०३ दिव्यत्व-प्रतिपादनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. मुक्तानां शरीरपरिग्रहस् तु
वसन्तोत्सव-वेष-परिग्रहादिवत्
स्वामिनः कैङ्कर्यम् एव।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - जैसे वसन्तोत्सव में लोग अपना वेष परिग्रह करते हैं,
वैसे ही अपने स्वामी श्रीभगवान् की प्रसन्नता के लिए
मुक्तजीव शरीरों को धारण करते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - छान्दोग्योपनिषद् में मुक्तजीवों के शरीर धारणादि का वर्णन है ।
किन्तु मुक्तजीवों द्वारा शरीरादि का धारण कर्मजन्य नहीं है ।
श्रीभगवान् की प्रसन्नता के लिए मुक्तजीव भी
तत् तत् शरीरों को धारण करते हैं ।
वसन्तोत्सव काल में जिस प्रकार लोग मनोरंजनार्थ तत्-तत् वेषों को धारण करते हैं,
उसी प्रकार मुक्त- जीव भी अपनी इच्छा से तत् तत् शरीरों को धारण करते हैं ।

मूलम्

६. मुक्तानां शरीरपरिग्रहस्तु वसन्तोत्सववेषपरिग्रहादिवत् स्वामिनः कैङ्कर्यमेव।

वासुदेवः

कैंकर्यम् एवेति । नित्य-मुक्तानां शरीरादि-परिग्रहो भगवद्-अभिमततत् कैंकर्य-रूप-भोगाय भगवतो ऽपि स्वभोगाय स्वशेष-भूत-नित्य-मुक्तानन्दनाय मुमुक्षूपास्यत्व-सिद्धये चेत्य् उक्तत्वात् । तत्र भगवतः स्वसंकल्पाद् एव शरीरादि-परिग्रहः । नित्य-मुक्तानां तु कदाचित् परम-पुरुषमात्र-संकल्पात् कदाचित् परम-पुरुष-संकल्पानुविधायि-स्वसंकल्पाच् चेति भावः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

७. ईश्वर-शरीरस्य षाड्-गुण्यम् इति व्यवहारः
षाड्गुण्य-प्रकाशकत्वात्
नित्य-निरवद्य-निरतिशयौज्ज्वल्य-सौन्दर्य-सौगन्ध्य-सौकुमार्य-लावण्य-यौवन-मार्दवार्जवादयो
दिव्य-मङ्गल-विग्रह-गुणाः
तस्य व्यापकत्वं गीतादिषु प्रसिद्धम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘तस्ये’ ति । भगवद्रूपस्यातिमहत्त्वम् — व्यापकत्वं विश्वरूपादौ प्रसिद्धम् ।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरालं व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा

इति गीता । मुक्तस्य शरीरं नास्तीतिवचनम् ‘अशरीरवावसन्त’मित्यादि । ‘न तत्त्वान्तरव्यपदेशः’ किं तु पञ्चशक्तिमयमित्येव । प्रकृत्येकदेशवाद – प्रकृतेरेकदेश एव नित्योद्रिक्तसत्त्वकः नित्यानुद्भूतरजस्तमस्को विशुद्धसत्त्वशब्दित इति यादवप्रकाशादीनां वादः ।

शिवप्रसादः (हिं)

ईश्वर के शरीर के षाड्गुण्य का प्रकाशन शुद्धसत्त्व करता है, अतएव नित्यविभूति को षाड्- गुण्य भी कहा जाता है । शाश्वतिक दोषरहित एवं सीमातीत औज्वल्य, सौन्दर्य, सौगन्ध्य, सौकुमार्य, लावण्य, यौवन, मार्दव तथा आर्जव आदि श्रीभगवान् के दिव्य- मङ्गलविग्रह के गुण हैं । श्रीभगवान् के दिव्य मङ्गलविग्रह की व्यापकता गीता आदि में बतलायी गयी है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

श्रीभगवान् ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य वीर्य एवं तेज, इन गुणों के आश्रय हैं ।
महर्षि पराशर कहते हैं-

‘ज्ञानशक्तिबलैश्वर्य-वीर्यतेजांस्यशेषतः । भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर् गुणादिभिः ॥’ (वि० पु० ६।५।७९ )

[[१०९]]

अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण बल, सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण वीर्य तथा सम्पूर्ण तेज, ये सभी भगवत् शब्द के व्राच्य हैं । श्रीभगवान् के शरीर के इन छः गुणों का प्रकाशन नित्यविभूति करती है, अतएव शुद्धसत्त्व को षाड्गुण्य शब्द से अभिहित किया जाता है। श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह दिव्य गुणों से सम्पन्न हैं ।

