०५ अनेकत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. स च प्रतिशरीरम् भिन्नः ।
एक-परिमाणेषु अनेकेषु सुवर्ण-घटेषु
“एको घट” इति प्रतीतिवत्,
व्रीहिराशौ “एको व्रीहिः” इतिवच् च
ज्ञानैकाकारतया एकत्व-व्यवहारः -
न तु स्वरूपैक्यम्, प्रमाण-विरोधात् ।

अण्णङ्गराचार्यः

जीवात्मनामैक्यवादो ‘देवतिर्यङ्मनुष्येषु पुमानेको व्यवस्थितः’ इत्यादौ एकाकारवत्त्वनिबन्धन इत्याह **‘एके’**ति । प्रमाणविरोधात् - नित्यात्मबहुत्वप्रतिपादकश्रुत्यादिविरोधात् । उपाधिवशात् कर्मवशात् । प्रकृत्यपेक्षया - प्रकृतिपरिणामदेहाद्यपेक्षया ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अनुवाद – वह जीव प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् है । जैसे समान परिमाण वाले घटों में जैसे एक घट है, इस प्रकार की प्रतीति होती है तथा धान-समूह में जैसे एक धान की प्रतीति होती है, उसी प्रकार सभी जीवों के एकमात्र ज्ञानस्वरूप होने के कारण उनके एकत्व का व्यपदेश होता है । इन सभी जीवों में आकार की एकता होती है, स्वरूप की एंकता नहीं होती । क्योंकि स्वरूप की एकता मानने पर जीवों के नानात्व का प्रतिपादन करने वाली ( ‘नित्यो नित्यानाम्’ इत्यादि ) श्रुति प्रमाणों से विरोध होगा ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र०- ( क ) आत्मा के अनेकत्व की सिद्धि - आत्मा के एकत्व तथा अनेकत्व को लेकर दार्शनिकों में मतभेद है । विशिष्टाद्वैत दर्शन की मान्यता है कि जीव अनेक हैं । प्रत्येक शरीर में रहने वाली आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । सौभरी आदि के शरीरों को छोड़कर अन्यान्य प्रत्येक शरीर में अलग-अलग जीव रहते हैं । सौभरी इत्यादि योगियों के अनेक शरीर में एक ही जीव रहता है, क्योंकि वहाँ योगबल से एक ही जीव अनेक शरीरों को धारण करता है । यह अपवाद का विषय है । सामान्यतया प्रत्येक शरीर में जीव अलग-अलग ही रहते हैं । यह इसलिए मानना पड़ता है कि प्रत्येक शरीर में स्मृति, अनुभव, सुख-दुःख, इन्द्रिय एवं प्रयत्न इत्यादि व्यवस्थित रहते हैं ।
एक शरीर में
एक ही जीव के लिए स्मृति, अनुभव, सुख-दुःख, इन्द्रिय और प्रयत्न इत्यादि होते हैं; उस शरीर में रहने वाले जीव को ही इनका अनुभव होता है ।
एक शरीर में होने वाले सुख-दुःख को
दूसरे शरीरों में रहने वाले जीव नहीं समझते ।
इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक शरीर में जीव भिन्न-भिन्न रहते हैं । उन उन शरीरों में होने वाले सुख-दुःख इत्यादि का अनुभव उन उन शरीरों में रहने वाले जीवों को ही होता है । न्यायसूत्र में ‘नानात्मानो व्यवस्थातः’ इस सूत्र से सिद्ध किया गया है कि सुख-दुःख आदि की व्यवस्था से आत्मा अनेक सिद्ध होते हैं । सांख्यकारों ने

‘जनन-मरण करणानां
प्रतिनियमाद् अयुगपत्-प्रवृत्तेश्च ।
पुरुष बहुत्वं सिद्धं
त्रैगुण्य-विपर्ययाच् चैव ।’

