१४ न्यासविद्याया वर्णनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

२८. न्यास-विद्या प्रपत्तिः । सा च अनन्य-साध्ये स्वाभीष्टे महाविश्वास-पूर्वकम् ।
प्रपत्तिर् नाम –

“आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः
प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो
गोप्तृत्व-वरणं तथा ॥
आत्म-निक्षेप-कार्पण्यम्”

इत्य् अङ्ग-पञ्चक-युक्ता
एतद्-देहावसाने मोक्ष-प्रदा
अन्तिम-प्रत्यय-निरपेक्षा, सकृत्-कर्तव्या,
न्यासः शरणागतिर् इत्य्-आदि-शब्द-वेद्या ज्ञान-विशेष-रूपा ।
एषा प्रपत्तिर् गुरु-मुखाद् रहस्य-शास्त्रेषु सम्प्रदायतया वेदितव्येति
इह बाल-बोधनार्थं प्रवृत्ते ग्रन्थे
न प्रकाश्येति विरम्यते ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - प्रपत्ति को ही न्यासविद्या कहते हैं । प्रपत्ति का स्वरूप निरूपित करते हुए कहा गया है कि प्रपत्ति-व्यतिरिक्त किसी दूसरे साधन से नहीं प्रसन्न होने वाले, अपने अभीष्ट श्रीभगवान् के विषय में महाविश्वासपूर्वक श्रीभगवान् की ही एकमात्र प्राप्ति का साधन मानना तथा उसकी प्राप्ति के लिए श्रीभगवान् से प्रार्थना [[१५५]] करना ही प्रपत्ति कहलाती है, उसे ही शरणागति कहते हैं । शरणागति के पाँच अङ्ग हैं - ( १ ) भगवान् के अनुकूल बने रहने का संकल्प करना । ( २ ) कभी भी भगवान् के प्रतिकूल न होने का निश्चय करना । ( ३ ) श्रीभगवान् अवश्य रक्षा करेंगे, इस प्रकार का विश्वास करना । ( ४ ) श्रीभगवान् ही एकमात्र हमारे रक्षक हैं, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास करना तथा ( ५ ) श्रीभगवान् की शरण में अपने को समर्पित कर अपनी दीनता का प्रदर्शन करना । इन पाँच अङ्गों वाली शरणागति इस शरीर - पात के समय में मोक्ष रूपी फल को प्रदान करती है । यह शरणागति ज्ञान - विशेष रूप है । इसे न्यास अथवा शरणागति इत्यादि शब्दों से अभिहित किया जाता है । शरणा- गति जीवन में केवल एक बार की जाती है । शरणागति मोक्ष प्रदान करने में अन्तिम प्रत्यय की अपेक्षा नहीं रखती है । इस शरणागति को रहस्यादि शास्त्रों में गुरुमुख से सुनना चाहिए, अतएव बालकों के बोधार्थ प्रणीत किये जाने वाले इस ग्रन्थ में उसका प्रकाशन नहीं किया जा रहा है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

न्यासविद्या का महत्त्व

भा० प्र० - उपनिषदों में तीस ब्रह्मविद्याओं का वर्णन है । उनमें एक न्यास- विद्या भी है । इसका वर्णन महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के तृतीय अध्याय के तृतीय पाद के शब्दादिभेदाधिकरण के ‘नानाशब्दादिभेदात् ’ ( ब्र० सू० ३।३।५६ ) सूत्र में किया है । यह न्यासविद्या अन्य भक्तिविद्याओं की अपेक्षा विचित्र है । तैत्ति- रीय नारायण के – ‘वसुरण्यो विभूरसि प्राणे त्वमसि सङ्घाता ब्रह्मंस्त्वमसि विश्वसृक् तेजोदा त्वमस्यग्नेः वर्चोदास्त्वमसि सूर्यस्य, द्युम्नोदास्त्वमसि चन्द्रमस उपयामगृहीतो- ऽसि ब्रह्मणे त्वा महस ओमित्यात्मानं युञ्जीतैतद्वै महोपनिषदं देवानां गुह्यं य एवं वेद ब्रह्मणो महिमानमाप्नोति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमित्युपनिषत्’ ( तै० ना० ७८ ) । ( अर्थात् - हे परमात्मन् ! आप सभी वसूपलक्षित देवताओं के उपास्य तथा व्यापक हैं । आप ही सभी कार्यकारणसंघात के संयोजक हैं, सम्पूर्ण जगत् के स्रष्टा हैं. आप ही अग्नि को तेज, सूर्य को ज्योति तथा चन्द्रमा को कान्ति प्रदान करने वाले हैं : दीर्घ- काल के पश्चात् मैंने आपको देखा है । मैं आपकी शरणागति करता हूँ, जिससे कि मैं आपको प्राप्त कर सकूं । महोपनिषद् में कहा गया है कि भगवच्छेषत्व प्रतिपादक ‘ओम्’ इस शब्द का उच्चारण करके आत्मसमर्पण करना चाहिए। यह न्यासविद्या देवताओं के लिए भी दुर्विज्ञेय है । जो इस प्रकार से ब्रह्म की महिमा को जानता है, वह मुक्त होकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है । इस मन्त्र में न्यास की विधि का वर्णन किया गया है ।

