विश्वास-प्रस्तुतिः
४४. तेजस्-सलिलयोर् मध्यमावस्था-विशिष्टं द्रव्यं रस-तन्मात्रम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – तेज का जल के रूप में परिणत होने से पहले तेज और जल के बीच में जो एक सूक्ष्मावस्था होती है, उस अवस्था से विशिष्ट द्रव्य का नाम रसतन्मात्रा है ।
मूलम्
४४. तेजःसलिलयोर्मध्यमावस्थाविशिष्टं द्रव्यं रसतन्मात्रम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४५. तस्माद् आपः ।
शीत-स्पर्शवत्त्वं,
निर्गन्धत्वे सति विशिष्ट-रसवत्त्वम्
इत्य्-आदि +अपां लक्षणम् ।
तासां शुक्ल-मधुर-शीतैक–स्व-भावानाम् आश्रयादि-संसर्ग-भेदात्
रूप-रस-स्पर्श-वैचित्र्यारोपः ।
ताः समुद्र-सरिद्-आदि-रूपेण बहु-प्रकाराः ।
शब्द-स्पर्श-रूप-रस-वत्यश् च
सेचन-पिण्डीकरणादि-हेतवः ।
शिवप्रसादः (हिं)
उस रसतन्मात्रा से जल की उत्पत्ति होती है। शीत स्पर्श वाला होना जल का प्रथम लक्षण है । गन्धरहित, शान्त, घोर एवं मूढ इन विशेषताओं से विशिष्ट रस से युक्त होना जल का द्वितीय लक्षण है । जल स्वभावतः शुक्ल, मधुर तथा शीतस्पर्श वाला होता है । आश्रयभेद के कारण अथवा संसर्गभेद के कारण उसमें रूप की भिन्नता, रस की भिन्नता तथा स्पर्श की भिन्नता का आरोप होता है । जल के समुद्र, नदी इत्यादि रूप से अनेक प्रकार होते हैं । जल में चार गुण पाए जाते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस । जल के द्वारा ही किसी वस्तु को सींचा जाता है तथा उसे गीला करके साना जाता है ।
मूलम्
४५. तस्मादापः । शीतस्पर्शवत्त्वं निर्गन्धत्वे सति विशिष्टरसवत्त्वम् इत्यादि अपां लक्षणम् । तासां शुक्लमधुरशीतैकस्वभावानाम् आश्रयादिसंसर्गभेदात् रूपरस- स्पर्शवैचित्र्यारोपः । ताः समुद्र सरिदादिरूपेण बहुप्रकाराः । शब्दस्पर्शरूपरसवत्यश्च सेचनपिण्डीकरणादिहेतवः ।