विश्वास-प्रस्तुतिः
१. अथ अ-चिद्-विशेषः कालो निरूप्यते ।
कालो नाम गुण-त्रय-रहितो जड-द्रव्य-विशेषः ।
स च नित्यो विभुश् च ।
भूत-भविष्यद्-वर्तमान-भेदेन त्रि-विधः ।
युगपत्-क्षिप्र-चिरादि-व्यपदेश-हेतुः ।
निमेष-काष्ठ-कला-मुहूर्त-दिवस-पक्ष-मास-ऋत्व्-अयन-संवत्सरादि-व्यपदेश-हेतुश् च ।
अण्णरङ्गाचार्यः
॥ अथ पञ्चमावतारव्याख्या ॥
‘काल’ इति । गुणत्रयरहितजडद्रव्यत्वं कालस्य लक्षणम् । सत्त्वशून्यजडद्रव्यं काल इति लघु लक्षणं साधु ।
**‘स चे’**ति । ‘अनादिर्भगवान्कालोनान्तोऽस्य द्विज विद्यते’ (वि० पु०) इति वचनात् कालस्य नित्यत्वं सिद्धम् । उत्पत्तेः पूर्वं विनाशादनन्तरं च कालो नास्तीति वक्तुमपि न शक्यते । पूर्वानन्तरशब्दयोरपि कालवाचितया कालास्तित्वसिद्धेः । प्रकृतिमण्डले सर्वत्र कालोऽस्त्येव । ‘कालः स पचते तत्र न कालस्तत्र वै प्रभुः’ इति वचनान्नित्यविभूतावपि कालसत्ता प्रतीता । अतः कालस्य विभुत्वं सिध्यति । अत्र सर्वे प्राकृतपरिणामाः कालकृताः । तत्र तु भगवदिच्छयैवाप्राकृतपदार्थपरिणामा भवन्तीति विशेषः । उक्तं च ‘कलामुहूर्तादिमयश्च कालो न यद्बिभतेः परिणामहेतुः (वि० पु०) इति ।
**‘भूते’**ति । अतीतानागतवर्तमानभेदेन कालस्त्रिविधः । भेदश्चायमुपाधिकृतः । प्रकृतशब्दप्रयोगाधिकरणकालो वर्तमानः । प्रकृतशब्दप्रागभावाधिकरणकालोऽतीतः । प्रकृतशब्दध्वंसाधिकरणकालोऽनागत इति । केचिद्भूतभविष्यत्कालातिरिक्तं वर्तमानं नेच्छन्ति । तन्न साधु । वर्तमानैकगोचरस्य प्रत्यक्षस्य वर्तमानस्याभावेऽसम्भवात् । वर्तमानादिकालभेदावेदकलकार[[??]]भेदोपदेशाच्च त्रैकाल्यसिद्धेः । घटोऽस्तीति प्रत्यक्षेणैव वर्तमानकालसिद्धेश्च । वर्तमानावधिकभूतभविष्यत्त्वयोर्वर्तमानस्याभावेऽनिरूप्यत्वाच्च ।
**‘निमेषे’**ति । अक्षिपक्ष्मनिमेषक्रियावच्छिन्नकालो निमेषकालः । निमेषक्षणस्याधिक्येन च काष्ठादिकालविभागो विष्णुपुराणादौ [[—-??]] यथा -
निमेषो मानुषो योऽसौ मात्रा मात्राप्रमाणतः ।
तैः पञ्चदशभिः काष्ठा त्रिंशत् काष्ठाः कला स्मृता ॥
नाडिका तु प्रमाणेन सा कला दश पञ्च च ।
नाडिकाभ्यामथ द्वाभ्यां मुहूर्तो द्विजसत्तम ॥
अहोरात्रं मुहूर्तोस्तु त्रिंशत्, मासो दिनैस्तथा ।
मासैर्द्वादशभिर्वर्षमहोरात्रं तु तद्दिति ॥
इति । क्षणादिभेदः कालस्यावच्छेदकभेदात् । क्रियामात्रं जन्यमात्रं वा कालोपाधि इत्येकः पक्षः । ‘सर्वे निमेषा जज्ञिरे’ ‘कलामुहूर्तादिमयश्च कालः’ इत्यादिप्रमाणबलात् कालस्य क्षणादिपरिणामोऽस्तीति चापरः पक्षः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रकृति का निरूपण कर लेने के पश्चात् काल का निरूपण किया जा रहा है । सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण, इन तीनों गुणों से रहित जड़द्रव्य-विशेष को काल कहते हैं; यह काल का लक्षण है । वह काल नित्य तथा व्यापक द्रव्य है । वह काल भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का होता है । उस काल को ही लेकर युगपत् ( एक साथ), शीघ्र तथा देर से इत्यादि व्यपदेश होते हैं ।
काल के ही द्वारा निमेष, काष्ठा, कला, घटी, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन एवं वर्ष आदि व्यवहार होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
काल का निरूपण
