१० पृथिवीनिरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

४६. अप्-पृथिव्योर् मध्यमावस्था-विशिष्टं द्रव्यं गन्ध-तन्मात्रम्

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद – जल के पृथिवी रूप से परिणत होने के पूर्व दोनों के बीच में जी एक सूक्ष्मावस्था होती है, उस अवस्था से विशिष्ट जो द्रव्य होता है, उसे गन्धतन्मात्रा कहते हैं ।

मूलम्

४६. अप्पृथिव्योर्मध्यमावस्थाविशिष्टं द्रव्यं गन्धतन्मात्रम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४७. तस्मात् पथिवी ।
विशिष्ट-गन्धवत्त्वं,
रसवत्त्वे सति विशिष्ट-स्पर्शवत्त्वम्
इत्य्-आदि पृथिवी-लक्षणम् ।
सा सुरभिर्, मधुरा, कृष्णादि-रूपा, अनुष्णाशीत-स्पर्शवती च ।
पाक-ज-भेदात् तु विचित्र-वर्णा, विचित्र-रसा च ।
अस्याश् च मनो-घ्राणाप्यायकत्वेन उपकार-कत्वम् ।

मृत्-पाषाणान्नौषधादि-बहु-प्रकारवती
शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-गुणका धारण-हेतुश् च ।

शिवप्रसादः (हिं)

गन्धतन्मात्रा से पृथिवी उत्पन्न होती है । शान्तत्व, घोरत्व तथा मूढत्व इत्यादि से विशिष्ट गन्ध का आश्रय होना पृथिवी का पहला लक्षण है । रसवती होती हुई औष्ण्य तथा शीतत्व रहित स्पर्शवाली होना पृथिवी का लक्षण है । पृथिवी सुगन्धयुक्त, मधुर रसोपेत, कृष्ण रूप वाली, औष्ण्य एवं शैत्य रहित स्पर्श वाली है । पाक की भिन्नता के कारण विभिन्न प्रकारके वर्णों, रसों एवं गन्धों वाली होती है । पृथिवी की मिट्टी, पाषाण, अन्न तथा औषधियाँ आदि अनेक प्रकार के भेद हैं ।

इसमें पाँच गुण होते हैं— शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

पृथिवी - निरूपण

भा० प्र० - - ’ अद्भ्यः पृथिवी’ पृथिवी है । पृथिवी विशिष्ट गुण का [[८७]] तम का पृथिवी में अन्त-

पृथिवी का अवस्थान्तर द्रव्य मानना ठीक नहीं ।

श्रुति बतलाती है कि पृथिवी का उपादानकारण आश्रय होती है । अथवा रसवती होने के साथ-साथ वह विशिष्ट स्पर्श का आश्रय होती है ।

पृथिवी आरम्भ में सुगन्धयुक्त, मधुर- रसोपेत, कृष्ण रूप वाली, अनुष्ण एवं एवं अशीत स्पर्श सदा बना रहता है। कहीं उष्ण एवं शीत प्रतीत होती है। पर ही उसमें वे गुण अनुभूत होते हैं; से स्पष्ट है कि कृष्ण पृथिवी का रूप है । विसजातीयतेजस्संयोग रूप विभिन्न पाकों के कारण पृथिवी में अनेक प्रकार के रूप उत्पन्न होते हैं । पृथिवी में स्वाभाविक माधुर्य है । पृथिवी के मिट्टी, पाषाण आदि अनेक प्रकार हैं । वैशेषिक सूत्र में कहा भी गया है - ’ विषयो मृत्पाषाणस्थावरलक्षणः ।’ अर्थात् पृथिवी के विषय मृत्तिका, पाषाण तथा स्थावर पदार्थ हैं ।

अशीत स्पर्श वाली होती है । उसमें अनुष्ण तेज एवं जल आदि के संसर्ग से पृथिवी कहीं- क्योंकि जल एवं धूप इत्यादि के संसर्ग के होने अन्यथा नहीं । ‘यत् कृष्णं तदन्नस्य’ इस श्रुति

मूलम्

४७. तस्मात् पथिवी । विशिष्टगन्धवत्त्वं रसवत्त्वे सति विशिष्टस्पर्शवत्त्वमित्यादि पृथिवीलक्षणम् । सा सुरभिर्मधुरा कृष्णादिरूपा अनुष्णाशीतस्पर्शवती च । पाकज- भेदात्तु विचित्रवर्णा विचित्ररसा च । अस्याश्च मनोघ्राणाप्यायकत्वेन उपकारकत्वम् । मृत्पाषाणान्नौषधादिबहुप्रकारवती शब्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणका धारणहेतुश्च ।

