०४ द्रव्यत्व-समर्थनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

९. यतः सङ्कोच-विकासावस्थावत्,
अतो +++(अवस्थाश्रयत्वाद्)+++ द्रव्यम् अपि भवति ।

आत्म-गुण-भूतस्य ज्ञानस्य द्रव्यत्वं
कथम् इति न शङ्कनीयम् -
प्रभावद् एकस्यैव द्रव्यत्व-गुणत्वयोर् विरोधाभावात् ।

अवस्थाश्रयो द्रव्यम् इति द्रव्य-लक्षणम् ।

स्वाश्रयाद् अन्यत्र वर्तमानत्वम् अपि
प्रभावत् एवोपपद्यते ।

+++(द्रव्यत्व-सिद्ध्यै अनुमान-)+++प्रयोगश् च –

“गुण-भूता बुद्धिर् +++(=ज्ञानम्)+++ द्रव्यम्, प्रसरणादिमत्त्वात्, प्रभावत्” ।

“ज्ञानं द्रव्यम्,
संयोग+अदृष्ट+अन्यत्वे सति
भावना-कारणत्वात्, आत्मवत्”

इति ।

अण्णङ्गराचार्यः

आत्माश्रितस्वभावत्वे ज्ञानस्यात्मनोऽन्यत्र वृत्तिः कथमित्यत्राह ‘स्वाश्रयादिति । स्वाश्रयमपरित्यज्यैव विकासशक्त्या बहिः प्रसरणं प्रभाया इव ज्ञानस्य सम्भवतीत्यर्थः ।

आश्रयादन्यतो वृत्तेराश्रयेण समन्वयात् ।
द्रव्यत्वं च गुणत्वं च ज्ञानस्यैवोपपद्यते ।

इति ह्युक्तं श्रीमद्यामुनमुनिभिः । समन्वयात् - अविनाभावेन सम्बद्धत्वात् ।
ज्ञानस्य द्रव्यत्वमनुमानेन साधयति **‘प्रयोगश्चे’**ति । भवतीति शेषः ।
प्रयोगान्तरं **‘ज्ञानं द्रव्य’**मिति । अद्रव्ये आत्ममनःसंयोगेऽदृष्टे च भावन्तरव्य[[??]]संस्कारहेतुत्वमस्तीति व्यभिचारवारणाय संयोगादृष्टान्यत्वे सतीति । रूपादौ व्यभिचारवारणाय विशेष्यम् । ज्ञानपर्यायाः - ज्ञानशब्दपर्यायाः । ज्ञानरूपैकार्थवाचिन इति यावत् ।

शिवप्रसादः (हिं)

[[१२७]] अनुवाद - चूँकि ज्ञान में संकोच एवं विकास की अवस्थाएँ होती हैं,
अतएव ज्ञान द्रव्य भी है ।
यहाँ यह शंका नहीं करना चाहिए कि
आत्मा का गुणभूत ज्ञान
द्रव्य कैसे हो सकता है ?
क्योंकि जिस प्रकार एक ही प्रभा प्रभावान् द्रव्य का गुण तथा तेजोद्रव्य दोनों है,
उसी प्रकार एक ही ज्ञान
आत्मा का गुण तथा द्रव्य दोनों है ।
जो अवस्थाओं का आश्रय होता है,
वह द्रव्य कहलाता है,
यही द्रव्य का लक्षण है ।

आत्मा का गुण ज्ञान अपने आश्रय आत्मा से अन्यत्र भी
उसी प्रकार रहता है,
जिस प्रकार प्रभा
अपने आश्रय प्रभावान् द्रव्य से अन्यत्र देश में भी
पायी जाती है ।

यहाँ पर यह अनुमान अभिप्रेत है कि
आत्मा का गुणभूत बुद्धि ( ज्ञान ) द्रव्य है,
क्योंकि वह आत्मा के समान
संयोग तथा अदृष्ट से भिन्न होकर भी
भावना का कारण है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ज्ञान के द्रव्यत्व का समर्थन

भा० प्र०—
ज्ञान आत्मा का गुण होते हुए द्रव्य भी है,
क्योंकि उसमें संकोच एवं विकास की क्रिया रूप अवस्थाएँ होती हैं ।
जो-जो अवस्थाओं का आश्रय होता है वह- वह द्रव्य होता है ।
जैसे— पिण्ड, घट, कपाल, चूर्णं आदि अवस्थाओं का आश्रय मृत्तिका द्रव्य है ।
ज्ञान में भी संकोच एवं विकास की अवस्थाएँ होती है,
अतएव यह द्रव्य है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
एक ही ज्ञान गुण और द्रव्य दोनों कैसे हो सकता है ?
तो इसका उत्तर यह है कि गुण दो तरह के होते हैं -
( १ ) द्रव्यात्मक गुण तथा
( २ ) केवल गुण ।

ज्ञान तथा प्रभा आदि द्रव्यात्मक गुण हैं ।
सत्त्व, रजस्, तमस आदि केवल गुण हैं ।
जो द्रव्यात्मक गुण है,
उनमें गुण शब्द का गौण प्रयोग होता है
तथा जो केवल गुण होते हैं,
उनमें गुणशब्द का मुख्याभिधान होता है ।

ज्ञान द्रव्यात्मक गुण है ।
अतएव जिस प्रकार द्रव्यात्मक गुण प्रभा
अपने प्रभावान् द्रव्य दीपादि का गुण होते हुए
द्रव्य भी स्वीकार की जाती है,
उसी प्रकार आत्मा के गुण- भूत ज्ञान को भी
संकोच - विकासादि सम्पन्न होने के कारण
द्रव्य मान लेने में कोई भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।

