११ भक्ति-योगस्य स्व-रूप--निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

२०. भक्ति-योगो नाम
यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-
धारणा-ध्यान-समाधि-रूपाष्टाङ्गवाँस्
तैल-धारावद् अविच्छिन्न-स्मृति-सन्तान-रूपः ।

अण्णङ्गराचार्यः

स्मृतिसन्तानेति । तत्तद्विद्योक्तगुणादिविशिष्टं भगवत्स्मृतिसन्ततिरूपम् इत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि – इन आठ अंगों से युक्त, तेल की धारा के समान, बिना किसी विच्छेद के सतत ध्येय के स्वरूप चिन्तनधारा को भक्तियोग कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

मा० प्र०— ऊपर कहा जा चुका है भक्ति एवं प्रपत्ति से प्रसन्न होकर श्रीभगवान् ही मुमुक्षु जीवों को मोक्ष प्रदान करते हैं । [[१४०]]
भक्तियोग - आचार्यों ने कहा है कि पूज्य व्यक्ति के विषय में होने वाली प्रीति ही भक्ति कहलाती है । श्रीभगवान् ही स्वेतर समस्त जीवों के पूज्य हैं, अतएव भगवद्विषयिणी होने वाली प्रीति ही भक्ति कहलाती है । उस भक्ति के स्वरूप को निरूपित करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि ध्येय श्रीभगवान् विषयक तैलधारावदविच्छिन्नस्मृतिसन्तान ही भक्ति शब्द वाच्य है । उस स्मृतिसन्तान को अष्टाङ्गयोग से समन्वित होना चाहिए। चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं । ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ’ ( यो० सू० १।२ )

योग के आठ अङ्ग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - इन आठ अङ्गों का समुदाय ही योग कहलाता है । इन योगाङ्गों का संक्षिप्ततम परिचय निम्न प्रकार का है ।

( १ ) यम – ‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । ( यो० सू० २।३० ) अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह, ये पाँच यम हैं ।

( क ) अहिंसा - मन, वाणी तथा शरीर से किसी को भी किसी भी प्रकार से कष्ट न पहुँचाने को अहिंसा कहते हैं ।

( ख ) सत्य - प्रत्यक्ष देखकर या सुनकर या अनुमान के द्वारा अनुभूत वस्तु का यथायथ वर्णन करना सत्य है । सत्यवचन दूसरों के लिए हितकारी तथा अनुद्वेगकारी होते हैं । कपटरहित एवं छलरहित व्यवहार सत्य व्यवहार कहे जाते हैं ।

( ग ) अस्तेय - अनुचित ढंग से किसी दूसरे की वस्तु को अपना बना लेना ही स्तेय ( चोरी ) है । चोरी के अभाव को ही अस्तेय कहते हैं ।

(घ) ब्रह्मचर्य - मन, वाणी और शरीर से होने वाले सब प्रकार के मैथुनों का सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य है । दक्षमुनि ने कहा है-आठ प्रकार के मैथुन का त्याग ही ब्रह्मचर्य है । आठ प्रकार के मैथुन निम्न हैं-

‘स्मरणं कीर्तनं केलिः
प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।
सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च
क्रियानिर्वृत्तिरेव च ॥
एतन्मैथुनमष्टाङ्गं
प्रवदन्ति मनीषिणः ।
विपरीतं ब्रह्मचर्यम्
एतदेवाष्टलक्षणम् ॥’

(ङ) अपरिग्रह - विषयों में अर्जन-दोष, रक्षण-दोष, क्षय-दोष, संग-दोष तथा हिंसा - दोष देखने से उनका जो अस्वीकार, वह अपरिग्रह कहा जाता है ।

इन पाँचों के समूह को यम कहते हैं ।

( २ ) नियम -

शौच - सन्तोष- तपः-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः’ (यो० सू० २।३२ ) ।

अर्थात् —

शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर का ध्यान, ये पाँच नियम कहलाते हैं ।

[[१४१]]

(क) शौच - मिट्टी, जल आदि लगाकर स्नान करने तथा मेध्य वस्तुओं का भोजन करने से उत्पन्न बाह्य शुद्धि तथा व्रतोपवासादि के द्वारा चित्त के दोषों के प्रक्षालन जन्य आभ्यन्तर शुद्धि का पालन ही शौच कहलाता है ।

