विश्वास-प्रस्तुतिः
१२. ननु “कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा
श्रद्धा ऽश्रद्धा
धृतिर् अधृतिर्
ह्रीर् धीर् भीर्
इत्येतत् सर्वम् मन एव”
इत्य् उक्तानां ज्ञान-रूपत्वं कथम्?
इति चेत्, न ।
ज्ञानस्य मनस्-सहकारित्व-नियमात्
मन एवेत्य्
उपचाराद् उक्तम्
इति न विरोधः ।
अण्णङ्गराचार्यः
श्रुतिरपि ‘कामः सङ्कल्पः XXX मन एवेति इच्छादीनां मनोधर्मत्वमेवाहेति शङ्कायामाह ‘ज्ञानस्य’ इति । मनः सहकारि यस्य, तत्त्वात् । नियमेन कामादिज्ञानवृत्तौ मनसः सहकारिकारणत्वात् कार्यकारणयोरभेदोपचारः श्रुतौ । यथा तत्रैव प्रकरणे सर्वेषां शब्दानां वागेवेति वागुच्चार्यत्वादभेदोपचारः कृतः, तद्वदित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रश्न उठता है कि ‘कामस्सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृतिह- र्धीर्भीरित्येतत् सर्वम् मन एव’ ‘अर्थात् काम संकल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय ये सभी मन के ही रूप हैं । इस श्रुति में कामादि को मन बतलाया गया है, ये ज्ञान रूप कैसे है ? तो इसका उत्तर यह है कि उक्त श्रुति में कामादि की मनोरूपता औपचारिक प्रयोग है । क्योंकि मन नियमतः ज्ञान का सहकारी कारण होता है । अत एव उक्त कथन में कोई भी विरोध नहीं है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
ज्ञान की प्रत्यक्षादि विविध अवस्थाएँ ।
भा० प्र०— ऊपर बतलाया जा चुका है कि इच्छा, द्वेष, संकल्प आदि ज्ञान के ही विभिन्न औपाधिक रूप हैं । इस पर प्रश्न उठता है कि बृहदारण्यकोपनिषद् की ‘कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृति ह्रर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव’ (बृ० उ० ) इस श्रुति में कहा गया है कि काम, संकल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति, अधृति, लज्जा, उत्प्रेक्षा एवं भय आदि सभी मन के ही रूप हैं । कामादि को मन का रूप बतलाने वाली इस श्रुति से विशिष्टाद्वैतियों के मत का विरोध होता है । क्योंकि वे कामादि को ज्ञान का रूप मानते हैं ? इस शंका का समाधान करते हुए श्रीनिवासा- चार्य कहते हैं कि उक्त श्रुति से विशिष्टाद्वैत की मान्यता का कोई भी विरोध नहीं है । आत्मा में होने वाले सभी ज्ञानों का सहकारी कारण मन होता है, इस बात की चर्चा हम पीछे कर चुके हैं। श्रुतियों में कार्य का कारणात्मना औपचारिक प्रयोग देखा जाता है । बृहदारण्यकोपनिषद् के उसी प्रकरण में वाणी के द्वारा उच्चार्य होने के कारण सभी शब्दों को वाणी का रूप कहा गया है । इसी प्रकार यहां भी औपचारिक प्रयोग समझना चाहिए ।
मूलम्
१२. ननु कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत् सर्वम् मन एव” इत्युक्तानां ज्ञानरूपत्वं कथम्? इति चेत्, न । ज्ञानस्य मनस्सहकारित्वनियमात् मन एवेत्युपचारादुक्तमिति न विरोधः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१३. एवम् प्रत्यक्षानुमानागम-
स्मृति-संशय-विपर्यय-
भ्रम-विवेक-व्यवसाय-
मोह-राग-द्वेष-मद-मात्सर्य-
धैर्य-चापल्य-दम्भ-लोभ-क्रोध-दर्प-
स्तम्भ-द्रोहाभिनिवेश-निर्वेदानन्दादयः
सु-मतिर् दुर्मतिः प्रीतिस् तुष्टिः पुष्टिर्
उन्नतिः श्रान्तिः कीर्तिविरक्ती
रतिर् मैत्री दया
मुमुक्षा लज्जा तितिक्षा विचारणा
विजिगीषा मुदिता क्षमा चिकीर्षा