द्रव्य का इतना ही लक्षण है कि
वह अवस्थाओं का आश्रय है ।
द्रव्य होने के लिए
गुण न होना कोई आवश्यक नहीं है !
किसी गुण में भी यदि द्रव्य का लक्षण पाया जाय
तो उसे द्रव्य-कोटि में स्वीकारना ही होगा ।
ज्ञान में भी द्रव्य का लक्षण अवस्थाश्रयत्व है,
अतएव उसे द्रव्य मानने में कोई भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।

यहाँ प्रश्न उठता है कि
यदि ज्ञान आत्मा का गुण है
तो उसे अपने आश्रय द्रव्य को छोड़कर
उसी तरह से अन्यत्र नहीं रहना चाहिए ?
जैसे- गन्ध पृथिवी को छोड़- कर अन्यत्र नहीं रहता,
शब्द आकाश में ही अवस्थित रहता है,
किन्तु ज्ञान का तो तत् तत् विषयों से संबन्ध होता है,
यह कैसे संभव है ?
इसका उत्तर यह है कि
जिस प्रकार प्रभा अपने आश्रय प्रभावान् द्रव्य से भिन्न
घट-पट आदि प्रदेशों में भी जाकर
उनका प्रकाशन करती है,
जब कि वह अपने प्रभावद् द्रव्य का गुण है;
उसी प्रकार [[१२८]] आत्मा का ज्ञान गुण भी
रूप, रसादि का प्रकाश किया करता है,
इसमें कोई भी विरोध नहीं है ।

ज्ञान के द्रव्य की सिद्धि के लिए
यतीन्द्रमतदीपिकाकार निम्न दो अनुमानों को उपस्थित करते हैं -

( १ ) आत्मा का गुणभूत बुद्धि द्रव्य है,
क्योंकि वह प्रसरण आदि क्रियाओं से सम्पन्न है ।
जो जो प्रसरणादि क्रियाओं से सम्पन्न होते हैं,
वे वे द्रव्य होते हैं;
जैसे प्रभाद्रव्य ।

( २ ) ज्ञान ( बुद्धि ) द्रव्य है,
क्योंकि वह संयोग एवं अदृष्ट से भिन्न है,
साथ ही भावनाख्य संस्कार का कारण भी है ।
जिस प्रकार संयोग एवं अदृष्ट से भिन्न होने वाली आत्मा
भावनाख्य संस्कार का कारण होते हुए भी द्रव्य है,
उसी प्रकार बुद्धि भी
संयोग एवं अदृष्ट से भिन्न तथा भावनाख्य संस्कार का कारणभूत बुद्धि भी द्रव्य है ।

मूलम्

९. यतः सङ्कोचविकासावस्थावत्, अतो द्रव्यमपि भवति । आत्मगुणभूतस्य ज्ञानस्य द्रव्यत्वं कथमिति न शङ्कनीयम् । प्रभावत् एकस्यैव द्रव्यत्वगुण-त्वयोर्विरोधाभावात् । अवस्थाश्रयो द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणम् । स्वाश्रयादन्यत्र वर्तमानत्वमपि प्रभावत् एवोपपद्यते । प्रयोगश्च – “गुणभूता बुद्धिर्द्रव्यम्, प्रसरणादिमत्त्वात् प्रभावत्” । “ज्ञानं द्रव्यम्, संयोगादृष्टान्यत्वे सति भावनाकारणत्वात्, आत्मवत्” इति ।

वासुदेवः

द्रव्यम् अपीति । न तावद् अस्माकम् अद्रव्यम् एव गुण इति वैशेषिकादिवन् निर्बन्धः । विशेषणादिवत् । यो यद्-आश्रित-स्वभावः, स तस्य गुण इति हि गुणलक्षणम् । न पारिभाषिकम् । सर्व-व्यवहार-विरोधात् । अत एवोक्तं यामुनाचार्यैः -

आश्रयाद् अन्यतो वृत्तेर् आश्रयेण समन्वयात् । द्रव्यत्वं च गुणत्वं च ज्ञानस्यैवोपपद्यते ॥

इति ।

एवं च केचिद् द्रव्यात्मक-गुणाः, केचित् केवल-गुणा इति द्विविधा गुणाः । पूर्वे ज्ञानादयः । उत्तरे सत्त्व-रजः प्रभृतय इति बोध्यम् । अनन्तोति । अत्र च ज्ञाननिष्ठो वेगातिशयः कारणम् । इष्टं च विचित्रवेगित्वं नायनतापनादिमहसाम् । तच् च काष्ठाप्राप्तं युगपत् त्रिचतुरक्षणेन वा विश्वम् आस्कन्दते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१०. मुक्त-ज्ञानस्य युगपद् अनन्त-देह-संयोगो
नयन-सूर्यादि-तेजोवत् सम्भवति ।

शिवप्रसादः (हिं)

जिस प्रकार नेत्र तथा सूर्य के तेज का समकाल में ही अनन्त देश से सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार मुक्त जीव के ज्ञान का संबन्ध समकाल में ही अनन्त देश से होता है ।

मूलम्

१०. मुक्तज्ञानस्य युगपदनन्तदेहसंयोगो नयनसूर्यादितेजोवत् सम्भवति ।