विश्वास-प्रस्तुतिः
४. सर्वं ज्ञानं
स्वत एव प्रमाणं,
स्वयम्प्रकाशं च ।
विप्रतिपन्ना संवित्
स्व-गत-व्यवहारम् प्रति स्वाधीन-किञ्चित्कारा +++(=स्वाधीन-प्रकाशा)+++,
स्वजातीय-सम्बन्धानपेक्ष-व्यवहार-हेतुत्वात्,
अर्थ+++(=विषय)++++इन्द्रिय-दीपवत्
+++(नाम, यथा - घटो न सजातीयं घटान्तरम् अपेक्षते, इन्द्रियो नेन्द्रियान्तरम्, दीपो न दीपान्तरम्)+++
।
+++(चक्षुर्-इन्द्रियं नेन्द्रियान्तरम् अपेक्षत, प्रकाशाद्य् अपेक्षेत +इत्यत्र -)+++ न च चक्षुर्-आलोकयोः सजातीयत्वम्,
आहाङ्कारिक+++(-चक्षुः)+++-तैजस+++(-प्रकाश)+++-भेदाद् भेदः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘स्वतः प्रामाण्यमिति । यथावस्थितवस्तुग्रहणस्वाभाव्यात् ज्ञानानां स्वतः प्रामाण्यम् । क्वचिद्दोषबलादप्रामाणमिति भावः । ज्ञानं ज्ञानान्तरेणैव गृह्यते । न स्वत इति तार्किकादीनां मनम् ।
तत्प्रतिक्षेपाय स्वयम्प्रकाशत्वं साधयति **‘विप्रतिपन्ने’**ति । स्वयम्प्रकाशा वा स्वयम्प्रकाशेति विवादविषयीभूता सवित् - स्वगतव्यवहारं प्रति स्वाधीनकिञ्चित्कारा - स्वाधीनप्रकाशा । स्वसजातीयान्तरानपेक्षस्वव्यवहारहेतुत्वात् इति शब्दार्थः । व्यवहारं प्रति किञ्चित्कारो[[??]] नाम व्यवहारहेतुः प्रकाशः । अयम्भावः न हि घटज्ञानं स्वव्यवहारे घटज्ञानान्तरमपेक्षते । यथा घटादिरर्थः, इन्द्रियं दीपो वा स्वव्यवहारे स्वात्यन्तसजातीयं घटान्तरादिकं नापेक्षते । अपेक्षते तु आत्मादिविजातीयम् । न च चक्षुस्तैजसः तेजस[[??]] आलोकोऽपेक्षत इति वाच्यम् । चक्षुषः आहङ्कारिकत्वात् आलोकस्य च तैजसत्वात् साजात्याभावात्तयोः । एवं ज्ञानं न स्वव्यवहारे ज्ञानान्तरापेक्षमिति स्वयंप्रकाशः भवतीति । अत्रायं प्रयोगो बोध्यः - ज्ञानं स्वसजातीयान्तरानपेक्षप्रकाशवत् प्रकाशमानत्वात् यद्यत्प्रकाशमानं तत्तत्स्वसजातीयान्तरानपेक्षप्रकाशवत्, यथा घटदीपालोकादि । इति । स्वसाजात्यं स्वनिष्ठासाधारणधर्मवत्त्वेन बोध्यम् । अयमर्थः आत्मसिद्धौ परमाचार्यैरुपपादितः -
न हि कश्चित् पदार्थः स्वप्रकाशायासाधारणसजातीयार्थान्तरापेक्षो दृष्ट
इत्यादिना । अत्र ज्ञानं प्रकाशत इति स्वव्यवहारे स्वसजातीयान्तरानपेक्षः स्वसम्बन्धादर्थान्तरे तद्व्यवहारहेतुत्वात् । योऽर्थान्तरे स्वसम्बन्धाद्यद्व्यवहारहेतुः स स्वस्मिन्तव्द्यवहारे न स्वसजातीयान्तरापेक्षः । यथा सत्ता । सा हि घटादावस्तीति व्यवहारहेतुः ‘सत्ता सती’ति स्वव्यवहारे न सत्तान्तरापेक्षा । इत्यपि ज्ञानस्य स्वयम्प्रकाशत्वसाधनं श्रीभाष्यादौ निरूपितमनुसन्धेयम् । स्वयम्प्रकाशत्वं ज्ञानस्य वर्तमानदशायां स्वाश्रयं प्रत्येवेति बोध्यम् । आहङ्कारिकतैजसयोर्भेदात् – आहङ्कारिकत्वतैजसत्वाभ्यां विजातीयत्वात् ।
‘भेदः’ इति पदमधिकं प्रतीयते ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनु० -
सभी ज्ञान स्वतः प्रमाण तथा स्वयम्प्रकाश होते हैं ।
विवादास्पद ज्ञान
अपने सभी व्यवहारों के प्रति
स्वाधीन प्रकाश वाला है,
क्योंकि वह अपने व्यवहारों के लिए
विषय, इन्द्रिय तथा दीपादि के समान
अपने किसी सजातीय वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता है ।
चक्षु तथा प्रकाश दोनों सजातीय नहीं है,
क्योंकि चक्षुर्-इन्द्रिय आहङ्कारिक है
तथा प्रकाश तैजस है,
अतएव उन दोनों में भेद स्पष्ट है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य
भा० प्र० -
ज्ञान स्वतः प्रमाण है
अथवा परतः प्रमाण ?
