विश्वास-प्रस्तुतिः
३. स च देहेन्द्रिय-मनः-प्राणादिभ्यो विलक्षणः ।
यथा “मम शरीरम्” इति प्रतीत्या
देहात् व्यावृत्तः ।
“चक्षुषा पश्यामि”, ”श्रोत्रेण शृणोमि”, “वाचा वदामि” इत्यादि-प्रत्यायद्
बाह्येन्द्रियेभ्यो व्यावृत्तः ।
“मनसा जानामि” इति मनसो ज्ञानकरणत्व-प्रतीतेः,
“मम प्राणा” इति व्यतिरेकोक्तेः,
“जानामि अहम्” इति ज्ञानाच् च मनः-प्राण-ज्ञानेभ्यो व्यावृत्तः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद-
-जीव देह, इन्द्रिय, मन, प्राण एवं ज्ञान से भिन्न है । यह ‘मेरा शरीर है’ इस प्रतीति से आत्मा देह से भिन्न सिद्ध होता है । इसी प्रकार ‘मैं आँख से देखता हूँ, श्रोत्रेन्द्रिय से सुनता हूँ, वाणी से बोलता हूँ’ इत्यादि ज्ञान के द्वारा आत्मा बाह्ये- न्द्रियों से भिन्न सिद्ध होता है । ‘मैं मन से जानता हूँ’ इस प्रतीति में मन ज्ञान का साधन प्रतीत होता है, ‘मेरे प्राण हैं’ इस भेदोक्ति के द्वारा तथा ‘मैं जानता हूँ’ इस प्रतीति के द्वारा आत्मा मन, प्राण तथा ज्ञान से भिन्न सिद्ध होता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र०— आत्मा के विषय में भिन्न-भिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार हैं,
अतएव आत्मा के विषय में अनेक प्रकार के वाद हैं ।
जैसे—देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मन आत्मवाद, प्राणात्मवाद तथा ज्ञानात्मवाद ।
इन सभी वादों का संक्षिप्ततम विवेचन नीचे किया जाता है-
देहात्मवाद - सभी वादियों को यह अर्थ मान्य है कि
प्रत्येक शरीर में जो पदार्थ
‘मैं’ ‘मैं’ इस रूप से अनुभूत होता है,
वही आत्मा है ।
वह आत्मा कौन पदार्थ है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए
एक प्रकार के चार्वाक कहते हैं कि देह ही आत्मा है,
यह प्रत्यक्ष-प्रमाण से सिद्ध होता है।
यह निश्चित है कि आत्मा ज्ञाता है ।
‘मैं जानता हूँ’ इत्यादि अनुभूतियों से पता चलता है कि
जो पदार्थ ‘मैं’ ‘मैं’ इस शब्द से कहा जाता है,
वही आत्मा है ।
ज्ञान उसका धर्म है ।
‘मैं’ शब्द से
शरीर का ही अभिधान होता है,
क्योंकि ‘मैं मोटा हूँ’ ‘मैं दुबला हूँ’
इत्यादि अनुभवों से पता चलता है कि
जो मोटा, दुबला आदि होता है,
वही ‘मैं’ इस शब्द से कहा जाता है ।
दुबला, मोटा शरीर ही होता है,
अतएव शरीर ही आत्मा है ।
वही अहमर्थ है ।
किञ्च देखा जाता है कि
घट इत्यादि अचेतन पदार्थ
अपनी इच्छा के अनुसार
क्रियाओं को नहीं करते हैं
और न तो वे इन्द्रियाश्रय ही हैं ।
[[१६२]]
किन्तु देखा जाता है कि शरीर में इच्छानुविधायित्व रूप क्रिया होती रहती है ।
शरीर इन्द्रियाश्रय भी है ।
इसलिये भी पता चलता है कि शरीर ही चेतन अहमर्थ आत्मा है ।
शरीर से भिन्न पदार्थ को
आत्मा सिद्ध करने वाले अनुमान
प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित हो जायेंगे ।
शरीर को ही आत्मा बतलाते हुए
आचार्य बृहस्पति भी कहते हैं-
‘पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि
तेभ्यश्चैतन्यं
किण्वादिभ्यो मद-शक्तिवत् ।’
अर्थात्
शरीरारम्भक- पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्त्व हैं ।
इनके ही विलक्षण संयोग से ज्ञान
उसी प्रकार उत्पन्न होता है,
जिस प्रकार मदिरा के आरम्भक द्रव्य किण्वों से मदशक्ति उत्पन्न होती है ।
इस प्रकार इस विवेचन से सिद्ध होता है कि देह ही आत्मा है ।
देहात्मवाद का खण्डन —-
देहात्मवाद का खण्डन करते हुए
विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि —
प्रत्येक मनुष्य अपनी आत्मा को ‘मैं’ ‘मैं’ इस रूप से समझता है ।
आत्मा से भिन्न पदार्थों को वह
‘यह’ अथवा ‘वह’ इस रूप से समझता है ।
अतएव ‘मैं’, ‘यह’ एवं ‘वह’ इन शब्दों से कहे जाने वाले पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं ।
‘मैं’ पदार्थ आत्मा है
तथा ‘यह’ एवं ‘वह’ पदार्थ अनात्मा ।
आत्मा अपने को सदा ‘मैं’ इस रूप से ही प्रतीत होती है,
किन्तु शरीर ‘यह’ इस रूप से प्रतीत होता है ।
जैसे- यह मेरा शरीर है ।
इस प्रकार सिद्ध होता है कि
जिस प्रकार - ‘यह मेरी पुस्तक है’ ‘यह मेरा मकान है’ ‘यह मेरा खेत है’ इत्यादि अनुभवों में
‘यह’ ‘यह’ इस रूप से प्रतीत होनेवाले पुस्तक, मकान, खेत इत्यादि अनात्मा हैं,
उसी प्रकार ‘यह’ इस रूप से प्रतीत होने वाला शरीर भी अनात्मा है ।
वह आत्मा नहीं है ।
इस प्रकार इन प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर
शरीर अनात्मा सिद्ध होता है ।
किञ्च चार्वाक शरीर रूपी स्थूल पदार्थ को
आत्मा मानते हैं,
किन्तु जब मनुष्य बाह्येन्द्रियों का नियमन करके
तथा मन को सावधान रखकर
जब स्वयं को ‘मैं’
इस रूप से समझता है
तो उस समय आत्मा के कर, चरण आदि अवयवों की प्रतीति नहीं होती है ।
यदि शरीर ही आत्मा होता
तो प्रणिधान काल में
उसके अवयव कर-चरणादि की भी प्रतीति होती;
चूँकि नहीं होती है,
अतः सिद्ध होता है कि
अवयवी शरीर आत्मा नहीं है ।+++(5)+++
यह तो कभी संभव नहीं है कि
अवयवी की प्रतीति हो,
किन्तु उसके अवयवों की प्रतीति न हो।
