०७ भगवत्-कल्याण-गुण-स्वरूपनिरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

१५. तत्र ज्ञानं नाम सर्व-साक्षात्-कार-रूपम् ।
शक्तिर् अघटित-घटना-सामर्थ्यम् ।
बलं धारण-सामर्थ्यम् ।
ऐश्वर्यं नियमन-सामर्थ्यम् ।
वीर्यम् अविकारित्वम् ।
तेजः पराभिभवन-सामर्थ्यम् ।
महतो मन्दैः सह नीरन्ध्रेण संश्लेष-स्वभावत्वं सौशील्यम्
वात्सल्यं दोषेऽपि गुणत्व-बुद्धिः, दोषादर्शित्वं वा ।
आश्रित-विरहासहत्वम् मार्दवम्
मनो-वाक्-कायैक-रूप्यम् आर्जवम्
स्व-सत्तानपेक्ष-तद्-रक्षा-परत्वं सौहार्दम्
जन्म-ज्ञान-वृत्त-गुणाद्य्-अनपेक्षाया सर्वैर् आश्रयणीयत्वं साम्यम्
स्वार्थानपेक्ष–पर-दुःख-निराचिकीर्षा कारुण्यम्, पर-दुःखासहिष्णुत्वं वा ।
क्षीरवद् उपाध्य्-अभावेऽपि स्वादुत्वम् माधुर्यम्
भक्तानुग्रह-वदान्यत्वादेर् आमूलतो दुर्-अवगाहत्वं गाम्भीर्यम्
अपरिमितं दत्वा ऽपि +अतृप्तत्वम् औदार्यम्
आश्रित-दोष-गोपनं चातुर्यम्
अ-कम्पनीयत्वं स्थैर्यम्
अ-भग्न-प्रतिज्ञात्वं धैर्यम्
पर-बल-प्रवेशन-सामर्थ्यं शौर्यम्
तन्-निराकरणम् पराक्रमः
इत्य्-आद्य् ऊह्यम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

ईश्वरगुणानां ज्ञानादीनां स्वरूपविशेषमाह ‘तत्र’ इति । नीरन्ध्रेण – निरन्तरतया । स्वमहत्ताननुसन्धानेन मन्दरेकरसतया[[??]] संश्लेषणं सौशील्यम् । वात्सल्यं स्नेहविशेषः । तक्तार्यं दोषेऽपि गुणत्वबुद्धिः, दोषादर्शनं वा यथासम्प्रदायम् । तद्रक्षापरत्वम् – आश्रितरक्षातत्परत्वम् ।

अप्यहं जीवितं जह्यात्त्वां वा सीते सलक्ष्मणम् ।
न तु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः ॥ (रामा०)

इति हि भगवद्वचनम् । परदुःखासहिष्णुत्वं परदुःखदुःखित्वपर्यवसन्नम् । ‘व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखितः’ इति स्मरणात् । एतत्प्रयुक्तां च परदुःख[[??]]राचिकीर्षा भगवतोऽस्त्येवेति बोध्यम् । यथासम्प्रदायं मन्तव्यम् । तन्निराकरणम्, परबलनिरसनम् । शिष्टं स्पष्टार्थम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद -
सभी वस्तुओं का साक्षात्कारस्वरूप ही ज्ञान है ।
अशक्य कार्यों को भी करने का सामर्थ्यं रूप शक्ति है ।
धारण करने के सामर्थ्य को बल कहते हैं । [[१३२]]
नियन्त्रण करने के सामर्थ्य को ऐश्वर्य कहते हैं ।
विकारराहित्य को वीर्य कहते हैं ।
शत्रुओं को अभिभूत कर देने के सामर्थ्य को तेज कहते हैं ।
महान् पुरुष का, बिना किसी दुराव, के नीच व्यक्तियों से मिलना ही सौशील्य कहलाता है ।
वात्सल्य-भाजन के दोषों को भी गुण रूप से देखना ही वात्सल्य है, अथवा वात्सल्यास्पद के दोषों को न देखना ही वात्सल्य है ।
अपने आश्रित जीवों के वियोग को न सह सकने को ही मार्दव कहते हैं ।
मन, वाणी तथा शरीर से एकसमान व्यवहार करने के गुण को आर्जव कहते हैं ।
अपनी सत्ता की परवाह किये बिना
अपने सुहृद् की रक्षा करना ही सौहार्द कहलाता है । निवास, चरित्र तथा गुण आदि पर ध्यान न देकर सब लोगों को समान रूप से आश्रय प्रदान करना ही साम्य कहलाता है । बिना किसी स्वार्थं के दूसरों के दुःख को दूर करने की इच्छा को ही कारुण्य कहते हैं, अथवा दूसरे को दुःखी देखकर स्वयम् दुःखी होने की क्रिया को कारुण्य कहा जाता है । जिस प्रकार दुग्ध स्वभावतः बिना किसी उपाय के ही मीठा होता है, उसी प्रकार स्वभावतः सबों के प्रति मधुर व्यवहार करने के गुण को माधुर्य कहते हैं । भक्तों पर निस्सीम रूप से अनुग्रह तथा वदान्यता का प्रदर्शन ही गाम्भीर्य कहलाता है । निस्सीम मात्रा में प्रदान करके तृप्त नहीं होने के स्वभाव को औदार्य कहते हैं । अपने आश्रित जीवों के दोषों को छिपाने के स्वभाव को चातुर्य कहते हैं । न घबराने के स्वभाव को स्थैर्य कहते हैं । अपनी प्रतिज्ञा को कभी विफल न होने के स्वभाव को धैर्य कहते हैं । शत्रु की सेना में प्रवेश कर जाने के स्वभाव को शौर्य कहते हैं । शत्रु की सेना का वध कर देने के स्वभाव को पराक्रम कहते हैं । इसी प्रकार अन्य गुणों को भी जानना चाहिए ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

