०१ लक्षणादिकम्

वासुदेवः

अथ सप्तमो ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१. अथ क्रम-प्राप्तं धर्म-भूत-ज्ञानं निरूप्यते ।
स्वयम्-प्रकाशाचेतन-द्रव्यत्वे सति विषयित्वं,
विभुत्वे सति प्रभावद्-द्रव्य-गुणात्मकत्वम्,
अर्थ-प्रकाशो बुद्धिर् इत्य्-आदि
तल्-लक्षणम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

॥ अथ सप्तमावतारव्याख्या ॥

धर्मभूतज्ञानस्य लक्षणमाह ‘स्वयंप्रकाशत्व’ इति । स्वयम्प्रकाशत्वं जीवेश्वरयोरप्यस्ति । तत्रातिव्याप्तिवारणाय अचेतनद्रव्यत्वे सतीत्युक्तम् । एवमप्यतिव्याप्तिर्नित्यविभूताविति सविषयत्वमित्युक्तम् । सविषयत्वं नाम स्वभिन्नविषयकत्वम् । यद्वा सविषयत्वपदेन नित्यविभूतिभिन्नत्वं विवक्षितम् । विषयप्रकाशकत्वं तु तृतीयलक्षणं वक्ष्यते ।
द्वितीयं लक्षणमाह विभुत्वे सतीत्यादि । विभुत्वं नाम सर्वद्रव्यसंयोगार्हत्वमत्र विवक्षितम् । तेन बद्धज्ञाने नाव्याप्तिः । प्रभावदिति दृष्टान्तमात्रं न तु लक्षणे प्रविष्टम् । प्रभायामतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । द्रव्यगुणस्वरूपत्वं द्रव्यगुणात्मकत्वम् । गुणत्वं चात्र नियमेनान्याश्रितत्वम् । नत्वद्रव्यत्वम् । नियतपरमात्माश्रितद्रव्यत्वात् कालस्य तत्रातिव्याप्तिः प्रसज्यते । तद्वारणाय कालभिन्नत्वे सतीति विशेषणं देयम् । ईश्वरेऽतिव्याप्तिवारणाय द्रव्यगुणात्मकत्वमिति विशेष्यदलम् ।
लघुभूतधर्मभूतज्ञानस्य लक्षणमाह ‘अर्थप्रकाश’ इति । अर्थप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य लक्षणम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद -
नित्यविभूति के निरूपण के पश्चात्
अब क्रमप्राप्त धर्मभूतज्ञान का निरूपण किया जाता है ।
स्वयम्प्रकाश तथा अचेतन द्रव्य होते हुए
विषययुक्त होना
धर्मभूतज्ञान का लक्षण है ।
अथवा व्यापक होते हुए
प्रभावान् द्रव्य का गुण होना
धर्मभूतज्ञान का लक्षण है ।
अथवा विषयों के प्रकाश को ज्ञान कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० -
विशिष्टाद्वैतदर्शन में ज्ञान को
धर्मभूतज्ञान शब्द से अभिहित किया जाता है ।
उसका कारण है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है ।
ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयम् ज्ञान का आश्रय है ।
जो ज्ञान आत्मा का धर्म होता है,
उसे धर्मभूतज्ञान कहते हैं ।
इस ज्ञान के आश्रयभूत आत्मा
ज्ञानस्वरूप होने पर भी धर्मी है ।
ज्ञानस्वरूप आत्मा का ज्ञानाश्रयत्व गोबलिवर्द-न्याय से उपपन्न होता है ।
इस धर्मभूतज्ञान को ही बुद्धि, संवित्, ज्ञान तथा मति आदि शब्दों से
अभिहित किया जाता है ।