इससे सिद्ध होता है कि अहमर्थ आत्मा शरीर से भिन्न है ।
किञ्च कुछ चार्वाक अनुमान-प्रमाण को भी मानते हैं,
उनके समक्ष यह अनुमान भी किया जा सकता है-
‘मैं जानता हूँ’ - यह प्रतीति शरीर-विषयिणी नहीं,
अपितु अर्थान्तर विषयिणी है,
क्योंकि यह प्रतीति
प्रणिधान काल में शरीर के अवयवों को प्रकाशित नहीं करती है ।
शरीर के अवयवों को नहीं प्रकाशित करने वाली प्रतीति
शरीर-विषयिणी न होकर
अर्थान्तरविषयिणी ही होती है -
जैसे शरीर के अवयवों को नहीं प्रकाशित करने वाली
‘यह घट है’ यह प्रतीति ।+++(4)+++
चक्षुरिन्द्रिय से होने वाली शरीर-विषयिणी प्रतीति
शरीर के इन्द्रियादि को प्रकाशित करती है,
यह सभी वादी स्वीकार भी करते हैं ।
[[१६३]]
किञ्च शरीर ‘अहम्’ प्रतीति का विषय नहीं हो सकता है,
क्योंकि वह चक्षुर्-इन्द्रिय ग्राह्य है+++(4)+++
तथा ‘यह’ इस शब्द से अभिहित किया जाता है -
‘यह’ इस शब्द से अभिहित किये जाने वाले
तथा चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य घट के समान ।
जिस प्रकार घट
कभी भी ‘अहम्’ शब्द से अभिहित नहीं किया जाता है,
उसी प्रकार शरीर भी
‘अहम्’ शब्द से अभिहित नहीं किया जाता है ।
इस प्रकार सिद्ध होता है कि
अहम्प्रतीति का विषय शरीर नहीं है ।
किञ्च ज्ञान शरीर का कार्य नहीं हो सकता है,
क्योंकि ‘कारण-गुणाः कार्य-गुणान् आरभन्ते’
इस नियम के अनुसार
जिस प्रकार मदिरा के आरम्भक द्रव्यों के
प्रत्येक परमाणु में मदशक्ति विद्यमान पायी जाती है,
उसी प्रकार शरीरारम्भक प्रत्येक परमाणुओं में
ज्ञान पाया जाता,
किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है,
अतएव ज्ञान शरीर का कार्य नहीं है,
यह सिद्ध होता है ।
किञ्च सुख, दुःख, इच्छा इत्यादि
शरीर के गुण नहीं है,
क्योंकि देखा जाता है कि
मर जाने के बाद
शरीर तो पड़ा ही रहता है,
किन्तु उसमें सुख, दुःख इत्यादि नहीं रह जाते हैं ।+++(4)+++
अतः सिद्ध होता है कि
शरीर के गुण इच्छादि नहीं हैं ।
यदि वे उसके गुण होते
तो वे शरीर के गुण रूपादि के समान
तब तक उस शरीर में रहते,
जब तक कि शरीर रहता ।
अतएव शरीर से भिन्न पदार्थ को ही
आत्मा अहमर्थ मानना चहिए ।
इन्द्रियात्म-वाद का प्रतिपादन –
कुछ ऐसे भी चार्वाक मतानुयायी हैं, जो इन्द्रियों के ही
आत्मत्व का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि -
भले ही देह को आत्मा न माना जाय,
किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मानने में
कोई दोष नहीं है ।
‘यह’ ‘यह’ इस रूप से प्रतीत होने वाले शरीर को
आत्मा से भिन्न माना जाय,
यह उचित ही है ।
किन्तु इन्द्रियों की ‘यह’ ‘यह’ इस रूप से प्रतीति नहीं होती है,
अतएव उनको अहमर्थं आत्मा मानने में
कोई भी दोष नहीं है ।
रूपादि गुणयुक्त स्थूल सावयव शरीर को
आत्मा मानने में यह दोष होता है कि
अहम् प्रतीति में शरीर के भासित होते समय
उसके उद्भूत रूपादि गुण और अवयवों को भी भासित होना चाहिए ,
किन्तु ऐसा नहीं होता है।
परन्तु इन्द्रियों को आत्मा मानने में यह दोष नहीं होता है,
क्योंकि इन्द्रियाँ उद्भूत रूपादि गुणों से युक्त नहीं हैं
तथा स्थूल भी नहीं हैं ।
अतएव इन्द्रियों को आत्मा मानने में कोई भी दोष नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि
इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं,
उनका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता है ।
अतएव उनकी ‘अहम्’ इस रूप से प्रतीति कैसे हो सकती है ?
तो इसका उत्तर यह है कि
चक्षुरादि इन्द्रियों से होने वाले रूपादि पदार्थ के ज्ञान का आधार
चक्षुरादि इन्द्रियाँ ही हैं ।
चक्षुरादि के होने पर ही
रूपादि का ज्ञान होता है;
इनके न होने पर
इनका ज्ञान नहीं होता है ।
इस प्रकार जो रूपादि ज्ञान
चक्षुरादि से अन्वय-व्यतिरेक रखते हैं,
वे ज्ञान चक्षुरादि को ही होते हैं
तथा चक्षुरादि में ही रहते हैं ।
[[१६४]]
यह मानने में लाघव है ।
उन रूपादि ज्ञानों का आश्रय
चक्षुरादि से भिन्न पदार्थ को मानने में गौरवदोष है ।
लोक में देखा जाता है कि
जिसके व्यापार से जो फल उत्पन्न होता है,
वह फल उस व्यापार के आश्रय बनने वाले पदार्थ में ही रहता है ।
जैसे— स्नान से होने वाला मालिन्य निवृत्ति रूप फल
स्नान करने वाले को प्राप्त होता है
तथा अध्ययन रूपी व्यापार से होने वाला अक्षर-राशि-ग्रहण रूपी फल
अध्ययन करने वाले को प्राप्त होता हैं,
उसी प्रकार इन्द्रियों के व्यापार-सन्निकर्ष से होने वाले
प्रत्यक्ष ज्ञान रूपी फल भी
इन्द्रियों को ही प्राप्त होता है ।
इस प्रकार इन्द्रिय ज्ञानाधार अहम्-अर्थ जब बनते हैं,
तब उनको अतीन्द्रिय एवं अप्रत्यक्ष कैसे माना जा सकता है ?
इन्द्रिय ‘मैं’ ‘मैं’ इस रूप से प्रत्यक्ष होने वाले पदार्थ हैं ।
अतः इनको आत्मा मानने में
कोई भी दोष नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि
रूपादि ज्ञान यदि चक्षुरादि इन्द्रियों को होता
तो वैसी उसकी अनुभूति होती,
किन्तु नहीं होती हैं,
अतः चक्षुरादि के रूपादि ज्ञान का आश्रय होने में
कोई भी प्रमाण नहीं है ?
