वासुदेवः
अथाष्टमो ऽवतारः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१. अथ जीवो निरूप्यते ।
प्रत्यक्त्व-चेतनत्वात्मत्व-कर्तृत्वादीनि ईश्वर-जीव-साधारणानि लक्षणानि ।
प्रत्यक्त्वं नाम स्वयम् एव स्वस्मै भासमानत्वम् ।
चेतनत्वं ज्ञानाश्रयत्वम्। +++(किम् पुस्तकं चेतनं तर्हि?)+++
आत्मत्वं शरीर-प्रतिसम्बन्धित्वम् ।
कर्तृत्वं सङ्कल्प-ज्ञानाश्रयत्वम् ।+++(4)+++
अण्णङ्गराचार्यः
॥ अथ अष्टमावतारव्याख्या ॥
**‘प्रत्यक्त्व’**मिति । स्वकर्तृकव्यवहारप्रयोजकस्वनिरूपितविषयतावत्त्वं प्रत्यक्त्वमिति निष्कर्षः ।
**‘सङ्कल्पे’**ति । इदमहं करिष्य इति ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – धर्मभूत ज्ञान के निरूपण के पश्चात्
जीव का निरूपण किया जाता है ।
प्रत्यक्त्व, चेतनत्व, आत्मत्व तथा कर्तृत्व आदि धर्म
जीव तथा ईश्वर में समान रूप से पाये जाते हैं ।
स्वयम् ही ( प्रकाशक निरपेक्ष होकर ) अपने लिए प्रकाशित होने को
प्रत्यक्त्व कहते हैं ।
ज्ञान का आश्रय होना
चेतनत्व कहलाता है ।
शरीर का प्रति-संबन्धी होना ही
आत्मत्व कहलाता है ।
संकल्प तथा ज्ञान का आश्रय होना ही कर्तृत्व धर्म है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
जीव और ईश्वर में कुछ साम्य
भा० प्र० – जीव और ईश्वर दोनों प्रत्यक्तत्त्व हैं ।
जो द्रव्य अपने लिए प्रका- शित होता है, उसे प्रत्यक कहते हैं ।
जीव और ईश्वर दोनों अपने लिए प्रकाशित होते हैं।
अपने प्रकाश से होने वाले व्यवहार रूपी फल को स्वयम् प्राप्त करते हैं और ये दोनों अपने ही द्वारा प्रकाशित होते हैं ।
वे अपने प्रकाश के लिए किसी दूसरे प्रकाशक की अपेक्षा नहीं करते हैं ।
इस प्रकार प्रकाशक निरपेक्ष होकर अपने लिए प्रकाशित होना ही प्रत्यक्त्व कहलाता है । ‘चैतन्यमस्त्यस्य इति चेतनः, तस्य भावस्तत्त्वम्’ यह चेतनत्व शब्द की व्युत्पत्ति है । इस प्रकार चैतन्य अर्थात् ज्ञान का आश्रय होना ही चेतनत्व कहलाता है । शरीर का प्रतिसंबन्धी होना आत्मत्व कहलाता है । संकल्प तथा ज्ञान का आश्रय होना ही कर्तृत्व कहलाता है ।
ये चारों धर्म - प्रत्यक्त्व, चेतनत्व, आत्मत्वं तथा कर्तृत्व, ईश्वर और जीव दोनों में पाये जाते हैं ।
क्योंकि जीव तथा ईश्वर अपने प्रकाश से होने वाले व्यवहार रूपी फल को
स्वयम् प्राप्त करते हैं
तथा [[१६०]] अपने प्रकाश के लिए
किसी दूसरे प्रकाशक पदार्थ की अपेक्षा नहीं करते हैं ।
इसीलिए श्रुतियाँ जीव तथा ईश्वर को
‘स्वयं ज्योतिष्’ आदि शब्दों से विशेषित करती हैं ।
ईश्वर का ज्ञानाश्रयत्व तो श्रुतियों में अत्यन्त प्रख्यात है ।
ईश्वर की ज्ञानाश्रयता का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है-
‘यः सर्वज्ञः सर्ववित्’
अर्थात् जो परमात्मा सभी वस्तुओं को सामान्य एवं विशेष रूप से जानता है ।
जीव का तो एक नाम चेतन ही है ।
उसे चेतन इसलिए माना जाता है कि वह ज्ञानाश्रय है ।
ज्ञान उसका असाधारण धर्म है,
जो उसे ईश्वर-व्यतिरिक्त सभी वस्तुओं से भिन्न सिद्ध करता है ।
‘स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च’ श्रुति बतलाती है कि ज्ञान एवं बल की क्रिया का कर्तुत्व परमात्मा का स्वाभाविक धर्म है ।