न्यासविद्या नामक शरणागति के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्रीवात्स्य वरदा- चायं प्रपन्नपारिजात नामक ग्रन्थ के स्वरूप पद्धति में कहते हैं-

‘अनन्यसाध्ये स्वाभीष्टे
महाविश्वासपूर्वकम् ।
तदेकोपायता याच्ञा
प्रपत्तिः शरणागतिः ॥’
( प्रपन्नपारिजात, स्वरूप पद्धति - २ )

[[१५६]]

इस श्लोक में प्रपत्ति को ही शरणागति कहा गया है । यह शरणागति याच्त्र रूप है । इसमें प्रार्थना की जाती है कि -

हे भगवन् !
आप अपनी ही कृपा से प्राप्त किये जा सकते हैं।
आपको प्राप्त करने के लिए
आपकी प्रसन्नता से भिन्न अन्य कोई भी उपाय नहीं है ।

श्रीभगवान् प्रपत्ति द्वारा ही प्रसन्न होते हैं । श्रीभगवान् की प्रसन्नता प्रपत्ति से भिन्न किसी दूसरे साधन से नहीं प्राप्त होती है । श्रीभगवान् की कृपा की प्राप्ति ही जीवों का लक्ष्य है । वही अत्यन्त अभीष्ट है । इस प्रपत्ति के पाँच अङ्ग है । वे अङ्गये हैं-

( १ ) आनुकूल्य संकल्प, ( २ ) प्रातिकूल्य का वर्जन, ( ३ ) कार्पण्य, ( ४ ) महाविश्वास तथा ( ५ ) गोप्तृत्ववरण ।

शरणागति में इन अङ्गों का होना अत्यावश्यक हैं ।
इनके बिना शरणागति बन ही नहीं सकती है ।

लोक में भी यह देखा जाता है कि,
किसी मनुष्य के पास कोई अनर्घ्य निधि है ।
वह उसकी रक्षा करने में असमर्थ है ।
वह जानता है कि अमुक मनुष्य
इसकी रक्षा कर सकता है ।
वह उस मनुष्य के पास जाकर उस रत्न को समर्पित करते हुए निवेदन करता है कि

मैं आपका अनुकूल बनकर रहूँगा,
मैं आपके प्रतिकूल कभी नहीं होऊँगा,
मुझे विश्वास है कि आप इसकी रक्षा कर सकते हैं
तथा प्रार्थना किये जाने पर इसकी रक्षा भी करेंगे ।
मैं इसकी रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ हूँ ।
अतः प्रार्थना है कि आप इसके रक्षक बन जायें ।

इस प्रकार प्रार्थना करके वह मनुष्य उस वस्तु को उसे समर्पित करके निश्चिन्त हो जाता है ।
शरणागति में भी ‘मैं आपका अनुकूल बनकर रहूँगा’ इस प्रकार का संकल्प करना ही आनुकूल्य संकल्प कहलाता है ।
‘मैं प्रतिकूल नहीं बनूंगा’ इस प्रकार का दृढ़ निश्चय होना ही प्रातिकूल्य वर्जन है ।
मुझे महान् विश्वास है कि ‘आप इसकी रक्षा कर सकते हैं तथा प्रार्थना किये जाने पर करेंगे भी’ यही कहलाता है महाविश्वास ।
‘मैं इसकी रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ हूँ’ यह कार्पण्य है ।
‘आप रक्षक बन जाइये ’ यह प्रार्थना गोप्तृत्ववरण कहलाती है ।
उस अमूल्य रत्न को समर्पण करना ही समर्पण है ।

इन पाँच अङ्गों के बिना शरणागति नहीं हो सकती है ।
जो मनुष्य रक्षक के प्रति आनुकूल्य भाव न रखे
तथा प्रतिकूलता को न त्यागे
तो हो सकता है कि रक्षक उसकी रक्षा के लिए तैयार न हो ।
असमर्थता को प्रकट किये बिना
रक्षक उसकी रक्षा करने के लिए इसलिए तैयार नहीं हो सकता है कि
वह सोचेगा कि यह अपनी रक्षा कर सकता है ।
रक्षक के विषय में सुदृढ़ विश्वास प्रकट किये बिना
रक्षक उसकी रक्षा करने के लिए इसलिए तैयार नहीं हो सकता है कि
वह सोचेगा कि इसको मेरे रक्षकत्व पर पूर्ण विश्वास नहीं है ।
रक्षक बनने के लिए यदि प्रार्थना न की जाय
तो भी रक्षक रक्षा करने के लिए कटिबद्ध नहीं होगा ।
अतएव शरणागति में उक्त पाँच अंगों का होना अनिवार्य है ।