इस विषय में दार्शनिकों का मतभेद है ।
नैयायिक विद्वान्
ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य नहीं स्वीकारते हैं,
वे ज्ञान का परतः प्रामाण्य स्वीकार करते हैं ।
न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयनाचार्य का कहना है कि
ज्ञानों में प्रमात्व नामक गुण
प्रामाण्य गुणों द्वारा आता है ।
- प्रत्यक्षादि ज्ञानों में प्रमात्व पैदा करने वाला गुण
यथावस्थित वस्तुओं के साथ इन्द्रिय-सन्निकर्ष आदि हैं । - शाब्द-बोध के प्रामाण्य के कारण
शब्द के स्वतन्त्र वक्ता पुरुष के गुण हैं ।
शब्द के वक्ता के आप्त होने पर
शब्द प्रामाणिक होता है ।
प्रबन्धों का प्रामाण्य
प्रबन्ध प्रणेता की प्रामाणिकता पर निर्भर करता है ।
वेदजन्य प्रमा भी उसके वक्ता के गुणों पर ही निर्भर करती है,
क्योंकि वह शाब्दी प्रमा है ।
महाभारत आदि ग्रन्थों के प्रणेता की प्रामाणिकता के ही समान
वेदों की भी प्रामाणिकता
उसके प्रणेता ईश्वर पर ही निर्भर करती है ।
अतएव ज्ञान की प्रामाणिकता
अपने से भिन्न उसके वक्ता की प्रामाणिकता पर निर्भर है,
अतएव ज्ञान का परतः प्रामाण्य है ।
नैयायिकाभिमत ज्ञान के परतः प्रामाण्य का खण्डन करते हुए
विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि
ज्ञान का यह स्वभाव है कि
जो वस्तु जैसी है,
उसका वह उसी रूप में प्रकाशन कर देता है ।
अतएव जिस प्रकार
अग्नि का दाहकत्व स्वाभाविक होता है,
उसी प्रकार ज्ञानों का भी प्रामाण्य स्वाभाविक है ।
भ्रमज्ञानस्थल में भी
धर्मी का ज्ञान भ्रमरहित होता है ।
भ्रमांश में दोष के कारण
उसी प्रकार अप्रामाणिकता आती है,
जिस प्रकार प्रतिबन्धक मणि के द्वारा
अग्नि का दाहकत्व प्रतिबन्धित हो जाता है ।
अथवा मन्त्रों के द्वारा विष का मारकत्व
समाप्त हो जाता है ।+++(4)+++
किञ्च नैयायिक भी मानते हैं कि
ईश्वर का नित्यज्ञान भी हेत्वभाव के कारण
स्वभावतः प्रामाणिक है ।
अत एव जिस प्रकार
दोषाभाव के कारण ईश्वर का नित्यज्ञान प्रामाणिक होता है,
उसी प्रकार दोषाभाव के कारण
अपौरुषेय वेदवाक्यजन्य ज्ञान भी स्वभावतः प्रामाणिक है ।
घट का ज्ञान उत्पन्न होता है,
इस ज्ञान के विषय का अस्तित्व होना ही
उस ज्ञान की प्रामाणिकता है ।
अत एव ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य
सिद्ध होता हैं ।
ज्ञान के स्वयम्प्रकाशत्व की सिद्धि
ज्ञान की स्वतः प्रकाशता का अनुमान करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं-
विवादास्पद संवित्
अपने विषय में होने वाले व्यवहारों के प्रति स्वाधीनप्रकाश है,
क्योंकि वह अपने व्यवहार के लिए
विषय, इन्द्रिय तथा दीपादि के समान
अपने सदृश किसी प्रकाशकान्तर की अपेक्षा नहीं रखती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि
जैसे घटज्ञान अपने प्रकाश के लिए अपने सजातीय किसी दूसरे घट के ज्ञान की अपेक्षा [[१२१]] नहीं रखता,