इस कारिका में कहा है कि

जन्म, मरण तथा इन्द्रियों में
यह व्यवस्था देखने में आती है कि
ये सभी पुरुषों के लिए पृथक्-पृथक् हुआ करते हैं ।
इसी व्यवस्था से
पुरुषों में बहुत्व की सिद्धि होती है।

यदि सभी पुरुष एक ही व्यक्ति होते तो यह व्यवस्था नहीं होती ।
क्योंकि उस पक्ष में एक पुरुष के जन्म लेते समय सभी का जन्म हो जाता, एक पुरुष के मरते ही सभी पुरुष मर जाते, एक पुरुष के अन्धा होने पर सभी पुरुष अन्धे हो जाते । किन्तु देखा जाता है कि जब एक पुरुष जन्म लेता है तो दूसरा पुरुष मरता है, तीसरा हँसता एवं आनन्द मनाता है तो चौथा दुःखी होता है और रोता है इत्यादि । और यदि सभी शरीरों में एक ही पुरुष होता तो उसके एक शरीर में कार्यार्थं चेष्टा करने पर सभी शरीरों में समान रूप से चेष्टा होने लगती, किन्तु ऐसा नहीं होता है इसलिए भी प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न पुरुष को स्वीकार करना पड़ता है ।

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किञ्च लोक में यह जो देखा जाता है कि कुछ लोग अधिक सात्विक, कुछ अधिक तामस तथा कुछ लोग अधिक राजस् प्रकृति के होते हैं, ऐसा एकपुरुषवाद में संभव नहीं है । यह वैषम्य अनेक - पुरुषवाद को ही स्वीकारने पर संभव हो पायेगा ।

शास्त्रों में अनेक वचन ऐसे मिलते हैं, जो जीवाद्वैत के प्रतिपादक हैं । जैसे—-

यद्य् अन्योऽस्ति परः कोऽपि
मत्तः पार्थिव-सत्तम । “तदैषोऽहम् अयं चान्यो”
वक्तुम् एवम् अपीष्यते ॥
तस्यात्म-पर-देहेषु
सतोऽप्य् एकम् अयं+++(=??)+++ हि यत् ।
विज्ञानं परमार्थो हि
द्वैतिनो ऽतथ्य-दर्शिनः ॥

विष्णुपुराण के इस वचन का तात्पर्य
जीवों का स्वरूपैक्य बतलाना नहीं है,
अपितु उनका तात्पर्य सभी जीवों के
प्रकार की एकता के प्रतिपादन में है ।
स्वरूपतः भिन्न-भिन्न होकर भी
सभी जीव प्रकारतः ज्ञानस्वरूप हैं ।
उपर्युक्त वचन का तात्पर्य यह है कि

यदि मुझसे भिन्न कोई भी जीव विलक्षण आकार वाला होता तो,
हे राजवर्य ! यह कहा जा सकता था कि
मैं ऐसा हूँ और दूसरा इस प्रकार का है,
किन्तु सभी जीव ज्ञानकाकार वाले हैं ।
उनमें स्वरूपतः भेद होने पर भी
आकारतः कोई भी भेद नहीं है ।
अपनी देह तथा दूसरे देहों में रहने वाले जीवात्मा
ज्ञानाकार वाले हैं,
सभी जीवों का स्वाभाविक रूप
उनकी ज्ञानाकारता है,
देव-मनुष्य आदि विभिन्न शरीरों के सम्बन्ध के कारण होने वाला भेद तो
औपाधिक है, स्वाभाविक नहीं ।
देवादि आकारों को ही आत्मा का स्वरूप समझने वाले लोग
भ्रान्त तथा अतथ्यदर्शी हैं ।