धर्मभूतज्ञान के प्रथम लक्षण की व्याख्या -
यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने ज्ञान के तीन लक्षण किये हैं ।
पहला लक्षण है—
जो स्वयम् प्रकाश तथा अचेतन होते हुए सविषय हो,
उसे धर्मभूतज्ञान कहते हैं ।
ज्ञान स्वयम्प्रकाश है,
क्योंकि वह अपने प्रकाश के लिए
किसी दूसरे प्रकाशक की अपेक्षा नहीं करता है ।
स्वयम् प्रकाश जीव तथा ईश्वर भी हैं,
इन दोनों में धर्मभूतज्ञान की अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए
उसे अचेतन कहा गया है ।
जीव तथा ईश्वर स्वयम् प्रकाश होते हुए भी
अचेतन नहीं हैं,
वे चैतन्याश्रय होने के कारण चेतन हैं ।

किन्तु विशिष्टाद्वैतियों का अभिमत है कि
नित्यविभूति स्वयम् प्रकाश तथा अचेतन दोनों हैं ।
इस नित्यविभूति में होने वाली अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए
धर्मभूतज्ञान को सविषय कहा गया है।

ज्ञान अपने से भिन्न सभी ज्ञेय पदार्थों को अपना विषय बनाता है ।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, तथा शब्द,
ये सभी विषय ज्ञान के विषय हैं ।
ज्ञान इन सबों को अपना विषय बनाता है ।
नित्यविभूति किसी को अपना विषय नहीं बनाती है,
अतएव सविषयत्व पद के द्वारा ज्ञान की
नित्यविभूति में होने वाली अतिव्याप्ति का वारण होता है ।

धर्मभूतज्ञान के दूसरे लक्षण की व्याख्या -
विभु होते हुए प्रभावान् द्रव्य का गुण होना ज्ञान का दूसरा लक्षण है । यहाँ पर विभु शब्द से सभी द्रव्यों से संयोग के योग्य होना विवक्षित है । ज्ञान सभी द्रव्यो से संयोग के योग्य है । प्रभावान् द्रव्य का गुण प्रभा है । प्रभा जैसे प्रसरणशील होती है तथा घटपटादि को अपना विषय बनाती है, उसी तरह ज्ञान भी प्रसरणशील तथा सभी विषयों को अपना विषय बनाता है । प्रभा भी प्रभावान् द्रव्य का गुण है, उस प्रभा में ज्ञान की अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ज्ञान के लक्षण में ‘विभुत्वे सति’ यह विशेषण दिया गया । प्रभा प्रभावान् द्रव्य का गुण तो है किन्तु वह व्यापक नहीं है । ज्ञान को गुण बतलाकर उसे नित्य ही स्वाश्रयाश्रित बतलाया गया है । गुणस्वरूप पद से ज्ञान को अद्रव्य बतलाना अभि- प्रेत नहीं है । काल भी एक द्रव्य है तथा वह नियत रूप से परमात्माश्रित रहता है । उस काल में ज्ञान की अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ज्ञान के लक्षण में ‘ज्ञानभिन्नत्वे सति’ यह विशेषण देना चाहिए । ईश्वर विभु काल से भिन्न हैं, ईश्वर में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ज्ञान को द्रव्यगुणात्मक कहा गया है, क्योंकि ईश्वर किसी द्रव्य का गुण नहीं है ।

ज्ञान का अत्यन्त छोटा लक्षण करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि
विषयों के प्रकाशक को ज्ञान कहते हैं ।

मूलम्

१. अथ क्रमप्राप्तं धर्मभूतज्ञानं निरूप्यते । स्वयम्प्रकाशाचेतनद्रव्यत्वे सति विषयित्वं, विभुत्वे सति प्रभावद्द्रव्यगुणात्मकत्वम्, अर्थप्रकाशो बुद्धिरित्यादि तल्लक्षणम् ।

