विश्वास-प्रस्तुतिः
२७. ध्यान-शब्द-वाच्या +++(दर्शन-समानाकार-)+++भक्ति-विद्या-भेदात् बहु-विधा ।
ताश्च विद्या द्विविधाः –
ऐहिक-फलाः मुक्तिफलाश् चेति ।
तत्रैहिक-फला उद्गीथ-विद्यादयः ।
मुक्ति-फलास् तु
अन्तरक्षि-विद्या, दहर-विद्या, सद्-विद्या, मधु-विद्या, उपकोसल-विद्या, शाण्डिल्य-विद्या, पुरुष-विद्या, वैश्वानर-विद्या, पञ्चाग्नि-विद्या
इत्यादिकाः ब्रह्म-विद्याः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘ताश्च विद्याः’ इति । वेदान्तविहिता उपासना इत्यर्थः । **‘तत्रे’**ति । कर्माङ्गोद्गीथोपासनाद्याः कर्मसमृद्धिप्रभृत्यर्वाचीनफलसाधनीभूता काम्यविद्याः । सद्विद्यादयस्तु परब्रह्मोपासनारूपाः मोक्षफला परविद्याशब्दिताः । परविद्यास्वेव विद्याशब्दो मुख्यः । ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इति स्मरणादिति बोध्यम् । पञ्चाग्निविद्या च प्रकृतिवियुक्तपरब्रह्मात्मकस्वात्मचिन्तनरूपा कैवल्यमोक्षसाधिका बोध्या । एतद्विद्यानिष्ठानां कञ्चित् कालं स्वात्मानुभवं कृत्वा तदनन्तरं परब्रह्मानुभवो भवितेति एकः पक्षः । प्रकृतिवियुक्तब्रह्मात्मकस्वात्मानुभव एवैतेषां मुख्योद्देश्य इति च परः पक्षः । गोप्तृत्वरणम् — उपायत्वप्रार्थनम् । आत्मनिक्षेपः - स्वरक्षाभरसमर्पणम् । यद्वा आत्मात्मीययोस्तच्छेषतया समर्पणम् । प्रपत्तिर्मोक्षोपायः इत्येकः पक्षः । प्रपत्तिः सिद्धोपायाधिकारिविशेषणम् । प्रपन्नानां कृते शरण्य एव मोक्षोपाय इति च परः पक्षः । साम्प्रदायिकार्थत्वान्नात्र प्रपञ्च्यते ।
शिवप्रसादः (हिं)
[[१४६]]
अनुवाद - ध्यान शब्द के द्वारा जिसका अभिधान होता है, वह दर्शन समाना- कारा भक्ति विद्याओं के भेद के कारण अनेक प्रकार की होती है । वे विद्याएँ दो प्रकार की है - लौकिक फल को प्रदान करने वाली उद्गीथादि विद्याएँ तथा मुक्ति रूपी फल को प्रदान करने वाली विद्याएँ । ऐसी विद्याएँ निम्न हैं- अन्तरिक्षविद्या, अन्तरादिव्यविद्या, दहरविद्या, भूमविद्याएँ, सद्विद्या, द्यविद्या, उपकोसलविद्या, शाण्डिल्यविद्या, पुरुषविद्या, प्रतर्दनविद्या, वैश्वानरविद्या तथा पञ्चाग्निविद्या इत्यादि । ये सभी ब्रह्मविद्याएँ हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - उपनिषदों में दो तरह की विद्याओं का वर्णन उपलब्ध होता है काम्यविद्याएँ तथा ब्रह्मविद्याएँ । काम्यविद्याओं का फल लौकिक वस्तुओं की प्राप्ति है ।
उपनिषदों की चार काम्यविद्याएँ
काम्यविद्याएँ चार हैं-
( १ ) उद्गीथविद्या - छान्दोग्योपनिषद् की ‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’ इस श्रुति में इस विद्या का वर्णन किया गया है । इसकी चर्चा महर्षि बादरायण ने ‘आदित्यादि मतयश्चाङ्ग उपपत्तेः’ ( ब्र० सू० ४। १ । ६ ) इस सूत्र में की है । प्रश्न उठता है कि ‘य एवासौ तपति तम् उद्गीथम् उपासीत’ ( छा० १।३।१ ) । अर्थात् वह जो आदित्य चमकता है, उसकी उद्गीथ रूप से उपासना करनी चाहिए । इस श्रुति के अनुसार आदित्यादि में उद्गीथादि की दृष्टि करनी चाहिए, अथवा उद्गीथादि में आदित्यादि की दृष्टि करनी चाहिए ? पूर्वपक्षी का कहना है कि उत्कृष्ट उद्गीथादि की दृष्टि आदित्यादि में करनी चाहिए । इस पर सूत्रकार कहते हैं कि नहीं; आदित्यादि की ही दृष्टि उद्गीथादि में करनी चाहिए, क्योंकि आदित्यादि देवताओं की ही आराधना से उद्गीथादि कर्म फलप्रद होते हैं । अतएव उत्कृष्ट आदित्यादि में ही उद्गीथादि की दृष्टि करनी चाहिए ।