जुगुप्सा भावना कुहना ऽसूया
जिघांसा तृष्णा दुराशा वासना दुर्वासना
चर्चा भक्तिः प्रपत्तिर्
इत्य्-एवम्-आदयश् च जीवात्म-गुणा अनन्ता
धर्म-भूत-ज्ञानावस्था-विशेषा एव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘एव’**मिति । अनुमानागमशब्दौ तज्जन्यज्ञानपरौ । विपर्ययभ्रमौ - अन्यथाज्ञानविपरीतज्ञाने । मोहः - अज्ञानम् । मदः - गर्वः, आत्मनि महत्त्वाभिमानप्रयुक्तो बुद्धिविकारः । स्तम्भः - किङ्कर्तव्यताऽपरिस्फूर्तिः । द्रोहः परानिष्टसङ्कल्पनम् । निर्वेदः पश्चात्तापलक्षणमनुशोचनम् । आनन्दः - अनुकूलप्रकाशात्मकं ज्ञानम् । चर्चा - विचारात्मकं ज्ञानम् । एवमन्यदपि विभाव्यम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, स्मरण, संशय, निर्णय, विपर्यय, भ्रम, विवेक, व्यवसाय, मोह, राग, द्वेष, मद, मात्सर्य, धैर्य, चपलता, दम्भ, लोभ, क्रोध, दर्प, स्तम्भ, द्रोह, अभिनिवेश, निर्वेद तथा आनन्द आदि सुमति, दुर्मति, प्रीति, सन्तुष्टि, पुष्टि, उन्नति, श्रान्ति, कीर्ति, विरक्ति, रति, मंत्री, दया, मुमुक्षा, लज्जा, तितिक्षा, विचारणा, विजिगीषा, मुदिता, क्षमा, चिकीर्षा, जुगुप्सा, भावना, कुहना, असूया, जिघांसा, तृष्णा, दुराशा, वासना, दुर्वासना, चर्चा, भक्ति तथा प्रपत्ति आदि जीवात्माओं के अत्तन्त गुण हैं तथा [[१३०]] वे धर्मभूत ज्ञान के अवस्था - विशेष हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वास्तविकता यह है कि निम्न प्रकार की सारी अनुभूतियाँ ज्ञान के ही विस्तारभूत हैं । वे अनुभूतियाँ निम्न हैं-
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१ ) प्रत्यक्ष – इन्द्रियाँ तथा विषयों के संप्रयोग से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं ।
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२ ) अनुमान - लिङ्ग को देखकर लिङ्ग के होने का जो अनुमान किया जाता है, उसे अनुमान ज्ञान कहते हैं ।
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३ ) आगम - शास्त्रादिजन्य ज्ञान को आगम ज्ञान कहते हैं ।
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४ ) स्मृति - अतीत देशकाल में अनुभूत विषय को वर्तमान ज्ञान के द्वारा विषय बनाये जाने पर जो ज्ञान होता है, उसे स्मृति कहते हैं ।
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५ ) संशय- उस ज्ञान को कहते हैं, जिसमें इन्द्रियसन्निकृष्ट वस्तु के स्वरूप का निर्णय नहीं हो पाता है । -६) निर्णय - निश्चयात्मक ज्ञान का नाम निर्णय है ।
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७ ) विपर्यय - अन्यथा ज्ञान को कहते हैं ।
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८ ) भ्रम - जिसका पश्चातनकालिक ज्ञान से बाध हो जाता है, उस ज्ञान को भ्रम कहते हैं ।
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९ ) विवेक - भेदज्ञानपूर्वक ज्ञान को विवेक कहते हैं । -१०) व्यवसाय - निश्चयात्मक ज्ञान को व्यवसाय कहते हैं ।
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११ ) मोह - अत्यन्त अल्प फल की आसक्ति रूप ज्ञान को मोह कहते हैं ।
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१२ ) राग - विषयों के प्रति होने वाली आसक्तिपूर्वक ज्ञान को राग कहते हैं !