अपितु वह अपने से भिन्न विसजातीय आत्मा की अपेक्षा रखता है ,
इसी प्रकार इन्द्रियाँ अपने व्यवहार के लिए
इन्द्रियान्तर की अपेक्षा नहीं रखती है,
अपितु वह अपने से भिन्न आलोक की अपेक्षा रखती है।
दीपक अपने प्रकाशार्थं दीपकान्तर की अपेक्षा नहीं रखता,
अपितु वह चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा रखता है ।
अपितु इन सबों को अपने से भिन्न
आत्मा आदि की अपेक्षा होती है ।
यदि यह कहें कि चक्षुरिन्द्रिय को
अपने व्यवहार के लिए
अपने सजातीय प्रकाश की आवश्यकता होती है
तो यह भी नहीं कहा जा सकता है ।
क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय तथा आलोक
दोनों सजातीय नहीं,
अपितु विसजातीय हैं।
चक्षुरिन्द्रिय सात्त्विकाहङ्कारोपादानक है
तथा आलोक तेजस है ।
तेज तो चक्षुरिन्द्रिय का आप्यायक मात्र है ।
अत एव वे दोनों परस्पर विसजातीय हैं ।
मूलम्
४. सर्वं ज्ञानं स्वत एव प्रमाणं स्वयम्प्रकाशं च । विप्रतिपन्ना संवित् स्वगतव्यवहारम् प्रति स्वाधीनकिञ्चित्कारा, स्वजातीयसम्बन्धानपेक्ष व्यवहार-हेतुत्वात्, अर्थेन्द्रियदीपवत् । न च चक्षुरालोकयोः सजातीयत्वम्, आहाङ्कारिक- तैजसभेदाद्भेदः ।
वासुदेवः
स्वत एवेति । तद् उक्तं सर्वार्थसिद्धौ - “घटो ऽस्तीति ज्ञानम् उत्पद्यते । तत्र विषयास्तित्वम् एव प्रामाण्यम् । तत् तु तेनैव ज्ञानेन प्रतीयते । अतः स्वतः प्रामाण्यं प्रतीयते । यत्र पुनः शुक्तौ रजत-ज्ञानम् उत्पद्यते, तत्रापि ‘रजताम् अस्ति’ इति रजतास्तित्वम् एव प्रतीयते । न पुनर् नास्तित्वं तेनैव ज्ञानेन प्रतीयते । अतो विषयास्तित्वं स्वेन, नास्तित्वं च बाधकेन प्रतीयत इति स्वतः प्रामाण्यप्रतीतिर् अप्रामाण्यप्रतीतिः परत इति विभाग इति । किंच यथा जले उष्ण-स्पर्शस्य न स्वतस्त्वम् । किंतु परतस्त्वम् । तस्य स्वतस्त्वं तु तेजसि प्रसिद्धम् । तथा ज्ञाने प्रमाणत्वस्य यदि परतस्त्वं स्यात् तर्हि तस्यान्यत्र क्वचिद् अपि स्वतस्त्वम् आवश्यकम् । तच् च न संभवति । प्रमाणत्वस्य ज्ञानमात्र-निष्ठत्वात् । अतस् तस्य ज्ञाने स्वतस्त्वम् एवाङ्गीकार्यम् इति समासोक्तौ विस्तरः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
५. +++(ज्ञान-नित्यत्व-धर्मित्वादि-वचनेन)+++ अनेन ज्ञानस्य
क्षणिकत्वं, त्रि-क्षणावस्थायित्वं,
प्रातिभासिकवत् व्यावहारिकस्यापि मिथ्यात्वम्,
परतः-प्रामाण्यम्,
ज्ञानस्यैव आत्मत्वम्
इत्य्-आदिपक्षा निरस्ताः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘अनेने’**ति । ज्ञानस्य नित्यत्वस्वयम्प्रकाशत्वात्मधर्मत्वसमर्थनेनेत्यर्थः । क्षणिकत्वं ज्ञानानां बौद्धमते । द्वित्रिक्षणावस्थायित्वं तार्किकमते । तैरपेक्षाबुद्धेस्त्रिक्षणावस्थायित्वोपगमात् । व्यावहारिकस्यापि मिथ्यात्वं योगाचाराणामद्वैतिनां च मते । ज्ञानस्यैवात्मत्वमिति च सौगतादीनाम् पक्षः ।
शिवप्रसादः (हिं)
[[१२०]]
इस प्रकार ज्ञान को क्षणिक,
तीन क्षणों तक स्थायी तथा प्रातिभासिक ज्ञान के ही समान