( २ ) नामादिप्रतीक विद्या- ‘स यो नाम ब्रह्मेत्युपास्ते’ ( छा० उ० ७।१।५ ) । इस श्रुति में नामादि प्रतीकविद्या का वर्णन है और इसका फल नाम- प्रतीकविद्या की उपासना करने वाले की नामादि गति - पर्यन्त यथेच्छ गति बतलाया गया है । महर्षि बादरायण ने -‘न प्रतीते न हि सः’ (ब्र० सू० ४।१।४ ) इस सूत्र में नामप्रतीकविद्या की चर्चा करते हुए कहा है कि प्रतीक में नामत्व का अनुसंधान करना चाहिए । उपासक की आत्मा प्रतीक नहीं है, अतएव उसमें नामत्वानुसंधान नहीं किया जा सकता है । ब्रह्म तो वहाँ पर विशेषण मात्र है । ब्रह्म से भिन्न में ब्रह्म की दृष्टि [[१४७]] रखकर उपासना करना ही प्रतीकोपासना कहलाती है । उपासक की आत्मा उपास्य रूप प्रतीक नहीं है, अतएव उसमें नामत्वानुसंधान नहीं करना चाहिए ।
(३) मनश्चित्तादिविद्या - अग्निरहस्य -ब्राह्मण के तृतीय ब्राह्मण में इस विद्या का वर्णन - ‘मनश्र्चितो वाक्चितः प्राणश्चितः, चक्षुचितः, श्रोत्रचितः कर्मचितोऽग्नि- चितः’ इत्यादि श्रुति के द्वारा किया गया है । महर्षि बादरायण ने ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्याय के तृतीय पाद के पूर्वविकल्पाधिकरण में इसका विस्तृत विचार किया है ।
(४) उद्गीथ में रसतमत्वादि दृष्टिविद्या - कर्मों के अङ्गभूत उद्गीथ विद्या की चर्चा ‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’ इस श्रुति से प्रारम्भ होती है। प्रश्न है कि उद्गीथोपासना तत् तत् शाखाओं में भिन्न-भिन्न स्वरों के साथ पढ़ी गयी है । अतएव जिस शाखा में जिस स्वर के साथ उद्गीथोपासना पढ़ी गयी है, उस स्वरवैशिष्ट्य के साथ उसी शाखा के लिए वह उद्गीथोपासना नियत है अथवा उद्गीथ - सामान्य के लिए वह नियत है ? इस शंका का समाधान करते हुए महर्षि बादरायण ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्याय के तृतीय पाद के अङ्गावबद्धाधिकरण में बतलाया है कि, सर्वत्र एक ही उद्गीथोपासना वर्णित है । उद्गीथोपासना के अत्यन्त प्रिय होने के कारण उसका सभी शाखाओं में अनुप्रवेश है ।
उपनिषदों की बत्तीस ब्रह्मविद्याएँ
इसी प्रकार उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मविद्याओं की संख्या बत्तीस हैं । उनका संक्षिप्ततम परिचय यहाँ दिया जा रहा है—
(१) सद्विद्या - छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में सद्विद्या पढी गयी है । इस विद्या में बतलाया गया है कि — सच्छब्दवाच्य परब्रह्म अपने संकल्प से ही सम्पूर्ण जगत् के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण बनते हैं । ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ ( छा० उ० ६।२1१ ) श्रुति श्रीभगवान् को जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण बतलाती है ।
( २ ) आनन्दविद्या - तैत्तिरीयोपनिषद् के आनन्दवल्ली में यह विद्या वर्णित है । ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के आनन्दमयाधिकरण में इसका विस्तृत विचार करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं कि — श्रीभगवान् कल्याणगुणसागर, वैभव- सम्पन्न तथा आनन्दमय हैं । ‘तस्माद्वा एतस्मादानन्दमयादन्योन्तर आत्मानन्दमयः’ ( तै० उ० आ० ब० ५ अनु० ) श्रुति उस आनन्दमय ब्रह्म का स्वरूप - निरूपण उप- क्रान्त करती है ।
(३) अन्तरादित्यविद्या - छान्दोग्योपनिषद् की ‘य एवोन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रु हिरण्यकेश आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णः तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीक- मेवमक्षिणी तस्यादिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः’ ( छा० उ० १।६।६-७ ) श्रुति में अन्तरादित्यविद्या का वर्णन है । इस अन्तरादित्य विद्या का महर्षि बादरायण ने ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के अन्तराधिकरण में विस्तृत विवेचन करते [[१४८]] हुए बतलाया है कि आदित्यमण्डल के भीतर रहकर उनका नियमन करने वाले श्रीभगवान् का दिव्य रूप अत्यन्त मनोज्ञ है, उनकी आँखे विकसित लालकमल के समान अत्यन्त स्पृहणीय हैं ।