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१३ ) द्वेष – अनिष्टात्मक ज्ञान को द्वेष कहते हैं । -१४) मद - अपने विषय में होने वाले महत्त्वाभिमान के कारण जो बुद्धि का विकार होता है, उसे मद कहते हैं । -१५) मात्सर्य - दूसरे को दुःखी देखकर प्रसन्नता का अनुभव करना ही मात्सर्य है । [[१३१]] -१६) धैर्य -आपत्ति काल में भी दृढतापूर्वक विपत्ति को सहन कर सकने प्रयोजक ज्ञान को धैर्य कहते हैं ।
-
१७ ) चापल्य – स्पृहणीय वस्तु का सन्निधान होते ही उसे प्राप्त करने के लिए त्वरा के प्रयोजक ज्ञान को चापल्य कहते हैं । -१८) दम्भ - अपनी धार्मिकता की प्रसिद्धि के लिए किये जाने वाले धर्मानुष्ठान को दम्भ कहते हैं ।
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१९ ) लोभ - अविहित प्रकार से किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए अपने आश्रय को उत्तेजित करने वाले ज्ञान को लोभ कहते हैं । -२०) क्रोध- कामना की पूर्ति न हो सकने पर जो बुद्धि में विकार होता है, उसे क्रोध कहते हैं । -२१) दर्प – कर्तव्याकर्तव्य के विवेक का अभाव जिसके कारण होता है, उस ज्ञान-विशेष को दर्प कहते हैं ।
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२२ ) स्तम्भ - जिसके चलते जीव किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है, उस ज्ञान को स्तम्भ कहते हैं ।
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२३ ) द्रोह – जिसके कारण दूसरों के साथ विरोध हो जाता है, उस ज्ञान को द्रोह कहते हैं ।
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२४ ) अभिनिवेश - का दूसरा नाम आग्रह है ।
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२५ ) निर्वेद – उदासीनता को कहते हैं ।
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२६ ) आनन्द-आनुकूल्यानुभव की उच्च सीमा को आनन्द कहते हैं ।
[[1]]
इसी प्रकार जीवात्माओं के सुमति, दुर्मति, प्रीति, तुष्टि आदि जो गुण हैं, वे भी धर्मभूत ज्ञान के अवस्था - विशेष हैं ।
मूलम्
१३. एवम् प्रत्क्षानुमानागमस्मृतिसंशयविपर्ययभ्रमविवेकव्यवसायमोहरागद्वेष- मदमात्सर्यधैर्यचापल्यदम्भलोभक्रोधदर्पस्तम्भद्रोहाभिनिवेशनिर्वेदानन्दादयः सुमतिर्दुर्मतिः प्रीतिस्तुष्टिः पुष्टिरुन्नतिः श्रान्तिः कीर्तिविरक्ती
रतिर्मैत्री दया
मुमुक्षा लज्जा तितिक्षा विचारणा
विजिगीषा मुदिता क्षमा चिकीर्षा
जुगुप्सा भावना कुहनाऽसूया
जिघांसा तृष्णा दुराशा वासना दुर्वासना
चर्चा भक्तिः प्रपत्तिरित्येवमादयश्च जीवगुणा अनन्ता धर्मभूतज्ञानावस्थाविशेषा एव ।
वासुदेवः
एवं प्रत्यक्षेति । स्मृतिर् नाम पूर्वानुभव-जन्य-संस्कार-मात्रजन्यं ज्ञानम् । अनध्यवसायो ज्ञानं संशयः । विपर्ययो ऽन्यथा-ज्ञानम् । तच् च धर्म-विपर्यास-रूपम् । भ्रमो धर्मि-विपर्यासः । संदेहानन्तरं जायमान ऊहो विवेकः । व्यवसाय उद्यमः । भयादि-जन्यं वस्तु-तत्त्वानवधारणं मोहः । रागो विषयानुबुभूषा । द्वेषो विषयजिहासा । विषयानुभव-जन्यो ज्ञान-विशेषो मदः । स्वप्रयोजन-प्रतिसंधानं विना पराभिमत-निवारणेच्छा मात्सर्यम् । आरब्धायाः क्रियाया विघ्नोपनिपाते ऽपि तत्-समापन-सामर्थ्यं धैर्यम् । तद्-अभावो ऽधैर्यम् । चापल्यं चञ्चलता । धार्मिकत्व-ख्यापनाय धर्मानुष्ठानं दम्भः । धर्म-विरोधेन परद्रव्येच्छा लोभः । तद् उक्तं पद्मपुराणे -