श्रीभगवान् के कुछ दिव्य गुणों की व्याख्या

भा० प्र० –
इस अनुच्छेद में यतीन्द्रमतदीपिकाकार श्रीभगवान् के गुणों की व्याख्या करते हैं ।
श्रीभगवान् के सभी गुण दिव्य हैं,
अतएव उनसे किसी भी जीव का अकल्याण नहीं होता,
अतएव श्रीभगवान् के गुणों को कल्याण गुण कहते हैं ।
श्रीभगवान् के जितने भी गुण हैं,
वे उनके ज्ञान तथा शक्ति नामक गुण के परिणामभूत है ।
इसीलिए श्रीभगवान् के गुणों का कण्ठरव से वर्णन करती हुई श्रुति कहती है-

‘यः सर्वज्ञः सर्ववित् ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।’

अर्थात्

जो परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्ववेत्ता हैं ।
अर्थात् श्रीभगवान् सभी वस्तुओं का सामान्य रूप से तथा विशेष रूप से साक्षात्कार करते हैं ।
श्रीभगवान् की अनेक प्रकार की पराशक्तियाँ सुनी जाती हैं।
उनकी ज्ञान तथा बल की क्रियाएँ स्वाभाविक हैं ।

परमात्मा की सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता ही
उनके अनन्तानन्त केल्याणकारी गुणों के रूप में परिणत होती हैं ।
श्रीभगवान् के कुछ कल्याणकारी गुणों का स्वरूप निम्न प्रकार का है-

( १ ) ज्ञान — इस गुण के कारण श्रीभगवान् सभी वस्तुओं का सर्वदा साक्षात्कार करते रहते हैं । इसीलिए वे सर्वज्ञ कहे जाते हैं ।[[१३३]]

( २ ) शक्ति - अपने से भिन्न सभी असम्भव कार्यों को करने के सामर्थ्य को शक्ति कहते हैं । अतएव श्रीभगवान् सर्वशक्तिमान हैं ।

( ३ ) बल - इसी गुण के कारण श्रीभगवान् बिना किसी प्रयास के ही स्वेतर समस्त वस्तुओं को धारण करते हैं ।

( ४ ) ऐश्वर्य – इस गुण के ही कारण श्रीभगवान् स्वेतर समस्त वस्तुओं का नियमन करते हैं । श्रुति भी कहती हैं— ‘एतस्य वा क्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्र- मसौ विधृतौ तिष्ठतः ।’ अर्थात् - हे गार्गि ! इस परमात्मा के ही प्रशासन में रहकर सूर्य-चन्द्रमा आदि सम्पूर्ण जगत् नियन्त्रित होता है ।

(५) वीर्य - अविकारिकत्व को ही वीर्यं कहते हैं । वीर्य नामक गुण के कारण श्रीभगवान् सम्पूर्ण जगत् के उपादानकारण होकर भी बिना किसी विकार के ज्यों के त्यों बने रहते हैं । श्रीभगवान् को सम्पूर्ण जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण बतलाती हुई श्रुति कहती है- ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयः’ अर्थात् हे सोमरस पानार्ह सच्छिष्य ! सृष्टि से पूर्व यह जगत् केवल एक तथा अद्वितीय सत्शब्दवाच्य परमात्मस्वरूप था । सत्शब्दवाच्य परमात्मा को एकमेव बतलाकर उसे जगत् का उपादानकारण तथा अद्वितीय शब्द से निमित्तकारण बतलाया गया है ।