श्रीभगवान् के कुछ दिव्य गुण

१. औज्ज्वल्य - देदीप्यमानता । श्रीभगवान् का दिव्यमङ्गलविग्रह इसी गुण के कारण सदा देदीप्यमान रहता है । श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह के औज्ज्वल्य का वर्णन करते हुए श्रीयामुनाचार्य स्तोत्ररत्न में कहते हैं-

स्फुरत्-किरीटाङ्गद-हार-कण्ठिका-
मणीन्द्र-काञ्ची-गुण-नूपुरादिभिः ।
रथाङ्ग-शङ्खासि-गदा-धनुर्-वरैर्
लसत्-तुलस्या वनमालयोज्ज्वलम् ॥ ३६॥
(स्तो० २० ३६ )

अर्थात् श्रीभगवान् का दिव्यमङ्गल विग्रह चमकते हुए किरीट, वाजूबन्द, हार, कंठा, कौस्तुभमणि, करधनी, नूपुरादि आभूषणों तथा चक्र, शंख, कृपाण ( नन्दक ), गदा ( कौमोदकी ), धनुष ( शाङ्ग ) आदि आयुधों तथा तुलसी एवं वनमाला से देदीप्यमान है ।

२. सौन्दर्य - श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह का सौन्दर्य अत्यन्त प्रख्यात है ।
श्रीभगवान् के सौन्दर्य का वर्णन करती हुई छान्दोग्य श्रुति कहती है- ‘आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः’ ( छा० १/५/६ ) । अर्थात् श्रीभगवान् का नख से लेकर शिखा- पर्यन्त सम्पूर्ण अङ्ग मनोहर है । उनके नेत्रों का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है- ‘तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेव मक्षिणी’ ( छा० उ० १/५/७ ) । अर्थात् श्रीभगवान् के कमल के सदृश मनोहर नेत्र हैं। रामानुजाचार्य कप्यास श्रुति के अर्थ का वर्णन करते हुए कहते हैं- ‘गम्भीराम्भस्समुद्भूतसुमृष्टनाल र विकर विकसित पुण्डरीकदलामलयते क्षणः ।’ अर्थात् श्रीभगवान् के गम्भीर जल में उद्भुत पुष्ट नाल पर सूर्य की किरणों के द्वारा विकसित कमल-दल के समान मनोज्ञ एवं विशाल नेत्र है ( वेदार्थसंग्रह ) । श्रीयामुनाचार्य स्तोत्ररत्न में श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं-

प्रबुद्ध-मुग्धाम्बुज-चारु-लोचनं
स-विभ्रम-भ्रू-लतम् उज्ज्वलाधरम् ।
शुचि-स्मितं कोमल-गण्डम् उन्नसं
ललाट-पर्यन्त-विलम्बितालकम् ॥ ३५॥
(स्तो० र० ३५ )

अर्थात् श्रीभगवान् के नेत्र विकसित मनोहर कमल के समान हैं, भौंहें अत्यन्त कमनीय, विद्रुम से भी अधिक देदीप्यमान ओष्ठ हैं। उनका मनोहर मुसकान, कोमल गाल, उठी हुई नाक तथा ललाट- पर्यन्त लटकते हुए घुंघराले, काले कुन्तल हैं ।

३. सौगन्ध्य – उनके दिव्यमङ्गलविग्रह से सर्वदा सुगन्धि निकलती रहती है ।

४. सौकुमार्य – श्रीभगवान् के दिव्य मङ्गलविग्रह की सौकुमार्यं भव्य शोभा का वर्णन करते हुए उन्हें अतसीकुसुमसच्छाय कहा गया है ।

५. लावण्य – लावण्य उस शोभा-विशेष का नाम है, जो सुन्दर से भी सुन्दर वस्तु का गुण अपने दर्शकों को आकृष्ट कर लेता है ।

[[११०]]

६. यौवन - श्रीभगवान् के शरीर में यौवन हमेशा वना रहता है ।

७. मार्दव - उपर्युक्त सभी गुणों के साथ-साथ श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह में मार्दव अपनी चरमसीमा पर बना रहता है ।

८. आर्जव - ऋजुता के भाव को आर्जव कहते हैं ।

ये सभी गुण श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह में अपनी पूर्ण दिव्यता के साथ सर्वदा रहते हैं । ये सभी गुण श्रीभगवान् के दिव्यमङ्गलविग्रह में सीमातीत रूप से विराजमान रहते हैं ।