वासुदेवः

स्वयं-प्रकाशेति । ज्ञानं हि विषय-प्रकाशवेलायां स्वाश्रयस्यैवा ऽत्मनः स्वयं-प्रकाशम् । अन्य-कालान्य-पुरुषगतं तु स्मृत्यनुमानादि-विषयः संसारिणाम् । इतरेषां तु सर्वज्ञतया ऽन्यकालान्य-पुरुषगतम् अपि स्वकीयेन प्रत्यक्षेण विषयी क्रियते । तथा च भाष्यम् - ‘यत् त्व् अनुभूतेः स्वयं-प्रकाशत्वम् उक्तं, तद् विषय-प्रकाशन-वेलायां ज्ञातुर् आत्मनस् तथैव, न तु सर्वेषां सर्वदा तथैवेति नियमो ऽस्ति’ इति । अत एवा ऽऽहुः -

स्वधीविशेषं सर्वज्ञो ऽप्य् अध्यक्षयति वा न वा । आद्ये सिद्धा स्वतः सिद्धिर् अन्यत्रासर्ववेदिता ॥ ज्ञानम् अस्तीति विज्ञानं स्वात्मानं साधयेन् न वा । पूर्वत्र स्वप्रकाशत्वं सर्वासिद्धिर् अतो ऽन्यथा ।।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. तद् धर्म-भूत-ज्ञानम् ईश्वरस्य नित्यानां
सर्वदा नित्यम् एव विभु च,
बद्धानां तिरोहितम् एव,
मुक्तानाम् पूर्व-तिरोहितम् अनन्तरम् आविर्भूतम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘तदि’**ति । नित्यं सर्वदा विभु इत्यन्वयः । तिरोहितं कर्मणा सङ्कुचितम् । बन्धनिवृत्त्यनन्तरमाविर्भूतम् - असङ्कुचितं सर्वविषयावगाहि विभुः । ‘स चानन्त्याय कल्पते’ इति मुक्तौ जीवात्मनो निजधर्मभूतज्ञानत आनन्त्यश्रवणात् । दृतिः चर्मभस्त्रिका । पादः छिद्रम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

ईश्वर तथा नित्य जीवों का धर्मभूतज्ञान
सदा नित्य तथा व्यापक रहता है ।
बद्धजीवों का ज्ञान तिरोहित रहता है ।
मुक्तजीवों का ज्ञान पहले तिरोहित
तथा मुक्त होने के पश्चात् आविर्भूत होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

धर्मभूतज्ञान की स्वाभाविक नित्यता

ईश्वर तथा नित्य-मुक्त जीवों का ज्ञान सदा नित्य तथा व्यापक होता है । अर्थात् इनका ज्ञान सदा सभी विषयों को अपना विषय बनाता है । मुक्त जीवों का ज्ञान मुक्ति से पहले तो तिरोहित रहता है, किन्तु मुक्ति के पश्चात् तो उनका भी ज्ञान सर्वदा सभी विषयो को असंकुचित रूप से अपना विषय बनाने के योग्य हो जाता है । [[११८]]

किन्तु बद्ध जीवों का ज्ञान कर्मों के कारण तिरोहित रहता है, वह सर्वदा सभी विषयों को अपना विषय बनाने के योग्य नहीं रहता है । वह कर्मों के द्वारा संकुचित रहता है ।

मूलम्

२. तद्धर्मभूतज्ञानम् ईश्वरस्य नित्यानां च सर्वदा नित्यमेव विभु च । बद्धानां तिरोहितमेव । मुक्तानाम् पूर्व तिरोहितम् अनन्तरमाविर्भूतम् ।

वासुदेवः

नित्यमेवेति । तथा च श्रुतिः - ‘न विज्ञातुर् विज्ञातेर् विपरिलोपो विद्यते’ (बृ. ४।३।३०) इति । स्मृतिर् अपि -

यथा न क्रियते ज्योत्स्ना मल-प्रक्षालनान् मणेः । दोषप्रहाणान् न ज्ञानम् आत्मनः क्रियते तथा ॥ यथोदपानकरणात् क्रियते न जलाम्बरम् । सदेव नीयते व्यक्तिम् असतः संभवः कुतः ॥ तथा हेय-गुणध्वंसाद् अवबोधादयो गुणाः । प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते नित्या एवा ऽऽत्मनो हि ते ॥

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३. ननु ज्ञानस्य नित्यत्वे
“ज्ञानम् उत्पन्नं, ज्ञानं नष्टम्” इति व्यवहारः कथम्?