व्यावहारिक ज्ञान को मिथ्या मानने वालों का मत
तथा ज्ञान का परतः प्रामाण्य
एवं ज्ञान को ही आत्मा माननेवालों का पक्ष
खण्डित हो गया ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
नैयायिक, वैशेषिक तथा भाट्ट-मीमांसक आदि
ज्ञान को परप्रकाश मानते हैं ।
वे कहते हैं कि
ज्ञान स्वयम् प्रकाशित नहीं होता,
क्योंकि ज्ञान उत्पन्न होते समय में
स्वयम् प्रकाशित होते हुए
किसी को भी अनुभूत नहीं होता है,
किन्तु ज्ञान उत्पन्न होने के बाद
दूसरे ज्ञान से प्रकाशित होता है ।
उस दुसरे ज्ञान के विषय में
नैयायिक एवं वैशेषिक मानते हैं कि
उत्पन्न होने के पश्चात्
ज्ञान का मानस-प्रत्यक्ष से पता चलता है।
प्रथम क्षण में ‘यह घट है’
ऐसा ज्ञान होता है ।
उस समय वह ज्ञान
स्वयम् प्रकाशित नहीं होता है,
अपितु द्वितीय क्षण में
‘मैं घट को जानता हूँ’
इस मानसप्रत्यक्ष के द्वारा
पूर्वक्षणोत्पन्न घटज्ञान प्रकाशित होता है।
आत्मा के गुण सुख-दुःख इत्यादि का भी ज्ञान
मानसप्रत्यक्ष से ही होता है ।
ज्ञान के मानसप्रत्यक्ष का खण्डन -
नैयायिकाभिमत ज्ञान के मानस प्रत्यक्षत्व का प्रत्याख्यान करते हुए
श्रीपराशरभट्ट कहते हैं—
‘+++(मानस-प्रत्यक्ष-)+++योग्य+++(-अनुभूति-विशेष)++++अनवग्रहात्, स्वेन
सम्भवाद्, +++(घटज्ञानम्, तन्मानसप्रत्यक्ष-ज्ञानं, तन्मानसप्रत्यक्ष-ज्ञानं … इति)+++ अनवस्थितेः ।
इति बाधकहेतुभ्यः
+++(क्षणिकता, मानस-प्रत्यक्ष-योग्यता +इति)+++ साधन-द्वितयस्य च ॥
+++(नित्यत्वोक्तेर्, मानस-प्रत्यक्षायोग्यतया)+++ असिद्धि-व्यभिचाराभ्यां
वैकल्यात् साध्य-साधने । इत्य् अ-साधन–बाधाभ्यां
न धीर् मानस-गोचरः ॥’
ज्ञान के ही समान होता है ।
अर्थात्
मानसप्रत्यक्ष यदि ज्ञान का ग्राहक होता
तो वह अनुभूत होता,
परन्तु मानसप्रत्यक्ष अनुभूत नहीं होता है ।
इस योग्यानुपलब्धि से सिद्ध होता है कि
मानस प्रत्यक्ष ज्ञान का ग्राहक नहीं है।ज्ञान के प्रकाश के लिए
मानसप्रत्यक्ष की कल्पना करना उचित भी नहीं है,
क्योंकि ज्ञान स्वयम् ही
अपने को प्रकाशित कर सकता है,
तदर्थ मानसप्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं है ।किञ्च ज्ञान के ग्राहक रूप से
मानस-प्रत्यक्ष की कल्पना करने पर
अनवस्था दोष भी होगा ।तथाहि - प्रथम घटादिज्ञान मानसप्रत्यक्ष से गृहीत होगा,
किन्तु उस मानसप्रत्यक्ष का भी ज्ञान होने से
उसका भी ग्राहक कोई मानसप्रत्यक्ष होगा
तथा उस ग्राहक मानसप्रत्यक्ष का भी ग्राहक मानस-प्रत्यक्ष की कल्पना नैयायिकों को करनी होगी ।इस प्रकार अनन्तापेक्षकत्व रूप [[१२२]] अनवस्था दोष होगा ।
किञ्च ज्ञान को मानसप्रत्यक्ष सिद्ध करने के लिए
नैयायिकों द्वारा जो हेतु दिये जाते हैं,
वे असिद्धि एवं व्यभिचार दोष से ग्रस्त हैं,
अतएव उनके द्वारा
ज्ञान को मानसप्रत्यक्ष सिद्ध नहीं किया जा सकता है।नैयायिक ज्ञान को मानसप्रत्यक्ष सिद्ध करने के लिए
इन दो हेतुओं को उपन्यस्त करते हैं -