( ख ) सन्तोष — कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उपलब्ध साधनों के द्वारा ही सन्तोषपूर्वक जीवन निर्वाह ही सन्तोष है ।

( ग ) तप - द्वन्द्वों की सहिष्णुता ही तप है । शीत-उष्ण, सुख-दुःख, मान- अपमान, सम्पत्ति विपत्ति प्रभृति द्वन्द्वों को समान रूप से स्वीकार करने को तप कहते हैं ।

(घ) स्वाध्याय - मोक्षप्रद शास्त्रों का अध्ययन अथवा प्रणव के जप को स्वाध्याय कहते हैं ।

(ङ) ईश्वर - प्रणिधान – ‘परमात्मा के स्वरूप, रूप, विभूति, ऐश्वर्य आदि का चिन्तन करना ही ईश्वर प्रणिधान है ।

( ३ ) आसन - ‘स्थिरसुखमासनम्’ ( यो० सू० २।४६ ) । " आस्यते ‘आस्ते’ वा अनेन इत्यासनम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा स्थिरता तथा सुखपूर्वक बैठा जा सके, उसे आसन कहते हैं ।

( ४ ) प्राणायाम -
’ तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः’ (यो० सू० २।४९ ) । आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास एवं प्रश्वास की जो स्वाभाविक गति रुक जाती है, उसे प्राणायाम कहते हैं । बाह्य वायु को भीतर प्रवेश कराना श्वास कहलाता है । उदर में स्थित वायु को बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है । उन दोनों की स्वाभाविक गति का रुक जाना ही प्राणायाम कहलाता है ।

(५) प्रत्याहार - ‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ’ ( यो० सू० २।५४ ) । अर्थात् उक्त प्रकार से प्राणायाम का अभ्यास करते-करते मन और इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाते हैं । उसके पश्चात् इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को सब ओर से समेट कर मन में विलीन करने के अभ्यास का नाम प्रत्याहार है । जब साधनकाल में साधक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके चित्त को अपने ध्येय में लगाता है, उस समय जो इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन-सा हो जाता है, यह प्रत्याहार सिद्ध होने की पहचान है ।

( ६ ) धारणा - ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ ( यो० सू० ३।१ ) अर्थात् हृदय के भीतर के नाभिचक्र, हृदयकमल आदि देशों अथवा सूर्य, चन्द्रमा या कोई देवता आदि बाह्य देशों में चित्त का स्थिर हो जाना ही धारणा है ।

(७.) ध्यान – ’ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’ ( यो० सू० ३।२ ) । ध्येय वस्तु में चित्त का एकाग्र हो जाना ही ध्यान है । एकमात्र ध्येय-विषयिणी चित्त की धारा ही ध्यान है ।

[[१४२]]

(८) समाधि - ’ तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः’ (यो० सू० ३ । ३ ) । अर्थात् ध्यान में केवल ध्येय के स्वरूप की प्रतीति होना तथा चित्त का अपना स्वरूप शून्य-सा हो जाना ही समाधि कहलाता है । ध्येय का ध्यान करते-करते जब चित्त स्वयम् ध्येयाकाराकारित हो जाता है, उसमें केवल ध्येय की ही प्रतीति होती है, ध्यान की इसी अवस्था को समाधि कहते हैं ।

इस अष्टाङ्गयोग से सम्पन्न अधिकारी जब लगातार ध्येय श्रीभगवान् के स्वरूप का चिन्तन करने लग जाता है, तब उसके चिन्तन काल में मन से बिल्कुल ध्येय श्रीभगवान् के स्वरूप का अपरोक्ष-सा होने लगता है तो उसे ही भक्तियोग कहते हैं । चिन्तन की धारा को तैलधारावदविच्छिन्न कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार तेल की धारा निश्छिद्र होती है, उसी प्रकार ध्याता का मन सदा परमात्मा के स्वरूप के चिन्तन में निरत रहता है, उसमें थोड़ा-सा भी अन्तराल नहीं होता है ।

मूलम्

२०. भक्तियोगो नाम यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधि- रूपाष्टाङ्गवाँस्तैलधारावदविच्छिन्नस्मृतिसन्तानरूपः ।