इति चेत्, न -
ज्ञानस्य सङ्कोच-विकासावस्थाम् आदाय तत्-सम्भवात् ।
दृतेः+++(=चर्म-पात्रस्य)+++ पादाद् यथोदकं क्षरति
तथा ज्ञानम् +++(प्रकाशवद्)+++ अपि इन्द्रिय-द्वारा निःसृत्य
अर्थेन सन्निकृष्यते ।
अहि-कुण्डलवत्+++(=फणावत्)+++ सङ्कोच-विकासौ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘तथे’**ति । बन्धावस्थायां ज्ञानं सङ्कुचितमिन्द्रियद्वारा निःसृत्य विषयेण संसृज्य तस्य प्रकाशकः भवति । तद्विषयप्रकाशकप्रसरणविशिष्टस्योत्पत्तिविनाशप्रो[[??]]गात् ज्ञानं नष्टम्, उत्पन्नमिति व्यवहारः सङ्गच्छते इत्यर्थः । अद्वैतिभिरन्तःकरणस्यैवेन्द्रियद्वारा विषयदेशं गतस्य विषयाकारा वृत्तिरङ्गीकृता । सैव चिदाभासवती वृत्तिज्ञानमुच्यते । साङ्ख्यैरपि तस्यैव ज्ञानाख्यः परिणामः स्वीकृतः । विशिष्टाद्वैतमते तु ज्ञानस्यैव मन इन्द्रियद्वारा प्रसरणेन विषयसन्निकर्ष इष्यते । ‘प्रज्ञा च तम्मात् प्रसृता पुराणी’ ‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’ (अपोहनं - विस्मृतिः, ज्ञानसङ्कोचः)

इन्द्रियाणां हि सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् ।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञादृते पादादिवोदकम् ॥

इत्यादिप्रमाणबलात् । तत्तत्सन्निकृष्टं ज्ञानं तत्तज्ज्ञानमुच्यते । सन्निकर्षस्य कादाचित्कत्वादेव घटज्ञानं जातं, नष्टमित्यादिव्यवहार इति भावः ।
**‘अही’**ति । कुण्डलभावः सर्पभावश्च यथाऽहेः सत एव सङ्कोचविकासलक्षणौ, एवं सतएव ज्ञानस्य सङ्कोचविकासावस्थे भवत इत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

यहाँ पर प्रश्न उठता है कि यदि ज्ञान नित्य है तो ज्ञान उत्पन्न हुआ,
ज्ञान विनष्ट हुआ इत्यादि व्यवहार कैसे उपपन्न होते हैं ?
तो इस शंका का समाधान यह है कि ज्ञान के संकोच तथा विकास की अवस्थाओं को ही क्रमशः ज्ञान का नाश तथा ज्ञान की उत्पत्ति कहा जाता है।
जिस प्रकार दृति ( चमड़े के थैले ) से पानी चू जाता है,
उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वार से निकलकर
ज्ञान विषयों से संबद्ध होता है ।
जिस प्रकार सर्प की फणा में संकोच और विकास होते हैं,
उसी प्रकार ज्ञान में भी संकोच और विकास होते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ज्ञान की उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ - यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि यदि ज्ञान नित्य है तो फिर उसकी उत्पत्ति तथा विनाश का व्यवहार कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि ज्ञान की संकोच एवं विकास की अवस्था को लेकर ही ज्ञान की उत्पत्ति तथा उसके विनाश का व्यवहार होता है । ज्ञान का संकोच ही उसका विनाश कहलाता है । ज्ञान का विकास ही ज्ञान की उत्पत्ति कहलाती है । जिस प्रकार मशक के छिद्र से पानी निकलता है उसी प्रकार ज्ञान इन्द्रिय रूपी छिद्रों से निकलकर विषयों से संबद्ध होता है । जिस प्रकार एक ही सर्प की फणा में संकोच एवं विकास की अवस्थाएँ देखी जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञान में भी आगन्तुक संकोच एवं विकास होते हैं ।