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति’ श्रुति तो
ईश्वर में जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार की क्रिया-कर्तृत्व का प्रतिपादन करती हुई
उसके मोक्षप्रदातृत्व रूप क्रिया का प्रतिपादन करती है ।
कोई भी क्रिया बिना संकल्प एवं ज्ञान के नहीं हो सकती है ।
किसी भी क्रिया को निर्वर्तित करने के लिए
संकल्प का करना आवश्यक है ।
पुनः उस कार्य में प्रवृत्ति होती है ।
कर्तृत्व गुण जीव और ईश्वर दोनों में पाया जाता है ।
मूलम्
१. अथ जीवो निरूप्यते । प्रत्यक्त्वचेतनत्वात्मत्वकर्तृत्वादीनि ईश्वरजीवसाधार-णानि लक्षणानि । प्रत्यक्त्वं नाम स्वयमेव स्वस्मै भासमानत्वम् । चेतनत्वं ज्ञानाश्रयत्वम् आत्मत्वं शरीरप्रतिसम्बन्धित्वम् । कर्तृत्वं सङ्कल्पज्ञानाश्रयत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२. एवं सामान्य-लक्षण-लक्षितस्य जीवस्य
विशेष-लक्षणानि उच्यन्ते –
अणुत्वे सति चेतनत्वम्,
स्वतः-शेषत्वे सति चेतनत्वम् ।
एवम् आधेयत्व-विधेयत्व–पराधीन-कर्तृत्व–परतन्त्रत्वादिकम् ऊह्यम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
जीवात्मनोः लक्षणमाह परमात्मव्यावृत्तम् ‘अणुत्वे सतीति । ईश्वरेऽतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । पृथिव्याद्यतिसूक्ष्मांशेऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यम् ।
लक्षणान्तरं ‘स्वतः शेषत्वे’ इति । स्वभावत एव - निरुपाधिकतया भगवन्तं प्रति शेषत्वे सतीत्यर्थः । प्रकृत्यादावतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलम् । भगवतो भक्तशेषत्वं तु भक्त्युपाधिकम्, (ऐच्छिकम्) न स्वतः ।
**‘एव’**मिति । परमात्माधेयचेतनत्वम्, परमात्मविधेयचेतनत्वम्, परमात्मायत्तकर्तृत्वं, परमात्मपरतन्त्रचेतनत्वं च जीवलक्षणानीत्यर्थः । व्यतिरेकोक्त्या — आत्मसम्बन्धित्वलक्षणभेदोक्त्या । ‘देहेन्द्रियमनःप्राणधीभ्योऽन्य’ इत्यात्मसिद्धिवचनमत्रानुसन्धेयम् । देहादितोभेदश्चात्मनस्तत्र, सयुक्तिनिरूपितः । श्रीमल्लोकाचार्यस्वामिपादैश्च तत्त्वत्रये चित्प्रकरणेऽनुगृहीतम्
आत्मस्वरूपं कथं देहादिविलक्षणमिति चेत्, देहादीनां मम देहादिकमित्यात्मनः पृथगुपलभ्यमानत्वात्, इदमित्युपलभ्यमानत्वात्, आत्मनोऽहमित्युपलम्भात्, अस्य कदाचिदुपलम्भात् आत्मनः सर्वदोपलम्भात्, एतेषामनेकत्वात्, आत्मन एकत्वात्, आत्मा एतेभ्यो विलक्षणः स्वीकार्यः । एवं युक्तीनां बाधसम्भावनायामपि शास्त्रबलेनात्मा देहादिविलक्षणः सिध्यति
इति । एतद्भाष्ये च श्रीमद्वरवरमुनिभिः सम्यङ् निरूपितोऽयमर्थः । श्रीमद्वेदान्ताचार्यचरणैरपि तत्त्वमुक्ताकलापे
स्याद्वासो चर्मदृष्टेरयमहमिति धीर्देह एवात्मजुष्टे निष्टप्ते लोहपिण्डे हुतवहमतिवद्भेदकाख्यातिमूला । श्रुत्यर्थापत्तिभिश्च श्रुतिभिरपि च नः सर्वदोषोज्झिताभिर्देहो देहान्तराप्तिक्षम इह विदितः सम्विदानन्दरूपः ॥ (जीवसरे)
इति देहातिरिक्तात्मसिद्धिरुपवर्णिताऽनुसन्धेया ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार जीव तथा ईश्वर के सामान्य लक्षण से लक्षित जीव के विशेष लक्षण बतलाये जाते हैं ।