तो यह कथन इसलिए उचित नहीं है कि
‘चक्षु देखता है’ ‘कान सुनता है’ इत्यादि अनुभवों के अनुसार
दर्शन एवं श्रवण क्रिया का आश्रय चक्षुरादि इन्द्रियाँ ही प्रतीत होती हैं ।
वराहपुराण के सत्यतपा महर्षि ने भी कहा है –
चक्षुर्-इन्द्रिय देखती है, बोलती नहीं;
वागिन्द्रिय बोलती है, देखती नहीं ।
किञ्च लोक में भी लोग कहते हैं,
यह वायु त्वगिन्द्रिय को सुख देती है,
यह शब्द श्रोत्रेन्द्रिय को दुःख दे रहा है ।
इन प्रयोगों से भी इन्द्रियाँ सुख-दुःख आदि का
आश्रय प्रतीत होती हैं ।
अतएव इन्द्रियाँ ही सुखादि को भोगने वाली
आत्मा प्रतीत होती हैं ।
किञ्च इन्द्रियों के धर्म
आत्मा में विद्यमान प्रतीत होते हैं,
इससे भी सिद्ध होता है कि
इन्द्रिय आत्मा है ।
यहाँ ये अनुभव ध्यान देने योग्य हैं कि
लोग इन्द्रिय-विकल होने पर समझते हैं कि
हम विकल हो गये ।
इन्द्रियों के अच्छे होने पर
वे समझते हैं कि हम अच्छे हैं ।
इस प्रकार इन्द्रियगत विकलत्व और सकलत्व इत्यादि धर्मों का जो यह अनुभव होता है कि
ये धर्म अहमर्थगत हैं,
इससे प्रमाणित होता है कि
इन्द्रिय ही आत्मा है ।
इन्द्रियात्मवाद की समालोचना –
इन्द्रियात्मवाद की समालोचना करते हुए
विशिष्टाद्वैती विद्वान् कहते हैं -
यदि इन्द्रियाँ ही अहम्-अर्थ आत्मा हैं
तो जो इन्द्रिय अनुभव करती है,
उसीको स्मरण होना चाहिए,
दूसरे को नहीं ।+++(5)+++
लोक में देखा जाता है कि
यौवनावस्था में देखने की क्षमता रखने वाले मनुष्य
वृद्धावस्था में चक्षुर्-इन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर भी
यह स्मरण करते हैं कि
‘जो मैं पहले देखा था,
वही मैं अब स्पर्श करके जानता हूँ’ ।
इन्द्रियात्मवादी को यहाँ यह मानना होगा कि
एक इन्द्रिय के द्वारा अनुभूत अर्थ का
दूसरी इन्द्रिय स्मरण करती है ।
यह अनुभव इन्द्रियात्मवाद में उपपन्न नहीं हो सकता,
क्योंकि जिसने अनुभव किया है, उसको ही स्मरण होना चाहिए; दूसरे को उसका स्मरण असंभव है ।
[[१६५]]
किञ्च प्रश्न उठता है कि
इन्द्रियाँ तो अनेक हैं ।
वे सभी इन्द्रियाँ पृथक्-पृथक् आत्मा हैं
अथवा सब मिलकर एक आत्मा हैं ?
यदि सभी इन्द्रियाँ पृथक्-पृथक् आत्मा हैं
तो इन्द्रियान्तर से अनुभूत अर्थ का स्मरण
इन्द्रियान्तर के द्वारा असंभव है ।
किन्तु
‘जिसको मैंने जवानी में देखा था
उसको मैं स्पर्श कर के जान रहा हूँ’
यह स्मरण होता है ।
किञ्च एक ही शरीर में अनेक आत्माओं के होने का भी प्रसंग होगा ।
यदि सम्पूर्ण इन्द्रियों के समूह को मिलाकर
एक आत्मा मानें तो भी उचित नहीं होगा ।
सभी इन्द्रियाँ मिलकर
किसी एक वस्तु का अनुभव करती हों,
ऐसा देखा नहीं जाता है ।+++(4)+++
और न तो सभी मिलकर
किसी एक वस्तु का स्मरण ही करती हैं ।
किञ्च इन्द्रियों का गुण ज्ञान को मानने पर
जो इन्द्रिय विनष्ट हो गयी,
उसके द्वारा अनुभूत अर्थ का स्मरण भी
इन्द्रियात्मवाद में अनुपपन्न होता है ।
किञ्च – ‘द्रष्टुश् चक्षुषोर् नास्ति जिह्वा’
इस सत्य-तपा महर्षि के वाक्य का अभिप्राय यह नहीं है कि
इन्द्रियाँ रूपादि ज्ञानों का आश्रय हैं,
अपितु ऋषि इस प्रकार की वक्रोक्ति इसलिए कहते हैं कि
नहीं बोलने पर क्षुत्-क्षाम व्याध का परिवार भूखों मर जायेगा ।
यदि सत्य सत्य बतला देते हैं तो
शरणागत वाराह के वध का पाप लगेगा ।
अत एव इन्द्रियात्मवाद सर्वथा अनुपपन्न है ।
मन - आत्मवाद का प्रतिपादन —
तीसरे प्रकार के चार्वाकों का कहना है कि
मन को ही आत्मा मानना चाहिए ।
इस पक्ष में उपर्युक्त दोष नहीं होते हैं ।
देह के अवयव-समुदायात्मक होने से
उसको आत्मा मानने पर
उसके विषय में यह विकल्प उपस्थित हुआ कि
क्या देह के प्रत्येक अवयव में चैतन्य है
अथवा समुदाय में चैतन्य है ?
दोनों पक्षों में दोष उपस्थित होने से
देहात्मवाद को छोड़ना पड़ा ।
परन्तु मन अवयव-समुदायात्मक नहीं है ।
अतः उसको आत्मा मानने पर
उपर्युक्त विकल्प स्थान नहीं पाता है ।
मन-आत्मवाद में उपर्युक्त दोष नहीं लगते ।
इन्द्रिय-आत्मवाद में यह विकल्प उपस्थित हुआ कि
क्या प्रत्येक इन्द्रियाँ आत्मा है
अथवा सभी मिलकर आत्मा है ?
दोनों पक्षों में दोष उपस्थित होने से
इन्द्रियात्मवाद छोड़ना पड़ा ।
किञ्च एक इन्द्रिय के द्वारा अनुभूत अर्थ के विषय में
दूसरे इन्द्रिय का स्मरण भी अनुपपन्न होने के कारण
इन्द्रियात्मवाद को त्यागना पड़ा ।
किन्तु मन- आत्मवाद में इस प्रकार का कोई भी दोष नहीं है,
क्योंकि मन एक है,
अवयवसमुदायात्मक भी नहीं है ।
वह सभी इन्द्रियों का अधिपति है ।
वह नष्ट भी नहीं होता,
अतएव एक इन्द्रिय के नष्ट होने पर भी
दूसरी इन्द्रिय के द्वारा उसका स्मरण उपपन्न हो जाता है ।
मन - आत्मवाद के अनुसार —
मन ने ही पहले उस इन्द्रिय के द्वारा अनुभव किया
तथा इन्द्रिय के नष्ट होने पर भी
विद्यमान मन उस पूर्वानुभूत अर्थ का स्मरण करता है ।
अतः मन को आत्मा मानने में कोई भी दोष नहीं है ।
मन-आत्मवाद का खण्डन
[[१६६]]
मन-आत्मवाद का खण्डन करते हुए
विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि
मन को आत्मा मानना इसलिए उचित नहीं है कि
इस वाद में अनेक दोष हैं ।
‘मेरा मन है’ इस प्रकार का अनुभव
सबको होता है ।+++(5)+++
इस अनुभव से
मन और अहम्-अर्थ आत्मा
दोनों भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं ।
इस अनुभव से मन-आत्मवाद का विरोध होता है ।
किञ्च आत्मा स्मरणादि क्रियायों का कर्ता है
और मन उनका करण है ।
कर्ता और करण दोनों भिन्न होते हैं ।
जिस प्रकार करण होने के कारण
चक्षुरादि इन्द्रियाँ कर्ता आत्मा नहीं हो सकती हैं,
उसी प्रकार करण मन भी स्मरणादि क्रियाओं का कर्ता
नहीं हो सकता है ।
जिस प्रमाण के द्वारा
मन की सिद्धि होती है,
उसी प्रमाण से मन के करणत्व की भी सिद्धि होती है ।
बाह्य तथा आभ्यन्तर सभी प्रकार के विषयों के ज्ञान होने में
मन का साधकतमत्व रूप करणत्व अपेक्षित होता है ।
मन से ही
वे सब ज्ञान उत्पन्न होते हैं ।
सब लोगों को यह अनुभव होता है कि
सभी बाह्येन्द्रियों के अपने-अपने विषय से सम्बद्ध रहने पर भी
सभी इन्द्रियों से
उन सभी विषयों का ज्ञान
एक साथ नहीं होता है,
अपितु वे सभी ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होते हैं ।+++(4)+++
ऐसा क्यों होता है ?