(४) आकाशविद्या - छान्दोग्योपनिषद् की — ‘अस्य लोकस्य का गतिरिति आकाश इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि आकाशादेव समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तं यन्ति आकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाशः एवं परायणम्’ ( छा० उ० १।९।१ ) इस श्रुति में आकाशविद्या का वर्णन है । ब्रह्मसूत्र के प्रथमाध्याय के प्रथम पाद के आकाशाधिकरण में आकाश शब्द वाच्य के विषय में विस्तृत विवेचन करते हुए महर्षि वादरायण कहते हैं कि यहाँ आकाश शब्द से परमात्मा ही कहे गये हैं । परमात्मा को आकाश शब्द से श्रुति इसलिए कहती है कि वे सबों को प्रकाशित करते हैं तथा वे स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं । ‘आकाशयति इति आकाशः, अथवा आकाशते इति आकाश : ’ यह आकाश शब्द की व्युत्पत्ति है। श्रुति से आकाश शब्द का वाच्य महाभूतों में अन्यतम आकाश नहीं हो सकता, क्योंकि महाभूत आकाश सम्पूर्ण जगत् का परायण तथा सम्पूर्ण जगत् का लयस्थान नहीं हो सकता है । इस विद्यामें श्रीभगवान् को निरतिशय प्रकाशमान बतलाया गया है ।
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(५) प्राणविद्या – छान्दोग्योपनिषद् की ‘सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणमे वाभिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्जिहते’ ( छा० उ० १।११।५ ) इस श्रुति में प्राणविद्या उपक्रान्त की गयी है । इस श्रुति का विस्तृत विवेचन ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के आकाशाधिकरण के ‘अत एव प्राणः’ ( १।१।२४ ) सूत्र में किया गया है । इस सूत्र में महर्षि बादरायण ने कहा है कि श्रुति सम्पूर्ण जगत् के कारण अखिल- कल्याणगुणसागर ब्रह्म को ही यहाँ पर प्राण शब्द से इसलिए अभिहित करती है कि वे जगत् के भीतर रहकर उसको अनुप्राणित करते हैं । किञ्च उस आकाश शब्द वाच्य को ही जगत् का कारण बतलाया गया है । जगत्कारणत्व परमात्मा का असाधारण धर्म है, अतएव यह श्रुति परमात्मा को चराचर जगत् का प्राण बतलाती है ।
( ६ ) गायत्रीज्योतिविद्या - छान्दोग्योपनिषद् की - ‘अथ यदतः परो दिवो ज्योतिः दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेषु अनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेषु इदं वाव तद् यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषो ज्योतिः’ ( छा० उ० ३।१३।७ ) ( अर्थात् इस द्युलोक के ऊपर व्यष्टि एवं समष्टि तत्त्वों से ऊपर उत्तम लोकों में जो ज्योति देदीप्यमान् होकर रहती है; वह यही है कि जो इस शरीर के अन्दर कुक्षिमें रहने वाली ज्योति है । ) इस श्रुति से गायत्रीज्योतिर्विद्या का वर्णन उपक्रान्त किया गया है । ब्रह्मसूत्रों के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ज्योति अधिकरण में इसका विस्तृत विचार किया गया है । महर्षि बादरायण ने कहा है कि ज्योति शब्द से श्रीभगवान् को ही श्रुति अभि- धान करती है। कार्य साम्य के कारण उन्हें कौक्षेय ज्योति कहा गया है । [[१४९]]‘अहं वैश्वानरो भूत्वा’ इस वाक्य में भगवान् अपने को जाठराग्नि शरीरक बतलाते हैं । उस ज्योति को गायत्री कहकर उसे चतुष्पाद इसलिए बतलाया गया है कि जिस प्रकार गायत्री चतुष्पदा होती है, उसी प्रकार ‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि’ श्रुति में ब्रह्म के चार पाद बतलाये गये हैं ।