इन वाक्यों का तात्पर्य जीवों के प्रकार की एकता के बतलाने में है । प्रकार की एकता होने पर भी एक शब्द का प्रयोग देखा जाता है । जैसे समान आकार वाले घटों को दिखलाता हुआ पुरुष कहता है कि यह एक घट है । एक प्रकार की धान्यराशि को दिखलाता हुआ पुरुष कहता है कि यह एक धान है । घनिष्ठ मित्रता को भी लेकर कहे गये एक शब्द का प्रयोग होता है, जैसे- ‘रामसुग्रीवयोरैक्यम् ।’ अर्थात् हे देवि ! राम और सुग्रीव में इस प्रकार से एकता हुई । एक शब्द का व्यवहार अनेक कारणों से होता है । तथा हि-

‘अविरोधान्तरङ्गत्व-
जाति-भोगाद्य्-अभेदतः।
एकोक्तिर् अ-पृथक्-सिद्धेः
देश-काल-दशादिभिः ॥

अर्थात् —

विरोध का अभाव होने पर,
अन्तरङ्गता के बढ़ने पर,
जाति की एकता होने पर,
भोग की एकता होने पर,
देश की एकता होने पर,
काल की एकता होने पर,
दशा आदि की एकता होने पर
तथा अपृथक् सिद्धि होने पर
एक शब्द का प्रयोग होता है ।

इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक शरीर में जीव पृथक-पृथक हैं, सभी शरीरों में एक ही जीव नहीं है ।

मूलम्

६. स च प्रतिशरीरम् भिन्नः । एकपरिमाणेषु अनेकेषु सुवर्णघटेषु “एको घट” इति प्रतीतिवत्, व्रीहिराशौ “एको व्रीहिः” इतिवच्च ज्ञानैकाकारतया एकत्वव्यवहारः । न तु स्वरूपैक्यम्, प्रमाणविरोधात् ।

वासुदेवः

प्रति-शरीरम् इति । सौभर्यादि-क्षेत्रज्ञ-व्यतिरिक्त-स्थल इति शेषः । भिन्न इति । अत एव कस्यचित् सुखित्व-काले ऽन्यस्य दुःखित्वं दृश्यते । देह-भेदस् तु न तन्-नियामकः । सौभरि-शरीरे तद्-अदर्शनात् । न च देह-भेदस्यानियामकत्वे जन्मान्तरानुभूतस्य कुतो न स्मृतिर् इति वाच्यम् । संस्कार-नाशेन तद्-उपपत्तेः । न च चैत्रेणानुभूते मैत्रस्यास्मरणम् आत्म-ऐक्ये ऽपि संस्कार-नाशाद् एवेति वाच्यम् । तथा सति चैत्रस्याप्य् अस्मरण-प्रसङ्गात् । किं च सुख-दुःखयोर् एक-आश्रयत्व उभय-प्रतिसंधानम् एकस्यैव स्यात् । कश्चिद् बद्धः कश्चिन् मुक्तः कश्चिच् छिष्यः कश्चिद् आचार्य इत्य्-आदि-व्यवस्था च न सिध्येत् । देव-मनुष्य-तिर्यगादि-भेदेन विषम-सृष्टिश् च नोपपद्येत । कर्म-भेदेन तु न विषमा सृष्टिः । जीवैक्य-पक्षे हि कस्य कर्म कस्माद् भिन्नम् उच्यते । इदं कर्मामुकस्येति व्यवस्थाया असंभवात् । एवम् एवान्तःकरण-भेदस्याप्य् अनियामकत्वं द्रष्टव्यम् । प्रयोगश् च – चैत्रात्मा मैत्र-तादात्म्य-रहितः । तद्-अनुभवज-स्मृत्य्-अनाधारकत्वात् कदाचिद् अपि तद्-गत-सुखादि-प्रतिसंधान-रहितत्वाद् वा । ‘नित्यो नित्यानां चेतनश् चेतनानाम् एको बहूना यो विदधाति कामान्’ (का० ५।१२) इत्यादिश्रुतिर् अपि जीवानेकत्वे प्रमाणम् । नन्व् इयं श्रुतिर् औपाधिक-भेदाभिधायिनी । अत एव ‘भोक्ता भोग्यम्’ (श्वे० १।१२) इत्यादिभिर् जीवैक्य-प्रतिपादिकाभिः श्रुतिभिर् अविरोध इति चेत् तत्रा ऽऽह - एक-परिमाणेष्व् इति । एको व्रीहिर् इति । एको व्रीहिः