इसका कारण है कि ज्ञान की उत्पत्ति में
चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न एक दूसरा भी कारण है ।+++(5)+++
वह जिस इन्द्रिय की सहायता करता है,
उसी इन्द्रिय से ज्ञान उत्पन्न होता है ।
वह क्रम से ही इन्द्रियों की सहायता करता है ।
समकाल में ही वह सभी इन्द्रियों की सहायता नहीं कर सकता है ।
अणु-परिमाणक होने के कारण
वह एक काल में एक ही इन्द्रिय से संबन्ध रख पाता है ।
जिस इन्द्रिय से वह संबन्ध रखता है,
उसी इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान होता है ।
इन्द्रियों का सहायक
तथा उनसे संबन्ध रखने वाला वह साधन
मन है ।
इस प्रकार मन ज्ञान का साधन है, कर्ता नहीं ।
किञ्च जिस प्रकार रूपादि ज्ञान का साधन
चक्षुरादि इन्द्रियाँ है,
उसी प्रकार सुख-दुःख इत्यादि के ज्ञान का साधन भी कोई होना चाहिए।
वह साधन मन ही है ।
मन के द्वारा ही सुखादि के
ज्ञान एवं स्मरण होते हैं ।
जिस प्रकार छेदनादि क्रियाओं के साधकतम कुठारादि हैं,
उसी प्रकार ज्ञान रूप क्रियाओं की भी उत्पत्ति
किसी करण से होनी चाहिए;
वह ज्ञानोत्पादक करण मन ही है ।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि
मन ज्ञान का करण है, कर्ता नहीं ।
किञ्च मन - आत्मवादियों से प्रष्टव्य है कि
क्या वे स्मरणादि क्रियाओं के साधक-तम मन का,
स्मरणादि क्रियाओं के कर्ता आत्मा से अभेद मानते हैं
अथवा स्मरणादि क्रिया के कर्ता आत्मा को
स्मरणादि के साधकतम मन से अभिन्न मानते हैं ?
इन दोनों पक्षों में दोष हैं ।
करण मन को कर्ता आत्मा से अभिन्न मानना असङ्गत है ।+++(4)+++
क्योंकि अनुमान तथा शास्त्र प्रमाण के द्वारा
मन ज्ञान क्रिया के करण रूप से ही सिद्ध होता है ।
अतएव करण-मन को कर्ता-आत्मा मानने पर
मन के साधक मूल प्रमाण से ही विरोध होगा ।
कर्ता और करण में भेद होने से
वह द्वितीय पक्ष भी जिसमें कर्ता आत्मा का करण मन से अभेद कहा गया है -
खण्डित हो जाता है ।
क्योंकि स्मरण आदि का कर्ता आत्मा
स्वयं ही स्मरण आदि का करण बनता है,
इसमें कोई भी प्रमाण नहीं है ।
[[१६७]]
किञ्च - ‘मैं जानता हूँ’ इस प्रकार ज्ञाता अहम्-अर्थ प्रसिद्ध है ।
उसका निषेध नहीं हो सकता है ।
उस ज्ञाता आत्मा को मानना ही होगा ।
उसका अपलाप नहीं किया जा सकता है ।
उस ज्ञाता अहम्-अर्थ को ज्ञान-क्रिया को उत्पन्न करने में
करण कारक की अपेक्षा है ।
करण के रूप में मन का अनुमान किया जाता है ।+++(4)+++
इस प्रकार अनुमान से सिद्ध होनेवाले मन को मानकर
ज्ञाता आत्मा का अपलाप नहीं किया जा सकता है ।+++(5)+++
अनुमेय पदार्थ के बल से
प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ का अपलाप नहीं हो सकता ।
यदि यह कहो कि ज्ञाता आत्मा को मान लिया जाय,
करण को त्याग दिया जाय,
तब तो मन का आत्मत्व सिद्ध नहीं होगा,
किन्तु मन का अभाव ही सिद्ध हो जायेगा ।
मन का अभाव मानना भी उचित नहीं है,
क्योंकि मन को सिद्ध करनेवाले अनुमान और शब्द प्रमाण विद्यमान है ।+++(4)+++
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि ज्ञाता आत्मा को मानकर
करण मन का अपलाप नहीं किया जा सकता
तथा करण मन को मानकर
कर्ता आत्मा का अपलाप नहीं किया जा सकता है ।
ज्ञान का आश्रय अहमर्थ आत्मा
तथा करण मन,
इन दोनों पदार्थों को मानना ही होगा ।
करण और कर्ता
दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ होते हैं ।
अतएव ज्ञान का करण बनने वाला मन
ज्ञान का आश्रय आत्मा नहीं हो सकता ।
प्राणात्मवाद का प्रतिपादन -
एक अन्य प्रकार के चार्वाक
प्राण को आत्मा मानते हैं ।
प्राण को आत्मा सिद्ध करते हुए
उनका कहना है कि
निम्नलिखित प्रमाणों एवं तर्कों से
प्राण आत्मा सिद्ध होता है ।
शरीर में जब प्राण रहता है,
तब शरीर को सात्मक समझा जाता है;
शरीर से प्राण के निकल जाने पर
उसे निरात्मक समझा जाता है ।+++(5)+++
इस अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर
सिद्ध होता है कि
प्राण ही आत्मा है ।
किञ्च यह सर्वसम्मत अर्थ है कि
आत्मा देहादि को
तत् तत् कार्यों में प्रवृत्त करता है ।
देह, इन्द्रिय और मन की प्रवृत्ति
प्राण के अधीन देखी जाती है,
इससे भी सिद्ध होता है कि
प्राण ही आत्मा है ।
किञ्च प्राण को आत्मा शब्द से
तथा आत्मा को प्राण शब्द से अभिहित किया जाता है ।
इसलिये भी प्राण एवं आत्मा में अभेद की सिद्धि होती हैं ।
किञ्च देखा जाता है कि
जबतक शरीर में प्राण रहते हैं,
तबतक कहा जाता है कि जीवित है
और प्राण के निकल जाने पर कहा जाता है कि
मर गया।
ये जीवन और मरण
आत्मा की स्थिति और आत्मा के अभाव को लेकर व्यवहृत होते हैं ।
इससे भी सिद्ध होता है कि
प्राण ही आत्मा है ।
किञ्च - वैदिक आत्मा की इस शरीर से उत्क्रान्ति,
लोकान्तर में गमन
तथा लोकान्तर से आगमन
तभी उपपन्न हो सकता है
जब कि प्राण को आत्मा माना जाय ।
क्योंकि प्राण गतिशील है,
अतएव उसके शरीर से उत्क्रमण करने,
लोकान्तर में जाने
तथा लोकान्तर से आकर पुनः शरीर धारण करने में
कोई भी अनुपपत्ति नहीं है ।
इन सब हेतुओं से
प्राण आत्मा सिद्ध होता है ।
अतः प्राणात्मवाद संग्राह्य है ।
प्राणात्मवाद का खण्डन -
विशिष्टाद्वैती दार्शनिक प्राणात्मवाद का खण्डन करते हैं ।
वे कहते हैं कि
प्राण भी वायु- विशेष है ।
[[१६८]]
वह प्राण जब नासिका से बाहर निकलता है
तब स्पर्श करने पर स्पष्ट रूप से वायु- विशेष प्रतीत होता है।
जिस प्रकार बाह्य वायु अचेतन है,
उसी प्रकार प्राण भी अचेतन ही है ।+++(5)+++
नासिका से निकलने वाला वह प्राण
छुए जाने पर
घटादि के समान अचेतन
तथा अनात्मा उपलब्ध होता है,
उसे आत्मा नहीं माना जा सकता है ।
किञ्च सबको यह अनुभव है कि
सुषुप्तिकाल में आत्मा निर्व्यापार होकर रहता है,
उस समय भी प्राण अपना व्यापार करता रहता है ।+++(5)+++
प्राण व्यापार के प्रभाव से ही
सुप्त पुरुष का अन्न
सप्तधातु रूप में परिणत होता है
तथा श्वास एवं प्रश्वास चलते रहते हैं ।
सव्यापार प्राण
और निर्व्यापार आत्मा
एक पदार्थ नहीं बन सकते ।+++(4)+++
किञ्च सुषुप्तिकाल में
प्राण जाग्रत होकर जब इतना कार्य करता रहता है
तब उसको बोध क्यों नहीं होता है ?