वासुदेवः

सुरभिर् इति । स्वभावत इत्यादिः । विचित्र-रसा चेति । क्वचिद् द्रवत्वोपलम्भो ऽपि सलिलातपादि-योगाद् एव । तद्-गुणत्वाद् इति । तस्याः पृथिव्या गुणो नील-वर्णस् तद्-विशिष्टत्वात् । तद्-अवस्थेति । तमसः प्रकृति-विशेषावस्थत्वेन वायु-पर्यन्तेषु प्राकृत-पदार्थेषु रूपाभावेन तोय-तेजसोर् नील-रूपाभावेन च पारिशेष्यात् पार्थिवत्वं सिद्धम् । प्रयोगश् च - तमो द्रव्यं पार्थिवं च । अबाधित-नीलादि-प्रत्यय-विषयत्वात् । घटादिवत् । न च रूपि-प्रत्यक्षे आलोक-सहकृत-चक्षुषः कारणत्व-दर्शनात् तमः-प्रत्यक्षे तद्-अभावान् न तमसो रूपि-द्रव्यत्वम् इति वाच्यम् । न हि यत् क्वचिद् यद्-अपेक्षं तत् सर्वत्र तद्-अपेक्षम् इति नियमः । स्वेदादि-शैत्य-ग्रहे वायु-सापेक्षस्य स्पर्शनस्यौष्ण्य-ग्रहे तद्-अभाव-सापेक्षत्वात् । आलोक-अभाव-मात्रम् इति । काश्यपीयानाम् अयं पक्षः परंतु स न संभवति । तथा सत्यन्धस्योलूकादीनां चा ऽऽलोक-सत्त्व एवान्धकार-प्रतीतिर् जायते सा न स्यात् । अभावस्य प्राङ्-निरस्तत्वाच् च । अभाव-स्वरूपत्वे गाढत्व-विरलत्वाद्य्-अनुपपत्तेश् च । तमः ससर्ज भगवान् इति श्रुति-विरोधश् च । एतेन रूप-दर्शनाभाव-मात्रं तम इत्य् अपि निरस्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४८. तमसः पृथिव्याम् अन्तर्भावस् तद्-गुणत्वात्, तद्-अवस्थान्तरत्वाद् वा ।
अत एव आलोकाभाव-मात्रं तमः,
न द्रव्यान्तरम्
इत्य्-आदि-पक्षा निरस्ताः ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘तमसः’ इति । तमः पार्थिवं नीलरूपवत्वात् । स्पर्शानुद्भवाच्च तस्य न गतिप्रतिरोधकत्वम् इति बोध्यम् ।
तमसि मतान्तरं निरस्यति **‘अतएवे’**ति । आरोपितं नीलरूपमेव तम इति न्यायकन्दलीकारमतम् । आलोकाभावस्तम इति च काणादमतम् । उभयमपि प्रतीतिविरुद्धम् । अभिहितं च श्रुत्यन्तगुरुचरणैः “नैल्याद्भौमं तमिस्रं चठुलबहुलताद्यन्वयात्तन्न नैल्यम्” इति । द्रव्यान्तरं तम इति कौमारिलानं मतम् । तथा - चोक्तं

तमः खलु चलं नीलं परापरविभागवत् ।
प्रसिद्धद्रव्यवैधर्म्यान्नवभ्यो भेत्तुमर्हति ॥

इति (श्लो० वा०) । गौरवादेव मनमेतन्न साधीय इति बोध्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

तम का पृथिवी मे अन्तर्भाव होता है । क्योंकि तम पृथिवी का गुण है अथवा वह रूप है ।
अत एव तम प्रकाश का अभावमात्र है,
तम को इत्यादि पक्षों का खण्डन उपर्युक्त प्रतिपादन से हो ही गया ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अन्धकार का निरूपण - सिद्धान्त में अन्धकार को पार्थिव द्रव्य मानकर उसका पृथिवी में अन्तर्भाव माना जाता है । अन्धकार को द्रव्य इसलिए माना जाता है कि वह नील रूपका आश्रय है । उसके अन्धकार का नीलत्व अबाधित प्रतीति है, क्योंकि सभी अन्धकारों में नील रूप की उपलब्धि होती है । उसके नीलत्व का कभी भी बाध नहीं होता है । ‘यत् कृष्णं तदन्नस्य’ श्रुति के अनुसार पृथिवी का रूप कृष्ण है । नील रूपवान् होने के कारण ही इसे पार्थिव मानना पड़ता है ।