सुनिष्पन्नः सुपुष्टं कुरुते जनम् इत्यादौ यथा । राम-सुग्रीवयोरैक्यम् इत्यत्राप्य् एवम् एव । तयोः प्रकारस्यैक्यात् । ज्ञानैकाकारतयेति । इयद् एव हि जीवाद्वैतम् । जीवाद्वैत-शब्दस्य प्रकाराद्वैते तात्पर्यात् । जीवानाम् अनेकत्वे ऽपि तेषां प्रकारस्यैक्यात् । ‘नानात्मानो व्यवस्थात:’ इति न्याय-सूत्रे ऽपि जीवानेकत्वम् एव स्थापितम् । सांख्यैर् अप्य् उक्तम् —

जनन-मननकरणानां प्रतिनियमाद् अयुगपत्-प्रवृत्तेश् च । पुरुष-बहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्य-विपर्ययाच् चैव ।

( सां० कां १८ ) इति । तथा च जीव-भेद-निषेध-वचनानि प्रामाणिक-स्वरूप-भेद-व्यतिरिक्त-देहात्माभिमान-निबन्धन-देवत्वादि-भेद-निषेध-पराणीत्य् उक्तं न्याय-सिद्धाञ्जने । एवं जीवानां परस्परं भेदे सिद्धे जीव-ब्रह्म-भेदो ऽपि सिध्यति । ‘नेह नाना (बृ० ४।४।१९) इत्यादि-श्रुतयस् तु सर्वस्य ब्रह्म-शरीरत्वेन ब्रह्म-शरीर-व्यतिरिक्त-वस्त्व्-अन्तर-निषेधार्थिकाः । एतद् एव हि ब्रह्माद्वैतम् । तस्य प्रकार्य-द्वैते तात्पर्यात् । ब्रह्म-शरीर-भूतानां प्रकाराणां जीवानाम् अनेकत्वे ऽपि तेषां सर्वेषाम् आत्म-भूतस्य प्रकारिणो ब्रह्मण ऐक्यात् । मुक्ताव् अपि न जीव-ब्रह्मणेर् ऐक्यम् । ‘सदा पश्यन्ति सूरयः’ (नृ० पू० ५।१० ) इत्य् उक्तेः । किं तु साम्यमात्रम् । ‘मम साधर्म्यम् आगताः । (गी० १४।२) इति भगवतैवोक्तत्वात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

७. स्वतःसुखी,
उपाधि-वशात् संसारः ।

शिवप्रसादः (हिं)

[[१७६]] जीवात्मा स्वभावतः सुखी है, कर्मोपाधि के कारण उसको संसार प्राप्त होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ख ) जीवों का स्वतः सुखित्व प्रतिपादन – यह जीवात्मा ब्रह्मानन्द रूपी महान् सुख का अनुभव करने के लिए स्वतः अधिकृत है । उस सुख का अनुभव करने का सभी जीवों का उसी प्रकार से अधिकार है जिस प्रकार पिता की सम्पत्ति पर सभी [[१७८]] पुत्रों का समान रूप से अधिकार होता है । ब्रह्मानन्द का अनुभव करना जीव का स्वाभाविक धर्म है । जीव स्वभावतः सभी कर्म के बन्धनों से रहित है । ‘एष आत्मा- ऽपहतपाप्माविजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः ।’ यह छान्दोग्य - श्रुति बतलाती है कि जीव स्वभावतः सभी कर्मों के बन्धनों से रहित, जरा-जन्म आदि षड्विकारों से रहित, भूख-प्यास आदि षडूर्मियों से रहित है । वह सत्यकाम है अर्थात् जो चाहता है वह उसे उपलब्ध होता है तथा उसके सभी संकल्प पूरे होते हैं । छान्दोग्योपनिषद् के आठवें अध्याय में ही मुक्तजीवों का वर्णन करती हुई श्रुति बतलाती है कि मुक्तजीव के संकल्प करते ही उसके पूर्व जन्म के सभी पितृगण तथा मातृगण उसके समक्ष उपस्थित हो जाते हैं । मुक्तावस्था ही जीव की कर्म- स्वाभाविक अवस्था है । संसार तो औपाधिक है । संसार का बन्धन तो जन्य है ।