जाग्रत होकर इतना कार्य करे
और उसको बोध बिल्कुल न हो,
यह महान् आश्चर्य है !!
इससे पता चलता कि
श्वास-प्रश्वास आदि कार्यों को करने वाला प्राण
आत्मा से भिन्न है ।
आत्मा और प्राण दोनों को एक नहीं माना जा सकता है ।
किञ्च यह सबको अनुभव होता है कि
‘ये मेरे प्राण है ।’
इस अनुभव से आत्मा अहमर्थ से
प्राण भिन्न सिद्ध होता है ।
किञ्च जिस प्रकार शरीर संघातस्वरूप है,
उसी प्रकार प्राण भी संघात रूप है,
क्योंकि वह प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनञ्जय –
इन दस प्रकारों का होता है ।
शरीर के विषय में वर्णित विकल्प
प्राण के विषय में भी इस प्रकार प्रवृत्त होता है कि
प्राण, अपान इत्यादि दस प्राणों में क्या प्रत्येक वायु आत्मा है
या इनका समुदाय आत्मा है,
दोनों ही पक्ष देहात्मवाद की परीक्षा में वर्णित रीति से दोष-दूषित है ।
अत एव प्राण आत्मा नहीं है ।
किञ्च प्राण को आत्मा सिद्ध करने के लिए
जितने कारण प्रदर्शित किये गये हैं,
वे सब अन्यथा-सिद्ध हैं ।
आत्मा प्राण के साथ
शरीर में रहता है
तथा प्राण के साथ
शरीर से बाहर निकलता है ।
अतएव प्राण के रहने पर
शरीर को सात्मक
तथा प्राण के नहीं रहने पर
शरीर को निरात्मक मानना युक्तियुक्त है ।
तथा प्राण की भी स्थिति में
जीवन का व्यवहार
तथा प्राण के निकलने पर
मरण का व्यवहार
प्राणातिरिक्तात्मवाद में संगत होता है ।
यह कथन कि—-
देहादि के व्यापार का कारण होने से
प्राण को आत्मा मानना चाहिए -
समीचीन नहीं है,
क्योंकि ज्ञान और इच्छा आदि भी
देहादि के व्यापार का कारण हैं,
परन्तु वे आत्मा नहीं हैं ।
अनेकार्थक होने के कारण
प्राण के लिए आत्मा शब्द का
तथा आत्मा के लिए प्राण शब्द का
प्रयोग होता है ।
अतएव प्राण एवं आत्मा में अभेद की सिद्धि
नहीं हो सकती है ।
किञ्च सिद्धान्त में यह माना जाता है कि
जिस प्रकार स्पर्शशून्य अणु मन को
प्रयत्न और अदृष्ट की प्रेरणा से
शरीर से उत्क्रमण, गमन और आगमन इत्यादि होते हैं,
उसी प्रकार स्पर्श-रहित अणु-आत्मा के भी
अदृष्ट की प्रेरणा से
शरीर से निर्गमन, परलोक गमन तथा आगमन इत्यादि सम्पन्न होते हैं ।
अतएव उत्क्रान्ति, गति एवं आगति की सिद्धि के लिए
प्राण को आत्मा मानने की कोई भी आवश्यकता नहीं है ।
[[१६९]]
अतः प्राणात्मवाद
साधक हेतुओं के अभाव
तथा बाधक हेतुओं के सद्भाव के द्वारा
सर्वथा अनुपपन्न है ।
बौद्ध तथा अद्वैती विद्वान्
लोकप्रसिद्ध ज्ञान को ही आत्मा मानते हैं ।
वे ज्ञान-व्यतिरिक्त किसी पदार्थ को
आत्मा नहीं मानते हैं ।
बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद का प्रतिपादन -
बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि
ज्ञान-सन्तान ही आत्मा है।
ज्ञान प्रतिक्षण उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं ।
एक ज्ञान के बाद दूसरा ज्ञान,
उसके बाद तीसरा ज्ञान,
इस प्रकार ज्ञान की धारा बनी रहती है ।
वह धारा ही सन्तान है ।
वह ज्ञान-सन्तान ही आत्मा है ।
क्योंकि ज्ञान अजड़ है,
वह आत्मा माना जाता है ।
लोक में देखा जाता है कि
जितने घटादि अनात्मा पदार्थ हैं,
वे सब जड़ हैं;
ज्ञान अजड़ हैं ।
अतः इसे आत्मा मानना चाहिए ।
ज्ञान अजड़ है,
क्योंकि वह स्वयम् प्रकाश पदार्थ है ।
ज्ञान रहते समय में
सदा प्रकाशक निरपेक्ष होकर
प्रकाशित होता रहता है ।
ज्ञान को स्वयम् प्रकाश इसलिए भी मानना चाहिए कि
ज्ञान के सम्बन्ध के कारण ही
घटादि पदार्थों का प्रकाश होता है
तथा ‘घट प्रकाशित होता है’ यह व्यवहार भी होता है ।
लोक में यह व्याप्ति देखने में आती है कि
जिस पदार्थ के संबन्ध से
दूसरे पदार्थों के विषय में
जो व्यवहार होता है,
यदि वैसा धर्म और व्यवहार
उस पदार्थ के विषय में अनुभूत होता हो तो
मानना होगा कि
उस पदार्थ-स्वरूप के कारण ही
उस पदार्थ में वह धर्म तथा व्यवहार होता है ।
यह नहीं कि उस पदार्थ के संबन्ध के कारण वैसा होता हो -
जैसे रूप के संबन्ध के कारण
घटादि पदार्थों में चाक्षुषत्व धर्म माना जाता है,
क्योंकि रूपवाला होने के कारण ही
घटादि पदार्थों के विषय में
यह व्यवहार होता है कि
घटादि चाक्षुष् हैं ।
यह चाक्षुषत्व धर्म और चाक्षुषत्व व्यवहार रूप के विषय में संगत होते हैं ।
क्योंकि रूप भी चाक्षुष होते हैं ।
रूप के विषय में होने वाले
चाक्षुषत्व धर्म और चाक्षुषत्व व्यवहार
क्या रूप के किसी दूसरे रूप से संबद्ध होने के कारण होते हैं ?