(७) इन्द्र प्राणविद्या - इसी को प्रतर्दन विद्या भी कहते हैं । कौषीतकि ब्राह्मण की - ( प्रतर्दनो ह वै दैवोदासः इन्द्रस्य प्रियं धामोपजगाम युद्धेन च पौरुषेण च’ (कौ० ब्रा० उ० ३।१ ) ( अर्थात् दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन युद्ध में अपने पौरुषको प्रख्यापित कर इन्द्र के प्रिय धाम में गया है ।) इस श्रुति से प्रतर्दन विद्या का उपक्रम किया गया है और इस विद्या में बतलाया गया है कि श्रीभगवान् ही इन्द्र, प्राण आदि चेतना- चेतन के आत्मा हैं ।
( ८ ) शाण्डिल्यविद्या - इस विद्या का वर्णन छान्दोग्य, बृहदारण्यक तथा अग्नि- रहस्य उपनिषदों में उपलब्ध होता है । ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म, तज्जलानिति शान्त उपा- सीत । अथ खलु क्रतुमयोऽयं पुरुषो यथा क्रतुरस्मिन् लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति । स क्रतुं कुर्वीत मनोमयः प्राणशरीरः’ ( छा० उ० ३।१४।१-२ ) । अर्थात् यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि उस ब्रह्म से यह सब कुछ उत्पन्न है, उस ब्रह्म में ही लीन होने वाला है तथा उस ब्रह्म से अनुप्राणित है, इसलिए शान्त होकर ब्रह्म की उपासना करे । यह पुरुष अर्थात् जीव उपासनामय है, इस लोक में पुरुष यादृशप्रकार- विशिष्ट ब्रह्म की उपासना करता है, मरने के बाद तादृशप्रकारविशिष्ट ब्रह्म को प्राप्त करता है तथा उसका अनुभव करता है । यह पुरुष इस प्रकार ब्रह्म की उपासना करे कि वह ब्रह्म मनोमय है अर्थात् परिशुद्ध मन से ग्राह्य है, तथा प्राण-शरीरक है अर्थात् सबका धारक बनने वाला प्राण भी उसका शरीर है । इस विद्या में बतलाया गया है कि ब्रह्म के ही अधीन प्रत्येक पदार्थ की सत्ता, स्थिति एवं लय होते हैं ।
( ९ ) नाचिकेतसविद्या - इस विद्या का दूसरा नाम ‘अत्रिविद्या’ भी है । कठोप- निषद् की ‘यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः’ ( कठो० २।२५ ) ( अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दोनों जिसके ओदन हैं अर्थात् भोज्य अन्न हैं, मृत्यु जिसका उपसेचन अर्थात् व्यंजन है, अर्थात् वह जिस प्रकार से रहता है, उस प्रकार को कौन अच्छी तरह समझ सकता है ।) इस श्रुति में नाचि- केतसविद्या वर्णित है । इस विद्या की विस्तृत चर्चा करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं- ‘अत्ता चराचरग्रहणात्’ ( ब्र० सू० १।२1९ ) । अर्थात् उपर्युक्त श्रुतिवाक्य में ब्रह्म-क्षत्र रूपी ओदन का जो भोक्ता वर्णित है, वह परमात्मा है; क्योंकि ब्रह्म क्षत्र शब्दों से चराचरात्मक सम्पूर्ण जगत् ही प्रतिपादित हैं । मृत्यु को व्यञ्जन बनाकर उसकी सहायता से खाया जाने वाला ओदन केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही नहीं है, अपितु उनके द्वारा प्रदर्शित चराचरात्मक सम्पूर्ण जगत् है । इस विद्या में बतलाया गया है कि ब्रह्म में सम्पूर्ण जगत् को लीन कर लेने का सामर्थ्य है । [[१५०]]
(१०) उपकोसलविद्या - छान्दोग्योपनिषद् की ‘य एषोक्षिणि पुरुषो दृश्यते एष आत्मेति हो वाच एतदमृतमेतदभयमेतद् ब्रह्म’ ( छा० उ० ४ १५1१ ) ( अर्थात् यह जो नेत्र में पुरुष दिखलायी देता है, यह आत्मा है, ऐसा आचार्य ने कहा, यह अमृत है अर्थात् अत्यन्त भोग्य है; यह अभय है, अर्थात् दुःख से युक्त नहीं है ( भय का हेतु दुःख है, भावी दुःख का अनुसन्धान करने पर भय होता है) । यह ब्रह्म है । ) इस विद्या में बतलाया गया है कि परमात्मा की स्थिति नेत्रों के भीतर विद्यमान है । ‘अन्तर उप- पत्तेः’ ( ब्र० सू० १।२।१३ ) सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं कि नेत्र के अन्दर विराजमान पुरुष परमात्मा है, क्योंकि संयद्वामत्व इत्यादि कल्याणकारी गुण उनमें ही संगत होते हैं । संयद्वाम का अर्थ है प्रार्थनीय सभी कल्याणकारी गुण ।
