१३ शरीरविभागः

विश्वास-प्रस्तुतिः

५५. शरीरं द्वि-विधम् – नित्यम् अनित्यम् इति ।
तत्र नित्यं त्रि-गुण–द्रव्य–काल-जीव-शुभाश्रयात्मकम् ईश्वर-शरीरम्,
नित्य-सूरीणां स्वाभाविक-गरुड-भुजगादि-रूपं च ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - शरीर दो प्रकार का होता है - नित्य शरीर और अनित्य शरीर ।
नित्य शरीर ईश्वर का शरीर है, जो त्रिगुणद्रव्य, काल, जीव तथा शुभ आदि का आश्रय है ।
नित्यसूरियों का स्वाभाविक गरुड एव सर्पादि रूप शरीर भी नित्य शरीर है ।
अनित्य शरीर दो प्रकार का होता है—
अकर्मकृत शरीर तथा कर्मकृत शरीर ।
ईश्वर का महदादि रूप शरीर अकर्मकृत अनित्य शरीर है ।
इसी प्रकार अनन्त, गरुड, आदि नित्यसूरियों द्वारा तथा मुक्त जीवों द्वारा अपनी स्वेच्छा से गृहीत भी तत् तत् शरीर अनित्य हैं ।

कर्मकृत शरीर भी दो प्रकार का होता है-
अपने संकल्प से सहकृत कर्म-कृत शरीर तथा केवल कर्मकृत शरीर ।

स्वसङ्कल्पसहकृत कर्मकृत शरीर सौभरी आदि महापुरुषों का है ।
अस्मदादि का शरीर केवल कर्मकृत है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

शरीरों के भेद

भा० प्र०— ऊपर के अनुच्छेद में शरीर का लक्षण किया जा चुका है ।
विशिष्टा- द्वैती विद्वान् वैदिक वाक्यों के आलोक में इस अर्थ का प्रतिपादन करते हैं कि
सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का शरीर है और परमात्मा जगत् की आत्मा है ।
इसके अतिरिक्त संसार में भी शरीरधारियों के अनेक प्रकार के शरीर होते हैं ।

उन सभी लोक में उपलब्ध एवं वेदों में वर्णित शरीरों को दृष्टिपथ में रखकर
शरीरों का विभाग करते हुए कहा गया है कि शरीर दो प्रकार के होते हैं - नित्य एवं अनित्य ।
नित्य शरीर ईश्वर के निम्न शरीर हैं- प्रकृति, काल, जीव तथा शुभों का आश्रयभूत श्रीभगवान् का नित्य विग्रह है ।
ये सभी नित्य शरीर हैं ।
ये नित्य द्रव्य हैं तथा ईश्वर का शरीर बनकर रहते हैं । इसी प्रकार नित्यसूरि, जो गरुड, शेष इत्यादि हैं; उनका स्वाभाविक पक्षी तथा सर्प का शरीर नित्य शरीर है । इसी प्रकार अन्य नित्यसूरियों के भी शरीर नित्य शरीर हैं ।

मूलम्

५५. शरीरं द्विविधम् – नित्यमनित्यमिति । तत्र नित्यं त्रिगुणद्रव्यकालजीव- शुभाश्रयात्मकमीश्वरशरीरम् । नित्यसूरीणां स्वाभाविकगरुडभुजगादिरूपं च ।

वासुदेवः

शुभाश्रयेति । ‘आदित्य-वर्णम्’ (श्वे० ३।८) इत्य् आदि-श्रुति-प्रतिपादितम् ईश्वर-शरीरं शुभाश्रय-संज्ञकम् । गरुडादीनाम् इति । आदि-पदेन मुक्त-संग्रहः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५६. अ-नित्यं द्वि-विधम् – अ-कर्म-कृतं कर्म-कृतं चेति ।

प्रथमम् ईश्वरस्य महद्-आदि-रूपम्,
तथा अनन्त-गरुडादीनां च इच्छा-गृहीतं तत्-तद्-रूपम् ।

कर्मत्-कृतम् अपि द्वि-विधम् –
स्व-सङ्कल्प–सह-कृत-कर्म-कृतं केवल-कर्म-कृतं चेति ।
पूर्व महतां सौभरि-प्रभृतीनाम्, उत्तरं चान्येषाम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - शरीर दो प्रकार का होता है - नित्य शरीर और अनित्य शरीर ।
नित्य शरीर ईश्वर का शरीर है, जो त्रिगुणद्रव्य, काल, जीव तथा शुभ आदि का आश्रय है ।
नित्यसूरियों का स्वाभाविक गरुड एव सर्पादि रूप शरीर भी नित्य शरीर है ।
अनित्य शरीर दो प्रकार का होता है—
अकर्मकृत शरीर तथा कर्मकृत शरीर ।
ईश्वर का महदादि रूप शरीर अकर्मकृत अनित्य शरीर है ।
इसी प्रकार अनन्त, गरुड, आदि नित्यसूरियों द्वारा तथा मुक्त जीवों द्वारा अपनी स्वेच्छा से गृहीत भी तत् तत् शरीर अनित्य हैं ।