वासुदेवः

यम-नियमेति । यमादीनां स्वरूपं योगसूत्रे प्रतिपादितम् । तथा हि - ‘अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः’ (यो० सू० २।३०) । ‘शौच-संतोष-तपः-स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि नियमः’ (यो० सू० २।३२) । ‘स्थिरसुखम् आसनम्’ (यो० सू० २।४६) । आस्यते ऽनेनेत्य् आसनं पद्मासनादि । तद् यदा स्थिरं निष्कम्पं सुखम् अनुद्वेजनीयं च भवति तदा तद् योगाङ्गतां भजत इत्य् अर्थः । ‘तस्मिन् सति श्वास-प्रश्वासयोर् गतिविच्छेदः प्राणायामः’ (यो० सू० २।४९) । तस्मिन् सति, आसन-स्थैर्ये सतीत्य् अर्थः । ‘स्व-स्व-विषय-संप्रयोगाभावे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः’ (यो० सू० २।५४) । इन्द्रियाणि स्व-स्व-विषयेभ्यः प्रत्याह्रियन्ते प्रतिकूलतया ह्रियन्ते यस्मिन्निति प्रत्याहारः । चक्षुरादीन्द्रियाणां रूपादि-विषय-प्रवृत्त्यभावे सति, इन्द्रियाणि चित्त-स्वरूप-मात्रानुकारीणि यद् भवन्ति स प्रत्याहार इत्य् अर्थः । ‘देश-बन्धाश् चित्तस्य धारणा’ (यो० सू० ३।१) । ध्येय-स्वरूपे देशे चित्तस्य बन्धो विषयान्तर-परिहारेण यत् स्थिरीकरणं सा चित्तस्य धारणेत्य् अर्थः । ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’ (यो० सू० ३।२) । तत्र ध्येय-स्वरूपे प्रत्ययस्य ज्ञानस्यैकतानता तद्-आलम्बनतयैव निरन्तरम् उत्पत्तिर् ध्यानम् इत्य् अर्थः । ‘तद् एवार्थमात्र-निर्भासं स्वरूप-शून्यम् इव समाधिः’ (यो० सू० ३।३) । सम्यग् आधीयत एकाग्री क्रियते यत्र मनः स समाधिर् इति । साधन-सप्तकेति । अत्र विवेकादिषु कारणत्वं व्यासज्यवृत्ति, न तु प्रत्येकपर्याप्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२१. स च विवेक-विमोकाभ्यास-क्रिया-कल्याण+
अनवसाद+अनुद्धर्ष-रूप-साधन-सप्तक-जन्यः ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘विवेके’**ति । विवेकादेः साधनसप्तकस्य भगवद्ध्यानहेतुत्वं वाक्यकारेणोक्तम् । विवृतं च श्रीभाष्ये लघुसिद्धान्ते । जातिदुष्टं कलञ्जादि । आश्रयदुष्टं पतिताद्यन्नम् । निमित्तदुष्टं केशकीटाद्युपहतम् । त्रिविधदोषरहितशुद्धान्नसेवया स्वदेहस्य विविक्तत्वापादनं विवेकः । कामानभिष्वङ्गः - काम्येषु विषयेषु अतिसङ्गराहित्यम् । आलम्बनं शुभाश्रयभूतं भगवद्दिव्यमङ्गलविग्रहादि । विरोधी - भक्तेर्विरोधी । अनुगृहीता - परिनिष्पादिता । दर्शनसमानाकारा - भावनाप्रकर्षाद्विशदावभासरूपा ।

शिवप्रसादः (हिं)

वह भक्तियोग - विवेक, विमोक, अभ्यास, क्रिया, कल्याण, अनवसाद एवं अनुद्धर्ष - इन सात साधनों से उत्पन्न होता है ।

मूलम्

२१. स च विवेकविमोकाभ्यासक्रियाकल्याणानवसादानुद्धर्षरूपसाधनसप्तकजन्यः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२२. तत्र विवेको नाम जात्य्-आश्रय-निमित्ताऽदुष्टाद् अन्नात् काय-शुद्धिः ।
विमोकः कामानभिष्वङ्गः ।
अभ्यासः पुनः पुनर् आलम्बन-संशीलनम् ।+++(5)+++
शक्तितः पञ्च-महा-यज्ञाद्य्-अनुष्ठानं क्रिया
सत्यार्जव-दया-दानाहिंसानभिध्याः कल्याणानि
अन्-अवसादो दैन्याभावः ।
अनुद्धर्षस् तुष्ट्यभावः -
अतिसन्तोषश् च विरोधीत्य् अर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