ज्ञान के संकोच तथा विकास रूप अवस्थाओं की सिद्धि - कहने का अभिप्राय यह है कि धर्मभूतज्ञान प्रत्येक पुरुष में रहता है तथा प्रत्येक पुरुष का ज्ञान पृथक्-पृथक् होता है । प्रत्येक पुरुष के ज्ञान का यह स्वभाव है कि वह सभी पदार्थों का ग्रहण करता है । इस प्रकार का ज्ञान का स्वभाव होने पर भी ज्ञान संसारावस्था में संकुचित रहता है, अतएव वह सभी पदार्थों का ग्रहण नहीं कर पाता है । तत् तत् कर्मों के अनुसार तत् तत् पुरुषों में ज्ञान की मात्रा अल्प एवं अधिक होती है। ज्ञान का प्रसरण इन्द्रियों के अधीन होता है । इन्द्रियाधीन प्रसार होने के कारण ही ज्ञान तत् तत् इन्द्रियों के व्यवस्थित विषयों को अपना विषय बनाता है । भिन्न-भिन्न प्रसरणों के अनुसार बुद्धि का भी भिन्न-भिन्न अभिधान होता है । प्रसरण उत्पन्न होने पर ज्ञान की उत्पत्ति कही जाती है । प्रसरण के विनष्ट होने पर बुद्धि का विनाश कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि धर्मभूतज्ञान स्वरूपतः नित्य है, फिर भी इसका प्रसार इन्द्रियसापेक्ष होता है ।

आत्मा के ज्ञान की नित्यता की सिद्धि -
जीवात्मा की बुद्धि की नित्यता का प्रतिपादन करती हुई श्रुति कहती है कि-

‘न विज्ञातुर् विज्ञातेर् विपरिलोपो विद्यते अविनाशित्वात्’ ( बृ० उ० ४।३।२३),
‘नहि द्रष्टुर् दृष्टेर् विपरिलोपो विद्यते अविनाशित्वात्’ ( वृ० उ० ४।३।३० ) ।

अर्थात्

ज्ञाता के ज्ञान का नाश नहीं होता, द्रष्टा की दृष्टि का नाश नहीं होता, क्योंकि ज्ञाता एवं द्रष्टा की आत्मा अविनाशी है ।

इस प्रकार ज्ञाता के अविनाशी होने से उसका धर्मभूतज्ञान भी अविनाशी है । जीवात्मा के ज्ञान की नित्यता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि शौनक कहते हैं-

[[११९]]

‘यथा न क्रियते ज्योत्स्ना
मल-प्रक्षालनान् मणेः ।
दोष-प्रहाणान् न ज्ञानम्
आत्मनः क्रियते तथा ॥
यथोदपान+++(←कूपादि)+++-करणात्
क्रियते न जलाम्बरम्+++(=जलावकाशप्रद आकाशः)+++ ।
सद् एव नीयते व्यक्तिम्
असतः सम्भवः कुतः ॥
तथा हेय-गुण-ध्वंसाद्
अवबोधादयो गुणाः । प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते
नित्या एवात्मनो हि ते । '

