१० ज्ञान-योगस्य स्व-रूप--निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

१९. ज्ञान-योगो नाम
कर्म-योगान् निर्मलान्तःकरणस्य
ईश्वर-शेषत्वेन प्रकृति-वियुक्त-स्वात्म-चिन्ता-विशेषः ।
एतस्य साक्षाद्-भक्त्य्-उपयोगित्वम् ।

एवं साधनान्तराणाम् अपि
भक्त्य्-उपयोगित्वम् ऊह्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - कर्मयोग के अनुष्ठान से जिसका अन्तःकरण स्वच्छ हो गया है वह अपने को ईश्वर का शेष समझने लगता है । परमात्मशेषत्व ही जीवात्मा का स्वरूप शास्त्रों में वर्णित है । वह अपने स्वरूप से प्रकृति को वियुक्त रूप से जानने लगता है । इस प्रकार अपनी आत्मा के स्वरूप के चिन्तन को ही ज्ञानयोग कहते हैं । ज्ञानयोग का भक्तियोग में साक्षात् उपयोग होता है । इसी प्रकार मोक्ष के साधन रूप से जो दूसरे साधन बतलाए गये हैं, उनका उपयोग भक्तियोग में ही होता है । वे मोक्ष के साधन नहीं हैं, अपितु उनकी उपयोगिता भक्तियोग की उत्पत्ति में है ।

मूलम्

१९. ज्ञानयोगो नाम कर्मयोगान्निर्मलान्तःकरणस्य ईश्वरशेषत्वेन प्रकृतिवियुक्त-स्वात्मचिन्ताविशेषः । एतस्य साक्षाद्भक्त्युपयोगित्वम् । एवं साधनान्त-राणामपि ( स्वातन्त्र्यम् ) भक्त्युपयोगित्वम् (च ) ऊह्यम् ।