०३ जागरादि-दशानाम् उपपादनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

७. ननु आगमबलात् ज्ञानस्य नित्यत्वाङ्गीकारे
कथं जागर-सुषुप्त्य्-आदि-भेद-सिद्धिः?

इति चेत्, न ।
यथा दाहकस्य वह्नेर्
दाह्य-सन्निधौ मण्य्-आदि-प्रतिबन्धकाद् दाहाभावः
तद्वत् ज्ञानस्य तिरोधायक-तमो-विशेष-सन्निधानासन्निधानाभ्यां स्वापादि-सिद्धिः,
पुंस्त्वादिवच् च - पुंस्त्वादिकम् बाल्ये तिरोहितं यौवने आविर्भवति ।+++(5)+++

अण्णङ्गराचार्यः

‘ननु’ इति । ‘जानात्येवायं पुरुषः’ ‘न हि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते’

अवबोधादयो गुणाः । प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते नित्या एवात्मनो हि ते

इत्यादिशास्त्रवचनतो ज्ञानस्यात्मधर्मस्य नित्यत्वस्वीकारे स्वापादिव्यवस्था न स्यात् । ज्ञानाभावस्यैव स्वापत्वात्,ज्ञाननित्यत्वे स्वापस्यैवासिद्धिप्रसङ्गादिति शङ्कितुराशयः ।
प्रसक्तामाशङ्कां परिहरति **‘ने’**ति । उद्बुद्धतमोगुणेन ज्ञानस्य तिरोहितत्वान्निरुद्धप्रसरणशक्तिकत्वादतिसङ्कुचितत्वेन स्वापे न विषयप्रकाशकत्वमस्ति । विषयज्ञानाभाव एव स्वापः । विषयप्रकाशनसमय एव धर्मभूतं ज्ञानमवभासते । नान्यथा । अतः स्वापोपत्तिः । तमोगुणप्रयुक्ताभिभवाभावे च प्रसरणशक्तेरनिरोधादिन्द्रियद्वारा प्रसृत्य विषयप्रकाशनज्ञानेन सम्भवति जागरादौ । अतः स्वापजागरव्यवस्थोपपद्यत इत्यर्थः । ‘पुंस्त्वादिवत्त्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात्’ इति ब्रह्ममीमांसासूत्रेऽयमर्थ उक्तः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - प्रश्न उठता है कि शास्त्रों के अनुसार जीवों का ज्ञान यदि नित्य है तो फिर उनके जागरण, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं की सिद्धि कैसे हो सकती है ? तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार इन्धन के रहने पर भी प्रतिबन्धक मणि के रहने पर अग्नि जलाने का कार्य नहीं करता है, उसी प्रकार ज्ञान को ढँक देने वाले तमस् - विशेष के सन्निधान तथा असन्निधान के द्वारा पुंस्त्व आदि के समान स्वापादि दशाओं की सिद्धि होती है । पुरुषादि के शरीर में होने वाले पुंस्त्वादि बालकाल में छिपे रहते है, किन्तु वे युवावस्था में आविर्भूत हो जाते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ज्ञान के नित्य होने पर भी जागरादि अवस्थाओं का उपपादन

भा० प्र० - ‘न विज्ञातुर् विज्ञातेर् विपरिलोपो विद्यते, अविनाशित्वात्’
इस बृहदारण्यक श्रुति के अनुसार सिद्ध होता है कि
अविनाशी आत्मा का अपृथसिद्ध धर्म- ज्ञान
कभी विनष्ट नहीं होता है,
क्योंकि वह नित्य आत्मा का यावदात्मभावी गुण है।
जब तक आत्मा रहती है,
तब तक उसका गुण धर्मभूत ज्ञान बना रहता है ।
अतएव आत्मा का ज्ञान नित्य है ।

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इस पर यह शंका उठाई जाती है कि ज्ञान का स्वभाव है कि
वह रहते समय में अपने विषयों का प्रकाशन अपने आश्रयभूत आत्मा के लिए किया करता है ।
यदि आत्मा का ज्ञान नित्य है तो फिर वह सर्वदा इन्द्रियों के माध्यम से निकलकर विषयों का प्रकाशन किया करेगा । जिस समय ज्ञान अपने विषयों का प्रकाशन अपनी आश्रयभूत आत्मा के लिए किया करता है, वही जागर दशा कहलाती है । यदि नित्य आत्मा का गुण नित्य ज्ञान अपने आश्रयभूत आत्मा का नित्य ही प्रकाशन किया करता तो फिर आत्मा की सदा जागर दशा ही बनी रहती, कभी स्वापादि दशा होती ही नहीं, किन्तु देखा जाता है कि आत्मा की स्वापादि दशाएँ होती है, अतएव पता चलता है कि आत्मा का ज्ञान नित्य नहीं है ।