(११) अन्तर्यामीविद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् की ‘यः पृथिव्या तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरम् यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्यामी अमृतः’ ( बृ० उ० ५।७ ) ( अर्थात् जो पृथिवी में रहता है, पृथिवी के अन्दर रहता है, जिसे पृथिवी नहीं जानती, पृथिवी जिसका शरीर है, जो पृथिवी के अन्दर रहकर उसका नियमन करता है, वह अन्तर्यामी तुम्हारा अमृत आत्मा है ।) इत्यादि श्रुति से उपक्रान्त की जाने वाली अन्तर्यामी विद्या में परमात्मा को सम्पूर्ण चेतनाचेतन पदार्थों का अन्तः प्रविश्य नियामक बतलाया गया है । ‘अन्तर्याम्यधि- दैवाधिलोकादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्’ ( ब्र० सू० १।२।१९ ) सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं कि ‘अधिदैवतम्’ ‘अधिलोकम्’ इत्यादि पदों से युक्त वाक्यों में प्रतिपादित अन्तर्यामी परमात्मा है, क्योंकि सबके अन्दर रहना, सबसे अविदित रहना, सबको शरीर रूप में धारण कर उनकी आत्मा बनना, सबका नियमन करना, सर्वात्मा होना तथा अमृत अर्थात् निर्दोष परमभोग्य बनकर रहना इत्यादि परमात्मा के साधारण धर्मों का यहाँ वर्णन है । इस प्रकार इस विद्या में श्रीभगवान् को सम्पूर्ण जगत् का अन्तः प्रविश्य नियामक बतलाया गया है ।
( १२ ) अक्षरपरविद्या - मुण्डकोपनिषत् की — ‘अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमव्रणमचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् । नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं यद् भूतयोनि परिपश्यन्ति धीराः’ ( मु० १1१ ) । ‘दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः । अप्राणो ह्यमनाशुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः । ( मु० २। १1१ ) अर्थात् अब पराविद्या का निरूपण किया जाता है । परा विद्या वह है, जिससे वह अक्षरब्रह्म ज्ञात होता है । वह ब्रह्म अद्रेश्य ( ज्ञानेन्द्रियों का अविषय ), अग्राह्य ( कर्मेन्द्रियों के द्वारा की जानी वाली क्रियाओं का अविषय ), कुलरहित, ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्णों से रहित, चक्षुः श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियों से रहित, पाणि-पादादि कर्मेन्द्रियों से रहित, नित्य, व्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा अत्यन्त सूक्ष्म है । बुद्धिमान लोग उसे सबों का उपादानकारण रूप से साक्षात्कार करते हैं । ‘दिव्यो ह्यमूर्तः’ श्रुति का अर्थ है कि - दिव्य अर्थात् परमपद में विराजमान, मूर्ति रहित, अजन्मा, सभी वस्तुओं के भीतर-बाहर व्यापक, पुरुष प्राण तथा मन से रहित, शुभ्र निर्विकार अक्षरब्रह्म है, [[१५१]] वह ऐसा है कि अक्षर अर्थात् प्रकृति से भी श्रेष्ठ जीवात्मा से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह प्रकृति और पुरुष का कारण है । इस विद्या का विवेचन करते हुए ‘अदृश्यत्वादिगुणको धर्मोक्तेः ’ ( ब्र० सू० १।२।२२ ) इस सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं कि अदृश्यत्वादि गुणों से युक्त सम्पूर्ण जगत् का कारण परमात्मा ही अक्षरतत्त्व हैं, क्योंकि परमात्मा को असाधारण सर्वज्ञत्व आदि गुणों से सम्पन्न बतलाया गया है । इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि विराट् रूप की कल्पना में अग्नि आदि ब्रह्म का अङ्ग बनकर रहते हैं ।