( १ ) ज्ञान क्षणिक होते हुए
आत्मा का विशेष गुण है ।
( २ ) ज्ञान योग्य होते हुए
आत्मा का विशेष गुण है ।किन्तु ये दोनों हेतु असिद्ध एवं अनैकान्तिक हैं।
क्योंकि ऊपर हम कह चुके हैं कि
ज्ञान नित्य है, क्षणिक नहीं ।
वह मानसप्रत्यक्ष के योग्य भी विषय नहीं है ।
अतएव ज्ञान में क्षणिकत्व एवं योग्यत्व विशेषण असिद्ध हैं,
तथा प्रायश्चित्तानधिष्ठान+++(=??)+++ होने के कारण
व्यभिचार भी है ।
ज्ञान के प्राकट्यानुमेयवाद का खण्डन –
भाट्ट-मीमांसक ज्ञान को स्वयम् प्रकाश न मानकर
उसे प्राकट्यानुमेय मानते हैं ।
वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयम् प्रकाश नहीं है,
अपितु ज्ञान से विषय में उत्पन्न
प्रकाश रूपी धर्म को देखकर
ज्ञान का अनुमान होता है।
ज्ञान से जिस विषय में धर्म उत्पन्न होता है,
उसे प्रकाश, प्राकट्य तथा ज्ञातता आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है ।
इस प्राकट्य के द्वारा
उसके कारणभूत ज्ञान का
उसी प्रकार अनुमान किया जाता है,
जिस प्रकार होने वाले सुखदुःखादि को देखकर
उनके कारणभूत पुण्य-पाप आदि का अनुमान किया जाता है ।
भाट्ट-मीमांसकों के इस मत की समालोचना करते हुए
विशिष्टाद्वैती कहते हैं कि
यदि ज्ञान से विषय में कोई धर्म उत्पन्न होता
तो उसकी उपलब्धि अवश्य होती,
चूंकि नहीं होती है,
अतएव पता चलता है कि
ज्ञान से विषय में कोई भी धर्म उत्पन्न नहीं होता है,
अपितु ज्ञान ही
घटादि विषयों का प्रकाश रूप है ।
ज्ञान घटादि विषयक होने से घटादि का प्रकाश रूप माना जाता है ।
ज्ञान से घटादि में प्रकाश धर्म की उत्पत्ति मानने में गौरवदोष है ।
घटादि को प्रकाशित करने वाला ज्ञान
स्वपर-निर्वाहक न्याय से
अपने को भी प्रकाशित करते हुए
उत्पन्न होता है ।+++(5)+++
ऐसा कभी भी किसी को अनुभव नहीं होता है कि
घटादि का ज्ञान होता हो
और घटादि विषयक ज्ञान का प्रकाश न होता हो ।
यदि ऐसा होता तो ऐसा संशय अवश्य होता कि
‘यह तो घट ही है’
परन्तु इसके विषय में हमको ज्ञान है या नहीं,
इसका पता हमको नहीं है;
किन्तु इस प्रकार का संशय किसी को भी नहीं होता है।
इससे सिद्ध होता है कि घटादि विषयों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान
स्वयम् प्रकाशित होता है ।
विशिष्टाद्वैती विद्वान् यह मानते हैं कि
प्रत्येक मनुष्य को जागरण एवं स्वप्नदशा में
प्रतिक्षण ज्ञान उत्पन्न एवं नष्ट होते हैं ।+++(5)+++
‘मैं जानता हूँ’ इस अबाधित प्रतीति के अनुसार
ज्ञान का आश्रय अहमर्थ है ।+++(5)+++
जिस अहमर्थ में जो ज्ञान उत्पन्न होकर
विषयों को प्रकाशित करता है,
वह ज्ञान विषय प्रकाशन काल में उस अहमर्थ के प्रति
स्वयम् प्रकाशित होता रहता है ।
[[१२३]] ज्ञान विषयों को प्रकाशित करते समय
दूसरे ज्ञान की अपेक्षा न रखकर
अपने आश्रय के प्रति
स्वयम् प्रकाशित होता रहता है ।
अतएव ज्ञान स्वयम्प्रकाश है ।
बौद्ध ज्ञान को क्षणिक मानते हैं ।
