विश्वास-प्रस्तुतिः
११. ज्ञानम् मतिः प्रज्ञा संवित् धिषणा धीः मनीषा शेमुषी मेधा बुद्धिर् इत्य् एवम् आदयः शब्दा ज्ञान-पर्यायाः ।
बुद्धिर् एवोपाधिभेदात् सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्न-रूपा -
सुखादि-जनक-ज्ञानातिरेके प्रमाणाभावात्,
“इच्छामि, द्वेष्मि” इति व्यवहारस्य
“स्मरामि” इत्यादिवत् ज्ञान-विशेषेणोपपत्तेः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘सुखादे’**रिति । सुखजनकमनुकूलविषयज्ञानमेवानुकूलत्वेन भासमानं सुखम् । प्रतिकूलत्वेन भासमानं ज्ञानमेव प्रतिकूलविषयं दुःखम् । इच्छाद्वेषयोरपि ज्ञानावस्थाविशेषरूपत्वमेव । अपेक्षात्मकं ज्ञानम् इच्छा । अनिष्टात्मकज्ञानमेव द्वेषः । कार्याध्यवसायलक्षणं प्रयत्नः इति बोध्यं ज्ञानविशेषत्वं यथायोग्यम् ।
**‘इच्छामी’**ति । यथा स्मरामीति ज्ञानविशेषावलम्बी व्यवहारः । तथैवेच्छामीत्यादि[[??]] । एतेन जानामि, इच्छामीति प्रतीतिव्यवहारभेदादिच्छादेर्ज्ञानभिन्नत्वमिति शङ्का निरस्ता ।
इच्छादयो ज्ञानावस्थाविशेषलक्षणा उक्ताः । तदनुपपन्नम् । कापिलादिभिरन्तःकरणधर्मा, कामादय इत्युक्तत्वात् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - ज्ञान, मति, प्रज्ञा, संवित्, घोषणा, धी, मनीषा, शेमुषी, मेधा तथा बुद्धि
इत्यादि शब्द ज्ञान के ही वाचक हैं ।
उपाधियों के भेद के कारण
ज्ञान ही सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न इत्यादि रूपों वाला हो जाता है ।
सुखादि के जनक रूप से
स्वीकृत ज्ञान से भिन्न इनके होने में कोई भी प्रमाण नहीं है ।
किञ्च जिस प्रकार
‘मैं स्मरण करता हूँ’ इत्यादि अनुभवों में
स्मरण ज्ञान विशेष सिद्ध होता है,
उसी प्रकार ‘मैं इच्छा करता हूँ’ ‘मैं द्वेष करता हूँ’ इत्यादि अनुभवों में
इच्छा और द्वेष
एक प्रकार के ज्ञान विशेष सिद्ध होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
इच्छा आदि ज्ञान के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं
भा० प्र० - यहाँ पर यतीन्द्रमतदीपिकाकार ज्ञान के कई पर्यायवाची शब्दों को बतलाते हैं । वे पर्यायवाची शब्द मति, प्रज्ञा, संवित् इत्यादि हैं। इसके पश्चात् वे बतलाते हैं कि इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख इत्यादि भी ज्ञान के भिन्न-भिन्न रूप हैं । उपाधि की भिन्नता के कारण ज्ञान ही सुख, दुःख आदि शब्दों से अभिहित किया जाने लगता है । तथाहि - सुखदायक अनुकूल विषयों के ज्ञान ही अनुकूल रूप से प्रतीत होने के कारण सुख कहलाता है । सुखानुभव काल में इन्द्रियां सुस्थित रहती हैं । ‘सुस्थितानि खानि’ यह सुख शब्द का विग्रह है । प्रतिकूल विषयों के ज्ञान को दुःख कहते हैं । इस काल में इन्द्रियों में प्रतिकूलता की अनुभूति होती है । ‘दुः स्थितानि खानि’ दुःख शब्द का विग्रह है । अपेक्षात्मक ज्ञान को इच्छा कहते हैं । अनिष्टात्मक ज्ञान को द्वेष कहते हैं। [[१२९]]
कार्य के करने के लिए निश्चय करने को अध्यवसाय कहते हैं । ये सभी इच्छा, द्वेष इत्यादि ज्ञान के ही वितति- विशेष हैं । ज्ञान ही सुखादि रूप अनुकूल-प्रतिकूलादि प्रतीतियों का जनक है । ज्ञान-व्यतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, जो सुखादि का जनक हो। इसलिए जिन स्थावरादि जीवों में ज्ञान की अल्पता होती है, वे सुखादि का अनुभव अत्यल्पमात्रा में करते हैं । जिस प्रकार ‘मैं स्मरण करता हूँ इस प्रतीति का आधार अतीत देशकाल में अनुभूत विषय का ज्ञान- विशेष है, उसी प्रकार ‘मैं इच्छा करता हूँ’ ‘मैं द्वेष करता हूँ’ इत्यादि अनुभवों का भी आधार ज्ञान-विशेष ही है । ‘इच्छामि’ अनुभूति का आधार अपेक्षाकृत बुद्धि है । ‘द्वेष्मि’ इस अनुभव का आधार अनिष्टात्मक ज्ञान है ।
मूलम्
११. ज्ञानम् मतिः प्रज्ञा संवित् धिषणा धीः मनीषा शेमुषी मेधा बुद्धिरित्येवमादयः शब्दा ज्ञानपर्यायाः । बुद्धिरेवोपाधिभेदात् सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नरूपा । सुखादिजनकज्ञानातिरेके प्रमाणाभावात् । “इच्छामि द्वेष्मि” इति व्यवहारस्य “स्मरामि” इत्यादिवत् ज्ञानविशेषेणोपपत्तेः ।
वासुदेवः
सुखादीति । सुखादि-जनकतया सुखादि-व्यतिरिक्त-ज्ञानाङ्गीकारे प्रमाणाभावाद् इत्य् अर्थः । एतद् उक्तं भवति - विषय-ज्ञानानि विषयाधीन-विशेषाणि सुख-दुःख-मध्यस्थ-साधारणानि भवन्ति । तत्र येन विषय-विशेषेण विशेषितं ज्ञानं सुखस्य जनकम् इत्य् अभिमतं, तद् विषय-ज्ञानम् एव सुखम् । तद्-अतिरेकि पदार्थान्तरं नोपलभ्यते । तेनैव च सुखित्व-व्यवहारोपपत्तेर् इति । उपपत्तेर् इति । वैषयिक-सुख-दुःख-स्वरूपत्वं च ज्ञानस्य विषयाधीनम् इति विषयस्यापि सुख-दुःख-शब्द-वाच्यत्वम् अस्त्य् एवेति सुखं स्वर्गः इत्यादि-व्यवहारोपपत्तिः । अत एव वेदार्थ-संग्रहे — ‘विषयायत्तत्वाज् ज्ञानस्य सुख-रूपतया ब्रह्मैव सुखम्’ इत्य् उक्तम् ।