विश्वास-प्रस्तुतिः
५९. एवम् पञ्ची-कृतानाम् भूतानाम् एवाण्डोत्पादकत्वम् ।
अण्डोत्पादनात् पूर्व-सृष्टिः समष्टि-सृष्टिः,
अनन्तर-सृष्टिर् व्यष्टि-सृष्टिः ।
शिवप्रसादः (हिं)
[[९४]] अनुवाद - उपर्युक्त प्रकार से पञ्चीकृत भूतों से ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पहले की सृष्टि को समष्टि सृष्टि कहते हैं । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से बाद की सृष्टि को व्यष्टि सृष्टि कहते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
समष्टि सृष्टि
भा० प्र० – पञ्चीकृत महाभूतों से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है; यह सिद्धान्त में माना जाता है । इस अर्थ का समर्थन विष्णुपुराण के इन वाक्यों से भी होता है-
‘नाना वीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहति विना ।
नाशक्नुवन् प्रजास्स्रष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः ॥
समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयाः ।
एकसङ्घातलक्षास्तु सम्प्राप्यैक्यमशेषतः ।
महदाद्या विशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते ॥’
कहने का अभिप्राय यह है कि पृथ्वी से लेकर महत्तत्त्व - पर्यन्त जितने तत्त्व हैं, वे भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं, जल का स्वभाव द्रवत्व है तो पृथिवी का स्वभाव काठिन्य है । इस प्रकार विभिन्न शक्ति सम्पन्न ये तत्त्व परस्पर में पूर्णरूप से ऐक्य के बिना प्रजा की सृष्टि करने में असमर्थ रहते हैं । महत्तत्त्व से लेकर पृथिवी तत्व - पर्यन्त ये सभी तत्त्व एक संघात अर्थात् ब्रह्माण्ड के निर्माण को लक्ष्य में रखते हुए, परस्पर संयोग को प्राप्त हुए, एक-दूसरे के आश्रित हो पूर्णरूप से ऐक्य को प्राप्तकर उपर्युक्त [[९५]] तत्त्व ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं ।
सृष्टि दो प्रकार की होती है— समष्टि सृष्टि और व्यष्टि सृष्टि । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व की सृष्टि समष्टि सृष्टि कहलाती है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पश्चात् होने वाली सृष्टि को व्यष्टि सृष्टि कहते हैं ।
मूलम्
५९. एवम् पञ्चीकृतानाम् भूतानामेवाण्डोत्पादकत्वम् । अण्डोत्पादनात् पूर्वसृष्टिः समष्टिसृष्टिः, अनन्तरसृष्टिर्व्यष्टिसृष्टिः ।
वासुदेवः
पञ्चीकृतानाम् इति । तद् उक्तं विष्णु-पुराणे -
नाना-वीर्याः पृथग्-भूतास् ततस् ते संहतिं विना ।
न अशक्नुवन् प्रजाः स्रष्टुम् असमागम्य कृत्स्नशः ॥
इति ।
ततश् च यथा कश्चिन् मृज्-जलादीन् मेलयित्वैकं द्रव्यं कृत्वा भित्तिं करोति तथैश्वर एतत् सर्वं मेलयित्वा तैर् एकम् अण्डं सृजतीति भावः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
६०. महद्-आदीनाम् उत्पत्तिर् नाम
तालीय-पलाश+++(=पर्ण)+++-ताटङ्क+++(=कुण्डल)+++-न्यायेन +अवस्थान्तरापत्तिर् एव +++(न पदार्थान्तर-सृष्टिः)+++ -
सेना-वन-राश्य्-आदि-व्यवहारवत् +++(→क्रोडीकरणम् इव)+++ ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘उत्पत्ति’**रिति । तार्किकमतवन् नासत उत्पत्तिः सिद्धान्ते मता, किं त्ववस्थान्तरापत्तिः सतः ।
**‘सेने’**ति । सेनावनादौ तैरपि अवस्थाविशेषातिरिक्तं द्रव्यान्तरं नाङ्गीकृतमित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
जिस प्रकार ताल के पत्ते को ताटङ्क इत्यादि के रूप में परिणत कर दिया जाता है ।
वह भिन्न-भिन आकार में परिणत तालपत्र ही रहता है, उसी प्रकार महदादि की उत्पत्ति होती है ।
महदादि के रूप में प्रकृति ही परिणत होती है ।
जिस प्रकार सेना, वन, राशि आदि के व्यवहार-स्थल में
कारण द्रव्य ही अवस्थान्तर को प्राप्त कर कार्य बन जाते हैं,
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
प्रकृति से जो महत् आदि तत्वों की सृष्टि होती है,
वह अवस्थान्तरप्राप्ति रूपा सृष्टि है ।
उसमें कार्य-कारण का जो अभिधान होता है,
वह बुद्धि-भेद के कारण
अथवा कालभेद के कारण होता है ।
जैसे— एक ही ताड़ के पत्ते को भिन्न प्रकार से मोड़ देते हैं
तो वह कंकण एवं ताटंक का रूप धारण कर लेता हैं ।
ताल-पत्र को उसका कारण
तथा ताटंक आदि को तालपत्र का कार्य कहा जाता है ।
वह इसलिए क्योंकि ताटंकावस्था से अव्यवहित पूर्वकाल में वह तालपत्र था ।
पूर्व की अवस्था तालपत्रावस्था को छोड़कर
वह पश्चात् भावी ताटंकावस्था को प्राप्त कर लिया ।
कार्य- लक्षण
कारणावस्था में रहनेवाला द्रव्य
जब अपनी पूर्वावस्था को छोड़कर
उससे भिन्न एक विसजातीयावस्था को धारण कर लेता है
तो वह कार्य कहलाने लगता है ।
नैयायिक इत्यादि कहते हैं कि
यदि पूर्वकालिक वस्तु ही उत्तरकालिक रूप को धारण कर लेगा
तो उसमें जातिसंकर होगा ।
क्योंकि उसमें पूर्वावस्था में विद्यमान जाति के साथ-साथ
इस नवीनावस्था की भी जाति होगी ।
अतएव प्रश्न होगा कि
उसकी कौन- सी जाति मानी जाय ?