जातिदोष, आश्रयदोष एवं निमित्तदोष, इन तीन प्रकार के दोषों से जो दूषित नहीं हुआ है, ऐसे अन्न को खाने से शरीर की शुद्धि करना ही विवेक कहलाता है । कामनाओं की अनासक्ति ही विमोक है । बारम्बार आरम्भण और संशीलन ही अभ्यास है । अपनी शक्ति के अनुसार पञ्चमहायज्ञादि क्रियाओं का अनुष्ठान करना ही क्रिया है । सत्य, आर्जव, दया, दान तथा अहिंसा आदि का पालन ही कल्याण कह- लाता है । दीनता के अभाव को अनवसाद कहते हैं । तुष्टि के अभाव को अनुद्धर्ष कहते हैं । अत्यन्त संतोष भक्ति का विरोधी है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

विवेकादि साधन-सप्तक - वह भक्तियोग भी साधनसप्तक जन्य होता है । वे साधनसप्तक निम्न हैं- विवेक, विमोक, अभ्यास, क्रिया, कल्याण, अनवसाद और अनुद्धर्ष – ये सात साधन हैं । श्रीभाष्य में इन सात साधनों की व्याख्या निम्न प्रकार से की गयी है-

(१) विवेक – अन्न में तीन प्रकार के दोष होते हैं— जाति-दोष, आश्रय- दोष एवं निमित्त दोष । इन तीनों दोषों से रहित भोज्य पदार्थों का सेवन करने से शरीर की जो शुद्धि होती है, उसे विवेक कहते हैं। ‘जात्याश्रयनिमित्तादुष्टादन्नात् कायशुद्धि- विवेकः । जातिदुष्ट अन्न- लशुनादि हैं । ‘पतितों एवं आततायियों’ इत्यादि के घर का अन्न आश्रय-दोष से दूषित होता है। भोजन में बाल का अथवा मक्खी आदि के गिर जाने से भोजन निमित्त-दोष से दूषित हो जाता है। ऐसे अन्न का ग्रहण मुमुक्षु जीव के लिए वर्जित है । अतएव उन्हें ऐसा अन्न नहीं लेना चाहिए । भक्ति में विवेक पर बल देते हुए छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है - ’ आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धी ध्रुवास्मृतिः’ ( छा० उ० ७।२६ ) । अर्थात् शुद्ध आहार लेने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और अन्तःकरण की शुद्धि होने पर ध्रुवास्मृति अर्थात् भक्तियोग का उदय होता है ।

( २ ) विमोक – काम्य विषयों में अत्यन्त आसक्ति का अभाव ही विमोक कहलाता है । श्रुति भी कहती है- ‘शान्त उपासीत’ ( छा० उ० ३।१४।१ ) अर्थात् विषयों से विरक्त होकर उपासना करनी चाहिए ।

(३) अभ्यास – मुमुक्षु जीवों के कल्याण के आश्रयभूत श्रीभगवान् का दिव्य- मङ्गलविग्रह ही ध्यान का आलम्बन अथवा आरम्बण शब्द वाच्य है । उसका बार- बार संशीलन चिन्तन करना ही अभ्यास कहलाता है । ‘आरम्बणसंशीलनं पुनः पुनर भ्यासः’ । गीता में स्वयम् भगवान् भी कहते हैं-‘सदा तदभावभावितः’ ( गी० ८१६) । अर्थात् मुमुक्षु जीव सदा अपने ध्येय परमात्मा की भावना से भावित रहता है। [[१४३]]

( ४ ) क्रिया - अपनी शक्ति के अनुमार सदा पञ्च महायज्ञों का अनुष्ठान ही क्रिया कहलाती है । ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ, ये पञ्च महायज्ञ कहलाते हैं । इनमें वेदाध्ययन तथा अध्यापन ब्रह्मयज्ञ कहलाता है । पितृतर्पण पितृयज्ञ कहलाता है । होम दैवयज्ञ कहलाता है । भूतबलि भूतयज्ञ कहलाता है । अतिथि का पूजन मनुष्ययज्ञ कहलाता है । तथाहि-

