्ता-कलापे -

नित्या सा यस्य तद्-वान् अपि निगम-मितौ गौरवं नास्य भारः’ (२।४)

इति ।

किं च संविद आत्मत्वे पूर्वेद्युर् दृष्टम् अपरेद्युर् अहम् इदम् अदर्शम् इति कथम् इव प्रत्यभिजानीयात् । न च संवित्-संतानाश्रयेण प्रत्यभिज्ञोपपद्यत इति वाच्यम् । संविद्-व्यतिरिक्तस्य स्थायिनो ऽनुसंधायिनः संतानस्याभ्युपगमे स्व-सिद्धान्त-त्यागः । अनभ्युपगमे प्रत्यभिज्ञानुपपत्तिस् तद्-अवस्था । न ह्यन्येनानुभूते ऽन्यस्य प्रतिसंधान-संभवः ।

भूतेति । प्राग् उपपादितम् । गज-देह इति । एतद् अपि मतम् अयुक्तम् । बृहतः शरीराद् अल्पीयसि शरीरे प्रविशतो ऽपरिपूर्णत्व-प्रसङ्गात् । विकारत्व-प्रयुक्तानित्यत्वादि-दोष-प्रसङ्गश् च । किं चैककाले ऽनेकदेहान् परिगृह्णतां सौभरि-प्रभृतीनां स्वस्वरूपम् अनेकधा कृत्वा तत्तद्देहपरिग्रहप्रसङ्गः। किं च परकायप्रवेशद्वारा ऽनेक-शरीराणि परिगृह्णतां योगिनां स्वरूपस्य स्थूलशरीरं त्यक्त्वा ततः सूक्ष्म-शरीर-परिग्रहसमये तस्य सर्वस्यावकाशाभावाच्छैथिल्यं स्यात्। एतच् च ‘नैकस्मिन्न् असंभवात्’ (ब्र० सू० २।२।३२) इत्य् अधिकरणे स्पष्टम्। कर्तृत्वेति। एतच् चानुपदम् एवोपपादितम् (पृ० ७२ पं० २३)। ब्रह्मांश इति। यादव-मते भास्कर-मते च ब्रह्मणः सगुणत्वाङ्गीकारस् तुस्य एव। तथैव प्रपञ्चस्य सत्यत्वम् अपि। अत एव बन्ध-मोक्ष-व्यवस्था सिध्यति। इयास् तु विशेषः। भास्कर-मते तत्त्वमसीति श्रुतेर् जीव-ब्रह्मणोर् अभेदः स्वाभाविकः। भेदस् त्वौपाधिकः देव-मनुष्यादि-कृतः। अचिद्-ब्रह्मणोस् तु भेदः स्वाभाविकः। ‘निर्मलम्’ (ब्र० बिं० २१) इत्य् आदि-श्रुतेः। अभेदो ऽपि च तयोः स्वाभाविक एव। ‘इदं सर्वं यद् अयम् आत्मा’ (बृ० २।४।५) इत्य् आदि-श्रुतेः। न चाचिद्-ब्रह्मणोर् भेद औपाधिक इति वाच्यम्। उपाधेर् अचित्-स्व् अन्तर्भावात्। ‘उपाधि ब्रह्म’ एतद्-उभय-भेदस्याप्य् औपाधिकत्वेनोपाध्य्-अन्तरापेक्षायाम् अनवस्थाप्रसङ्गात्। यादव-मते तु, अचिद्-ब्रह्मणोर् इव जीव-ब्रह्मणोर् अपि भेदाभेदौ स्वाभाविकौ। मुक्ताव् अपि भेद-श्रुतेस् तत्त्वमसीत्य् ऐक्योपदेशाच् चेति। परं त्वेतन् न युक्तम्। तत्र भास्कर-मत उपाधि-ब्रह्म-व्यतिरिक्त-वस्त्व्-अन्तरानभ्युपगमाद् ब्रह्मण्येवोपाधि-संसर्गाद् औपाधिकाः सर्वे दोषा ब्रह्मण्येव स्युः। ततश् च ‘अपहत-पाप्मा’ (छा० ८।