( ६ ) तेज - शत्रुओं को प्रभावहीन बना देने की शक्ति का नाम तेज है । अपने इसी गुण के कारण श्रीभगवान् रावणादि जैसे शत्रुओं को भी प्रभावहीन बना देते हैं । भगवान् के पराक्रम का पता लगाने की इच्छा से आये हुए रावण को भगवान् अपने बाणों से इतना मारते हैं कि वह घबराकर अपने हाथ के कटे धनुष-खण्डों को फेंक देता है तथा लड़ाई के मैदान से भाग जाता है । इस दृश्य का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-

‘यो वज्रपाताशनिसन्निपातान्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा । स रामबाणाभिहतो भृशार्तः चचाल चापं च मुमोच वीरः ॥’

( ७ ) सौशील्य – जब महान् व्यक्ति भी अपनी महत्ता की परवाह न करके बिना किसी भेदभाव के किसी छोटे से छोटे व्यक्ति को भी अपना लेता है, तो उसके उस गुण को सौशील्य कहते हैं । सौशील्य नामक गुण के ही कारण भगवान् गुहराज तथा शबरी को भी अपना लेते हैं । निषादराज को अपना सखा बनाते हैं । सुग्रीव को अपना मित्र बनाते हैं ।

( ८ ) वात्सल्य - वात्सल्य उस गुण को कहते हैं, जिसके कारण वात्सल्य-भाजन के दोषों की प्रतीति भी नहीं होती है अथवा उसके दोष भी गुण रूप से प्रतीत होने लगते हैं । वात्सल्य नामक गुण के ही कारण श्रीभगवान् अपने भक्तों के दोषों को नहीं देखते हैं । ‘सुग्रीव के द्वारा दोषों के बतलाए जाने पर भी भगवान् विभीषण के विषय में कहते हैं— ‘दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतद् विगर्हितम् ।’ यद्यपि विभीषण में दोष हो सकते हैं, किन्तु दोषी को शरण में लेने में कोई आपत्ति नहीं है । भगवान् का [[१३४]] यह स्वभाव है कि वे अपने आश्रित जीवों के दोषों को देखते ही नहीं है । उसके दोष भी गुण के रूप में देखने लगते हैं ।

( ९ ) मार्दव - अपने आश्रित जीवों के वियोग को न सह सकने को मार्दव कहते हैं । यामुनाचार्य स्तोत्ररत्न में कहते हैं - ‘क्षणेऽपि ते यद्विरोऽतिदुःसह ।’ अर्थात् जिन आश्रित जीवों का क्षणभर का भी वियोग आपके लिए असह्य हो जाता है । अथवा अपराधी जीवों के द्वारा भी सहसा समाश्रयणीय हो सकने के गुण को मार्दव कहते हैं । श्रीभगवान् ने रावण से स्वयम् कहा- हे रावण ! यदि तुम सीता को लेकर मेरी शरण में नहीं आते हो तो मैं अपने इन तीक्ष्ण बाणों से इस पृथिवी को राक्षस - विहीन बना दूँगा । तथाहि-

‘अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः ।
न चेच्छरणमभ्येषि मामुपादाय मैथिलीम् ॥’

(१०) आर्जव - आश्रित जीवों के प्रति शरीर, वाणी तथा मन से एकसमान व्यवहार करने को आर्जव कहते हैं । अथवा आश्रित जीवों की इच्छा के अनुसार कार्य करने को आर्जव कहते हैं । भगवान् राम सीताजी से अरण्यकाण्ड में कहते हैं-

‘अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते ! सलक्ष्मणाम् ।
न तु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः ॥’

अर्थात

हे सीते ! मैं अपना जीवन त्याग सकता हूँ, लक्ष्मण तथा तुमको त्याग सकता हूँ, किन्तु खासकर ब्राह्मणों के समक्ष कोई प्रतिज्ञा करके उस प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता हूँ ।

(११) सौहार्द - अपनी सत्ता की परवाह न करके अपने आश्रित जीवों की रक्षा करने के स्वभाव को सौहार्द करते हैं । अपने इसी गुण के कारण श्रीभगवान् अपने को बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी डालकर अपने शरणागत जीवों की रक्षा करते हैं । अथवा स्वभावतः सभी जीवों का हितैषी होना भगवान् का सौहार्द गुण है ।