‘अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः
पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो दैवो बलिर्भौतो
नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥’ ( म० स्मृ० ३।७० )

मुमुक्षु के लिए पञ्चमहायज्ञ के अनुष्ठान पर बल देते हुए कहा गया है - ‘क्रिया- वानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः । ’ ( मु० उ० ३।१।४ ) अर्थात् पञ्चमहायज्ञानुष्ठान रूप क्रिया का आचरण करनेवाला ही ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ है । ‘तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन ।’ ( बृ० उ० ६।४।२२ ) अर्थात् उस पुरुषसूक्त में वर्णित श्रीभगवान् को वेदवाक्यों के अनुसार मुमुक्षु यज्ञ, दान, तपस्या तथा उपवास के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं ।

( ५ ) कल्याण – सत्यभाषण, मन, वाणी तथा शरीर के समान व्यवहार वाला होना, रूप, आर्जव, जीवों पर दया करना, दान देना तथा अहिंसा का पालन, इन सबों का समुदित नाम कल्याण है । मुमुक्षु के लिए कल्याण के पालन पर बल देती हुई श्रुति कहती है - ‘सत्येन लभ्यः’ ( मु० उ० ३।१।५ ) । अर्थात् वह परमात्मा सत्य के द्वारा प्राप्य है ।

(६) अनवसाद - विपरीत देश एवं काल के कारण तथा शोकप्रद वस्तुओं की याद आ जाने से किसी प्रकार की दीनता का न होना ही अनवसाद कहलाता है । अतएव मुमुक्षु को सर्वदा परमात्मा पर भरोसा रखना चाहिए । कभी दीनता का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। श्रुति भी कहती है- ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ ( मु० उ० ३।२।४ ) । अर्थात् अवसादग्रस्त बलहीन अधिकारी इस परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है ।

(७) अनुद्धर्ष - देशकाल की अनुकूलता तथा प्रियवस्तु के स्मरण से सन्तुष्ट न होने को अनुद्धर्षं कहते हैं । इस अनुद्धर्ष की भी मुमुक्षु के लिए अत्यन्त आवश्यकता होती है । अपनी सांसारिक सम्पन्नता को देखकर संतोष का अनुभव करना मुमुक्षु को भक्ति से पराङ्मुख कर देती है । अतएव अपनी सांसारिक संतोषाधिक्य का अनुभव करना भक्ति का विरोधी है ।

मूलम्

२२. तत्र विवेको नाम जात्याश्रयनिमित्तादुष्टादन्नात्कायशुद्धिः । विमोकः कामान-भिष्वङ्गः । अभ्यासः पुनः पुनरालम्बनसंशीलनम् । शक्तितः पञ्चमहायज्ञा- द्यनुष्ठानं क्रिया । सत्यार्जवदयादानाहिंसानभिध्याः कल्याणानि । अनवसादो दैन्याभावः । अनुद्धर्षस्तुष्टयभावः । अतिसन्तोषश्च विरोधीत्यर्थः ।

वासुदेवः

जातीति । जातिदुष्टं कलञ्जगृञ्जनादि । आश्रय-दुष्टं पतितादि-स्वामिकम् । निमित्तदुष्टम् उच्छिष्टादि । एतत्-त्रिविध-दोष-रहिताद् अन्नात् काय-शुद्धिर् विवेक इत्य् अर्थः । आलम्बनेति । आलम्बनं शुभाश्रयस् तस्य संशीलनं पुनः पुनः परिशोधनम् । सत्येति । सत्यं भूतहितम् । आर्जवं वाक्-कायानामैक-रूप्यम् । दया स्वार्थ-निरपेक्ष-परदुःखासहिष्णुत्वम् । दानं लोभराहित्यम् । अहिंसा कायेन वाचा मनसा च परपीडा-निवृत्तिः । आदिपदाद् अनभिव्यासंग्रहः । अभिध्या परकीये स्वबुद्धिः । यद्वा निष्कलङ्क-चिन्ता । अथवा परकृतापराधचिन्ता । तद्-राहित्यम् अनभिध्या । दैन्येति । दैन्यं चाभीष्ट-कार्यप्रवृत्त्यक्षमत्वम् । तच् च देवकाल-वैषम्याच् छोकवस्त्वाद्यनुस्मृतेश् च भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२३. एवं साधन-सप्तकानुगृहीता भक्तिः
दर्शन-समानाकारा अन्तिम-प्रत्ययावधिका च भवति।
चान्तिम-प्रत्यय एतच्-छरीरावसाने वा
शरीरान्तरावसाने वा भवति ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘स चे’**ति । यत्र विद्यानिष्पन्ना तच्छरीरावसानकाल एव प्रारब्धनिश्शेषक्षये सति, प्रारब्धशेषे तु तदारब्धान्तिमदेहावसानेऽन्तिमप्रत्ययो भवतीत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