मूलम्

७. स्वतःसुखी, उपाधिवशात् संसारः ।

वासुदेवः

स्वतः सुखीति । तद् उक्तम् आत्म-सिद्धौ -

नित्यो व्यापी प्रति-क्षेत्रम् आत्मा भिन्नः स्वतः सुखी ॥

इति ।

उपाधि-वशाद् इति । अनादि-कर्म-रूपाविद्या कृताचित्-संसर्गाद् इत्य् अर्थः । उपाधिर् लिङ्ग-देहः प्रकृत्य्-आत्मको ऽनादिर् इति मान्याः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं च कर्ता, भोक्ता, शरीरी, शरीरं च भवति ।+++(4)+++
प्रकृत्य्-अपेक्षया शरीरी, ईश्वरापेक्षया शरीरम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

यह जीव कर्ता, भोक्ता, शरीरवान् तथा परमात्मा का शरीर है । जीवात्मा की प्रकृति शरीर होती है तथा परमात्मा का जीव शरीर होता है। जीवात्मा के स्वयम्प्रकाशत्व की सिद्धि प्रत्यक्षप्रमाण तथा श्रुति प्रमाण के द्वारा होती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ग ) जीवों के कर्तृत्व- भोक्तृत्वादि की स्वाभाविकता - जीव स्वभावतः कर्ता एवं भोक्ता है । उसके ज्ञान-क्रिया-कर्तृत्व की स्वाभाविकता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं - ‘ज्ञोऽत एव’ ( ब्र० सू० २।३।१९ ) अर्थात् जीव स्वभावतः ज्ञान का आश्रय है । कर्तृत्व ही भोक्तृत्व का कारण है । ‘कर्त्ता शास्त्रार्थ- वत्त्वात्’ ( ब्र० सू० २।३।३३ ) सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं क़ि स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्ति के साधनों के अनुष्ठान का विधान करने वाले शास्त्र तभी सफल होंगे जबकि उन अनुष्ठानों के कर्ता जीवों को स्वभावतः कर्ता माना जाय । ‘यजेत स्वर्ग- कामः’ श्रुति बतलाती है कि स्वर्ग को चाहने वाले को अश्वमेध यज्ञ से परमात्मा का भजन करना चाहिए । ‘मुमुक्षुर्ब्रह्मोपासीत’ श्रुति कहती है कि मोक्ष को चाहने वाले को चाहिए कि वह ब्रह्म की उपासना करे । कर्ता होने के कारण ही जीव भोक्ता है । देव, मनुष्य, तिर्यक्, सरीसृप आदि शरीरों को धारण करने के कारण जीवात्मा शरीर वाला है तथा परमात्मा उसकी आत्मा रूप से भीतर प्रवेश करके उसका नियमन करते हैं, अतएव वह परमात्मा का शरीर भी है । श्रुति कहती है— ‘य आत्मानमन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम् ।’ अर्थात् ‘जो परमात्मा तुम्हारी आत्मा के भीतर प्रविष्ट होने के कारण आत्मा की अपेक्षा अन्तरङ्ग है, आत्मा जिसे जान नहीं पाती, आत्मा जिसका शरीर है, वही अन्तर्यामी अमृत परमात्मा तुम्हारी आत्मा है ।’ यह महर्षि का उपदेश है ।