कर्मकृत शरीर भी दो प्रकार का होता है-
अपने संकल्प से सहकृत कर्म-कृत शरीर तथा केवल कर्मकृत शरीर ।

स्वसङ्कल्पसहकृत कर्मकृत शरीर सौभरी आदि महापुरुषों का है ।
अस्मदादि का शरीर केवल कर्मकृत है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अनित्य शरीर भी दो प्रकार के होते हैं - ( १ ) अकर्मकृत शरीर; अर्थात् उस शरीर के ग्रहण करने में पूर्वकृत कोई कर्म कारण नहीं होता । ( २ ) कर्मकृत अनित्य शरीर । इस प्रकार के शरीर के धारण करने में पूर्वकृत कर्म कारण होता है । अकर्मकृत शरीर प्रकृति से उत्पन्न होने वाले महान् तथा अहङ्कार आदि हैं। इस प्रकार उत्पन्न होने वाले सभी द्रव्य ईश्वर के शरीर हैं । परमात्मा इन शरीरों को अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार नहीं, अपितु स्वेच्छा से धारण करता है । अतएव ये शरीर अकर्मकृत हैं । नित्य सूरि-गण तथा मुक्त जीव अपनी इच्छा से जिन शरीरों को धारण करते हैं, वे भी अकर्मकृत शरीर हैं । मुक्त जीवों द्वारा अपनी स्वेच्छा से धारण किये जाने वाले शरीरों का वर्णन छान्दोग्योपनिषद् के आठवें प्रपाठक में उपलब्ध होता है ।
कर्मकृत शरीर भी दो प्रकार के होते हैं—अपने संकल्प के सहित कर्मकृत शरीर तथा केवल कर्मकृत शरीर । सौभरि आदि महापुरुषों का शरीर प्रथम कोटि का शरीर है । सौभरि महर्षि ने अपने संकल्पमात्र से पचास शरीर बनाया था। उनका यह योगशक्ति से सम्पन्न स्वसंकल्पसहकृत कर्मकृत शरीर है ।

केवल कर्मकृत शरीर क्षुद्र जीवों का है । हम लोगों का शरीर केवल कर्मकृत शरीर है ।

मूलम्

५६. अनित्यं द्विविधम् – अकर्मकृतं कर्मकृतं चेति । प्रथममीश्वरस्य महदादि-रूपम् । तथा अनन्तगरुडादीनां च इच्छागृहीतं तत्तत् रूपम् । कर्मकृतमपि द्वि- विधम् – स्वसङ्कल्पसहकृतकर्मकृतं केवलकर्मकृतं चेति । पूर्व महतां सौभरि-प्रभृतीनाम्, उत्तरं चान्येषाम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५७. पुनः सामान्यतो द्वि-विधम् – स्थावर-जङ्गम-भेदात् ।
स्थावराः शिला-वृक्ष-गुल्म-लतादयः +++(यत्र पापवशाद् अवसन्न् अहल्या-यमलार्जुनादयः)+++ ।
जङ्गमश् चतुर्धा – देव-मनुष्य-तिर्यङ्-नारकि-भेदात् ।

शिवप्रसादः (हिं)

प्रकारान्तर से भी शरीरों का दो भेद किया जाता है— स्थावर शरीर और जंगम शरीर । शिला, वृक्ष एवं गुल्म ( लता ) आदि का शरीर स्थावर शरीर है ।
जङ्गम शरीर चार प्रकार के होते हैं – देव शरीर, मनुष्य शरीर, तिर्यक् शरीर तथा नारकीय शरीर ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

यतीन्द्रमतदीपिकाकार दूसरे प्रकार से शरीर का विभाग करते हुए उसे दो भागों में विभक्त करते हैं -
जंगम शरीर और अजंगम शरीर ।
शिला, वृक्ष, गुल्म आदि स्थावरों का शरीर अजंगम शरीर है ।

शिला, वृक्ष आदि के भीतर भी अत्यन्त पापी जीव रहा करते हैं ।
जैसे अहल्या का शरीर शिला का शरीर था;
यह रामायणादि में वर्णित है ।
ऐसे यमलार्जुन का शरीर वृक्ष का शरीर था ।