अर्थात्

जिस प्रकार मणि के मल का प्रक्षालन करने से
मणि में कोई नवीन प्रकाश नहीं उत्पन्न किया जाता,
उसी प्रकार आत्मा के दोषों को विनष्ट करने पर
आत्मा में कोई नवीन ज्ञान नहीं उत्पन्न होता है,
अपितु आत्मा का पूर्वसिद्ध ज्ञान उसी प्रकार प्रकाश में लाया जाता है,
जिस प्रकार मल-प्रक्षालन के पश्चात् मणि का पूर्वसिद्ध प्रकाश;
प्रकाश में लाया जाता है ।
जिस प्रकार जलाशय के निर्माण के द्वारा
नवीन जल एवं आकाश को उत्पन्न नहीं किया जाता है;
अपितु पूर्वसिद्ध ही आकाश और जल प्रकाश में लाए जाते हैं,
क्योंकि असत् पदार्थ की उत्पत्ति नहीं की जा सकती है ।
इसी प्रकार जीवों के दोषों को विनष्ट करने पर उनके ज्ञान इत्यादि सद्गुण प्रकाश में लाए जाते हैं,
वे उत्पन्न नहीं किये जाते, क्योंकि वे आत्मा के नित्य - सिद्ध गुण हैं ।

जीवों के ज्ञान की नित्यता का प्रतिपादन
महर्षि बादरायण के ये दो सूत्र भी करते हैं—
‘ज्ञोऽत एव’ (शा० मी० २।३।१९ ) ;
’ यावद् आत्म-भावित्वाच् च न दोषः तद्दर्शनात् ( शा० मी० २।३।३० ) ।
इन सूत्रों का अर्थ है कि
श्रुति प्रमाण से ही सिद्ध होता है कि
आत्मा ज्ञानाश्रय है ।
ज्ञान आत्मा का यावद्-आत्म-भावी-धर्म है,
अर्थात् जब तक आत्मा रहता है,
तब तक ज्ञान रहता है ।
इस प्रकार नित्य आत्मा का ज्ञान
नित्य धर्म सिद्ध होता है ।

मूलम्

३. ननु ज्ञानस्य नित्यत्वे “ज्ञानमुत्पन्नं, ज्ञानं नष्टम्” इति व्यवहारः कथम्? इति चेत्, न । ज्ञानस्य सङ्कोचविकासावस्थामादाय तत्सम्भवात् । दृतेः पादाद् यथा उदकं क्षरति तथा ज्ञानमपि इन्द्रियद्वारा निःसृत्य अर्थेन सन्निकृष्यते । अहि- कुण्डलवत् सङ्कोचविकासौ।

वासुदेवः

इन्द्रिय-द्वारेति । एतद्-अर्थम् एव हि ज्ञानस्येन्द्रियापेक्षा । एतेन ज्ञानस्य नित्यत्वेनोत्पत्त्य भावात् तस्येन्द्रियापेक्षत्वम् एव स्याद् इत्य् आस्तम् । निःसृत्येति । निःसरणं चैतत् - ‘प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी’ (श्वे. ४।१८) इति श्रुति-स्वर-ससिद्धम् । नन्व् आकाशवद् अमूर्तत्वाद् गुणत्वाच् च ज्ञानस्य कथं क्रियावत्त्वम् इति चेत् । किम् इदम् अमूर्तत्वम् । क्रिया-रहितत्वम् इति चेद्, अन्योन्याश्रयः । स्पर्श-रहितत्वम् इति चेद् व्यभिचरितो हेतुः । स्पर्श-रहिते ऽपि शब्दे क्रिया-दर्शनात् । स खलु शङ्ख-मुखादेर् दवीयसो ऽपि देशान् नोदन-विशेषेण लोष्टादिरिव यावद्-वेगं प्रतिष्ठते । ज्ञानस्य गुणत्वे ऽपि द्रव्यत्वस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात् क्रियावत्त्वम् अविरुद्धम् । एतेना ऽत्मधर्म-भूतज्ञानस्य स्वाश्रयाद् अन्यत्र कथं गमनम् इति परास्तम् ।

[[११७]]