मूलम्

अयं च कर्ता भोक्ता शरीरी शरीरं च भवति । प्रकृत्यपेक्षया शरीरी, ईश्वरापेक्षया शरीरम् ।

वासुदेवः

कर्तेति । तथा च श्रुतिः - ‘कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः’ (प्र.४।९) इति । अत एव ‘यजेत स्वर्ग-कामः’ ‘ब्रह्मेत्य् उपासीत’ (छां० ३।१८।१) इत्य्-आदि-शास्त्राणाम् अर्थवत्त्वम् । बोद्धुर् एव हि शासनं नाचेतनस्य-प्रधानादेः । इदं च ‘कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्’ (ब्र.सू. २।३।३३) इत्य् अधिकरणे स्पष्टम् । यत् तु -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकार-विमूढात्मा कर्ता ऽहम् इति मन्यते ।।

( गी. ३।२७) इति गुणानाम् एव कर्तृत्वं स्मर्यत इति । तत् सांसारिक-प्रवृत्तिष्व् अस्य कर्तृता सत्त्व-रजस्-तमोगुण-संसर्ग-कृता न स्वरूप-प्रयुक्तेत्य् आशयेन । एवम् आत्मनः कर्तृत्वे सिद्धे तन्-मूलकं भोक्तृत्वम् अपि तस्यैवेत्य् आह - भोक्तेति । प्रकृत्य्-अपेक्षयेति । प्रकृति-विकार-भूत-पाञ्चभौतिक-शरीरापेक्षयेत्य् अर्थः । ईश्वरेति । ‘यस्या ऽऽत्मा शरीरम्’ (बृ. ३।७।३) इति श्रुतेः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्य प्रत्यक्ष-श्रुतिभ्यां स्वयम्-प्रकाशत्वं च सिद्धम् ।
+++(अनुमान-)+++प्रयोगश् च –
‘आत्मा स्वयम्-प्रकाशः, ज्ञानत्वात्, धर्म-भूत-ज्ञानवद्’ इति ।
ज्ञानत्वाणुत्वामलत्वादय एतस्य स्व-रूप-निरूपक-धर्माः।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘अस्ये’**ति । अहमिति स्वापादौ स्वयमेवात्माऽपरोक्षतया भासते स्वस्मै । ‘अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति इत्यादिश्रुतिश्च स्वयम्प्रकाशत्वे जीवात्मनः प्रमाणमित्यर्थः । ज्ञानत्वादिति । आत्मपक्षक स्वयम्प्रकाशत्वसाधकानुमाने ज्ञानत्वं हेतुरुक्तः । अत्र ज्ञानत्वपदेन स्वयम्प्रकाशत्वोक्तौ हेतोः साध्याविशेषः प्रसज्यते । विषयप्रकाशकत्वोक्तौ पक्षे हेतोरभावात्स्वरूपासिद्धिः । अतः ज्ञानत्वं पदेनानुपचारेण ज्ञानपदेन वेदान्तशास्त्रे निर्दिष्टत्वं विवक्षितम् । ज्ञानपदेन मुख्यवृत्त्या निर्देश आत्मनो धर्मभूतज्ञानस्य च वर्तते । ज्ञानस्य स्वयम्प्रकाशत्वं पूर्वावतारे साधितम् । तद्दृष्टान्ती कृत्यात्मनः स्वयंप्रकाशत्वमत्र ज्ञानत्वहेतुना साध्यते । स्वयं प्रकाशत्वं च स्वविषयकज्ञानान्तरनिरपेक्षं स्वप्रकाशत्वं विवक्षितम् । वर्णितं च श्रीमद्वेदान्ताचार्यचरणैः तत्त्वमुक्ताकलापे ‘किञ्च वेदान्तदृष्ट्या ज्ञानत्वादेष धीवत् स्वविषयधिषणानिर्व्यपेक्षस्वसिद्धिः’ (जीवसरे - षष्ठश्लोकः) । अत आत्मनो ज्ञानत्वेन स्वयम्प्रकाशत्वं साधनं साध्वेवेति भावः । **‘ज्ञानत्वे’**ति । आदिपदेनानन्दत्वस्य ग्रहणम् । “ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा शेषो हि परमात्मनः” (पाञ्चरात्र) इति वचनात् । दुःखाज्ञानमलास्तु प्रकृतिसम्बन्धौपाधिका एवेति च तत्रैव वर्णितम् । देहावधिकः - देहकालावधिकः । देह एवात्मेति भावः । एकानेकजीववादः प्राचीननवीनाद्वैतिपक्षः । विभुत्वपक्षः साङ्ख्यानां तार्किकाणां च । एतेन - आत्मना नित्यत्वबहुत्वाणुत्वस्थापनेनैतेषां पक्षाणां निरासः सिध्यतीति भावः ।