(१३) वैश्वानर विद्या – का वर्णन छान्दोग्योपनिषद् में मिलता है । इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि वैश्वानर ही स्वर्लोक तथा आदित्य आदि के अङ्ग हैं । ‘वैश्वानरः साधारणशब्द - विशेषात् ’ ( ब्र० सू० १।२।२५ ) सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं कि ‘आत्मानमेवेमं वैश्वानरं सम्प्रत्यध्येषि’ ( छा० उ० ५।११ ) श्रुति में वैश्वानर शब्द से परमात्मा ही कहे गये हैं । क्योंकि वैश्वानर शब्द के अनेक अर्थों के बतलाने में शक्ति होने पर भी यहाँ वैश्वानर शब्द प्रतिपाद्य अर्थ में सर्वात्मत्व इत्यादि विशेषताओं का वर्णन मिलता है, जो परमात्मा के ही असाधारण धर्म हैं । इस प्रकरण में इन धर्मों से वैश्वानरात्मा को विशेषित किया जाता है ।
(१४) भूमविद्या - छान्दोग्योपनिषद् के सातवें अध्याय में इस विद्या का वर्णन उपलब्ध होता है । इस विद्या में परमात्मा को अनन्त ऐश्वर्य सम्पन्न बतलाया गया है । ‘भूमा सम्प्रसादादध्युपदेशात्’ (ब्र० सू० १।५।७) सूत्र मे महर्षि बादरायण कहते हैं कि ‘यत्र नान्यत् पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद् विजानाति स भूमा’ ( छा० ७।२४) । अर्थात् अत्यन्तानुकूल सुख रूप का दर्शन करते समय मनुष्य दूसरे किसी को भी नहीं देखता है, जिसका श्रवण करता हुआ मनुष्य दूसरे किसी को नहीं जानता है, वही भूमा है, अर्थात् ऊपर उत्कर्षयुक्त स्वरूप है । इस वाक्य में भूमगुणविशिष्ट तत्त्व परब्रह्म ही बतलाया गया है, क्योंकि उसे इस प्रकरण में सम्प्रसाद अर्थात् जीवात्मा से श्रेष्ठ बतलाया गया है । अतएव भूमा परंब्रह्म ही है, क्योंकि उसे अमृतस्वरूप तथा अपनी महिमा में प्रतिष्ठित बतलाया गया है ।
(१५) गार्ग्यक्षरविद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित है। इस विद्या में श्रीभगवान् को जगत् का नियन्ता बतलाया गया है । ‘अक्षरमम्बरान्तधृतेः’ ( ब्र० सू० १ । ३ । ९ ) सूत्र में इस विषय का विवेचन करते हुए महर्षि बादरायण कहते हैं कि- ‘एतद्वैतदक्षरं गागि’ ( बृ० उ० ५।८ ) इस श्रुति में वर्णित अक्षर परमात्मा ही है, क्योंकि अम्बरान्त तत्त्वों का आधार वहीं हो सकता है । वायुयुक्त आकाश को अम्बर कहते हैं । इस अम्बर का अन्तः प्रकृतितत्त्व है । क्योंकि यह अम्बर का कारण है और अम्बर उसका कार्य है । कार्य का अन्त यही है कि वह अपने-अपने कारण में लीन हो जाये । उस अम्बरान्त प्रकृति को धारण करनेवाला परमात्मा है अतः वही अक्षर है ।[[१५२]]
(१६) प्रणवोपास्य परमपुरुषविद्या - यह विद्या प्रश्नोपनिषद् में वर्णित है । इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि श्रीभगवान् मुक्त पुरुषों के भोग्य हैं । प्रश्नोपनिषत् की ‘परात् परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते’ श्रुति में कहा गया है कि बद्धजीवों से श्रेष्ठ मुक्त जीव उस शरीरान्तर्यामी पुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। आगे कहा गया कि- ‘तमोङ्कारेणैवायनेनान्वेति०’ अर्थात् साधक ओंकार रूपी साधन उस परमपुरुष को प्राप्त होता है । उसी को श्रुति में शान्त, अजर, अमृत एवं परपुरुष बतलाया गया है । इससे सिद्ध होता है कि यहाँ पर ओंकारोपास्य परमात्मा ही है ।
(१७) दहरविद्या - यह विद्या छान्दोग्योपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् तथा तैत्तिरीयोपनिषद् में चर्चित है । इस विद्या में श्रीभगवान् को सम्पूर्ण जगत् का आधार बतलाया गया है । ‘दहर उत्तरेभ्यः’ ( ब्र० सू० १।३।१४ ) सूत्रमें महर्षि बादरायण कहते हैं कि छान्दोग्योपनिषद् के ‘अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपरे दहरं पुण्डरीकम्’ श्रुति के आगे की श्रुति में ‘दहराकाशको ही अपहत - पाप्मत्व आदि से विशिष्ट बतलाया गया है । अतएव दहराकाश परमात्मा ही है ।