परवित्तादिकं दृष्ट्वा नेतुं यो हृदि जायते । अभिलाषो द्विजश्रेष्ठ स लोभः परिकीर्तितः ॥
इति ॥
परपीडा-फलकश् चित्तविकारः क्रोधः । कृत्याकृत्या-विवेककरो विषयानुभव-निमित्तो हर्षो दर्पः । स्तम्भो ऽनारम्भ-शीलत्वम् । परेषु स्वच्छन्द-वृत्ति-निरोधो द्रोहः । अभिनिवेश आग्रहः । आक्रोशनावज्ञादिजनितो विषयद्वेषाख्यश् चित्तविकारो निर्वेदः । इष्टप्राप्त्यादिजन्मा सुखविशेष आनन्दः । सुमतिः समीचीना मतिः । तद्-विपरीता मतिर् दुर्मतिः । सुप्रीतिः प्रियत्वम् । सर्वेषु दृष्टेषु तोष-स्वभावत्वं तुष्टिः । पराक्रम-दानादि-स्मृति-जन्य उत्साह उन्नतिः । इन्द्रियाणां विषय-प्रावण्य-निरोध-संशीलनं शान्तिः । दोषदर्शनाद् विषय-त्यागेच्छा विरक्तिः । प्रेमाख्यश् चित्तविकारो रतिः । मैत्री मित्रत्वम् । भूतेषु सर्वेषु दुःखासहिष्णुत्वं दया । मुमुक्षा मोक्षेच्छा । अकार्यकरणादि-जन्यो ज्ञानविशेषो लज्जा । परपीडानुभवे ऽपि तत्-सहनेच्छा तितिक्षा । विचारणा सद्विचार-प्रवृत्तिः । जिगीषा जयेच्छा । भोग्य-वस्तु-दर्शनजश् चित्तविकारो मुदिता । परनिमित्त-पीडानुभवे ऽपि चित्तविकारराहित्यं क्षमा । चिकीर्षा क्रिया-विषयेच्छा । कदर्यवस्तु-विलोकनादि-जन्यश् चित्तविकार-विशेषो जुगुप्सा गोपनेच्छा वा । भावना संस्कार-विशेषः । कुहना विस्मापना वञ्चना वा । गुणेषु दोषाविष्करणम् असूया । जिघांसा हननेच्छा । तृष्णा ऽभिलाष-विशेषो धर्माविरोधेन परद्रव्येच्छा-रूपः । दुराशा दुरिच्छा । वासना संस्कार-विशेषः । चर्चा पूजा । श्रद्धा विश्वासः । भक्ति-प्रपत्योः स्वरूपम् अनुपदं वक्ष्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१४. एवं ज्ञान-शक्ति-बलैश्वर्य-वीर्य-तेजः-
सौशील्य-वात्सल्य-मार्दवार्जव-सौहार्द-साम्य-
कारुण्य-माधुर्य-गाम्भीर्यौदार्य-चातुर्य-स्थैर्य-पराक्रमादयो
भगवतो ऽनन्त-कल्याण-गुणाः ज्ञान-शक्त्योर् +++(प्रत्येकम् एकतरस्यान्यतरस्य वा)+++ वितति-भूताः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘ज्ञानशक्त्यो’**रिति । केचन गुणाः ज्ञानविततिरूपाः । केचन - शक्तिविस्तारलक्षणाः इत्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, तेज, सौशील्य, वात्सल्य, मार्दव, आर्जव, सौहार्द, साम्य, कारुण्य, माधुर्य, गाम्भीर्य, औदार्य, चातुर्य, स्थैर्य, धैर्य, शौर्य तथा पराक्रम आदि श्रीभगवान् के अनन्त कल्याणमय गुण - समूह भी श्रीभगवान् के ज्ञान तथा शक्ति के विस्तृत रूप हैं ।
शिवप्रसादः (हिं)
श्रीभगवान् के जो ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, तेज तथा सौशील्य आदि भी श्रीभगवान् के ज्ञान और शक्ति के विस्तार रूप हैं । श्रीभगवान् के इन कल्याण गुणों में कुछ गुण ज्ञान के विस्तारभूत हैं तथा कुछ शक्ति के ।
मूलम्
१४. एवं ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजःसौशील्यवात्सल्यमार्दवार्जवसौहार्दसाम्य-कारुण्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यचातुर्यस्थैर्यपराक्रमादयो भगवतोऽनन्तकल्याणगुणाः ज्ञानशक्त्योर्विततिभूताः ।
वासुदेवः
ज्ञानावस्थाविशेषा इति । तेषु च ज्ञान-जन्यत्वादिना क्वचिद् भेदप्रतिभासे ऽपि ज्ञानातिरिक्ततदङ्गीकारे प्रमाणाभावाद् गौरवाच् चेत्य् आशयः । पराक्रमादय इति । आदिना क्षमादिसंग्रहः ।