वे कहते हैं कि
ज्ञान प्रत्येक क्षण में नवीन नवीन उत्पन्न होता है ।
नैयायिक ज्ञान को
अपेक्षाकृत बुद्धि का विषय होने के कारण
तीन क्षण - पर्यन्त स्थायी मानते हैं ।
वे कहते हैं कि ज्ञान
एक क्षण में उत्पन्न होता है,
दूसरे क्षण में वह बना रहता है
तथा तीसरे क्षण में वह विनष्ट हो जाता है ।
अद्वैती विद्वान् ज्ञान के तीन भेद मानते हैं—
प्रातिभासिक, व्यावहारिक तथा पारमार्थिक ।
अद्वैती विद्वानों के अनुसार
शुक्ति, रजत आदि स्थल में होने वाला ज्ञान
प्रातिभासिक है ।
घटादि विषयक ज्ञान व्यावहारिक हैं ।
ब्रह्मज्ञान पारमार्थिक है ।
अद्वैती विद्वान् प्रातिभासिक ज्ञान के ही समान
व्यावहारिक ज्ञान को भी मिथ्या मानते हैं -
क्योंकि ये दोनों ब्रह्म-व्यतिरिक्त वस्तु-विषयक हैं ।
नैयायिक तथा वैशेषिक तथा भाट्ट-मीमांसक
ज्ञान का परतः प्रामाण्य स्वीकार करते हैं,
इस बात की चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूँ ।
बौद्ध तथा अद्वैती विद्वान्
ज्ञान को ही आत्मा मानते हैं ।
ये सभी मान्यताएँ उपर्युक्त प्रतिपादन से इसलिए निरस्त हो गईं कि
मैं ज्ञान को नित्य, स्वतः प्रमाण, स्वयम्प्रकाश
तथा आत्मा के धर्म रूप से प्रतिपादन कर चुका हूँ,
इस बात को यतीन्द्रमतदीपिकाकार मूल के ‘अनेन’ से ‘निरस्ताः’ पर्यन्त वाक्य के द्वारा प्रतिपादित करते हैं ।
मूलम्
५. अनेन ज्ञानस्य क्षणिकत्वं, त्रिक्षणावस्थायित्वं, प्रातिभासिकवत् व्यावहारिकस्यापि मिथ्यात्वम्, परतः प्रामाण्यम्, ज्ञानस्यैव आत्मत्वम् इत्यादिपक्षा निरस्ताः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
६. “स्तम्भः स्तम्भ” इत्यादि-धारा-वाहिक-ज्ञानं तु एकम् एव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘धारावाहिके’**ति । यावद्विषयान्तरसञ्चारमेकविषयालम्बिज्ञानं स्थिरमिति प्रज्ञापरित्राणे वरदनारायणभट्टारकैरुक्तं
स्तम्भस्स्तम्भस्स्तम्भ इति धोर्धारावाहिकी मता ।
धारावाहिकं विज्ञानमेकं ज्ञानमतं हि नः ॥
इति ॥
शिवप्रसादः (हिं)
‘स्तम्भः स्तम्भः’ इत्यादि रूप से धारावाहिक स्थल में होनेवाला ज्ञान एक ही है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
धारावाहिक बुद्धिस्थल में ज्ञान की एकता का प्रतिपादन
किसी एक पदार्थ के विषय में
धारा रूप से जो ज्ञान होता रहता है,
उसे धारा-वाहिक ज्ञान कहते हैं ।
उदाहरणार्थ –
स्तम्भ के विषय में,
स्तम्भ, स्तम्भ, स्तम्भ इस प्रकार धारा रूप से होने वाला ज्ञान
धारावाहिक ज्ञान कहलाता है ।
इस धारा- वाहिक ज्ञान के विषय में प्रश्न उठता है कि
बिना किसी अन्तराल के लगातार प्रसृत होने वाला
दीर्घ एक सूर्य किरण की तरह
एक ही ज्ञान धारा रूप से लगातार बना रहता है,
अथवा तेल तथा बत्ती आदि कारणों के प्रतिक्षण प्राप्त होते रहने से
प्रतिक्षण उत्पन्न एवं विनष्ट होने वाले दीपसन्तान की तरह
प्रतिक्षण उत्पन्न एवं नष्ट होने वाला ज्ञान सन्तान ही
धारावाहिक विज्ञान है ?