पाँच अङ्गों के होने पर भी
यदि कोई रक्षा के भार को समर्पित नहीं करे
तो रक्षा का सार न लेने के कारण
दूसरे की रक्षा का दायित्व नहीं होता
तथा भार समर्पित न होने के कारण
शरणागत निर्भय और निश्चिन्त नहीं हो सकता है ।
अतएव शरणागति में समर्पण का भी होना आवश्यक है ।

[[१५७]]

यह शरणागति भक्ति से भिन्न है ।
बिना अन्तिम प्रत्यय के भक्ति मोक्ष प्रदान नहीं करती है,
किन्तु प्रपत्ति में मोक्ष के लिए अन्तिम प्रत्यय का होना आवश्यक नहीं है ।
भक्ति के द्वारा वर्तमान शरीरपात के समय ही मोक्ष प्राप्त होना कोई आवश्यक नहीं है,
किन्तु प्रपन्न का मोक्ष वर्तमान शरीर के अन्त में ही होता है ।
भक्ति आजीवन अनुष्ठेय होती है,
किन्तु प्रपत्ति जीवन में केवल एक बार की जाती है ।

इन विषमताओं के रहने पर भी भक्ति और प्रपत्ति, दोनों ज्ञान विशेष हैं ।
इन दोनों में विनियोग की भिन्नता के कारण
फल की भिन्नता है ।
प्रपत्ति यद्यपि देखने में अत्यन्त सुकर है,
किन्तु इसका तीसरा अङ्ग महाविश्वास का होना अत्यन्त कठिन है ।

प्रपत्ति का विस्तृत वर्णन
इस यतीन्द्रमतदीपिका में इसलिए नहीं किया गया है कि
इस ग्रन्थ का प्रणयन बालकों को वेदान्ततत्त्व के बोधनार्थ किया गया है ।
किन्तु शरणागति एक ऐसा विषय है,
जिसके रहस्य-ग्रन्थों को आचार्य -
मुख से सुनकर ही जाना जा सकता है ।

मूलम्

२८. न्यासविद्या प्रपत्तिः । सा च अनन्यसाध्ये स्वाभीष्टे महाविश्वासपूर्वकम् । प्रपत्तिर्नाम –

“आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्ववरणं तथा ॥
आत्मनिक्षेपकार्पण्यम्”

इत्यङ्गपञ्चकयुक्ता । एतद्देहावसाने मोक्षप्रदा अन्तिमप्रत्ययनिरपेक्षा सकृत्क-र्तव्या न्यासः शरणागतिरित्यादिशब्दवेद्या ज्ञानविशेषरूपा । एषा प्रपत्तिर्गुरुमुखा-द्रहस्यशास्त्रेषु सम्प्रदायतया वेदितव्येति इह बालबोधनार्थं प्रवृत्ते ग्रन्थे न प्रकाश्येति विरम्यते ।

वासुदेवः

एतद्देहावसान इति । न च प्रारब्ध-कर्मणो ऽसमाप्तत्वे देहान्तरस्यापि प्रसङ्ग इति वाच्यम् । प्रपत्तौ प्रारब्धस्यापि नाशाङ्गीकारात् । यथा ऽऽहुः -

साधनं भगवत्-प्राप्तौ स एवेति स्थिरा मतिः। साध्य-भक्तिस् तथा सैव प्रपत्तिर् इति गीयते। उपायो भक्तिर् एवेति तत्-प्राप्तौ या तु सा मतिः। उपाय-भक्तिर् एतस्याः पूर्वोक्तैव गरीयसी॥ उपाय-भक्तिः प्रारब्ध-व्यतिरिक्ताघ-नाशिनी। साध्य-भक्तिस् तु सा हन्त्री प्रारब्धस्यापि भूयसी॥

इति।

यद्यप्येवं प्रपत्तिः प्रारब्धम् अपि निःशेषं विनाशयितुं शक्ता तथा ऽपि निःशेष-वैराग्याभावे राग-विषयम् अंशं तद्-अनुबन्धि दुःखं च स्थापयति। निःशेष-वैराग्ये तु निःशेषं निवर्तयति। अयम् एव परमैकान्तिनोर् दृप्तार्तयोर् भेद इत्य् आहुः।