पूर्वपक्षी की इस शंका का समाधान यह है कि ज्ञान विकास का कारण सत्त्वगुण है और उसका प्रतिबन्धक तमोगुण है । सत्त्वगुण के वढने पर ज्ञान का विकास होता है, इसे ही जागरावस्था कहते हैं । तमोगुण के वढने पर निद्रा होती है । इस दशा में ज्ञान बिल्कुल प्रतिबद्ध हो जाता है । जिस प्रकार प्रतिबन्धक चन्द्रकान्त मणि के रहने पर दाहक अग्नि नहीं जलाती है, किन्तु प्रतिबन्धक मणि के हट जाने पर अग्नि जलाने लग जाती है, उसी प्रकार प्रतिबन्धक तमोगुण के बढ़ जाने पर ज्ञान विषयों का प्रकाश नहीं करता है, यही आत्मा की स्वापादि दशा कहलाती है । जिस समय प्रतिबन्धक तमोगुण हट जाता है, उस समय ज्ञान का विकास हो जाता है । वह विषयों का प्रकाश अपने आश्रय आत्मा के लिए करने लग जाता है। ज्ञान के विकास के प्रतिबन्धक तमोगुण के सद्भाव को लेकर आत्मा की स्वापादि दशा का अभिधान होता है । ज्ञान के विकास के प्रतिबन्धक तमोगुण के अभाव के काल को ही आत्मा की जागरदशा अभिहित की जाती है । इस अर्थ का प्रतिपादन करते हुए महर्षि बादरायण ब्रह्मसूत्र में कहते हैं - ‘पुंस्त्वादिवत्त्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात्’ ( शा० मी० २।३।३१ ) । अर्थात् सुषुप्तिदशा में विद्यमान अनभिव्यक्त ज्ञान की जागरादि दशा में अभिव्यक्ति हो सकती है ।

मूलम्

७. ननु आगमबलात् ज्ञानस्य नित्यत्वाङ्गीकारे कथं जागरसुषुप्त्यादिभेद-सिद्धिः? इति चेत्, न । यथा दाहकस्य वह्नेर्दाह्यसन्निधौ मण्यादिप्रतिबन्धका-द्दाहाभावः तद्वत् ज्ञानस्य तिरोधायकतमोविशेषसन्निधानासन्निधानाभ्यां स्वापादिसिद्धिः । पुंस्त्वादिवच्च । पुंस्त्वादिकम् बाल्येतिरोहितं यौवने आविर्भवति ।

वासुदेवः

अन्ये तु धारावाहिक-विज्ञानं स्नेह-दशादि-समवाय-संतन्यमान-दीपवत् संतति-रूपम् इति आहुः । स्वापादीति । यत् तु षडर्थ-संक्षेपे श्रीराम-मिश्रैर् उक्तम् - स्वतः सिद्धिर् इयं संवित् सुषुप्ताव् अपि स्फुरत्य् एव । स्वाश्रयायैव हि सा भाति । अव्यवहार-नियमस् तु करणोपरति-नियमाद् इति । विवरणे ऽप्य् एवम् एवोक्तम् । तत् सर्वं प्रौढिवाद इति ज्ञेयम् । अन्यथा ‘पुंस्त्वा-दिवत्त्वस्य सतो ऽभिव्यक्तियोगात्’ (ब्र. सू. २।३।३१) इति सूत्रेण तद्भाष्येण च विरोधात् । तद्-ध्वनयन्न् आह - पुंस्त्वादीति । किंच यथा सर्व-विषय-प्रकाशन-शीलायाः संविदः समस्त-बाह्य-विषयवैमुख्यं, तथा ऽन्तर-विषयवैमुख्यम् अपि स्याद् एवेति बोध्यम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

८. “यो यद्-आश्रित-स्वभावः स तस्य गुणः,
विशेषणादिवत्”

इति लक्षण-लक्षितत्वात् ज्ञानं गुणः ।

अण्णङ्गराचार्यः

यदाश्रितस्वभावः – नियमेन पराधीनस्थितिकः **‘विशेषणादिव’**दिति । यथा दण्डकुण्डलादिविशेषणं विशेष्यपुरुषादिकं प्रति गुण इत्युच्यते । यथा वा दध्यादिहोमं प्रति गुण उच्यते, तथेत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

जो स्वभावतः जिसके अधीन होता वह विशेषण आदि के समान उसका गुण होता है । इस गुण के लक्षण से सम्पन्न होने के कारण ज्ञान आत्मा का गुण है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जिस प्रकार बाल्यावस्था में अनभिव्यक्त पुंस्त्व की यौवन दशा में अभिव्यक्ति होती है। ज्ञान आत्मा का गुण है, क्योंकि वह आत्मश्रित है । जो जिसके आश्रित होता हैं, वह उसका गुण होता है । जैसे विशेषण विशेष्य के आश्रित रहता है, अतएव वह विशेष्य का गुण कहलाता है ।

मूलम्

८. “यो यदाश्रितस्वभावः स तस्य गुणः, विशेषणादिवत्” इति लक्षणलक्षितत्वात् ज्ञानं गुणः ।