विशिष्टाद्वैती विद्वान् इनमें से
प्रथम पक्ष को ही स्वीकार करते हैं ।
धारावाहिक बुद्धिस्थल में
ज्ञान की एकता का प्रतिपादन करते हुए
प्रज्ञा-परिमाण नामक ग्रन्थ में
आचार्य वरदनारायण कहते हैं-
धारावाहिक-धी-पङ्क्तिः
स्व-कालीनार्थ-भासिका ।
मेधातिरेक+++(=??)+++-सद्-भावाद्,
+++(पूर्वक्षणज्ञन-)+++नैरपेक्ष्याद् अपि प्रमा ॥स्तम्भः स्तम्भः स्तम्भ इति
धीर्धारावाहिका मता ।
धारावाहिकविज्ञानम्
एकं ज्ञानं मतं हि नः ॥प्रतिबन्धांश मोक्षाद्यैर्
नित्यं ज्ञानं हि जायते । चिरम् अप्रतिबन्धेन
चिरं तिष्ठति भासकम् ॥चिर-स्थितार्थ-धीर् एव
न धारावाहिका तु सा । न हीश्वरादि-विज्ञानम्
आगमादिकम् इष्यते
[[१२४]]
अर्थात्
कतिपय वादी यह मानते हैं कि
धारा रूप से ज्ञान को छोड़कर
आगे होने वाले सभी ज्ञान
प्रथम ज्ञान से होने वाले ज्ञानों में प्रथम गृहीत अर्थ के
ग्राहक होने से
स्मरण रूप हैं,
किन्तु उनका यह मत समीचीन नहीं है ।
क्योंकि धारावाहिक ज्ञान-पंक्ति के होने वाला प्रत्येक ज्ञान अनुभूति है,
प्रमा है, स्मरण नहीं है ।
क्योंकि प्रत्येक ज्ञान ‘यह घट है’ ‘यह घट है’ इस प्रकार से
एक घट को ग्रहण करते हैं ।
यह शब्द का अर्थ है
वर्तमान काल एवं वर्तमान देश में होने वाला ।
अत एव यह ज्ञान वर्तमान क्षण एवं देश में उत्पन्न होने वाला है ।
प्रत्येक धारावाहिक ज्ञान
स्वोत्पत्ति-क्षण में विद्यमान रूप से
विषयों का ग्रहण करता है ।
प्रत्येक ज्ञान का उत्पत्तिक्षण
उसी ज्ञान से गृहीत होता है,
पूर्वज्ञानों से नहीं ।
प्रत्येक ज्ञान पूर्व-पूर्वं ज्ञानों द्वारा अगृहीत
अपने- अपने उत्पत्तिक्षण को विशेष रूप से लेकर ही
‘इस क्षण में घट है’ इत्यादि रूप से
घटादि अर्थ का ग्राहक होने से
अज्ञातार्थ का ग्राहक होता है,
अतएव वह प्रमा है, स्मरण नहीं ।
किञ्च जिस प्रकार स्मृतिज्ञान
अपने मूलभूत पूर्वकालिक प्रत्यक्ष ज्ञान की अपेक्षा रखते हैं,
उस तरह से धारावाहिक ज्ञान,
अपने लिए अपने पूर्व - पूर्व ज्ञान की भी अपेक्षा नहीं रखते हैं ।
अतएव धारावाहिक ज्ञान में
द्वितीयादि ज्ञान स्मरण नहीं हैं, यह सिद्ध होता है ।
स्तम्भ है, इस कुछ वादी एक वस्तु के विषय में धारा रूप से निरन्तर होने वाले ज्ञानों के सन्तान को धारावाहिक ज्ञान कहते हैं। जैसे - यह स्तम्भ है, यह प्रकार से होने वाले ज्ञान का सन्तान धारावाहिक ज्ञान है; किन्तु हमारा मत है कि धारावाहिक ज्ञान एक ज्ञान है, वह धारा रूप से होने वाले अनेक ज्ञानों का सन्तान नहीं है, किन्तु एक ही ज्ञान व्यक्ति में उतनी देर तक बना रहता है ।