इस प्रकार सात साधनों से अनुगृहीत भक्ति ध्येय के साक्षात्कार के सदृश आकार वाली तथा अन्तिम ज्ञान पर्यन्त तक स्थिर रहने वाली होती है । यह अन्तिम प्रत्यय वर्तमान शरीर के समाप्ति काल में अथवा दूसरे जन्म में होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

सम्पन्नता के कारण

इस साधनसप्तक से परिनिष्पन्न भक्ति अपनी काष्ठा का स्पर्श-सी करती हुई दर्शनसमानाकारता को प्राप्त कर लेती है । भक्त को लगता है कि वह अपने ध्येय परमात्मा का जैसे साक्षात्कार कर रहा हो और यह भक्ति तबतक बनी रहती है, जबतक कि अन्तिम प्रत्यय उत्पन्न नहीं हो जाता है । यदि वर्तमान शरीर के पातकाल में प्रारब्ध कर्म की समाप्ति हो जाती है तो यह अन्तिम प्रत्यय इस शरीर के पातकाल [[१४४]] में ही उत्पन्न हो जाता है । यदि प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं हुआ तो वह अन्तिम प्रत्यय दूसरे जन्म में होता है । किन्तु साधनसप्तकानुगृहीत भक्ति विना अन्तिम प्रत्यय उत्पन्न हुए समाप्त नहीं होती है ।

शरीर-पातकाल में भी अपने ध्येय श्रीभगवान् के स्वरूप, रूप, ऐश्वयं तथा संबन्ध आदि का स्मरण होते रहना ही अन्तिम प्रत्यय कहलाता है । अन्तिम प्रत्यय- सम्पन्न योगी ही मोक्षाधिकारी होता है ।

मूलम्

२३. एवं साधनसप्तकानुगृहीता भक्तिः दर्शनसमानाकारा अन्तिमप्रत्ययावधिका च भवति। स चान्तिमप्रत्यय एतच्छरीरावसाने वा शरीरान्तरावसाने वा भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२४. वेदन-ध्यानोपासनादि-शब्द-वाच्या भक्तिः
पर-भक्ति–पर-ज्ञान–परम-भक्ति–रूप-क्रम-वती
प्रपत्त्य्-अङ्गिका च ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘वेदने’**ति । ज्ञानसामान्यवाचिनो वेदनशब्दस्य मोक्षकारणबोधकस्य मोक्षकारणवाचिनसमानप्रकरणस्य व्यानोपासनादिविशेषशब्दवाच्यज्ञानविशेषे पर्यवसानं सामान्यविधेयन्यायेन । तदभिप्रेत्याह वेदनध्यानोपासनादिशब्दवाच्येति । वर्णितं च पूर्वाचार्यैः

वेदनं ध्यानविश्रान्तं ध्यानं श्रान्तं ध्रुवस्मृतौ ।
सा च दृष्टित्वमभ्यैति दृष्टिर्भक्तित्वमृच्छति ॥

इति । भक्तिः - ‘स्नेहपुत्रमनुध्यानं भक्तिरित्यभिधीयते’ ‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ इत्युक्तलक्षणा । परभक्तिपरज्ञानपरमभक्तयः भक्तिपर्वविशेषाः । उत्कटदिदृक्षागर्भप्रेमपूर्वकस्मृतिसन्ततिः परा भक्तिः । पूर्णसाक्षात्कारावस्थापन्ना सा परज्ञानम् । उत्कटप्रेप्सागर्भा सैव परमभक्तिरिति । अव्यवधानेन परप्राप्तिसाधनं परमभक्तिरेव ।

मद्भक्तिं लभते पराम् ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मा तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
(गीता)

इत्यत्र पर्वभेदास्त्रयोऽपि कीर्तिता इति विभाव्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