भा० प्र०– काल जडद्रव्यों में अन्यतम है । तीनों गुणों से रहित होते हुए जड़द्रव्य होना काल का लक्षण है । काल का छोटा लक्षण है— सत्त्वगुण रहित होते हुए जड़द्रव्य [[१०१]] होना । महर्षि पराशर कहते हैं - हे द्विज ! यह ऐश्वर्यसम्पन्न काल अनादि तथा अनन्त है । ‘अनादिर्भगवान् कालो नान्तोऽस्य द्विज विद्यते।’ इस वाक्य से सिद्ध होता है कि काल नित्य है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि अपनी उत्पत्ति से पहले तथा विनाश के पश्चात् काल नहीं रहता है, क्योंकि पूर्व एवं पश्चात् शब्द भी काल के ही वाचक हैं । अतएव उन कालों में भी काल का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
प्रकृतिमण्डल में काल सर्वत्र रहता है ।
‘कालं स पचते तत्र न कालस्तत्र वै प्रभुः ।’
इस वाक्य के अनुसार नित्यविभूति में भी काल की सत्ता प्रतीत होती है ।
इस प्रकार काल का व्यापकत्व सिद्ध होता है ।
प्रकृतिमण्डल में सभी कार्य कालकृत होते हैं ।
दिव्य वैकुण्ठलोक में सभी दिव्य पदार्थों के परिणाम
श्रीभगवान् की इच्छा से होते हैं ।
विष्णुपुराण में कहा भी गया है -
नित्यविभूति में कला, मुहूर्त आदि उपाधियों वाला काल
श्रीभगवान् की विभूति के परिणाम का साधन नहीं बनता है ।
काल के तीन भेद बतलाए गये हैं- भूतकाल, भविष्यत्काल और वर्तमानकाल । कुछ लोग भूत एवं भविष्यत् इन दो कालों को ही मानते हैं । वे वर्तमान काल को स्वीकारना नहीं चाहते हैं । किन्तु वर्तमान काल को स्वीकार किये बिना काम नहीं चल सकता है, क्योंकि सभी प्रत्यक्ष वर्तमान काल में होते हैं, वर्तमान काल के बिना कोई भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । ‘घटः अस्ति’ इस प्रत्यक्ष के द्वारा भी वर्तमान काल की सिद्धि होती है । किञ्च भूतकाल तथा भविष्यत् काल की सीमा है वर्तमान काल । वर्तमान काल के द्वारा ही भूत एवं भविष्यत् काल का विभाग होता है, इसलिये भी वर्तमान काल को स्वीकार करना चाहिए। महर्षि पाणिनि ‘वर्तमाने लट्’ इस सूत्र के द्वारा वर्तमानकालिक लकार का उपदेश करते हैं, इसलिये भी वर्तमान काल को स्वीकार करना चाहिए ।
निमेष, कला, काष्ठा आदि के द्वारा काल के अल्प, अल्पतर, अल्पतम भेदों का व्यपदेश किया गया है ।
ये काल के भेद भी औपाधिक हैं ।
मूलम्
१. अथ अचिद्विशेषः कालो निरूप्यते । कालो नाम गुणत्रयरहितो जडद्रव्यविशेषः । स च नित्यो विभुश्च । भूतभविष्यद्वर्तमानभेदेन त्रिविधः । युगपत्क्षिप्रचिरादिव्य-पदेशहेतुः । निमेषकाष्ठकलामुहूर्तदिवसपक्षमासऋत्वयनसंवत्सरादिव्यपदेशहेतुश्च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२. मनुष्य-मानेन मासः पितॄणां दिनम् ।
तेषाम् अमावास्या तु मध्याह्नम् ।
मनुष्य-मानेन संवत्सरो देवानां दिनम् ।
तेषाम् उत्तरायणम् अहः, दक्षिणायनं रात्रिः।
एवं देव-मानेन द्वा-दश-वर्ष-सहस्र-सङ्ख्याकं चतुर्-युगम् इत्य् उच्यते ।
शिवप्रसादः (हिं)
मनुष्यों के एक माह का पितरों का एक दिन होता है । अमावास्या के दिन ही पितरों का मध्याह्न होता है । मनुष्यों के एक वर्ष का देवताओं का एक दिन होता है । उत्तरायण ही देवताओं का दिन होता है । दक्षिणायन ही देवताओं की रात्रि होती है । इस प्रकार देवताओं के प्रमाण से बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है ।
मूलम्
२. मनुष्यमानेन मासः पितॄणां दिनम् । तेषाम् अमावास्या तु मध्याह्नम् । मनुष्य- मानेन संवत्सरो देवानां दिनम् । तेषामुत्तरायणमहः । दक्षिणायनं रात्रिः। एवं देवमानेन द्वादशवर्षसहस्रसङ्ख्याकं चतुर्युगमित्युच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३. तत्र चतुःसहस्र-वर्ष-सङ्ख्याकं कृत-युगम् ।