( १२ ) साम्य - इसी गुण के कारण श्रीभगवान् अपने आश्रित जीवों के वंश, निवास, गुण तथा आचरण पर ध्यान दिए बिना ही सभी शरणागत जीवों को अपना लेते हैं । श्रीभगवान् के इस साम्य गुण की ओर ही निर्देश करते हुए शरणेच्छु विभी- षण कहते हैं-

‘निवेदयत मां क्षिप्रं विभीषणमुपस्थितम् ।
सर्वलोकशरण्याय राघवाय महात्मने । '

अर्थात् आप लोग शीघ्र ही सम्पूर्ण लोकों के रक्षक भगवान् राम से बतला दें कि विभीषण शरणागत होने के लिए आया है । ‘सर्वलोकशरण्य’ कहकर बतलाया गया है कि श्रीभगवान् तीनों लोकों के स्वाभाविक हितैषी हैं । [[१३५]]

(१३) कारुण्य - बिना किसी स्वार्थ के अपने आश्रित जीवों के दुःखों को दूर करने की इच्छा को कारुण्य कहते हैं । जीवों के दुःखों को दूर करने की इच्छा से श्रीभगवान् तत् तत् अवतारों को धारण करके रावण-कंसादि राक्षसों का निवर्हण करके देवताओं के दुःख को दूर करते हैं । अथवा अपने आश्रित जीवों के दुःख को न सह सकने को ही करुणा कहते हैं । इस करुणा से ही प्रेरित होकर भगवान् आपद्ग्रस्त गजराज का ढांढस बँधाते हुए कहते हैं-’ मा भैषीः’ डरो मत, डरो मत । अथवा अपने आश्रित जीवों को दुःखी देखकर स्वयम् दुःखी होने के स्वभाव को करुणा कहते हैं । श्रीराम के इस गुण का उद्घोष करते हुए सामन्तों ने महाराज दशरथ से कहा- ‘व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखितः ।’ अर्थात् अपने आश्रित जीवों को विपद्ग्रस्त देखकर श्रीराम अत्यन्त दुःखी होते हैं ।

(१४) माधुर्य – जिस प्रकार दुग्ध स्वभावतः सभी के लिए मधुर होता है, उसी प्रकार भगवान् स्वभावतः सभी के लिए मधुर हैं; यही उनका माधुर्य नामक गुण है । श्रीभगवान् के स्वाभाविक माधुर्य की ओर ही निर्देश करती हुई श्रुति कहती है- ‘रसो वै सः’ ( तै० आ० ८ ) । अर्थात् निश्चय ही परमात्मा रसस्वरूप है । भोग्य- तमत्व के ही कारण उसकी रसनीयता है । ‘आनन्दं ब्रह्म’ श्रुति परमात्मा को आनन्द- स्वरूप बतलाती है । गीता में स्वयम् भगवान् कहते हैं - ‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।’ अर्थात् मैं ज्ञानी भक्तों को अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरा प्रिय है। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-‘रूपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणम्।’ अर्थात् श्रीराम अपने रूप की उदारता तथा माधुर्यादि गुणों के कारण दर्शकों की दृष्टि तथा चित्त को चुरा लेने वाले हैं । गोपियों ने तो श्रीभगवान् को साक्षात् कामदेव के समान मनोज्ञ अनुभव किया – ‘साक्षान्मन्मथमन्मथः ।’ वे कामदेव के भी कामदेव हैं ।

[[1]]

(१५) गाम्भीर्यं भगवान् के द्वारा की जाने वाली अनुग्रह की उदारता का पूर्ण रूप से दुरवगाहं होना ही श्रीभगवान् की गम्भीरता है । द्रौपदी श्रीकृष्ण को ‘गोविन्द - द्वारकावासीन्’ कहकर रक्षार्थ पुकारा और श्रीभगवान् ने अपनी कृपा से द्रौपदी के वस्त्र को निर्मर्याद ढंग से बढ़ा दिया । पुनः पाण्डवों की हर प्रकार से रक्षा करके युधिष्ठिर को राजा भी बना दिए। इसके पश्चात् भी जब वे लौट रहे थे तो उनके मन में अपार क्षोभ था-

‘गोविन्देति यदाऽक्रन्दत्
कृष्णा मां दूरवासिनम् ।
ऋणप्रवृद्धमिव मे
हृदयान् नापसर्पति ॥’