अणुपरिमाणक होते हुए चेतन होना,
स्वभावतः परमात्मा का शेष होते हुए चेतन होना
इत्यादि जीव के लक्षण हैं ।
इसी तरह ईश्वर का आधेय, विधेय होना, पेराधीन कर्ता होना, अथवा परमात्मा का परतन्त्र होना इत्यादि
जीव के लक्षणों को भी जानना चाहिए ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
जीव के लक्षण
जीव एवं ईश्वर,
दोनों में साम्य को बतलाकर यतीन्द्रमतदीपिकाकार जीव के असाधारण धर्म - निरूपण रूप लक्षणों को बतलाते हैं । वे प्रथम जीव के दो लक्षणों को बतलाते हैं । पहला लक्षण है यह कि जो अल्प परिमाण वाला होते हुए ज्ञाता हो, वह जीव है । इस लक्षण में ईश्वर में अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए ‘अणुत्वे सति’ यह विशेषण दिया गया है । जड, परमाणु आदि में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ‘चेतनत्वम्’ पद का प्रयोग किया गया है । जीव का दूसरा लक्षण है कि जो शेष अर्थात् दूसरे के लिए होते हुए ज्ञाता हो, उसे जीव कहते हैं । जीव का स्वभाव है कि वह ईश्वर के लिए है तथा ज्ञाता भी है । इस लक्षण में ईश्वर में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ‘शेषत्वे सति’ इस पद का प्रयोग किया गया है । ईश्वर किसी का भी शेष नहीं है, अपितु वह सबों का शेषी ( भोक्ता ) है । प्रकृति आदि अचेतन पदार्थों में अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए ‘चेतनत्वम्’ पद का लक्षण में सन्निवेश किया गया है । प्रकृति आदि ईश्वर का शेष तो है, किन्तु वे ज्ञाता नहीं है ।
इसी तरह ‘चेतनत्वे सति आधेयत्वम्’ ‘चेतनत्वे सति विधेयत्वम्’ ‘चेतनत्वे सति पराधीनकर्तृत्वम्’ ‘चेतनत्वे सति परतन्त्रत्वम्’ इत्यादि भी जीव के लक्षण किये जा सकते हैं । क्योंकि जीव परमात्मा का शरीर है, यह — ‘य आत्मानमन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्’ इस श्रुति में श्रुति बतलाती है । अपने आश्रय का आधेय और विधेय होना शरीर का स्वभाव है । जीव भी अपने आत्मभूत परमात्मा का
[[१६१]]
आधेय और विधेय है, किन्तु इन पाञ्चभौतिक जड-शरीरों से उसकी यह विशेषता है कि जीव ज्ञाता है, जड शरीर ज्ञाता नहीं है, अतएव ‘चेतनत्वे सति आधेयत्वम्, विधेयत्वम्’ आदि जीव के लक्षण बतलाये जाते हैं । किञ्च शरीर आत्मा के परतन्त्र होता है ।
आत्मा जिस प्रकार चाहता है, उसी प्रकार शरीर के द्वारा क्रियाएँ की जाती हैं । जीव भी ईश्वर के परतन्त्र रहकर ही सारी क्रियाओं को करता है, अतएव ये सभी लक्षण जीव में उपपन्न होते हैं ।
मूलम्
२. एवं सामान्यलक्षणलक्षितस्य जीवस्य विशेषलक्षणानि उच्यन्ते – अणुत्वे सति चेतनत्वम्, स्वतः शेषत्वे सति चेतनत्वम् । एवम् आधेयत्वविधेयत्व-पराधीनकर्तृत्वपरतन्त्रत्वादिकमूह्यम् ।
वासुदेवः
शेषत्वे सतीति । शेषत्वं च यथेष्ट-विनियोगार्हत्वम् । चेतनत्वमात्रोक्तावीश्वरे ऽतिव्याप्तिः । शेषत्व-मात्रोक्तावचित्पदार्थेष्वतिव्याप्तिर् अत उभयोपादानम् । जीवश्चायं परमात्मना स्वेच्छानुसारेण विनियुज्यत एवेति लक्षण-समन्वयः । आधेयत्वेति । आधेयत्वम् आश्रितत्वम् । विधेयत्वं नियाम्यत्वम् ।