(१८) अङ्गुष्ठप्रमिताविद्या - यह विद्या कठोपनिषद् तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णित है । इस विद्या में बतलाया गया है कि श्रीभगवान् सबके हृदय में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान हैं । शारीरक-मीमांसा के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के प्रमिताधि- करण में ‘शब्दादेव प्रमितः ’ ( ब्र० सू० १।३।२३ ) सूत्र में कहा गया है कि ‘अङ्गुष्ठ- मात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । ईशानो भूतभव्यस्य’ श्रुति में वर्णित अंगुष्ठ परिमाण वाला पुरुष परमात्मा ही है, क्योंकि वहाँ पर ‘ईशानो भूतभव्यस्य’ शब्द से उसे सम्पूर्ण जगत् का नियन्ता कतलाया गया है, जो परमात्मा का धर्म है ।
( १९ ) देवोपास्यज्योतिर्विद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि श्रीभगवान् ज्योतिस्वरूप हैं तथा सभी देवताओं के उपास्य हैं । इसविद्या की चर्चा करते हुए देवताधिकरण के ‘तदुपर्यापि बादरायणः सम्भवात् ’ ( ब्र० सू० १।३।२५ ) सूत्र में महर्षि बादरायण कहते हैं कि मनुष्यों से ऊपर रहने वाले देवताओं का भी ब्रह्मोपासना में अधिकार है, क्योंकि उनमें भी विवेकादि साधनसप्तक का होना संभव है ।
( २० ) मधुविद्या - छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि श्रीभगवान् वसु, रुद्र, आदित्य, मरुत् और साध्यों की आत्मा के रूप में उपास्य हैं । इस विद्या की चर्चा महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के प्रथम अध्याय के तीसरे पाद के मधु अधिकरण में ‘मध्वादिष्वसम्भवादनधिकारं जैमिनिः’ ( ब्र० सू० १।३।३० ) इत्यादि सूत्रों में की है ।
( २१ ) संवर्गविद्या—छान्दोग्योपनिषद् की इस विद्या का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् अधिकारानुसार सबों के उपास्य हैं । इस विद्या की चर्चा महर्षि बादरायण [[१५३]] ने शारीरक-मीमांसा के अपशूद्राधिकरण के ‘शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदा श्रवणात् सूच्यते हि’ ( ब्र० सू० १।३३ ) इत्यादि सूत्रों में किया है ।
(२२) अजाशरीरकविद्या - छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् प्रकृतितत्त्व के नियन्ता हैं । यहाँ पर अजा शब्द से प्रकृति कही गयी है । इस विद्या को ‘ज्योतिषां ज्योतिर्विद्या’ भी कहते हैं । इस विद्या की चर्चा महर्षि बादरायण ने शारीरक -मीमांसा के संख्योपसंग्रहाधिकरण के ‘न सङ्ख्योप- संग्रहादपि नानाभावादतिरेकाच्च’ ( ब्र० सू० १।४।११ ) इत्यादि तीन सूत्रों में की है ।
( २३ ) बालाकिविद्या – कौषीतकि ब्राह्मण तथा बृहदारण्यकोपनिषद् में चर्चित इस विद्या में इस अर्थ का प्रतिपादन किया गया है कि सम्पूर्ण जगत् श्रीभगवान् का कार्य है तथा श्रीभगवान् सम्पूर्ण जगत् के अभिन्न निमित्तोपादानकारण हैं । महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के जगद्बाचित्वाधिकरण के ‘जगद्वाचित्वात् ’ ( ब्र० सू० १।४।१६ ) इत्यादि तीन सूत्रों में इस ब्रह्मविद्या की विस्तृत चर्चा की है ।
(२४) मैत्रेयीविद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् का साक्षात्कार कर लेना मोक्ष का साधन है । शारीरक-मीमांसा के वाक्यान्वयाधिकरण के ‘वाक्यान्वयात् ’ ( ब्र० सू० १।४।१९ ) इत्यादि चार सूत्रों में इस ब्रह्मविद्या की विस्तृत चर्चा महर्षि बादरायण ने की है ।
