विश्वास-प्रस्तुतिः
३. सा विभूतिर् ईश्वरस्य नित्यानाम् मुक्तानां च
ईश्वर-सङ्कल्पात् भोग्य-भोगोपकरण–भोग-स्थान–रूपा च भवति ।
भोग्यम् ईश्वर-शरीरादि ।
भोगोपकरणानि चन्दन-कुसुम-वस्त्र-भूषणायुधादीनि ।
भोग-स्थानानि तु पुर–गो-पुर–प्राकार-मण्डप-विमानोद्यान-पद्मिन्य्-आदीनि ।
अण्णङ्गराचार्यः
मुक्तानामिति । केवलभगवत्सङ्कल्पात्, क्वचित् क्वचित् भगवत्सङ्कल्पानुविधायिस्वसङ्कल्पाच्च मुक्तानां शरीरादीनि भवन्ति । ‘स एकधा भवति [[??]] त्रिधा भवति’ ‘स यदि पितृलोककामः’ (छा०) इत्यादिप्रमाणबलात् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - परमात्मा के सत्यसंकल्प के द्वारा नित्यविभूति ईश्वर – नित्य जीव एवं मुक्त जीवों का भोग्य, भोगोपकरण तथा भोगस्थान बन जाती है । ईश्वर के शरीर आदि भोज्य पदार्थ हैं। चन्दन, कुसुम, वस्त्र, भूषण तथा आयुध आदि भोग के साधन हैं । गोपूर, प्राकार, मण्डप, विमान, उद्यान तथा कमलिनी आदि भोग के स्थान हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
नित्यविभूति का भोग्यत्व
मा० प्र० - [[१०७]] नित्यविभूति में ईश्वर, नित्य जीव एवं मुक्त जीवों का निवास है । यह नित्यविभूति परमात्मा के सत्यसंकल्प से उपर्युक्त तीनों का भोग्य, भोगोपकरण तथा भोगस्थान होती है ।
मूलम्
३. सा विभूतिरीश्वरस्य नित्यानाम् मुक्तानां च ईश्वरसङ्कल्पात् भोग्यभोगोपकरणभोगस्थानरूपा च भवति । भोग्यमीश्वरशरीरादि । भोगोपकरणानि चन्दन-कुसुमवस्त्रभूषणायुधादीनि । भोगस्थानानि तु पुरगोपुरप्राकारमण्डपविमानोद्यान-पद्मिन्यादीनि ।
वासुदेवः
भोग्येति । इयं च नित्यमुक्तेश्वराणाम् इच्छानुरूप-शरीरेन्द्रिय-प्राण-विषय-रूपेणावतिष्ठते ।
इन्द्रियच्छिद्र-विधुरा द्योत-मानाश् च सर्वशः ।
इति वचनं तु कर्म-कृतेन्द्रियाभाव-परम् । ‘अशरीरं वाव सन्तम्’ (छा० ८।१२।१) इत्यादिषु कर्म-कृत-शरीरादि-प्रतिषेधवत् । तत्र कानिचिच् छरीराणि नित्यादीनाम् ईश्वरस्य च नित्येच्छापरिग्रहान् नित्यानि । कानिचिद् अनित्येच्छा-परिग्रहाद् अनित्यानि । मुक्ताश् च कदाचिद् अशरीराः कदाचिच् च सशरीरा इति भाष्यम् । इन्द्रियाणि तु तत्रत्यानि सर्वाण्य् अपि नित्यानि । तत्र व्योमादिवद् एवोपादान-निरपेक्षत्वात् । तत्र कानिचिन् नित्यैर् ईश्वरेण च नित्य-परिगृहीतानि । मुक्तानां तु तत्-परिग्रहः शरीरवत् कादाचित्क एवेति बोध्यम् । नित्य-विभूतिर् अपि त्रिगुणवच् चतुर्विंशति-तत्त्वात्मिका । किम् त्व् एषां तत्त्वानां न प्रकृति-विकृति-भावः । दिव्य-मङ्गल-विग्रहाद् नित्यत्व-श्रवणाद् इति केचित् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४. तत्र ईश्वरस्य, नित्यानां च शरीराणि
भगवन्-नित्येच्छा-सिद्धानि ।
मुक्तानां -
शरीराणि, तेषाम् पित्रादि-सृष्टिः, युगपद्-अनेक-शरीर-परिग्रहा इत्य्-आदीनि
भगवत्-सङ्कल्पाद् एव भवन्ति ।
शिवप्रसादः (हिं)
ईश्वर तथा नित्य-मुक्त जीवों का शरीर श्रीभगवान् की नित्य इच्छा से बनते हैं ।
मुक्त जीवों का शरीर
उनके द्वारा अपने अतीतकालिक पितरों आदि की सृष्टि - समकाल में अनेक शरीरों को धारण करना आदि भी भगवान् के सत्यसंकल्प से ही होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
नित्यमुक्त जीवों के लिए श्रीभगवान् के श्रीविग्रह का दर्शन ही अत्यन्त भोग है
श्रीभगवान् का भी शेषादि नित्य-मुक्त जीवों का शरीर भोग्य है ।
ईश्वर तथा नित्य-मुक्त जीवों के शरीर तो
भगवान् की ईच्छा से ही तत्- तत् प्रकार के हैं ।
छान्दोग्योपनिषद् के आठवें अध्याय में बतलाया गया है कि
मुक्त जीव आविर्भूत गुणाष्टक होते हैं ।
अतएव वे अपने संकल्प मात्र से ही समकाल में अनेक शरीरों को धारण कर लेते हैं
तथा वे अपने अतीतकालिक पितृ-गणों को देखना चाहते हैं
तो वे भी अपना शरीर धारण करके उपस्थित हो जाते हैं ।+++(5)+++
मुक्त जीवों द्वारा समकाल में अनेक शरीर धारण करने की शक्ति