‘नहीं’ । क्योंकि रूप दूसरे रूप से सम्बन्ध नहीं रखता है,
किन्तु रूप स्वरूप के कारण ही
रूप में चाक्षुषत्व धर्म
तथा चाक्षुषत्व व्यवहार होता है ।
यह उचित ही है कि
दूसरों में चाक्षुषत्व धर्म और चाक्षुषत्व व्यवहार का निर्वाहक रूप
अपने में चाक्षुषत्व धर्म और चाक्षुषत्व व्यवहार का निर्वाहक हो ।
इसी प्रकार अपने सम्बन्ध के कारण
दूसरे घटादि पदार्थों में
प्रकाशधर्म के तथा प्रकाशत्व व्यवहार को
सम्पन्न करने वाला ज्ञान
अपने में प्रकाशधर्म और प्रकाशमानत्व व्यवहार को
स्वयं सम्भाल लें ।
अतः सिद्ध है कि
ज्ञान में प्रकाश स्वरूप-प्रयुक्त है,
वह ज्ञानान्तर के सम्बन्ध के कारण उत्पन्न नहीं होता है ।
स्वरूपप्रयुक्त प्रकाश के कारण
ज्ञान स्वयम् प्रकाश सिद्ध होता है ।
इस स्वयम् प्रकाश ज्ञान को
आत्मा मानना चाहिए,
क्योंकि वह अजड़ है ।
इस ज्ञान से व्यतिरिक्त दूसरे पदार्थ ज्ञाता को आत्मा मानने में गौरव - दोष है,
क्योंकि ज्ञाता को आत्मा मानने वालों को भी
ज्ञान को मानना होगा ।+++(5)+++
अतएव उभयवादी- सम्मत ज्ञान को ही
आत्मा मानना चाहिए ।
[[१७०]]
किञ्च अहमर्थ जो ज्ञान के आश्रय रूप में प्रतीत होता है,
उसका दूसरा कारण भी है ।
वह यह है कि ज्ञान क्षणिक है,
वह प्रतिक्षण उत्पन्न एवं विनष्ट होता है ।
इस ज्ञान-सन्तान में दो प्रकार के ज्ञान होते हैं -
( १ ) आलयविज्ञान और
( २ ) प्रवृत्तिविज्ञान ।
‘मैं’ इस रूप में प्रतीत होने वाले ज्ञान आलयविज्ञान कहलाते हैं ।
नीलादि पदार्थों का उल्लेख करने वाले विज्ञान प्रवृत्तिविज्ञान कहलाते हैं ।
आलय-विज्ञान प्रवृत्ति-विज्ञान का कारण होने से,
‘मैं’ इस रूप से प्रतीत होने वाला आलय-विज्ञान,
नीलज्ञान और पीतज्ञान इत्यादि प्रवृत्ति-विज्ञानों के आश्रय रूप में भासित होता है ।
वस्तुतः आश्रयाश्रयिभाव इत्यादि कुछ भी नहीं है ।
प्राचीन वासना अथवा अविद्या के कारण ही
ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय
ऐसे अवास्तविक रूपों का उल्लेख करने वाला जो स्वयम्प्रकाश ज्ञान है,
वही सत्य है, वही आत्मा है ।
बौद्धों ने कहा भी है-
‘अ-विभागोऽपि बुद्ध्य्-आत्मा
विपर्यासित-दर्शनैः ।
ग्राह्य-ग्राहक-संवित्ति-
भेदवान् इव लक्ष्यते ॥ '
अर्थात्
बुद्धि रूप आत्मा
ज्ञेय और ज्ञाता से अभिन्न होने पर भी
विपरीत ज्ञान में फँसे हुए भ्रान्त पुरुषों को
ऐसा प्रतीत होता है कि
वह ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान,
ऐसे भेदों से युक्त हो ।
वास्तव में वैसा भेद है नहीं ।
बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद का खण्डन –
बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद का खण्डन करते हुए
विशिष्टाद्वैती विद्वान् कहते हैं कि -
यह जो कहा गया है कि
ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की नियम से साथ-साथ प्रतीति होती है,
अतः इनमें अभेद मानना चाहिए ।
यह कथन ठीक नहीं है,
क्योंकि ज्ञेय भिन्न-भिन्न हैं,
ज्ञान भी प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही उत्पन्न होता है ।
इसमें किसी भी ज्ञान की
ज्ञाता और ज्ञेय के साथ
नियमतः प्रतीति नहीं होती है ।
ज्ञान कभी इस ज्ञान के साथ प्रतीत होता है
और कभी दूसरे ज्ञान के साथ ।
एक ज्ञान के साथ ही
ज्ञाता और ज्ञेय प्रतीत होते हों,
ऐसी बात नहीं है ।
ज्ञान- सामान्य के साथ
ज्ञाता और ज्ञेय सदा भासित होते हैं;
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है,
क्योंकि बौद्धों के मत में
व्यक्तियों से व्यतिरिक्त
सामान्य रूपी जाति
मानी ही नहीं जाती है ।+++(4)+++
उनके द्वारा स्वीकृत अपोह
तत्-तद् व्यक्ति रूप ही है ।
किञ्च साहित्य
सदा दो वस्तुओं में होता है,
ज्ञाता और ज्ञेय की ज्ञान के साथ प्रतीति होती है,
इस प्रकार साहित्य के वर्णन से
उनमें भेद ही सिद्ध होता है ।
इस प्रकार अबाधित प्रतीति सिद्ध
ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान के भेद का अपलाप
नहीं किया जा सकता है ।
किञ्च पहले कहा जा चुका है कि
‘मैं जानता हूँ’ इस प्रतीति के अनुसार
ज्ञान अहमर्थ का धर्म
तथा अहमर्थ ज्ञान का आश्रय प्रतीत होता है।
ज्ञान अहमर्थ के लिए प्रकाशित होता है,
क्योंकि ज्ञान से होने वाला व्यवहार रूपी फल
अहमर्थ को ही प्राप्त होता है ।
अतएव ज्ञान परार्थ होता है ।+++(5)+++
उस परार्थ ज्ञान को आत्मा मानना उचित नहीं है ।
अनन्यार्थ अहमर्थ को ही आत्मा मानना चाहिए ।
[[१७१]]
किञ्च बौद्ध
यद्यपि ‘मैं’ ‘मैं’
इस रूप से प्रतीत होने वाले ज्ञान को ही आत्मा मानते हैं,
फिर भी वे अहमर्थ में ज्ञानाश्रयता को अवास्तविक मानते हैं ।