(२५) ब्रूहिणरुद्रादिशरीरक विद्या – ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय के चतुर्थ पाद के अन्तिम सर्वव्याख्यानाधिकरण के ‘एतेन सर्वे व्याख्याता व्याख्याताः’ ( ब्र० सू० १। ४।२९ ) सूत्र में बतलाया गया है कि ब्रह्मा, रुद्र आदि देवताओं के अन्तर्यामी होने के कारण उन देवताओं की उपासना के द्वारा वे प्राप्त होते हैं । उपर्युक्त सूत्र का अर्थ है कि उदाहृत ‘यतो वा इमानि’ इत्यादि वाक्यों के विषय में ‘जन्माद्यस्य यतः’ इत्यादि सूत्रों से वर्णित न्यायसमूहानुसार सभी वेदान्त-वाक्यों की ब्रह्मपरक व्याख्या सम्पन्न हो जाती है । जगत्कारणवादी संदिग्ध वेदान्तवाक्यों की व्याख्या उपर्युक्त न्यायों के अनुसार ब्रह्मपरक ही करनी चाहिए ।
(२६) पञ्चाग्निविद्या - छान्दोग्योपनिषद् तथा बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का प्रतिपाद्य अर्थ है कि - श्रीभगवान् के ही अधीन संसार के बन्धन से मुक्ति है । इस विद्या की विस्तृत चर्चा महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के तदन्तर- प्रतिपत्त्यधिकरण के ‘तदन्तरप्रतिपत्तो रंहति सम्परिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम् ’ ( ब्र० सू० ३।१।१ ) इत्यादि सात सूत्रों में की है ।
(२७) आदित्यस्थाहर्नामकविद्या – बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि आदित्यमण्डलस्थ श्रीभगवान् ही आदित्यमण्डल के अन्तर्यामी हैं । इस विद्या की चर्चा महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के तृतीय अध्याय के तृतीय पाद के संबंधाधिकरण के ‘सम्बन्धादेवमन्यत्रापि ’ ( ब्र० सू० ३।३।२० ) इत्यादि सूत्रों में की है ।
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( २८ ) अक्षिस्थाहन्नामक विद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् पुण्डरीकाक्ष हैं। शारीरक-मीमांसा अध्याय तीन के तीसरे पाद के सम्बन्धाधिकरण में महर्षि बादरायण ने इस विद्या की समालोचना की है ।
(२९) पुरुषविद्या - बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि श्रीभगवान् ही परमपुरुष हैं। शारीरक-मीमांसा के तीसरे अध्याय के तीसरे पाद के पुरुषविद्याधिकरण के ‘पुरुषविद्यायामपि चेतरेषामनाम्नानात् ’ ( व्र० सू० ३ ३ । २४ ) सूत्र में महर्षि बादरायण ने इस ब्रह्मविद्या की चर्चा की है ।
( ३० ) ईशावास्यविद्या - ईशावास्योपनिषद् में वर्णित इस विद्या का अभिप्राय यह है कि कर्म सहित उपासनात्मक ज्ञान के द्वारा श्रीभगवान् की प्राप्ति होती है । इस ब्रह्मविद्या की चर्चा महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के तृतीय अध्याय के चतुर्थ पाद के प्रथम पुरुषार्थाधिकरण में की है ।
(३१) उषस्तिक होलविद्या - वृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित इस विद्या का प्रति- पाद्य अर्थ है कि श्रीभगवान् की प्राप्ति के लिए भोजनादि विषयक नियमों का पालन भी आवश्यक होता है । महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के तृतीय अध्याय के चतुर्थ पाद के सर्वान्नानुमत्यधिकरण में इसका विवेचन किया है ।
( ३२ ) व्याहृतिशरीरकविद्या अथवा न्यासविद्या - ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्याय के तृतीय पाद के शब्दादिभेदाधिकरण में चर्चित इस विद्या में बतलाया गया है कि श्रीभगवान् व्याहृतियों की आत्मा बनकर मन्त्रमय हैं । इसी विद्या को न्यासविद्या भी कहते हैं । इसका वर्णन महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा के ‘नानाशब्दादि- भेदात् ’ ( ३।३।५६ ) सूत्र में किया है ।
मूलम्
२७. ध्यानशब्दवाच्या भक्तिविद्याभेदात् बहुविधा । ताश्च विद्या द्विविधाः – ऐहिक-फलाः मुक्तिफलाश्चेति । तत्रैहिकफला उद्गीथविद्यादयः । मुक्तिफलास्तु अन्तरक्षि-विद्या, दहरविद्या, सद्विद्या, मधुविद्या, उपकोसलविद्या, शाण्डिल्यविद्या, पुरुषविद्या, वैश्वानरविद्या, पञ्चाग्निविद्या इत्यादिकाः ब्रह्मविद्याः ।