०९ कर्म-योग--स्व-रूप--निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

१८. कर्म-योगो नाम
उपदेशात् जीव-पर–याथात्म्य-ज्ञानवता
शक्त्य्-अनुसारेण
फल-सङ्ग-रहितानिषिद्ध–काम्य-नित्य-नैमित्तिक-रूप–परिगृहीत-कर्म-विशेषः ।
स तु देवार्चना-तपस्–तीर्थ-यात्रा–दान–यज्ञादि-भेद-भिन्नः।

अयं तु
जीव-गत–कल्मषापनयन-द्वारा
ज्ञान-योगम् उत्-पाद्य तद्-द्वारा वा साक्षाद् वा
भक्त्य्-उत्पादको भवति ।

अण्णङ्गराचार्यः

फलसङ्गरहितेति । कर्मफलस्वर्गादीच्छारहितं नित्यनैमित्तिकोपस्कृतदेवार्चनादिरूपम् इत्यर्थः । साक्षाद्वा इत्यस्यानन्तरमात्मसाक्षात्कारमुत्पाद्येति योज्यम् । भक्त्युत्पादकत्वम् – परभक्त्युत्पादकत्वम् । ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ इति वचनात् । साधनान्तराणां - नामसङ्कीर्तनादीनाम् । एतेषां साक्षादपि मोक्षसाधनत्वं श्रूयते । एवं ज्ञानभक्त्यनुगृहीतकर्मणो, कर्मभक्तयन्वितज्ञानस्यापि पुराणादौ । यथाप्रमाणं मन्तव्यम् । कर्मयोगादीनां स्वरूपं गीतार्थसंग्रहे सङ्गृहीतं परमाचार्यैः

कर्मयोगस्तपस्तीर्थदानयज्ञादिसेवनं, ज्ञानयोगो जितस्वान्तैः परिशुद्धात्मनिस्थितिः । भक्तियोगः परैकान्तप्रीत्या ध्यानादिषु स्थितिः ॥

इति ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद — उपदेश के द्वारा जीवात्मा एवं परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर अपनी शक्ति के अनुसार फालाभिसंधिरहित अनिषिद्ध काम्य, नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान रूप कर्म-विशेष ही कर्मयोग कहलाता है । देवताओं की अर्चना, तपस्या, तीर्थयात्रा, दान, यज्ञ आदि कर्मयोग के अनेक भेद हैं । कर्मयोग जीवों के पापों को विनष्ट करके ज्ञानयोग को उत्पन्न करता है तथा उसी के द्वारा अथवा साक्षात् भक्ति को उत्पन्न करता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

कर्मयोग का स्वरूप

भा० प्र० - नियम हैं कि आठ वर्ष के बटु का यज्ञोपवीत करके
उसको वेदाध्ययन कराए
‘अष्टवर्षं ब्राह्मणम् उपनयीत तमध्यापयेत्’

वेदाध्ययन प्रारम्भ करने के काल के विषय में मनु कहते हैं—

‘श्रावण्यां प्रोष्ठपद्यां वा उपाकृत्य यथाविधिः ।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत
मासान् विप्रोऽर्धपञ्चमान् ॥’ (म० स्मृ० ४।९५ )

अर्थात्

श्रावणी (श्रावण मास की पूर्णिमा), या प्रोष्ठपदी ( भाद्रपद अमावास्या ) के दिन विधि-विधानपूर्वक उपाकर्म करके अध्ययन के नियमों का पालन करते हुए साढ़े चार मास तक वेदाध्ययन करें ।

अध्ययन-प्रकार का निर्णय करते हुए आचार्य रामानुज श्रीभाष्य में कहते हैं–

‘आचार्योच्चारणानुच्चारण-रूपम् अक्षर-राशि-ग्रहण-फलम् अध्ययनम्’ ( श्रीभाष्य १.१,१ ) ।

आचार्य के उच्चारण के पश्चात् उच्चारण के द्वारा वेद को कण्ठस्थ कर लेने को अध्ययन कहते हैं । [[१३८]]

अध्ययन के पश्चात्
आपाततः अर्थ की प्रतीति होने के कारण
उन अर्थों का निर्णय करने के लिए
श्रवण में प्रवृत्ति होती है ।

श्रवण-काल में मुमुक्षु आचार्य के सन्निकट में बैठकर
प्रयोजन रूप से ज्ञात अर्थों का
न्याय एवं मीमांसा के आलोक में निर्णय करता है ।

पुनः उसकी मननादि में प्रवृत्ति होती है ।
इस प्रकार आचार्य की सन्निधि में जीवात्मा तथा परमात्मा के स्वरूप आदि का यथावत् ज्ञान प्राप्त करके
जब अधिकारी वेद - विहित कर्मों का अनुष्ठान
परमात्मा के मुखोल्लासार्थ करता है,+++(5)+++
तो उसे कर्मयोग कहते हैं ।

कर्मयोगी कर्मों का अनुष्ठान
फलाभिसंधिरहित होकर करता है ।
जिन कर्मों का निषेध वेदों में किया गया है,
उन कर्मों को कर्मयोगी नहीं करता है ।

वह काम्य कर्मों को भी
भगवन्मुखोल्लासार्थ ही करता है ।

वह नित्य सन्ध्या-वन्दनादि
तथा नैमित्तिक जातकर्मेष्ट्यादि कर्मों का अनुष्ठान करता है ।

देवताओं की अर्चना, तपस्या करना, तीर्थयात्रा करना, दान करना तथा यज्ञादि करना,
ये सबके सब कर्मयोग के अन्तर्गत आते हैं ।
कर्मयोग के द्वारा जीवों के पाप प्रणष्ट होते हैं
तथा अधिकारी के हृदय में
ज्ञानयोग का आविर्भाव होता है ।
तदनन्तर अधिकारी के हृदय में
भक्तियोग उत्पन्न होता है ।
कर्मयोग साक्षात् अधिकारी में भक्तियोग उत्पन्न करता है
अथवा वह ज्ञानयोग को उत्पन्न करके
उसके माध्यम से अधिकारी में भक्तियोग उत्पन्न करता है ।

मूलम्

१८. कर्मयोगो नाम उपदेशात् जीवपरयाथात्म्यज्ञानवता शक्त्यनुसारेण फलसङ्ग- रहितानिषिद्धकाम्यनित्यनैमित्तिकरूपपरिगृहीतकर्मविशेषः । स तु देवार्चनातप-स्तीर्थयात्रा-दानयज्ञादिभेदभिन्नः। अयं तु जीवगत-कल्मषापनयनद्वारा ज्ञान- योगमुत्पाद्य तद्द्वारा वा साक्षाद्वा भक्त्युत्पादको भवति ।