७।१) इत्य् आदि-श्रुति-विरोधः। यादव-मते ऽपि जीव-ब्रह्मणोर् भेदवद् अभेदस्याप्य् अभ्युपगमाद् ब्रह्म स्वरूपेणैव सुर-नर-तिर्यक्-स्थावरादि-भेदेनावस्थितम् इति ब्रह्मणो जीव-भावेन सर्वे जीव-गता दोषा ब्रह्मण एव स्युः। विस्तरस् तु वेदार्थ-संग्रहात् अवसेयः। अविद्येति। अयं शांकर-पक्षः। तत्र ह्य् अविद्या-शबलं ब्रह्मैव जीवः। स च सर्व-शरीरेष्व् एकः। चैत्रानुभूते मैत्रस्याननुसन्धानं त्व् अविद्या-वैचित्र्यात्। अत एव जीवैक्यवादः उपपद्यते। तथा ‘ज्ञानिनो मित्रामित्र-कथा कुतः’ ‘यद्य् अन्यो ऽस्ति परः को ऽपि’ (वि० पु० २।१३।८५) ‘एक एव हि भूतात्मा’ (ब्र० बिं० १२) ‘घट-ध्वंसे घटाकाशो न भिन्नो नमसा यथा’ इत्य् आदि संगच्छत इति। एतद् अपि न सम्यक्। ‘पृथग्-आत्मानम्’ इत्य् आदि-श्रुतिषु जीव-ब्रह्मणोर् निरुपाधिक-भेद-प्रतिपादनात्। आश्रयानुपपत्त्यादि-सप्तविधानुपपत्ति-ग्रस्तत्वेनाविद्याया निरूपयितुम् अशक्यत्वाच् च। सप्तविधानुपपत्तयस् तु श्री-भाष्यादौ द्रष्टव्याः। जीवैक्यवादस् तु साजात्याद् एव । ‘पण्डिताः समदर्शिनः’ (गी० ५।१८) इत्य् आदि स्मृतिभिर् जीवानां साम्य-बोधनात्। ‘मित्रामित्र-कथा कुतः’ इति तु न जीवैक्याभिप्रायम्। किंतु राग-द्वेषाभावाभिप्रायम्। ‘यद्य् अन्यो ऽस्ति’ (वि० पु० २।१३।८५) इत्यत्रान्य-शब्दो ऽन्यादृश इत्य् अर्थकः । ‘एक एव हि भूतात्मा’ (ब्र० बिं० १२) इत्य् ऐक्यम् अपि भूत-संसर्ग-शङ्कित-वृद्धि-ह्रास-निषेधाभिप्रायम्। ‘घट-ध्वंसे’ इत्य् आदिकं त्व् औपाधिक-वैषम्य-निवृत्ताव् अत्यन्त-साम्यं व्यनक्ति। न हि घट-ध्वंसे घटावच्छिन्न आकाशांशो ऽशान्तरेणैकी भवति। अन्तःकरणेति। अयं पक्षः शांकर-मतानुयायिनः। तद् उक्तं वेदान्त-परिभाषायाम् —

जीवो नामान्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यम् इति।

तस्य नानात्वम् अपि तत्रैव स्पष्टम्। अयम् अपि पक्षो न रमणीयः। कल्पान्तरे ऽनुभूतस्य कल्पान्तरे ऽनुसन्धानानापत्तेः। अन्तःकरणावच्छिन्न-चैतन्यस्य जीवत्वे जीवत्वस्यान्तःकरण-चैतन्य - एतद्-उभय-समुदाय-वृत्तित्वेनान्तःकरण-भेदे जीव-भेदस्य दुर्वारत्वात्। अस्ति हि कल्प-भेदे चेतो-भेदः। सन्ति च कल्पादौ जाति-स्मराः स्वयम्-आगत-विज्ञाना इति बोध्यम्।