शास्त्रों में इस भक्ति को वेदन, ध्यान, उपासना आदि शब्दों से अभिहित किया गया है ।
इस भक्ति के क्रमशः तीन क्रम उत्तरोत्तर होते हैं- परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति ।
इन तीन क्रमों वाली वह भक्ति प्रपत्ति का अङ्ग बन जाती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भक्ति के तीन पर्व होते हैं- परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति ।

परभक्ति -
प्रीतिरूप को प्राप्त होने वाला
तथा दर्शन के समान आकार वाला मोक्ष का कारणभूत स्मृतिसन्तान ही
परभक्ति कहलाता है ।

परज्ञान - श्रीभगवान् के विषय में होनेवाला वह परिपूर्ण साक्षात्कार है,
जो ऐसे प्रेममय भगवद्ध्यान से -
जिससे श्रीभगवान् का साक्षात्कार करने के लिए उत्कट उत्कण्ठा उत्पन्न होकर
श्रीभगवान् से ऐसी प्रार्थना होती है कि

हे भगवन् ! कृपया आप अपने निर्विकारस्वरूप का
मुझे दर्शन कराइए –

प्रसन्न श्रीभगवान् के अनुग्रह प्राप्त होता है ।

परमभक्ति -
इस प्रकार से परमभोग्य श्रीभगवान् का साक्षात्कार होने के पश्चात्
जो श्रीभगवान् को प्राप्त करने के लिए
प्रेममय उत्कट त्वरा होती है,
वह परमभक्ति कहलाती है ।
परमभक्ति ही श्रीभगवान् को साक्षात् प्राप्त कराती है।

इन तीन क्रमों वाली भक्ति ही प्रपत्ति का अङ्ग बनती है ।

मूलम्

२४. वेदनध्यानोपासनादिशब्दवाच्या भक्तिः परभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिरूपक्रमवती प्रपत्त्यङ्गिका च ।

वासुदेवः

प्रपत्त्यङ्गकेति । प्रपत्यङ्गभूतेत्य् अर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२५. सा द्वि-विधा – साधन-भक्ति–फल-भक्ति–भेदात् ।
+++(पूर्व-)+++उक्त-साधन-जन्या साधन-भक्तिः
फल-भक्तिस् तु ईश्वर-कृपा-जन्या श्रीपराङ्कुश-नाथादि-निष्ठा ।

“मद्-भक्त-जन-वात्सल्यम्” इत्य्-आदिषु स्तुति-नमस्-कारादिषु च
भक्ति-शब्द-प्रयोग औपचारिकः ।+++(5)+++

अण्णङ्गराचार्यः

उक्तसाधनेति । पुरुषप्रयत्नसाध्या कर्मज्ञानविवेकशमादिसाधनानुष्ठानजन्या साधनभक्तिः मोक्षोपायत्वेन क्रियमाणा व्यासादिनिष्ठा । भगवत्प्रसादेनैव जन्या स्वयम्प्रयोजनरूपा साध्यभक्तिः श्रीपराकुशनाथमुन्यादिनिष्ठा । साध्यभक्तिनिष्ठानां तु भगवत्येवोपायत्वाध्यवसायः उपायत्वप्रार्थनागर्भ इति सम्प्रदायविदः प्राहुः ।
**‘मद्भक्ते’**ति ।

मद्भक्तजनवात्सल्यं पूजाया चानुमोदनम् ।
स्वयमभ्यर्चनं चैव मदर्थं दम्भवर्जनम् ।
मत्कथाश्रवणे भक्तिः स्वरनेत्राङ्गविक्रिया ।
ममानुस्मरणं नित्यं यश्चमा नोपजीवति ।
भक्तिरष्टविधा ह्येषा

(भगवच्छास्त्रे) इति निरुक्ताष्टविधभक्तिषु

श्रवणकीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

इत्युक्तेषु नवविधेषु च प्रकारेषु प्रीत्या क्रियमाणत्वोपाधिना भक्तिशब्दः प्रयुज्यते । एतेऽपि श्रवणादयः परभक्तेर्निष्पादका मताः, तत्स्वरूपान्तर्गताश्च । मुख्या भक्तिस्तु मोक्षप्रापिका परमभक्तिरित्याशयः ।

