०४ नित्यत्व-साधनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

५. स च नित्यः -
पूर्वानुभूतार्थ-प्रतिसन्धानात् ।

नित्यश् चेत्
“जीव उत्पन्नो, जीवो नष्ट”
इति प्रतीतिः कथम्?

इति चेत्, न।
जीवस्य देहसम्बन्ध उत्पत्तिः,
तद्वियोगो नाश
इति प्रतिपादनात् ।
जीव-स्वरूपं नित्यम् एव ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - वह जीव नित्य हैं, क्योंकि वह पूर्वकाल में अनुभूत विषयों का स्मरण करता है । यहाँ शंका होती है कि यदि जीव नित्य है तो फिर वह उत्पन्न हुआ और नष्ट हो गया इत्यादि प्रकार की प्रतीति कैसे होती है ? तो यह शंका इसलिए उचित नहीं है, क्योंकि मैं पहले ही प्रतिपादित कर चुका हूँ कि जीव का शरीर से होने वाले संबन्ध को उसकी उत्पत्ति कहा जाता है और शरीर से होनेवाले वियोग को जीव का विनाश कहा जाता है । अतएव जीव नित्य ही है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जीवों की नित्यता का प्रतिपादन

जीवों के नित्यत्वानित्यत्व के विषय में दार्शनिकों का मतभेद है । बौद्ध दार्शनिक क्षणिक ज्ञान को आत्मा मानते हैं । उनके अनुसार ज्ञानात्मा क्षणमात्र स्थायी है । चार्वाक देह को ही आत्मा मानते हैं, अतएव उनका कहना है कि जब तक शरीर में आत्मा स्थित रहती है उतने ही काल तक आत्मा जीवित रहती है । ब्रह्मदेव आदि मानते हैं कि जीव प्राकृत प्रलय- पर्यन्त स्थायी है । ओडुलोमी का सिद्धान्त है कि जब तक मोक्ष नहीं हो जाता तब तक जीव रहता है । विशिष्टाद्वैती आत्मा को [[१७५]] नित्य मानते हैं । विशिष्टाद्वैतियों की यह मान्यता श्रुतियों पर आधारित है । वे कहते हैं कि आत्मा नित्य है । इसका नाश नहीं होता है। महर्षि बादरायण ‘नात्मा श्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः’ ( ब्र० सू० २।३।१८ ) सूत्र में कहते हैं कि आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि श्रुतियां उसके जन्म का अभाव बतलाकर उसको नित्य बतलाती हैं । आत्मा के नित्यत्व का प्रतिपादन करती हुई श्रुति कहती है- ‘न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ ( कठो० २।१८ ) । अर्थात् आत्मा न तो जन्म लेती है और न तो मरती है । ‘ज्ञाज्ञी द्वावजी’ ( श्वे० उ० १।९ ) श्रुति कहती है कि ज्ञ परमात्मा और अज्ञ जीवात्मा दोनों अजन्मा हैं । यह श्रुति जीवों की उत्पत्ति का निषेध करती है। ‘नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान्’ ( श्वे० उ० ६।१३ ) श्रुति कहती है कि नित्य जीवों से भी नित्य तथा चेतन जीवों से भी श्रेष्ठ चेतन अकेला परमात्मा अनेक जीवों की कामनाओं को पूर्ण करता है । ‘अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ( कठो० २।१८ ) श्रुति बतलाती है कि जीवात्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा प्राचीनतम है । इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी वह विनष्ट नहीं होता है ।

यदि कोई कहे कि जीव यदि नित्य है तो जीव के जन्म और मृत्यु का अभिधान कैसे किया जाता है ? तो इसका उत्तर है कि जीव का जो शरीर से सम्बन्ध होता है उसी को लोक में उसकी उत्पत्ति कही जाती है तथा जीव का जो शरीर से वियोग होता है उसे ही लोक में जीव की मृत्यु कहा जाता है । अतएव जीव की नित्यता ही श्रुति सम्मत है ।

मूलम्

५. स च नित्यः । पूर्वानुभूतार्थप्रतिसन्धानात् । नित्यश्चेत् “जीव उत्पन्नो, जीवो नष्ट” इति प्रतीतिः कथम्? इति चेत्, न। जीवस्य देहसम्बन्ध उत्पत्तिः, तद्वियोगो नाश इति प्रतिपादनात् । जीवस्वरूपं नित्यमेव ।

वासुदेवः

पूर्वानुभूतेति । ‘न जायते म्रियते’ ( का० २।१८ ) ‘ज्ञाज्ञौ द्वाव् अजाव् ईशानीशौ’ (श्वे० १।९) इत्यादि-श्रुतयो ऽप्य् अत्र प्रमाणम् । किं च जीवानित्यत्वे ऽकृताभ्यागम-कृत-विप्रणाश-रूप-दोष-द्वय-प्रसङ्गः । जीवस्येति । ‘प्रजापतिः प्रजा असृजत’ ( तै० सं. ५।७।३ ) ‘सन्मूलाः सोम्य् इमाः सर्वाः प्रजाः’ (छां० ६।८।४) ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते (तै० ३।१।१) ‘जीवान् विससर्ज भूम्याम्’ (म.ना.१।४) इत्यादि-श्रुतयो ऽप्येतद् अभिप्रायेणैव योज्याः । ननु नित्यत्वे जीवात्मनां ‘सदेव सोम्येदम् अग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम्’ (छां० ६।२।१ ) इति श्रुति-प्रतिपादितं सृष्टेः प्राग् एकत्वावधारणं विरुध्यत इति चेन् न । नाम-रूप-विभागाभाव एवैकत्वमिति तद् आशयात् । एतेना ऽऽत्मा-नित्यत्ववादिनश् चत्वारो ऽपि पक्षा निरस्ता वेदितव्याः । तथा हि - क्षणिक आत्मेति विज्ञानात्मवादिनः । आ-शरीर-स्थायीति प्राणेन्द्रियात्मवादिनः । प्रलयान्त इति पौराणिकैकदेशिनः। मोक्षावधिक इत्य् औपनिषदाभासाः । तत्र प्रथम आत्मानम् उत्तर-कालानवस्थायिनं मन्यमानो न किंचिद् उद्दिश्य प्रवर्तेत । प्रवृत्तिर् हि खलूत्तरकाले सुखं दुःख-निवृत्तिं वा ऽभिसंधायैव । सा ऽत्र कथं घटेत । फलकाले स्वाभावात् स्वकाले फलाभावात् । द्वितीये तु पारलौकिकं फलम् अभिसंधाय यज्ञादौ प्रवृत्तिर् न स्यात् । सा च सार्वत्रिकी दृश्यते । तृतीये मोक्ष-मार्गोपदेशानर्थक्यम् । चतुर्थे ऽप्य् आनर्थक्यम् एव । तद् उक्तम् -

अहमर्थ-विनाशश् चेन् मोक्ष इत्य् अध्यवस्यति । अपसर्पेद् असौ मोक्ष-कथा-प्रस्ताव-गन्धतः ॥

इति ।

ननु ‘विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्य् एवानु विनश्यति’ (बृ०२।४।१२) इति जीव-विनाशः श्रूयते । मैवम् । अस्याः श्रुतेर् लोक-धी-रूढ-अनुवाद-मात्रत्वात् ।