शिवप्रसादः (हिं)

आत्मा के स्वयम्प्रका- शत्व का अनुमान भी होता है-आत्मा ज्ञान स्वरूप होने के कारण धर्मभूत ज्ञान के समान स्वयम्प्रकाश है । ज्ञानत्व, अणुत्व तथा अमलत्व आदि आत्मा के स्वरूप निरूपक धर्म हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

(घ) आत्मा के स्वयम्प्रकाशत्वं का प्रतिपादन — विशिष्टाद्वैत दर्शन में आत्मा को स्वयम्प्रकाश माना जाता है । स्वयम्प्रकाश का अर्थ है, जो प्रकाशकान्तर निरपेक्ष होकर अपने लिए प्रकाशित होता है । आत्मा भी सदा प्रकाशक-निरपेक्ष रहकर अपने लिए ही सदा ‘मैं’ ‘मैं’ इस रूप से प्रकाशित होता है, अतएव आत्मा का स्वयम्प्रकाशत्व प्रत्यक्षसिद्ध है । श्रुतियाँ भी आत्मा को स्वयम्प्रकाश सिद्ध करती हैं । ‘अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति ।’ अर्थात् यहाँ पर जीवात्मा स्वयं ज्योति अर्थात् स्वयम् प्रकाश होकर रहता है । ’ कतमः आत्मा, योऽयं विज्ञानमयः [[१७९]] प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुषः ।’ इस श्रुति में पहले प्रश्न किया गया है कि आत्मा कौन है ? इस प्रश्न का समाधान किया गया है कि जो प्राण अर्थात् इन्द्रियों के बीच में इस रहने वाला तथा हृदय के अन्दर ज्योतिरूप में रहने वाला ज्ञानमय वस्तु है । वही आत्मा है। इन श्रीतवचनों के आलोक में ज्ञान का स्वयम्प्रकाशत्व स्वाभाविक रूप से सिद्ध हो जाता है ।

अनुमानप्रमाण के द्वारा भी आत्मा के स्वयम्प्रकाशत्व की सिद्धि होती है । आचार्य श्रीविष्णुचित्त ने ज्ञान के स्वयम्प्रकाशत्व का साधक निम्न अनुमान बतलाया है। तथाहि—आत्मा स्वयम्प्रकाश है, क्योंकि वह ज्ञान है। जिस प्रकार घटादि ज्ञान ज्ञान होने से स्वयम्प्रकाश है, उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप होने के कारण आत्मा भी स्वयम्प्रकाश है, यह मानना उचित है । विष्णुमिश्र ने आत्मा के स्वयम्प्रकाशत्व का अनुमान इस प्रकार से किया है - आत्मा स्वयं प्रकाशित होने वाला पदार्थ है, क्योंकि वह ज्ञान का कर्मकारक बने बिना ही प्रकाशित होता है । जो पदार्थ ज्ञान का कर्मकारक बने बिना ही प्रकाशित होता है, वह स्वयं प्रकाशित होता है । जैसे धर्मभूत ज्ञान । धर्मभूत ज्ञान ज्ञान का कर्मकारक न होकर भी प्रकाशित होता है । आत्मा भी ज्ञान का कर्तृकारक है और ज्ञान का कर्मकारक हुए बिना ही प्रकाशित होता है । अतएव वह स्वयम्प्रकाश सिद्ध होता है ।