अतएव यही मानना उचित लगता है कि
कार्य के रूप में एक नया ही पदार्थ उत्पन्न हो जाता है ।
नैयायिकों की इस शंका का समाधान करते हुए
यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं कि
नैयायिक भी सेना, वन तथा राशि स्थलों में नवीन अवयवी द्रव्य न स्वीकार करके
अवस्थान्तरापत्ति रूप ही कार्यकारणभाव मानते हैं ।
अनेक सैनिकों का समूह ही सेना शब्द से अभिहित किया जाता है ।
वहाँ कोई दूसरा द्रव्य नहीं होता,
अपितु सैनिक अपनी एकत्वावस्था को छोड़कर अनेकत्वावस्था को प्राप्त कर लेते हैं ।
ऐसे ही एक वृक्ष वृक्ष कहलाता है,
किन्तु अनेक वृक्ष वन शब्द से अभिहित किये जाते हैं ।
ऐसे ही एक धान धान कहलाता है,
किन्तु धान का समूह धानराशि कहलाता है ।
अतएव अवस्थान्तरापत्ति रूप ही
कार्यकारणभाव मानना चाहिए ।
कार्यरूप से कोई नवीन पदार्थ उत्पन्न होता हो, ऐसी बात नहीं है ।
मूलम्
६०. महदादीनामुत्पत्तिर्नाम तालीयपलाशताटङ्कन्यायेन अवस्थान्तरापत्तिरेव । सेनावनराश्यादिव्यवहारवत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
६१. पूर्वापरावस्था-विशेष-सम्बन्ध-मात्रेण कार्य-कारण-भेद-व्यवहारः ।
तत्र पूर्वावस्था-प्रहाणेन विजातीयावस्थान्तर-प्राप्तौ
तत्त्वान्तर-व्यपदेशः पृथिवी-पर्यन्त एव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘कार्ये’**ति । पूर्वावस्थ[[??]]कारणम्, उत्तरावस्थं तदेव द्रव्यं कार्यम् इति सक्तार्यवादसिद्धान्ते । ‘तत्त्वान्तरव्यपदेश’ इति । पाञ्चभौतिकानां पदार्थानां पञ्चभूनेष्वन्तर्भावान्न तत्वान्तरत्वम् । पृथिव्युत्पत्तिध्वंसप्राक्कालिकोत्पत्तिस्थित्यन्यतरकेष्वेव द्रव्येषु तत्त्वमिति व्यपदेशः । अतः प्रकृतिप्राकृतान्याहत्य चतुर्विंशतिस्तत्वानीत्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
यही कारणकार्य- भाव माना जाता है,
उसी प्रकार प्रकृति, महान् आदि में कारणकार्यभाव
पूर्वावस्था के परित्यागपूर्वक
विसजातीय अवस्था की प्राप्ति को ही लेकर
पृथिवी - पर्यन्त तत्त्वान्तर का व्यपदेश होता है ।
मूलम्
६१. पूर्वापरावस्थाविशेषसम्बन्धमात्रेण कार्यकारणभेदव्यवहारः । तत्र पूर्वावस्था-प्रहाणेन विजातीयावस्थान्तरप्राप्तौ तत्त्वान्तरव्यपदेशः पृथिवीपर्यन्त एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
६२. इत्थम् प्रकृति-महद्-अहङ्कारैकादशेन्द्रिय–तन्-मात्र-पञ्चक–भूत-पञ्चक–विभागेन चतुर्-विंशति-तत्त्वानि वर्णितानि ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार प्रकृति, महान्, अहङ्कार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चतन्मा- त्राएँ तथा पञ्चमहाभूत इस विभाग के अनुसार चौबीस तत्त्वों का वर्णन किया गया ।
मूलम्
६२. इत्थम् प्रकृतिमहदहङ्कारैकादशेन्द्रियतन्मात्रपञ्चकभूतपञ्चकविभागेन चतुर्विंशति तत्त्वानि वर्णितानि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
६३. एतेन न्यूनाधिक-सङ्ख्यातत्व-वादिनो बाह्याः पाशुपताश् च निरस्ताः ।