किन्तु यह उनकी भूल है,
उन्हें ज्ञान, ज्ञाता एवं ज्ञेय तीनों को समान रूप से सत्य मानना चाहिए ।+++(4)+++
अहमर्थं में ज्ञानाश्रयत्व उसी प्रकार सत्य है,
जिस प्रकार ज्ञान सत्य है ।
अतएव ज्ञाता अहमर्थ ही आत्मा है,
यह मानना चाहिए ।
अद्वैति-सम्मत ज्ञानात्मवाद का प्रतिपादन -
अद्वैती विद्वान् कहते हैं कि
विषय- प्रकाशक ज्ञान स्व-पर-निर्वाहक न्याय से
स्वयम् प्रकाशित है ।
यह ज्ञान अनित्य नहीं
अपितु नित्य है ।
नित्य होने के कारण ही
वह निर्विकार, एक और निर्धर्मक है ।
इस प्रकार एक, भेद रहित, निर्धर्मक, निर्विकार, कूटस्थ तथा नित्य प्रकाशक स्वरूप जो ज्ञान है,
वही आत्मा एवं परमात्मा है ।
आत्मा और परमात्मा
उससे भिन्न नहीं हैं ।
यह ज्ञान ही
वेदान्त-वाक्यों के तात्पर्य का विषय है ।
इसे ही बतलाने के लिए
वेदान्त- वाक्य प्रवृत्त होते हैं ।
यहाँ पर अद्वैती विद्वानों के ये कथन ध्यान देने योग्य हैं ।
इष्ट-सिद्धिकार मंगलाचरण में कहते हैं—
‘याऽनुभूतिर् अजामेया
ऽनन्तात्माऽऽनन्द-विग्रहा ।
महद्-आदि-जगन्-माया
चित्रभित्तिं नमामि ताम् ॥’+++(5)+++
अर्थात्
अनुभूति ( ज्ञान ) अनुभूति होने से ही स्वयं प्रकाश है,
स्वयं प्रकाश होने से ही वह
अजा अर्थात् नित्य है,
अमेय अर्थात् ज्ञान का अविषय है,
वह अनुभूति अनन्त है,
आत्मा है तथा आनन्दस्वरूप है ।
इस प्रकार की अनुभूति ही महत्तत्त्व इत्यादि इस जगत् रूपी मायाचित्र की भित्ति है ।
जिस प्रकार भित्ति में चित्र लिखा जाता है,
उसी प्रकार अनुभूति में ही सम्पूर्ण जगत् अध्यारोपित है ।
अद्वैति सम्मत ज्ञानात्मवाद का खण्डन -
विशिष्टाद्वैती विद्वानों का कहना है कि
उपर्युक्त बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद के खण्डन से ही
अद्वैति सम्मत ज्ञानात्मवाद का भी खण्डन हो जाता है ।
बौद्धों के ज्ञानात्मवाद को
अद्वैती विद्वानों ने वैदिक रूप दे दिया है ।
यद्यपि बौद्धों के ज्ञानात्मवाद
और अद्वैतियों के ज्ञानात्मवाद में यह अन्तर कि
बौद्ध क्षणिक ज्ञान को आत्मा मानते हैं
और अद्वैती स्थिर ज्ञान को आत्मा मानते हैं;
फिर जो दोष बौद्ध सम्मत ज्ञानात्मवाद में आते हैं,
वे सभी दोष अद्वैति सम्मत ज्ञानात्मवाद में भी आते हैं ।
इसके अतिरिक्त अद्वैती विद्वानों के ज्ञानात्मवाद में यह दोष है कि
वे ज्ञान को निर्धर्मक मानते हैं ।+++(5)+++
किन्तु कोई भी ऐसा ज्ञान नहीं होता,
जो विषय और आश्रय से रहित हो ।
अतएव अद्वैति-सम्मत निर्धर्मक ज्ञान अप्रामाणिक है ।
फलतः वह अहम् प्रतीति रूप आत्मा नहीं हो सकता है ।
किञ्च आत्मा ज्ञाता है, ज्ञानमात्र नहीं;
इस बात को स्पष्ट करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं-
‘ज्ञोऽत एव’ ( ब्र० सू० २।३।१९ ) इस सूत्र में तीन पद हैं,
‘ज्ञ’ ‘अतः ‘एव’ ।
यहाँ एव पद का
ज्ञः एवं अतः
इन दोनों पदों से संबन्ध होता है ।
ज्ञः के साथ एवकार अन्ययोग-व्यावर्तक रूप से अन्वित होता है
[[१७२]]
तथा एव के साथ
वह अयोग-व्यावर्तक रूप से अन्वित होता है।
सूत्र का ‘अतः’ पद पूर्ववर्ती ‘नात्मा श्रुतेः’ ( ब्र० सू० २।३।१८ ) सूत्र के ‘श्रुतेः’ पद का परामर्शक है ।
इस प्रकार सूत्र का अर्थ है कि
आत्मा ज्ञानवान् ही है, ज्ञानमात्र नहीं,
यह ज्ञ एव का अर्थ हुआ ।
‘अतएव ’ का अर्थ हुआ कि
आत्मा के ज्ञातृत्व की सिद्धि
श्रुतियाँ करती हैं।
क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् के आठवें अध्याय में
जहाँ मुक्तजीवों तथा अमुक्तजीवों के स्वरूप का वर्णन किया गया है,
वहाँ पर यह कहा गया है कि-
‘अथ यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा’ ( छा० उ० ८।१२।४ ) ।+++(5)+++
अर्थात् जो यह जानता है कि मैं सूँघता हूँ
वही आत्मा है ।
‘अतएव’ का अयोग-व्यावर्तक एवकार बतलाता है कि
युक्ति के द्वारा भी आत्मा के ज्ञातृत्व धर्म की सिद्धि होती है ।
आत्मा को ज्ञातृत्व-धर्मावच्छिन्न सिद्ध करते हुए
इस सूत्र के ज्ञः पद के शाङ्कर-भाष्य में भी कहा गया है –
‘ज्ञो नित्य चैतन्योऽयम् आत्मात एव ।’
अर्थात् “अतएव आत्मा नित्यचैतन्यरूपी गुणवाला है” ।
‘नित्यं चैतन्यं यस्याऽसौ’ यह ‘नित्यचैतन्यः’ इस पुंलिङ्ग पद का विग्रह है ।
इस प्रकार अद्वैति सम्मत ज्ञानमात्र
जब आत्मा नहीं हो सकता है
तो फिर उसके निर्विकारत्व आदि की परीक्षा प्रकृत में अनावश्यक है ।+++(4)+++
मूलम्
३. स च देहेन्द्रियमनःप्राणादिभ्यो विलक्षणः । यथा “मम शरीरम्” इति प्रतीत्या देहात् व्यावृत्तः । “चक्षुषा पश्यामि”, ”श्रोत्रेण शृणोमि”, “वाचा वदामि” इत्यादि-प्रत्यायत् बाह्येन्द्रियेभ्यो व्यावृत्तः । “मनसा जानामि” इति मनसो ज्ञानकरणत्व-प्रतीतेः, “मम प्राणा” इति व्यतिरेकोक्तेः, “जानामि अहम्” इति ज्ञानाच्च मनःप्राण- ज्ञानेभ्यो व्यावृत्तः ।