आत्मा के ज्ञानत्व, अणुत्व एवं अमलत्व आदि स्वरूप-निरूपक धर्म हैं । ज्ञानत्व आत्मा का स्वरूप-निरूपक धर्म है । ‘सत्यं ज्ञानम् ।’ श्रुति में भी ज्ञानं पद ज्ञानत्वा- वछिन्न का वाचक है, ज्ञान मात्र का नहीं । क्योंकि वहां ज्ञानं पद अन्तोदात्त पढ़ा गया है । ‘ज्ञानम् अस्यास्ति’ इस अर्थ में व्याकरणानुसार ‘अर्श आद्यच्’ प्रत्यय करने पर ‘चितः’ सूत्र से अन्तोदात्त स्वर होता है और ज्ञानं पद का अर्थ होता है -ज्ञान- वान् । ‘ज्ञोऽत एव’ सूत्र में आत्मा का ज्ञानाश्रयत्व प्रतिपादित किया गया है । इसकी चर्चा हम पीछे कर चुके हैं ? आत्मा के अणुत्व का प्रतिपादन पहले ही किया जा चुका है । ‘एष आत्माऽपहतपाप्मा’ श्रुति आत्मा को कर्मबन्ध से निसर्गतः रहित बतलाती है । अतएव ये सभी धर्म आत्मा के स्वरूप-निरूपक धर्म हैं ।

मूलम्

अस्य प्रत्यक्षश्रुतिभ्यां स्वयम्प्रकाशत्वं च सिद्धम् । प्रयोगश्च – ‘आत्मा स्वयम्प्रकाशः, ज्ञानत्वात्, धर्मभूतज्ञानवत्’ इति । ज्ञानत्वाणुत्वामलत्वादय एतस्य स्वरूपनिरूपकधर्माः।

वासुदेवः

सिद्धम् इति । स्वस्य चास्य स्वयं-प्रकाशत्वम् । परस्य तु तज्-ज्ञान-विषयतयैव प्रकाशते । स्वस्यापि प्रमाणान्तरावसेयाणुत्व-शेषत्व-नियाम्यत्व-नित्यत्वादि-विशिष्ट-रूपेण ज्ञान-विषयत्वम् अस्त्य् एव । अहम् इति प्रत्यक्त्वैकत्व-विशिष्टतया तु स्व-प्रकाशता सर्वदा । योग-दशायां तु यथावस्थितापूर्वाकार-विशिष्टतया यौगिक-प्रत्यक्षेण साक्षात्-क्रियते । तद् उक्तम् आत्म-सिद्धौ -

योगाभ्यास-भुवा स्पष्टं प्रत्यक्षेण प्रकाश्यते ।

इति ।

‘अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर् भवति’ (बृ० ४।३।९) ‘कतम आत्मा यो ऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्य् अन्तर्-ज्योतिः पुरुष:’ (बृ० ४।३।७) इत्य्-आदि-श्रुतिभिश्चा ऽऽत्मनः स्वयंप्रकाशत्वं सिध्यति । यद्यपि ‘हृद्य् अन्तर्-ज्योतिः पुरुषः’ इत्यत्र ज्योतिः-शब्दो भाक्तस् तथा ऽपि स्व-प्रकाश-प्रदीपादिवल्-लोक-दृष्टया ऽन्य-निरपेक्षत्वं स्वरसावगतं न बाध्यम् । स्वयं-प्रकाशत्वम् अन्याधीन-प्रकाशत्वम् । इदम् एवाजडत्वम् ।