जङ्गम शरीर चार प्रकार का होता है –
देव, मनुष्य, तिर्यक् और नारकीय ।

अवयव - सन्निवेश में भेद होने के कारण
ये चार प्रकार के शरीर वर्णित हैं ।
देव, असुर, यक्ष, राक्षस, आदि भी देवयोनि के अन्तर्गत हैं ।
भूलोक में रहने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि के शरीर मनुष्य शरीर हैं ।
पशु, पक्षी, सरीसृप आदि के शरीर तिर्यक् शरीर है
तथा रौरवादि नरकों में दुःखों का अनुभव करने वाले शरीर नारकीय शरीर हैं ।

मूलम्

५७. पुनः सामान्यतो द्विविधम् – स्थावरजङ्गमभेदात् । स्थावराः शिलावृक्षगुल्म-लतादयः । जङ्गमश्चतुर्द्धा – देवमनुष्यतिर्यङ्नारकिभेदात् ।

वासुदेवः

देव-मनुष्येति । असुर-यक्ष-राक्षसादयो ऽपि देव-योनयः । भूलोकवर्ति-ब्रह्म-क्षत्रिय-विट्-शूद्रादयो मनुष्य-योनयः । मृग-पक्षि-सरीसृपादयस् तिर्यग्-योनयः । नारकिणस् तु रौरवादिषु दुःखैकाश्रय-दुस्त्यज-विग्रहाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५८. उद्भिज्-ज–स्वेद-ज–जरायुजाण्डजादि-भेदा अपि विभाजक-धर्माः ।

+++(सीता-द्रौपद्यादिष्व्)+++ अ-योनिज-शरीराण्य् अपि सन्ति ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘अयोनिजे’**ति । ब्रह्मनारदादिदेवशरीराणां द्रौपदीधृष्टद्युम्नादिमनुष्यशरीराणामैरावतादितिर्यक्छरीराणामप्ययोनिजत्वमस्ति । उद्भिज्जानां वृक्षादीनामपि तथा । जरायु - गर्भवेष्टनम् । तज्जं पशुनरादिशरीरम् । अण्डजं पक्षिणां शरीरम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

प्रकारान्तर से भी शरीरों के चार भेद किये जाते हैं – ‘उद्भिज, स्वेदज, अण्डज, जरायुज और स्वेदज । इसके अतिरिक्त अयोनिज शरीर भी हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

शरीरों के विभाग का एक और भी प्रकार है- उद्भिज, स्वेदज, अण्डज एवं जरायुज । वृक्ष आदि के शरीर उद्भिज शरीर है, पक्षी आदि के शरीर अण्डे से उत्पन्न होने के कारण अण्डज शरीर हैं । पसीने से उत्पन्न शरीर स्वेदज हैं तथा जरायु ( गर्भ ) से उत्पन्न होने होने वाले यूका आदि के वाले
हम लोगों के शरीर जरायुज हैं ।

योनिज और अयोनिज के भेद से भी शरीर का विभाग हो सकता है; इस बात का निर्देश करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कहा कि अयोनिज शरीर भी होते हैं । जैसे—द्रोपदी एवं सीता का शरीर ।

मूलम्

५८. उद्भिज्जस्वेदजजरायुजाण्डजादिभेदा अपि विभाजकधर्माः । अयोनिजशरीराण्यपि सन्ति ।

वासुदेवः

अयोनिज-शरीराण्य् अपि इति । एतानि च देवादिषु त्रिष्व् अपि संभवन्ति । प्रजापति-मधु-कैटभ-धृष्टद्युम्नैरावत-स्वेदजादि-दर्शनात् । अत्र व्यष्टि-जीव-शरीराणाम् ईश्वरं प्रति शरीरत्वं सद्वारकम् अद्वारकं चेत्य् एके । सद्वारकं जीव-द्वारकम् । तच् चानुमान-सिद्धम् । अस्मद्-आदि-हस्त-पादादीनां जीव-द्वारेश्वर-नियाम्यत्व-दर्शनात् । किंतु सुषुप्ति-मूर्छाद्य्-अवस्थासु स्वाभाविकम् ईश्वर-नियाम्यत्वम् एव देह-देहिनोर् दृश्यते । इदम् अद्वारक-नियमनं सद्वारक-मात्रत्वे न स्यात् । अतो ऽद्वारकत्वम् अपि तस्य स्वीकार्यम् । न चाद्वारकत्व एकस्य युगपद् अनेकं प्रति शरीरत्वम् अनुपपन्नम् इति वाच्यम् । तल्-लक्षण-योगेन तद्-उपपत्तेः । अनेकं प्रति शेषत्वादिवत् । सद्वारकम् एवेत्य् अन्ये । सुषुप्त्यादिषु जीवस्य ज्ञानेच्छा-रहितत्वे ऽपि तत्-सत्ता-मात्रेण तद्-द्वारैव देह-नियमनात् । दिव्य-मङ्गल-विग्रहाद्य्-अचित्सु तु शरीरत्वम् अद्वारकम् एव ।

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