परमाणु-कारणत्व-वादिनोऽपि निरस्ताः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘एतेने’**ति । सतपदार्थी काणादे तन्त्रे । षोडशपदार्थवादोऽक्षपादीयानाम् । षट्त्रिंशत्तत्ववादः शैवानाम् । एतेषां निरासो न्यायसिद्धाञ्जनादौ द्रष्टव्यः । परमाणुकारणवादिनः - काणादा बौद्धा आर्हताश्च । ब्रह्ममीमांसायामेतद्वादनिरासः कृतः । स्वतन्त्रप्रकृतिकारणत्वपक्षः कापिलानामपि तत्रैव प्रतिक्षिप्तः ॥
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार चौबीस से अधिक अथवा कम तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाले बाह्यों तथा पाशुपतों के मत का खण्डन हो गया । परमाणु को ही जगत् का कारण बतलाने वालों के भी मत का खण्डन हो गया ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
विशिष्टाद्वैत दर्शन में चौबीस तत्त्व स्वीकार किये जाते हैं, अतएव चौबीस से अधिक तत्त्वों की संख्या बतलाने वाले पाशुपतों का
तथा उससे कम तत्त्वों की संख्या बतलाने वाले बाह्यों का मत अनादरणीय है ।
वैशेषिक सात पदार्थों को मानते हैं ।
नैयायिक सोलह पदार्थों को मानते हैं
तथा पाशुपत छत्तीस तत्त्व मानते हैं ।
इन सभी वादियों के मत का खण्डन उपर्युक्त प्रतिपादन से हो गया ।
इस प्रकार वैशेषिक, बौद्ध तथा जैन परमाणु को ही जगत् का कारण मानते हैं, उनके भी मत का खण्डन समझना चाहिए ।
[[९६]]
मूलम्
६३. एतेन न्यूनाधिकसङ्ख्यातत्ववादिनो बाह्याः पाशुपताश्च निरस्ताः । परमाणु- कारणत्ववादिनोऽपि निरस्ताः ।
वासुदेवः
न्यूनाधिकेति । शून्यम् एव तत्त्वम् इति शून्य-वादिनो बौद्धाः । अशेष-विशेष-प्रत्यनीकं चिन्-मात्रं ब्रह्मैकम् एव तत्त्वम् इति माया-वादिनः । स्वतन्त्रास्वतन्त्र-भेदेन द्विविधं तत्त्वम् इति पूर्ण-प्रज्ञाचार्याः । पृथिव्य्-आदीनि चत्वारि भूतानि तत्त्वानीति चार्वाकाः । प्रकृत्य्-आदीनि चतुर्विंशति-संख्याकानि तत्त्वानि जीवेन सह पञ्चविंशतिर् इति निरीश्वर-सांख्याः । ईश्वरेण सह षड्विंशतिर् इति सेश्वर-सांख्याः । एते सर्वे निरस्ता इत्य् अर्थः । पाशुपत-मतं च सर्व-दर्शन-संग्रहाद् अवसेयम् । परमाणु-कारणत्वेति । नैयायिकाः परमाणूनाम् उपादान-कारणत्वं वदन्ति । तत्र किं परमाणवः सावयवा निरवयवा वा । आद्ये तेषाम् अप्य् अवयवानां सावयवत्वम् इत्य् अनवस्था अन्त्ये परमाणूनां मिथः संयोग एव न संभवति । संयोगो हि किञ्चिद्-अंशावच्छेदेनैव भवति । इतरथा सर्वेषु परमाणुष्व् एक-परमाणु-प्रदेश-मात्र-अवस्थितेषु स्वाधिक-देश-व्यापि-कार्यारम्भो न स्यात् । अवयवास्पृष्टे प्रदेशे ऽवयविनः स्थितेर् अदर्शनात् । न चावयव-नाशाद् अवयवि-नाशे क्षणम् अनाधारो ऽवयवीति वाच्यम् । तथा कल्पनायाम् अपि पूर्वं तन्तु-संधानवच्छिन्न-प्रदेशे पटस्य वृत्तेर् अकल्पनात् । तथा च द्व्यणुकाद्य्-आरम्भानुपपत्तौ मेरु-सर्षपादि-विचित्र-भेदासिद्धिः । किं च दिग्-भेदेन परमाणूनां सावयवत्वावश्यं-भावेन निरवयवत्वं दुर्वचम् इति बोध्यम् ।