तथा पितृगणों की सृष्टि करने की शक्ति
श्रीभगवान् के सत्यसंकल्प के द्वारा ही होती है ।
क्योंकि मुक्त जीव जब ‘अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्’ इस प्रकार से सामाम्नान करता है
तो उस सामाम्नान को सुनकर
अपने हर्षातिरेक को अभिव्यक्त करते हुए
श्रीभगवान् भी सामाम्नान करते हैं— ‘अहमन्नादोऽहमन्नादोऽहमन्नादः ।’
अर्थात् मैं अपने भोग्य अत्यन्त दुर्लभ इस मुक्तजीव का उपभोक्ता हूँ
और उस आये हुए अपने प्रियतम मुक्तजीव को प्रेमपूर्वक वीक्षण करके
श्रीभगवान् अपने सत्यसंकल्प से ही उससे आविर्भूत गुणाष्टक बना देते हैं ।
मूलम्
४. तत्र ईश्वरस्य नित्यानां च शरीराणि भगवन्नित्येच्छासिद्धानि । मुक्तानां शरीराणि तेषाम् पित्रादिसृष्टिः युगपदनेकशरीरपरिग्रहा इत्यादीनि भगवत्सङ्कल्पा- देव भवन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
५. भगवतो व्यूह-विभवार्चावतार-शरीराणि +अ-प्राकृतानि ।
अर्चावतारेषु प्रतिष्ठानन्तरम् प्रसादोन्मुखेश्वर-सङ्कल्पाधीनम्
अ-प्राकृतं शरीरम् अत्राविर्भवति ।+++(5)+++
प्राकृताप्राकृत-संसर्गः कथम् इति न शङ्कनीयम् -
राम-कृष्णाद्य्-अवतार-शरीरवद् इति प्रमाणानुसारेण परिहारो द्रष्टव्यः ।
अण्णङ्गराचार्यः
अर्चारूपाणामप्राकृतत्वं कथमित्यत्राह ‘अर्चावतारेषु’ इति । प्रतिष्ठाविधिना प्रसन्नो भगवान् स्वसङ्कल्पादेव स्वाप्राकृतरूपेण प्रतिष्ठितम् ताः सन्निधत्ते । ताः च स्वीयदिव्यरूपत्वेनाभिमन्यते । अतो दिव्यत्वं तेषामिति भावः । अत एव ‘तामेव ब्रह्मरूपिणीम्’ (वि० ध०) इत्युक्तम्
सर्वातिशायिषड्गुण्यं संस्थितं मन्त्रविम्बयोः ।
मन्त्रे वाच्यात्मना विम्बे कारुण्यात् समुपस्थितम् ॥ (पाञ्चरात्र)
इति वचनमत्रानुसन्धेयम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
भगवान् के व्यूह, विभव तथा अर्चावतार के जो शरीर होते हैं, वे भी दिव्य हैं ।
अर्चावतारों में प्रतिष्ठा के पश्चात् प्रसादोन्मुख भगवान् के सत्य संकल्प से अप्राकृत शरीर आविर्भूत हो जाता है ।
यहाँ पर यह शंका नहीं करना चाहिए कि प्राकृत वस्तुओं का दिव्य वस्तुओं से सम्बन्ध कैसे संभव है ?
क्योंकि जिस प्रकार श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि के शरीर दिव्य थे,
उसी प्रकार अर्घावतारों के भी शरीर दिव्य हो जाते हैं;
इस प्रमाण के अनुसार उपर्युक्त शंका का समाधान हो जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
श्रीभगवान् के सभी शरीर दिव्य होते हैं
श्रीभगवान् के व्यूह तथा विभवावतारों में होने वाले जो शरीर होते हैं, वे भी दिव्य होते हैं । व्यूह रूप से भगवान् चार शरीरों को धारण करते हैं - वासुदेव, संक- र्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध । श्रीराम, कृष्ण आदि श्रीभगवान् के विभव रूप हैं । भगवान् का पररूप का श्रीविग्रह तो दिव्य है ही ।
श्रीभगवान् का जो अर्चावतार रूप है, उस रूप में भी श्रीभगवान् का दिव्य विग्रह ही रहता है ।
यदि कोई कहे कि अर्चा- वतार में तो श्रीभगवान् की राम, कृष्ण, वेङ्कटेश आदि की मूर्तियां होती हैं । ये मूर्तियाँ पाषाण या धातु की बनी होती है ।
वे धातु और पाषाण प्राकृतिक ही होते हैं ।
पुनः उनको दिव्य बतलाना कहाँ तक उचित है ?
तो इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार श्रीराम, कृष्ण आदि के शरीर प्राकृतिक ही प्रतीत होते थे,
किन्तु वस्तुतः वे शरीर दिव्य ही थे;
यह श्रीरामायण आदि के अध्येताओं को पूर्णरूप से ज्ञात है;
उसी प्रकार प्रतिष्ठा के पश्चात् उन अर्चावतार शरीरों में भी दिव्यता आ जाती है ।
मूलम्
५. भगवतो व्यूहविभवार्चावतारशरीराणि अप्राकृतानि । अर्चावतारेषु प्रतिष्ठानन्त-रम् प्रसादोन्मुखेश्वरसङ्कल्पाधीनम् अप्राकृतं शरीरमत्राविर्भवति । प्राकृताप्राकृत- संसर्गः कथमिति न शङ्कनीयम् । रामकृष्णाद्यवतारशरीरवदिति प्रमाणानुसारेण परिहारो द्रष्टव्यः ।