शिवप्रसादः (हिं)

भक्ति के दो भेद हैं- साधनभक्ति और फलभक्ति । उपर्युक्त साधनों से उत्पन्न होने वाली भक्ति साधनभक्ति है । फलभक्ति तो ईश्वर की कृपा से उत्पन्न होती है तथा वह श्रीशठकोपसूरि एवं श्रीनाथमुनि आदि में पायी जाती है । ‘मेरे भक्तों के प्रति वात्सल्य प्रदर्शित करना मेरी भक्ति है’ इत्यादि वाक्यों में ( भक्तों के प्रति वात्सल्य प्रदर्शन को ) तथा स्तुति, नमस्कार आदि को जो भक्ति शब्द से अभिहित किया गया है, वह औपचारिक प्रयोग है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भक्ति के दो भेद होते हैं - साधनभक्ति तथा साध्यभक्ति ।

साधनभक्ति वह है, जो शमादि साधनों तथा साधनसप्तक के अनुष्ठान से मुमुक्षु जीव में उत्पन्न होती है । मुमुक्षु जीव मोक्ष के साधन से उस भक्ति का अनुष्ठान करते हैं। जैसे - व्यास महर्षि आदि की भक्ति ।

साध्यभक्ति वह है, जो श्रीभगवान् की कृपा से उत्पन्न होती है । जैसे श्रीशठ- कोपसूरि की भक्ति । सहस्रगीति में श्रीशठकोपसूरि श्रीभगवान् के वियोग में व्याकुल दिखलायी पड़ते हैं ।

भगवच्छास्त्र में आठ प्रकार की भक्तियों का निर्देश किया गया है । तथाहि-

‘मद्भक्तजनवात्सल्यं
पूजायां चानुमोदनम् ।
स्वयमभ्यर्चनं चैव
मदर्थं दम्भवर्जनम् ॥ मत्कथाश्रवणे भक्तिः
स्वरनेत्राङ्गविक्रिया ।
ममानुस्मरणं नित्यं
यश्च मां नोपजीवति ।
भक्तिरष्टविधा ह्येषा ॥’

अर्थात्

( १ ) मेरे भक्त के प्रति वात्सल्य का प्रदर्शन,
(२) मेरी पूजा का अनु- मोदन करना,
( ३ ) स्वयम् मेरी अर्चना करना,
(४) मेरे विषय में किसी प्रकार का दम्भ न करना,
( ५ ) मेरी कथा के श्रवण में भक्ति,
( ६ ) मेरी कथा को सुन- कर स्वर, नेत्र तथा अङ्ग में विकार पैदा हो जाना,
(७) सदा मेरा स्मरण करना [[१४५]]
तथा ( ८ ) मुझको ही अपनी जीविका का साधन नहीं बनाना, यह मेरी आठ प्रकार की भक्ति है ।

अन्यत्र भी नवधाभक्ति बतलायी गयी है.

‘श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥’

अर्थात्

श्रीभगवान् का श्रवण करना, कीर्तन करना, स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, श्रीभगवान् की अर्चना करना, उनकी वन्दना करना, उनकी दासता करना, उनमें सख्यभाव रखना तथा श्रीभगवान् के लिए अपने को अर्पित कर देना- यही नवधाभक्ति है ।

इन सबों को औपचारिक ढंग से भक्ति कही गयी है । मुख्य रूप से तीन उपर्युक्त ही भक्ति है । श्रवणादि भगवद्भक्ति के जनक हैं, अतएव उनको भी भक्ति कह दिया गया है ।

मूलम्

२५. सा द्विविधा – साधनभक्तिफलभक्तिभेदात् । उक्तसाधनजन्या साधनभक्तिः । फलभक्तिस्तु ईश्वरकृपाजन्या श्रीपराङ्कुशनाथादिनिष्ठा । “मद्भक्तजनवात्सल्यम्” इत्यादिषु स्तुतिनमस्कारादिषु च भक्तिशब्दप्रयोग औपचारिकः ।

वासुदेवः

साधनमतिर् इति । सा च व्यासादिनिष्ठा । श्रीपराङ्कुशनाथादीति । पराङ्कुशनाथाश् चायं श्रीरामानुजाचार्यात् प्राचीन-तमस् ताम्र-पर्णी-तीर-निवासीति प्रसिद्धिः ।