श्रीभगवान् के दिव्य रूप की व्यापकता -
गीता का दसवीं एवं ग्यारहवाँ अध्याय, अन्तर्यामी ब्राह्मण, सुबालोपनिषद् आदि में विस्तार के साथ वर्णित हैं ।

मूलम्

७. ईश्वरशरीरस्य षाड्गुण्यमिति व्यवहारः पाड्गुण्यप्रकाशकत्वात्। नित्यनिरवद्य- निरतिशयौज्ज्वल्यसौन्दर्यसौगन्ध्यसौकुमार्यलावण्ययौवनमार्दवार्जवादयो दिव्य-मङ्गलविग्रहगुणाः । तस्य व्यापकत्वं गीतादिषु प्रसिद्धम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

८. मुक्तस्य शरीरादिकं नास्तीति वचनं तु
कर्म-कृत-शरीराभाव-परम् ।
तत्रत्येन्द्रियाणां नित्यत्वात्,
अत एव कार्य-कारण-भावाभावात्,
प्राकृतवन् न तत्त्वान्तर-व्यपदेशः+++(=??-)+++ ।

शिवप्रसादः (हिं)

मुक्तजीवों का शरीर नहीं होता है;
इस कथन का अभिप्राय यह है कि उनका कर्मजन्य शरीर नहीं होता ।

नित्यविभूति की इन्द्रियाँ नित्य होती है,
अतएव उनमें कार्यकारणभाव का अभाव होने के कारण
प्राकृत इन्द्रियों को[[??]] उन्हें तत्त्वान्तर नहीं बतलाया गया है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

‘अशरीरं वावसन्तं न प्रियाप्रियेऽस्पृशतः ।’ इत्यादि श्रुतियों में
बतलाया गया है कि
मुक्तजीवों का शरीर से संबन्ध छूट जाता है,
अत एव वे जागतिक सुख-दुःखों के आस्पद नहीं बनते हैं ।
शरीर के संबन्ध से युक्त जीव के सुख-दुःख आदि का अपहान नहीं होता । इन सभी कथनों का अभिप्राय यह है कि मुक्तजीवों का प्राकृत शरीर से संबन्ध छूट जाता है ।
लीलाविभूति को पार करने पर अमानव का स्पर्श होते ही उसका दिव्य शरीर हो जाता है और उस दिव्य शरीर से ही
‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता।’
इस श्रुति में प्रोक्त वह ब्राह्मसुखों का अनुभव करते हुए सर्वलोक-संच- रण में समर्थ होता है ।
वैकुण्ठलोक में रहने वाले मुक्तजीवों की इन्द्रियाँ भी नित्य तथा दिव्य होती हैं ।
अतएव उनको तत्त्वान्तर न बतलाकर पञ्चशक्तिमय कहा गया है ।+++(5)+++

मूलम्

८. मुक्तस्य शरीरादिकं नास्तीति वचनं तु कर्मकृतशरीराभावपरम् । तत्रत्येन्द्रियाणां नित्यत्वात्, अत एव कार्यकारणभावाभावात् प्राकृतवन्न तत्त्वान्तरव्यपदेशः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

९. एतेन तत्र शरीरादिकं नास्तीति मत-निरासः ।

‘तमसः परस्तात्’ इत्य् उक्त्वा
प्रकृत्य्-एक-देश-वादि-मत-निरासः ।

अ-प्राकृत–शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धाश्रयत्वात्
आकाशादि-व्यावृत्तिः ।

ज्ञानात्मकत्व-प्रतिपादनात् जडत्व-मत-निरासः ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘अप्राकृते’**ति । ‘सर्वगन्धः सर्वरसः’ (छा०) इत्यादिप्रमाणबलतः । अस्त्रभूषणाध्यायो विष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे । ‘पुरुषस्य कौस्तुभाकारत्व’मिति । पुरुषतत्त्वाभिमानी कौस्तुभमणिर्भगवत उरसि लसतीत्यर्थः । एवमग्रेऽपि बोध्यम् ।

समस्ताश्शक्तयश्चैता नृप यत्र प्रतिष्ठिताः ।
तद्विश्वरूपवैरूप्यं रूपमन्यद्धरेर्महत् ॥ (वि० पु०)

इति च भगवद्दिव्यमङ्गलविग्रहस्य शक्तिशब्दितं प्रकृतिपुरुषाद्याश्रयत्वमुक्तम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

इस प्रतिपादन से नित्यविभूति में
शरीर का अभाव प्रतिपादित करने वालों के मत का निरास हो गया ।