अर्थात्

दूरस्थ मुझे दौपदी ने जो सहायता के लिए गोविन्द कहकर पुकारा,
उसका क्षोभ आज भी मेरे हृदय में उसी प्रकार बढ़ा है,
जिस प्रकार किसी ऋणी को अपने अत्यन्त बढ़े हुए ऋण की चिन्ता होती है ।

यह श्रीभगवान् के निर्मर्याद अनुग्रह का निदर्शन है । [[१३६]]

(१६) औदार्य - आश्रित जीवों को अपरिमित वस्तुएँ प्रदान करके भी सन्तुष्ट न होना ही श्रीभगवान् की उदारता है । अपने इसी गुण के कारण श्रीभगवान् अकेले भी सभी जीवों की कामनाओं को पूर्ण करते हैं । ‘एको बहूनां यो विदधाति कामान्’ ( कठो० २।५।१८ ) ।

( १७ ) चातुर्य - अपने आश्रित जीवों के दोषों को छिपाने के गुण को चातुर्य कहते हैं । श्रीभगवान् भी अपने आश्रित जीवों के दोषों को छिपाते हैं ।

(१८) स्थर्य - भयभीत न होने के स्वभाव को स्थेयं कहते हैं । श्रीभगवान् कभी भयभीत नहीं होते । अथवा अपने निश्चय को न बदलने को स्थैर्य कहते हैं । इसीलिए सुग्रीवादि के कहने पर भी भगवान् अपने निश्चय पर अडिग रहते हुए कहते हैं- ‘मित्रभावेन सम्प्राप्तं न त्यजेयं कथञ्चन ।’ मित्र बनने की इच्छा से आए विभीषण को मैं किसी भी प्रकार नहीं त्याग सकता हूँ ।

( १९ ) धैर्य - अपनी प्रतिज्ञा को न टूटने देने का गुण धैर्य है । श्रीराम में ये गुण स्थान-स्थान पर दिखलायी देते हैं ।

( २० ) शौयं - बिना किसी भय के शत्रु की सेना में प्रवेश कर जाने के सामर्थ्य को शौर्य कहते हैं । श्रीराम बिना किसी भय के अकेले खर-दूषणादि की सेना में प्रवेश कर जाते हैं, यह उनका शौर्य है ।

( २१ ) पराक्रम - शत्रु की सेना में निश्शङ्क प्रवेश करके अपनी किसी प्रकार की बिना क्षति के शत्रु की सेना को विनष्ट कर देने वाले गुण को पराक्रम कहते हैं । श्रीराम ने रावण की महती सेना को अकेले ही विनष्ट कर दिया । ऐसा कार्य तो भगवान् श्रीमन्नारायण ही कर सकते हैं । निश्चय ही श्रीराम अखिलहेय प्रत्यनीक अखिल-कल्याण-गुणसागर श्रीमन्नारायण ही हैं; यह महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-

‘यस्य विक्रममासाद्य राक्षसा निधनं गताः ।
तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमनामयम् ॥’

मूलम्

१५. तत्र ज्ञानं नाम सर्वसाक्षात्काररूपम् । शक्तिरघटितघटनासामर्थ्यम् । बलं धारणसामर्थ्यम् । ऐश्वर्यं नियमनसामर्थ्यम् । वीर्यमविकारित्वम् । तेजः पराभिभवनसामर्थ्यम् । महतो मन्दैः सह नीरन्ध्रेण संश्लेषस्वभावत्वं सौशील्यम् । वात्सल्यं दोषेऽपि गुणत्वबुद्धिः, दोषादर्शित्वं वा । आश्रितविरहासहत्वम् मार्दवम् । मनोवाक्कायैकरूप्यमार्जवम् । स्वसत्तानपेक्षत- द्रक्षापरत्वं सौहार्दम्। जन्मज्ञानवृत्तगुणाद्यनपेक्षाया सर्वैराश्रयणीयत्वं साम्यम् । स्वार्थानपेक्षपरदुःखनिराचिकीर्षा कारुण्यम्, परदुःखासहिष्णुत्वं वा । क्षीरवत् उपाध्यभावेऽपि स्वादुत्वम् माधुर्यम्। भक्तानुग्रहवदान्यत्वादेरामूलतो दुरवगाहत्वं गाम्भीर्यम्। अपरिमितं दत्वापि अतृप्तत्वमौदार्यम्। आश्रितदोषगोपनं चातुर्यम् । अकम्पनीयत्वं स्थैर्यम् । अभग्नप्रतिज्ञात्वं धैर्यम् । परबलप्रवेशनसामर्थ्य शौर्यम् । तन्निराकरणम् पराक्रमः इत्याद्यूह्यम् ।