अन्धकार के विषय में कुछ वादियों के मत

( १ ) वैशेषिक कहते हैं कि प्रौढ प्रकाशयुक्त तेजःसामान्य का अभाव ही अन्धकार है ।

( २ ) दूसरे लोग कहते हैं कि बाहर प्रकाश रहने पर भी नेत्र को मींचने पर सबको. अन्धकार प्रतीत होता है; इससे सिद्ध होता है कि रूप- प्रतीति का अभाव ही अन्धकार है ।

( ३ ) कुछ लोग कहते हैं कि आकाश में व्याप्त परमाणुओं में विद्यमान नीले रूपमात्र की प्रतीति ही अन्धकार की प्रतीति है ।

ये तीनों मत इसलिए अनुपपन्न हैं कि अभाव निषेध रूप से प्रतीत होता है । परन्तु अन्धकार ‘अन्धकार है’ इस रूप से प्रतीत होता है । अतएव अन्धकार भावपदार्थ है, वह अभावपदार्थ नहीं हो सकता है । इसलिए अन्धकार को पार्थिव द्रव्य मानना अत्यावश्यक है ।

[[८८]]

अन्धकार का द्रव्यत्व- प्रतिपादन

अन्धकार के द्रव्यत्व का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है-

‘तमो नाम द्रव्यं बहलविरलं मेचकचलम् ।
प्रतीमः केनापि क्वचिदपि न बाधश्च ददृशे ॥
अतः कल्प्यो हेतुः प्रमितिरपि शाब्दी विजयते ।
निरालोकं चक्षुः प्रथयति हि तद्दर्शनवशात् ॥’

अर्थात् अन्धकार एक द्रव्य है, क्योंकि वह हमें घना, विरल, कृष्ण एवं चंचल दिखलायी देता है । तम के विषय में होने वाली इस प्रतीति का कभी बाध भी में इतना नहीं होता है । यहाँ पर प्रश्न उठता है कि दीप के बूझते ही सम्पूर्ण गृह बड़ा अन्धकार कैसे व्याप्त हो जाता है ?
तो इसका उत्तर यह है कि तदर्थ उचित उत्तर को ढूंढना होगा ।
जिस प्रकार दीप के जलते ही सम्पूर्ण गृह में व्याप्त होने की क्षमता प्रभा में होती है,
उसी तरह दीप के बूझते ही
सम्पूर्ण गृह में व्याप्ति की शक्ति अन्धकार में भी होती है ।

प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध तम के द्रव्यत्व का अपलाप नहीं किया जा सकता है ।

‘तमः ससर्ज भगवान्’ इत्यादि शास्त्र बतलाते हैं कि श्रीभगवान् ने अन्धकार की सृष्टि की । अन्धकार परमात्मा का शरीर है । इन वाक्यों से होने वाला शब्दबोध तभी प्रमात्व को प्राप्त कर विजयी होगा, यदि अन्धकार द्रव्य हो; क्योंकि द्रव्य की ही सृष्टि होती है तथा द्रव्य ही शरीर बन सकता है । अनुभवा- नुसार यह मानना चाहिए कि आलोक रहित चक्षु अन्धकार द्रव्य को उसी प्रकार प्रत्यक्ष करा देता है, जिस प्रकार आलोकाभाव को प्रत्यक्ष करा देता है ।

मूलम्

४८. तमसः पृथिव्यामन्तर्भावस्तद्गुणत्वात् तदवस्थान्तरत्वाद्वा ।
अत एव आलोकाभावमात्रं तमः, न द्रव्यान्तरमित्यादिपक्षा निरस्ताः ।

वासुदेवः

द्रव्यान्तरम् इति । कौमारिलैर् अङ्गीकृतो ऽयं पक्षः । स च गौरवाद् एव निरस्तः । इत्यादीति । आदिना नील-गुण-मात्रं तम इति पक्ष-संग्रहः । अयं च पक्षो नीलम् इति धर्मितया स्फुरणान् निराधार-नैल्योपलम्भायोगाच् च निरस्तः । न च तमसः पार्थिवत्वे तस्य तेजोगत्य्-आगत्य्-अनुविधानं कथम् इति वाच्यम् । यथा-दृष्टि-स्वभाव-व्यवस्थापनात् । यथा ऽयस्कान्त-स्थिति-गत्य्-अनुविधानं पृथग्-द्रव्यस्याप्य् अयसो दृश्यते तद्वत् । न च तमसः पार्थिवत्वे तद्-व्यवहितस्य प्रकाशस्थस्य घटादेः कथं प्रत्यक्षम् इति वाच्यम् । जलादेर् इव तमसः स्वभावाद् एव दृग्-गतेर् अविरुद्धत्वात् ।