नित्यविभूति को तमोगुण से परे कहा गया है,
अतएव नित्यविभूति को प्रकृति का एक अंश मानने वालों के मत का खण्डन हो गया ।

नित्यविभूति आकाश+++(आदि)+++ से भिन्न तत्त्व है,
क्योंकि वह दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध का आश्रय है ।

नित्यविभूति को जड़ मानने वालों के मत का खण्डन इसलिए हो गया कि वह ज्ञानात्मक है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

नित्यविभूति को विभिन्न दार्शनिकों ने प्रकृति का एक अंश वतलाकर
उसे नित्योद्विक्त-सत्त्वगुणसम्पन्न माना है।
उनके अनुसार नित्यविभूति में कभी भी सत्त्वगुण रजोगुण एवं तमोगुण से अभिभूत नहीं होता ।
अतएव उसे शुद्धसत्त्वसम्पन्न कहा गया है ।

किन्तु उन विचारकों का उक्त कथन इसलिए अनुचित है कि
‘आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्’ श्रुति
प्रकृति के ऊपर आदित्य के समान वर्णयुक्त दिव्यमङ्गल- विग्रह से सम्पन्न भगवान् का प्रतिपादन करती है।
इससे शुद्धसत्त्वमय नित्यविभूति के अन्तर्गत भगवद्-विग्रह सिद्ध होता है ।

‘क्षयन्तम् अस्य रजसः पराके’ श्रुति कहती है कि
रजोगुणयुक्त प्रकृति से ऊपर
नित्यविभूति में श्रीभगवान् निवास करते हैं ।

‘योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन्’ श्रुति कहती है कि
इस जगत् के स्वामी परमात्मा परमाकाश में रहते हैं ।

‘तदक्षरे परमे व्योमन्’ श्रुति कहती है कि
परमात्मा अविनाशी परमाकाश में रहता है ।
यह परमाकाश ही नित्यविभूति है ।

इन वाक्यों से स्पष्ट है कि नित्य-विभूति प्रकृति से ऊपर है,
वह प्रकृति का एकदेश नहीं है।

नित्यविभूति आकाश से भिन्न इसलिए है कि
वह दिव्य रस, रूप, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द का आश्रय है ।
इस भौतिक आकाश के गुण प्राकृतिक हैं ।
नित्यविभूति को कुछ लोग जड़ मानते हैं,
किन्तु वह जड़ इसलिए नहीं है कि वह ज्ञानमय है ।
कहा भी गया है-

[[1]]

‘तत्रानन्दमया लोका
भोगाश् चानन्दलक्षणाः ।
आनन्दं नाम ते लोकं
परमानन्द-लक्षणम् ॥

तयोर् नौ+++(=??)+++ परमं व्योम
निर्द्वन्द्वं सुखमुत्तमम् ।
षाड्गुण्य-प्रसरो नित्य-
स्वच्छन्दाद् देशतां गतः ॥’

[[१११]]

अर्थात्

नित्यविभूति में आनन्दमय लोक और आनन्दात्मक भोग हैं ।
आनन्द नामक वह नित्यविभूति परमानन्दस्वरूप है ।
हम दोनों ( लक्ष्मी एवं नारायण ) के लिए परमाकाश नित्यविभूति
निर्द्वन्द्व उत्तम सुखस्वरूप है ।
ज्ञान, शक्ति आदि छः गुणों का प्रसर ही
श्रीभगवान् की नित्य स्वेच्छा से
देशरूपता को प्राप्त हुआ है ।

इन वचनों से नित्यविभूति आनन्दस्वरूप सिद्ध होती है ।
अनुकूल ज्ञान ही आनन्द कहलाता है,
अतएव नित्यविभूति ज्ञानमय सिद्ध होती है ।
फलतः उसे जड़ नहीं कहा जा सकता है ।
जड़ पदार्थ वह होता है,
जो परप्रकाश होता है ।
ज्ञानात्मक नित्यविभूति स्वप्रकाश है,
अतएव वह अजड़ है ।

मूलम्

९. एतेन तत्र शरीरादिकं नास्तीति मतनिरासः । ‘तमसः परस्तात्’ इत्युक्त्वा प्रकृत्येकदेशवादिमतनिरासः । अप्राकृतशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्रयत्वात् आकाशा-दिव्यावृत्तिः । ज्ञानात्मकत्वप्रतिपादनात् जडत्वमतनिरासः ।

वासुदेवः

ज्ञानात्मकत्वेति । ज्ञानात्मकत्वं चात्र स्वयं-प्रकाशत्वम् एवेति न्याय-सिद्धाञ्जनम् ।