वासुदेवः
देहाव्द्यावृत्त इति । चार्वाकास् तु देह एवा ऽत्मेति वदन्ति । अत एव स देहावधिकः । न तु देहोत्पत्तेः पूर्वं देहनाशानन्तरं वा तस्य स्थितिः । देहात्मवादे प्रमाणं त्व् अहं जानामीति प्रत्ययः । ज्ञाता ह्य् आत्मा अहम् इति चकास्ति । देहश् चाहंकार-गोचरः । स्थूलो ऽहं कृशो ऽहमिति दर्शनात् । देहस्य हि स्थौल्यादियोगः । अतस् तत्समानाधिकरणतया ऽयम् अहंकारः शरीरालम्बन इत्य् अवश्यम् आश्रयणीयम् । यद्यपि भौतिकेषु काष्ठ-लोष्टादिषु चैतन्यं नोपलभ्यते तथा ऽपि भूत-चतुष्टय-संघातात्मक-देहे चैतन्याविर्भावो नानुपपन्नः । यथा क्रमुक-फल-ताम्बूल-दलादिषु अवयवेषु प्रत्येकमविद्यमानो ऽपि रागः संयोग-विशेषाद् अवयविन्य् आविर्भवति तद्वत् । परं त्व् एतद् अरमणीयम् । इदं शरीरम् इति शरीर-विषयिणी मतिः पराग्वृत्तिः । अहं जानामि इति प्रत्यग्वृत्तिर् अहम् इति मतिः । सा चेदंकार-गोचराद् भिन्नम् एव स्व-विषयम् उपस्थापयति । तद् उक्तम् —
न खल्व् अहम् इदंकाराव् एकस्यैकत्र वस्तुनि ।
इति । स्थूलो ऽहम् इत्यादिस् तु लाक्षणिकः प्रयोगः । अत एव ममेदं गृहम् इतिवन् ममेदं शरीरम् इति भेद-प्रतिभासः । किं च चैतन्यम् अपि देहे नोपपद्यते । कार्य-द्रव्यगत-विशेषगुणानां कारण-गुण-पूर्वकत्वात् । ताम्बूलादाव् अपि चर्वण-जनित-हुतवह-संयोग-संपादित-पाटलिमभिः परमाणुभिर् द्व्यणुकादि-क्रमेण कारण-गुण-पूर्वक एव रागोदयः । किं चानुमानेनापि देहस्यानात्मत्वं सिध्यति । तथा चोक्तम् -
उत्पत्तिमत्त्वात् पारार्थ्यात् संनिवेश-विशेषतः । रूपादिमत्त्वाद् भूतत्वाद् देहो ना ऽऽत्मा घटादिवत् ॥ सच्छिद्रत्वाद् अदेहित्वाद् देहत्वान् मृतदेहवत् ।
इति । किं च देहात्मवादे जन्मान्तराभावेनाकृताभ्यागम-कृत-विप्रणाश-दोष-प्रसङ्गः । सन्ति हि देहान्तरानुभाव्य-स्वर्ग-स्वाराज्यादि-साधन-विधायिन्यः श्रुतयः । किं च जातमात्रो हि जन्तुः स्तन्यादि-वाञ्छायुक्तस् तदर्थ-प्रवृत्त्या निश्चीयते । तदवस्थस्य च रागादयो जन्मान्तरीय-संस्कारोद्बोधम् अन्तरेण न युज्यन्त इति बोध्यम् ।
चक्षुषेति । इन्द्रियात्मवादिनाम् अयम् अभिप्रायः - ज्ञानं हीन्द्रिय-व्यापार-फलम् । अतस् तद् इन्द्रिय-समवाय्येव भवितुम् अर्हति । ज्ञानाश्रयत्वम् एव च चेतनत्वम् इति । किं त्व् एतद् अयुक्तम् । चक्षुषा पश्यामीत्यादि-प्रतीति-विरोधात् । तत्र हि द्रष्ट्रादिश् चक्षुरादिभ्यो भिन्न एव प्रतीयते । किं चेन्द्रियाणां प्रत्येकं चेतनत्वं संभूय वा । ना ऽऽद्यः । इन्द्रियान्तर-दृष्टस्येन्द्रियान्तरेण प्रतिसंधानाभाव-प्रसङ्गात् । अस्ति च तत् ‘यम् अहम् अद्राक्षम् तम् अहं स्पृशामि’ इति । नान्त्यः । न हि पञ्चभिर् इन्द्रियैः संभूयैकं वस्त्व् अनुभूयते ऽनुसंधीयते वा । किं चैकेन्द्रिय-विगमे मरण-प्रसङ्गः । तत्तदिन्द्रियापाये तद् इन्द्रियार्थ-स्मरणानुपपत्तिश् च । तथा चान्धो रूपं न स्मरेत् । बधिरः शब्दं न स्मरेत् । ज्ञानस्येन्द्रिय-व्यापार-जन्यत्वे ऽपि शस्त्रादि-व्यापार-जन्मनः पापादेर् इव परसमवायित्वं नानुपपन्नम् । मनसेति । किं च बाह्येन्द्रियेषु यथायथं स्व-स्व-विषय-संबद्धेष्व् अपि यतो न युगपत् सर्वे विषयाः प्रतीयन्ते ततो ऽवगच्छामः, अस्ति किञ्चिद् अपरम् अपि साधनं यत्-साहाय्यक-विरहान् न सर्वे विषया युगपत् प्रकाशन्ते किं तु कश्चिद् एवैकः प्रतीयत इति मनसः करणत्वसिद्धिः ।
सुखादि-संवेदनानि करणवन्ति क्रियात्वात्, रूपादि-ज्ञानवत् ।
इत्य् अनुमानम् अप्य् अत्र प्रमाणम् । तद् एवम् ज्ञान-करणतया ऽवगतस्य मनसः कथम् इव ज्ञाने कर्तृत्वम् । कर्तृत्वं हि स्वातन्त्र्यनियतम् । स्वातन्त्र्यं च स्वच्छन्दानुरोधेन साध्य-सिद्ध्यनुगुणोपकरण-संपादन-सामर्थ्यम् । करणत्वं तु पारतन्त्र्यनियतम् । पारतन्त्र्यं च पराधिष्ठानाधीन-व्यापारत्वम् । ननु प्राण एवा ऽऽत्मा । प्राणान्वयिनि शरीरे सात्मकत्व-प्रतीतेस् तद् अनन्वयिनि निरात्मकत्व-प्रतीतेश् चेत्यत माह - मम प्राणा इति । किं च प्राणो ना ऽत्मा वायुत्वाद् बाह्यवायुवत् । देह-धारण-योग्यता-रूप-विशेषम् आपन्नो वायुर् एव प्राणः । ‘आपोमयः प्राणः’ ( छा० ६।५।४) इति श्रुतिस् त्व् आप्यायनपरा । तेजोमयी वाग् इतिवत् । सुषुप्तौ वृत्तिहीने ऽप्य् आत्मनि प्राणस्य वृत्तिमत्त्वदर्शनाच् च न तस्या ऽत्मत्वम् । प्राणवृत्त्यैव ह्य् अशित-पीत-द्रव्यस्य सुषुप्तावपि सप्त-धातु-भावेन परिणामः श्वास-प्रश्वासौ च भवतः । ननु संविद् एवा ऽत्मा, अजडत्वाद् अत आह - जानामीति । अजडत्वहेतुस् तु ना ऽत्मत्वसाधक इत्य् अग्रे बौद्धमत-खण्डने स्फुटी भविष्यति ।