तत्र पूर्णो धर्मः ।
त्रि-सहस्र-वर्ष-सङ्ख्याकं त्रि-पाद्-धर्मवत् त्रेता-युगम् ।
द्वि-सहस्र-वर्ष-परिमितं द्वि-पाद्-धर्मवद् द्वापरम् ।
सहस्र-वर्ष-सङ्ख्याकम् एक-पाद-धर्म-संयुक्तं कलि-युगम् । एतेषां सन्धिर् द्विसहस्र-सङ्ख्याकः ।
अण्णरङ्गाचार्यः
‘तत्र पूर्णो धर्म’ इति । कृतयुगे धर्मश्चतुष्पादित्यर्थः । चत्वारो धर्मस्य पादास्तपोध्यानं यज्ञदानानि । तेषु युगक्रमेण त्रेतादौ ह्रासो वर्णितो न्यायकुसुमाञ्जलावुदयनाचार्यैः । भागवते तु प्रकारान्तरेण वर्णितमस्ति । यथा -
तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः ।
अधमांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसङ्गमदैस्तव ।
इदानीं धर्मपादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनेधितः कलिः ॥ (स्क० १. अ० १७) इति धर्मपरीक्षित्संवादे ।
शिवप्रसादः (हिं)
उसमें चार हजार वर्षों का सत्ययुग होता है । इस युग में धर्म पूर्णरूप से रहता है। तीन हजार वर्षों का त्रेतायुग होता है । इस युग में धर्म के तीन पाद होते हैं । दो हजार वर्षों का द्वापर युग होता है । इस युग में धर्म के दो पाद रहते हैं । एक हजार वर्षों का कलियुग होता है । इस युग में धर्म एक पाद वाला रहता है। इन युगों की सन्धि दो हजार वर्षों की होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
इस प्रकार पितरों एवं देवताओं के दिन का वर्णन किया गया । चतुर्युग का वर्णन इत्यादि भी औपाधिक है । इन सबों का विस्तारपूर्वक वर्णन विष्णुपुराण आदि ग्रन्थों में किया गया है । सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग का भी वर्णन पुराणों में वर्णित है । इन युगों में धर्म को चतुष्पाद, त्रिपाद, द्विपाद एवं एकपाद इत्यादि रूप से कहा गया है । इसका कारण है कि धर्म की कल्पना एक वृषभ रूप से पुराणों में की गयी है । जिस प्रकार वृषभ के चार पैर होते हैं, उसी प्रकार सत्यरूपी वृषभ के भी चार पैर हैं - तपः, शौच, दया तथा दान । युगों के क्रमशः इन धर्म के लक्षणों का क्रमशः ह्रास होना ही धर्म रूपी वृषभ के पैरों का विनाश है । तपः, शौच, दया एवं दान-धर्म के इन चारों लक्षणों का सत्ययुग में प्रचुरतया अनुष्ठान होता है। त्रेतायुग आदि युगों में क्रम से इस धर्म के पादों का ह्रास होता जाता है । कलियुग में केवल दान मात्र अवशिष्ट रह जाता है । धर्म के अन्य लक्षणों का विलोप हो जाता है, अतएव कलियुग में धर्म एक पैर वाला रह जाता है ।
[[१०२]]
मूलम्
३. तत्र चतुःसहस्रवर्षसङ्ख्याकं कृतयुगम् । तत्र पूर्णो धर्मः । त्रिसहस्रवर्ष-सङ्ख्याकं त्रिपाद्धर्मवत् त्रेतायुगम् । द्विसहस्रवर्षपरिमितं द्विपाद्धर्मवत् द्वापरम् । सहस्रवर्षसङ्ख्याकम् एकपादधर्मसंयुक्तं कलियुगम् । एतेषां सन्धिर्द्विसहस्र-सङ्ख्याकः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४. एवं चतुर्-युग-सहस्राणि ब्रह्मणो दिवस-प्रमाणम् । एवं रात्रिर् अपि।
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह के एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है । इतनी ही बड़ी बह्मा की रात्रि होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
लीलाविभूति में ब्रह्मा का दिन, उनकी रात्रि तथा उनकी आयु ही काल की सर्वाधिक सीमा है । इसके बाद काल का कोई बड़ा विभाग नहीं किया गया है ।
मूलम्
४. एवं चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिवसप्रमाणम् । एवं रात्रिरपि।