सिद्धान्त में माना जाता है कि आत्मा का ज्ञान नित्य है, वह कर्म से जब संकुचित हो जाता है तो विषयों का ग्रहण नहीं करता है । इन्द्रियादि से जब वह कर्म रूपी प्रतिबन्ध छूट जाता है तो वह विकसित होकर विषयों का ग्रहण करता है । ज्ञान के विकास को दूर करने में ही इन्द्रियों का उपयोग है, ज्ञान को उत्पन्न करने में इन्द्रियों का उपयोग नहीं है । अतः विषयेन्द्रियसंयोग से ज्ञान के विकास का प्रति- बन्ध दूर होने पर विकसित ज्ञान विषयों के समीप पहुँचकर तब तक विषयों का ग्रहण करता रहता है, जब तक कि इन्द्रियार्थसंयोग बना रहता है । धारावाहिक ज्ञानस्थल में प्रतिक्षण ज्ञान उत्पन्न होता हो, ऐसी बात नहीं है । जो ज्ञान विकसित होकर अनेक क्षणों तक विषय का ग्रहण करता रहता है, उसे ही धारावाहिक ज्ञान कहते हैं । वस्तुतः वह प्रत्येक क्षण में उत्पन्न होने वाले ज्ञानों का सन्तान वहाँ नहीं होता है ।’
[[१२५]]
ईश्वर का ज्ञान नित्य है, क्योंकि वह अपनी उत्पत्ति के लिए आगमादि की अपेक्षा नहीं रखता है । शास्त्र भी ईश्वर के ज्ञान को नित्य बतलाता है, अतएव ईश्वर के ज्ञान को अनित्य मानने वालों का मत शास्त्रविरुद्ध है । जिस प्रकार श्रुति ईश्वर के ज्ञान को नित्य बतलाती है, उसी तरह वह जीवों के भी ज्ञान की नित्यता बतलाती है । यह नित्यज्ञान कर्मों से प्रतिबन्धित होने के कारण विकसित नहीं होता है । अत- एव वह विषयों का ग्रहण नहीं करता है । उस प्रतिबन्ध के इन्द्रियादि से हट जाने पर विकसित होकर तब तक विषय का ग्रहण करता रहता है, जब तक इन्द्रियार्थ - संयोग बना रहता है । अतएव धारावाहिक ज्ञान एक प्रमा तथा अनुभूति रूप है, वह अनेक तथा स्मरण रूप नहीं है । इसी बात का समर्थन करते हुए यतीन्द्रमतदीपिका- कार कहते हैं - ’ स्तम्भ स्तम्भः इत्यादि धारावाहिकज्ञानं त्वेकमेव ।’ अर्थात् धारा- वाहिक बुद्धिस्थल में ‘यह स्तम्भ है, ‘यह स्तम्भ है’ इत्यादि रूप से होने वाला ज्ञान एक ही रहता है ।
मूलम्
६. “स्तम्भः स्तम्भ” इत्यादिधारावाहिकज्ञानं तु एकमेव ।
वासुदेवः
एकमेवेति इति । धारावाहिक-विज्ञानं नीरन्ध्र-निर्यात-मणि-मयूखवद् एकरूपम् । तद् उक्तं प्रज्ञा-परित्राणे -
स्तम्भः स्तम्भः स्तम्भ इति धीर्धारावाहिका मता । धारावाहिक-विज्ञानम् एकं ज्ञानं मतं हि नः ॥ प्रतिबन्धांशमोक्षाद्यैर् नित्यं ज्ञानं हि जायते । चिरम् अप्रतिबन्धेन चिरं तिष्ठति भासकम् ॥
इति ।